Thriller पिनाक (completed)

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दिसंबर की भयंकर सर्दियां पड़ रही थी। २० दिसंबर की सुबह वातावरण में अन्य दिनों की भांति बहुत ज्यादा सर्दी थी और कोहरा भी घना था।

रुस्तम भाई का नियम था कि वह सुबह छः बजे अपना बिस्तर छोड़ देते थे। उनकी अत्यंत रूपवती पत्नी प्राय: सात बजे सोकर उठती थी।

अन्य दिनों की भांति उस दिन भी वे छ: बजे नींद से जागे।

उन्होंने धीरे से रजाई को हटाने का प्रत्यन किया ताकि उनकी पत्नी की नींद न खुल जाए तो उन्होंने रजाई में कुछ गीलापन महसूस किया।

रुस्तम भाई ने थोड़ा विचलित होकर टेबल लैंप का स्विच ऑन किया और रजाई को हटाकर अपनी पत्नी की ओर देखा तो चीख मार कर बेहोश हो गए।

रुस्तम भाई के निजी सेवक भवानी ने चीख सुनकर उनके कमरे में प्रवेश किया, तो पाया कि वे बेहोशी की हालत में है और उनके पास बिस्तर में किसी सुंदर नवयुवती की लाश पड़ी हुई है।

भवानी ने सबसे पहले रुस्तम भाई के फैमिली डॉक्टर रोहित सिंगला को फोन किया फिर पुलिस स्टेशन में फोन कर घटना की जानकारी दी।

रुस्तम भाई भारत के प्रमुख दस उद्योगपतियों में एक थे, केवल ३२ साल की उम्र में उन्होंने यह गौरव हासिल कर लिया था।

इतने बड़े उद्योगपति के घर से इस तरह के समाचार मिलने पर सभी जगह हड़कंप मच गया।

रुस्तम भाई के अनुसार वह रात को १० बजे अपनी पत्नी के साथ सोए थे। जब सुबह ६ बजे वह नींद से जागे तो रजाई में कुछ गीलापन महसूस किया। उन्होंने टेबल लैंप ऑन करके देखा तो उनकी पत्नी अपने स्थान पर नहीं थी वरन् उसकी जगह किसी अन्य महिला का शव पड़ा हुआ था और इसके बाद वह बेहोश हो गये।

उस महिला के शव और रुस्तम भाई की पत्नी के फोटोग्राफ्स दिल्ली स्थित क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो व पूरे भारत वर्ष की पुलिस को वितरित कर दिए गए।

शव की पहचान मधु दास नामक प्रयागराज निवासी एक सामाजिक कार्यकर्ता तौर पर हुई।

तीन दिन पहले वह प्रयागराज से अचानक लापता हो गई थी।

मधु दास की मृत्यु किसी तेज धार वाले औजार से उसका दिल निकाल लिए जाने के कारण हुई।

उसे मारने से पहले उसके साथ कई बार बलात्कार किया गया था।

उसको रुस्तम भाई के बिस्तर में मौत के घाट नहीं उतारा गया था बल्कि किसी अन्य जगह उसका कत्ल करके लाश को वहां पहुंचा दिया गया था।

रुस्तम भाई की पत्नी कहां गायब हो गई यह नहीं पता चल सका।

अभी इस केस की जांच चल ही रही थी कि इसी प्रकार के अन्य मामले ने पूरे भारत में हंगामा कर दिया।

इस घटना के केवल तीन दिन पश्चात एक रात को प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता दिवाकर अपनी बेहद खूबसूरत पत्नी के साथ अपने आवास पर सोए।

सुबह उनकी नींद खुली तो उन्हें बिस्तर में अपनी पत्नी के स्थान पर रुस्तम भाई की पत्नी का शव प्राप्त हुआ।

पुलिस ने इस घटना के जो परिणाम निकाले, वह किसी भी प्रकार से रुस्तम भाई के साथ घटित घटना से भिन्न नहीं थे।

इसके बाद तो ऐसी घटनाओं का तांता ही लग गया।

कई व्यक्तियों की पत्नियां गायब हो गई और उनकी लाश दूसरों के बिस्तर में पाई गई।

अब तो पूरे देश में कयास लगाए जाने लगे कि कौन सी महिला गायब होगी और उसका शव किसके बिस्तर में पाया जाएगा।

अब तक विभिन्न प्रदेशों में दसियों हत्याएं हो चुकी थी और मरने वाली सभी महिलाएं अत्यंत खूबसूरत और जवान थी।

केन्द्र सरकार ने मामले का संज्ञान लिया और इसे सीबीआई को सौंप दिया।

सीबीआई ने समस्त देश से १०० सर्वाधिक सुंदर युवतियों का चयन कर उनकी चौबीस घंटे निगरानी और सुरक्षा का प्रबंध किया। यहां तक कि उनके बैडरूम में भी सीसीटीवी कैमरे लगाए गए।

इसके बाद जो अपहरण हुए, उनसे सीबीआई ने निष्कर्ष निकाला कि अपहरणकर्ता सिर्फ एक ही व्यक्ति है। वह छ: फीट से ऊपर के कद का, सुंदर चेहरे वाला और मजबूत कद-काठी का इंसान है।

उसका पूरा शरीर पर एक विशेष प्रकार की आभा से चमकता है।

वह अचानक प्रगट होकर बहुत तेजी के साथ महिला को उठा लेता है और उसकी जगह किसी अन्य औरत की लाश को रख देता है।

वह उस जगह अचानक कैसे प्रगट हो जाता है, नहीं पता चला।

उसकी पहचान स्थापित नहीं हो सकी।

यह मालूम नहीं चल सका कि अपहरणकर्ता ही हत्यारा है या वह किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह कार्य करता है।

हत्याओं के इस तरीके से यह समझ में आता था कि हत्यारा किसी मानसिक विकृति का शिकार है, परन्तु वह उन महिलाओं का दिल निकाल कर क्या करता है, यह भी नहीं मालूम हुआ।

अपहरण करने के बाद अपहरणकर्ता उन युवतियों को कहां ले जाता है, नहीं पता चल सका।

हत्यारे का लक्ष्य केवल सुंदर युवतियां ही थी, चाहे वे शादीशुदा हो या कुंवारी।

सीबीआई अपहरण और हत्याओं को नहीं रोक सकी, क्योंकि अपहरणकर्ता अचानक प्रगट होकर इतनी तेजी के साथ कार्य करता था कि उसको रोका नहीं जा सका।

इसके अतरिक्त उसकी मौजूदगी में वातावरण में एक अजीब सा सम्मोहन पैदा हो जाता था, जिसकी वजह से सुरक्षाकर्मी कोई भी कार्यवाही करने में नाकाम रहे और वह बहुत ही आराम से युवतियों को लेकर गायब हो गया।

मिलिट्री इंटेलिजेंस ने एक व्यक्ति को जिसका हुलिया अपहरणकर्ता से मिलता था, भारत-तिब्बत सीमा के पास गायब होते देखा।

सीमा के आस-पास कई किलोमीटर के इलाके में सुई को खोजने जैसी छानबीन की गई लेकिन उसका वहां भी कोई सुराग नहीं मिला।

अब यह समझा जाने लगा कि अपहरणकर्ता कोई परालौकिक सत्ता रखता है या किसी अन्य ग्रह का वासी है।

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इस कोण को ध्यान में रखकर मामले की जांच 'ब्लैक हॉक' (Black hawk) नामक भारत सरकार की एक विशेष संस्था को सौंपी गई।

यह संस्था केवल परालौकिक मामलों की ही जांच करती थी।

इसके एजेंट भारतीय प्राचीन विद्याओं जैसे योग, तंत्र, युद्ध कला तथा आधुनिक युद्ध कलाओं में भी पारंगत होते थे।

यह एक गोपनीय संस्थान था, जिसका पता देश में चुनिंदा अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को ही था।

इसके नई दिल्ली स्थित, हेडक्वार्टर का नाम 'हॉक हाउस' था।

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इस समय 'हॉक हाउस' में 'ब्लैक हॉक' संगठन के नम्बर वन एजेंट पिनाक, इस संस्था के प्रमुख अजय गुप्ता के सामने उनके कक्ष में बैठे हुए थे।

केस से संबंधित सभी सूचनाओं का पिनाक ने अध्ययन कर लिया था।

अजय गुप्ता ने पिनाक को संबोधित करते हुए कहा, "इतनी नवयुवतियों का अपहरण हो चुका, किंतु आज तक यह पता नहीं चल पाया कि अपहरणकर्ता कौन है?"

"अपहरण के बाद वह उनको कहां ले जाता है?"

"कौन उनका बलात्कार करने बाद उनका दिल निकाल लेता है और वह उस दिल का क्या करता है?"

"क्या अपहरणकर्ता एक मनुष्य है?"

"अगर वह मनुष्य है तो उसे क्या शक्तियां प्राप्त है जिससे वो अचानक प्रगट और गायब हो जाता है?"

"हत्यारा महिलाओं का दिल क्यों निकाल लेता है?"

"अगर वह मनुष्य नहीं है तो किस लोक का प्राणी है?"

अजय गुप्ता ने पिनाक को इस केस का कार्यभार सौंप कर कहा, "हमें इन सभी प्रश्नों के उत्तर तलाश करने है और दोषियों को गिरफ्तार या उनकी हत्या करनी है।"
 
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आजकल फिल्म इंडस्ट्री में एक नवोदित अभिनेत्री मोना कि बहुत चर्चा हो रही थी।

उसकी सुंदरता और सांचे में ढले हुए जिस्म को देखकर, चलते हुए व्यक्ति भी ठिठक कर रुक जाते थे।

इन दिनों मोना एक फिल्म की आउटडोर सैट पर शूटिंग कर रही थी। एक गीत का फिल्मांकन किया जा रहा था। गीत के बोल इस प्रकार थे -

आज आने दो बलम से पूंछूगी,
के सनम रात सौतन के घर क्यों रहे।
सुलगती रातों में और बहकते लम्हों में,
चांदनी का यूं बरसना,
सेज पर अग्न का ज्वलंत होना,
दहकते यौवन पर तुषारापात होना....
आज आने दो बलम से पूंछूगी,
के सनम रात सौतन के घर क्यों रहे।
सूनी शैया पर कोमल कली,
बिना खिले ही मुरझा गई,
भंवरे भी मधुर गुंजन,
गुनगुनाकर रह गए,
वक्त भी साकित नहीं हुआ,
अरमान भी मचलकर रह गए....
आज आने दो बलम से पूंछूगी,
के सनम रात सौतन के घर क्यों रहे।
मय से भरे पैमानें छलक गए,
नैना भी वितरागी हो उठे,
चंचल चित्त में भंवर उठने लगे,
मधुरिमा पर विराम लगने लगे,
मदन के तीर और भी,
रह-रहकर बदन में धंसने लगे.....
आज आने दो बलम से पूंछूगी,
के सनम रात सौतन के घर क्यों रहे।
(राजीव गर्ग)

एक तो गीत ही ऐसा और उपर से मोना की सुंदरता, वातावरण में एक अद्भुत श्रृंगार रस को उत्पन्न कर रही थी।

मोना की निगरानी और सुरक्षा का प्रबंध उसी दिन से करना आरंभ किया गया था।

दस ब्लैक-कैट कमांडो उसकी सुरक्षा में तैनात थे।

ये सभी कमांडो दृढ़ मनोबल के स्वामी थे और अत्याधुनिक हथियारों से लैस थे।

उनके बारे में कहा जाता था कि वे अर्जुन की तरह चिड़िया की आंख तक को भेदने में सक्षम है।

अगर हम अपने अतीत का मूल्यांकन करे तो पता चलेगा कि हमारे जीवन में कई घटनाएं केवल संयोगवश ही घटित हो गई।

ऐसा ही संयोग आज मोना की फ़िल्म शूटिंग के दौरान हुआ। जिस दिन से उसकी सुरक्षा शुरू की गई, उसी दिन दुर्घटना घटित हो गई।

शूटिंग में बेडरूम का दृश्य फिल्माया जा रहा था, मोना अधलेटी अवस्था में विरह के बोलों पर अभिनय कर रही थी कि अचानक अपहरणकर्ता प्रगट होकर मोना की तरफ बढ़ा।

ब्लैक कैट कमांडो भी पूरी तरह से चौकन्ने थे।

उन पर उसके सम्मोहन का प्रभाव तो पड़ा परंतु उतना नहीं जितना सैट पर मौजूद अन्य व्यक्तियों पर।

उन्होंने सतर्क होकर मोना के चारों ओर एक सुरक्षा दीवार बना ली।

लेकिन अपहरणकर्ता उनका थोड़ा सा भी प्रभाव माने बगैर आगे बढ़ा और मोना के आगे खड़े एक कमांडो को तिनके की तरह उठा कर फेंक दिया।

यह देख कर बाकि कमांडो ने उसको प्वाइंट ब्लैक शूटिंग पर धर लिया।

लेकिन अपहरणकर्ता के शरीर से टकराकर गोलियां इस तरह से छिटकने लगी जैसे उस पर गोलियों की नहीं वरन् चनों की बौछार हो रही हो।

अपहरणकर्ता ने मोना के अपरहण में बाधा बने दस कमांडो में से ६ की केवल हाथ-पैरों की सहायता से हत्या कर दी।

बचे हुए चार कमांडो भी बेहोशी के कारण मृत्यु से बच सके, और वह मोना को लेकर चंपत हो गया।

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लेकिन पिनाक भी कच्चे खिलाड़ी नहीं थे, उन्होनें भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र के अधिकारियों को पहले ही सतर्क रहने के निर्देश दे दिए थे।

उन निर्देशों के अनुसार सैटेलाइट के द्वारा रहस्यमयी अपहरणकर्ता के गमन का एक मैप तैयार किया गया।

अब पिनाक के सामने मोना के अपहरण के सभी फोटोग्राफ और विडियोज मौजूद थे।

उन फोटोग्राफ और विडियोज में फिल्म निर्माण के दौरान काम कर रहे कैमरों और निगरानी कर रहे सुरक्षाकर्मियों के कैमरों में मौजूद दोनों तरह की तस्वीरें थी।

इसके अलावा भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र द्वारा अपहरणकर्ता के मोना को लेकर भागने का मैप भी था।

फिल्म निर्माण के दौरान सैट पर मौजूद तस्वीरों के विश्लेषण से कुछ ख़ास परिणाम नहीं निकले, केवल अपहरणकर्ता की सूरत और उसके लड़ने के तौर-तरीकों का ही पता चल सका।

इन फोटोग्राफ और विडियोज से यह पता चला कि वह प्राचीन युद्ध कला के अनुसार लड़ रहा था और ट्रेंड कमांडोज के साथ भी तिनकों के समान व्यवहार कर रहा था।

परन्तु भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र के मैप से बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई।

उस जानकारी के अनुसार अपहरणकर्ता भारत-तिब्बत सीमा पर अति दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में जाकर गायब हो गया था।

मिलिट्री इंटेलिजेंस ने भी इस मैप की पुष्टि कर दी। उन्होने भी अपहरणकर्ता को उसी क्षेत्र में गायब होते देखा था।

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महाश्मशान में स्थित दक्षिण काली के मंदिर में देवी के विग्रह के सामने एक अघोरी मंत्र जाप में तल्लीन था।

दक्षिण काली की मूर्ति भयानक दिखाई देती थी।

चार भुजाओं वाली देवी के गले में मानव खप्परों की एक माला सुशोभित थी जोकि उनके वक्ष स्थल को ढकते हुए नाभि स्थल के नीचे तक पहुंचे हुए थी।

उनके बाल खुले हुए थे, उनका एक हाथ अभय की मुद्रा को प्रदर्शित कर रहा थऔर अन्य हाथों में विभिन्न आयुध थे।

ध्यान से देखने पर उनके भयानक स्वरूप में करुणा मिश्रित हंसी दिखाई देती थी।

अघोरी का रूप भी कम भयानक नहीं था, उसके बाल खुले हुए थे, और वह वीर भाव से भगवती की वामाचार विधि से आराधना कर रहा था।

मंत्र जाप करते हुए अघोरी बार-बार मां से वरदान की कामना कर रहा था।

"माता कितने ही वर्ष व्यतीत गए तेरी तपस्या करते हुए, परंतु तुम प्रसन्न नहीं हुई।"

बारम्बार रोते हुए भगवती के चरणों में गिरता हुआ अघोरी भवानी से उनका तेज प्रदान करने की प्रार्थना करता है।

हे माता, 'कृपा करें', 'अनुगृहित करे', 'अनुकंपित करे', 'आप्यायित करे'।

वहां स्थापित हवन कुंड में अघोरी अनेक पदार्थों की आहुतियां दे रहा था, जिनमें सुगन्धित मदिरा और किसी प्राणी का कच्चा मांस भी था।

अघोरी के निरंतर आराधना करते हुए पता नहीं कितना समय व्यतीत हो गया।

अचानक मंदिर का वातावरण दिव्य अनुभूतियों से भरने लगा।

मंदिर के बाहर की हवा तेज गति से चलने लगी, बिजलियां कड़कने लगी और मंदिर के अंदर भगवती दक्षिण काली अघोरी के सामने प्रगट हो गई।

अघोरी भगवती के चरणों में गिर पड़ा।

भगवती ने कहा, "वत्स तुम्हारी आराधना से मैं संतुष्ट हूं, तुम पर प्रसन्न हूं, बताओ तुम्हे कौन सा वर प्रदान करूं।"

हे मात:, "तुम्हारे दर्शन के बाद मुझे जन्मों-जन्मों के पुण्य फल प्राप्त हो गए।"

"माता, तुम्हारी ही भक्ति का वरदान चाहता हूं।"

"भवानी, तुम्हारे चरणों की धुली में निरंतर पड़ा रहना चाहता हूं।"

हे पुत्र, "मैं तुम्हे यह वरदान तो देती ही हूं।"

"मेरे दर्शन का यह फल तो हर प्राणी को मिलता ही है।"

"किंतु वत्स भौतिक जगत में रहने के लिए भी तुम मुझसे कुछ वरदान प्राप्त करो।"

"मैं तुम पर प्रसन्न हो कर यह कह रही हूं", भगवती ने कहा।

'हे माता', 'हे भगवती', 'हे चतुर्भुजी', 'हे संसार का पालन, पोषण और संहार करने वाली देवी'....

"यदि आप मुझ पर इतनी ही प्रसन्न है, तो कृपया करके मुझे अपना तेज प्रदान करें।"

भगवती दक्षिण काली ने पल भर विचार किया और अघोरी से कहा -

"वत्स, मेरा तेज ग्रहण करने के लिए तुम पूरी तरह से योग्य हो।"

"तुमने इन्द्रियों को जीत लिया है और लोभ, मोह, अहंकार इत्यादि दोषों से पूर्णतया दूर हो।"

"तुम्हारे हृदय में केवल मेरी भक्ति ही विराजमान रहती है।"

"तुम्हारा मन निश्चल है और एक बालक की तरह पवित्र है।"

"किंतु यह वर तुम्हारी नियति में नहीं है।"

"हालांकि, मैं तुम्हारी नियति को बदल सकती हूं, लेकिन यह मेरी ही बनाई हुई व्यवस्था में हस्तक्षेप करने तुल्य होगा"।

"खैर जो होना होता है, वहीं होता है, जो होने वाला नहीं है वह नहीं होता।"

"तो हे पुत्र! तुम सावधान हो जाओ और मेरा तेज धारण करो।"

"इस तेज को धारण करने से तुम अक्षय यौवन के स्वामी होगे।"

"तुम्हारी उम्र हज़ारों वर्ष की होगी।"

"तुम्हें भोग, योग और मोक्ष तीनों पदार्थों की प्राप्ति होगी।"

यह कहकर महादेवी ने अपने तेज का प्रक्षेपण अघोरी की ओर किया।

तभी अचानक एक अन्य पुरुष वहां प्रगट हुआ और उसने अघोरी पर भयंकर पदाघात किया।

वैसे तो अघोरी एक मजबूत शरीर का स्वामी था लेकिन अचानक हुए पदाघात से दूर जा पड़ा और उस अन्य पुरुष ने भगवती के उस महातेज को ग्रहण कर लिया।

अपने वरदान को बीच में ही किसी अन्य पुरुष द्वारा चुरा लिए जाने से अघोरी ने क्रोधित होकर उस पुरुष पर हमला कर दिया।

नीच, पापी, चोर, दस्यु आदि संज्ञाओं से विभूषित कर उस पर आक्रमण करने लगा।

उस अन्य पुरुष का शरीर जहां पहले किसी रोग से पीड़ित और कमजोर दिखाई देता था, भगवती के तेज को धारण करने से एक अपूर्व तेज से चमकने लगा।

उसे अपने अंदर अभूतपूर्व यौवन और ताकत महसूस होने लगी।

उसने हंसते हुए अपने बाएं हाथ से अघोरी की गर्दन पकड़ ली और दाएं हाथ की मुष्टिका को उसके सिर पर प्रहार करने के लिए उठाया।

लेकिन तभी, भगवती का तीक्ष्ण स्वर वहां गूंजा -

"सावधान, राजकुमार - तुम मेरे भक्त पर पदाघात करके और मेरे दिए हुए वरदान को दस्यु वृत्ति द्वारा चुराकर पहले ही महान अपराध के भागी बन चुके हो।"

"अब अगर तुमने मेरे भक्त पर कोई प्रहार करके दूसरा अपराध किया तो तुम्हारा जीवन पलक झपकते ही ख़ाक में मिल जाएगा।"

अन्य पुरुष भगवती के इन वचनों को सुनकर भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़ा -

त्राहिमाम! त्राहिमाम! त्राहिमाम!

क्षमाप्रार्थी हूं माते, क्षमाप्रार्थी हूं!

हे माता, सारी सृष्टि आपकी ही उत्पन्न की हुई है!

हे भगवती, मैं तो आपका सेवक मात्र हूं!

हे दयानिधे, दया करे!

हे जगत जननी, हे भगवती - मेरे अपराधों को क्षमा करें!

इसके अलावा उसने कई तरह के विशेषणों द्वारा भगवती की आराधना की, जिससे वे संतुष्ट हो गई और कहा -राजकुमार! तुमने कार्य तो मृत्यु दण्ड का किया है।"

"किंतु तुम्हारा नियति चक्र तुम्हें यहां खेंच लाया है और मेरा तेज तुम्हें भाग्यवश ही प्राप्त हुआ है।"

"तुम्हें जो शक्तियां प्राप्त हुई है, अगर तुम उनका दुरुपयोग करोगे तो ये लंबे समय तक तुम्हारा साथ नहीं देगी।"

"मैं यह भी जानती हूं कि तुम मेरी चेतावनी के बाद भी इनका सदुपयोग यानी सृष्टि के कल्याण के लिए नहीं करोगे।"

"तुम्हारा यही कार्य तुम्हें मृत्यु के मार्ग पर ले जाएगा और मेरे ही एक भक्त के हाथों तुम मृत्यु को प्राप्त होगे।"

"चूंकि तुमने यह महातेज चुराया है, अतः ये तुम्हारे हित में उतना प्रभावशाली नहीं होगा, जितना मेरे भक्त अघोरी के पक्ष में होता।"

यह कहकर भगवती अन्तर्ध्यान हो गई।

अन्य पुरुष भी अघोरी को अहंकार की नजरों से देखते हुए वहां से गायब हो गया।

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प्राचीन भारत में किसी समय विजयगढ़ नामक एक नगर था, जिसमें परमप्रतापी राजा विक्रमदेव राज्य करते थे।

महाराज विक्रमदेव के शासन में प्रजा प्रत्येक प्रकार से प्रसन्न थी।

घर-घर में महाराज के सुशासन और न्यायप्रियता के गीत गाए जाते थे।

बहुत समय तक उनके संतान नहीं हुई तो उन्होंने भगवती दक्षिण काली की आराधना की, जिसके फलस्वरूप उनको पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई।

पुत्र की प्राप्ति पर महाराज प्रसन्न तो बहुत थे, लेकिन अक्सर भगवती के उन वचनों को याद करके चिंतित हो उठते थे, जब महादेवी ने उनको पुत्र प्राप्ति का वरदान देते समय कहे थे, यथा -

"राजन, तुम अगर पुत्र प्राप्ति कि इच्छा नहीं करते तो तुम्हारे हित में अच्छा रहता।"

"यह पुत्र तुम्हारी कीर्ति को अपकीर्ति में बदल कर रख देगा।"

"यह जन-जन का द्रोही होगा और तुम इससे सुख प्राप्त नहीं कर सकोगे।"

"यह मेरे आशीर्वाद के फलस्वरुप जन्म लेगा, अतः समय आने पर इसको मेरी शक्तियों के अंश की प्राप्ति भी होगी।"

"लेकिन उन शक्तियों के दुरुपयोग के कारण मेरे ही भक्त के हाथों मृत्यु को प्राप्त होगा।"

पुत्र का नाम शक्तिदेव रहा गया। ज्यों-ज्यों शक्तिदेव की उम्र बढ़ती गई, भगवती के वचनानुसार उसका शैतानी स्वभाव जनता के समक्ष प्रगट होता गया।

सुंदर युवतियों को उसके अनुचर उठा लाते, विरोध करने पर उन युवतियों के पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया जाता।

इस अन्याय के समाचार महाराज विक्रमदेव तक भी पहुंचते थे, लेकिन महाराज पुत्र-मोह के वशीभूत अपने को विवश पाते थे।

इसके अतरिक्त समय पाकर शक्तिदेव ऐसा मजबूत विष-वृक्ष बन गया जिसको काटना अब असंभव था।

इसी बीच प्रजा को शक्तिदेव की तरफ से कुछ राहत मिली, जब वह राज्य के पश्चिमी सीमांत इलाके में शिकार खेलने के लिए चला गया।

उस इलाके में वह मृगों के झुंड का पीछा करते हुए एक अत्यंत शक्तिशाली नरभक्षियों के कबीले में जा पहुंचा, जिनसे महाराज विक्रमदेव भी मुकाबला करने में संकोच करते थे।

कहना नहीं होगा कि राजकुमार को बंदी बना लिया गया।

हालांकि उसने बड़े ही पराक्रम के साथ उन नरभक्षियों का मुकाबला किया लेकिन उसका जोर नहीं चल सका और उसे पराजित होना पड़ा।

राजकुमार को सरदार गंटारू के सामने प्रस्तुत किया गया।

जब सरदार को पता चला कि वह महाराज विक्रमदेव का पुत्र राजकुमार शक्तिदेव है तो उसकी खुशी का पारावार नहीं रहा।

सरदार की विक्रम देव के साथ दुश्मनी बहुत पुरानी थी क्योंकि विक्रम देव हमेशा उन नरभक्षियों के मानवता विरोधी कार्यों में एक बड़ी चट्टान की तरह बाधा बन कर खड़ा रहता था।

किंतु जब सरदार को पता चला कि राजकुमार शक्तिदेव एक नीच श्रेणी का मनुष्य है और अपने ही राज्य में घृणित कार्य कर रहा है, तो उसने राजकुमार के जरिए महाराज विक्रमदेव को नीचा दिखाने की सोची।

उसने राजकुमार को मुक्त कर दिया और अच्छी तरह से आदर-सत्कार करने के बाद, शक्तिदेव को कुछ समय कबीले में मेहमान बनकर रहने को कहा।

इसी दौरान राजकुमार की नजर सरदार गंतारू की पुत्री मंदारी से लड़ गई थी और मंदारी के ही लोभ में उसने उस कबीले में रहने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

मंदारी थी भी अत्यंत रूपवती, सांचे में ढले हुए उसके जिस्म को देखकर राजकुमार की शिराओं में रक्त ज्वालामुखी की तरह उबलने लगा था।

मंदारी शहरी बालाओं की तरह कोमल नहीं थी, वरन् उसका शरीर चट्टान की तरह मजबूत था।

उसके उन्नत वक्ष-स्थल और पतले कटि प्रदेश को देखकर राजकुमार उस पर विमोहित हो गया।

सरदार भी अपने गूढ़ उद्देश्य कि प्राप्ति होते देख अत्यंत प्रसन्न हो गया और उसने मंदारी को राजकुमार से मिलने की अनुमति से दी।

वैसे भी उस कबीले में काम पर कोई बंधन नहीं था।

कोई भी नर-नारी पसंद आने पर एक-दूसरे के साथ स्वतंत्रतापूर्वक रह सकते थे।

मानव-मांस तो उन नरभक्षियों को बहुत ही कम प्राप्त होता था।

किसी मानव के जाल में फंस जाने पर कबीले में उत्सव मनाया जाता था और उसका मांस पूरे कबीले में बांटा जाता था।

नर-मांस तो कबिलाइयों को प्रसादवत ही प्राप्त होता था, इसलिए उनकी जीविका का आधार मुख्यत: शिकार पर आधारित था।

मंदारी और राजकुमार भी प्रतिदिन शिकार पर जाते थे।

राजकुमार तो एक कुशल शिकारी था ही, मंदारी भी एक ही बाण में सिंह जैसे शक्तिशाली जानवर को भी मार गिराती थी।

राजकुमार और मंदारी का उन्मुक्त सहवास चल ही रहा था कि एक दिन एक मानव दुर्भाग्यवश उन कबिलाइयों के फंदे में फंस गया।

बड़ा भारी उत्सव मनाया गया।

उस मानव का वध करके, पहले तो उसका मांस देवता को अर्पित किया गया फिर सरदार ने उसका दिल निकालकर राजकुमार को भेंट कर दिया।

राजकुमार कोई नरभक्षी तो था नहीं, लेकिन सरदार के जोर देने पर, जिसमें यह धमकी भी शामिल थी कि कबीले में रहने वाला कोई भी व्यक्ति चाहे स्थायी निवासी होया कोई मेहमान, उसको नर-मांस का सेवन करना ही पड़ता है, वरना वह कबीले में नहीं रह सकता।

कबीला छोड़ने का अर्थ था, मंदारी को छोड़ना और यह त्याग राजकुमार करना नहीं चाहता था।

अंततः उसको मानव बलि के दिल का भक्षण करना ही पड़ा।

पाठक यह भी ध्यान रखे कि राजकुमार एक अत्यंत ही दुष्ट प्रकृति का मनुष्य था।

मासूम लड़कियों का बलात्कार और निर्दोष प्रजाजनों का वध करना ही उसके प्रमुख कार्य थे।

इसीलिए ऐसी दुष्ट प्रकृति वाले इंसान को सरदार द्वारा नर-मांस खिलाकर पतन के गहरे गड्ढे में धकेलना संभव हुआ।

इस घटना के उपरांत तो राजकुमार का सारा संकोच दूर हो गया और वह पूरी तरह नरभक्षी हो गया।

इस प्रकार कबीले के सरदार गंटारु का वह गूढ़ उद्देश्य पूरा हो गया जिसके तहत वह राजकुमार को नरभक्षी बनाकर, महाराज विक्रमदेव से बदला लेना चाहता था।

फिर एक दिन ऐसा आया कि मंदारी आखेट के समय सिंह के हमले का शिकार होकर मारी गई।

मंदारी की मृत्यु के पश्चात राजकुमार का दिल उस कबीले से उचाट हो गया और वह वहां से पलायन करने की सोचने लगा।

जब सरदार को उसकी इस सोच का पता चला तो उसने राजकुमार को कबीले की दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर यात्रा करने की सलाह दी।

हालांकि राजकुमार अपने राज्य में वापिस जाना चाहता था, लेकिन सरदार की तो अपनी एक योजना थी।

वह राजकुमार को दक्षिण-पश्चिम दिशा में इसलिए भेजना चाहता था कि वहां आर्य ऋषियों के आश्रम थे।

ऋषियों के तपोबल से सरदार बहुत भयभीत रहता था और कभी भी उनकी ओर जाने का साहस नहीं कर पाता था।

सरदार ने राजकुमार को ऋषियों की कोमलांगी पत्नियों और कन्याओं के बारे में बताया तो राजकुमार उस दिशा में जाने को उत्सुक हो उठा।

सरदार ने राजकुमार को उन ऋषियों के तपोबल के बारे में नहीं बताया।

क्योंकि वह जानता था कि राजकुमार उधर जाकर निश्चित रूप से ऋषियों के कोप का भाजन बनेगा और दण्ड को प्राप्त होगा

जिससे वह महाराज विक्रम देव से दुश्मनी में एक कदम और बढ़त हासिल कर सकेगा।

अंतरगोत्वा हुआ भी यही, राजकुमार उस दिशा में जाकर अपने दुष्कर्मों से बाज नहीं आया और एक ऋषि के श्राप वश कोढ़ी हो गया।


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राजकुमार किसी तरह मर-पड़कर अपने राज्य में पहुंचा।

हालांकि महाराज विक्रम देव राजकुमार से प्रसन्न नहीं थे किन्तु पुत्र-मोह के वशीभूत उन्होंने उसकी परिचर्या का प्रबंध करवा दिया।

राजवैद्य आचार्य भूषण ने नाड़ी देखकर महाराज को बताया कि यह रोग आयुर्वेद की पहुंच से बाहर है।

उन्होंने यह भी बताया कि राजकुमार को यह रोग वात, पित्त या कफ के बिगड़ने से नहीं हुआ।

उनके अनुमानानुसार यह किसी दुर्घटना का परिणाम था।

ज्यों-ज्यों दिन पे दिन गुजरने लगे त्यों-त्यों राजकुमार मृत्यु को अपने नजदीक आता महसूस करने लगा।

उन्हीं दिनों महाराज के कुलगुरु महान तांत्रिक और योगाचार्य भैरवानंद का आगमन हुआ।

भैरवानंद उस काल के महान तांत्रिक थे, जिनको तंत्र और योग दोनों में सिद्धि प्राप्त थी।

उन्होंने अपने तपोबल से राजकुमार के साथ हुई घटना को जानकर महाराज को बताया।

महाराज यह जानकर अति दु:खी हुए कि राजकुमार ने ऋषि कन्याओं को अपनी घृणित वासना का शिकार बनाया।

लेकिन मोहवश महाराज बारम्बार भैरवानंद के चरणों में गिरकर राजकुमार की जान बचाने की प्रार्थना करने लगे।

भैरवानंद ने महाराज को राजकुमार के कबीले में प्रवास और नर-मांस भक्षण के बारे में भी बताया।

उन्होने कहा, "महाराज, ऐसे नरभक्षी और बलात्कारी पुरुष को बचाने का क्या लाभ?"स्वस्थ होकर यह अन्य उपद्रव करेगा और प्रजाजनों को अधिक कष्ट देगा।"

किन्तु महाराज ने विनम्रता कि हद कर दी, वे भैरवानंद के चरणों में लोट गए और अपना मस्तक उनके पैरों में रख दिया।

द्रवित होकर भैरवानंद ने ध्यान लगाकर बताया, "महाराज, राजकुमार के शाप विमोचन का एक ही उपाय है।"

"विक्रमी संवत __ के मास___ की तिथि __ को एक अघोरी भगवती दक्षिण काली के तेज को वरदान स्वरूप ग्रहण करेगा।"

"अगर किसी तरह राजकुमार वह तेज बीच में ही ग्रहण कर ले तो बात बन सकती है।"

"उस तेज को प्राप्त कर राजकुमार महान तेजवान, बलशाली होगा और मृत्यु भी उसके नजदीक आने पर हिचकिचाएगी।"

"लेकिन भगवन, सैकड़ो वर्ष बाद अघोरी को प्राप्त होने वाले भगवती के तेज को राजकुमार कैसे ग्रहण कर सकता है?"

"क्या, कोई साधारण मनुष्य इतने वर्ष तक जीवित रह सकता है?"

भैरवानंद के चेहरे पर एक करुणा भरी मुस्कान आयी और उन्होंने महाराज से कहा, "यह सब तो संभव हो जाएगा।"

"मैं अपने योगबल द्वारा राजकुमार को समय के उसी क्षण में पहुंचा दूंगा, जब वह अघोरी महादेवी के तेज को ग्रहण कर रहा होगा।"

"किन्तु महाराज, एक बार और विचार कर ले।"

"राजकुमार जैसे नराधम को जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है।"

"महादेवी के तेज को प्राप्त करने के बाद इसको पराजित करना अत्यंत दुष्कर कार्य होगा और शक्ति के घमंड में यह अत्याचारों की सीमा को भी लांघ देगा।"

"मैंने विचार कर लिया है भगवन्, आप राजकुमार को समय के उस महत्वपूर्ण क्षण में पहुंचाने की कृपा करें।"

"अगर यह उस महान शक्ति को प्राप्त कर, उद्दंडता करेगा तो भगवती किसी-न-किसी शक्ति को उसे दण्ड देने के लिए अवश्य भेजेंगी।"

महादेवी दक्षिण काली ने इसके जन्म का वरदान देते समय कहा भी था -

"यह मेरे आशीर्वाद के फलस्वरुप जन्म लेगा। अतः समय आने पर इसको मेरी शक्तियों के अंश की प्राप्ति भी होगी, लेकिन उन शक्तियों के दुरुपयोग के कारण मेरे ही भक्त के हाथों मृत्यु को प्राप्त होगा", महाराज ने कहा।

तांत्रिक व योगाचार्य भैरवानंद भी इस भविष्यवाणी को जानते थे।

अतः भावी को निश्चित जानकर उन्होने राजकुमार को अपने याेगबल से समय के उस क्षण में पहुंचा दिया, जब महादेवी अपने तेज का प्रक्षेपण वरदान स्वरूप अघोरी को ओर कर रही थी।

आगे का घटनाक्रम तो पाठक जानते ही है कि किस प्रकार राजकुमार ने भगवती दक्षिण काली के तेज को प्राप्त किया था। तथा वह कातिल जो सुंदर युवतियों का अपहरण और बलात्कार करता था, वह राजकुमार शक्तिदेव है।

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पिनाक इस समय प्रसिद्ध विद्वान गिरीश भटनागर के निवास स्थान पर उनके समक्ष उपस्थित थे।

गिरीश भटनागर अस्सी वर्ष के एक वृद्ध व्यक्ति थे।

उनकी भौंहों तक के बाल सफेद हो चुके थे, लेकिन इस उम्र में भी वे तन कर चलते थे।

उनके चेहरे पर असीम तेज था और शरीर की बनावट से यह पता नहीं चलता था कि उनकी उम्र अस्सी वर्ष की है।

गिरीश भटनागर ने अपनी उम्र का काफ़ी हिस्सा तिब्बत में, वहां के रहस्यों को जानने के लिए, बिताया था।

चूंकि कातिल के रहस्य के तार भारत-तिब्बत सीमा क्षेत्र से जुड़े पाए गए थे और गिरीश भटनागर भारत में तिब्बत मामलों पर मौजूदा समय के सबसे बड़े विद्वान थे, इसीलिए पिनाक ने उनसे मिलना उचित समझा।

पिनाक ने फोन पर गिरीश भटनागर से मुलाकात का समय लिया और सुबह दस बजे नई दिल्ली स्थित उनके आवास पर जा पहुंचे।

पिनाक जब भी किसी भी व्यक्ति से सरकारी काम के उद्देश्य से मिलते थे, तो अपने आप को सीबीआई के उच्चाधिकारी के रूप में प्रस्तुत करते थे।

इस हेतु उनके पास सीबीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर होने का पहचान पत्र (जिसका विवरण नई दिल्ली स्थित सीबीआई के हेडक्वार्टर में भी दर्ज था, ताकि उनकी पहचान ब्लैक हॉक के एक अधिकारी के रूप में सुरक्षित रह सके) और विजिटिंग कार्ड होते थे।

पिनाक ने गिरीश भटनागर के आवास के दरवाजे की घंटी बजाई तो लगभग तीस वर्षीय एक व्यक्ति ने दरवाजा खोला।

रामकुमार नामक यह व्यक्ति गिरीश भटनागर के सभी कार्य संभालता था यानि कि उनका पीर, बावर्ची, भिस्ती, खर इत्यादि सब कुछ था।

पिनाक ने बड़ी ही शालीनता के साथ रामकुमार को गिरीश भटनागर के साथ अपनी मुलाकात तय होने के बारे में बताया और अपना विजिटिंग कार्ड उसे सौंपा।

रामकुमार ने विजिटिंग कार्ड को देखा और दरवाजे से एक तरफ हटते हुए पिनाक से कहा, "साहब उनका ही इंतजार कर रहे है।"

इसके उपरांत वह पिनाक को भटनागर जी के सम्मुख लेे आया।

गिरीश भटनागर इस समय अपनी स्टडी में मौजूद थे।

उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से पिनाक की तरफ हाथ मिलाने के लिए बढ़ाया।

लेकिन पिनाक ने हाथ मिलाने की बजाय उनके पैरों की तरफ हाथ बढ़ाया।

"अरे, ये क्या करते हो, पिनाक जी, आप सीबीआई के इतने बड़े अधिकारी, मेरे चरण स्पर्श करें।"

"भटनागर जी, आप की विद्वता के सामनेमेरा पद कुछ भी नहीं।"

"कृपा करके मुझ नाचीज़ को आप की बजाय तुम कह कर संबोधित करें तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता होगी", पिनाक ने कहा।

पिनाक के भव्य व्यक्तित्व से वैसे ही गिरीश भटनागर बहुत प्रभावित थे किन्तु साथ ही पिनाक की विनम्रता ने उन पर जादू का असर किया।

कुछ की पलों में वे ऐसे हो गए जैसे वर्षों से एक-दूसरे को जानते हो।

भटनागर जी ने रामकुमार को चाय-नाश्ता लाने की लिए कहा।

चाय नाश्ते के बाद भटनागर जी ने पिनाक से कहा, "अगर मैं तुम्हे बेटा कहकर संबोधित करूं तो?"

"यह तो मेरा अहोभाग्य होगा, मै आपको गुरुदेव कहूंगा", पिनाक ने कहा।

"हां तो बेटे, कौन सा ऐसा कार्य है, जो तुम्हे मुझ बूढ़े तक खेंच लाया"

"आप अभी बूढ़े कहां?, जवानों को भी माफ कर रहें है", पिनाक ने गिरीश भटनागर के तने हुए शरीर की तरफ देखकर हंसते हुए कहा।

फिर बात को पूरी करने के उद्देश्य से पिनाक ने कहा, "कार्य तो था ही, लेकिन ये नहीं मालूम था कि इस बहाने आप जैसी महान विभूति के दर्शन हो जाएंगे।"

उसके बाद पिनाक ने गिरीश भटनागर को अपहरणकर्ता के बारे में जो भी जानकारियां थी, उनसे अवगत कराया और यह भी बताया कि वह भारत-तिब्बत सीमांत क्षेत्र के दुर्गम पहाड़ों में गायब हो गया था।

पिनाक ने भटनागर जी को भारतीय अनुसंधान केन्द्र द्वारा तैयार किए गए अपहरणकर्ता के गमन के मैप को दिखाते हुए पूछा "क्या आप इस मैप को देखकर अपहरणकर्ता के छुपने का ठिकाना बता सकते है?"

"क्या यह क्षेत्र भारत में है या तिब्बत में?" ये मेरा दूसरा प्रश्न है, पिनाक ने कहा।

भटनागर जी काफ़ी देर तक नक्शे को ध्यान से देखते रहे फिर गहरी सोच में डूब गए।
 
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बहुत सोच-विचार करने के बाद वे बोले, "मुझे लगता है कि अपहरणकर्ता 'पिशाचों की घाटी' में गायब हो जाता है।"

"यह पिशाचों की घाटी क्या है, गुरुदेव?" पिनाक ने पूछा।

"पिशाचों की घाटी एक ऐसी दुर्लभ जगह है, जिसके अंदर प्रवेश पाना मानव जाति के लिए असंभव है।"

"यह भारत और तिब्बत की सीमा के पास है।"

"इसका ज्यादातर हिस्सा भारत में पड़ता है, किंतु कुछ हिस्सा तिब्बत में भी है", गिरीश भटनागर ने कहा।

"जब मैं अपने तिब्बत प्रवास पर था तो मैंने इस घाटी के बारे में एक तिब्बतन लामा से सुना था।"

"मैंने उस लामा को उस घाटी में चलने को बहुत मनाया, परंतु वह उधर जाने को तैयार नहीं हुआ।"

"असलियत में वह उस जगह से बहुत भयभीत था।"

"उसने बताया कि इस घाटी के चक्कर में पड़कर एक बार उसके प्राण जाते-जाते बचे थे।"

"इसके अतिरिक्त उसने बताया कि इस घाटी में पिशाचों एक बड़ा कबीला बसा हुआ है।"

"जिसका अपना एक निजाम है, एक शासक है, एक विशालकाय सेना है।"

"इस कबीले के शासक को 'कामा तारू' कहा जाता है।"

"मैंने अकेले ही तिब्बत की तरफ से पिशाचों की घाटी को खोजने का प्रयत्न किया, किन्तु असफल रहा।"

"बाद में मैंने यही प्रयत्न भारतीय छोर से किया।"

"स्थानीय लोगों में इस घाटी को लेकर इतना भय व्याप्त है, कि लोग इसका जिक्र तो क्या, इसके बारे में सोचने से भी डरते है।"

"वैसे तो पिशाचों की घाटी अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में है, उस तक मनुष्य पहुंच ही नहीं सकता, फिर भी अगर कोई मनुष्य वहां पहुंच भी जाए तो वापिस नहीं आ सकता।"

"जब मैंने स्थानीय लोगों को घाटी की खोज में जाने के अपने निश्चय के बारे में बताया, तो उन्होंने मेरा कोई सहयोग करने के बजाय, मेरा मार्ग रोकने की कोशिश की।"

"स्थानीय लोगों का मत था कि उस ओर किसी के भी जाने पर मुसीबत उन्हीं पर पड़ेगी।"

"समस्त विरोध के बाद भी मैंने अपना विचार नहीं त्यागा और एक दिन चुपचाप उस घाटी की खोज में निकल पड़ा।"

"मार्ग में अनेक बाधाओं के बावजूद मैं उस घाटी तक पहुंच गया था।"

"परंतु उसके बाद जो हुआ, उसे याद कर मेरे शरीर में आज भी सिहरन उठ आती है।"

वास्तव में पिनाक को गिरीश भटनागर के जिस्म में एक सिहरन सी उठती महसूस हुई।

"असल बात यह है कि मैं मृत्यु की गोद में लगभग पहुंच ही गया था", भटनागर जी ने कहा।"

"वह कैसे गुरुदेव?", पिनाक ने पूछा।

"दरअसल पिशाचों की घाटी की एक सीमांत चौकी है, उस चौकी पर भयंकर और दुर्दांत पिशाच पहरा देते हैं।"

"घाटी में प्रवेश करने से पहले ही उन्होंने मेरा मार्ग रोक लिया।"

"वे मुझे खत्म ही कर डालते, लेकिन मेरे पास तिब्बत के एक महान सिद्ध लामा, जिनकी उम्र हजारों वर्ष समझी जाती है, का दिया हुआ एक रक्षा कवच था।"

"उस दिन उसी रक्षा कवच की वजह से मेरे प्राण बचे।"

"फिर भी मुझे पिशाचों की ओर से चेतावनी दी गई कि सिद्ध लामा की आन मानकर अबकी बार तो तुम्हारी जान को बख्श दिया है, अगर दोबारा तुमने इस ओर आने की हिमाकत कि तो यह रक्षा कवच भी तुम्हें बचा नहीं सकेगा।"

"क्या आपको उस घाटी में जाने का रास्ता याद है, गुरुदेव?" पिनाक ने पूछा।

"हां, अच्छी तरह से याद है, वैसे भी मैंने वहां से लौटकर, अपनी यादाश्त के आधार पर एक मानचित्र बना लिया था।"

"इस मानचित्र में पिशाचों की घाटी में जाने के रास्ते का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरण है।"

"इसके अतिरिक्त रास्ते में पड़ने वाली समस्त बाधाओं का भी जिक्र है", भटनागर जी ने कहा।

पूरी बात सुनकर पिनाक ने भटनागर जी से पूछा, "क्या आप मुझे वह मानचित्र उपलब्ध कराएंगे?"

"मानचित्र तो क्या बेटे, मैं तो स्वयं तुम्हारे साथ चलूंगा", भटनागर जी ने कहा।

इस पर पिनाक ने कहा, "नहीं गुरुदेव, आपको पिशाचों की तरफ से चेतावनी मिल चुकी है, मैं आपकी जान खतरे में नहीं डालूंगा।"

"अब जान का क्या डर, पिनाक बेटे, अस्सी वर्ष के जीवन का उपभोग कर चुका हूं।"

"साल-दो-साल में मृत्यु तो वैसे ही आनी है।"

इस प्रकार पिनाक के प्रतिरोध को खारिज कर भटनागर जी ने कहा।

"लेकिन गुरुदेव, मेरे मस्तिष्क में एक बात है।"

"आप कह रहे है कि मानव जाति का उस घाटी में प्रवेश असंभव है, तो अपहरणकर्ता उसमें कैसे प्रवेश कर गया?" पिनाक ने पूछा।इसके बारे में मैं क्या बता सकता हूं।"

"किंतु मेरा विचार है कि, जिस ढंग से तुमने अपहरणकर्ता का वर्णन किया है, उससे लगता है कि वह एक सिद्धि प्राप्त मनुष्य है।"

"संभव है कि पिशाच घाटी को उसने एक सुरक्षित ठिकाना समझ लिया हो और अपनी सिद्धियों के बल पर पिशाचों को पराजित या उनसे कोई समझौता कर वहां पर रहने लगा हो।"

"सही तथ्य तो उस जगह जाने से ही मालूम चलेंगे।"

"आपका विचार उचित ही लगता है, गुरुदेव", पिनाक ने कहा।

इसके उपरांत दोनों ने मार्ग की कठिनाइयों इत्यादि के बारे में चर्चा कर, पिशाचों की घाटी तक जाने का कार्यक्रम स्थिर कर लिया।

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कितनी सही सोच थी गिरीश भटनागर की।

राजकुमार शक्ति देव भगवती दक्षिण काली के तेज को प्राप्त कर और अघोरी की तरफ अहंकार भरी नजरों से देख कर, यकायक गायब होकर आकाश मार्ग से बिना किसी उद्देश्य या दिशा का विचार किए बगैर ही उड़ चला और अनायास ही पिशाचों की घाटी के ऊपर पहुंच गया।

जब सीमांत चौकी के दुर्दांत पिशाचों ने उसके आगमन को देखा तो वे शक्ति देव का रास्ता रोकने के लिए तत्पर हो गए।

शक्ति देव का पिशाचों की घाटी में जाने का न ही तो कोई इरादा था और न ही कोई उद्देश्य था, वह तो दिशाहीन ही जा रहा था।

परंतु पिशाचों के द्वारा रोके जाने पर वह भी डटकर खड़ा हो गया और उनसे लोहा लेने लगा।

उसके पास तो ऐसी शक्ति थी जिससे वह पिशाचों से तो क्या किसी भी महान से महान शक्ति से भी लोहा ले सकता था।

उसने सहज में ही सीमांत चौकी पर तैनात दुर्दांत पिशाचों को समाप्त कर दिया और उस घाटी में प्रवेश कर गया।

जब पिशाचों के शहंशाह कामा तारू को शक्ति देव के घाटी में प्रवेश का समाचार मिला तो वह अत्यंत चकित हो उठा।

उसके अनुसार तो पिशाचों के अतिरिक्त किसी भी जीवित प्राणी, जिसमें देव, दानव, राक्षस, असुर इत्यादि शामिल थे, का घाटी में प्रवेश असंभव था।

उसने तुरंत ही पिशाचों का एक जत्था, जिसमें एक से एक महाबली पिशाच योद्धा शामिल थे, को शक्ति देव से मुकाबला करने के लिए भेजा।

लेकिन बहुत ही सहज भाव से शक्ति देव ने उन महान पिशाचों को समाप्त कर दिया और अत्यंत क्रोधित होकर कामा तारु के राजदरबार में उसके समीप जा पहुंचा।

राजकुमार शक्ति देव को अपने निकट आया देख कामा तारु ने अत्यंत ही भयभीत होते हुए सोचा, "जिस स्थान पर देव, दानव, गंधर्व, असुर, राक्षस इत्यादि का प्रवेश असंभव है, फिर यह एक साधारण मनुष्य कैसे पहुंच गया, वह भी मेरे इतने समीप।"

"यह है अवश्य ही कोई महान शक्ति को धारण करने वाला मनुष्य है वरना तो यह कब का समाप्त हो चुका होता।"

यह सब सोच कर कामा तारु ने राजकुमार शक्ति देव की शक्ति का संधान करने के लिए उससे युद्ध की बजाय कूटनीति का प्रयोग करने का मन ही मन निर्णय लिया।

इसलिए इस नीति के तहत कामा तारु ने बड़े ही विनम्र भाव से और शहद जैसे मीठे वचनों से राजकुमार शक्ति देव को संबोधित करके कहा-

"मैं पिशाचों का राजा कामा तारु हूं।"

"हे महाबली, आप कौन हैं?

"किस योनि के प्राणी हैं?"

"आपको किस महान शक्ति का वरदान प्राप्त है जो आपने सहज भाव से ही अत्यंत पराक्रमी पिशाचों को परास्त कर दिया?"

राजकुमार शक्ति देव का क्रोध कामा तारु के विनम्र भाव और मधुर वचनों से कुछ कम हुआ और उसने कहा-

"हे पिशाचराज कामा तारु, मैं विजयगढ़ के परम प्रतापी राजा विक्रम देव का पुत्र शक्ति देव हूं, घटनाक्रम के प्रभाव से मैं प्राचीन समय से निकलकर इस आधुनिक समय में पहुंच गया हूं "

"मुझे सुंदर नवयुवतियों का सहवास और उनका मांस विशेषतः उनके दिल का भक्षण अति प्रिय है।"

"मुझे भगवती दक्षिण काली का तेज प्राप्त है।"

"तीनों लोगों में कोई भी शक्ति नहीं जो मुझे परास्त कर सके।"

"मैं तो अपनी इच्छा से ही बिना कोई लक्ष्य निर्धारित किए आकाश मार्ग से जा रहा था, किंतु तुम्हारे पिशाचों ने अनायास ही मेरा रास्ता रोक कर मुझे युद्ध के लिए विवश कर दिया।"

वैसे तो पिशाचराज कामा तारु एक बहुत ही निकृष्ट श्रेणी का प्राणी था और अपनी शक्ति के मद में सबको स्वयं से तुच्छ समझता था, परंतु कहावत है कि 'ऊंट भी कभी न कभी पहाड़ के नीचे आता है'।

उसने राजकुमार का पराक्रम देख ही लिया था और यह सुनकर कि राजकुमार को भगवती दक्षिण काली का वरदान भी प्राप्त है, वह घुटनों के बल आ गया।

वह अपने सिंहासन से नीचे उतरकर राजकुमार के समीप पहुंचा और उसके चरणों में गिरकर कहा, "हे सिद्ध पुरुष, मेरा आपसे कोई बैर नहीं है, न ही मेरे योद्धाओं का आपसे कोई बैर है, यह तो इस घाटी की आन ही है कि कोई भी जीवित प्राणी यहां प्रवेश नहीं कर सकता और न हीं इसके ऊपर से गमन कर सकता है।"

"अतः यही सोचकर मेरे पिशाचों ने आपके रास्ते में बाधा दी। आप उन्हें क्षमा करें।"इसके उपरांत यह सोचकर, यदि राजकुमार नर मांस का भक्षण करता है तो मनुष्य होते हुए भी यह पिशाचों के ही समतुल्य है, उसने बड़े ही विनम्र भाव से राजकुमार को संबोधित किया-

"हे महान शक्ति के धारक, हे समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ, हे महान बलशाली, मेरा आपसे निवेदन है कि कुछ समय आप मेरी इस घाटी में निवास कर मुझे अनुग्रहित करें।"

राजकुमार ने पिशाचराज़ के इस निमंत्रण को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया और मजे से वहां रहने लगा।

यहीं रहकर वह आकाश मार्ग से जाकर सुंदर नवयुवतियों का अपरहण कर, उनका बलात्कार करता था और उनका दिल निकाल कर खा जाता था।

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पिनाक ने पिशाचों की घाटी में जाने का कार्यक्रम स्थिर कर लिया।

गिरीश भटनागर सहित उसकी टीम में दस सदस्य थे।

पिनाक सहित बाकि ९ सदस्य ब्लैक हॉक संगठन से संबंध रखते थे।

वह सभी युद्ध की प्राचीन और आधुनिक युद्ध कला के ज्ञाता थे और परालौकिक विज्ञान पर भी उनका पूर्ण अधिकार था।

रवानगी से पहले सभी व्यक्तियों को हॉक हाउस में एक रिफ्रेश कोर्स करवाया गया।

देवदत्त शास्त्री, ब्लैक हॉक संगठन के आयुधों की निर्माण शाखा के प्रमुख थे।

यह शाखा परालौकिक शक्तियों से युद्ध के लिए नए-नए हथियारों का निर्माण करती थी और इनमें निरंतर सुधार कैसे हो, इस प्रक्रिया में भी लगी रहती थी।

देवदत्त शास्त्री ने इस अभियान के लिए एक विशेष प्रकार की गन तैयार की थी।

इस गन से एक बार फायर करने से सैकड़ों की संख्या में बाजरे से भी छोटे दानें निकलते थे, जो कारतूस की तरह फायर करने के बाद सामने के क्षेत्र में विस्तृत रूप से फैल जाते थे।

यह दानें एक विशेष धातु को फास्फोरस में मिलाकर बनाए जाते थे।

यह एक भी दाना अगर किसी पिशाच को छू जाता तो उसका खात्मा निश्चित था।

यह गन एक बार में सौ फायर कर सकती थी।

इसके अतिरिक्त विशेष प्रकार के चाबुकों का भी निर्माण किया गया था।

इस चाबुक की लंबाई करीब ढाई मीटर के लगभग थी, जिस पर किसी विशेष रसायन का लेप किया हुआ था।

इसका हत्था ठोस चांदी से बना हुआ था और उसमें पकड़ बनाने के लिए उंगलियों के आकार की जगह खुदी हुई थी।

इसमें एक बटन लगा हुआ था जिसको दबाने से चाबुक अंदर-बाहर किया जा सकता था।

इस चाबुक के छूने मात्र से किसी भी पिशाच का अंत निश्चित था।

छोटे-छोटे विशेष प्रकार के बम बनाए गए थे जिनको धरती पर पटकने पर अग्नि की लपट निकलती थी।

इसके अतिरिक्त किसी अलग प्रकार की धातु की तलवारों और अन्य आयुधों का निर्माण किया गया।

विशेष प्रकार की ऐनकों का निर्माण किया गया, जिसकी सहायता से पिशाचों को आसानी से देखा जा सकता था।

ये ऐनक साधारण ऐनकों की तरह नहीं थी। इनको आसानी से आंखों पर फिट किया जा सकता था जिससे उनका आंखों से गिरने का कोई खतरा नहीं रहे।

इसके अलावा ऐसे सूट तैयार किए गए थे जिनको धारण करने के बाद मनुष्य पर अग्नि का कुछ भी प्रभाव नहीं होता था।

सबसे महत्वपूर्ण वस्तु एक माला थी, जिसके गले में पहनने के पश्चात कोई भी पैशाचिक शक्ति मनुष्य पर प्रभाव नहीं डाल सकती थी।

सभी हथियारों का पर्याप्त स्टॉक लेकर जब पिनाक की टीम हॉक हाउस से रवाना हुई, तो उनको विदा करने के लिए ब्लैक हॉक संगठन के प्रमुख अजय गुप्ता और आयुध शाखा के प्रमुख देवदत्त शास्त्री मौजूद थे।

विदाई के समय अजय गुप्ता और देवदत्त शास्त्री यह सोचकर बहुत भावुक हो गए कि उनकी टीम का सामना किसी साधारण शक्ति से नहीं वरन् पिशाचों की एक बहुत बड़ी सेना के साथ होना था।

इस अवसर पर अजय गुप्ता और देवदत्त शास्त्री टीम के सभी सदस्यों से गले लग कर मिले विशेषतः गिरीश भटनागर से।

उन्होंने गिरीश भटनागर को एक बार फिर अपनी जान जोखिम में नहीं डालने को कहा, लेकिन गिरीश भटनागर नहीं माने।

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इस अभियान में सेना के चार ब्लैक कैट कमांडो भी शामिल किए गए।

इन कमांडो का कार्य हथियारों के स्टाक की देखभाल व इमरजेंसी पड़ने पर पिनाक की टीम को कवर उपलब्ध करवाना था।

इन कमांडो के पास आधुनिक हथियार भी थे ताकि कोई भौतिक जरूरत पड़ने पर उनसे कार्य लिया जा सके।

चौदह व्यक्तियों का यह काफिला सेना के प्रशिक्षित घोड़ों पर सवार होकर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में यात्रा कर रहा था।

यह यात्रा गिरीश भटनागर के द्वारा बनाए गए नक्शे के आधार पर हो रही थी।

मार्ग की कठिनाइयों को पार करते हुए गिरीश भटनागर द्वारा बनाए गए नक्शे के आधार पर यह टीम पिशाचों की घाटी तक सुरक्षित पहुंच गई।

घाटी के पास पहुंचने पर गिरीश भटनागर ने सबको रुकने का इशारा किया और उनको संबोधित कर कहा-

उन्होंने करीब 200 मीटर दूर इशारा करते हुए कहा, "यहां पिशाच घाटी की सीमांत चौकी है, यहां पर एक से एक दुर्दांत पिशाच पहरा देते हैं, इन पिशाचों को समाप्त करने के बाद ही हम इस घाटी में प्रवेश कर सकते हैं।"

पिनाक ने भी यहां पहुच कर अपने साथियों को संबोधित किया "हमारा मुख्य उद्देश्य उस बलात्कारी हत्यारे (शक्ति देव) को मारना या गिरफ्तार करना है, किंतु इसके साथ ही इस घाटी को पिशाचों के आतंक से भी मुक्त करवाना भी है।"

टीम के सभी सदस्यों ने पिनाक की अगुआई में अपने अपने हथियार संभाल लिए। एनकों को आंखों पर फिट किया गया और युद्ध के लिए तत्पर हो गए।

जो इलाका बिल्कुल साधारण दिखाई दे रहा था, ऐनक लगाते ही पिशाचों से भरा दिखाई देने लगा।

एक से एक भयंकर पिशाच हवा में मंडरा रहा था। उन पिशाचों की शक्ल इतनी भयावह थी कि अगर साधारण व्यक्ति उनको देख ले तो उनका दिल काम करना बंद कर दे।

सीमांत चौकी के प्रमुख दिगारू ने दूर से ही उनके आगमन को देख लिया था।

दिगारू को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मानवों का यह दल क्यों और किसलिए पिशाचों की घाटी की तरफ बढ़ता चला आ रहा था। क्या इन्हें अपनी जान का कोई खतरा नहीं था?

फिर भी वह यह सोच कर बहुत खुश हुआ कि मानव मांस और खून का पर्याप्त मात्रा में भक्षण करने को मिलेगा।

उसने चौकी पर तैनात सभी पिशाचों को सतर्क कर, दल का कुछ नजदीक आने का इंतजार किया तथा उन पर हमला करने के लिए तैयार हो गया।

दिगारू को यह भ्रम था कि साधारण मनुष्य तो पिशाचों को देख भी नहीं सकते। अतः आसानी से उनका भक्षण किया जा सकेगा।

परंतु दिगारू यह नहीं जानता था कि वे कोई साधारण मानव नहीं थे और उस रोज समस्त पिशाचों का मुक्ति दिवस होने वाला था।

टीम के सभी सदस्यों के हाथ में बंदूके थी।

ज्योंहि पिशाचों की सीमांत चौकी के पिशाच उनकी रेंज में आए, पिनाक ने फायर खोल दिया।

यह देखकर सभी व्यक्ति चकित थे कि उन बाजरे के दाने से भी छोटी गोलियों में ऐसी क्या शक्ति भरी थी कि जिस भी पिशाच के छूती, वह धू-धू कर-कर जलने लगता था।

कुछ मिनटों में ही पिनाक और उसकी टीम ने सीमांत चौकी के पिशाचों के अतिरिक्त हवा में मंडरा रहे पिशाचों को भी समाप्त कर दिया और घाटी में प्रवेश कर गए।

दल के घाटी में प्रवेश की सूचना जब कामा तारु तक पहुंची तो उसने सोचा, "क्या पिशाचों की देवी जुबनी की भविष्यवाणी सत्य होने वाली थी?"

जुबनी ने एक बार कहा था, "एक मनुष्य पिशाचों की घाटी में प्रवेश करेगा और तुम सबको पराजित कर यहां अधिकारपूर्वक रहने लगेगा।"उसके उपरांत एक दर्जन के कारण अन्य मनुष्य भी आएंगे।"

"वे मानव घाटी की सीमांत चौकी को ध्वस्त कर उसमें प्रवेश करें, तो तुम समझ लेना कि घाटी के पिशाचों का अंत निकट आ गया है।"

इस भविष्यवाणी को यादकर कामा तारु कुछ हतोत्साहित तो हुआ, किंतु वह भी एक विराट योद्धा था इसीलिए घबराया नहीं।

उसने तुरंत ही पिशाचों के सेनापति लतारू को बुलाकर आदेश दिया कि वह एक विशाल सेना लेकर जाए और उन मनुष्यों का सफाया कर दे।

कामा तारु का आदेश पाकर लतारू तुरंत रणभूमि में पहुंच गया और एक भयंकर पिशाच-घोष किया।

उस पिशाच-घोष को सुनते ही चारों तरफ से पिशाच प्रगट होने लगे।

सम्पूर्ण घाटी की भूमि और आकाश से पिशाच निकलने लगे।

उनके हाथों में विभिन्न प्रकार के आयुध थे और मुख से आग के शोले निकल रहे थे।

अनेक पिशाचों की आकृति इतनी भयंकर थी कि उनको देखकर बहादुर से बहादुर व्यक्ति का कलेजा भी दहल जाए।

चारों तरफ पिशाच ही पिशाच नजर आ रहे थे जिनमें अनेक हाथ वाले और अनेक सिर वाले पिशाच शामिल थे।

कोई पिशाच जमीन पर रेंग रहा था, कोई हवा में उड़ रहा था तथा का किसी का आकार इतना विशाल था कि उसका सिर आकाश को छूता हुआ मालूम होता था।

पिशाचों के अति भयंकर व भांति-भांति के रूपों में प्रगट होने से युद्ध भूमि में एक भयानक वातावरण उत्पन्न हो गया था।

ऐसा लगता था कि वह पिशाच-सेना कुछ ही क्षणों में सबका विध्वंस कर देगी।

पिनाक ने भी अपने साथियों को आक्रमण करने का आदेश दे दिया।

उन्होंने फायर करने शुरू कर दिए जिससे हजारों-हजार पिशाचों का सफाया एक ही बार में होने लगा।

पिनाक और उसके साथियों ने अपने-अपने हथियारों का प्रयोग करते हुए लाखों पिशाचों को उनकी योनि से मुक्त करा दिया।

पिनाक का कोई साथी भूमि पर बम पटक रहा था, जिसकी ज्वाला से पिशाच जल रहे थे और चीख-चीख कर मृत्यु को प्राप्त हो रहे थे।

कोई चाबुक को अपने हाथ में लेकर घुमा रहा था जिसके छूने मात्र से सैकड़ों पिशाचों का विध्वंस एक ही बार में हो जाता था।

बंदूक से निकले छोटे-छोटे दानों ने ऐसी तबाही करी कि पिशाच-सेना की कमर ही टूट गई।

शेष पिशाचों ने एक भयंकर अग्नि प्रगट कर पिनाक के दल पर फेंक दी।

लेकिन फायरप्रूफ सूट धारण करने की वजह से उन पर उस अग्नि का कोई असर नहीं हुआ।

अनेक पिशाचों ने अपनी माया का विस्तार किया।

वे भ्रम पैदा करने वाले विभिन्न रूप धरकर पिनाक और उनके साथियों के सम्मुख प्रगट हुए।

कोई पिशाच ब्राह्मण के वेश में, कोई सुंदर युवती के वेश में और कोई गाय के रूप में उनके सामने प्रगट हुए जिससे पिनाक की टीम उन पर आक्रमण न कर सके।

अनेक पिशाचों ने सिंह, बाघ और अन्य विशालाकाय जंतुओं के रूप में उन पर आक्रमण किया।

लेकिन पिनाक और उसके साथियों ने पिशाचों की माया से प्रभावित हुए बगैर समस्त पिशाच-सेना का उसके सेनापति लतारु व घाटी के अन्य पिशाचों सहित वध कर दिया।
 
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समस्त पिशाचों के समाप्त होने पर उनका राजा कामा तारु अब पिनाक के मुकाबले पर आया।

पिनाक और कामा तारु का युद्ध देखने लायक था।

कामा तारु के हाथों में विभिन्न प्रकार के आयुध प्रगट हो रहे थे जिनको वह पिनाक पर फेंक रहा था।

पिनाक भी अपनी विशेष तलवार से कामा तारु का मुकाबला करने लगे।

पिनाक एक हाथ में तलवार थी जिससे वह कामा तारू द्वारा फेंके गए अस्त्रों का सामना कर रहे थे।

उनके दूसरे हाथ में गन थी, जिससे वह दानों की बाढ़ कामा तारु पर छोड़ रहे थे।

उन दानों की भयंकर मार से पीड़ित होकर सम्मुख युद्ध के लिए कामा तारु पिनाक के समीप आया।

पिनाक ने गन छोड़कर दूसरे हाथ में चाबुक ले लिया।

अब उनके एक हाथ में तलवार थी और दूसरे हाथ में चाबुक।

कामा तारु के एक हाथ में एक अति भयंकर और विशालाकाय खड्ग और दूसरे हाथ में फरसा था।

दोनों ही महान योद्धा अपने अपने आयुधों का प्रयोग करते हुए सम्मुख युद्ध में तल्लीन हो गए।

दोनों योद्धा अपने-अपने पैंतरे चलकर एक-दूसरे को परास्त करने का यत्न कर रहे थे कि अचानक पिनाक ने अपने एक हाथ में मौजूद चाबुक से कामा तारु को जकड़ लिया तथा दूसरे हाथ में स्थित तलवार का प्रहार उसके हाथों पर किया जिससे उसके दोनों हाथ कटकर दूर जा गिरे।

हाथों के कट जाने पर कामा तारु ने उग्र होकर एक विशालाकाय बिच्छू का रूप धारण कर पिनाक पर आक्रमण कर दिया लेकिन पिनाक ने उसके भी दो टुकड़े कर दिए।

उस पर भी कामा तारु मरा नहीं।

वह एक भयावह विशाल परिंदे के रूप में बदल गया और पिनाक को अपने भयानक पंजों में जकड़ कर अपनी चोंच का प्रहार उनके उपर करने लगा।

परिंदे के रूप में किए गए कामा तारु के वारों से परेशान पिनाक ने अत्यंत ही क्रोधित होकर परिंदे की चोंच को काट डाला।

चोंच के काटे जाने पर कामा तारु अपने वास्तविक रूप में आकर भूमि पर गिर पड़ा।

पिनाक ने तुरंत ही उसे अपने दाएं हाथ में मौजूद चाबुक से जकड़ लिया तथा दूसरे हाथ से अपनी जेब से एक छोटी सी शीशी निकाली जिसमें एक विशेष प्रकार का रसायन भरा हुआ था।

पिनाक ने वह रसायन पिशाचराज कामा तारु पर उड़ेल दिया।

देव दत्त शास्त्री ने वह रसायन पिनाक को रवाना होने से पहले गुप्त रूप से देकर कहा था, "अगर पिशाचों के राजा या किसी अन्य पिशाच का वध किसी भी तरीके से संभव न हो सके तो इस रसायन का प्रयोग करना। इस रसायन से निश्चित रूप से उन पिशाचों का अंत होगा।"

वैसा ही हुआ, रसायन के पड़ते ही कामा तारु बुरी तरह से चिंघाड़ने लगा।

उसकी चिंघाड़ इतनी तेज थी कि चारों दिशाएं कम्पायमान हो उठी।

उसकी विरोध करने की शक्ति खत्म हो गई।

उसका आकार धीरे-धीरे घटकर छोटा होता गया और अंत में शून्य में विलीन हो गया।

इस प्रकार पिशाचों की घाटी को पिशाचों से मुक्त कर पिनाक और उसकी टीम उस बलात्कारी और कातिल (राजकुमार शक्ति देव) की तलाश करने लगी जिसको मारना या गिरफ्तार करना उनका प्रमुख उद्देश्य था।

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पाठक गण सोचते होंगे कि इतना भयंकर युद्ध हुआ और राजकुमार शक्ति देव इसमें भाग लेने के लिए नहीं आया।

क्या उसने भयंकर युद्धनाद नहीं सुना?

क्या उसने कामा तारु की उन चिंघाडों को भी नहीं सुना, जिनकी वजह से चारों दिशाएं कम्पायमान ही उठी थी।

इसका उत्तर यह है कि राजकुमार शक्ति देव को पिशाचों में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

वह उन्हें निकृष्ट योनि का प्राणी समझता था।

वह तो उन्हें उसी समय समाप्त कर डालता, जिस वक्तउसको घाटी के ऊपर से गमन करते हुए रोका गया था।

लेकिन कामा तारु के दीनता भरे वचनों को सुनकर उसने उस संहार को करने से स्वयं को वंचित कर लिया था।

दूसरा कारण थी मोना, वह एक बहुत ही बुद्धिमान नवयुवती थी।

जब मोना राजकुमार शक्ति देव द्वारा अपहरण कर पिशाचों की घाटी में लाई गई, तो वह समझ गई थी कि अपहरणकर्ता वही पुरुष था जिसने उससे पहले अनेक युवतियों का अपहरण कर उनका बलात्कार किया था तथा उनका दिल निकाल कर हत्या कर दी थी।

उल्लेखनीय है कि राजकुमार शक्ति देव ने पिशाचों की घाटी में अपनी शक्तियों के द्वारा एक सुसज्जित महल तैयार कर लिया था।

उसकी इच्छा मात्र से ही अनेक दास-दासियों की सृष्टि उसकी सेवा के लिए हो गई थी।

वह उस महल में बहुत ही उत्तम तरीके से रहता था और किसी भी तरह से पिशाचों पर आश्रित नहीं था।

मोना ने भी अपनी लीला का विस्तार किया। उसने स्वयं से पहले अपहरण की गई युवतियों की तरह कोई विरोध प्रदर्शन नहीं किया वरन् राजकुमार शक्ति देव के साथ सहयोग ही किया।

उसको मालूम था कि सहयोग न करने की दशा में बलात्कार तो उसका होना ही था।

फिर क्यों न उसका विश्वास जीता जाए ताकि समय आने पर मुक्ति की संभावना बन सके।

उसने अपने काम-बाणों द्वारा राजकुमार को दीवाना बना दिया और राजकुमार भी उसकी संगत को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता था।

इसीलिए राजकुमार को यह पता होते हुए कि पिशाचों का विनाश हो रहा है और पिशाचराज कामा तारु भी मारा गया है। उसने मोना के मोहजाल में फंसकर बाहर जाना उचित नहीं समझा।

राजकुमार तो बाहर नहीं निकला लेकिन पिनाक की टीम उसके दरवाजे तक अवश्य पहुंच गई।

हत्यारे को खोजते-खोजते विराट को राजकुमार शक्ति देव का महल नजर आया।

उसने सोचा की इस महल को भी देख लिया जाए, कहीं हत्यारा इसी में मौजूद नहीं हो।

सभी व्यक्ति निर्विरोध महल में दाखिल हो गए।

चूंकि राजकुमार अपने-आप को दुनिया का सबसे शक्तिशाली मनुष्य समझता था, और सोचता था कि कोई भी प्राणी किसी भी प्रकार से उसे क्षति नहीं पहुंचा सकता इसीलिए महल पर कोई पहरा भी नहीं था।

उन्होंने एक कमरे में मोना के साथ एक व्यक्ति को देखा तो वे समझ गए कि वह कातिल को देख रहे थे।

पिनाक बेधड़क उस कमरे में घुस गए और राजकुमार को ललकारा।

उन सबको देखकर मोना समझ गई कि जिस मुक्ति के अवसर को वो तलाश कर रही थी, वह शायद आज आ गया है।

वह एक अदाकारा तो थी ही, इसलिए भयभीत होने का नाटक करते हुए राजकुमार से दूर हटकर, उसी कमरे के एक सुरक्षित कोने में पहुंच गई। पिनाक द्वारा राजकुमार को ललकारे जाने पर राजकुमार यह सोचकर क्रोधित हो उठा कि एक साधारण मनुष्य उसे ललकार रहा था।

उसने अत्यंत ही क्रोधित होकर, पिनाक से पूछा, "कौन हो तुम और पिशाचों द्वारा आरक्षित इस दुर्गम घाटी में पहुंचने का साहस कैसे किया?"

"क्या तुम्हे भगवती दक्षिण काली के पवित्र तेज से संपन्न, मुझ विजय गढ़ के राजकुमार शक्ति देव का जरा भी भय नहीं लगा?"

यह सुनकर पिनाक ने कहा, "मेरा नाम पिनाक है। मैं भारत देश का एक योद्धा हूं, जहां से तुमने लड़कियों का अपहरण कर उनकी हत्या की है।"

"मैं तुम्हारा अंत करने के लिए यहां आया हूं और मुझे तुम जैसे बलात्कारी और हत्यारे से भय खाने कि आवश्यकता भी क्या है।"

"और रहा तुम्हारे पिशाचों का प्रश्न, हम इस सम्पूर्ण घाटी को पिशाचों से मुक्त करवा चुके है", पिनाक ने कहा।

राजकुमार ने पुनः क्रोध वाले भाव में कहा, "हां, मैंने ही उन नवयुवतियों का बलात्कार किया है और उनका दिल निकाल कर खा लिया है।"

"तो तुम एक नरभक्षी भी हो, तब तो तुम्हारा वध करना मानवता के हित में होगा", पिनाक ने कहा।

"तो देखते है, कौन किसका वध करता है?", राजकुमार शक्ति देव ने हंसते हुए कहा।

अब राजकुमार का क्रोध यह सोचकर खत्म हो गया था कि इन भूनगे समान मनुष्यों को तो उसके क्रोध को भी प्राप्त करने का अधिकार नहीं था।

राजकुमार शक्ति देव एक साधारण भाव से उठकर पिनाक और उसके साथियों के साथ युद्ध करने के लिए तत्पर हो गया।

उसने कहा, "तुम एक साथ युद्ध करोगे या अलग-अलग मृत्यु का शिकार बनोगे?"

पिनाक और उसके साथी महल के अंदर प्रवेश करने से पहले ही आधुनिक अस्त्र-शस्त्र से लैस हो चुके थे।

पिनाक भी एक महाबली योद्धा थे, वह प्राचीन और आधुनिक युद्ध कलाओं के पूर्ण ज्ञाता थे।

उन्होंने राजकुमार से कहा, "मैं अकेला ही तुम्हारे लिए पर्याप्त हूं और तुम्हे मन-पसंद अस्त्र-शस्त्र लेने की छूट प्रदान करता हूं।"

"तुम भूनगे को मसलने के लिए मुझ जैसे वीर को किसी अस्त्र-शस्त्र की जरूरत है?", राजकुमार ने व्यंगात्मक अंदाज में प्रश्न किया।

इसके उपरांत दोनों महान योद्धा एक घोर युद्ध में सलंग्न हो गए।

पिनाक और शक्ति देव, दोनों ने कोई आयुध नहीं लिया और वे केवल अपने हाथ-पैरों से ही युद्ध कर रहे थे।

राजकुमार पिनाक को एक भूनगे के समान समझता रहा था, लेकिन जब उसे पिनाक के साथ मुकाबला करना पड़ा तो उसके पसीने छूट गए।

हालांकि राजकुमार एक महान योद्धा था और वह प्राचीन युद्ध कला का परम ज्ञाता था, लेकिन पिनाक का तो दोनों ही, प्राचीन और आधुनिक, युद्ध कलाओं पर पूर्ण अधिकार था।दोनों ही योद्धा बड़े ही विक्रम से युद्ध करने लगे।

कुछ देर तक तो दोनों का पलड़ा बराबर रहा किन्तु धीरे-धीरे राजकुमार शक्ति देव का पलड़ा कमजोर पड़ने लगा।

इसके उपरांत तो पिनाक ने राजकुमार को लात-घुंसों की ऐसी मार लगाई कि राजकुमार की आत्मा त्राहि-त्राहि करने लगी।

उसने गुस्से में आकर अपनी तलवार उठा ली और पिनाक पर एक जबरदस्त वार किया।

लेकिन पिनाक भी सतर्क थे, उन्होंने राजकुमार के वार को बचाकर खुद भी तलवार निकाल ली।

तलवारों के युद्ध में भी पिनाक राजकुमार पर हावी रहे।

राजकुमार के जिस्म पर कई गहरे जख्म आए परंतु पिनाक को कुछ साधारण जख्म ही लगे।

अंत में पिनाक ने राजकुमार को नीचे गिराकर अपनी तलवार उसका वध करने के लिए उठाई।

ज्योहिं पिनाक ने राजकुमार को मारने के लिए तलवार उठाई, यकायक राजकुमार शक्ति देव को भान हुआ कि वह तो भगवती दक्षिण काली के तेज से संपन्न है।

राजकुमार स्वयं पर क्रोधित हुआ कि एक साधारण मनुष्य से लड़ते वक्त वह इस बात को क्यों भूल गया, वरना इतनी मार नहीं खानी पड़ती।

भगवती दक्षिण काली के तेज की ध्यान में आते ही राजकुमार एक नए जोश से उठा और उसने भगवती के तेज का संघान पिनाक के वध के लिए कर दिया।

राजकुमार के स्मरण करते ही एक महाशक्ति उसके हाथों में प्रगट हुई जिसको उसने पिनाक पर छोड़ दिया।

उस शक्ति का कोई तोड़ पिनाक के पास नहीं था।

दरअसल उससे पहले पिनाक ने भगवती के तेज को धारण करने वाले किसी भी प्राणी से मुकाबला नहीं किया था।

राजकुमार द्वारा छोड़ी गई महाशक्ति के आघात से पिनाक मृतप्राय अवस्था में भूमि पर गिर पड़े।

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पिनाक ने तंत्र-विज्ञान की शिक्षा महान तांत्रिक स्वामी अवधेशानंद जी महाराज से ली थी।

अवधेशानंद जी महाराज तंत्र-विज्ञान के महान पंडित थे।

अन्य तांत्रिकों के कठोर स्वभाव के विपरित वे बहुत ही विनम्र स्वभाव के थे और सदैव लोक-कल्याण के कार्यों में सलंग्न रहते थे।

उनको कोई लोभ या लालच छू भी नहीं गया था।

उनके पास श्रद्धालुओ, जिज्ञासुओं तथा पीड़ितों की भीड़ पूरे दिन लगी रहती थी।

ऋषिकेश के समीप उनका विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ आश्रम था। इस आश्रम के नाम कई सौ बीघे जमीन भी थी।

जब उनका अंतिम समय आया तो उन्होंने पिनाक को अपने पास बुलाया।

पिनाक भी बिना देरी किए नई दिल्ली से चलकर उनके आश्रम में पहुंच गए।

अवधेशानंद जी महाराज के समीप पहुंच कर पिनाक ने उनको साष्टांग दंडवत किया, उनकी प्रदक्षिणा की तथा उसको बुलाने का कारण पूछा।

अवधेशानंद जी महाराज ने कहा, "पुत्र पिनाक, मेरा अंतिम समय नजदीक आ गया है, मैं फ्लां तिथि को अपना चोला (हिन्दू धर्म में मान्यता है कि शरीर के अंदर एक अविनाशी आत्मा निवास करती है, जब किसी शरीरधारी की मृत्यु होती है तो उसका शरीर मरता है न कि उसके अंदर रहने वाली अविनाशी आत्मा। यह आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर, नए शरीर को धारण करती है, जैसे कोई मनुष्य पुराने वस्त्रों का त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, इसी को चोला छोड़ना कहते है) छोड़ रहा हूं।"

स्वामीजी की बात सुनकर, पिनाक की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने रुंधे गले से कहा, "लेकिन गुरुजी, आप तो अपने तपोबल से लंबे समय तक जीवित रह सकते है, फिर चोला क्यों छोड़ रहे है?"
पुत्र, क्या तुम नहीं जानते कि विधि के विधान में कोई भी हस्तक्षेप अनुचित है।"

"जानता हूं गुरुदेव, लेकिन आपसे बिछुड़ने के भय से दिल बैठा जा रहा है", पिनाक ने कहा।

"पुत्र, तुम भी क्या बच्चों जैसी बातें कर रहे हो।"

"तुम्हे मैंने तंत्र-विज्ञान की महान शिक्षा इसलिए नहीं दी कि तुम एक साधारण मानव की तरह व्यवहार करो", अवधेशानंद जी महाराज ने पिनाक को प्यार भरे भाव से डांटते हुए कहा।

"लेकिन गुरुजी....,", पिनाक ने कुछ कहना चाहा।

परंतु स्वामीजी ने पिनाक को बीच में ही रोककर कहा, "मैंने तुम्हे व्यर्थ के वाद-विवाद के लिए यहां नहीं बुलाया, अपनी आज्ञा मनवाने के लिए बुलाया है।"

"आपकी आज्ञा पर तो मैं जान भी दे सकता हूं गुरुजी", पिनाक ने कहा।

"दरअसल मैं तुम्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहता हूं, मेरे उपरांत मेरी गद्दी के तुम ही वारिस होगे", स्वामी जी ने कहा।

निश्चित तिथि को स्वामी जी ने अपना शरीर त्याग दिया।

पिनाक ने मृत शरीर का विधिवत अंतिम संस्कार किया।

इसअवसर पर स्वामी जी के गुरु भाई और अनेक शिष्य आश्रम में पधारे।

सभी ने धूमधाम से आश्रम के परिसर की भूमि में उनकी मृत देह को दबा दिया।

हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि साधू-सन्यासियों के मृत शरीर को अग्नि नहीं दी जाती वरन् उनको भूमि में दबा दिया जाता है।

उसके उपरांत एक विशाल भंडारे का आयोजन किया गया, जिसमें पूरे भारतवर्ष और विदेशों से भी साधु-सन्यासी और बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्ति उपस्थित हुए। जिनमें बलैक हॉक संस्था के प्रमुख अजय गुप्ता भी थे।

पिनाक में सभी का यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया।

इस के उपरांत सभी प्रमुख साधुओं की एक सभा हुई, जिसमें स्वामी जी के गुरु भाई और प्रमुख शिष्य भी उपस्थित थे।

उस सभा के दौरान सभी ने एकमत से पिनाक को स्वामीजी का उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया।

स्वामी जी के मृत शरीर को जिस जगह भूमि में दबाया गया था, वहां पिनाक ने एक विशाल और भव्य मढ़ी का निर्माण करवाया।

आश्रम के प्रबंधक अग्निहोत्री को पिनाक ने वहां कार्यरत सभी वैतनिक और अवैतनिक सेवकों से कार्य करवाने का अधिकार सौंप दिया।

आश्रम परिसर में एक अति प्राचीन शिवालय भी था।

इस शिवालय में पश्चिमाभिमुख शिवलिंग स्थापित था और इस शिवालय के अंदर या बाहर कहीं भी महादेव के वाहन नंदी की मूर्ति स्थापित नहीं थी।

इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग के बारे में मरते वक्त स्वामी जी ने पिनाक से कहा था, "यहां बैठकर प्रार्थना करने पर मनुष्य को अनेक सिद्धियां प्राप्त होती है, जिनका विवरण तुम्हें समय-समय पर पता चलता रहेगा।"

पिनाक को यहां स्थाई रूप से नहीं रहना था इसलिए उसने मंदिर में पूजा इत्यादि के लिए एक विद्वान पुजारी को नियुक्त कर दिया, जिसका कार्य मंदिर के अतिरिक्त मढ़ी की देखभाल करना भी था।

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पाठकों को याद होगा कि पिनाक राजकुमार की शक्ति के आघात से मृतप्राय अवस्था में भूमि गिर पड़ा था।

जब पिनाक को होश आया तो उसने अपने सम्मुख अजय गुप्ता और भव्य व्यक्तित्व के एक साधु को देखा।

पिनाक को होश में आता देखकर अजय गुप्ता का चेहरा खिल उठा और साधु के मुखमंडल पर भी एक करुणामयी मुस्कान दिखाई दी।

पिनाक को होश में आने पर उसे अपने साथ घटित हुआ घटनाक्रम याद आया तो उसके मस्तिष्क में अनेक प्रश्न घूमने लगे, जैसेकि "राजकुमार की शक्ति के आघात से वह जीवित कैसे बच गया?"

"उसके साथियों और मोना के साथ क्या हुआ?"

"यह कौन सी जगह है और वह यहां कैसे पहुंच गया?"

"यह साधु महाराज कौन है?" इत्यादि

प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए पिनाक ने अजय गुप्ता की ओर प्रश्न भरी नजरों से देखा।

पिनाक की प्रश्न भरी नजरों को समझते हुए अजय गुप्ता ने कहा कि यह साधु महाराज
महान तांत्रिक और योगाचार्य भैरवानंद है।

"इनका संबंध प्राचीन समय के एक राज्य विजयगढ़ से है।"

"यह वहां के महाराज विक्रम देव के कुलगुरू है।"

"इन्होंने ही महाराज विक्रम देव के पुत्र राजकुमार शक्ति देव के स्वास्थ्य वर्धन के लिए उसे आधुनिक समय के उस क्षण में भेजा था जब एक अघोरी महादेवी दक्षिण काली का तेज प्राप्त कर रहा था।"

"परंतु राजकुमार शक्ति देव ने वह तेज अघोरी के ग्रहण करने से पहले ही बीच में पहुंचकर दस्युवृति द्वारा स्वयं ग्रहण कर लिया।"

"जिससे वह अतिशक्तिशाली और अविजीत हो गया।"

"समय चक्र को भेदते हुए प्राचीन समय से इस आधुनिक समय में इनका पदार्पण, तुम्हारी जान बचाने और राजकुमार शक्ति देव को अपराध करने से कैसे रोका जाए, इसलिए हुआ है।"

पाठक गण जब राजकुमार शक्ति देव पिनाक पर महादेवी दक्षिण काली के तेज का आघात कर रहा था तो उस समय भैरवानंद अपने दिव्य चक्षुओं से समस्त घटनाक्रम देख रहे थे।

उन्होंने पिनाक और उसके साथियों की जान बचाने के लिए तुरंत ही समय के उस पीड़ादायक क्षण में प्रवेश किया और अपने योग बल से मोना के अतिरिक्त अन्य सभी व्यक्तियों को पिनाक के आश्रम में पहुंचा दिया।

पिनाक 10 दिनों तक बेहोश रहा।

इस दौरान भैरवानंदजी ने ही इनकी परिचर्या कीउन्होंने पिनाक के घाव पर लगाने के लिए मंत्रपुरित जड़ी बूटियों का एक विशेष लेप तैयार किया।

भैरवानंदजी जब तक पिनाक को होश नहीं आया तब तक दिन-रात जागकर महादेवी दक्षिण काली के महामंत्र का जप करते रहे।

अजय गुप्ता से समस्त वस्तुस्थिति जानने के बाद, पिनाक ने कृतज्ञ नजरों से भैरवानंदजी की तरफ देखा जैसे उसकी जान बचाने के लिए उनका धन्यवाद करना चाहते हो।

भैरवानंदजी ने पिनाक की आंखों की भाषा को समझते हुए कहा, "वत्स, तुम्हारी जान बचाने में मेरी कोई विशेष भूमिका नहीं है।"

"असल में स्वामी अवधेशानंदजी महाराज को भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त थी।"

"उस महान पुण्यात्मा के उत्तराधिकारी होने के नाते वह कृपा तुम्हें भी प्राप्त है।"

इसीलिए भगवती दक्षिण काली के तेज की शक्ति ने, शिव की कृपा प्राप्त किसी प्राणी का वध करना उचित नहीं समझा और तुम्हारी जान बच गई।"

"लेकिन स्वामीजी आपने उस नराधम राजकुमार को वर्तमान समय में क्यों पहुंचा दिया, जिससे वो भगवती के तेज को प्राप्त कर सका?", पिनाक की जिज्ञासा थी।

भैरवानंदजी ने कहा, "यह समस्त कार्य विधि के विधान के अनुसार ही हो रहे है।"

"महादेवी दक्षिण काली ने शक्ति देव के जन्म का वरदान देते समय उसके पिता महाराज विक्रम देव से कहा था "यह मेरे आशीर्वाद के फलस्वरुप जन्म लेगा अतः समय आने पर इसको मेरी शक्तियों के अंश की प्राप्ति भी होगी, लेकिन उन शक्तियों के दुरुपयोग के कारण मेरे ही भक्त के हाथों मृत्यु को प्राप्त होगा।"

"इसी वरदान को पूरा करने के लिए ही भगवती ने उसे अपने तेज को धारण करने दिया वरना महादेवी के वरदान को कोई उसके भक्त से कैसे छीन सकता है", स्वामीजी ने आगे कहा।

"लेकिन स्वामीजी आपने मोना को उस दुष्ट राजकुमार की दया पर क्यों छोड़ दिया", पिनाक ने पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की।

"वह इस हेतु वत्स, एक तो मोना को अगर मैं उसके नियंत्रण से मुक्त करा देता, तो वह पुनः उसका अपहरण कर सकता था।"

"राजकुमार महादेवी के तेज को धारण करने के बाद इतना बलशाली हो गया है कि तीनों लोकों में उसे कोई भी मोना का अपहरण करने से नहीं रोक सकता था।"

"दूसरे मोना के प्रति वह इतना कामांध हो गया है कि अन्य लड़कियों के अपहरण के बारे में नहीं सोच रहा।"

"इसके अतिरिक्त मैंने घाटी से वापसी के दौरान मोना से मुलाकात कर उसे अभय प्रदान किया है कि जब भी उसको मेरी जरूरत पड़ेगी, मैं उपस्थित ही जाऊंगा", स्वामीजी ने कहा।

"लेकिन भगवन्, अब उस अधम राजकुमार का मुकाबला कैसे किया जाए", पिनाक ने भैरवानंदजी से पूछा।

"इसके लिए भी वत्स, तुम्हे ही प्रयत्न करना होगा", स्वामीजी ने कहा।

"किंतु महाराज, उसने तो मुझे बुरी तरह परास्त कर, मरणासन्न अवस्था में छोड़ दिया था।"

"भगवती के तेज को धारण करने वाले उस दुष्ट से मेरा मुकाबला तो लाठी के साथ तिनके की लड़ाई के समान है", पिनाक ने कहा।

"उसका उपाय भी मेरे पास है", स्वामीजी ने गंभीर भाव से कहना आरंभ किया।

"दरअसल हिमालय में स्थित किसी गुप्त स्थान में १०० से ज्यादा गुफ़ाएं है।"

"प्रत्येक गुफा में भगवती दक्षिण काली की सिद्ध प्रतिमाएं विराजमान है।"

"समस्त भारत वर्ष के अतिरिक्त विदेशों से भी तंत्र साधक वहां तंत्र साधना करने जाते है।"

'मैंने भी एक बार उस स्थान पर भगवती की साधना की है।"

"भगवती के प्रत्येक भक्त की यही इच्छा होती है कि जीवन में एक बार वहां जाकर मां का आशीर्वाद प्राप्त करे।"

"कौन साधक उस गुप्त स्थान पर जाकर भगवती की कृपा प्राप्त करने का अधिकारी है, उसका निर्णय भगवती दक्षिण काली स्वयं करती है।"

"भगवती के अनन्य भक्तों के द्वारा उस स्थान पर जाने की प्रार्थना करने पर उनके पास सोने का एक प्राचीन सिक्का स्वयं प्रगट होता है।"

"उस सिक्के को कोई चुरा नहीं सकता, वह गुम भी नहीं सकता, किसी अवस्था में गुम होने पर वह पुनः साधक के पास प्रगट हो जाता है।"

"यह सिक्का एक तरह से उस जगह जाने और साधना करने का अनुमति पत्र है।"

"उस सिक्के के बगैर कोई भी प्राणी इस गुप्त स्थान में प्रवेश नहीं कर सकता।"

"वह गुप्त स्थान हिमालय पर्वत श्रृंखला में कहीं स्थित है, परंतु बिल्कुल सही स्थान आज तक किसी को भी नहीं पता चल सका है।"

"वहां पहुंचने के लिए वह सिक्का स्वयं मार्ग निर्देशन करता है।"

"वहां के मार्ग को कोई याद नहीं रख सकता, यहां तक कि एक बार जाने वाला व्यक्ति दूसरी बार स्वयं नहीं जा सकता।"

"इस स्थान के प्रबंधकर्ता भी है, वे मनुष्य है या किसी अन्य लोक के प्राणी, कोई नहीं जानता, उन्हें आज तक किसी ने भी नहीं देखा।" । साधकों की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति वे प्रबंधकर्ता ही करते है। परंतु साधकों को ये कार्य अपने आप होते लगते है।"

इस प्रकार उस गुप्त स्थान का विस्तृत विवरण देने के बाद, स्वामीजी ने कहा, "वत्स, तुम्हे उस स्थान पर जाकर भगवती की कृपा प्राप्त करनी होगी जिससे तुम उस नराधम का मुकाबला करने में सक्षम हो जाओ।"

इसके उपरांत स्वामीजी ने आगे कहा, "अब तुम भगवती दक्षिण काली से प्रार्थना करो कि वह तुम्हे उस गुप्त स्थान पर जाने का अनुमति-पत्र प्रदान करें।"

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पिनाक की प्रार्थना भगवती दक्षिण काली ने स्वीकार कर ली और उनको अनुमति-पत्र प्राप्त हो गया।

इस समय वह हिमालय में स्थित उस गुप्त स्थान की एक गुफा में भगवती दक्षिण काली के बीज मंत्र 'क्रीं' का मानसिक जप करते हुए उनकी तपस्या में तल्लीन थे।

वह स्थान ही ऐसा था जहां भगवती की कृपा आसानी से प्राप्त हो जाती थी।

दरअसल वही मनुष्य उस जगह तक पहुंच पाते थे, जिन पर महादेवी की पहले से ही कृपा होती थी।

या कोई समाज हित का ऐसा कार्य जो अत्यंत दुष्कर हो, और मानवीय प्रयासों से उसे पूर्ण नहीं किया जा सके तथा उसे पूरा करने के लिए दैवीय शक्ति की आवश्यकता हो तो उस दुष्कर कार्य को पूरा करने का निश्चय करने वाले व्यक्ति को उस स्थान पर पहुंचने का अनुमति-पत्र प्राप्त होता था।

किंतु पिनाक को भगवती की तपस्या कई माह तक करनी पड़ी।

तपस्या की शुरुआत में वह बैठ कर तपस्या करते और दिन में एक बार भोजन करते थे।

इसके उपरांत उन्होने खड़े होकर और कंदमूल खाकर तपस्या की।

जब भी भगवती प्रसन्न नहीं हुई तो, पिनाक ने केवल वायु का सेवन करते हुए एक पैर पर खड़े होकर भगवती दक्षिण काली की आराधना की।

जैसा कि ऊपर भी बताया गया है, समस्त तपस्या के दौरान पिनाक महादेवी दक्षिण काली के बीज मंत्र 'क्रीं' का मानसिक जप करते रहे थे।

वह बारम्बार भगवती से प्रार्थना करते, "हे मां दक्षिण कालिके, मुझ पर प्रसन्न होकर, मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करें।"

और अंत में एक दिन महादेवी पिनाक के सम्मुख प्रगट हो गई।

पिनाक ने तुरंत भगवती के चरणों में गिरकर साष्टांग दंडवत किया।

भगवती दक्षिण काली ने पिनाक को कहा, "हे वत्स, मैं तुम पर प्रसन्न हूं, बताओ तुम्हे क्या वरदान चाहिए।"

पिनाक ने पहले तो बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में देवी की स्तुति की तथा उसके उपरांत बहुत ही दीन शब्दों में भगवती से कहा, "हे माते, आपके दर्शनों के उपरांत कोई भी अभिलाषा शेष नहीं रहती, किंतु जनकल्याण हेतु आपसे एक वरदान प्राप्त करना चाहता हूं।"

"निर्भय होकर मांगों पुत्र, जो तुम्हे चाहिए, वह तुम्हे अवश्य प्राप्त होगा", भगवती ने कहा।

"मां, आप तो प्रत्येक प्राणी के दिलों के भेद जानती हो, कोई भी रहस्य आप से छुपा हुआ नहीं है इसलिए मांगने में संकोच होता है", पिनाक ने कहा।

इस पर भगवती ने कहा, "पुत्र पिनाक, क्या कोई पुत्र भी माता के सम्मुख मांगने में संकोच करता है?"
निसंकोच होकर कहो, क्या वरदान चाहिए।"

"हे माते भगवती, हे विशाल हृदय की स्वामिनी, हे भक्तों को अभय प्रदान करने वाली देवी, आप के तेज से संपन्न राजकुमार शक्ति देव नाम का एक मानव, आपकी शक्ति के मद में बहुत उपद्रव करता घूम रहा है।"

"उसने अनेक युवतियों से बलात्कार कर तथा उनका दिल निकाल कर खा लिया है।"

"मेरी उससे एक बार मुठभेड़ भी हो चुकी है, जिसमें मेरा जीवन केवल आपकी कृपया से ही सुरक्षित रह सका।"

"हे माता, मुझ अधम पर कृपा करके आप मुझसे राजकुमार शक्ति देव के अंत का उपाय कहिए", पिनाक ने भगवती से प्रार्थना की।

"वत्स पिनाक, मेरा तेज धारण करने के बाद उसका अंत करना संभव नहीं है और उसे परास्त भी नहीं किया जा सकता।"

"अगर वह मेरी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करता तो हजारों वर्ष तक अक्षय यौवन का स्वामी होकर जीवन का उपभोग करता, किंतु अब भी सैकड़ों वर्ष तक उसके जीवन का अंत नहीं हो सकता", महादेवी ने कहा।

"क्या उसका अंत संभव नहीं है, मां?" और क्या वह अधम प्राणी ऐसे ही अपराध करता रहेगा?" पिनाक ने भगवती से प्रश्न किए।

"वत्स, मैंने ऐसा तो नहीं कहा, प्रत्येक दुष्ट प्राणी का वध अवश्य होता है, उसका भी होगा।"

"राजकुमार का अंत तो समय आने पर ही होगा, किंतु उसके अंदर स्थापित मेरे तेज को सुप्तावस्था में किया जा सकता है", भगवती ने कहा।

"मेरे उस तेज के सुप्तावस्था में जाने पर राजकुमार एक साधारण प्राणी के समान हो जाएगा जब तक कि उसके तेज को जगाया नहीं जाएगा।"

"वो कैसे माता?", पिनाक का प्रश्न था।

"इसके लिए तुम्हें तुम्हारे आश्रम के शिवालय में स्थापित पश्चिमाभिमुख शिवलिंग के सम्मुख मेरे सहस्त्र नाम का एक लाख बार पाठ करना होगा"

"इस पाठ का दूसरा नाम वरदान भी है, इसके एक लाख बार जप करने से तुम्हे मेरे और भगवान महाकाल के संयुक्त वरदान की प्राप्ति होगी, जिससे तुम अपने कार्य को सिद्ध कर सकोगे", भगवती ने कहा।

"इस सहस्त्र नामावली को मैं तुम्हारे हृदय में स्थापित कर रही हूं, जिससे तुम इन नामों का एक लाख बार जप अल्प समय में कर सकोगे", भगवती ने आगे कहा।

"इसके अतिरिक्त मैं तुम्हे बताती हूं कि आश्रम में विराजमान शिवलिंग में अमोघ शक्ति है।"

"अब तुम्हे बिना कोई आवश्यक कार्य के आश्रम को छोड़कर नहीं जाना चाहिए वरन् वहीं रहकर भगवान शिव की आराधना करनी चाहिए।"

"यह तुम्हे मरते समय अवधेशानंद ने भी बताया होगा", महादेवी दक्षिण काली ने कहा।

"अपनी आंखे बंद करो वत्स, अब मैं तुम्हे सीधे तुम्हारे आश्रम में पहुंचा रही हूं, जाओ अपना कार्य आरंभ करो, मेरे आशीर्वाद से तुम्हें इस कार्य में निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होगी।"

पिनाक ने भगवती की परिक्रमा की, साष्टांग दंडवत कर प्रणाम किया और अपनी आंखे बंद करली।

जब उसने आंखे खोली तो अपने आप को आश्रम में पाया।
 
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पिनाक ने आश्रम के शिवालय में स्थापित पश्चिमाभिमुख शिवलिंग के समक्ष विधि-विधान के अनुसार एक लाख बार दक्षिण काली के सहस्त्र नामों का जप बिना किसी विघ्न या बाधा के पूरा कर लिया।

इस जप के परिणाम-स्वरूप पिनाक को भगवती दक्षिण काली के दर्शन भगवान महाकाल सहित हुए।

पिनाक को भगवान और भगवती का संयुक्त वरदान प्राप्त हो गया।

इस वरदान के फलस्वरुप पिनाक को वह वरदान तो प्राप्त हुए ही, जो भगवती दक्षिण काली के तेज को प्राप्त करने पर होते, इसके अतिरिक्त अब वह तीनों काल यानि कि भूत, भविष्य या वर्तमान में कहीं भी गमन कर सकता था।

वह एक स्थान पर मौजूद रहकर तीनों काल की घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप में देख सकता था।

इस वरदान के फलस्वरुप पिनाक को कई अन्य सिद्धियां भी प्राप्त हुई जिनकी जानकारी समय-समय पर पता चलती रहेगी।

पिनाक अब सभी प्राणियों से अजेय था और वह राजकुमार शक्ति देव का मुकाबला करने को तैयार था।

---

सर्दियों के दिन थे, दिल्ली निवासी प्रसिद्ध सेठ दीनदयाल का 22 वर्षीय इकलौता पुत्र रवि गुप्ता रात्रि के समय अपनी पत्नी के साथ स्वयं द्वारा चालित कार से एक सुनसान सड़क से गुजर रहा था। सड़क के दोनों ओर खेत थे।

वे दोनों कुछ ही दिन पहले विवाह-बंधन में बंधे थे तथा एक विवाह में शामिल लेकर लौट रहे थे।

नए-नए विवाह का खुमार था कि रवि ने एक उचित जगह तलाश कर कार को रोक दिया और अपनी पत्नी को आगोश में लेकर उसके होठों पर एक गहन चुंबन चस्पां कर दिया।

दोनों शीघ्र ही उत्तेजित होकर कार की पिछली सीट पर पहुंच गए और उस कार्य को संपन्न करने में तल्लीन हो गए किया जो एक नवविवाहित स्त्री-पुरुष को करना शोभा देता था।

उपरोक्त कार्य को संपन्न करने के बाद वे अपने रास्ते पर कुछ ही आगे चले थे कि रवि ने कार को रोक लिया और सड़क के किनारे जाकर लघु-शंका करने के लिए अपनी पतलून की जिप खोली।

तभी वहां एक चेतावनी गूंजी, "सावधान मानवजात, यहां शहजादा-ए-जिन्न आराम फरमा रहे हैं, अगर तुमने यहां पर पेशाब करने की उद्दंडता की तो तुम्हें इसका दण्ड भुगतना होगा।"

रवि एक आधुनिक विचारों का युवक था तथा भूत, प्रेत, जिन्न इत्यादि को नहीं मानता था।

उसने उस घोषित चेतावनी को नजरंदाज कर वहीं पर लघु-शंका कर दी और अपनी पत्नी के साथ उस स्थान को छोड़कर चलता बना।

रात्रि का समय था, रवि सपत्नीक अपने बेडरूम में सो रहा था।

अचानक वह जोर जोर से चीखने लगा, "बचाओ, बचाओ, आग...आग...मेरा सम्पूर्ण शरीर आग से जला रहा है।"

रवि की पत्नी अनीता उसकी चीखों को सुनकर भयभीत होकर उठ बैठी।

रवि ने जोर से अनीता को अपनी बाहों में जकड़कर कहा, "अनीता, मुझे बचाओ मेरा पूरा शरीर आग से जला जा रहा है।"

अनीता को कहीं भी आग नहीं दिखाई दी, तो वह घबरा कर उठी और जाकर अपने ससुर दीन दयाल के बेडरूम का दरवाजा खटखटाकर करुण स्वर में उनको पुकारा,

'पिताजी, माता जी'

दीन दयाल उस समय पुत्र-वधू अनीता की पुकार सुनकर थोड़ा सा घबराए हुए से अपनी पत्नी सहित कक्ष से बाहर आए और अनीता से पूछा,

"क्या हुआ बहू, इतनी रात गए तुम हमारे कक्ष के बाहर, क्या कोई बुरा स्वपन देखा है?"

"नहीं पिताजी, आप के पुत्र...."

पुत्र का जिक्र आने पर दीन दयाल विचलित हो उठा और बीच में अपनी पुत्र वधू को टोक कर कहा,

"क्या हुआ रवि को, अनीता, बताओ क्या हुआ उसे?"

अनीता ने कहा, पिताजी, वे आग-आग चिल्ला रहे हैैं, लेकिन आस-पास कहीं भी अग्नि नजर नहीं आ रही, इसके अतिरिक्त वे कह रहे है कि उनका पूरा शरीर आग से जला जा रहा है।"

अनीता की बातें सुनकर दीन दयाल बहुत ही ज्यादा घबरा गए और अपनी पत्नी सहित रवि के बेडरूम की तरफ भागे।

रवि माता-पिता को अपने समीप देखकर जोर-जोर से रोने लगा और कहा, "मैं आग से जला जा रहा हूं पिताजी, मुझे बचाइए, मुझे बचाइए, वरना मैं जलकर भस्म हो जाऊंगा।"

दीनदयाल और उसकी पत्नी को भी कहीं अग्नि नजर नहीं आई।

वे दोनों सोचने लगे कि आग तो कहीं भी नहीं दिखाई दे रही, फिर उसका पुत्र किस अग्नि की बात कर रहा है, उसे हो क्या हो गया है?

इसके उपरांत उन दोनों के देखते-देखते रवि के पूरे शरीर पर फफोले पड़ गए और उनसे मवाद रिसने लगा।

अचानक रवि के मुख से एक अजनबी आवाज निकलने लगी जैसे वह नहीं बोल रहा हो वरन् उसके अंदर से कोई ओर बोल रहा हो...."तूने मेरे स्थान पर पेशाब कर मुझे जलाया है, अब मैं भी तुझे जलाऊंगा।"

दीनदयाल ने अपने पुत्र रवि को तुरंत ही नई दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल में पहुंचाया।

एक से एक विशेषज्ञ डाक्टरों द्वारा रवि का इलाज किया गया, परंतु उसका रोग ठीक नहीं हुआ।

उसके मुख से अजनबी आवाज को सुनकर मनोवैज्ञानिकों की भी सलाह ली गई लेकिन वही ढाक के तीन पात रहे।

उसकी हालत में कोई सुधार न तो होना था और न ही हुआ।

दीनदयाल अपने पुत्र रवि को लेकर पूरे भारतवर्ष के डाक्टरों और मनोवैज्ञानिकों के पास गए लेकिन उसका रोग दूर नहीं हुआ।

अपने पुत्र के गम में दीनदयाल भी दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा था और उसके चेहरे पर गम की परछाइयां साफ नजर आती थी।

एक दिन दीनदयाल की पत्नी ने दीनदयाल से कहा,"आप पुत्र को लेकर स्वामी अवधेशानंदजी के आश्रम में क्यों नहीं जाते?"

"लेकिन उनका तो स्वर्गवास हो चुका है, अब उधर रवि को कौन ठीक करेगा", दीनदयाल ने कहा।

"स्वामी अवधेशानंद के प्रमुख शिष्य तथा उत्तराधिकारी पिनाक तो वहां जरूर उपस्थित होंगे", दीनदयाल की पत्नी ने उत्तर दिया।

दीनदयाल को अपनी पत्नी की बात उचित लगी किंतु वह उसको और अपने पुत्र रवि को साथ लिए बैगर अकेला ही सुबह-सुबह अपनी कार द्वारा स्वामी अवधेशानंद के आश्रम में पहुंच गया।

उस वक्त उसके चेहरे पर मलीनता के भाव थे, दाढ़ी कई दिनों की बढ़ी हुई थी और कपड़ों में भी सिलवटों के निशान थे।

सेठ दीनदयाल को अब इन बातों का कोई ख्याल भी नहीं था।

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उधर पिनाक अपने कक्ष में बैठे ध्यान लगाकर देखने की कोशिश कर रहे थे कि राजकुमार शक्ति देव उस समय कहां था, ताकि वहां पहुंच कर उसे पाठ पढ़ाया जा सके।

पिनाक के गुरु स्वामी अवधेशानंद बहुत ही साधारण प्रकार से रहते थे।

पिनाक ने भी आश्रम में साधारण प्रकार से रहना शुरू कर दिया था।

उनके कक्ष में फर्नीचर के नाम पर केवल लकड़ी का एक तख्त था, जिस पर साधारण दरी बिछी हुई थी और कुछ कुर्सियां पड़ी हुई थी जिन पर आने वाले विशेष मेहमान बैठते थे।

श्रद्धालुओं के लिए एक अन्य विशाल कक्ष था, जिसमें स्वामी अवधेशानंद उनसे मुलाकात करते थे और प्रवचन देते थे।

पिनाक प्रवचन तो नहीं करते थे परंतु उस कक्ष का उपयोग आम श्रद्धालुओं से मिलने के लिए करने लगे।

जिस कक्ष में स्वामी अवधेशानंद रहते थे, पिनाक ने उस कक्ष को उनका स्मृति-स्थल बना दिया और अपने रहने के लिए एक अलग कक्ष नियत किया।

जिस समय पिनाक ध्यान लगा रहे थे उसी समय आश्रम के मैनेजर अग्निहोत्री ने उनके कक्ष का दरवाजा खटखटाया तथा अंदर आने की अनुमति चाही।

पिनाक ने बहुत ही सहज भाव से अग्निहोत्री को अंदर आने की अनुमति प्रदान कर दी।

मैनेजर अग्निहोत्री उनके समीप पाए और प्रणाम कर कहा कि सेठ दीनदयाल अपनी किसी निजी समस्या के समाधान हेतु उनसे मिलना चाहते हैं।

मैनेजर ने उनको बताया कि सेठ दीनदयाल नई दिल्ली के एक बड़े व्यापारी है और स्वामी अवधेशानंदजी के परम भक्त है।

पिनाक अभी किसी से मिलना तो नहीं चाहते थे लेकिन दीनदयाल के स्वामीजी का भक्त होने के कारण उन्होंने अनुमति प्रदान कर दी और कहा, "ठीक है, उन्हें मेरे इसी कक्ष में ले आओ।"

सेठ दीनदयाल ने पिनाक के कक्ष में आकर बड़ी ही भक्ति भाव से उनके चरण-स्पर्श किए। सेठजी की उम्र पिनाक से बहुत ज्यादा थी, इसलिए उनके द्वारा अपने चरण-स्पर्श करने पर उन्हें कुछ अलग सा महसूस किया।

फिर उन्हें ध्यान आया कि वह स्वामी अवधेशानंद के उत्तराधिकारी के रूप में यहां उपस्थित है।

भक्तों द्वारा चरण-स्पर्श करने की प्रक्रिया की उनको आदत डालनी ही होगी।

पिनाक ने दीनदयाल को आशीर्वाद देकर तथा उनको अपने सामने एक कुर्सी पर बैठने को कहकर, अपनी समस्या बताने को कहा।

सेठ जी कुछ बताते, उससे पहले ही उनका गला रूंध गया और वह फूट-फूटकर रोने लगे।

पिनाक अपने तख्त से नीचे उतरे और गहन भाव से सेठजी का आलिंगन कर उनको सांत्वना दी और ढांढस बंधाया।

पिनाक ने कहा, "सेठ जी भगवती दक्षिण काली और भगवान महाकाल की कृपा से, मैं आपका प्रत्येक कार्य चाहे संभव हो या असम्भव, करने में सक्षम हूं।"

"किंतु कुछ भी बताने से पहले आपको जलपान करना होगा", पिनाक ने सेठजी को शांत करने के उद्देश्य से आगे कहा।

यह कहकर पिनाक ने आश्रम के एक कर्मचारी को सेठ जी के लिए जलपान लाने को कहा।

सेठजी जलपान कर कुछ स्वस्थ हुए तो पिनाक ने पुनः उनको अपनी समस्या बताने को कहा।

सेठ जी ने बड़े ही गमगीन भाव बताया, "उनका २२ वर्षीय पुत्र रवि अपनी पत्नी सहित किसी विवाह में शामिल होकर एक रात को लौटा था, उसने उसी रात आग-आग चिल्लाना शुरू कर दिया।"

"इसके उपरांत उसके सम्पूर्ण शरीर पर फफोले हो गए और उसी समय उनमें से मवाद रिसने लगा।"

"वह अजनबी आवाज में बार-बार कहता है, "तूने मेरे स्थान पर पेशाब कर मुझे जलाया है, अब मैं तुझे जलाऊंगा।"

"पूरे भारत के डॉक्टर, वैद्य, हकीम, मनोवैज्ञानिकों से इलाज करवा चुका हूं, परंतु कोई फायदा नहीं हुआ", सेठ दीनदयाल ने आगे कहा।

इसके उपरांत दीन दयाल ने प्रार्थना करते हुए कहा, "अब तो आप ही मेरे पुत्र का जीवन बचा सकते है स्वामीजी, उसको कुछ हो गया तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा।"

पिनाक ने तुरंत ध्यान लगाकर पूर्ण घटनाक्रम को जान लिया।

उन्होंने दीनदयाल से कहा, "सेठजी जिस रात्रि आपका पुत्र रवि अपनी पत्नी के साथ विवाह में सम्मिलित होकर लौट रहा था, उसने रास्ते में जिन्नों के शहजादे आलम की मढ़ी पर पेशाब कर दिया।"

"तुम्हारे पुत्र के उस जगह पेशाब करने से जिन्नों के शहजादे के जिस्म पर फफोले पड़ गए।"

"उन फफोले के कारण शहजादे के जिस्म में भयंकर जलन हो रही है।"

"क्योंकि रवि के शहजादे की मढ़ी पर पेशाब करने के कारण उसे कष्ट हो रहा है, इसीलिए वह रवि को भी कष्ट पहुंचा रहा है, किंतु भगवती की कृपा से मैं दोनों को ही स्वस्थ करूंगा", पिनाक ने आइसके उपरांत पिनाक ने आश्रम के ड्राइवर सुखवीर को बुलाया और कार तैयार करने को कहा।

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पिनाक और सेठ दीनदयाल अपनी-अपनी कारों द्वारा आलम की मढ़ी पर दो घंटे में पहुंच गए।

यह मढ़ी सड़क के किनारे खेतों में थी।

खेतों में उस समय कुछ ग्रामीण कार्य कर रहे थे।

पिनाक ने सुखबीर के द्वारा उनमें से एक को अपने पास बुलवाया।

"क्यों भाई क्या नाम है तुम्हारा"? पिनाक ने उस ग्रामीण से पूछा।

"मेरा नाम बसंता है, हुजूर।"

"जानते हो बसंता, यह किसकी मढ़ी है?"

"हुजूर पक्का तो पता नहीं परंतु कहते हैं किसी जिन्न की है।"

"क्या इसकी कोई देखभाल करता है?"

"हां करते हैं हुजूर, सब आसपास के गांव वाले मिलकर इसकी साफ-सफाई और मरम्मत इत्यादि करवाते हैं।"

बसंता, पिनाक ने सेठ जी की तरफ इशारा करते हुए कहा, "यह दिल्ली के सेठ दीनदयाल है, यह इस मढ़ी पर कुछ निर्माण कार्य करवाना चाहते हैं।"

"क्यों नहीं हुजूर, मैं अभी गांव वालों को इकट्ठा कर लेता हूं", बसंता ने कहा।

कुछ ही समय बाद बहुत से गांव वाले उधर इकट्ठे हो गए।

कार्य की रूपरेखा तैयार की गई जिसके अनुसार मढ़ी के ऊपर संगमरमर के पत्थरों का लगवाया जाना, पेंट करवाना और इसके चारों ओर लोहे के दरवाजे सहित चारदीवारी का निर्माण शामिल था।

स्वामी अवधेशानंद पूरे भारत में अपने अच्छे कार्यों के लिए प्रसिद्ध थे।

जब ग्रामीणों को पता चला कि पिनाक उनका उत्तराधिकारी है तथा आश्रम के कार्य अब इन्हीं के जिम्मे है, तो उनमें पिनाक के चरण-स्पर्श करने की होड़ लग गई।

कुछ ही समय में पिनाक के सामने ग्रामीणों ने भेंट-स्वरूप बहुत सी सामग्री उपस्थित कर दी जिसमें मुख्यतः खेतों में उपजी सब्जियां, दूध, दही इत्यादि थे।

इतनी भावना के साथ दी गई भेंट को पिनाक अस्वीकार नहीं कर सके।उन्होंने उस सामग्री में से कुछ अपने पास रख कर, बची हुई सामग्री को ग्रामीणों में ही वापिस लौटा दिया।

ग्रामीणों ने भी उसको आश्रम का प्रसाद समझकर तुरंत ही स्वीकार कर लिया।

इसके उपरांत ग्रामीणों में से एक मुख्य व्यक्ति को निर्माण कार्य पर होने वाले अनुमानित खर्च से कुछ ज्यादा ही देकर उन्होंने नई दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया।

ग्रामीणों ने भी इस निर्माण कार्य को अति शीघ्र पूरा करवाने का वचन दिया।

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वे जब सेठ दीनदयाल के नई दिल्ली के रोहिणी स्थित आवास पर पहुंचे तो रात्रि के दस बज चुके थे इसीलिए पिनाक ने रवि को देखने का कार्य सुबह तक स्थगित कर दिया और रात्रि सेठ जी के आवास पर ही व्यतीत करने का निश्चय किया।

सुबह पिनाक ने सेठ जी के सब परिवार वालों की उपस्थिति में रवि को अपने समीप बुलवाया।

रवि के पिनाक के समीप आते ही उसके अंदर से शहजादा आलम बोला, "आप कौन है जनाब?

"आपके दर्शन मात्र से मेरी रूह को सुकून मिल रहा है।"

"मेरा नाम पिनाक है और तुम्हें स्वस्थ करने के लिए यहां आया हूं", पिनाक ने उत्तर दिया।

इतना कहकर पिनाक ने रवि के मस्तक पर अपना हाथ रख दिया।

पिनाक के रवि के मस्तक पर हाथ रखते शहजादा-ए-जिन्न आलम बिल्कुल स्वस्थ हो गया तथा उसके शरीर और आत्मा की पीड़ा बिल्कुल समाप्त हो गई।

वह रवि के शरीर से बाहर निकलकर पिनाक के चरणों में गिर पड़ा।

वह बार-बार कृतज्ञता प्रगट करते हुए कहने लगा,

"आपने मुझे नया जीवन दिया है।"

"मेरी समस्त पीड़ा का हरण कर लिया है।"

"आज से मैं आपका गुलाम हूं।"

पिनाक ने उसे उठाकर अपने गले से लगाते हुए कहा, "शहजादे तुम मेरे गुलाम नहीं वरन् मित्र हो।"

"मैं धन्य हूं देव, जो आप जैसी अजीम हस्ती ने मुझ हकीर को अपना मित्र स्वीकार किया", आलम ने रोते हुए कहा।

"आप जब भी मुझे याद करेंगे मैं आपके चरणों में हाजिर हो जाऊंगा।"

"जैसी तुम्हारी इच्छा।"

"मेरा तुमसे एक निवेदन है, शहजादे।"

"आप हुक्म कीजिए, देव। मैं तो आपका सेवक मात्र हूं।"

पिनाक ने शहजादे से कहा, "अब तुम बिल्कुल निरोग हो गए हो, मेरी तुमसे इल्तजा है कि तुम रवि को भी स्वस्थ कर दो।"

पिनाक भी रवि को पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान कर सकते थे, किंतु उन्होंने शहजादे को उसे निरोग करने के लिए इस हेतु कहा कि अगर उसके मन में रवि के प्रति कुछ दुर्भावना हो तो वह समाप्त हो जाए।

शहजादे ने अपनी आंखें बंद कर ली और अपना एक हाथ आगे फैलाया।

कुछ ही क्षणों में उसके हाथ पर सोने का एक खूबसूरत प्याला आ गया।

उस प्याले में सुनहरी रंग का एक तरल पदार्थ भरा हुआ था।

"यह जिन्न लोक का एक विशेष पेय है देव", शहजादे ने तरल पदार्थ की तरफ इशारा करते हुए पिनाक से कहा।

"इसकी एक खुराक के सेवन मात्र से यह मानवजात बिल्कुल निरोग हो जाएगा।"

ऐसा ही हुआ जैसे आलम ने कहा था, उस सुनहरे पेय को पीने से रवि तुरंत ही बिल्कुल स्वस्थ हो गया।

उसके शरीर के फफोले, उनमें से बहता हुआ मवाद तथा शारीरिक जलन बिल्कुल ठीक हो गए जैसे किसी ने जादू कर दिया हो।

सेठ दीनदयाल का पूरा परिवार पिनाक के प्रति कृतज्ञ हो उठा।

सेठ जी ने उन्हें एक करोड़ रुपए का चेक देते हुए कहा, "वैसे तो आपकी कृपा अमूल्य है तथा आपने मेरे पुत्र की जान बचाई है फिर भी कृप्या करके यह तुच्छ भेंट स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें।"

लेकिन पिनाक ने वह भेंट
स्वीकार नहीं की और जिन्नो के शहजादे सहित वहां से विदा हो गए।दुर्गम वन क्षेत्र की एक गुफा में एक मूर्ति रखी हुई थी। यह बहुत ज्यादा प्राचीन और भयानक नजर आती थी।

इस वन में निवास करने वाले वनवासी इसके समीप भी नहीं जाते थे। उनका मानना था कि यह एक शापित देवता सैरात की मूर्ति है।

वनवासियों के अनुसार भगवान महादेव ने सैरात को शाप दिया था कि जो भी मानव उसकी पूजा करेगा उसे विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा।

पता नहीं इस मूर्ति का खौफ था या कोई अन्य कारण इस गुफा के अंदर कोई भी जानवर नहीं जाता था।

यहां तक कि जंगल के राजा सिंह जैसे पशु भी उस गुफा के समीप फटकते से डरते थे।

वनवासियों ने एक आचार संहिता बना रखी थी। जिसके तहत जो भी वनवासी सैरात की पूजा करेगा उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा।

किंतु अगर कोई सोचता था कि सैरात की मूर्ति उपेक्षित होकर धूल-मिट्टी में लौटती होगी, तो उनका विचार गलत था।

एक वनवासी दिगंत सिंह प्रति अमावस्या को सैरात की पूजा करने के लिए उसकी गुफा में जाता था।

जिज्ञासु प्रवृत्ति का दिगंत सिंह शुरू से उस मूर्ति के प्रति आकर्षण अनुभव करता था। उसे लगता था कि सैरात की मूर्ति उसे अपनी ओर खींच रही है। जब उसकी जिज्ञासा ज्यादा जोर मारने लगी तो एक अंधेरी रात में वह चुपके से उठा और सैरात की गुफा की ओर चल दिया। समस्त रास्ते में उसे लगा कि जैसे वह मूर्ति उसे पुकार रही हो,"आओ दिगंत सिंह, मेरे पास आओ।"

उस भयानक रात में जंगली पशु चिंघाड़ रहे थे, उनकी भयानक गर्जना से वातारण में डर का माहौल था, लेकिन दिगंत सिंह तो जैसे अपनी ही धुन में गुफा की ओर बढ़ता जा रहा था। उसे तो बस यही सुनाई दे रहा था," मेरे पास आओ, दिगंत सिंह मेरे पास आओ।"

दिगंत सिंह अपनी ही धुन में चलता हुआ गुफा में जा पहुंचा। वह एक बहुत बड़ी गुफा थी, कहा जाता था कि वह अंदर ही अंदर चलकर पाताल लोक तक पहुंचती थी।

उस समय गुफा में घोर अंधकार छाया हुआ था। वैसे तो दिन में भी उस गुफा में अंधेरा रहता था परंतु रात्रि के समय तो इतना अंधकार था कि हाथ को हाथ नहीं दिखाई देता था।

दिगंत सिंह ने देखा कि सैरात की मूर्ति अंधेरे में हल्के-हल्के चमक रही थी। उस मूर्ति के की बनावट इस प्रकार की थी की आंखों के स्थान पर दो छोटे-छोटे गड्ढे दिखाई देते थे।
उसको उन आंखों में से रोशनी की दो किरणें निकलती हुई दिखाई दी जो आगे चलकर एक हो जाती थी।

चमकती हुई मूर्ति और उसकी आंखों से निकलती हुई किरण को देखकर दिगंत सिंह भयभीत होकर वापिस जाने के लिए मुड़ा, तभी मूर्ति के मुख से एक आवाज आई, "डरो मत दिगंत सिंह, मेरे पास आओ, मैंने ही तुम्हें इधर बुलाया है।"वैसे तो दिगंत सिंह का डर के मारे पेशाब निकला जा रहा था, फिर भी;अपने अंदर हिम्मत जुटा कर वह उस मूर्ति के पास जा पहुंचा।

दिगंत सिंह के मूर्ति के समीप जाते हो उसकी चमक तेज हो गई।

उसे लगा कि मूर्ति हल्के-हल्के अंदाज में मुस्कुरा रही हो।

मूर्ति की आंखों से निकलने वाली किरणें दिगंत सिंह पर पड़ने लगी तथा वह विमोहित होकर मूर्ति को एक-टक देखने लगा।

उसके मन में समाया हुआ भय न जाने कहां उड़न-छू हो चुका था।

किसी अज्ञात भावना के वशीभूत होकर वह मूर्ति के सामने गिर पड़ा और उसके पैरों पर अपना मस्तक रगड़ने लगा।

मूर्ति के मुख से आवाज आई, "मैं जानता हूं दिगंत सिंह, तुम मेरे भक्त हो, तुम अगर मेरी उपासना करोगे, तो मैं तुम्हें दुनिया के सभी ऐशो-आराम उपलब्ध करवा दूंगा।"

दिगंत सिंह दुनिया के सभी ऐशो-आराम की बात सुनकर सपनों की दुनिया में विचरने लगा, उसने कहा, "मैं करूंगा देवता, मैं आपकी उपासना अवश्य करूंगा।"

"तुम मुझे खून पिलाओ, मैं वर्षों का प्यासा हूं दिगंत सिंह", मूर्ति ने कहा।

दिगंत सिंह ने चाकू निकाला और अपनी हथेली को चीर दिया।

उसकी हथेली से खून का फव्वारा छूट पड़ा।

खून देखते ही मूर्ति की आंखों की चमक बढ़ गई।

अनायास ही उसके मुख से जिव्हा बाहर निकल आई तथा वह लंबी होकर दिगंत सिंह की हथेली तक जा पहुंची और उसका खून चाटने लगी।

दिगंत सिंह को कोई दर्द महसूस नहीं हो रहा था, बल्कि वह तो प्रसन्न था कि देवता उसका खून चाट रहे है।

उसके मुख पर आवेश की लालिमा छा गई तथा वह आवेशित होकर कहने लगा, "और लो देवता, और पियो, मेरी रगों में बहता हुआ समस्त खून आपके लिए ही है।

यह कहकर वह अपने अन्य अंगो को चाकू से काटने लगा।

लेकिन मूर्ति ने उसको ऐसा करने से रोक कर कहा, "बस दिगंत सिंह, मैंने तुम्हारा खून अपने खून में मिला लिया है, अब तुम मेरा ही एक रूप हो लेकिन तुम्हे एक कार्य करना होगा।"

"प्रत्येक अमावस्या को तुम्हे एक पांच साल तक के बच्चे का खून मुझे पिलाना होगा।"

"तुम्हारी इस सेवा के बदले मैं तुम्हे दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बना दूंगा तथा सारी पृथ्वी तुम्हारे क़दमों में होगी।"

इस घटना के बाद पहली अमावस्या को दिगंत सिंह मध्य-रात्रि को चुपके से उठा और एक वनवासी की झोपड़ी की और चल दिया।

उसने वह झोपड़ी दिन में ही चिह्नित कर ली थी। उस वनवासी के घर एक तीन साल का बच्चा था।

वह चुपके से वनवासी की झोपड़ी में घुस गया। बच्चा अपनी मां से चिपका हुआ सो रहा था। उसने धीरे से बच्चे को मां से अलग किया। उसका मुंह एक कपड़े से दबाया और झोपड़ी से बाहर हो गया।

झोपड़ी से बाहर आकर वह गुफा की ओर दौड़ा। थोड़ा आगे जाकर उसने बच्चे का मुंह को खोल दिया, बच्चा जोर-जोर से रोने लगा। लेकिन अब उसको कोई भय नहीं था क्योंकि बच्चे के रोने की आवाज अब उन झोपड़ियों तक नहीं जा सकती थी, वैसे भी सभी बेहोशी की नींद सो रहे थे।
दिगंत सिंह प्रसन्न होकर गुफा में पहुंचा, वह सोच रहा था, आज देवता को भेंट अर्पण करूंगा, देवता मुझ पर खुश होकर, कृपा करेंगे।

मूर्ति जैसे उसका ही इंतजार कर रही थी। उसके हाथ में मासूम बच्चे को देखकर, वह तेज प्रकाश से चमकने लगी, उसकी जिव्हा बाहर निकल आईं जैसे बिना कोई देरी के वह बच्चे का रक्त पान करना चाहती हो।

दिगंत सिंह ने बच्चे को एक तरफ डाल दिया, वह खुशी से झूम-झूम कर नाचने लगा और कहने लगा, "देवता आपकी भेंट लेे आया हूं, इसे स्वीकार करें।"

मूर्ति तो जैसे पहले से ही तैयार थी, उस मासूम का रक्त पान करने के लिए।

उसके मुख से आवाज निकली, "बस दिगंत सिंह और देरी मत करो, मुझसे ज्यादा देर बर्दाश्त नहीं हो रही, जल्दी से बच्चे की गर्दन की नस काट दो।"

दिगंत सिंह ने फौरन ही बच्चे की गर्दन की नस काट दी, मूर्ति की जीभ लपलपाई और लंबी होकर उसका खून पीने लगी।

मूर्ति ने बच्चे के खून की एक-एक बूंद चाट डाली। फिर उसके मांस को खाने लगी। तदुपरांत उसने एक अंगड़ाई लेकर जोर की डकार अपने मुंह से निकाली जैसे मनपसंद भोजन मिलने के बाद तृप्ति की डकार हो।

मूर्ति ने बचे हुए शव को दिगंत सिंह की ओर फेंक दिया जिस पर अब कुछ ही मांस शेष रह गया था। बचे हुए मांस को दिगंत सिंह ने चाट डाला। अब शव का केवल कंकाल शेष रह गया था।

मूर्ति का चेहरा और बाकी हिस्सा अब कुछ-कुछ किसी जीवित प्राणी जैसा महसूस होने लगा था।

उसने दिगंत सिंह को कहा, "तुम यह भेंट मेरे लिए प्रति अमावस्य को लाना जिससे मुझे अपनी खोई हुई शक्तियों की पुनः प्राप्ति हो जाएगी और पूरी पृथ्वी पर शैतान का आधिपत्य होगा।"

वनवासी बेचारे बहुत ही साधारण तरीके से रहते थे। किसी का बच्चा चुरा लिया जाएगा, यह यह बात वे स्वपन में भी नहीं सोच सकते थे।

उन्होंने सोचा बच्चा घुटनों के बल इधर-उधर चला गया होगा। उन्होंने पूरे जंगल को छान मारा, किंतु बच्चा नहीं मिला। इससे उन्होंने सोचा कि बच्चे को कोई हिंसक जंतु उठाकर ले गया और उसे मार कर खा गया। इसीलिए बच्चे के गुम होने के बारे में ज्यादा शोर नहीं हुआ।

किंतु जब लगातार बच्चे गायब होने लगे वह भी अमावस्या की रात तो वनवासियों ने उस रात को पहरा देना शुरू कर दिया, जिससे दिगंत सिंह के लिए बच्चा चुराना कठिन हो गया।

दिगंत सिंह ने मूर्ति से कहा, "देवता अब वनवासी सावधान हो गए हैं जिससे बच्चा चुराना कठिन हो रहा है।"

मूर्ति ने कहा, "अब तुम्हें बच्चा चुराने की आवश्यकता नहीं है, मैं स्वयं ही उनका शिकार करूंगा।'

अमावस्या की काली अंधेरी रात थी। मध्य रात्रि में अचानक गुफा का वातावरण भयानक होने लगा, बाहर हवा में सनसनाहट बढ़ने लगी और दूर-दूर तक भयपूर्ण वातावरण की सृष्टि होने लगी।

तभी गुफा में मूर्ति के अंदर कुछ हलचल हुई, वह उछल कर कुछ आगे बढ़ी तथा धीरे-धीरे उसका रूप बदलने लगा।

अब वह एक पूर्ण वयस्क बिल्ले के रूप में थी, एक ऐसा भयानक बिल्ला जो कद-काठी में शेर के बड़े बच्चे के बराबर दिखता था।

बिल्ले ने जोर की एक अंगड़ाई ली और गुफा के बाहर छलांग लगाकर तेजी से वनवासियों की झोपड़ियों की ओर दौड़ने लगा।

वनवासियों ने अपनी झोपड़ियों के समीप पहरा लगाया हुआ था, इसीलिए वह छुपता हुआ एक झोपड़ी के पास पहुंचा जिसमें से एक बच्चे की रोने की आवाज सुनाई दे रही थी।

वह दबे पांव झोपड़ी में घुसा। बच्चे की मां उसे दूध पिलाकर चुप कराने का प्रयास कर रही थी। कुछ ही समय उपरांत बच्चा और उसकी मां दोनों सो गए तब बिल्ले ने चुपसे बच्चे को अपने मुंह में दबाया और झोपड़ी से बाहर हो गया।

उसने वनवासियों की परिधि से बाहर जाकर बच्चे की गर्दन को अपने मुंह से दबाकर जोर से काट डाला।

कटी हुई गर्दन से खून तेज गति से बहने लगा, वह उस खून को बड़े चाव से चाटने लगा, वातावरण में चपड़-चपड़ की आवाज गूंजने लगी जो उस भयानक रात को और डरावनी बना रही थी। बच्चे का समस्त खून पीने के बाद उसने उसका समस्त मांस तक खा डाला, यहां तक कि कंकाल को भी अपनी जीभ से चाट-चाट कर बिल्कुल साफ कर दिया और उसको उधर जंगल में ही छोड़कर अपनी गुफा में जाकर वापिस इंसानी रूप की मूर्ति में बदल गया।

सुबह जब बच्चे की जगह उसका कंकाल मिला तो वनवासियों में भय फैल गया।

वे तुरंत अपनी-अपनी पत्नियों और बच्चों सहित इकट्ठे होकर एक साधु की ओर दौड़े, जिसने जंगल में अपनी कुटिया बना रखी थी और वन देवी की उपासना करता था।

वनवासी उस साधु को बहुत पंहुचा हुआ मानते थे। उसे किसी किस्म को कोई लोभ या लालच नहीं था। वह किसी से कुछ मांगता भी नहीं था, जो भी उसे कुछ भेंट देता वह उसे प्रेम से स्वीकार कर लेता था।

रात के समय साधु को वन देवी ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा था, "वत्स, अब मै यह जंगल छोड़ कर जा रही हूं।"

साधु के पूछने पर वन देवी ने बताया, "शैतान के प्रमुख दस पुजारियों में से एक सैरात जाग उठा है, जिसको महादेव ने अपने शाप से पत्थर का बनाकर, इस जंगल की गुफा में स्थापित कर दिया था।"

"वनवासियों में से ही एक दिगंत सिंह ने उसको बच्चों का खून पिलाकर जगाया है, अब यहां भयंकर तबाही के बादल उठेंगे, खून की बरसात होगी, लहू का दावानल बहेगा और एक भी वनवासी जीवित नहीं बचेगा अगर तुम उन्हें समय पर इस जंगल से निकाल नहीं लोगे।"

साधु ने स्वप्न में वन देवी से पूछा, "माता क्या इस तबाही से बचने का कोई उपाय नहीं है।"

वन देवी ने उत्तर दिया, "वत्स उपाय तो है, किंतु वह तुम्हारे या मेरे करने से नहीं होगा, जो होगा वह महादेव की इच्छा से होगा।

महादेव ने सैरात को पत्थर का बनाते समय मुझे बताया था कि अब की बार वह जागेगा तो केवल अंतिम निद्रा में सोने के लिए। वह अपनी राह में खुद कांटे बोएगा और उनमें उलझ कर रह जाएगा।"

जब सभी वनवासी साधु की कुटिया की ओर जा रहे थे तो दिगंत सिंह सैरात की गुफा की ओर भागा।

सैरात का शाप उतर चुका था और वह अपने असली रूप में गुफा में मौजूद था।

दिगंत को देखकर उसने कहा, "आओ दिगंत सिंह, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था, मुझे मेरी ताकत दोबारा हासिल हो चुकी है, तुम्हारी सेवा का प्रतिफल तुम्हे अवश्य मिलेगा।"

दिगंत सिंह यह सुनकर खुश हो गया और सैरात के चरणों में प्रणाम करके कहा, "देवता आपका सदैव अनुयायी रहूंगा" तथा उसे सूचित किया कि सब वनवासी मिलकर साधु की कुटिया की ओर जा रहे थे।

"मैं जानता हूं, दिगंत, सब जानता हूं, उनमें कोई भी इस वन से बाहर नहीं जा सकता, मैं उनका खून पियूंगा, तुम भी छककर रक्तपान करना।"

इतना कहकर सैरात बिल्ले के रूप में बदल गया, फिर उस बिल्ले में से अनेक बिल्ले निकलने लगे और वह गुफा बिल्लों से भर गई।

सैरात ने दिगंत सिंह को भी बिल्ले के रूप में बदल दिया तथा सब बिल्ले मिलकर गुफा से बाहर दौड़ने लगे। उनके मुख से भयंकर किलकारियां निकल रही थी, जिससे सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाएं।

सभी वनवासी इकट्ठे होकर जब साधु की कुटिया में पहुंचे, तो वह बाहर ही खड़ा था, जैसे उन्हीं का इंतजार कर रहा हो।

साधु ने उनको कहा, "मैं जानता हूं, तुम यहां क्यों आए हो, दिगंत सिंह कहां है?, पहले उसे जाकर पकड़ो, उसने तुम सब को मौत के मुंह में धकेल दिया है।"

"परंतु ठहरो, अब उसे खोजने का समय नहीं रहा, तुम सब तुरंत जंगल से बाहर निकलो।"

"मगंत सिंह ने सैरात को जगा दिया है, वह अब तुम सब का खून पीने के लिए इधर आता ही होगा।"

"लेकिन महाराज, हमारे पशु और हमारा समान..., एक वनवासी ने कहना चाहा, किंतु साधु ने उसको बीच में ही रोककर कहा, "जब जान बचेगी, तभी तो पशुओं को बचाओगे, फौरन जंगल सभी वनवासियों में साधु की बात सुनकर भगदड़ मच गई और सब जंगल के बाहर जाने वाले रास्ते के तरफ भाग लिए।

सभी के चेहरों पर भय के भाव थे, एक साधु ही केवल ऐसा व्यक्ति था, जिसके चेहरे पर डर के भाव नहीं थे, किंतु उसके मुख पर भी उदिग्नता स्पष्ट नजर आती थी।

एक वनवासी अपनी पत्नी और बच्चे के साथ भागा जा रहा था, उसकी पत्नी जिसकी गोद में उसका बच्चा भी था, अचानक ठोकर खाकर गिर पड़ी, वनवासी अपनी ही झोंक में कुछ कदम आगे निकल गया, उसने जब पीछे मुड़कर देखा तो, उसके रोंगटे खड़े हो गए और वह भय से चीख पड़ा।

उसकी पत्नी के वक्ष पर एक भयानक बिल्ला बैठा हुआ था, उस बिल्ले ने उसकी पत्नी का नरखरा उधेड़ दिया था तथा उसमे से बहते हुए रक्त को तेजी से चाट रहा था।

तभी कई अन्य बिल्ले आए तथा उसकी पत्नी के शरीर के मांस को उधेड़-उधेड़ कर खाने लगे।

कुछ ही क्षणों में उसके शरीर का केवल कंकाल मात्र ही रह गया।

उस वनवासी ने एक नजर में ही यह कांड होते देखा, जब तक उसकी नजर झपकती, उस पर भी अनेकों बिल्ले टूट पड़े और कुछ ही पलों में वह भी कंकाल मात्र होकर रह गया।

कुछ ही समय में बिल्लों ने समस्त वनवासियों का भक्षण कर लिया। जंगल से बाहर जाने वाले रास्ते के चारों ओर कंकाल ही कंकाल बिखरे पड़े थे, वह भी इतने साफ कि जैसे प्रयोगशाला के लिए तैयार किए गए हो।

दो दिन तक तो प्रशासन को इस घटना का पता ही नहीं चला।

पता तो कई दिन भी नहीं चलता लेकिन भला हो चुनावों का, सत्ताधारी पार्टी के मौजूदा विधायक, जिसने पिछले चुनाव में जीतने के बाद, पूरे पांच साल जंगल की ओर रुख नहीं किया था, वोट मांगने के लिए उधर पधारे।

उनके साथ पूरा सरकारी अमला था। लेकिन जंगल का तो नजारा ही अलग था, उसमें चारों तरफ मानव कंकाल बिखरे हुए थे और किसी भी वनवासी का कोई नामोनिशान भी नहीं था।

बिल्लों का अगला हमला जंगल के पास बने हुए एक गांव में हुआ।

गोधूलि का समय था, ज्यादातर ग्रामीण खेतों से वापिस आ चुके और अपनी शाम की दिनचर्या शुरू कर रहे थे कि बिल्लों ने गांव को चारों तरफ से घेर लिया और ग्रामीणों का भक्षण शुरू कर दिया।

कुछ ग्रामीणों ने घर का दरवाजा बंद करने का प्रयत्न किया लेकिन बिल्ले उससे पहले ही उनके घरों में घुस गए।

बिल्लों ने थोड़े ही समय में सभी ग्रामीणों का सफाया कर डाला।

अब गांव में किसी जीवित मनुष्य का नामोनिशान तक नहीं था, चारों तरफ उनके कंकाल बिखरे हुए थे।

जो ग्रामीण खेतों से वापिस नहीं आ पाए थे, वहीं भाग्यवश इस दुर्घटना से बच पाए। प्रशासन को दुर्घटना का समाचार भी उन्हीं ग्रामीणों से मिला।

चंद दिनों के अंदर उस तरह की दो विचित्र घटनाएं हो जाने से सम्पूर्ण देश में घोर प्रक्रिया हुई। समाचार पत्र और टीवी चैनल सरकार की आलोचना के स्वरों से भरे हुए थे।
 
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स्वयं शैतान उस गुफा में सैरात की मूर्ति के सामने उपस्थित होकर कह रहा था-

"सैरात अब तेरे जागने का समय आ गया है।"

"महादेव के श्राप की अवधि पूरी हो चुकी है।"

"मैंने एक वनवासी दिगंत सिंह में तुम्हारे प्रति आकर्षण पैदा कर दिया है जिससे वह तुम्हारे जागने के लिए साधन उपलब्ध करवाएगा।"

"जागने के बाद तुम ज्यादा से ज्यादा नर-रक्त और मांस का सेवन कर अपनी छुपी हुई शक्तियों को जगाना।"

"पृथ्वी पर अब शीघ्र ही अच्छाई और बुराई के बीच युद्ध होने वाला है।"

"इस युद्ध में हम अपनी समस्त शक्तियां झोंक देंगे।"

"तुम्हारे अतिरिक्त अपने नौ प्रमुख अनुचरों और बुराई का साथ देने वाली मुख्य शक्तियों को इस युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दे दिया है।"

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जिले के डीएम और एसपी का तुरंत तबादला कर दिया गया। नया डीएम अपने कार्य में कुशल व्यक्ति था, उसने युद्ध स्तर पर मामले की जांच करवाई। कंकालो की फॉरेंसिक जांच में उन पर बिल्ली प्रजाति की लार के अवशेष पाए गए।

जिस जंगल ने पहली घटना घटित हुई थी उस जंगल को पूरी तरह छान मारा गया।

पुलिस सैरात की गुफा तक भी पहुंची और वहां सरसरी नजर डालकर वापिस चली आई। अगर उन्हें गुफा के महत्व का पता होता तो शायद कोई गहन जांच भी करते।

डीएम ने अपने कार्यालय में एसपी को भी बुला रखा था। उनके मध्य चर्चा का विषय बिल्ली प्रजाति की लार था।

एसपी कह रहा था कि आज तक यह देखने में नहीं आया कि किसी भी बिल्ली प्रजाति के जीव ने इस तरह मनुष्यों का सफाया कर दिया हो।

यहां तक की उनका कंकाल भी चाट-चाट कर साफ कर दिया हो।

उनके मध्य यह चर्चा चल ही रही थी कि डीएम के अर्दली ने कमरे में आने की इजाजत चाही।

अंदर आने पर अर्दली ने बताया कि एक तांत्रिक किस्म का व्यक्ति उनसे मिलना चाहता है।

डीएम पहले तो अपने अर्दली पर नाराज हुए कि उतनी महत्वपूर्ण मीटिंग में वह नाजायज हस्तक्षेप कर रहा था, किंतु उसके यह बताने पर कि वह व्यक्ति कंकालों वाले मामले के सिलसिले में उनसे मुलाकात करना चाहता था, तो डीएम ने उस व्यक्ति को अंदर भेजने की अनुमति प्रदन कर दी।

आगंतुक एक लंबा-चौड़ा और मजबूत कद-काठी का अधेड़ व्यक्ति था, जिसके सिर पर लंबे बाल थे और दाढ़ी बढ़ी हुई थी।

उसने काले रंग के वस्त्र धारण किए हुए थे और हाथ में एक बड़ा चिमटा था।

उसकी आंखों में गजब का तेज था जिसके कारण कुछ पल भी उससे आंखें मिलाना संभव नहीं था।

वैसे तो सरकारी अफसर अपने से ऊपर भगवान को भी नहीं समझते, किंतु डीएम एक घाघ व्यक्ति था तथा उसको मामले के महत्त्व का पता था।

इसीलिए उसने उस व्यक्ति को बहुत ही इज्जत के साथ अपने सामने एसपी के समीप कुर्सी पर बैठाकर उससे उसका परिचय आदि पूछा।

उस व्यक्ति ने कहा, "मेरा नाम तांत्रिक जटा नंद है।"

दरअसल जटा नंद गुफा और वनवासियों से विपरित दिशा में रहता था। वह एक एकांतप्रिय व्यक्ति था इसीलिए उसके बारे में ज्यादा लोग जानते नहीं थे।

उसे अपने ज्ञान से मालूम था कि उस गुफा में सैरात का निवास है और वह नींद से जागकर तबाही मचाने वाला है।आप कंकालों वाले मामले में क्या जानते हो", डीएम ने पूछा।

"यह सैरात का कार्य है", जटा नंद ने कहा।

यह सुनकर कि जटा नंद कातिल को जानता है, डीएम और एसपी दोनों ही चौंक पड़े तथा उससे पूछा, "यह सैरात कौन है?"

जटा नंद ने उनको सैरात और उसकी गुफा के बारे में बताया।

इसके अतिरिक्त उसने उनको यह भी बताया कि सैरात ने एक वनवासी दिगंत सिंह के सहयोग से पुनः जीवन प्राप्त कर लिया था तथा वह बिल्लों का रुप धारण कर नर-रक्त और मांस का भक्षण कर रहा था।

डीएम और एसपी को उसकी बातें विश्वसनीय नहीं लगी। किंतु उसकी बातों में बिल्लों का जिक्र था इसीलिए उसको वहां बैठाए रखा, वरना तो वे उसे कभी का वहां से रफा-दफा कर देते।

दोनों खामोशी से बैठकर बैठे जटा नंद की और देख रहे थे।

जटा नंद भी समझ गया कि वे उसकी बात पर विश्वास नहीं कर पा रहे।

उनके बीच की खामोशी तब टूटी, जब जटा नंद ने डीएम से पूछा, "क्या मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा?"

अब डीएम बेचारा क्या कहे? अगर वह 'नहीं' कहता, तो जटा नंद हाथ से जाता था और 'हां' कहने का उसमे विश्वास नहीं था।

अगर कोई साधारण मामला होता तो डीएम अब तक अफ़वाह फैलाने के जुर्म में जटा नंद को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा चुका होता।

आखिर उसको कहना पड़ा, "हम आपकी बात पर कैसे विश्वास करे, जटा नंद जी, क्या यह बातें विश्वास के योग्य है?"

जटा नंद भी डीएम की परिस्थितियों को समझता था। वह जानता था कि डीएम जैसे अंग्रेजी रहन-सहन वाले अफसर उसकी बातों पर विश्वास कर भी नहीं सकते।

आखिर बहुत लंबे विचार-विमर्श के बाद उनमें निश्चय हुआ कि जटा नंद की बातों की रोशनी में दोनों घटनास्थलों का पुनः निरीक्षण किया जाए ताकि कोई सूत्र हासिल हो सके।

पुलिस विभाग के जांच विशेषज्ञों और सशस्त्र पुलिस बल की सुरक्षा के साथ तीनों ने पहले जंगल से खोज-बीन शुरू की।

जंगल से आने-जाने वाले रास्ते के दोनों तरफ मानव खून बिखरा हुआ था, वह बात पहले ही जांच में साबित हो चुका थी।

किसी सूत्र की तलाश में डीएम, एसपी और जटा नंद सहित जंगल में खोज-बीन कर रहे थे।

उनके साथ मौजूद सुरक्षा बल चारों तरफ निगाह रखे हुए था तथा किसी भी अनजाने खतरे से निबटने के लिए तैयार था।

अचानक उनके समीप झाड़ी से एक गुर्राहट सुनाई दी। सुरक्षा बल ने तुरंत चौकन्ने होकर अपने हथियार उस तरफ घुमा दिए।

झाड़ी से एक भयानक बिल्ला बाहर निकला जिसके देखने मात्र से डर लगता था।

वह बिल्ला तुरंत ही एक सुरक्षा कर्मी पर झपटा। सुरक्षा कर्मी ने भी फायरिंग खोल दी जिससे अनेक गोलियां बिल्ले से जा टकराई।

लेकिन सभी गोलियां बिल्ले के शरीर से ऐसे आर-पार हो गई जैसे किसी रबड़ की सीट से निकल गई हो।

इतनी गोलियां लगने के बाद भी बिल्ले का कुछ नहीं बिगड़ा और उसने पलक झपकते ही पुलिस कर्मी का नरखरा उधेड़ कर उसका प्राणांत कर दिया तथा बिना किसी की परवाह किए बगैर उसका खून पीने में तल्लीन हो गया।

उसके बाद तो जैसे बिल्लों की पूरी फौज ने ही उन पर हमला कर दिया।

यह देखकर सभी की रगों में बहता हुआ खून जैसे जम गया और भय से उनकी हालत खराब हो गई।

केवल जटा नंद ही ऐसा व्यक्ति था जो भयभीत नहीं वरन् पूरे होशोहवास में था।

उसने तुरंत ही अपने गले से दो मालाएं निकाली और डीएम व एसपी के गले में डाल दी। उसके गले में अब भी अनेक तरह की अलग-अलग मालाएं मौजूद थी।

जटा नंद ने उन दोनों को कहा, "ये मालाएं आप दोनों की रक्षा करेगी, मैं इन पुलिस कर्मियों को भी बचाता लेकिन इतना वक्त नहीं है।"

बिल्लों की सेना ने उन तीनों पर भी आक्रमण किया लेकिन तांत्रिक की दी हुई मालाओं की वजह से जो भी बिल्ला उनके नजदीक आया, वह भयभीत होकर उनसे दूर भाग गया।
तब उनमें से सैरात निकल कर आगे आया तथा जटा नंद को संबोधित कर कहा, "मूर्ख, मैं शैतान का पुजारी हूं, तुम्हारी इन तुच्छ मालाओं को कुछ नहीं समझता, चाहूं तो अभी तुम तीनों को मृत्यु की राह पर रवाना कर सकता हूं, लेकिन जाओ और पूरी दुनिया को बताओ कि सैरात जाग गया है तथा पूरी मानवता का काल बनकर आ रहा है।"

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अब तो किसी अन्य जांच की जरूरत ही नहीं रह गई थी।

डीएम और एसपी ने कुछ देखा-सुना था, उसका विवरण उन्होंने राज्य सरकार को लिख भेजा। अंत में इस विवरण पर डीएम की टिप्पणी थी, "मैं जानता हूं कि इस रिपोर्ट में जो भी लिखा है, वह अविश्वसनीय है, किंतु मैं और एसपी उसके प्रत्यक्षदर्शी है, अगर तांत्रिक जटा नंद नहीं होते तो हम दोनों भी अन्य पुलिस कर्मियों की तरह मृत्यु के ग्रास बन चुके होते।"

राज्य सरकार ने तो रिपोर्ट का खुलासा मीडिया में नहीं किया, किन्तु पता नहीं कैसे यह लीक हो गई और उसी दिन पूरे भारत वर्ष में हंगामा शुरू हो गया।

तरह-तरह की अफवाहों का बाजार गर्म होने लगा।

जंगल के समीप के क्षेत्र के निवासी तो अत्यंत भयभीत होकर वहां से पलायन करने लगे।

राज्य सरकार ने सम्पूर्ण विवरण को, डीएम की टिप्पणी सहित केन्द्र सरकार के पास भेज दिया। इसके ऊपर राज्य सरकार के गृह मंत्री की टिप्पणी थी, "कृपया समस्या के निबटारे हेतु जिले में सेना को नियुक्त किया जाए या जो भी उपाय उचित हो वो किए जाए।"

केंद्र के ओर से सेना को तुरंत आदेश दे दिए गए तथा सेना ने उस क्षेत्र में जाकर अपना कार्य-भार संभाल लिया।

जंगल पर विशेष फोकस किया गया, सेना ने पूरे जंगल को चारों तरफ से घेर लिया।

उधर केंद्र सरकार ने एक गुप्त कार्यवाही भी की, उसने मामला ब्लैक हॉक संस्था को सौंप कर शीघ्र कार्यवाही करने को कहा।

श्रीपत नामक एक एजेंट को इस केस पर नियुक्त किया गया।

सेना ने जब तक जंगल के चारों ओर घेरा डाला, श्रीपत भी वहां पहुंच गया।

सेना को श्रीपत के बारे में रक्षा मंत्रालय की तरफ से आदेश थे कि उसकी किसी भी कार्यवाही में बाधा न डाली जाए तथा उसे किसी किस्म की सहायता की आवश्यकता हो तो तुरंत उपलब्ध करवाई जाए।

वहां पहुंचते ही श्रीपत ने जटा नंद की तलाश शुरू की और आखिर में एक जगह पर उसे पा ही लिया। जटा नंद के पास जो जानकारियां थी, उसने उन्हें प्राप्त कर लिया और उसे अपने साथ लेकर जंगल की ओर रवाना हो गया।

जटा नंद के साथ श्रीपत ने पूरे जंगल को छान मारा किंतु कोई जिंदा या मुर्दा प्राणी वहां नहीं मिला।

कोई बिल्ला भी उनको वहां दिखाई नहीं दिया, शायद वे जंगल छोड़कर चले गए थे या अभी सामने नहीं आना चाहते थे।

जंगल में घूमते-घूमते वे दोनों सैरात की गुफा में जा पहुंचे। उन्होंने गुफा के अंदर जाकर देखा तो गुफा खाली दिखाई दे रही थी किंतु कुछ ही वक्त में उन्होंने गुफा में खून के धब्बों की तलाइससे श्रीपत को जटा नंद के कथन के महत्व का अंदाजा हुआ।

वे गुफा में आगे गए तो उन्हें पता चला कि वह तो अंतहीन दिखाई पड़ती थी इसीलिए श्रीपत ने एक कार्यक्रम स्थिर किया और वे दोनों वापिस लौट गए।

वापिस लौटकर श्रीपत ने सेना की एक विशेष टुकड़ी की मांग साजोसामान सहित की, जिसको प्रत्येक परिस्थिति में युद्ध का अनुभव प्राप्त था, इसके अतिरिक्त दिल्ली स्थित अपने विभाग से कुछ आवश्यक वस्तुओं की मांग की जिसमें कुछ विशेष प्रकार की अंगूठियां भी शामिल थी।

जब दिल्ली से सभी वस्तुएं वहां पहुंच गई तो सेना की विशेष टुकड़ी को, उनके साजोसामान और जटा नंद सहित साथ लेकर श्रीपत गुफा के अंदर घुसा।

श्रीपत जटा नंद को किसी जोखिम में नहीं डालना चाहता था, इसीलिए वह उसे अपने साथ नहीं रखना चाहता था, लेकिन उसके विशेष आग्रह करने पर उसने उसे साथ लेे लिया।

जंगल में घुसने से पहले उसने स्वयं और सेना के सभी जवानों को एक-एक अंगूठी दाएं हाथ की अनामिका उंगली में धारण करवाई और स्वयं और उनके गले में एक लॉकेट भी पहनाया।

श्रीपत ने जटा नंद को भी ये वस्तुएं धारण करने के लिए कहा लेकिन उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि उसके पास स्वयं का इंतजाम था।

वे अपने साथ कम से कम तीन दिन के लिए आवश्यक खुराक और पानी भी लेकर चले थे।

श्रीपत समझता था कि गुफा के अंदर अवश्य ही काम की जानकारियां प्राप्त होगी इसीलिए उसने गुफा में गहरे घुसने का कार्यक्रम बनाया था, जटा नंद भी उसकी सोच से सहमत था।

गुफा में चलते-चलते उन्हें पूरे दो घंटे बीत चुके थे लेकिन कोई भी प्राणी वहां नहीं दिखाई दिया। गुफा लगातार गहराई की तरफ जा रही थी।ऐसी गुफाओं में प्राय: चमगादड़ और अन्य सरीसृप अपना निवास बना लेते है, किंतु उनको यह देखकर आश्चर्य हुआ कि प्राणी के नाम पर तो वहां चीटियां भी नहीं थी।

जब उनको चलते हुए छ: घंटे से भी ज्यादा बीत चुके तो श्रीपत ने काफिले को रुकने के निर्देश दिए। वहां पर उन्होंने चाय-नाश्ता कर कुछ देर आराम किया और आगे की ओर बढ़ चले।

वे कुछ ही दूर आगे बढ़े थे कि उन्हें वह सुराग दिखाई दिया जिसकी खोज में उन्होंने गुफा के अंदर प्रवेश किया था।

गुफा में उस स्थान पर एक चबूतरा सा बना हुआ था, जिस पर एक विशाल बिल्ला बैठा हुआ था जैसे ध्यान में मग्न हो तथा चबूतरे के नीचे एक अन्य बिल्ला बैठे हुए था।

उनके आने की आहट पाकर दोनों बिल्ले सजग हो गए। ऊपर वाला बिल्ला उन्हें देखकर जोर से गुर्राया तथा उनपर आक्रमण कर दिया। उसे आक्रमण करते देख, सेना के जवानों ने दोनों बिल्लों पर फायरिंग शुरू कर दी, लेकिन बिल्लों का कुछ नहीं बिगड़ा। लेकिन बिल्लों का हमला भी प्रभावी नहीं रहा। उन सबने जो अगुंठिया और लॉकेट पहने हुए थे, उनसे उनकी रक्षा हुई।

ऊपर वाला बिल्ला सैरात था और नीचे वाले बिल्ले के बारे में पाठक समझ गए होंगे कि वह दिगंत सिंह था।

सैरात ने अपने अंदर से अन्य बिल्लों की प्रगट करना चाहा, लेकिन श्रीपत ने कोई मंत्र पढ़कर उसको ऐसा करने से रोक दिया।

श्रीपत ने जटा नंद को इशारा किया कि वह दिगंत सिंह को काबू करे तथा स्वयं सैरात से मुकाबला करने के लिए आगे बढ़ा।

उसके एक हाथ में विशेष तलवार थी तथा दूसरे हाथ में एक ढाल।

उसने एक जोर का प्रहार सैरात के ऊपर किया, लेकिन सैरात उस वार को बचा गया और उछल-उछल कर श्रीपत पर आक्रमण करने लगा, किंतु वह श्रीपत का कुछ भी नुकसान नहीं कर पाया।

जब सैरात ने देखा कि उसके सभी वार असफल हो रहें है तो उसने बिल्ले का रूप त्याग दिया और मानव रूप में आ गया। उसके हाथों में एक अस्त्र प्रगट हुआ, जोकि महादेव के त्रिशूल से मिलता-जुलता था।

उसने श्रीपत को संबोधित करके कहा, "तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, मुझे शैतान से शक्तियां प्राप्त है।" फिर उसने जटा नंद की ओर इशारा करके कहा, "इस को तो मैं पहले ही जीवित छोड़ चुका हूं, यह फिर से मरने के लिए यहां आ गया।"

लेकिन श्रीपत ने उसकी बातों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और उसपर आक्रमण जारी रखा।

सैरात भी कोई कम खिलाड़ी नहीं था, वह शैतान के प्रमुख दस पुजारियों में से एक था। उसने अपने हाथ में मौजूद त्रिशूल से अंगारे प्रगट किए और उन्हें श्रीपत के ऊपर फेंककर कहा, "अब तू नरक कि आग में जलकर मर।" लेकिन अंगारे भी श्रीपत को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सके, असल में यह कोई वास्तविक अग्नि तो थी नहीं वरन् सैरात द्वारा प्रगट की हुई एक माया थी।

अब सैरात बौखला गया और गुस्से में आकर तरह-तरह के वार श्रीपत पर करने लगा। कभी वह उसपर सांप छोड़ देता, कभी चाकुओं की बौछार कर देता।

अंत में उसने अपने त्रिशूल से तेजाब की एक धार श्रीपत के ऊपर फेंकी, किंतु श्रीपत ने उस तेजाब को अपनी ढाल पर ले लिया और बड़ी फुर्ती से आगे बढ़कर उसकी गर्दन पर तलवार का एक जोरदार वार कियासैरात उस वार से बचने के लिए एक तरफ हुआ, लेकिन सम्पूर्ण रूप से स्वयं को नहीं बचा पाया और उसका एक हाथ कटकर दूर जा पड़ा।

सैरात को समझ में आ चुका था कि वह इस मनुष्य का मुकाबला नहीं कर सकता तो उसने भागने में ही भलाई समझी।

वह यह कहते हुए वहां से गायब हो गया, "मानव, सैरात को कोई नहीं मार सकता, न हीं उसे कोई पराजित कर सकता है और यह तो अभी शुरुआत है, तुम इसका अंत देखना, कितना भयानक होगा।"

उधर जटा नंद ने आसानी से दिगंत सिंह पर काबू पा लिया था तथा वह बंधा हुआ एक तरफ पड़ा था।

श्रीपत ने गुफा में इससे आगे जाना उचित नहीं समझा और वे सब वापिस लौट गए।

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सैरात एक हाथ कटवाने के बाद पीड़ित होकर घायल अवस्था में शैतान के सामने घुटनों के बल बैया था।

वह शैतान से निवेदन कर रहा था, "मेरी उपासना में क्या कमी रह गई प्रभु, जो मुझे एक मानव के हाथों पराजित होकर तथा एक हाथ खोकर भागना पड़ा?"

"तुम चिंतित मत हो सैरात, तुम्हारी उपासना में कोई भी कमी नहीं हुई है।"

"तुम अब भी मेरे प्रमुख पुजारियों में से एक हो।"

"युद्ध में जय-पराजय तो होती ही रहती है, रहा तुम्हारे हाथ का प्रश्न, उसको अभी ठीक कर देता हूं।"

यह कहकर शैतान ने अपने हाथ सैरात की ओर बढ़ा दिए तथा उन हाथों से रंग-बिरंगी चमकीली किरणें निकलकर उसके शरीर पर पड़ने लगी।

उन किरणों के प्रभाव से सैरात को अपना कटा हुआ हाथ तो दोबारा प्राप्त हुआ ही साथ ही उसे अपने अंदर एक अभूतपूर्व शक्ति का संचार भी होता महसूस होने लगा।

सैरात आभार प्रगट करते हुए शैतान के पैरों में गिरकर कहने लगा, "मालिक, आप अपने गुलामों पर सदैव ही कृपा करते हैं।"

"अब मैं स्वयं को अत्यंत शक्तिशाली महसूस कर रहा हूं तथा अभी जाकर उस तुच्छ मानव का वध करता हूं।"

लेकिन शैतान ने उसे यह कहकर रोक दिया कि उस मानव का वध अब समय आने पर ही होगा, तुम अच्छाई के विरूद्ध आखिरी जंग की तैयारी करो।

"जैसी आपकी आज्ञा, मालिक", सैरात ने कहा।

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महाभैरवी मंगला एक महाश्मशान में जलती हुई चिता के सामने बैठकर मंत्र जाप में तल्लीन थी।

वह अपने गले में नर-मुंड की माला और कमर में मानव हाथ की बनी हड्डियों की मेखला धारण किए हुए थी।

उसके वामे शराब का एक घड़ा तथा दाहिने लाल कनेर के फूल किसी प्राणी के मांस में मिलाकर रखे हुए थे।

उसके सामने नर-मुंड का बना हुआ एक खप्पर रखा था जिसमें कोई सुगन्धित पदार्थ भरा हुआ था।

वह रह-रह कर सुरा का पान कर रही थी और जोर-जोर से किसी मंत्र का जाप कर कनेर के फूलों की आहुति चिता में दे रही थी।

आहुति के साथ-साथ वह खप्पर में रखे सुगन्धित पदार्थ के छीटें भी चिता में मार देती थी।

जब वह उस पदार्थ के छीटें चिता में मारती तो एक विचित्र आकृति चिता की लपटों में बनती और आहुति में दिए गए पदार्थ को ग्रहण कर लेती थी।

भयानक वातावरण था। भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल इत्यादि इतर योनियों के प्राणी तांडव कर रहे थे, डाकिनियां, शाकिनियां नृत्य कर रही थी। किंतु माहौल से बेखबर मंगला अपने कार्य में लीन थी।

मंत्र जाप करते-करते अचानक वह बुदबुदा उठी, 'नीच', 'पापी', 'हत्यारा', 'राक्षस'।

लेकिन उसने मंत्र जाप और चिता में आहुतियां देना बंद नहीं किया।

उसके चेहरे पर पहले जैसे निश्चिंतता के भावों की बजाय उदिग्नता के भाव थे।

दो-तीन आहुतियां शेष रही थी, मंगला ने वह भी पूर्ण कर दी तथा खप्पर में बचा हुआ सुगन्धित पदार्थ एक साथ चिता में उड़ेल दिया।

उस पदार्थ के पड़ते ही चिता से आग की लपटों से घिरी एक भयावह आकृति उत्पन्न हुई तथा जोर-जोर से हुंकार भरने लगी।

उसके हुंकार भरने मात्र से श्मशान में उपस्थित इतर योनियों के प्राणियों में भगदड़ शुरू हो गई।

उनकी चीत्कारों से वातावरण गूंज उठा तथा गीदड़, लोमड़ी जैसे जीव जो श्मशान में किसी अधजले मांस के टुकड़े की तलाश में आ जाते है, वे भी अपनी-अपनी जगह दुबक गए।

उस आकृति के उत्पन्न होते ही, मंगला ने मदिरा से भरा घड़ा उसके हाथों में सौंप दिया जिसे उसने कुछ ही पल में खाली करके एक ओर फेंक दिया। फिर उस आकृति ने मंगला को संबोधित कर कहा, "कमारू को किसलिए जगाया है, देवी?"

मंगला ने वातावरण में एक दृश्य का सृजन किया, जिसमें एक व्यक्ति किसी बच्चे की बलि दे रहा था और उसके समीप एक दूसरा व्यक्ति बैठा हुआ था।

उन दोनों की ओर संकेत कर मंगला ने कमारु से कहा, "जाओ उन्हें उठाकर लाओ।"

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तांत्रिक विशाखा गिरी का शहर से बाहर अनेक एकड़ों में फैला हुआ भव्य आश्रम था।

विशाखा गिरी वशीकरण विद्या का महान पंडित था तथा ऐसी लच्छेदार बातें करता था कि सुनने वाला मोहित होकर उसे घंटो सुनता रहे किंतु मन नहीं भरे।

देश-विदेश में उसने बहुत ख्याति अर्जित की थी। देश और प्रदेश के प्रख्यात राजनीतिज्ञ, रईस तथा उच्च स्तरीय नौकरशाह उसके शिष्य थे। वे उसकी एक आवाज पर पूरे देश को हिलाने कि सामर्थ्य रखते थे।

आम जनता में भी उसकी बहुत लोकप्रियता थी तथा लोग उसे भगवान की तरह पूजते थे।

लेकिन उसका एक छुपा हुआ चेहरा भी था, जिसका रूप इतना घिनौना था कि अगर आम जनता को पता चल जाता तो पत्थर मार-मार कर उसका कत्ल कर देती। किंतु वह अपने इस चेहरे को बड़ी कुशलता से छुपाए हुए था।

विशाखा गिरी का बचपन फुटपाथ पर व्यतीत हुआ था तथा उसके माता-पिता कौन थे वह नहीं जानता था।एक बार वह भगवान कृष्ण के मंदिर के सामने भीख मांग रहा था तब साधु अशोक गिरी भगवान के दर्शन करके मंदिर से बाहर निकल रहे थे। उनकी नजर अनायास ही उस बच्चे पर पड़ी तो किसी अनजानी भावना के वशीभूत होकर वह उसके पास गए और पूछा -

"क्या नाम है बेटे तुम्हारा"

"जी, श्यामू"

"क्या मेरा शिष्य बनेगा?"

श्यामू भीख मांगकर संतुष्ट नहीं था, उसने सोचा कि साधु महाराज के पास रोटी तो मिलेगी ही।

फिर भी उसने साहस कर अशोक गिरी से पूछ ही लिया, "आपके पास रोटी तो मिलेगी, महाराज।"

"अवश्य पुत्र, रोटी के साथ-साथ तुम जो भी वस्तु खाना चाहोगे, वह तुम्हें प्राप्त होगी।"

"तब तो मैं आपका शिष्य अवश्य बनूंगा।"

अशोक गिरी एक सिद्ध पुरुष थे तथा हिमालय पर्वत की एक गुफा में उनका निवास था।

वे अपने तपोबल से किसी भी वस्तु या खाने की सामग्री पल भर में उत्पन्न कर सकते थे, किंतु वह स्वयं के स्वार्थ हेतु इस विद्या का प्रयोग नहीं करते थे।

वह तो खाने के मामले में आस-पास के गांव वालों पर आश्रित थे। गांववासी उनको जो भी भेंट उनकी गुफा में देकर जाते, वे भगवान का प्रसाद समझकर उसे स्वीकार कर लेते थे। वह किसी भी गांव में मांगने के लिए नहीं जाते थे।

श्यामू को अशोक गिरी अपनी गुफा में लेे आए, उसको विधिवत अपना शिष्य ग्रहण किया तथा उसका नाम विशाखा गिरी रखा।

शिष्य स्वीकार करते समय, उन्होंने श्यामू से कहा, "वत्स, वर्षों तक भगवान कृष्ण का चिंतन करने से मुझे जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उस सम्पूर्ण ज्ञान से मैं तुम्हे अवगत करवाऊंगा।"

"पुत्र, ज्ञान के अधीन अनेकों सिद्धियां होती है, स्वभाविक है कि जब तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा तो वे सिद्धियां तुम्हारे पास अनायास खींची चली आएगी तब तुम्हे उनके आकर्षण से बचना होगा, क्योंकि ये प्रभु की प्राप्ति में बाधा होती है।"

"इसके अतिरिक्त तुम्हें इन सिद्धियों के दुरुपयोग से भी बचना होगा, वरना तुम्हारा पतन अवश्यंभावी होगा।"

अशोक गिरी ने विशाखा गिरी के हृदय में अपना सम्पूर्ण ज्ञान कुछ ही वर्षों में उड़ेल दिया। विशाखा गिरी भी एक मेधावी शिष्य था तथा अशोक गिरी उससे प्रेम भी बहुत करते थे। युवावस्था में पदार्पण करते समय विशाखा गिरी अनेक सिद्धियों का स्वामी बन चुका था।

एक दिन अशोक गिरी ने युवा विशाखा गिरी से कहा,

"वत्स, मैं अब तुमसे एक ऐसी सिद्धि का वर्णन करता हूं, जिसकी साधना मैंने व्यावहारिक रूप से नहीं की है।"

"इस साधना को करने से मनुष्य अविजित हो जाता है अर्थात किसी से भी नहीं जीता जा सकता।"

"इस साधना का ज्ञान मुझे गुरु परम्परा से प्राप्त हुआ है।"

"मुझे मेरे गुरु द्वारा और इससे पहले मेरे गुरु के गुरु व उनके गुरुओं द्वारा यह ज्ञान उनके शिष्यों तक पहुंचता रहा है।"
परंतु सभी गुरुओं ने अपने शिष्यों को इसकी व्यावहारिक साधना करने से मना किया है।"

"अत: मैं भी अपने गुरु की वाणी का उल्लेख तुमसे करता हूं कि तुम कभी भी, किसी भी अवस्था में इसका व्यवहारिक प्रयोग मत करना।"

"यह एक तामसिक प्रक्रिया है। अतः इसका प्रयोग भी वर्जित है।"

उस गुप्त ज्ञान का उल्लेख अशोक गिरी ने अपने शिष्य विशाखा गिरी को करने के पश्चात उससे कहा, "वत्स, मुझे जो ज्ञान अपने गुरु से प्राप्त हुआ तथा जो ज्ञान मैंने स्वयं अर्जित किया, वह समस्त ज्ञान तुम्हे प्रदान कर दिया है।"

"अब तुम्हारी इच्छा है कि तुम यहीं मेरे समीप किसी गुफा में निवास कर, परमात्मा की प्राप्ति का प्रयास करो या संसार में जाकर मानव कल्याण के मार्ग को चुनो।"

"परंतु ध्यान रहे किसी भी अवस्था में तुम इस ज्ञान का प्रयोग मानवता के विरूद्ध नहीं करोगे।"

विशाखा गिरी ने संसार में जाने का मार्ग चुना तथा अपने गुरु को वचन दिया कि वह कभी भी मानवता के विरूद्ध इस ज्ञान का प्रयोग नहीं करेगा।

उसने अशोक गिरी के चरणों में गिरकर उनको प्रणाम किया तथा जाने कि आज्ञा चाही।

"तुम्हारा कल्याण हो, वत्स", यह कहकर अशोक गिरी ने उसको जाने की अनुमति प्रदान करदी।

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वापिस संसार में पदार्पण के बाद, जो श्यामू बचपन में भीख मांगकर गुजारा करता था, वह श्यामू नहीं रहा था वरन् एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी विशाखा गिरी था, जो अनेक सिद्धियों का स्वामी था, तथा किसी भी कठिन से कठिन कार्य को करने में सक्षम था।

गुफा से आने के बाद उसने सर्वप्रथम देश के सभी तीर्थ-स्थानों के दर्शन करने का कार्यक्रम स्थिर किया और इसी उद्देश्य से जगह-जगह भ्रमण करने लगा।

भ्रमण के दौरान, एक बार वह उज्जैन में था।

भगवान महाकाल के दर्शन करने के बाद वह क्षिप्रा नदी के तट पर ध्यानावस्था में लीन था, कि एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने आकर उसे प्रणाम किया।

उस व्यक्ति का नाम राधाचरण था। वह एक रईस व्यक्ति था और पूरे देश में टेक्सटाइल किंग के नाम से प्रसिद्ध था।

विशाखा गिरी ने अपनी आंखे खोली और उसकी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।

राधाचरण की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे, उसने भरे गले से कुछ कहने का प्रयत्न किया, किंतु कामयाब नहीं हो सका।

विशाखा गिरी ने उसके कंधे पर सांत्वना भरा हाथ रखकर पूछा, "क्या समस्या है, भाई तुम्हारी?"

राधाचरण ने अटकते-अटकते जो कुछ विशाखा गिरी को बताया, उसका सारांश यह था कि उसकी पुत्री का पांच लड़कों ने अपहरण करने के बाद उसका बलात्कार कर हत्या कर दी थी।

वे पांचों लड़के किसी न किसी नेता के या बड़े अधिकारी या किसी बाहुबली के पुत्र थे इसीलिए पुलिस तथा न्यायालय से भी उसकी पुत्री को न्याय नहीं मिल पाया था।

उसने कहा, "न्याय पाने के लिए आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूं, महाराज।"

"लेकिन तुम्हे कैसे पता चला कि मैं तुम्हें न्याय दिला सकता हूं?"

"मेरे अंतर्मन में प्रेरणा उत्पन्न हुई है महाराज, आप ही मेरा कार्य कर सकते है।"

विशाखा गिरी उसकी पुत्री के साथ घटित हुए कांड से दर्वित हो उठा। उसने राधाचरण से पूछा, "तुम उनका क्या करना चाहता हो?"

"उन पांचों को मृत्यु दण्ड", राधाचरण ने स्पष्ट शब्दों में अपनी अभिलाषा प्रगट की।किंतु जीवन-मृत्यु तो भगवान के हाथ में है।"

"आप ही मेरे लिए भगवान है, महाराज, अगर आपने मेरा न्याय नहीं किया तो मैं क्षिप्रा में कूदकर अपने प्राण दे दूंगा"

'हूं'

अपने गले से यह ध्वनि निकालकर, विशाखा गिरी ने उसकी ओर गंभीर भाव से देखकर कहा, "तुम्हारा कार्य हो जाएगा, किंतु मानव हत्या के पाप के तुम उत्तरदायी होगे।"

"अवश्य महाराज, उन पांचों की मृत्यु मेरी आत्मा की आवाज है, और आत्मा कभी गलत निर्णय नहीं लेती।"

"तो ठीक है, तुम मुझे आज रात ठीक दस बजे श्मशान में मिलना और इन वस्तुओं का प्रबंध कर लेना", यह कहकर विशाखा गिरी ने कुछ वस्तुओं के नाम राधाचरण को लिखवा दिए।

राधाचरण रात के ठीक दस बजे विशाखा गिरी द्वारा बताई गई सामग्री लेकर श्मशान में उपस्थित हो गया।

विशाखा गिरी ने वहां एक ऐसी चिता को चुना, जिसकी अग्नि अभी तक धधक रही थी।

उसने उधर पड़ी एक मानव अस्थि उठाई और किसी मंत्र का जाप करते हुए ४ फुट व्यास का एक घेरा बनाया तथा राधाचरण को उसमे बैठा कर कहा, "किसी भी परिस्थिति में तुम इस घेरे से बाहर मत निकलना।"

विशाखा गिरी जलती हुई चिता के सम्मुख आसन बिछाकर बैठ गया तथा सर्वप्रथम रक्षा कवच का पाठ किया।

इसके उपरांत वह राधाचरण द्वारा लायी गई सामग्री को मंत्र जाप करते हुए चिता में डालने लगा।

रात के करीब २ बजे होंगे कि वातावरण में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया।

फिर सन्नाटे को चीरते हुए भयानक आवाजें गूंजने लगी।

उन आवाजों को सुनकर राधाचरण का कलेजा बड़ी तेजी से धड़कने लगा। उसका मन कह रहा था, "भाग राधाचरण, इधर से भाग, यहां तो मौत का सामान है, जिंदगी रही तो फिर कभी न्याय का विचार किया जाएगा।"

विशाखा गिरी ने राधाचरण के भावों को समझकर, उसकी तरफ कड़ी नजरों से देखा, जैसे कह रहा हो कि ज्योंहि भागने की जरूरत की त्योंहि मृत्यु का शिकार हुए।

राधाचरण ने उसकी नज़रों से कही बात को समझा और मन को कड़ा कर चुपचाप अपनी जगह बैठा रहा।

कुछ ही समय बाद वातावरण सामान्य हो चला, उसमें गूंजती हुई आवाजें समाप्तप्राय हो चली थी कि चिता से एक-एक करके पांच मूर्तियां प्रगट होने लगी।

उन मूर्तियों का आकार मानव हाथ के अगूंठे के बराबर होगा, किंतु उनके नख-शिख इतने स्पष्ट बने हुए थे कि प्रत्येक अंग साफ पहचाना जाता था।

चिता के ऊपर मंडराती हुई उन मूर्तियों को देखकर, विशाखा गिरी ने उनसे केवल एक शब्द कहा, "जाओ।"

यह शब्द सुनते ही पांचों मूर्तियां वहां से गायब हो गई और विशाखा गिरी राधाचरण को साथ लेकर श्मशान से बाहर हो गया।

बाहर आकर विशाखा गिरी ने उससे कहा, "सुबह के टीवी समाचारों में उन पांचों की मृत्यु का समाचार देख लेना।

किंतु यह ध्यान रहे कि उनकी मृत्यु का कारण केवल तुम्हारे तक ही सीमित रहे, किसी भी दूसरे व्यक्ति को इसकी भनक तक नहीं पड़े, यहां तक कि तुम्हारी पत्नी को भी नहीं।"

राधाचरण ने विशाखा गिरी को अपने घर पर ठहरने का निमंत्रण दिया, लेकिन उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि उसका वहां ठहरना उचित नहीं होगा, साथ ही यह भी कहा कि जब भी वह उसको याद करेगा वह उपस्थित हो जाएगा।

विशाखा गिरी ने राधाचरण से कोई भेंट लेने से भी इंकार कर दिया।

सुबह के टीवी समाचारों में राधाचरण ने देखा कि उसकी लड़की के बलात्कारी व हत्यारों को रात को तीन बजे के करीब खून की उल्टियां होने लगी और जब तक उनको अस्पताल में ले जाया गया तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी।राधाचरण ने वह समाचार देखकर कहा, "निर्बल के बल राम।"

राधाचरण कोई अहसान-फरामोश व्यक्ति नहीं था। जब विशाखा गिरी ने राधाचरण से कोई भेंट लेने से इंकार कर दिया था, तब उसने उसको कुछ न कुछ अवश्य देने का मन ही मन निश्चय कर लिया था।

राधाचरण की उज्जैन के समीप पचास एकड़ जमीन थी। उसने उस भूमि पर एक भव्य आश्रम बनवाया, जिसमें सभी प्रकार की आधुनिक सुख-सुविधाएं मौजूद थी।

उसने विशाखा गिरी को याद किया और उसके वहां पहुंचने पर वह भूमि व उसमें स्थित आश्रम को उसको भेंट कर दिया।

विशाखा गिरी ने वह भेंट लेने से बहुत इंकार किया, लेकिन राधाचरण के मन के भावों को समझकर अंत में उसने वह भेंट स्वीकार कर ली।

वह सिद्ध पुरुष तो था ही, जनता के कार्य भी सिद्ध होने लगे जिससे धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्धि फैलने लगी और आश्रम में भीड़ बढ़ने लगी।

सत्ताधीशों, उच्चाधिकारियों, धनपतियों और सुंदरियों का जमघट उसके चारों ओर रहने लगा।

वह सुंदर युवतियों के जाल में ऐसा फंसा कि उसने भोग-विलास को ही अपने जीवन का उद्देश्य समझ लिया।

कहते है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा भी अपनी मानस पुत्री पर आसक्त हो गए थे, फिर एक मनुष्य की तो बिसात ही क्या थी।

जब तक वह गुरु के सानिध्य में गुफा में था, तब तक उसका उद्देश्य प्रभु सुमिरन था तथा वह दुनियावी तृष्णा, लोभ, भोग-विलास इत्यादि से दूर था।

लेकिन संसार में आने के बाद उसको माया ने जकड़ लिया और वह अपने गुरु के उपदेशों को भूलकर संसारिक बुराइयों में फंस गया।

अशोक गिरी ने एक बार उसको स्वप्न में सावधान भी किया, "वत्स, तुम मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे हो, तुम्हारे जीवन का उद्देश्य संसारिक बंधनों में फंसना नहीं वरन् प्रभु प्राप्ति और मानव कल्याण है।"

लेकिन विशाखा गिरी तो एक प्रकार से दलदल में फंस चुका था। उसने अपने गुरु की चेतावनी कि तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और वासना के समुद्र में गर्दन तक डूब गया।

मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य है, परमात्मा की प्राप्ति। जिस प्रकार दर्पण के उपर मैल की परत चढ़ जाती है तब उसमें स्पष्ट दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार मानव-मन के उपर भी जब भोग-विलास रूपी मैल की परत चढ़ जाती है तब वह अपने प्रमुख उद्देश्य यानि कि प्रभु की प्राप्ति को भूल जाता है तथा उसके जीवन में भटकन शुरू हो जाती है।

मनुष्य ऐसे फिसलन भरे रास्ते पर चलना शुरू कर देता है जिसपर एक बार फिसलने के बाद संभलने का अवसर प्राप्त नहीं होता
और वह पतन के गर्त में पहुंच कर ही दम लेता है।

ऐसा ही विशाखा गिरी के साथ भी हुआ, उसने जब संसारिक चका-चौंध रूपी रास्ते पर कदम रखा तो फिसलन शुरू हो गई और वह उसमे फिसलता ही चला गया।

उसके आश्रम में आने वाले भक्त जब उसे भगवान, प्रभु, स्वामी इत्यादि कहकर संबोधित करते तो वह स्वयं को सातवें आसमान पर उड़ता महसूस करता।

कहते है कि भगवान द्वारा किसी मनुष्य को जब महान दुख देना होता है तब वे उसकी बुद्धि पर पहले ही अधिकार कर लेते है।

विशाखा गिरी की बुद्धि का भी समझो तब हरण हो गया, जब उसके मस्तिष्क में आया कि गुरुदेव द्वारा बताई गई वर्जित साधना को कर पूरे संसार में अविजित हुआ जाए।

इस साधना को पूरी करने के लिए किसी विशेष नक्षत्र में तथा निश्चित वार को जब वह नक्षत्र उस वार में पड़े तो रात्रि के समय २१ बच्चों की बलि, जिनकी उम्र १० वर्ष से ज्यादा नहीं हो, स्वयं को बलि देवता मानकर, देनी थी।

बच्चों की बलि के दौरान कोई विध्न उत्पन्न हो जाता तो वह प्रक्रिया फिर से आरंभ करनी पड़ती।

उसके आश्रम में कुछ अपराधिक प्रवृत्ति के मनुष्य भी आते थे, जिनको विशाखा गिरी ने अपनी सिद्धियों के बल पर जेल जाने से भी बचाया था।

उनमें से एक धनराज को उसने अपनी इस साधना का उल्लेख किया तो वह उसके लिए वांछित बच्चों का प्रबंध करने को तैयार हो गया।

बलि देने की यह प्रक्रिया सात-आठ वर्ष तक चलनी थी, क्योंकि विशेष नक्षत्र वह भी किसी निश्चित वार को, साल में दो या तीन बार ही पड़ता था।

निश्चित रात्रि को एक बच्चे का अपहरण कर, गुप-चुप रूप से बेहोशी की हालत में आश्रम में लाया गया।

बलि स्थल पर बच्चे को होश में लाने के बाद विशाखा गिरी ने उसे वशीकृत कर दिया जिससे वह उसके विरूद्ध होने वाले किसी भी कार्य का विरोध नहीं कर सके।

बच्चे को पहले जल से, फिर मदिरा से, इसके उपरांत दोबारा जल से स्नान करवाकर उसे नए वस्त्र धारण करवाए गए। विशाखा गिरी ने भी इसी क्रम से स्नान कर नए वस्त्र धारण किए।

फिर उसने बच्चे को अपने सामने बैठाकर किसी सामग्री, जिसमें अक्षत, गुलाब के फूल की पत्तियां और कोई सुगन्धित पदार्थ शामिल थे, को दाएं हाथ के अंगूठे व मध्यमा से उठाकर, मंत्र जाप करते हुए बच्चे के ऊपर फेंकना शुरू कर दिया।

ज्यों-ज्यों वह प्रक्रिया आगे बढ़ी, त्यों-त्यों बच्चे के चारों तरफ प्रकाश का एक आवरण प्रगट होने लगा।

समय गुजरने के साथ-साथ वह आवरण चमकीला होता गया, लेकिन उसकी चमक सूर्य की तरह तप्त नहीं वरन् चंद्रमा की भांति शीतल थी।

जब वह आवरण पूरी तरह से चमकने लगा तो विशाखा गिरी ने बच्चे के पास खड़े धनराज को संकेत किया।

धनराज ने पास पड़े एक खड़ग को उठाकर, उसका वार बच्चे की गर्दन पर किया जिससे उसकी गर्दन कट कर दूर जा गिरी।

बच्चे के शरीर के चारों ओर फैला प्रकाश का आवरण धीरे-धीरे सिकुड़ता गया तथा उसने एक अत्याधिक चमकीले बिंदु का आकार लेे लिया।

अंत में वह बिंदु भी विशाखा गिरी की भृकुटी में समा गया, जिससे विशाखा गिरी को विश्वास हो गया कि उसकी साधना का पहला चरण सफल हो गया था।

इसके उपरांत धनराज ने वहां बिखरे खून को साफ किया और बच्चे की लाश एक बैग में ठूंसकर उसे आश्रम की एक कच्ची जगह दबा आया।

२० बच्चों की बलि निर्विघ्न दे दी गई। विशाखा गिरी स्वयं की अत्यंत शक्तिशाली महसूस कर रहा था तथा बहुत ही बेसब्री से इक्कीसवीं बलि का इंतजार कर रहा था जिससे यह प्रक्रिया सम्पूर्ण हो जाती और वह पूरी दुनिया के लिए अविजित हो जाता।

आखिर वह रात्रि भी आ पहुंचीं जिसको इक्कीसवें बच्चे की बलि दी जानी थी।

बच्चे का इंतजाम आसानी से हो गया।

बलि की विधिवत पूजा करने के बाद, धनराज की खड़ग उसकी गर्दन पर गिरना ही चाहती थी कि आग की लपटों से घिरी एक भयानक आकृति वहां प्रगट हुई।

उस आकृति ने बाएं हाथ से धनराज की गर्दन पकड़ी और दाएं हाथ का मुष्टी प्रहार विशाखा गिरी की कनपटी पर किया।

कोई साधारण मनुष्य होता तो उस प्रहार से कभी का यमलोक पहुंच गया होता लेकिन विशाखा गिरी केवल बेहोश होकर रह गया।

उस भयावह आकृति ने धनराज की गर्दन तो पहले से ही पकड़ी हुई थी तथा उसने विशाखा गिरी को भी अपने हाथ में उठाया और उन्हें लेकर वहां से गायब हो गया।
 

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