Romance राजवंश

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“दो हजार से...शो...” राज ने सामने वाले खिलाड़ी की आंखों में देखते हुए कहा।

“दो हैं किधर?” सामने बैठा खिलाड़ी आंख मारकर मुस्कराया।

“अभी मंगवाए देता हूं...मरा क्यों जाता है?”

“उस्ताद यह जुआ है...जुए में तो बाप-बेटे भी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते...इसमें उधार का धंधा नहीं चलता।”

“बड़ा अधीर है यार!” राज मुस्कराया, “दस हजार जीतकर भी तेरा पेट नहीं भरा।”

“भिखारी की झोली है...जितनी भरो थोड़ी है....”

इस वाक्य पर इर्द-गिर्द बैठे सभी व्यक्तियों ने ठहाका लगाया। राज भी हंसने लगा। अनिल ने भी जेब से बटुआ निकालते हुए कहा, “ले मेरे राजकुमार! अपने पास तो हजार में से पांच सौ ही बच रहे हैं....”

पांच सौ के नोट अनिल ने राज के सामने ऐसे फेंक दिए जैसे अपनी ही जेब में रखे हों। राज ने स्वयं अपना पर्स खोला और बोला, “ले सात सौ मेरे पर्स में से भी निकल आए।”

“साढ़े तीन सौ इधर भी हैं...” कुमुद ने मेज पर कुछ नोट डाल दिए।

“तो क्या साढ़े चार सौ मेरे पास नहीं निकलेंगे अपने राजकुमार के लिए,” धर्मचन्द ने अपनी जेब में हाथ डालकर सौ-सौ के पांच नोट मेज पर रखकर ढेर में से दस-दस के पांच नोट उठा लिए।

राज ने असावधानी से सब नोट इकट्ठे किए और सामने डालता हुआ फकीरचन्द से बोला, “ले बे फकीरे...साले दो हजार के लिए भरोसा नहीं कर रहा था...अरे, मेरे इतने मित्र हैं तो मुझे क्या चिन्ता...शो कर दे अब...”

फकीरचन्द ने ठहाका लगाकर, अपनी जांघ खुजाई और बोला‒
“शो कराने के बाद तुम सब धन उठा लेना राजकुमार। यह खेल का नियम होता है...एक-दूसरे के सामने डटे हुए खेल में नम्र व्यवहार नहीं चलता...खेल के बाद हारे हुए और जीते हुए एक-दूसरे के गले में बांहें डालकर चलते हैं...तू तो वैसे भी अपना यार...मित्र है...शो करा कर हार भी जाए तो पूरे पैसा उठा लेना।”

“तो शो कर दे ना...” राज सिगरेट होंठों से लगाता हुआ बोला, “देर क्यों कर रहा है?”

इसी समय अनिल ने जेब से लाइटर निकालकर राज की सिगरेट सुलगाई और फकीरचन्द ने पत्ते मेज पर डालते हुए कहा‒
“...लो तीन बादशाह...”

राज ने एक लम्बी सांस ली...मुस्कराकर बोला, “जीत गया तू...इधर सबसे बड़ा गुलाम है...सत्ता और अट्ठा है...”

फकीरचन्द ने ठहाका लगाया और नोट अपनी ओर समेट लिए। राज के चेहरे पर हल्का-सा भी किसी चिंता या खेद का चिन्ह न था। उसने सिगरेट का कश खींचा और मुस्कराकर उधर देखने लगा जिधर संध्या खड़ी हुई मुस्करा रही थी। उसकी मुस्कराहट में भी एक शिकायत थी। राज सिगरेट होंठों से निकालकर मसलता हुआ बोला, “अच्छा यारो...तुम खेल जारी रखो...मैं जरा अपनी रूठी हुई तकदीर को मना लूं...”

“मनाओ यार! अवश्य मनाओ...” अनिल ठंडी सांस लेकर बोला, “ऐसी सुन्दर तकदीर किसको मिलती है?”

राज सिगरेट ऐश-ट्रे में मसल कर उठ गया। संध्या ने उसे अपनी ओर आते देखा तो क्रोधित मुद्रा में कंधों को झटककर आगे बढ़ गई। राज ने कंधे को सिकोड़कर ढीला छोड़ते हुए पैकेट से दूसरा सिगरेट निकाला और उसे होंठों में दबा लिया। फकीरचन्द ने झट उठकर लाइटर जलाया और इसी समय उसकी झोली से कुछ पत्ते सरककर नीचे गिर गए। राज ने चौंककर पत्तों की ओर देखा... दहला, दुक्की और चौका था। अचानक राज के नथुने क्रोध से फूल गए और आंखें अंगारे उगलने लगीं। फकीरचन्द ने घबराकर पत्तों की ओर देखा...और उसी क्षण लड़खड़ा कर कुर्सी समेत पीछे उलट गया। राज का उठा हाथ जोर से उसके गाल पर पड़ा।

“बेईमान...कमीने...निर्लज्ज...” राज बड़बड़ाया।

“क्या हुआ प्रिंस?” अनिल तेजी से राज की ओर बढ़ा।

“क्या बात हो गई?” धर्मचन्द ने घबराकर कहा।

राज दोनों हाथ मेज पर टेक कर उछला और दूसरी ओर कूद गया। उसने फकीरचन्द को कमीज के गिरेबान से पकड़कर ऊपर उठाया और एक हाथ से तड़ातड़ उसके गालों पर चांटे जड़ता हुआ बोला, “लहू पी जाऊँगा तेरा...मुझे कपटी, कमीने, बेईमानों से घृणा है...”

“मार लो यार! मार लो...” फकीरचन्द अपने होंठ का लहू पोंछकर मुस्कराया, “दोस्त दोस्त के हाथों ही पिटता है।”

“चलो छोड़ो प्रिंस!” अनिल राज के कंधे पर हाथ रखकर बोला, “दोस्त ही तो है...क्षमा कर दो...।”
 
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“जाने दो राज!” धर्मचन्द ने राज के कोट का कालर ठीेक करते हुए कहा, “तुम्हारा क्या बिगड़ गया दस-पांच हजार में...?”

कुमुद आगे बढ़कर राज की बो का कोण ठीक करने लगा। राज ने नई सिगरेट निकालकर होंठों से लगा ली और अनिल ने सिगरेट सुलगा दी। कुमुद ने फकीरचन्द से कहा, “अब खड़ा-खड़ा क्या देख रहा है भोन्दू...क्षमा मांग प्रिंस से...”

“मेरा कौन-सा मान घटता है क्षमा मांगने से...” फकीरचन्द रूमाल से होंठ का लहू पोंछकर मुस्कराया, “कोई दूसरा आंख उठाकर भी देखता तो उसकी आंखें फोड़ देता...किन्तु यह तो अपना यार है...और मार ले...” उसने राज की ओर देखा और बोला, “मारेगा, प्रिंस?”

“क्षमा कर दिया...” राज ने सिगरेट का कश खींचकर असावधानी से कहा, “किन्तु याद रखना, यदि अब ऐसी बेईमानी की तो गर्दन तोड़ दूंगा।”

“अब इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी प्रिंस! आज तो यदि मैं यह दस हजार न बना लेता तो नय्या ही डूब जाती मेरी। तुम तो जानते ही हो मैं कोई बहुत बड़ा आदमी नहीं हूं...छोटी-मोटी कपड़े की दुकान चलाता हूं...जिन थोक माल बेचने वालों से हिसाब-किताब है उनका दस हजार चढ़ गया था। दुकान कुर्क होने वाली थी। जुआ तो यूं ही हंसी-हंसी में खेल लिया...वरना मांगता भी तुम्हीं से...”

“देखा प्रिंस...” अनिल मुस्कराया, “कितना भरोसा है इस तुम्हारी मित्रता पर...अब तो गले लगा लो...”

राज ने मुस्कराकर फकीरचन्द को गले लगा लिया और उसका गाल सहलाता हुआ बोला, “बहुत चोट लग गई है मेरे लाल के...”

सब हंस पड़े और फकीरचन्द भी खिलखिलाकर राज से लिपट गया।

अचानक संगीत की मधुर तरंगें वातावरण में फैल गईं और राज चौंककर हॉल की ओर देखने लगा। फिर उन लोगों से हटकर वह हॉल की ओर बढ़ गया...शेष मित्र फिर मेज़ के गिर्द बैठ गए।

राज हॉल में आया तो सामने ही संध्या उसकी ओर पीठ किए खड़ी थी। राज उसके समीप पहुंचा तो संध्या ने मुंह मोड़ लिया। राज ने गर्दन झटकी और आगे बढ़ गया। एक गोल मेज़ से आवाज आई, “हैलो...प्रिंस...”

“हैलो...” राज ने आवाज की ओर बिना देखे उत्तर दिया।

फिर एक-एक करके कई मेज़ों से हैलो-हैलो की आवाज़ें उभरीं...और राज बिना ध्यान दिए सबको उत्तर देता एक खिड़की के पास जाकर रुक गया।

संगीत की तरंगें धीरे-धीरे बह रही थीं और हॉल में ट्यूबलाइट का चांदनी-जैसा प्रकाश छिटका हुआ था। खिड़की के पास ही रात की रानी के महकते हुए पौधे चुपचाप गुमसुम खड़े थे...राज ने सिगरेट का अंतिम कश खींचकर सिगरेट खिड़की से बाहर फेंक दी। उसी समय पीछे से संध्या ने उसके कंधे पर हाथ रखा। राज बिना उसे देखे कठोर स्वर में बोला, “क्यों आई हो मेरे पास?”

“इधर देखो तो बताऊं...”

राज धीरे-से संध्या की ओर मुड़ा। संध्या ने उसकी आंखों में देखकर हल्की-सी मुस्कराहट के साथ कहा, “चैन नहीं पड़ता तुम्हें रूठे देखकर...”

“फिर स्वयं क्यों रूठ जाती हो?”

“इस आशा पर कि शायद तुम कभी स्वयं ही मना लो।”

“यह जानते हुए भी कि...”

“कि तुम किसी को नहीं मनाते...” संध्या आंखें मींचकर खोलती हुई मुस्कराई।

“कठोर हृदय हो ना...आज तक तुम्हें ही सब मनाते चले आए हैं...तुमने कभी किसी को नहीं मनाया...तुम क्या जानो किसी को मनाने में कितना आनन्द आता है...”

“अच्छा...” राज ने संध्या की आंखों में देखकर कहा, “तो एक बार फिर रूठ कर देखो...मैं देखूंगा कि कितना आनन्द आता है मनाने में...”

“नहीं...” संध्या राज के कंधे से सिर लगाकर बोली, “अब मैं तुमसे कभी नहीं रूठूंगी...डरती हूं, किसी दिन तुम रूठे ही रह गए तो मैं कहीं की न रहूंगी...”

“सच...!” राज की मुस्कराहट गहरी हो गई।

“काश! तुम्हें मेरे प्यार पर विश्वास आ सके...”

“यदि विश्वास न होता तो इतने फूलों में से मैं तुम्हें न चुनता...” राज धीरे-से बोला, “आओ यह काठ के फर्श का हृदय तुम्हारे चांदी के से पैरों तले धड़कने को व्याकुल है...”

“या एक राजकुमार के कोमल चरणों को चूमने के लिए...”

राज ने संध्या की कमर में हाथ डाल दिया और दोनों वहीं से साज की ध्वनि पर नृत्य करते हुए काठ के फर्श की ओर बढ़ने लगे...एक मेज़ पर बैठे हुए जोड़े ने उन्हें देखा और स्त्री ने एक ठंडी सांस ली।

“हाय! कितने खोए-खोए हैं एक-दूसरे में....”

“काश! कभी तुम भी इसी भाव से मुझे देखतीं।”

“हां! तुम्हें...तुममें और राज में कौन-सी बात एक है?”

“तो फिर तुमने मुझे किसलिए चुना था?”

“इसलिए कि राज ने संध्या को चुन लिया था।” स्त्री हंस पड़ी।

पुरुष ने बुरा-सा मुंह बनाकर शराब का गिलास होंठों से लगा लिया और चुस्कियां लेने लगा। एक दूसरी मेज पर बैठे हुए जोड़े में से स्त्री ने कहा, “हाय...राजकुमार है...बिल्कुल राजकुमार...”

“करोड़पति है ना....” पुरुष बुरा-सा मुंह बनाकर बोला, “तुम स्त्रियों को हर वह व्यक्ति राजकुमार दिखाई देता है जो पैसा पानी के समान बहाए...”

“और तुम पुरुष हर ऐसे व्यक्ति से इसलिए जल उठते हो कि किसी बात में उससे होड़ नहीं ले सकते...”

“तो जाओ ना, हाथ थाम लो उसका...”

“जब भी संध्या ने छोड़ा अवश्य थामने का प्रयत्न करूंगी...”

राज और संध्या साज पर झूमते-झूमते नाचने वालों की भीड़ में सम्मिलित हो चुके थे...संध्या ने राज के कंधे से सिर लगाकर आंखें बन्द कर लीं...उसके पांव स्वयं ही साज की धीमी गति पर सर के साथ उठ रहे थे।

“क्या सोच रही हो...?” राज ने धीरे-से पूछा।

“कुछ नहीं...एक स्वप्न देख रही हूं...” संध्या गुनगुनाई।

“क्या? मैं भी तो सुनूं...”

“हमारा ब्याह हो गया है और हम यहां से दूर स्विटजरलैण्ड के सुन्दर वातावरण में ‘हनीमून’ मना रहे हैं...”

“यह कोई स्वप्न है...यह तो अर्थ है पगली...हमारे प्यार के स्वप्न का...”

“जो शायद कभी साकार न हो सके...”

“हत्...अब दिन ही कितने रह गए हैं इस स्वप्न को साकार होने में...केवल दो महीने बाद परीक्षा है...परीक्षा समाप्त होते ही सफलता की पार्टी में हमारी सगाई की घोषणा हो जाएगी और कुछ समय बाद ब्याह...”

“तुम्हें परीक्षा में अपनी सफलता का इतना विश्वास है?”

“विश्वास मेरा नहीं...मुझे पढ़ाने वालों का है...वे लोग कहते हैं कि जो शब्द मेरी दृष्टि से एक बार गुजर जाए उसे मैं कभी नहीं भूलता...कहो तो पाठ्य-पुस्तक का कोई भी पाठ दोहराऊं...”


संध्या मुस्कराई, फिर ठंडी सांस लेकर बोली, “फिर भी पांच-छः महीने तो लगेंगे ही...”

“पांच-छः महीने तो पलक झपकने में ही बीत जाएंगे...”

“और इस पलक झपकने में तुम इस योग्य हो जाओगे कि हम स्विटजरलैंड तो क्या काश्मीर भी न जा सकेंगे...”

“क्यों? ऐसा क्यों सोचती हो तुम?”

“तुमने यह जुए की लत जो डाल ली है...दस-बारह हजार से कम हारकर तो कभी उठे नहीं...और फिर हर दिन खेलते हो...”

“पचास करोड़ में से लाख-दो लाख निकल भी गए तो क्या अन्तर पड़ेगा...?”

“तुम यह क्यों भूल जाते हो कि पचास करोड़ तुम्हारे अधिकार में नहीं हैं...इस धनराशि का संरक्षक तुम्हारा बड़ा भाई और तुम्हारी बहन है...और इसमें उनका भाग भी तो सम्मिलित है...”

“जय भैया....” राज ठंडी सांस भरकर मुस्कराया, “वे तो मेरे भी संरक्षक हैं...डैडी ने प्राण त्यागते समय मेरा हाथ भैया के हाथ में थमाकर कहा था...जय! यह तुम्हारा छोटा भाई ही नहीं...आज से तुम्हारा बेटा भी है...इसका भविष्य अब तुम्हारे हाथ में है...मैं इसे तुम्हारे आश्रय में छोड़े जा रहा हूं...इसका दुख मेरी आत्मा को दुःख पहुंचाएगा...आज डैडी को स्वर्गवासी हुए दस वर्ष बीत चुके हैं, किन्तु, भैया ने कभी मुझे पिता का अभाव अनुभव होने नहीं दिया...”

“और भाभी ने भी...?”

“भाभी पराया खून है...उसने मुझे मां का स्नेह न दिया तो क्या हुआ...वह मुझे उठते-बैठते हर समय टोकती है...पर मैं उसकी ओर कभी देखता ही नहीं...मेरा सब कुछ जय भैया ही हैं...”
 
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“और जय भैया तुम्हारी भाभी के पति भी हैं। राज, भाभी तुम्हारे भैया के जितनी निकट रहती हैं उतनी निकटता तुम्हें प्राप्त नहीं...” उठते-बैठते तुम्हें-टोकने वाली क्या जय भैया के कान तुम्हारे विरुद्ध न भरती होगी...पत्नी वह जादू होती है जो अपना प्रभाव धीरे-धीरे दिखाती है...”

राज ध्यानपूर्वक संध्या की ओर देखते हुए धीरे-से बोला, “क्या पत्नी ब्याह से पहले ही होने वाले पति के गिर्द दीवार खींचना आरम्भ कर देती है?”

“क्या कह रहे हो राज?”

“मैं भैया को देवता मानता हूं....और देवताओं के पांव कभी नहीं डगमगाते...”

उसी समय एकाएक एक छनाके के साथ संगीत थम गया और राज ने संध्या का हाथ छोड़ दिया। दोनों भीड़ से बाहर निकल आए...राज आगे-आगे और संध्या उसके पीछे...राज के चेहरे पर थकान-सी झलक रही थी।
*****************************************
टेलीफोन की घंटी बजी और जय ने ऐनक ठीक करते हुए रजिस्टर पर उंगली दौड़ानी आरम्भ कर दी...उसके सामने मेज पर रजिस्टरों और फाइलों का ढेर था...उंगलियों में बुझा हुआ सिगार दबा था और टेबल-लैम्प के प्रकाश में वह रजिस्टर चैक कर रहा था। टेलीफोन की घंटी निरन्तर बज रही थी। जय धीरे-से बड़बड़ाया, “उफ्...फोह...क्या कष्ट है...” उसने ऊंचे स्वर में पुकारा, “अरे भाई राधा...जरा देखना तो....”

“आ रही हूं...” राधा की आवाज आई।

जय की दृष्टि निरन्तर रजिस्टर पर जमी रही। घंटी थोड़े-थोड़े समय बाद बजती रही...इतने में पांव की आहट आई और राधा प्रवेश करते हुए बोली, “टेलीफोन आपकी मेज पर है और आप बुलाते मुझे हैं दूसरे कमरे में से...दो बज रहे हैं...कब तक सिर खपाते रहेंगे यहां बैठकर...अपने स्वास्थ्य का भी कुछ ध्यान करें...”

“ऊं...हूं...कर रहा हूं” जय वैसे ही रजिस्टर में डूबा हुआ बोला।


राधा ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया और बोली, “कौन है?”

“भाभी...मैं हूं....भैया कहां हैं?”

“यहीं हैं...”

“क्या कर रहे हैं?”

“अपने स्वास्थ्य का ध्यान कर रहे हैं...तुम कहां हो? अब तुम रात दो-दो बजे तक बाहर रहने लगे हो?”

“ओह, भाभी...मैं इस समय बड़ी उलझन में हूं...भैया से कहना तुरन्त सात हजार रुपये शामू के हाथ भिजवा दें...”

“खूब...केवल सात हजार रुपये...?” राधा व्यंग्यात्मक स्वर में बोली।

“शीघ्र भिजवा दो...” राज ने गम्भीर स्वर में कहा।

राधा ने चोंगे पर हाथ रखकर कहा, “सुना आपने...? आपके लाडले ने सात हजार रुपये मंगवाए हैं...तुरन्त...क्लब में...?”

“चाबी दराज में है...आलमारी खोलकर निकाल लो...मुझे डिस्टर्ब न करो...”

जय ने उत्तर देकर बुझे हुए सिगार का कश लिया और होंठों से इस प्रकार हवा निकाली जैसे धुआं निकल रहा हो...राधा ने मुस्कराकर कहा, “सिगार बुझा हुआ है...”

जय ने चौंककर सिगार की ओर देखा और फिर मुस्कराकर तिपाई पर रखा लाईटर उठाकर बोला‒
“मेरा तो दिमाग ही खराब हो गया है...तुम मुझे टोकती न रही तो मैं किसी दिन चाय की प्याली के स्थान पर स्याही की दवात उठाकर मुंह से लगा लूंगा...”

“जानती हूं....किन्तु इतनी व्यस्तता भी अच्छी नहीं कि अपने लाड़ले से इतना भी न पूछें कि उसने यह सात हजार रुपये क्यों मंगाए हैं...”

“अरे हां...क्यों मंगवाए हैं...अभी कल ही तो उसने मुझसे दो हजार लिए थे..”

“दो हजार नहीं तीन हजार...और कल नहीं आज शाम को...”

“अरे हां, आज शाम को...पूछो, पूछो उसे अब क्या आवश्यकता पड़ गई है?”

“यह भी कोई पूछने की बात है?” राधा व्यंग्य से बोली, “अब वह क्लब जाने लगा है...और क्लब में इतनी धनराशि कोका-कोला में घोलकर नहीं पी जाती...जुआ भी होता है वहां...”

“नहीं...राज जुआ नहीं खेलता...”

“पूछ लेती हूं...” राधा ने चोंगे से हाथ हटाकर पूछा, “राज तुम्हारे भैया पूछ रहे हैं, शाम ही को तुम्हें तीन हजार रुपये दिए थे...इतनी जल्दी सात हजार की क्यों आवश्यकता पड़ गई है?”

“भैया पूछ रहे हैं या तुम?” राज ने उधर से पूछा।

“यदि मैं भी पूछ लूं तो कोई अपराध नहीं...”

“क्या अब मुझे अपने खर्च का हिसाब भी देना होगा?”

“खर्च सीमा से अत्यधिक बढ़ जाए तो उसका हिसाब मांगना ही पड़ता है...धन कोई जल का सोता नहीं होता जिसे खर्च करते रहो और वह बढ़ता रहे...”

“आप टेलीफोन जय भैया को दीजिए...” राज ने कठोर स्वर में कहा।

राधा ने एक झटके से रिसीवर जय की ओर बढ़ा दिया। जय राधा को आश्चर्य से देखता हुआ कह रहा था, “यह तुमने क्या किया? बच्चा ही तो है...बेचारे के मन को ठेस पहुंची होगी...”

“हां...ठीक है...मैं आप दोनों भाइयों के बीच में बोलने वाली होती कौन हूं?” राधा क्रोध में बोली, “आप उसकी ठेस का ध्यान करते रहिए ताकि किसी दिन वह आपको इतनी बड़ी ठेस पहुंचाए कि आप संभल न सकें...आपके चौबीस घंटों में से बीस घंटे काम करते बीतते हैं और उसके बीस घंटे मनोरंजन में...पिछले एक महीने से दस हजार रुपये उड़ा चुका है...जरा खाता उठाकर देखिए तो उसे कितना दे चुके हैं...जब धन का यह कुआं खाली हो जाए तो आप मुझे और अपने बच्चे को किसी अनाथालय में भरती करा दीजिएगा...”

यह कहकर राधा झट कमरे से बाहर निकल आई। जय अवाक् टेलीफोन का रिसीवर हाथ में उठाए उस द्वार की ओर देखता रहा जिधर से राधा बाहर गई थी। फिर उसने रिसीवर कान से लगाया और बोला, “राज...?”
 
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“भैया मैंने भाभी की सब बातें सुन लीं...!”

“तुम्हें रुपये किस काम के लिए चाहिए?”

“आप भी वही प्रश्न कर रहे हैं?”

“तुम्हारा बड़ा भाई भी हूं...संरक्षक भी हूं...उत्तर दो...क्यों चाहिए ये पैसे इस समय?”

“भाभी का विचार ठीक है...”

“तुम जुआ खेलने लगे हो?”

“हर बड़ा आदमी खेलता है...”

“हर बड़ा आदमी वह विष भी पीता है जिसे शराब कहते हैं...”

“मुझे रुपया चाहिए...अभी, इसी समय...”

“रुपया नहीं मिलेगा तुम्हें...” जय ने गम्भीरता से कहा।

बिना राज का उत्तर सुने जय ने टेलीफोन रख दिया। सिगार बुझ चुका था। उसने राख वाले सिरे से सिगार दांतों में दबाया और दूसरी ओर से उसे सुलगाने लगा। उसकी आंखों से गहरा क्रोध झलक रहा था।


राज ने पूरे बल से रिसीवर मेज पर दे मारा। रिसीवर के टुकड़े-टुकड़े हो गए। रिसेप्शन-गर्ल घबरा कर राज की ओर देखने लगी। राज ने टूटे हुए रिसीवर पर दृष्टि डाली और अत्यन्त क्रोध में भरा हुआ बोला, “यह हानि मेरे नाम में लिख लो...”

“कोई बात नहीं प्रिंस...” रिसेप्शन-गर्ल मुस्कराई।

राज क्रोध-भरी मुद्रा में घूमा...उसके सामने ही संध्या खड़ी उसकी आंखों में झांककर मुस्करा रही थी। राज ने झटके से उसे अपने सामने से हटाया और तेज-तेज चलता हुआ मुख्य द्वार की ओर बढ़ा। जिन लोगों ने रिसीवर टूटने की आवाज पर पलटकर देखा था वे आश्चर्य से राज को जाते हुए देख रहे थे। एक मेज पर बैठी हुई लड़की ने प्रशंसनीय दृष्टि से राज को देखते हुए कहा, “वाह! क्या ओज है...क्या तेवर हैं...!”

राज आवेश में आकर बाहर निकल आया। उसके पांव पार्किंग की ओर बढ़ रहे थे। उसके पीछे तेज-तेज चलती हुई संध्या आ रही थी। पार्किंग के निकट पहुंचते-पहुंचते संध्या राज के सामने आ गई, “यह क्या पागलपन है राज?” संध्या हांफती हुई बोली।

“आज यह पागलपन किसी मंजिल पर पहुंचकर ही दम लेगा...” राज मुट्ठियां भींचता हुआ बोला।

“कितने रुपयों की आवश्यकता है तुम्हें?” संध्या ने पर्स खोलते हुए पूछा।

“सात हजार!” अचानक पीछे से अनिल ने उत्तर दिया।

राज चौंककर पीछे मुड़ा। पास ही अनिल, कुमुद, फकीरचन्द और धर्मचन्द खड़े राज को देख रहे थे। संध्या ने उन लोगों की ओर देखा और बोली, “मेरे पर्स में इस समय एक हजार हैं...आप लोग कल तक धीरज रखें...मैं कल यहीं पर सात हजार रुपये ले आऊंगी...”

“और हम लोग अपना ऋण पाकर सन्तुष्ट हो जाएंगे...” अनिल व्यंग्यात्मक मुस्कराहट के साथ बोला, “क्या ब्याज भी चाहिए तुुम लोगों को?”

“हां...हमें ब्याज भी चाहिए...” अनिल गंभीर होकर बोला।

“तो यह ब्याज मैं पेशगी चुकाए देता हूं...” राज होंठ भींचकर बोला।

उसने पूरे बल से अनिल को मारने के लिए हाथ उठाया...किन्तु, वह हाथ अनिल की पकड़ में आ गया। अनिल मुस्कराकर बोला, “बड़े भावुक हो यार! यह तो पूछा होता हमें ब्याज चाहिए किस रूप में...तुम हमारे मित्र हो...हमारा तुम्हारा कोई व्यापारिक लेन-देन नहीं...हम तुम्हें चाहते हैं, तुम्हारी दोस्ती चाहते हैं...और तुम्हारे मित्र इतने गिरे हुए नहीं हैं कि केवल सात हजार रुपयों के लिए अपने परम मित्र को अपमानित करते फिरें...हमें ऐसे पैसे नहीं चाहिए जिनके लिए तुम्हारी मंगेतर को अपने पिता से कहना पड़े कि उसके होने वाले करोड़पति स्वामी के भाई ने उसे सात हजार रुपये देने से इन्कार करके भरी क्लब में अपमान किया है..और वह होने वाले पति का ऋण चुका कर उसका मान वापस लाना चाहती है...फिर भी हमें अपने धन का ब्याज अवश्य चाहिए...और यह ब्याज अपने मित्र के सन्तोष के रूप में चाहिए...”

“अनिल...!” राज ने आश्चर्य से अनिल को देखा।

“तुम बहुत क्रोध में घर जा रहे हो दोस्त! क्रोध किसी भी समस्या का निवारण नहीं करता...तुम अपने भाई के संरक्षण में हो...तुम नहीं जानते कि वह किस प्रकार हिसाब-किताब रखता है...तुम्हें यह भी नहीं ज्ञात कि पिता की मृत्यु के बाद फर्म की आय में कितनी बढ़ोत्तरी हुई है...तुम इससे भी अनभिज्ञ हो कि तुम्हारे पिता अपनी जायदाद के लिए क्या वसीयत कर गए हैं...इसलिए तुम्हें भावुकता से काम नहीं लेना चाहिए....बल्कि नम्रता से इस समस्या को सुलझाना चाहिए...”

“अनिल बाबू ठीक कह रहे हैं राज!” ...संध्या ने राज के कंधे पर हाथ रखकर कहा।
 
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“यह तो केवल आरम्भ है...” अनिल मुस्कराकर बोला, “हमने दुनिया देखी है...धन बाप-बेटे को शत्रु बना देता है...इतिहास इस बात का साक्षी है कि...कितने ही ऐसे उदाहरण हैं कि राज और धन के लिए पुत्र ने पिता को बन्दी बना लिया, भाई ने भाई की हत्या कर डाली...पर यह भी ऐतिहासिक वास्तविकता है कि मानव के काम यदि कोई चीज आई है तो वह धन-दौलत ही है...तुम अपने आपको अकेले मत समझो...हम पग-पग पर, प्रत्येक ऊंच-नीच में...हर बात में तुम्हारे संग हैं...हम अपने प्रिय मित्र को मार्ग से भटकने नहीं देंगे....”


और राज ने अनिल का हाथ दृढ़ता से दबा लिया।


जय ने सिगार का एक भरा कश खींचा और सामने फाटक की ओर देखने लगा...फिर उसने अपनी घड़ी देखी। तीन बजकर दस मिनट हुए थे। एकाएक फाटक के पास दो रोशनियां आकर रुकीं। जय संभल गया। कार की खिड़की खुली और उसमें से राज उतरा। फिर कार की खिड़की में एक और चेहरा झलका...जय चौंककर बड़बड़ाया, “संध्या...! राज के साथ...!”


राज ने संध्या का हाथ दबाया और “बाय-बाय” कहकर हाथ हिलाता हुआ पीछे हट गया। संध्या मुस्कराई और हाथ हिलाकर गाड़ी आगे बढ़ाकर ले गई। राज ने घूम कर भीतर प्रवेश किया। सहसा उसकी दृष्टि जय पर पड़ी। जय ने कड़ी दृष्टि से उसे देखा और सिगार का गहरा कश खींचा। राज क्षण-भर के लिए ठिठका और फिर तेज-तेज पग उठाता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ गया। जय का चेहरा और भी गंभीर हो गया। उसे राज की आंखों में स्पष्ट विद्रोह के चिन्ह दिखाई दिए।


दूसरी सुबह नाश्ते की मेज पर राज चुपचाप हाथ चला रहा था और जय ध्यानपूर्वक उसके मुख के भावों को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था। राधा ने एक बार राज को देखा और झटके से गर्दन दूसरी ओर फेर ली। जय ने राधा से पूछा‒
“राजा स्कूल के लिए तैयार हो गया?”


“तैयार हो रहा है..मैं देखती हूं...” राधा चाय का अन्तिम घूंट पीकर उठ गई।

राधा के जाने के बाद जय ने राज से पूछा, “तुम्हारी परीक्षा कब आरम्भ हो रही है?”

“एक सप्ताह बाद...” राज ने गंभीर होकर कहा।

“गाड़ी कहां है तुम्हारी?”

“रात जाते समय गेयर टूट गया था...वर्कशाप में छोड़ दी है...बहुत तंग करने लगी है...अब एक नई मर्सिडीज बुक करा रहा हूं...”

“जिस चीज का अत्यधिक प्रयोग किया जाएगा उसका यही परिणाम होगा...”

“क्या का गैरेज में खड़ी रखने के लिए खरीदी जाती हैं?” राज ने झटके से पूछा।

जय ने एक ठंडी सांस भरी और कुर्सी की पीठ से टेक लगाता हुआ बोला, “मेरी गाड़ी तुम ले लो...मैं तुम्हारी गाड़ी से काम चला लूंगा, जब तक वह काम देती है...क्या आवश्यकता है इस फिजूलखर्ची की...”

“कहां फिजूलखर्ची की आवश्यकता है और कहां कंजूसी की...यह मैं भी समझता हूं...बच्चा नहीं रह गया हूं अब...” राज ने झटके से कहा और उठकर तेजी से डाइनिंग-रूम से निकल गया।

राज के हर भाव से विद्रोह झलक रहा था। जय चुपचाप उस द्वार की ओर देखता रहा जहां से राज बाहर गया था। उसके होंठों पर मुस्कराहट फैल गई।
 
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मित्रों ने राज को कंधों पर उठा लिया और जोर-जोर से नारे लगाने लगे, “प्रिंस राज...जिन्दाबाद...प्रिंस राज जिन्दाबाद....”

वे लोग राज को उठाये-उठाये फाटक तक ले आए। बड़ी कठिनता से राज नीचे उतर सका। उसी समय भीड़ को चीरती हुई संध्या राज के पास पहुंची‒
“बधाई हो राज...तुम फर्स्ट डिवीजन में पास हुए हो...”

“तुम्हें भी बधाई हो संध्या...” राज ने संध्या का हाथ दबाकर कहा, “आज की विजय उस मार्ग का आरंभ है जिस पर चलकर हम दोनों एक मंजिल पर पहुंचेंगे.”

“किन्तु आज राज हमारा है...” अनिल ने राज का हाथ संध्या से छुड़ाते हुए कहा, “आज राज ने अपने मित्रों का सिर मान से ऊंचा कर दिया है...जो लोग राज को हमारे संग घूमते-फिरते देखते थे, वे समझते थे कि हम राज को पास न होने देंगे..और आज उन लोगों की पराजय का उत्सव हम मनाएंगे...संध्या देवी! आप तो जीवन-भर राज के साथ उत्सव मनाती रहेंगी...”

उन लोगों ने फिर राज को उठा लिया और उसे उठाए-उठाए कार की ओर ले गए। संध्या मुस्कराकर कुछ संकोच में उन लोगों की ओर देखती रही। इस मित्र-मंडली ने राज को कार में ठूंस दिया और उसी क्षण कार फर्राटे भरने लगी। कार में ठहाके गूंजने लगे। अनिल ने कार एक बार के सामने रोक दी। राज ने चौंककर पूछा, “यहां क्यों रोकी है गाड़ी?”

“वह उत्सव उत्सव नहीं होता दोस्त! जिसमें लाल परी का नशा सम्मिलित न हो...”

“शराब?” राज चौंक पड़ा।

“पीकर तो देखो आज....जीवन-भर हमें दुआएं दोगे कि अमृत से परिचय करा दिया।”

राज असमंजस में पड़ गया। अनिल के चेहरे पर व्यंग्यभरी मुस्कान थी।

“क्या जय भैया का चेहरा देख रहे हो कल्पना में...?” अनिल ने पूछा।

“क्यों?” राज को अचानक क्रोध आ गया।

“जो मूर्ख इस आनन्द से परिचित नहीं होते, वे सदा ही इसे बुरा कहते हैं...वे दूसरों को भी इस आनन्द से दूर रखने का प्रयत्न करते हैं।”

“कौन रोकेगा मुझे?” राज क्रोध में बोला, “मैं किसी का बन्दी नहीं हूं....स्वतन्त्र हूं...”

“तो फिर आओ मेरी जान! विलम्ब क्यों?”

थोड़ी देर बाद पूरी मंडली शराब में विभोर थी....राज ने इतना आनन्द शायद कभी पहले अनुभव नहीं किया था। वह नशे में झूमकर बोला, “अरे निर्दयी, अब तक तूने क्यों इस लालपरी से मुझे इतना दूर रखा था।”

“अब तो तुम्हारे पहलू में है....जितना चाही आनन्द उठाओ...” अनिल ने फिर राज का गिलास भर दिया।
थोड़ी देर बाद वे लोग उठे। राज ने लड़खड़ाते हुए जेब में से पर्स निकाला और काउंटर पर फेंकते हुए बोला, “निकाल लो....इस स्वर्ग के टिकट की कीमत निकाल लो....” \

काऊंटर-क्लर्क ने मुस्कराकर पर्स उठाया और उसमें से बिल के पैसे निकालकर पर्स वापस राज को देते हुए वेटर से बोला, “वेटर! साहब को द्वार तक पहुंचा दो....कोई मेज-कुर्सी न तोड़ दें....”

राज ने क्रोध में काउंटर क्लर्क को घूरा और पर्स काउंटर पर पटककर बोला, “निकाल लो....अपने पैसे पूरे कर लो। आज हम यहां की सारी कुर्सियां-मेजें तोड़कर जाएंगे....”

“अरे-अरे....साहब....यह तो मैंने यूंही कह दिया था....” काउंटर-क्लर्क बौखलाकर बोला।

“कैसे कहा तुमने? जानते नहीं हम कौन हैं....प्रिंस हैं प्रिंस....आज इस बार में एक भी मेज-कुर्सी साबुत न बचेगी....”

बड़ी कठिनता से अनिल, फकीरचन्द, धर्मचन्द और कुमुद ने मिलकर राज को उपद्रव मचाने से रोका। अनिल ने काउंटर से राज का पर्स उठाकर उसकी जेब में रख दिया और उसे घेरकर कार में ले आए। कार फिर सड़क पर दौड़ने लगी, स्टेयरिंग राज ही के हाथ में था और मदिरा के प्रभावाधीन झूम रहा था। शेष मित्र जोर-जोर से ठहाके लगा रहे थे। कार एक लड़की के पास से गुजरी तो अनिल ने खिड़की से सिर निकालकर एक चुम्बन वातावरण में उछाल दिया। लड़की भिन्नाकर कुछ दूर तक कार के पीछे दौड़ी और उन लोगों ने ठहाके लगाए। फिर एक गुजरते हुए राही के सिर से कुमुद ने झपटकर हैट उतार लिया.....राही दूर तक दौड़ा और कुमुद हैट सिर पर लगाकर जोर-जोर से हंसने लगा।

राज ने कार की गति और तेज कर दी। अनिल उसका कंधा हिलाकर बोला, “और तेज....मेरे यार और तेज.....आज इतनी तेज कार चलाओ जितनी तेज पहले कभी न चलाई हो....आज की शाम हमारी है....”

राज ने कार की गति और भी तेज कर दी और कार लहराती हुई दूसरी आती-जाती गाड़ियों से बचती-बचाती आगे निकल गई। एक मोड़ पर मुड़ते हुए कार अचानक एक टैक्सी के सामने आ गई। टैक्सी-ड्राइवर ने बड़ी फुर्ती से टैक्सी बचा ली, फिर भी उसका पिछला बम्पर कार से रगड़ता चला गया और टैक्सी उलटते-उलटते बची। पिछला बम्पर टूटकर गिर गया। इस सड़क पर अधिक भीड़ भी न थी।

राज ने कार रोक ली। टैक्सी भी रुक गई। राज खिड़की खोलकर लड़खड़ाता हुआ नीचे उतरा। उधर से टैक्सी-ड्राइवर भी नीचे उतरा। राज ने क्रोधित दृष्टि से उसे घूरकर देखा‒
“इडियट....नानसेंस....मर्सिडीज का सत्यनाश कर डाला....”

फिर उसने ड्राइवर को मारने के लिए हाथ घुमाया....ड्राइवर ने फुर्ती से उसकी कलाई पकड़ ली और उसे चांटा मारने के लिए हाथ उठाया, पर ठिठककर रुक गया और बोला, “जाइए बाबूजी! यदि ये गालियां आपने दी होतीं तो गाली का भी उत्तर देता और चांटे का भी।”

“तू उत्तर देता?” राज क्रोध से मुट्ठियां भींचकर बोला।

“हां मैं उत्तर देता....” ड्राइवर कठोर स्वर में बोला, “टैक्सी चलाता हूं भीख नहीं मांगता.....तुम कोई आकाश से उतरे हो....या संसार भर की इज्जत खरीदकर अपने खजाने में भर ली है? आधा गिलास दारू पी ली और समझने लगे स्वयं को राजकुमार....”
 
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अनिल, फकीरचन्द, कुमुद और धर्मचन्द भी नीचे उतर आए थे। उन्होंने राज को पकड़ लिया और बलपूर्वक उसे कार में धकेल दिया। ड्राइवर खिड़की के पास पहुंचकर बोला, “जाते कहां हो बाबू? मरम्मत के दाम तो देते जाओ....टैक्सी है टैक्सी मर्सिडीज नहीं जिसे नौकर के हाथ वर्कशाप पहुंचा दोगे और वर्कशाप से बिल बनकर आ जाएगा....आज की मरम्मत का बिल मेरी चार दिन की मजदूरी से भी नहीं पूरा होगा....”

“तू जाता है या मजा चखाऊं?” राज ने फिर खिड़की खोलनी चाही।

अनिल ने फिर उसकी बांह पकड़ ली। ड्राइवर ने कहा, “मजा तुम क्या चखाओगे.....कहो तो मैं चखाऊं....एक साधारण पुलिस वाला ही इस नई मर्सिडीज को खींचकर थाने ले जाएगा और पीकर गाड़ी चलाने के अपराध में क्या दण्ड मिलेगा, यह स्वयं सोच लो...?”

अनिल ने बड़ी कठिनता से राज को वश में किया और उसकी जेब से पर्स निकालकर सौ का नोट टैक्सी ड्राइवर की ओर बढ़ाया। ड्राइवर ने नोट को झपट लिया और बुरा सा मुंह बनाकर बोला, “जाओ....और नुकसान मैं स्वयं भुगत लूंगा....।”

थोड़ी देर बाद मर्सिडीज फिर सड़क पर भाग रही थी और चारों मित्र राज का मूड ठीक करने का यत्न कर रहे थे।

रात को लगभग ग्यारह बजे कार कोठी के कम्पाउंड में पहुंची। ठहाकों का शोर सुनकर जय ने अपने कमरे की खिड़की से नीचे देखा। राज अपने मित्रों के साथ झूमता, लड़खड़ाता हुआ सबसे आगे-आगे था.....जय ने ध्यानपूर्वक देखा और वह भाई को इस दशा में देखकर चौंका। फिर पास ही से उसे राधा की आवाज सुनाई दी, “देख रहे हैं अपने लाड़ले की करतूत....आज शराब पीकर आया है....वह भी गुंडों की टोली के साथ....भगवान की कृपा है कि राजा सो रहा है....वरना न जाने बच्चे पर इसका क्या प्रभाव पड़ता.....किन्तु, अभी क्या है.....आज तो द्वार खुला ही है....”

जय कुछ न बोला। उसके चेहरे पर फैली हुई गंभीरता में दुख और क्रोध दोनों सम्मिलित थे। नीचे हॉल में शोर गूंज रहा था और राज चीख कर नौकर को पुकार कर कह रहा था, “अरे....कहां मर गया? खाना लगा मेज पर।”

“साहब....” नौकर की आवाज आई, “खाना तो केवल आपका रखा है....”

“तो क्या हुआ?” राज मेज पर हाथ मारकर बोला, “अभी तैयार कर जाकर...देखता नहीं हमारे दोस्त आए हुए हैं....”

“जी....मालिक.....अभी तैयार करता हूं....”

फिर हँसी और धमाधम का शोर गूंजने लगा। जय के माथे की सलवटें कुछ गहरी हो गई थीं।


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राज ने अचानक कार रोक ली। संध्या ने चौंककर पूछा, “अरे....यहां क्यों रुक गए?”

“आओ....” राज उतरता हुआ मुस्कराकर बोला।

संध्या उतर गई। राज ने दुकान के साइन बोर्ड की ओर संकेत किया।

“यह तो ज्यूलरी की दुकान है....” संध्या ने कहा।

“हां....” राज संध्या का हाथ अपने हाथ में लेकर मुस्कराया, “तुम भूल रही हो.....आज शाम को मेरे पास होने की खुशी में जो पार्टी होने वाली है....उसी में हमारी सगाई की घोषणा भी होगी....और मैं तुम्हारी उंगली में अंगूठी भी पहनाऊंगा....”

संध्या के होंठों पर मुस्कराहट दौड़ गई। राज ने उसका हाथ थामे हुए दुकान में प्रवेश किया। काउंटर पर पहुंचकर उसने देखने के लिए अंगुठियां मांगीं। दुकानदार ने अगूंठियों के कई डिब्बे सामने रख दिए। राज अंगूठियां देखता रहा और संध्या की दृष्टि एक शो केस पर टिक गई। उसने उंगली के संकेत से दुकानदार को बता कर कहा, “जरा यह टाई-पिन निकालिए....”

“क्या परख वाली दृष्टि है आपकी....,” दुकानदार शो केस खोलता हुआ प्रशंसनीय स्वर में बोला, “साधारण व्यक्ति की दृष्टि तो इसकी सुन्दरता का मूल्य ही नहीं पा सकती....दो ही पीस तैयार किए गए थे नमूने के लिए.....एक पीस तो कल ही बेचा है.....दुर्गापुर स्टेट के पूर्व राजकुमार की मंगेतर महाराजकुमार की सालगिरह पर उपहार देने के लिए ले गई हैं....”

टाई-पिन निकालकर दुकानदार ने संध्या के सामने रखते हुए कहा, “कीमत भी कोई अधिक नहीं.....केवल डेढ़ हजार रुपये....”

संध्या ने टाई-पिन को ध्यान से देखा, फिर राज की ओर मुड़ी। इसी समय राज एक अंगूठी चुनकर संध्या की ओर मुड़ा। दोनों ने एक-दूसरे के हाथों में उपहार की ओर देखा और फिर एक साथ एक-दूसरे की आंखों में। संध्या मुस्कराकर बोली, “अति सुन्दर....”

“बहुत हसीन....” राज भी मुस्कराया।

दोनों ने अपने-अपने उपहार पैक कराए और दुकान से बाहर निकल आए। राज साथ वाली दुकान की ओर बढ़ा.....दोनों इस दुकान ने घुस गए। राज ने अपने लिए एक दर्जन जरसियाँ खरीदीं। थोड़ी देर बाद वे इस दुकान से निकलकर एक तीसरी दुकान में घुस गए, कोई दो घंटे बाद जब कार चली तो उसकी पिछली सीट पर पैकेटों के ढेर पड़े हुए थे।


राज ने गिलास उठाकर आगे बढ़ाया और उनके चारों दोस्तो ने अपने-अपने गिलास राज के गिलास से टकराए। अनिल ने मुस्कराकर कहा, “हमारे दोस्त.....प्रिंस राज की सफलता के नाम....”

सबने अपने गिलास होंठों से लगा लिए और एक ही सांस में गटागट पी गए। अनिल ने दूसरी बोतल खोली और गिलासों में उड़ेलने लगा। राज ने एक सेब उठाया और खाने लगा। अनिल ने आखिरी गिलास में शराब उड़ेली ही थी कि एक और गिलास मेज पर आ गया। अनिल ने चौंककर कहा, “अरे....यह कौन है?”


धर्मचन्द और फकीरचन्द इधर-उधर हट गए। उनके बीच गिलास वाला हाथ बढ़ाए राजा खड़ा था। राज ने चौंक कर कहा, “अरे राजा.....तू।”


“अंकल!” यह स्वादिष्ट शर्बत अकेले ही अकेले पी रहे हैं....हम पी पिएंगे....”

‘‘शर्वत....’’ अनिल ने ठहाका लगाया। दूसरों के साथ राज भी हंसने लगा। इसी समय पीछे से राधा ने राजा को कंधे से पकड़कर खींच लिया। राजा मचलकर बोला, ‘‘मैं भी पियूंगा शर्बत....अभी.... मैं भी पियूंगा.....’’

राधा खींचती हुई राजा को बाहर ले गई। क्रोध से उसकी आंखें लाल हो रही थीं। राजा लगातार मचले जा रहा था। राधा उसे खींचती हुई जय के कमरे में ले गई और जोर से उसे जय की ओर धकेल दिया। जय घबरा कर राजा को संभालता हुआ आश्चर्य से बोला, “अरे....अरे.....क्या कर रही हो यह?”

“शर्बत मांग रहा है....तो यह भी गुस्से की बात है कोई....सैकड़ों कोका-कोला की बोतलें भरी पड़ी हैं अतिथियों के लिए....एक दे दो...”

“कोका-कोला भी कोई शर्बत है.....” राधा विषैले ढंग से मुस्कराई, “आपका लाड़ला वह शर्बत मांग रहा है जो आपके भाई साहब अपने मित्रों के साथ पी रहे हैं....”

“क्या?” जय ने आश्चर्य से घबराकर पूछा, “राज घर में शराब पी रहा है?”
“दूसरी बोतल खोली गई है मेरे सामने.....” राधा ने घृणा प्रकट करते हुए कहा, “दोस्तों की पूरी सेना है राजकुमार जी के साथ....उन्हें डर ही किसी बात का है? आज दोस्तों की आवभगत के लिए लाई गई है, कल घर में अपने पीने के लिए लाकर रखी जाएगी। आज बच्चा मांग कर पी रहा है, कल चुरा कर और छिपकर पिएगा.....हानि ही क्या है इसमें....?”


जय कुछ न बोला। उसकी भवें सिकुड़ गई थीं....माथे पर सलवटों का जाल-सा बिछ गया था। वह राधा और राजा को वहीं छोड़कर कमरे से निकल गया। अभी वह राज के कमरे की ओर बढ़ ही रहा था कि राज की मित्र-मण्डली में से उसे किसी की आवाज सुनाई दी, “इसके गुण धीरे-धीरे खुलते हैं, मेरे लाल! बकरी को एक घूंट पिला दो और उसे शेर के सम्मुख खड़ा कर दो...”
 
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इस वाक्य पर कमरे में कई मिले-जुले ठहाके गूंजे। जय ठिठककर रुक गया। फिर कुछ सोचकर वह हॉल की ओर पलट गया। हॉल में सारे अतिथि इकट्ठे हो चुके थे। सामने ही उसे संध्या दिखाई दी जो अपने सबसे सुन्दर वस्त्रों में सुसज्जित थी। उसके होंठों पर एक जगमगाती हुई सी मुस्कान नाच रही थी। वह नौकर से पूछ रही थी, “राज बाबू कहां हैं....शामू?”

“भीतर हैं....अपने मित्रों के संग...” शामू उत्तर देकर जय के पास से गुजरा। जय ने उसे रोककर कहा, “शामू....राज से कहना....पार्टी आरम्भ होने वाली है...सारे अतिथि आ गए हैं।”

शामू सिर हिलाकर भीतर चला गया। जय ने जेब से सिगार निकालकर दियासलाई जलाई। इसी समय उसकी दृष्टि संध्या से मिली। संध्या हड़बड़ाकर इधर-उधर देखने लगी....फिर एक लड़की की ओर बढ़ गई। जय ने माचिस से तीली निकालकर दांतों में दबा ली और सिगार को माचिस पर रगड़ने लगा। फिर चौंककर उसने सिगार को देखा और तीली की दांतों में से हटाकर सिगार को होंठों में दबा लिया और दूसरी तीली निकालकर सिगार सुलगा लिया। उसने पहला ही कश खींचा था कि राज के मित्र ठहाके लगाकर हॉल की ओर आने लगे। जय चुपचाप वहीं खड़ा सिगार के कश लेता रहा। वे लोग जय की ओर देखे बिना लड़खड़ाते हुए हॉल में पहुंच गए। राज सबसे पीछे रह गया। उसने जय की ओर देखा और मुस्कराकर बोला, “अरे भैया! आप अभी तक यहीं खड़े हैं.....”

“तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था....” जय मुस्कराया।

फिर राज के साथ चलता हुआ वह हॉल में आ गया। संध्या राज को देखकर तेजी से उसकी ओर बढ़ती हुई बोली, “हैलो राज.....कहां थे तुम? मैं कितनी देर से यहां बोर हो रही हूं....”

“अब बोर नहीं होगी....” राज ने मुस्कराकर संध्या का हाथ अपने हाथ में थाम लिया।


सब लोग एक बड़ी-सी मेज के गिर्द खड़े थे जिस पर खाने-पीने का सामान रखा था। राज ने आपस में बातें करते हुए अतिथियों को सम्बोधित करने के लिए जोर से मेज को थपथपाया और फिर लड़खड़ा कर संभलते हुए बोला, “लेडीज एन्ड जैंटलमैन....आप लोग शायद जानते न हों, यह पार्टी दोहरी खुशी में दी जा रही है....पहली खुशी तो है मेरी परीक्षा में सफलता की और दूसरी खुशी....मेरे जीवन के नये मोड़ की....जीवन में एक नवीनता की.....और यह नवीनता क्या है....यह आपको मेरे भैया बताएंगे.....क्योंकि उनके सामने बोलते हुए मुझे शर्म आती है....”

राज ने ठहाका लगाया और अतिथियों में से कुछ ने अनमने मन से उसका साथ दिया। कुछ लोग आश्चर्य से राज और उसके साथियों को देखने लगे। अनिल के पास खड़े हुए एक अतिथि ने मदिरा की दुर्गंध से बचने के लिए नाक पर रूमाल रख लिया था। राज जय की ओर मुड़ा और जेब से एक डिबिया निकालकर उसमें से अंगूठी निकाली, फिर डिबिया को एक ओर फेंकते हुए जय की ओर झुक कर उसके कान में धीरे से बोला, “यह अंगूठी है भैया....”

“मैं नशे में नहीं हूं...” जय मुस्कराया, “मुझे दिखाई दे रही है....”

“जानते हैं किसलिए लाया हूं यह अंगूठी....”

“जानता हूं....” जय की मुस्कराहट और गहरी हो गई, “संध्या के लिए....”

“आप तो बहुत समझदार हैं भैया! आप स्वयं मेरी और संध्या की सगाई की घोषणा कर दें....”

जय ने मुस्कराकर संध्या की ओर देखा.....संध्या ने टाई-पिन निकाल लिया था। उसके होंठों पर एक विजयी मुस्कराहट थी। जय ने अंगूठी राज के हाथ से ले ली और मुस्कराता हुआ अतिथियों की ओर देखकर बोला, “मान्यवर अतिथियों! आज की पार्टी किस उपलक्ष्य में दी जा रही है, यह आप सब राज ने सुन चुके हैं....राज ने इसी अवसर पर अपनी खुशियों को दोहरा करने की घोषणा की है....एक बड़े भाई के नाते उसने यह काम मुझे सौंपा है....यह मेरा कर्तव्य है कि राज की दूसरी खुशी की घोषणा मैं करूं.....क्योंकि राज मेरा छोटा भाई है....और मैं यह घोषणा करते हुए बड़ी प्रसनन्ता अनुभव करता हूं कि राज की सगाई....सेठ घनश्यामदास की इकलौती बेटी संध्या से.....नहीं हो रही....”

“भैया....!” अचानक राज इतनी जोर से बोला कि पीछे खड़े कई अतिथि घबराकर उछल पड़े।

संध्या का चेहरा क्रोध और अपमान से लाल हो गया था....किन्तु जय....! उसके चेहरे पर कोई घबराहट अथवा चिन्ता के चिन्ह नहीं थे.....उसने बड़ी शान्ति से राज की ओर देखा और गम्भीरता से बोला, “चिल्लाओ मत....यह भले मानसों का घर है.....यहां बहुत सारे शिष्ट अतिथि भी उपस्थित हैं।”

राज का मस्तिष्क अत्यधिक क्रोध से भिन्ना गया था। वह बड़ी कड़ी और कठोर दृष्टि से जय को घूर रहा था....उसके होंठ बड़ी सख्ती से भिंचे हुए, नथुने घृणा और क्रोध की अधिकता से फूले हुए थे....उसे ऐसे अनुभव हो रहा था जैसे उसका प्यार करने वाला भाई किसी राक्षस के रूप में उसके सामने आ गया हो। उसने होंठ भींचकर कहा, “आखिर क्यों नहीं हो रही मेरी सगाई संध्या के साथ?”

“इसलिए कि यह सम्बन्ध मुझे पसन्द नहीं....” जय ने उसी शान्त मुद्रा में सिगार का एक कश लेकर उत्तर दिया।

“संध्या से ब्याह मैं करूंगा या आप?”
“ब्याह मेरे छोर्ट भाई का है....”


“मैं पूछता हूं संध्या में क्या बुराई है? वह ऊंचे परिवार की नहीं है? शिक्षित नहीं है? सुन्दर नहीं है.....शिष्ट नहीं है?”

“यह सब है....किन्तु, केवल शिक्षा सुन्दरता और उच्च परिवार.....एक कुलीन बहू और मान-मर्यादा रखने वाली बहू की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते...”

“बहुत हो गया राज बाबू....!” संध्या ने बीच में तड़पकर कहा, “क्या आपने मुझे अतिथियों के सामने अपमानित करने के लिए बुलाया था...? मैं जा रही हूं।”

“ठहरो.....संध्या!” राज ने संध्या की बांह थाम ली....फिर जय की ओर मुड़कर उनकी आंखों में झांककर बोला‒
“क्या आप बता सकते हैं कि मेरे विवाह से आप इतना घबरा क्यों रहे हैं?”

“बहुत अच्छे....” जय उसी मुद्रा में बोला, “वास्तव में शराब मनुष्य को बहादुर बना देती है....खैर... मैं तुम्हें इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिए विलायत भेजना चाहता हूं ताकि वापस लौटकर तुम मेरी ही मिल में दो-तीन हजार रुपये पा सकोगे.....और मुझे बाहर से किसी इंजीनियर को नियुक्त न करना पड़े।”

“या इसलिए कि मेरी विलायत में शिक्षा और निवास के बीच आप ही सारी संपत्ति के मालिक बने रहें....आप जानते हैं कि ब्याह के बाद मैं आपके बहुत से बंधनों से स्वतंत्र हो जाऊंगा....”

“इससे मुझ पर क्या प्रभाव पड़ सकता है?”

“आप पर इसका प्रभाव अवश्य ही पड़ेगा....आपके हाथ से आधा कारोबार निकल जाएगा....आधी सम्पत्ति निकल जाएगी....फिर आप सुगमता से डैडी की छोड़ी हुई पूरी धन-संपत्ति को हजम न कर सकोगे....पर मैं ऐसा न होने दूंगा....आपकी चाल अब धीरे-धीरे मेरी समझ में आ रही है....आपके लाड़-प्यार का कारण भी खुलकर सामने आता जा रहा है....साथ ही आपको यह भी अनुभव होने लगा है कि मैं पहले के समान अबोध नहीं रहा....अपना अधिकार पहचानने लगा हूं....इसीलिए आपका व्यवहार बदलना चाहता हूं....”


“मैंने अनुभव कर लिया था....” जय ने उसी मुस्कराहट से सिगार का कश लेकर कहा, “कि अब तुम आवश्यकता से बढ़कर समझदार होते जा रहे हो...”

“और अब मैं आंखें बन्द करके कुएं में छलांग लगाने के लिए तैयार नहीं हूं....”

“कोई समझदार व्यक्ति आंखें बन्द करके कुएं में छलांग नहीं लगाता....समझदार तो आंखें खोलकर ही कुएं में छलांग लगाते हैं....”


“मैं वयस्क हो चुका हूं और स्वयं अपनी इच्छाओं का स्वामी हूं....आज मैं अपने भाग के कारोबार और धन-सम्पत्ति का बंटवारा चाहता हूं....”
 
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हॉल में धीमे स्वरों में खुसर-फुसर होने लगी....राधा आश्चर्य से आंखें फाड़े द्वार से टेक लगाकर खड़ी हो गई....शामू की आंखें भी फैली रह गईं। संध्या ने विजयी मुस्कराहट के साथ जय को देखा और अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द तथा कुमुद का नशा और गहरा हो गया....किन्तु जय के चेहरे पर तनिक भी परिवर्तन नहीं था, कोई घबराहट और चिन्ता नहीं थी....उसने बड़े सन्तरे की एक फांक मुंह में डाली और फिर चुपचाप सिगार पीने लगा। राज ने घूर कर कहा, “सुन रहे हैं आप! मैं क्या कह रहा हूं...”

“सुन रहा हूं....” जय सिगार का धुआं छोड़ते हुए स्थिर भाव से बोला, “कुछ समय पहले ही इस तूफान की तीव्रता को अनुभव कर रहा था और दो-तीन दिन से मुझे विश्वास हो गया था कि यह प्रचंड तूफान अवश्य ही आएगा, आएगा और तुम्हारे शरीर से वस्त्र उतार कर तुम्हें नग्न छोड़ जाएगा....और तुम पलक झपकते ही कौड़ी-कौड़ी के अधीन हो जाओगे।”

“तुम्हें....यह साहस....!”

“शिष्टता से बात करो....” जय आंखें निकालकर बोला, “अब तुम ठाकुर जयकुमार के छोटे भाई नहीं हो....तुम एक कंगाल हो और सेठ ठाकुर जयकुमार के सामने खड़े होकर बातचीत कर रहे हो। हमने तुम्हें डैडी के स्वर्गवास होने के बाद अपने भाई के समान ही नहीं बल्कि बेटे की भांति तुम्हारा पालन-पोषण किया है....तुम्हारी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया है....किसी बात पर तुम्हारा मन मैला नहीं होने दिया....तुम्हारी हर इच्छा, प्रत्येक हठ को पूरा किया है....आधी-आधी रात तुमने हजारों रुपयों की मांग की और हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें इतने रुपये किसलिए चाहिए....तुमने क्लबों, जुए और शराब में हमारा धन पानी के समान बहाया....हमने कभी तुम्हारा हाथ रोकने का प्रयत्न नहीं किया ताकि तुम्हारे मन को कष्ट न पहुंचे....हमने चाहा कि तुम्हें विदेश भेजकर इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा दिलाएं ताकि द्वार-द्वार भटकने के स्थान पर तुम हमारी ही फैक्टरी में अच्छे वेतन पर नियुक्त हो सको और हमारे संरक्षण में रहो....और तुम हमारे उपकार का बदला यह चुका रहे हो कि आज हमीं से आंखें मिलाकर इस उद्दण्डता से बात कर रहे हो....”

“निःसन्देह....आंखें मिलाकर मैं समान रूप से आप से बात कर रहा हूं” राज विषैली मुद्रा में बोला, “क्योंकि जब तक मैं आपको अपना बड़ा भाई....अपने पिताजी के स्थान पर समझता था, मेरे मन में आपके लिए सम्मान था, स्नेह था, क्योंकि उस समय मैं आपके मन के कूटभावों को नहीं समझता था.....मुझे यह ज्ञान नहीं था कि आप मुझे एक मधुर विष पिलाकर सदा के लिए अपने अधीन रखना चाहते हैं....किन्तु; जब धीरे-धीरे मेरी आंखें खुलने लगीं....आपके मधुर विष का प्रभाव स्वयं ही घटने लगा....आपका व्यक्तित्व, आपकी भावनाएं सब मेरी समझ में आती गईं....आज आप खुलकर स्पष्ट रूप से मेरी आंखों के सामने आ गए हैं....आप मुझे विदेश भेजकर इंजीनियर बनाना चाहते हैं कि मैं वापस आकर इसी प्रकार आपके अधीन रहूं...दो ढाई हजार रुपये मासिक की नौकरी देकर आप मुझे अपना दास बनाएं रखें। मैं कोई आपके टुकड़ों पर पड़ा हुआ भिखमंगा नहीं हूं....मैं अपने स्वर्गीय पिता की सम्पत्ति में आधे का अधिकारी हूं....अब मैं अबोध और अल्प आयु बालक नहीं हूं....अपने ढंग से, अपनी इच्छा-अनुसार जीवन व्यतीत करने का साहस रखता हूं....और आज मैं अपना अधिकार प्राप्त करके ही यहां से टलूंगा....”

“अवश्य मिलेगा....” जय विषैली मुस्कराहट के साथ बोला, “तुम्हें, तुम्हारा अधिकार अवश्य मिलेगा....”

फिर जय ने अतिथियों में बैठे एक बूढ़े सज्जन की ओर देखा और उधर संकेत करके बोला, “यह है डैडी के समय से हमारे पुराने सालिसिटर.....हमें न्याय परामर्श देने वाले, खन्ना साहब....तुम इनसे अपना अधिकार मांग सकते हो, क्योंकि डैडी ने मरने से कुछ ही समय पूर्व अपना वसीयतनामा तैयार किया था और खन्ना साहब की उपस्थिति में उस पर हस्ताक्षर किए थे....स्वयं खन्ना साहब के हस्ताक्षर साक्षी के रूप में उस वसीयतनामे पर हैं....”


खन्ना साहब अतिथियों की भीड़ में से निकलकर आगे आ गए और राज की ओर देखकर बोले, “मुझे खेद है राज! आज मुझे यह समय देखना पड़ रहा है;...मैं तुम्हारे डैडी के समय से ही तुम लोगों का सालिसिटर हूं....तुम्हारे स्वर्गवासी डैडी ने मेरे सामने ही वसीयत की थी....वसीयत के अनुसार तुम्हारे डैडी ने तुम्हारे बड़े भाई जय को ही एकमात्र अपनी पूरी सम्पत्ति का मालिक निश्चित किया था।”

“है....” राज के मन को धक्का-सा लगा।

संध्या आंखें फाड़-फाड़ कर खन्ना साहब की ओर देखती रह गई। अतिथियों में बातें होने लगीं। जय के होंठों पर एक सन्तोषजनक मुस्कराहट फैल गई। खन्ना साहब ने बात चालू रखी, “तुम्हारे डैडी की वसीयत के अनुसार तुम्हारे पिता की हर चीज का अधिकारी न्याय द्वारा जय ही होता है....इसी वसीयत के अनुसार तुम्हारे पालन-पोषण और देख-रेख का उत्तरदायित्व जय पर है....जब तक तुम उससे मिलकर रहते हो तब तक वह तुम्हारे निजी व्यय के लिए तुम्हें एक हजार से तीन हजार रुपये मासिक तक देने का पाबन्द था.....किन्तु उसी समय तक जब तक तुम उसके संरक्षण में इसी कोठी में उसके साथ रहो और तुम दोनों में किसी प्रकार की अनबन न हो.....जय ने झगड़े को टालने का बहुत प्रयत्न किया था....वह एक समय से तुम्हारे तेवर देख रहा था। उसे भय था कि तुम आज के समारोह में अवश्य ही कोई झगड़ा खड़ा कर दोगे....इसलिए उसने मुझसे कह दिया था कि मैं वसीयतनामा साथ लेता आऊं....वसीयतनामा मेरे पास ही है। तुम चाहो तो यहां किसी भी व्यक्ति को दिखा कर अपना सन्तोष कर सकते हो....चाहो तो किसी समय कल किसी वकील को लाकर जांच करा सकते हो।”

“मैं नहीं जानता कि वह ऐसा क्यों कर गए....” खन्ना साहब ने ठंडी सांस लेकर कहा, “किन्तु यह एक स्पष्ट बात है कि तुम्हारा उनकी सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं....जुबान झूठी हो सकती है किन्तु, यह उनका अपना लिखित वसीयतनामा झूठा नहीं हो सकता....हो सकता है इस वसीयत में उनका कोई काम्लेक्स काम कर रहा हो, किसी विशेष घटना या ऐसी परिस्थिति का परिणाम हो जो हम लोगों के ज्ञान से बाहर हो....”

राज ने वसीयतनामा खन्ना साहब के हाथ से लेना चाहा, किन्तु खन्ना साहब ने हाथ खींच लिया और बोले, “नहीं...यह वसीयतनामा एक अमानत है...मैं इसे इस प्रकार तुम्हारे हाथ में नहीं दे सकता...हां, यदि तुम चाहो तो अपने किसी वकील को लेकर कल मेरे पास आ जाना...हां, इन उपस्थित सज्जनों में से यदि कोई इसे देखना चाहते हों तो देख सकते हैं...”

अतिथियों में से कुछ लोग आगे बढ़ आए और खन्ना साहब के हाथ से वसीयतनामा लेकर पढ़ने लगे। शेष लोग सन्नाटे में खड़े थे...संध्या आश्चर्य से आंखें फाड़े राज की ओर देख रही थी...और राज...उसकी तो दशा ऐसी थी मानो उसके तो पांव तले से धरती खिसक गई हो...वह निष्प्राप-सा खड़ा था...उसका चेहरा सफेद हो गया था और आंखों का प्रकाश जैसे लोप हो गया हो...आखिर वसीयतनामा देखने के बाद एक आदमी ने ठंडी सांस लेकर कहा‒
“वसीयत तो वही है जो खन्ना साहब ने बताई है....नीचे आत्माराम जी के हस्ताक्षर भी हैं...”

राज कुछ न बोला। उसकी आंखें अब भी आश्चर्य से फैली हुई थीं। वह धीरे-धीरे होंठों पर जबान फेरकर मुड़ा। दूसरे ही क्षण उसके मस्तिष्क को एक झटका-सा लगा। संध्या अब वहां नहीं थी। न जाने वह किस समय वहां से चली गई थी। अचानक अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द और कुमुद मेज पर से हट कर राज के पास आए और बोले, “आओ राज! चलें...”

राज ने पांव बढ़ाया ही था कि जय ने हाथ उठाकर कहा, “ठहरो...।”

राज ठिठककर रुक गया। जय मुस्कराता हुआ उसके पास आया और बोला, “अभी ऐसी कुछ चीजें तुम्हारे पास हैं जो मेरी सम्पत्ति हैं आज से मैं एक कठोर, बुरा और स्वार्थी भाई कहलाऊंगा...फिर इस उपाधि की कोई श्रेणी कम क्यों रह जाए?”
 

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