Thriller ट्रेन डकैती! (completed)

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जब भी कोई बड़ी डकैती या चोरी की बात आती है तब लोगों की जिज्ञाषा प्रबल रूप से जाग उठती है. क्यूंकि भले ही डकैती या चोरी सामाजिकरूप से अस्वीकार्य कार्य रहे हो,, पर इसमें रहे जोखिम और साहसिकता के तत्व हंमेशा लोगों को आकर्षित करते रहे हैं. इसी लिए डकैती और चोरी की घटनाओं को प्रस्तुत करने वाली फिल्मे सदा सुपर हिट होती रही है. आज हम भी कोई ऐसी ही घटना से रूबरू होने जा रहे हैं, जो भारत के डकैती के इतिहास में एक अत्यंत साहसिक डकैती के रूप में दर्ज हो चुकी है.
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८ अगष्ट २०१६ की रात की बात है. तमिलनाडु के सैलम रेलवे स्टेशन से ११६४ सैलम चेन्नई एग्मोर एक्सप्रेस चेन्नई शहर चलने के लिए तैयार थी. ट्रेन के प्रथम दो डिब्बों में किसी भी आम यात्री को प्रवेश करने न दिया गया, क्यूंकि भारतीय रिज़र्व बेंक के लिए ये दो डिब्बे आरक्सित थे. इसी दो डिब्बों से इस्तेमाल किये जा चुके और कट फट चुके भारतीय रुपियों के पुराने नोटों को चेन्नई स्थित रिज़र्व बेंक की शाखा में बदलने के लिए भेजे जाने वाला था. इन सारे रुपियों के बंडलों में बंध नोटों का कुल मूल्य ३४२ करोड़ था और इसे २२६ बक्सों में बंध कर इसी दो डिब्बो से भेजा जा रहा था. ये सारे रुपये इन्डियन ओवरसीस बेंक, भारतीय स्टेट बेंक एवं इन्डियन बेंक की मालिकी के थे जिसे रिज़र्व बेंक की ट्रेज़री में भेजना था और वहां से नए नोट प्राप्त करने थे. जब इतने सारे रुपियों की एक स्थान से दुसरे स्थान पर हेरफेर की जा रही थी तो इस हेरफेर की सुरक्सा सुनिश्चित करने के लिए कोई न कोई बंदोबस्त भी रखना ही होगा. इसके लिए रिज़र्व बेंक ने एक आसिस्तंत कमिश्नर सहित कुल अठारह पुलिस वालों को भी रुपियों की इस हेरफेर की निगरानी में नियुक्त किये थे. साथ ही ट्रेन की सुरक्सा के लिए रेलवे की रिजर्व पुलिस के पंद्रह जवान भी साथ थे. मतलब सुरक्सा का पूरा और चुस्त बन्दोबस्त था. कहीं कोई कमी न थी.
ट्रेन के सब से आगे इंजन था. और इसके पिछले वाले मतलब ट्रेन का पहला डिब्बा रुपियों से भरे बक्सों को रखकर सील कर दिया गया था. और दुसरे डिब्बे में बाकी के रुपियों से लदे बक्सों के साथ पुलिस वाले निगरानी में तेहनात थे. सुरक्सा की व्यवस्था कड़ी थी. किसी के भी द्वारा रुपियों से भरी बोगी की और नजर उठा के देखना भी नागवारिस था.
रात ठीक नौ बजे ट्रेन सैलम से चेन्नई के लिए निकली. और पुरे सात घंटो की यात्रा के बाद ठीक तीन बजकर सत्तावन मिनट पर ट्रेन चेन्नई एग्मोर स्टेशन पर पहुंची. यह उस पुराने रुपियों का आखरी स्टेशन था जहां से अब उसे रिज़र्व बेंक की ट्रेजरी में पहुंचना था. रुपियों से लदे बक्सों वाले दोनों डिब्बो को पुलिस ने घेर लिया. और इसके सुरक्सित होने की खातरी की. पर तभी एक रेलवे कर्मचारी का ध्यान सील्ड डिब्बे में पड़ती रौशनी पर गया. ट्रेन का डिब्बा बिलकुल बंध था फिर अन्दर यह रौशनी कैसे पहुंची? इस घटना ने सब के पेट के अम्ल को दिमाग में चढ़ा दिया. आखिर कार रिज़र्व बेंक को इसकी सुचना दी गई. खबर सुनकर रिज़र्व बेंक के अधिकारी आ पहुंचे. और पहले डिब्बे का सिल तोड़ा और लोक खोलकर अन्दर दाखिल हुए. पर अन्दर दाखिल होते ही सब की आखें फट गई! ट्रेन के डिब्बे की छत में छेद था! पुरे दो बाय दो फूट का! सब अवाक रह गए. छेद इतना बड़ा था की कोई भी आदमी डिब्बे के अन्दर बाहर हो सकता था! ट्रेन में डाका पड़ चूका था! रुपियों से लदे बक्सों की जांच हुई तो पता चला की चार बक्सों से कुल मिलाकर पांच करोड़ और अठत्तर लाख रुपये गायब हैं. पटरी पर डोड़ती ट्रेन! और डोड़ती ट्रेन में डकेती! बड़े ही साहसपूर्ण तरीके से किसी ने यह कारनामा कर दिखाया था. चलती ट्रेन को लूट लिया गया था!
ये कैसे हुआ!? किसने किया!? कब किया!? सारे प्रश्न प्रश्न ही बनकर रह गए. किसी के उत्तर नहीं थे. सब की पेंट ढीली और खटिया खड़ी हो चुकी थी. पूरा केस चेन्नई क्राइम ब्रांच को सुप्रत कर दिया गया.
क्रमशः
 
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डकेती! बड़े ही साहसपूर्ण तरीके से किसी ने यह कारनामा कर दिखाया था. चलती ट्रेन को लूट लिया गया था!
ये कैसे हुआ!? किसने किया!? कब किया!? सारे प्रश्न प्रश्न ही बनकर रह गए. किसी के उत्तर नहीं थे. सब की पेंट ढीली और खटिया खड़ी हो चुकी थी. पूरा केस चेन्नई क्राइम ब्रांच को सुप्रत कर दिया गया.
अब तरह तरह की थियरी सामने आने लगी. पहली थियरी यह थी की सैलम से चेन्नई तक की ट्रेन की यात्रा के दौरान यह लूट को अंजाम दिया गया. पर ट्रेन के ऊपर पुरे छब्बीस हजार वाल्ट वाले तार थे. ऐसी परिस्थिति में सोक लगकर मर जाने का पूरा जोखिम था. इसलिए ट्रेन के डिब्बे की छत से छेद कर अन्दर दाखिल होना और लूट को अंजाम देना संभव नहीं. इसलिए इस थियरी को बाई बाई कह दिया गया.
अब दूसरी थियरी सामने आती है. जब ट्रेन सैलम से निकलकर चेन्नई के लिए चली तो बीच में वृद्धाचेलम स्टेशन पर एक घंटे के लिए रुकी थी. यहाँ उसे इंजन बदलना था. अब ट्रेन के साथ यहाँ से इलेक्ट्रीसिटी से चलने वाला इंजन जुड़ने वाला था. वास्तव में सैलम से लेकर वृद्धाचेलम तक का १३८ कीमी का रूट इलेक्त्रिफाइद नहीं था और यहाँ तक ट्रेन डीज़ल से चलती थी. इसी एक घंटे के दौरान जब वृद्धाचेलम स्टेशन पर इंजन बदला जा रहा था, लूटेरों ने ट्रेन के डिब्बे की छत पर चढ़कर इस काण्ड को अंजाम दिया होगा. पर स्टेशन पर पुलिस कर्मी, रेलवे के कर्मचारी और यात्रियों की हाजरी में उनकी नज़रों से बचकर ट्रेन के डिब्बे पर चढना और डिब्बे की छत में छेद कर अन्दर दाखिल होना ही संभव नहीं था. और डिब्बे की छत से किसी प्रकार के फिंगरप्रिंट और फूट प्रिंट के निशान भी नहीं मिले थे. इसलिए यह थियरी भी बेकार साबित हुई.
तीसरी थियरी में यह दावा किया गया की किसी सरकारी आदमी की सहायता से पहले लूटेरे किसी तरह पैसो से भरे डिब्बे में दाखिल हुए और फिर डिब्बे की छत में छेद कर बाहर निकले होंगे. इसके लिए साथ चल रहे निगरानी दल के पुलिस वालों की भी जांच की गई. पर कुछ हाथ नहीं लगा.
क्राइम ब्रांच के अधिकारियों के दिमाग में एक बात तै रूप से बैठ गई थी की इस लूट को कोई सामान्य लूटेरे अंजाम नहीं दे सकते थे. इसके लिए पहले से ही पूरा प्लानिंग किया गया होगा. और इसमें सिर्फ लूटेरे ही नहीं! रिज़र्व बेंक और अन्य बेंको के कर्मचारी अथवा पुलिस डिपार्टमेंट या रेलवे पुलिस के कर्मचारी भी जरूर मिले हुए होंगे. तभी इतनी बड़ी लूट को अंजाम दिया जा सकता है. इन्ही लोगों ने लूटेरों को सटीक जानकारी दी; वर्ना सामान्य लूटेरे को कैसे पता चलता की इतने बड़े स्तर पर भारतीय रुपियों की हेरफेर होने वाली है और किस दिन होने वाली है? किस तरीके से होने वाली है और ट्रेन से ही होने वाली है तो किस ट्रेन से यह ट्रांसपोर्टेशन होने वाला है? किस डिब्बे को रुपियों से भरे बक्सों के साथ सील कर दिया जाएगा और किस डिब्बे में पुलिस वाले सवार होंगे? क्यूँ वे लूटेरे उसी डिब्बे में पहुंचे जिस डिब्बे में सिर्फ रुपियों से भरे बक्से रखे थे और पुलिस का कोई आदमी नहीं था? वे उस डिब्बे में क्यूँ न पहुंच गए जिस डिब्बे में पुलिस वाले बैठे हुए थे?
इस लूट की तपास करने वाले अधिकारियों ने इस रूट पर पड़ने वाले बारह स्टेशनों के सीसी टीवी केमेरा के फूटेज खंगाल डाले. करीब दो हजार लोगों की पूछताछ की गई. जिसमे पुलिस वाले, रेलवे पुलिस के जवान, रेलवे के अन्य कर्मचारी, प्लेटफोर्म पर काम करने वाले कुली, सामान ट्रांसपोर्टेशन और पार्शल कंपनियों के कर्मचारी, इत्यादि सामिल थे.
जांच कर्ताओं के लिए एक बात साफ़ हो गई थी की इस लूट को सेलम और वृद्धाचेलम के बीच ही अंजाम दिया जा सकता था. क्यूंकि इस दोनों स्टेशन के बीच एक्सो अर्तीस कीमी लम्बे रेलवे मार्ग पर बिजली की सुविधा न होने की वजह से ट्रेन डीज़ल इंजन से डोड़ती थी और सेलम से वृद्धाचेलम तक की इस यात्रा में तीन घंटे लेती है. इसलिए लूटेरों के पास पूरा मौका था कि वे इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे सके.
रेलवे पुलिस और क्राइम ब्रांच के अधिकारी पुरे दो साल तक इस केस में अपनी खोपड़ी खपाते रहे पर हाथ कुछ नहीं लग रहा था. आखिर में अमेरिका की नासा की मदद मांगी गई. नासा ने भी भारतीय पुलिस को इस डकैती की घटना को सुल्जाने में पूरी सहायता की और पुरे ट्रेन मार्ग की डकैती के दिन की सारी तस्वीरे उपलब्ध करवाई. तस्वीरों के अभ्यास से पता चला की यह लूट की घटना को सैलम से वृद्धाचेलम के बीच ही अंजाम दिया गया है. जिस डिब्बे में छेद किया गया था उस डिब्बे की छत पर पांच लोगों की धुंधली तस्वीर भी प्राप्त हुई. पर तस्वीर में दिखने वाले ये लूटेरे कौन है; किसी का कोई पता नहीं चल रहा था.
 
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अब उन्हें ट्रेन के उस डिब्बे में घुसने की योजना बनानी थी. उनके पास यह तो पक्की जानकारी थी की दो डिब्बों के ज़रिये रुपियों को ले जाया जाने वाला है. उसमे से एक में पुलिसवाले रहेंगे और एक डिब्बे को रुपियों से भरे बक्से रखकर सील कर दिया जाएगा. पर इस डिब्बे में घुसा कैसे जाये! ये बड़ा प्रश्न था. ट्रेन का वह डिब्बा सील होगा. और वह सील्ड डिब्बे में दाखिल होने के लिए उन लोगों के पास दो ही विकल्प रह जाते थे; एक तो डिब्बे का सील और लोक तोड़कर अन्दर दाखिल हुआ जाए या फिर डिब्बे में छेद करके अन्दर प्रवेश किया जाए. और ये दोनों विकल्पों में से एक भी कार्य प्लेटफोर्म पर रहकर तो बिलकुल हो ही नहीं सकते थे. इसलिए अब उन्हें यह कार्य चलती ट्रेन में ही अंजाम देना था. पर ऐसे में डिब्बे का सील और लोक तोड़ने का एक विकल्प ख़त्म हो जाता था. और सिर्फ डिब्बे में छेद कर के अन्दर दाखिल होने का विकल्प ही रह जाता था, वो भी छत से! क्यूंकि चलती ट्रेन में डिब्बे के बगल में छेद करना तो बिलकुल भी संभव नहीं था. पर छत पर चढ़कर उसमे छेद करना भी मौत से मुकाबला करने बराबर काम था. क्यूंकि छत पर तो हजारो वाल्ट से लदे बिजली के तार ज़रा सी देर में खून चूस लेने के लिए तेहनात रहते है! मतलब दूसरा विकल्प भी ख़त्म!
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अब उन्हें ट्रेन के उस डिब्बे में घुसने की योजना बनानी थी. उनके पास यह तो पक्की जानकारी थी की दो डिब्बों के ज़रिये रुपियों को ले जाया जाने वाला है. उसमे से एक में पुलिसवाले रहेंगे और एक डिब्बे को रुपियों से भरे बक्से रखकर सील कर दिया जाएगा. पर इस डिब्बे में घुसा कैसे जाये! ये बड़ा प्रश्न था. ट्रेन का वह डिब्बा सील होगा. और वह सील्ड डिब्बे में दाखिल होने के लिए उन लोगों के पास दो ही विकल्प रह जाते थे; एक तो डिब्बे का सील और लोक तोड़कर अन्दर दाखिल हुआ जाए या फिर डिब्बे में छेद करके अन्दर प्रवेश किया जाए. और ये दोनों विकल्पों में से एक भी कार्य प्लेटफोर्म पर रहकर तो बिलकुल हो ही नहीं सकते थे. इसलिए अब उन्हें यह कार्य चलती ट्रेन में ही अंजाम देना था. पर ऐसे में डिब्बे का सील और लोक तोड़ने का एक विकल्प ख़त्म हो जाता था. और सिर्फ डिब्बे में छेद कर के अन्दर दाखिल होने का विकल्प ही रह जाता था, वो भी छत से! क्यूंकि चलती ट्रेन में डिब्बे के बगल में छेद करना तो बिलकुल भी संभव नहीं था. पर छत पर चढ़कर उसमे छेद करना भी मौत से मुकाबला करने बराबर काम था. क्यूंकि छत पर तो हजारो वाल्ट से लदे बिजली के तार ज़रा सी देर में खून चूस लेने के लिए तेहनात रहते है! मतलब दूसरा विकल्प भी ख़त्म!
पर तभी उन्हें ख़याल आता है की सेलम से लेकर वृद्धाचेलम स्टेशन तक तो पटरियों पर बिजली की व्यवस्था है ही नहीं! मतलब वृद्धाचेलम स्टेशन तक ट्रेन को डीज़ल इंजन के सहारे यात्रा करनी है! यही मौका है जब वे ट्रेन के डिब्बे की छत में छेद करके अन्दर दाखिल हो सकते थे. पर यहाँ भी उनके सामने बड़ी समस्या खड़ी थी. ट्रेन के प्लेटफोर्म पर रहते लोगों और पुलिस वालों की नज़रों से बचकर ट्रेन के डिब्बे की छत पर चढ़ना संभव नहीं था. और वो भी उसी डिब्बे की छत पर! जिस पर अनेक पुलिस वाले अपनी बाज़ नजरें गड़ाए बैठे होंगे! और चलती ट्रेन में डिब्बे की छत पर चढ़ने का दुशशाहस करना तो मौत को दावत देने के बराबर था! पर कुछ तो करना ही था. और उनके शैतानी दिमाग ने कोई बीच वाला तरीका खोज निकाला.
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प्लेटफोर्म पर रहते ट्रेन की छत पर चढ़ा नहीं जा सकता था. अरे! ऐसी हालत में तो उस डिब्बे को छुआ भी नहीं जा सकता था जो पुलिस वालों की बाज़ नज़रों में था! अब उन्हें यह कार्य ट्रेन के प्लेटफोर्म छोड़ने के बाद ही करना था. पर चलती ट्रेन को बीच मार्ग में रोकना और उसकी छत पर चढ़ना भी मुश्किल था. क्यूंकि ऐसे में पुलिस की गोलियों को उनके बदन के चीथड़े उड़ा देने में देर नहीं लगने वाली थी. वक्त भी तो उनके पास काफी कम था, क्यूंकि ट्रेन को सेलम से वृद्धाचेलम तक की दूरी तै करने में तीन घंटे लगते थे, जो इतने बड़े काण्ड को अंजाम देने के लिए पर्याप्त नहीं थे. ऐसे में कोई नया तरीका निकालना था, जिससे कम वक्त में इस बड़े काण्ड को अंजाम तक पहुंचाया जा सके.
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पैसों से भरे बक्सों वाला ट्रेन का डिब्बा ट्रेन की शुरू में पहले क्रम पर इंजन के बिलकुल पीछे था. मतलब वह प्लेटफोर्म की शुरू में था. प्लेटफोर्म को छोड़कर जब ट्रेन ने अपना प्रवास शुरू किया तो इस डिब्बे ने सबसे पहले प्लेटफोर्म को छोड़ा. ट्रेन की गति अभी भी बहुत कम ही थी. क्यूंकि इतनी बड़ी ट्रेन को गति प्राप्त करने में काफी वक्त लग जाता है. जैसे ही ट्रेन धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी, इंजन के पीछे वाला रुपियों से भरा डिब्बा भी आगे बढ़ने लगा. अभी भी ट्रेन की गति बहुत धीमी ही थी. जैसे ही डिब्बा प्लेटफोर्म से इतना आगे निकला, कि प्लेटफोर्म पर खड़े लोगों एवं पुलिस वालों की नज़रों से बचा जा सके, पांचो लूटेरे दोड़ते हुए ट्रेन के उस डिब्बे की खिड़की में लगे सलाखों पर लटक गए. और फिर धीरे धीरे डिब्बे की छत पर जा पहुंचे. वे अपने साथ डिब्बे की छत में छेद करने के लिए गेसक़तर भी लाये हुए थे. यह कार्य इतना आसान नहीं था! इसमें प्राण जाने का पूरा पूरा जोखिम रहता था.
ऊपर पहुँचने के बाद उनका कार्य थोड़ा आसान हो गया था. यहाँ वे साथ लाये हुए गेस कटर की मदद से ट्रेन के डिब्बे की छत पर पूरा एक आदमी आसानी से अन्दर बाहर हो सके इतना बड़ा छेद करने लगे. इस दौरान वे सब हाथो में दस्ताने पहने हुए थे, जिससे की उनके फिंगर प्रिंट न छूट जाए. और वे अपने जूतों के निशान भी मिटाते रहे जिससे उनका कोई ठोस सुराग पुलिस के हाथ न लग पाए. पर यह कार्य उन लोगों के लिए आसान नहीं रहा और वक्त ज्यादा ज़ाया हो गया. इस उपद्रव के दौरान उनके भूमि स्थित साथी से भी वे लगातार संपर्क बनाए हुए थे और उन्हें नियमित रूप से आगे क्या करना है की सुचना प्राप्त होती रहती थी.
अब उनके पास वक्त बहुत थोड़ा रह गया था. इसलिए जल्दी जल्दी में दो बन्दे उस छेद से डिब्बे में अन्दर दाखिल हुए और चार बक्सों से पांचसो, हजार एवं सो - सो के बण्डल निकाल कर उनको अपनी पहनी हुई लुंगी में गठरी बांधकर ऊपर छत पर बैठे हुए अपने अन्य साथियों के पास पहुंचा दिया. पर वे अभी तो कुल तीनसो बयालीस करोड़ रुपियों में से सिर्फ पांच करोड़ और अठत्तर लाख रुपये ही निकाल सके थे, कि भूमि स्थित उनके सूत्रधार से सुचना मिली की अब जो भी हाथ लगा है, जल्दी से लेकर भाग निकलो.
वक्त ख़त्म हो चूका था. वृद्धाचेलम स्टेशन नजदीक आ पहुंचा था. उन लोगों को कोई देख ले उससे पहले अब उन्हें चलती ट्रेन से ही भाग निकलना था. दोनों लूतेरे जल्दी में ऊपर आ पहुंचे. ट्रेन अब अपनी रफ़्तार कम करने लगी थी. सबसे पहले रुपियों की गठरियों एवं साथ लाये हुए अन्य साधनों को ज़ाड़ियों में फेंक दिया गया जहां उसके अन्य भूमि स्थित साथी उठाने के लिए तत्पर थे. और पांचो लूटेरे फिर से खिड़की में लगे सलाखों के सहारे लटकने लगे. जैसे ही ट्रेन की गति इतनी कम हुई की सलामत तरीके से कूदा जा सके, पांचो लूटेरे खिड़की से कूद कर भाग निकले. भागे तो ऐसे भागे! की दुनिया की नज़रों और ख़ास करके पुलिस की नज़रों से तो बिलकुल ओजल ही हो गए. पर वे भारत की डकैती के इतिहास में एक अनोखा प्रकरण दर्ज करते गए थे.
इस लेख में वर्णवित घटना लेखक की कल्पना एवं अनुमान पर आधारित है और वास्तविकता इससे कुछ अलग भी हो सकती है. कृप्या पाठक अपने विवेक का इस्तेमाल करें. इसमें बताए गए अपराधियों के नाम न्यूज़पेपर से लिए गए हैं.
समाप्त.
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