Thriller वापसी की कीमत (Completed)

Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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Eᴋ sʜᴏʀᴛ sᴛᴏʀʏ ʏᴀʜᴀ ᴘᴏsᴛ ᴋᴀʀ ʀᴀʜᴀ ʜᴜ. Uᴍᴍɪᴅ ʜᴀɪ ᴀᴀᴘ ʟᴏɢᴏ ᴋᴏ ᴘᴀsᴀɴᴅ ᴀᴀʏᴇɢɪ. :love:


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वापसी की कीमत
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Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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वापसी की कीमत
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यूॅ तो हर प्राणी को एक दिन अपना सब कुछ छोड़ कर इस संसार सागर से जाना ही होता है मगर इस कड़वे सच को जानने समझने के बावजूद हम कभी अपनों के जाने के लिए तो कभी खुद के नुकसान के लिए दुखी हो जाते हैं। आज वक़्त और हालात ने मुझे जिस जगह पर ला कर खड़ा कर दिया था उसकी हर शय का ज़िम्मेदार सिर्फ और सिर्फ मैं था। शमशान में मेरे पिता की धू धू कर के जलती हुई चिता जैसे मुझे अहसास करा रही थी कि अगर मुझे वक़्त से पहले अपनी ग़लतियों का अहसास हो गया होता तो आज मेरे पिता का ये अंजाम नहीं हुआ होता। मेरी आँखों से दुःख और पश्चाताप के आँसू बह रहे थे लेकिन इस वक़्त मेरे आंसुओं को पोंछने वाला यहाँ पर मेरा अपना कोई नहीं था। आस पास कुछ जान पहचान वाले मौजूद तो थे मगर उनके विसाल ह्रदय में मेरे लिए कोई जगह नहीं थी।

शमशान में अपने पिता की जलती चिता के सामने जाने कब तक मैं सोचो के अथाह सागर में डूबा रहा। आस पास जो लोग थे वो जाने कब का वहॉ से जा चुके थे। रेत की मानिंद फिसलता हुआ ये वक़्त मुझे गहरे ख़यालों से निकालने के लिए जैसे आवाज़ें लगा रहा था मगर उसकी वो आवाज़ें मेरे कानों तक पहुंच ही नहीं पा रही थी। तभी सहसा किसी ने मेरे कंधे पर अपने हाॅथ को रख कर हल्का सा दबाया तो मैं सोचो के गहरे समुद्र से बाहर आया और धीरे से गर्दन को बायीं तरफ फेर कर देखा। मेरी नज़र एक ऐसे चेहरे पर पड़ी जो इस दुनिया का सबसे खूबसूरत भले ही न रहा हो मगर उससे कम भी नहीं था। दुनिया भर की सादगी और मासूमियत मौजूद थी उस चेहरे में मगर आज से पहले वो चेहरा मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता था। हाँ इतना ज़रूर था कि उस खूबसूरत चेहरे की मालकिन पर मेरी बुरी नज़र ज़रूर रहती थी। ये अलग बात है कि मैं अपने गंदे इरादों को परवान चढ़ाने में कभी कामयाब नहीं हुआ था।

मैने जैसे ही उसकी तरफ देखा तो उसने मेरे कंधे से फ़ौरन ही अपना हाॅथ हटा लिया और तेज़ी से दो क़दम पीछे हट गई। उसके इस तरह पीछे हट जाने से मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसने मुझे ये अहसास कराया हो कि मुझे कोई छूत की बीमारी है और सिर्फ मेरे क़रीब रहने से उसे छूत का रोग लग जाएगा। ऐसा वो पहले भी करती थी और उसके ऐसा करने पर मेरे अंदर गुस्से का ज्वालामुखी भी धधक उठता था मगर इस वक़्त ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, बल्कि इस वक़्त तो मुझे खुद ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कि मुझे सच में ही छूत का रोग है और जो कोई भी मेरे क़रीब आएगा उसे छूत की बीमारी लग जाएगी। अपने आपसे बेहद घृणा सी हुई मुझे। ऐसा लगा जैसे मैं खुद को जला कर ख़ाक में मिला दॅू मगर मेरी बद्किस्मती कि मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकता था।

"अब अगर दुनिया वालों को तुम्हारा ये झूठा नाटक दिखाना हो गया हो तो घर भी चले आओ।" उसने बेहद सर्द लहजे में कहा____"या फिर चले जाओ वहीं जहाँ तुम्हारी अपनी दुनिया है और तुम्हारे अपने हैं। अब तक तो उन्हें खुद ही सम्हालती आई हॅू तो आगे भी सम्हाल ही लूॅगी।"

दुनिया में एक वही थी जो मुझसे इस लहजे में बात कर सकती थी। हालांकि अब से पहले उसके ऐसे लहजे पर मुझे बेहद गुस्सा आता था और मैं उसे जान से मारने के लिए भी दौड़ पड़ता था मगर हर बार वो मेरे माता पिता की वजह से बच जाती थी। उसके अपने माता पिता तीन साल पहले रोड एक्सीडेंट में चल बसे थे। मेरे पिता जी और उसके पिता बहुत ही गहरे मित्र थे और हम दोनों की शादी की बात भी पहले ही पक्की कर चुके थे। उसके माता पिता के गुज़रने के बाद मेरे माता पिता ही उसका हर तरह से ख़याल रख रहे थे। जैसे मैं अपने माता पिता की इकलौती संतान था, वैसे ही वो भी अपने माता पिता की इकलौती संतान थी। उसमे हर वो गुण थे जो एक अच्छी लड़की में होने चाहिए और इधर मुझमे हर वो दुर्गुण था जो एक अच्छे खासे बिगड़े हुए इंसान में होना चाहिए।

"तुम सुन रहे हो या मैं जाऊॅ यहाँ से.?" उसने उखड़े हुए भाव से ये कहा तो जैसे मैं एक बार फिर से सोचो की दुनिया से बाहर आ गया। मैंने नज़र उठा कर उसे देखा। उसकी नील सी झीली गहरी आँखों में अभी भी सवाल था। उसके पूछने पर मैंने धीमी आवाज़ में कहा_____"किस मुह से घर आऊॅ ?"

मेरे ऐसा कहने पर उसके सुर्ख होठों पर बड़ी अजीब सी मुस्कान उभरी। चेहरे पर हिक़ारत के भाव गर्दिश करते नज़र आए और सच तो ये था कि मैं उसकी आँखों से दो पल के लिए भी अपनी आँखें न मिला सका। कदाचित मेरे अंदर अपराध बोझ ही इतना था कि मैं उससे नज़रें नहीं मिला पाया था।

"इंसान जैसा होता है वो दूसरों को भी वैसा ही समझता है।" उसने अजीब भाव से कहा_____"जबकि सच इससे बहुत ही जुदा होता है। तुमने कभी अपने सिवा किसी और के बारे में सोचा ही नहीं...और सोचते भी कैसे?? तुम्हारी नज़र में तो तुम्हारे अलावा सारी दुनिया के लोग ही ग़लत हैं। तुम्हें हमेशा अपने माता पिता ही ग़लत लगे। उन्होंने तुम्हारे भले के लिए जो कुछ भी कहा या जो कुछ भी किया वो सब तुम्हें ग़लत ही लगा। तुम्हारे लिए अगर कोई सही था तो वो थे तुम्हारे दोस्त जो सिर्फ तुम्हारे मन पसंद की बातें करते थे।"

मैं ख़ामोशी से उसकी बातें सुन रहा था। आज मुझे उसकी बातें ज़रा भी नहीं चुभ रही थी बल्कि ये अहसास करा रही थी कि अब से पहले मैं कितना ग़लत था और कितना बुरा इंसान था। आज वो लड़की बेख़ौफ़ हो कर मुझसे ये सब बातें कह रही थी जो आज से पहले मुझे देखते ही डर कर कांपने लगती थी। आज उसे ज़रा सा भी मुझसे डर नहीं लग रहा था, बल्कि अगर ये कहूॅ तो ज़रा भी ग़लत नहीं होगा कि आज मैं खुद उससे डर रहा था।

"ख़ैर छोड़ो।" उसने सहसा गहरी सांस ली____"और हाँ माफ़ करना, मुझे तुमसे ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए। तुम खुद ही इतने समझदार हो कि कोई तुम्हें समझाने की औकात ही नहीं रखता। तुम वही करो जो तुम्हें अच्छा लगे। अब जा रही हूॅ मैं।"

"रु रुक जाओ।" मैंने बड़ी मुश्किल से कहा।
"किस लिए??" उसने पलट कर मेरी तरफ देखा।
"मैं मानता हूॅ।" मैंने नज़रें झुकाते हुए कहा_____"मैं मानता हूॅ कि अब तक मैंने जो कुछ भी किया वो सब बहुत ही ग़लत था, बल्कि ये कहूॅ तो ज़्यादा बेहतर होगा कि मैंने जो कुछ भी किया वो माफ़ी के लायक ही नहीं है मगर....।"

मेरे रुक जाने पर उसने सवालिया निगाहों से मेरी तरफ देखा। उसके मासूमियत से भरे चेहरे को देख कर एकदम से मेरे जज़्बात मचल उठे। मेरा जी चाहा कि मैं उसे अपने सीने से लगा लूॅ, मगर ऐसा करने की मुझ में हिम्मत नहीं थी। आज से पहले उसके लिए इस तरह के जज़्बात मेरे दिल में कभी नहीं उभरे थे। मैं समझ नहीं पाया कि आज ही ऐसा क्यों हो रहा था?

"मगर मैं ये कह रहा हू कि।" फिर मैंने अपनी तेज़ हो चली धड़कनों को काबू करते हुए कहा_____"क्या तुम मुझसे शादी करोगी? देखो मुझे ग़लत मत समझना। मैं जानता हूॅ कि मेरे जैसे इंसान से कोई भी लड़की शादी नहीं करना चाहेगी। तुम चाहो तो बेझिझक मना कर दो, मगर मैं ये कहना चाहता हूॅ कि क्या हम एक नई शुरुआत नहीं कर सकते? मेरा मतलब है कि एक ऐसी ज़िन्दगी की शुरुआत जिसमे मैं एक अच्छा आदमी बन कर तुम्हारे और अपनी माँ के साथ रहूॅ?"

"तुम एक अच्छा आदमी बनोगे??" उसने इस तरह से कहा जैसे उसने मेरा मज़ाक उड़ाया हो_____"अभिनय बहुत अच्छा कर लेते हो मिस्टर विजय मगर ये हमेशा याद रखना कि तुम्हारे इस अभिनय से मुझ पर कोई असर नहीं होगा। ये सच है कि मैं आज भी तुमसे दिलो जान से प्यार करती हॅू मगर यकीन मानो अपने इस प्यार के लिए तुम्हें पाने की मेरे दिल में ज़रा सी भी हसरत नहीं है।"

मैने कुछ कहना चाहा मगर वो अपनी बातें कहने के बाद एक पल के लिए भी नहीं रुकी और ना ही उसे रोकने की मुझ में हिम्मत हुई। ज़िन्दगी में पहली बार मैं खुद को इतना बेबस और लाचार महसूस कर रहा था मगर मेरी बेबसी और लाचारी में किसी का भी कोई हाॅथ नहीं था बल्कि ये तो मेरे ही बुरे कर्मों का नतीजा था।

विभा जा चुकी थी और मैं अभी भी अपनी जगह पर बुत बना खड़ा था। इस वक़्त मुझे ऐसा लग रहा था जैसे इस संसार में कोई नहीं है। संसार का हर प्राणी जीव जैसे इस संसार से विलुप्त हो गया है और अगर कोई है तो सिर्फ मैं, अकेला और बहुत ही अकेला। मेरे अंदर विचारों का ऐसा भूचाल आ गया कि अब उसे रोकना मेरे अख़्तियार में नहीं था।

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मैं विजय शर्मा, अपने माता पिता की इकलौती औलाद और इकलौती ही उम्मीद। मेरे माता पिता ने मुझे बड़े ही लाड प्यार से पाल पोश कर बड़ा किया था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मेरे माता पिता ने मुझे कभी किसी बात के लिए डॉटा हो। हर माँ बाप अपने बच्चों से बेहद प्यार करते हैं और चाहते हैं कि उनके बच्चे हमेशा खुश रहें। हर माँ बाप अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं कि उनकी औलाद बड़ी हो कर एक ऐसा इंसान बने जो अपने अच्छे कर्मो के द्वारा अपने माता पिता के नाम को रोशन करे। आज सोचता हॅू कि मेरे माता पिता ने मुझे लाड प्यार से पाला तो क्या उन्होंने ग़लत किया था?? मुझे पढ़ा लिखा कर बड़ा किया तो क्या ये ग़लत किया उन्होंने? हरगिज़ नहीं....तो फिर ऐसा क्या हुआ कि आज मैं इतना बुरा बन गया हूॅ?

इंसान जब गहराई से सोचता है तो उसे समझ आता है कि सही और ग़लत क्या है। मुझे अपने माता पिता का भरपूर लाड प्यार मिला मगर मैं बिगड़ गया तो क्या ये उनकी ग़लती थी? मुझे ऐसे दोस्त मिले जो हमेशा मेरे ही मन की करते थे...तो क्या उन्होंने मुझे इस बात के लिए बढ़ावा दिया कि मैं आगे चल कर एक बुरा इंसान बन जाऊॅ? सच तो ये था कि मैं कभी कुछ समझना ही नहीं चाहता था। मेरे मन में जो आया मैं करता गया। मुझे जो अच्छा लगा मैंने हमेशा वही किया। धीरे धीरे मेरी फ़ितरत ऐसी हो गयी कि अगर मेरे माता पिता मुझे किसी चीज़ के लिए मना करते या समझाते तो मैं गुस्सा हो जाता और फिर तो जैसे ये सिलसिला ही चल पड़ा।

मेरे पिता जी एक सरकारी नौकरी में थे और माँ एक घरेलू महिला। दोनों ही मुझ पर अपनी जान छिड़कते थे। पिता जी के दोस्त की बेटी थी विभा जिससे बहुत पहले ही मेरी शादी की बात पक्की हो गयी थी। हम दोनों एक साथ खेल कूद कर बड़े हुए थे। मैं जानता था कि वो मुझसे मन ही मन प्यार करती है मगर मेरे दिल में कभी भी उसके लिए प्यार वाला अहसास नहीं था। हम दोनों बड़े हुए तो मैं अक्सर उससे छेड़ खानी करता और यही कोशिश करता कि उसे भोग सकूॅ या फिर उसके कोमल अंगों को अपने हाथों से सहला सकूँ मगर वो काफी समझदार थी। मेरे इरादे वो फ़ौरन ही भांफ जाती थी और ऐसे हर अवसर पर वो मुझसे दूर चली जाती थी। उसको भोग न पाने की वजह से मैं गुस्सा होता और फिर जाने क्या क्या बोल देता उसे, जिससे मेरे माता पिता मुझ पर गुस्सा करते और जब मेरे माता पिता मुझ पर गुस्सा करते तो मैं ये सोच कर और भी गुस्सा होता कि विभा की वजह से मेरे वो माता पिता मुझ पर गुस्सा करते हैं जिन्होंने कभी मुझे ऊॅची आवाज़ में डॉटा तक नहीं।

विधाता ने शायद मेरे प्रारब्ध को पहले ही लिख दिया था कि एक दिन मुझे ऐसा बन जाना है कि मेरी वजह से मेरा हॅसता खेलता परिवार तिनके की तरह टूट कर बिखर जाएगा। मेरे पिता जी को ब्लड कैंसर हो गया था जिसकी जानकारी मुझे नहीं थी। वो नौकरी से रिटायर हो चुके थे। मेरे घर में दुःख दर्द ने जैसे अपना आशियाना बना लिया था और मैं इस सबसे बेख़बर अपनी ही दुनिया में मस्त था। मेरी दुनिया में सिर्फ मेरे दोस्त ही थे। जिनकी संगत में रह कर मैं अच्छा खासा बिगड़ गया था। कई कई दिनों तक तो मैं अपने घर ही नहीं आता था और अगर आता भी तो तब जब मेरी पॉकेट से पैसे ख़त्म हो जाते। पैसों के लिए मैं मॉ के पास जाता, उस मॉ के पास जिसके बारे में मैं ये बात अच्छी तरह जानता था कि वो अपने लाल को किसी भी चीज़ के लिए मना नहीं कर सकती। माँ मुझे पैसे देती और साथ ही पैसे देते वक़्त कुछ अच्छी भली बातें भी कहती, जिन्हें उस वक़्त मैं एक कान से सुनता और दूसरे कान से हवा में उड़ा देता था। मुझे इस बात से कोई मतलब ही नहीं होता था कि मेरे घर के हालात कैसे हैं या मेरे माता पिता किस दौर से गुज़र रहे होंगे?

विभा के माता पिता रोड एक्सीडेंट में गुज़र गए थे तो उसकी जिम्मेदारी भी मेरे माता पिता के कंधों पर आ गयी थी। विभा ज़्यादातर मेरे घर में ही रहती थी, हालाँकि उसका घर मेरे घर के बगल से ही था मगर माँ का कहना था कि अकेली जवान लड़की का इतने बड़े घर में अकेले रहना ठीक नहीं है। मुझे जब भी मौका मिलता मैं विभा को अपनी हवस का शिकार बनाने की कोशिश ज़रूर करता। विभा मेरे इरादों को नाकाम करते हुए बच कर निकल जाती थी मगर वो मेरे माता पिता को मेरी करतूतें नहीं बताती थी। ऐसा शायद इस लिए कि वो नहीं चाहती थी कि मेरी इन करतूतों को जान कर मेरे माता पिता मुझ पर गुस्सा करें। हलांकि मेरे लिए तो वो अच्छा ही करती थी मगर दुर्भाग्य से एक दिन मेरी करतूत का पता मेरी माँ को चल ही गया। उस दिन माँ ने मुझे पहली बार डांटा था। माँ ने डॉटा तो मुझे इसके लिए यकीनन शर्मिंदा होना चाहिए था मगर मैं उनकी डांट से माँ पर कम बल्कि विभा पर और भी ज़्यादा क्रोधित हुआ था।

मैं ऐसे मुकाम पर पहुंच चुका था जहाँ पर किसी की अच्छी नसीहतों का मेरे लिए कोई मतलब नहीं था। मेरे लिए सिर्फ ये मायने रखता था कि मैं जो चाहूॅ वही हो। मेरी चाहत और मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ अगर कोई कुछ भी करता था तो वो मेरे लिए जैसे मेरा सबसे बड़ा दुश्मन बन जाता था। मेरे इस रवैये की वजह से हालात ऐसे बन गए कि एक दिन मेरे पिता जी ने मुझे घर से निकल जाने का हुकुम सुना दिया। अपनी अकड़ और गुस्से में मैं घर से एक बार निकला तो फिर कभी लौट कर वापस घर नहीं लौटा। मैं रहा उसी शहर में मगर मेरे ठिकाने बदलते रहे। अपने जीवन निर्वाह के लिए मैं छोटा मोटा काम करता और दोस्तों के साथ मस्त रहता। मेरे दोस्तों ने मुझसे ये कभी नहीं कहा कि मैं ऐसा करके ग़लत करता हूॅ बल्कि वो तो हमेशा यही कहते रहे कि ये कैसे मॉ बाप हैं जिन्होंने एक बार भी मुझे घर वापस आने को नहीं कहा। दोस्तों की ये बातें जैसे मेरे गुस्से और मेरी नफ़रत में और भी ज़्यादा इज़ाफा कर देती थी।

वक्त ऐसे ही गुज़रता रहा और मेरी अकड़ वैसी ही बनी रही। कोई अगर मुझसे पूछे कि मुझमें किस बात की अकड़ थी तो शायद मैं इस सवाल का जवाब देना ही न चाहूॅ। मैंने तो जैसे कसम खा ली थी कि भूखा मर जाऊंगा लेकिन किसी चीज़ के लिए हाथ फ़ैलाने अपने माँ बाप के पास नहीं जाऊॅगा। मेरा गुस्सा और मेरा खोखला ग़ुरूर ही जैसे मेरे लिए सब कुछ था।

उसी शहर में रहता था तो यूॅ ही कभी कभार अपने घर के रास्ते की तरफ भी चला जाता। घर के सामने से गुज़र जाता था मगर उस घर की तरफ जैसे मुझे देखना तक गवारा नहीं था। विभा अगर कभी नज़र आ भी जाती तो मैं उसे अनदेखा कर के निकल जाता था। मैंने कभी ये देखने और समझने की कोशिश नहीं की थी कि ऐसे अवसरों पर विभा की आॅखों में मेरे लिए क्या ख़ास होता था।

पिता जी की चोरी से माँ कभी कभी विभा को मेरे पास भेजती थी मेरा हाल चाल जानने के लिये। विभा मुझे खोजते हुए मेरे पास आती और मुझसे कहती कि घर में माँ मुझे बहुत याद करती है। वो मुझसे ये भी कहती कि मैं अपने माँ बाप को किस बात की सज़ा दे रहा हॅू मगर उसकी ऐसी बातों पर मैं यही कहता कि अब मेरा उस घर में रहने वालों से कोई रिश्ता नहीं है। असल में मुझे गुस्सा इस बात का था कि मेरे बाप ने मुझे घर से निकल जाने को कहा था और फिर उन्होंने एक बार भी मेरे पास आ कर ये नहीं कहा था कि बेटा सब कुछ भुला कर अब घर चल। हालांकि उस वक्त अगर मैं सोचने समझने की हालत में होता तो इस बात पर ज़रूर ग़ौर करता और फिर समझता भी कि घर से निकल जाने की बात कह कर मेरे पिता ने कोई ग़लत काम नहीं किया था। मेरे जैसे कपूत के साथ ऐसी सिचुएशन में दुनिया का हर बाप यही करता मगर लाड प्यार से पला बढ़ा मैं इस बात को सहन ही नहीं कर सका था। ऊपर से मेरा वो खोखला ग़ुरूर मुझे किसी के सामने झुकने की इजाज़त ही नहीं देता था।

अगर सिर्फ इतना ही होता तो शायद बात बन सकती थी मगर फिर ऐसा वक़्त आया कि मैं अपनों की नज़र से गिरता ही चला गया। गुस्से की आग में जलता मैं हद से ज़्यादा नशा करने लगा था। आये दिन शहर में किसी न किसी से झगड़ा हो जाता और पुलिस मुझे पकड़ कर ले जाती। उस वक्त मैं यही सोचा करता था कि मेरा अब कोई नहीं है मगर मैं ग़लत सोचता था क्योंकि थाने से मेरी ज़मानत करवा कर हर बार निकालने वाला कोई और नहीं बल्कि मेरा पिता ही होता था, जिसकी मुझे भनक तक नहीं लगती थी मगर ऐसी सिचुएशन में मेरे अंदर मेरे अपनों के लिए गुस्सा और नफ़रत और भी ज़्यादा बढ़ जाती थी। मैं यही सोचता था कि मैं यहाँ दर दर भटक रहा हॅू और मेरे माता पिता को मेरी कोई फिकर ही नहीं है।

कई बार विभा ने मुझ तक संदेशा पहुॅचाया था कि मेरे पिता जी की तबियत ख़राब रहती है और ऐसे वक़्त में उन्हें अपने बेटे की ज़रूरत है मगर मैं एक बार भी घर जा कर अपने पिता को देखना ज़रूरी नहीं समझा था। ये दुनिया की सच्चाई है कि माँ बाप कभी भी अपनी औलाद का बुरा नहीं सोचते और जीवन भर वो अपनी औलाद की भलाई और ख़ुशी के लिए वो सब कुछ करते हैं जो उनसे हो सकता है मगर मेरे जैसी औलाद ज़रा सी बात का पतंगड़ बना कर उन्हें मरने के लिए छोड़ देती है। मैं यही सोचता था कि मुझे वापस घर लाने के लिए मेरा बाप अपनी तबियत ख़राब होने का बहाना बनाता है, जबकि मैं उसके ऐसे बहानों में फॅस कर घर लौटने वाला हरगिज़ नहीं हूॅ।

कहते हैं कि जो अपनों का नहीं होता वो किसी का भी नहीं हो सकता। गुज़रते वक़्त के साथ मुझे देख कर शायद ये बात मेरे दोस्तों को समझ आ गयी थी। तभी तो एक एक कर के उन सबने मुझसे किनारा कर लिया था। दोस्तों ने साथ छोड़ा तो जैसे दुनिया भर के इंसानों से नफ़रत हो गई मुझे। एक वही तो थे मेरे अपने और उन्होंने ही मेरा साथ छोड़ दिया था। कुछ दिन तो जैसे अज़ाब में गुज़रे थे और लगता था कि सारी दुनिया को आग लगा दूॅ मगर सच तो ये था कि मैं तो खुद को ही जाने कब से आग लगा रहा था।

एक कहावत है कि रस्सी जल गयी मगर बल नहीं गया, यही हाल मेरा था। मैं टूट कर भले ही बिखर गया था मगर मेरी अकड़ में ज़रा सी भी कमी नहीं आई थी। मुझे सब कुछ मंजूर था मगर उस घर में जाना और उस घर के लोगों के सामने झुकना मंजूर नहीं था। ख़ैर, दुनिया का सबसे बड़ा सच ये भी है कि अगर किसी चीज़ का जन्म होता है तो उसको एक दिन ख़त्म भी होना होता है। मेरी अकड़ और मेरे खोखले ग़ुरूर के ख़त्म होने का कभी वक़्त भी आएगा इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।

आज ही की तो बात है। मैं हमेशा की तरह किराये के कमरे में शराब के नशे में टुन्न लेटा हुआ था कि तभी किसी ने दरवाज़े को ज़ोर ज़ोर से पीटना शुरू कर दिया। दरवाज़े के पीटेे जाने से मुझे होश आया और मैंने लेटेे लेटेे ही घुड़क कर पूछा कौन मर गया बे? मेरी इस आवाज़ पर बाहर से जो आवाज़ आई उसने मेरे नशे को जैसे छू मंतर कर दिया मगर मैं उठा तब भी नहीं, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरा सामना उस लड़की से हो जिसे अब मैं देखना ही नहीं चाहता मगर उस लड़की ने भी जैसे आज कसम खा ली थी कि वो मुझे अपनी शक्ल दिखा कर ही जाएगी।

मन ही मन हज़ारो गालियाॅ देते हुए मैं उठा और जा कर दरवाज़ा खोला। बाहर विभा खड़ी थी। उसका चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था और वो बहुत अजीब भी लग रही थी इस वक़्त। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला तो उसने आगे बढ़ कर मेरे गाल पर इतनी ज़ोर से थप्पड़ मारा कि मैं दरवाज़े के दाऍ पल्ले से जा टकराया। मैंने फ़ौरन ही अगर दरवाज़े के पल्लों को पकड़ न लिया होता तो निश्चय ही मैं लड़खड़ा कर ज़मीन पर गिर जाता। मेरा सारा नशा उसके दमदार थप्पड़ से हिरन हो चुका था किन्तु अगले ही पल मैं इस बात से आग बबूला हो गया कि दो कौड़ी की औकात रखने वाली एक लड़की ने मुझ पर हॉथ उठाया? मैने आग उगलती ऑखों से उसकी तरफ देखा ही था कि...

"क्या समझते हो तुम अपने आपको??" उसने शेरनी की तरह दहाड़ते हुए गुस्से में कहा_____"तुम्हारे लिए किसी की कोई अहमियत है कि नहीं, या फिर तुमने सोच ही लिया है कि तुम्हारे लिए सब मर गए हैं?"

"क्या यही बकवास करने आयी हो यहॉ?" मैंने उसे खा जाने वाली नज़रों से देखते हुए कहा_____"और तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझ पर हाॅथ उठाने की?"
"मेरा बस चले तो मैं तुम्हारा खून भी कर दूॅ।" उसने पूरी शक्ति से चीखते हुए कहा_____"तुम्हारे लिए जो थोड़ी बहुत इज्ज़त रह गयी थी मेरे दिल में उसे भी आज तुमने ख़त्म कर दी है।"

"तो आयी ही क्यों हो यहॉ?" मैंने लापरवाही से कहा____"जाओ यहाँ से। मुझे भी तुम्हारी शक्ल देखने का कोई शौक नहीं है।"
"मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतना नीचे तक गिर जाओगे।" उसकी आवाज़ भर्रा गई और फिर वो एकदम से सुबकने लगी। रोते हुए ही बोली_____"कितनी बार तुम्हें सन्देशा भेजा कि पिता जी की तबियत ख़राब है मगर तुम इतने कठोर हो कि एक बार भी उन्हें देखने घर नहीं आए।"

"मेरी मर्ज़ी।" मैंने अपने हाॅथ झटकते हुए कहा_____"मैं आऊॅ या ना आऊॅ मेरी मर्ज़ी है। ना ही मेरा कोई है और ना ही मेरा किसी से कोई रिश्ता है। अब इससे पहले कि मैं गुस्से से अपना आपा खो दूॅ चली जाओ यहॉ से।"
"हॉ चली जाऊॅगी।" उसने अपनी रुलाई को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए कहा____"मैं तो बस ये कहने आई थी कि अगर तुम्हारे दिल में ज़रा सा भी अपने पिता जी के लिए प्रेम बचा है तो जा कर अपने पिता की चिता को आग दे दो। कम से कम उनकी आत्मा को तो शान्ति पहुॅचा दो।"

विभा इतना कहने के बाद फूट फूट कर रोंने लगी थी। इस बार वो अपने आपको सम्हाॅल नहीं पाई थी। पहले तो मुझे समझ न आया मगर जब मेरे कुंद पड़े ज़हन में उसकी बातें घुस गई तो सहसा मेरे मनो मस्तिष्क में जैसे कोई बम्ब फूट गया। बड़ी तेज़ी से मेरे मन में सवाल उभरा____'क्या कह रही है ये?'

"ये क्या कह रही हो तुम?" उससे पूॅछते हुए मेरी आवाज़ लड़खड़ा गई।
"अपने पिता जी को अपने कंधों पर शमशान ले जाओ।" विभा रोते हुए जैसे चीख ही पड़ी____"और उनका अंतिम संस्कार कर दो। क्या इतना भी नहीं कर सकते उनके लिए?"

इतना कह कर वो रोते हुए पलटी और फिर लगभग दौड़ते हुए वहॉ से चली गई। इधर मैं उसकी बातें सुन कर जैसे सन्नाटे में आ गया था। मेरे मुख से कोई अल्फाज़ नहीं निकला, बस होंठ काँपते रह गए। दिलो दिमाग में भयंकर तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। अचानक से मेरी आँखों के सामने मेरे पिता जी का चेहरा घूमने लगा। एक एक कर के उनके साथ बिताया हुआ हर लम्हॉ मेरी आँखों के सामने जैसे फ़्लैश होने लगा। कुछ ही पलों में मेरा सिर मुझे अंतरिक्ष में घूमता हुआ महसूस हुआ...और फिर मैं एकदम से हलक फाड़ कर चिल्लाया।

शराब का बचा कुचा नशा वैसे ही गायब हो चुका था जैसे इलेक्ट्रिक बल्ब के जल जाने पर घना अँधेरा ग़ायब हो जाता है। मेरी हालत एकदम से पागलों जैसी हो गई। मैं जिस हालत में था उसी हालत में घर की तरफ दौड़ पड़ा। रास्ते में कहीं भी नहीं रुका। मेरा दिल कर रहा था कि मैं जल्दी से पिता जी के पास पहुंच जाऊॅ। वैसे देखा जाए तो ये बड़ी अजीब बात थी कि आज तक मेरे दिल में उनके लिए गुस्सा और नफ़रत ही भरी हुई थी और मैं जैसे ये कसम खाये बैठा था कि भूखा मर जाऊंगा मगर उस घर में नहीं जाऊंगा और ना ही अपने घर वालों के सामने झुकूॅगा। तो सवाल था कि अब ऐसा क्योँ?? आख़िर अब मैं क्यों जा रहा था और पलक झपकते ही क्यों झुकने को तैयार हो गया था? मेरे पिता ने तो मुझे नहीं बुलाया था, फिर क्यों मैं उनके बारे में ऐसी ख़बर सुन कर घर की तरफ दौड़ पड़ा था? आख़िर क्यों इस ख़बर से मैं अपने पिता के लिए तड़प उठा था?? मेरे पास इन सवालों के जवाब नहीं थे या फिर मैं अब भी इन सवालों के जवाब किसी को देना ही नहीं चाहता था।

घर पहुंचा तो देखा फ़िज़ा में लोगों का करुण क्रंदन गूँज रहा था। घर के बाहर ही धरा पर अर्थी रखी हुई थी। उस अर्थी में मेरे पिता जी कफ़न में लिपटे हुए पड़े थे। मेरी माँ उनके पास ही दहाड़ें मार मार कर रोए जा रही थी। उनके आस पास मौजूद कुछ औरतें भी रो रही थी और कुछ मेरी माँ को सम्हॉलने में लगी हुई थी। पिता जी के एक तरफ विभा भी उनसे लिपटी रोये जा रही थी। मेरे लिए ये मंज़र बहुत ही असहनीय था। मेरा दिल हाहाकार कर उठा। मेरा समूचा अस्तित्व बुरी तरह हिल गया। मेरा जी चाहा कि ये ज़मीन फट जाए और मुझ जैसा पापी उसमें अपना मुह छुपा कर समा जाए।

माॅ की नज़र मुझ पर पड़ी तो वो लड़खड़ाते हुए जल्दी से उठी और फिर गिरते भागते हुए मेरे पास आई। मुझे विज्जू कहते हुए मुझसे किसी बेल की तरह लिपट कर बुरी तरह रोने लगी। मेरा दिल मेरी आत्मा तक थर्रा गई। मैं अपने आपको चाह कर भी सम्हॉल नहीं पाया और माँ से लिपट कर रोने लगा। कुछ ही पलो में जैसे सब कुछ भूल गया मैं। अब मुझमे मैं नहीं रह गया था। मैं तो जैसे छोटे से बच्चे में तब्दील हो गया था जिसका सबसे प्यारा खिलौना उसका पिता उससे छिन गया था।

मुद्दत लगी इस सबसे उबरने में और फिर कुछ लोगों के सहयोग से मैं अपने पिता के जनाज़े को अपने कंधे पर रख कर शमशान की तरफ चल पड़ा। सारे रास्ते मैं आत्म ग्लानि में डूबा रहा और ये सोच सोच कर खुद को कोसता भी रहा कि मैं कितना बुरा हूॅ। मैने अपने पिता को उनके आख़िरी वक्त में अपनी शक्ल तक नहीं दिखाई। उनके दिल में क्या गुज़री होगी और आज तक क्या गुज़रती रही होगी। मैं अपने माता पिता की आँखों का तारा था। उन्होंने मुझे बड़े ही लाड प्यार से पाला था जिसका सिला आज मैंने इस तरह से उन्हें दिया था। क्या इस संसार में कोई मुझसे बड़ा गुनहगार और मुझसे बड़ा पापी होगा?? मैं तो सबकी नज़रों से पहले ही गिर चुका था किन्तु आज ख़ुद अपनी ही नज़रों से गिर गया था।

सारी क्रियाएँ करने के बाद जब मैंने पिता जी की चिता को आग लगाई तो जैसे उस चिता की आग के साथ मेरा वजूद भी जल उठा। मेरा ह्रदय हाहाकार कर उठा। मेरा जी चाहा कि मैं अपने पिता के जलते हुए जिस्म से लिपट जाऊॅ और उन्हीं के साथ मैं भी जल कर ख़ाक हो जाऊॅ। मेरे दिलो दिमाग में भी चिता की आग की तरह एक आग जलने लगी थी जो ये अहसास कराते हुए मुझे जलाये जा रही थी कि कितना बुरा हूॅ मैं। भगवान मुझ जैसी औलाद किसी भी बाप को न दे। आस पास मौजूद लोग धीरे धीरे कर के चले गए और मैं आत्म ग्लानि और पश्चाताप में जलता हुआ वहीं खड़ा रहा।

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विभा के जाने के बाद भी मैं काफी देर तक वहीं बुत बना खड़ा रह गया था। मुझमें अब इतनी हिम्मत नहीं थी कि उस घर में जाऊॅ और अपनी विधवा हो गई माँ को अपनी शक्ल दिखाऊॅ। मैं ये सोच कर काॅप उठता कि मुझे देख कर माँ कहीं ये न कह दे कि क्या मैं इसी दिन का इंतज़ार कर रहा था?? क्या मैं इसी इंतज़ार में था कि इस घर से मेरे पिता की अर्थी उठे और उसके बाद मैं इस घर की दहलीज़ पर अपने कदम रखूॅ? नहीं नहीं...मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकता। मैं इतना भी गिरा हुआ नहीं हूॅ कि अपने जन्मदाता के बारे में ऐसी सोच रखॅू। अपने ज़हन में उभरते इन ख़यालों से मैं तड़प उठा। बार बार मेरे ज़हन में ये ख़याल आता और मेरी अंतरात्मा तक को झकझोर देता।

आज तक आख़िर किस दुनिया में जी रहा था मैं और क्या सोच कर जी रहा था मैं? आख़िर ऐसा क्या अपराध किया था मेरे माता पिता ने जिसके लिए मैंने उन्हें इतना दुःख दिया था? दुनिया का कोई भी शख़्स मेरे माता पिता की तरफ ऊँगली करके ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने मेरे साथ कुछ बुरा किया था, जबकि आज मैं ये शर्त लगा कर कह सकता था कि दुनिया का हर प्राणी जीव सिर्फ मेरी तरफ ही ऊँगली करके ये कहेगा कि मैंने बेवजह ही अपने माता पिता को इतने दुःख दिए और शायद ये भी कि जो कुछ मैंने किया है उसके लिए कोई माफ़ी नहीं हो सकती।

अपराध तो मुझसे हुआ था और बहुत बड़ा अपराध किया था मैंने मगर अब अपना मुह छुपा कर कहीं और चले जाना शायद इससे भी बड़ा अपराध हो जाता। इस लिए भारी मन से मैं घर की तरफ चल पड़ा। मैं अपनी जन्म देने वाली माँ का सामना करने के लिए तैयार था। मैं हर उस चीज़ के लिए तैयार था जो माँ के द्वारा अब मुझे मिलने वाली थी।

क्या यही लिखा था मेरे प्रारब्ध में?? एक वक़्त था कि मैं अपने माता पिता के सामने जाना गवारा नहीं करता था, भले ही चाहे मैं भूखा ही क्यों ना मर जाऊॅ मगर आज ये वक़्त है कि मैं खुद अपने अहंकार को मिटटी में मिला कर अपने पिता को अंतिम विदाई देने आया था और इतना ही नहीं इस सबके बाद अब घर भी जा रहा था। क्या मैं अपने पिता जी की ऐसी ख़बर से झुक गया था या फिर मुझे अहसास हो गया था कि मैंने अब तक जो कुछ भी किया है वो निहायत ही ग़लत था।

घर पहुंचा तो हर तरफ छाई ख़ामोशी ने जैसे मेरा इस्तक़बाल किया। ये वही घर है जहाँ पर मैंने जन्म लिया था। ये वही घर है जहाँ पर मेरे माता पिता ने मुझे बड़े ही लाड प्यार से पाल पोश कर बड़ा किया था और हाँ ये वही घर है जिसकी दहलीज़ पर न आने की जैसे मैंने कसम खा ली थी। पॉच सालों बाद लौट कर घर आया था मगर सवाल है कि____'आख़िर किस कीमत पर??'

घर में भी मरघट जैसा ही सन्नाटा था जो कि ज़ाहिर सी बात है कि ऐसी सिचुएशन में होगा ही। मैं हिम्मत कर के माँ के पास गया। वो कमरे की चौखट पर चुप चाप बैठी हुई थी। जो चेहरा कभी चॉद की तरह चमकता था आज वही चेहरा खुद पर जैसे हज़ारो ग्रहण लगाए हुए था। उस निस्तेज हो चुके चेहरे को देख कर मेरा दिल तड़प कर रह गया। काश! मेरे बस में होता तो संसार की सारी खुशियॉ ला कर उस चेहरे को रौशन कर देता। मैने देखा मॉ की आँखें न जाने किस शून्य को अपलक घूरे जा रही थीं। विभा कहीं नज़र नहीं आई थी मुझे। शायद वो भी घर के किसी कोने में मॉ की तरह ही दुनिया जहान से बेख़बर बैठी होगी। खै़र, मैं आहिस्ता से माँ के पास जा कर उनके करीब ही बैठ गया।

"माॅ।" फिर मैंने उनका एक हॉथ थाम कर उन्हें धीरे से पुकारा।
"हॉ...अरे! आ गया तू?" माँ की जैसे तन्द्रा टूट गई थी_____"मिल आया अपने पिता से? उन्होंने तुझे कुछ कहा तो नहीं न?"
"मुझे कभी माफ़ मत करना माॅ।" मैंने बुरी तरह से तड़प कर माँ से कहा____"मैंने जो कुछ किया है उसके लिए माफ़ी नहीं हो सकती।"

"तू पागल है क्या रे?" माँ ने अजीब भाव से कहा____"किस माफ़ी की बात कर रहा है तू? तेरे पिता जी मुझसे कह कर गए हैं कि मैं उनके बेटे पर किसी भी बात के लिए गुस्सा नहीं करुगी। वो कहते थे कि एक दिन वो ज़रूर वापस आएगा। देख तू आ गया न? उन्हें तो पूरा विश्वास था कि तू वापस आएगा मगर बेटे....क्या इस कीमत पर???"

"बस कर माॅ।" मैं बुरी तरह रोते हुए माँ से लिपट गया। उनकी पागलों जैसी हालत देख कर मेरा कलेजा जैसे छलनी छलनी हुआ जा रहा था। मेरा जी चाहा कि मैं उन्हें ठीक उसी तरह अपने कलेजे से छुपका लॅू जैसे एक ममतामयी माँ अपने छोटे से बच्चे को छुपका लेती है। मैं माँ से लिपट कर रोये जा रहा था और वो मेरे सिर पर स्नेह और प्यार के साथ अपने कोमल हाथ फेरने लगी थी।

कहते हैं कि वक़्त हर ज़ख़्म भर देता है और इंसान की फ़ितरत भी ऐसी होती है कि वो धीरे धीरे बड़ी से बड़ी बात भी भुला देता है या फिर ये कहें कि उसे भुलाना ही पड़ता है। पिता जी ने स्वर्ग में अपना आशियाना बना लिया था और मैने एक नई शुरुआत करते हुए अपने परिवार को सम्हॉल लिया था। मैं एक अच्छा इंसान तथा एक अच्छा बेटा बनने की कोशिश में लग गया था। मॉ ने मुझसे शादी के लिए कहा तो मैने इंकार नहीं किया। एक अच्छे व शुभ मुहूर्त पर विभा से मैने विवाह कर लिया। विभा मुझे इस रूप में देख कर खुश थी और मैने भी प्रण कर लिया था कि उस मासूम को मैं हर वो खुशी दूॅगा जिसके लिए अब तक वो तरसती रही थी। मेरे दिल में उसके लिए मोहब्बत ने जन्म ले लिया था।

एक दिन घर में वकील साहब आए। उन्होंने मुझे एक लिफाफा दिया और फिर वो ये कह कर चले गए कि परसों मैं उनके घर आ कर उनसे मिलूॅ। उनके जाने के बाद मैने उस लिफाफे को खोल कर देखा। लिफाफे के अंदर तह किया हुआ एक कागज़ था। मैने उसे खोल कर देखा। वो खुद के हाथों से लिखा गया कोई ख़त था। मैने उस ख़त को पढ़ना शुरू किया।

मेरे जिगर के टुकड़े विजय,
हो सकता है कि जब तुम्हें मेरा ये ख़त मिले तब मैं इस दुनिया में न रहूॅ मगर यकीन मानो मैं जहॉ भी रहूॅगा मेरा प्यार और आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा। मैं तुमसे ये नहीं पूछूॅगा कि तुमने अपने इस घर को क्यों त्याग दिया था, क्योंकि मैं जानता हूॅ कि हर इंसान के जीवन में बहुत से उतार चढ़ाव आते हैं। ख़ैर, एक अच्छा इंसान वो होता है जो किसी भी परिस्थिति में अपना धैर्य और अपनी अच्छाईयों को नहीं छोंड़ता। मुझे तुम पर पूरा भरोसा है बेटे कि तुम वापस आओगे और मेरे बाद जो सिर्फ तुम पर ही आश्रित होंगे उनका तुम ख़याल रखोगे।
बड़ी आरज़ू थी कि इस संसार से जब भी जाऊॅ तो अपनी ऑखों में अपने जिगर के टुकड़े की सूरत बसा कर जाऊॅ किन्तु शायद ईश्वर को ये मंजूर ही नहीं है। ख़ैर, मैने तुम्हारे लिए बैंक में कुछ पैसे जमा कर रखे थे जो तुम्हें वकील की मेहरबानी से मिल जाऍगे। उन पैसों से तुम कोई अच्छा सा कारोबार कर लेना।
अंत में बस इतना ही कहूॅगा बेटे कि अपनी मॉ का ख़याल रखना और विभा से शादी करके उसे ढेर सारी खुशियॉ देना। उसका इस दुनिया में कोई नहीं है। वो तुम्हें बहुत चाहती है इस लिए उसकी चाहत और उसकी उम्मीदों का मान रखना। मेरा प्यार व शुभकामनाऍ सदा तुम्हारे साथ रहेंगी।

तुम्हारा पिता
**********


ख़त पढ़ते वक्त मुझे ऐसा लग रहा था जैसे पिता जी मेरे पास ही आ गए थे। ख़त में लिखा एक एक शब्द मेरी आत्मा की गहराईयों तक उतरता चला गया था। एक बार फिर से मैं आत्म ग्लानि व पश्चाताप से जल उठा। ऑखों से ऑसू छलक पड़े। ऊपर की तरफ चेहरा करके मैं ईश्वर से गुहार लगाने लगा कि वो मेरे पिता जी को वापस कर दें, ताकि मैं उनके चरणों मे अपना सिर रख कर उनसे अपने गुनाहों की माफ़ी मॉग सकूॅ।

गुज़रते वक्त के साथ भले ही सब कुछ सामान्य होने लगा था किन्तु मेरे अंदर से ये बात कभी नहीं गई कि मैने क्या किया था। सच तो ये था कि मैं अपने आपको कभी माफ़ ही नहीं कर सकता था। जब भी मैं अकेला होता तो मॉ के द्वारा कही गई एक बात अक्सर ही मुझे सोचों के अथाह सागर में डुबा देती_____'वो कहते थे कि एक दिन वो ज़रूर वापस आएगा। देख तू आ गया न? उन्हे तो पूरा विश्वास था कि तू वापस आएगा मगर बेटे.....क्या इस कीमत पर????'



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kahani - - kahani ek aise ladke ki jo waqt ke sath sath galat sangat ke chalte bigadta chala gaya, yahan tak ki ghar chhod ke chala gaya... na Tamil, na hi kiske liye samman...uske liye to bas uske wo dost hi behtar the na ki uske maa baap . lekin waqt ne aisi karwat badli ki usko wapas ghar lautna pada...uske pita ji ki maut ne ushe ehsaas dilwa diya ki usne kya kiya ab tak...uske baad ek achha aur jimmedar insaan banne ki raah pe chal para... lekin is wapas lautne ki Kimat bahot badi chukani padi usko.. apne pita ko khoke...

aate hai sameeksha par - - kahani mein kuch mudde jis tarike writer sahab ne ullekh ki hai wo sach mein ek karvi sachhai ke sath sath ek sikh bhi de jaati hai.... Kaise galat sangat mein padkar log kaise bigad jaate hai.... jaise is kahani ka nayak vijay... waise past mein usne jo kiya, shayad nayak kehlane ki layak nahi ..
usne kabhi apno ka ahmiyat nahi samjha... uske liye bas wo dost achhe the jo ushe galat raah pe chalne ke liye ukshate the....
Ek Ladki jisne dil o jaan se vijay ko chaahti thi ushi par gandi nazar se dekhta wo...
ek kabhi thik na hone wali bimari ke chalte uske pita ji har pal maut ki aurr jaa rahe the lekin apne jidd aur ahankar ke chalte ek baar bhi apne pita ji ko dekhne nahi aaya.. khayal rakhna to dur ki baat hai...
wo to apni maa ko bhi milne nahi aaya... jo sabse anmol hai...
lekin jab ushe pachtawa hua, jab wo wapas lauta ghar ek aisi bhaari kimat dekar .. jo ajivan ushe dard deta rahega, ushe kosta rahega chaahe jitna bahari roop se khush ho le, lekin andar hi andar is dard ajivan ushe sahna hi hoga....

pasandida kirdaar aur kyun?

vibha.....
Kyunki maafi maangna badi baat hai, lekin usse bhi badi baat maaf kar dena.... vibha ne itna kuch sehne ki baad ant mein vijay ko maaf kiya..vijay ne itna kuch kaha aur karne ki koshish ki uske sath, phir bhi maaf kar diya ushe... sach mein saraahane yogya hai....

kya kirdaar aapko vastavik lage?

Haan bilkul.... kyunki galat sangat mein padkar jaane kitne log kaise bigad jaate hai... jiske chalte maata pita ko kya kya dukh jhenle padta hai, khaskar Sharab pike kaise ghar aake jhagda karte hai ye samaj ke kayi jagaho pe aapko dekhne ko mil jayenge ...

kahani padhke koi anuman ya koi sandesh chupi hai kahani mein..?

Haan bilkul... waise kayi anuman hai ya kayi sandesh hai is kahani pe... lekin khas do sandesh to yahi hai ki apno ko ahmiyat dijiye aur apne mata pita ki baatein suniye aur maaniye aur jitna ho sake galat log ki sangat se dur rahiye... aur ek aham baat yeh ki samay rehte apne bachho ko sambhaal lena chahiye.... kyunki ye jag jahir hai ki zyada lad pyar sabko bigad deta hai even bachho ko bhi...kyunki unka mann Kora kagaz hota hai...rok tok pehle hi nahi kiye gaye to galat dosto ke sang pad bigad ne mein zyada waqt nahi lagta . . writer sahab ne kahani jariye in muddo ko hamare samaks rakhne ki chesta ki hai.. jisme wo kamyab rahe..


kahani ka sabse pasandida bhag aur kyun?

jab vijay sudhar gaya....jab apne kiye par pachtawa hua.. jab ghar aur apni maa aur vibha ki saari jimmedari utha liya usne...
aur uske pita ji ka wo khat.. usme kuch aisi baatein thi jo dil ko chu jaaye...

Kuch vishesh prakar ke drishya likhe gaye the... udaharan ke liye koi dukhad ya tanavpurn drishya?

sukh dukh to jivan ki tarah kahani mein sabse important do pehlu hote hai...
well sabse dukhad drisya jab vijay ke pita ji ka dehant hua aur sabse tanavpurn drishya jab wo ghar chhod ke chala gaya aur ek palat kar bhi nahi dekha 5 saal tak..

Kya kahani ne ant tak jure rahne ke liye majboor kiya...?

Ji shat pratishat.... naye readers se yahi request se yehin request hai ki ek baar jarur padhe kahani ko... kaafi dilchasp ke sath sath kuch sikh bhi de jaaye ye kahani... aur ek baar agar kahani padhe to ant tak padh kar hi dum lenge... kyunki kahani mein hai hi itne interesting points...

Kahani ko leke kuch mann ki baatein - - kahani ki har baat, har pehlu aur mod perfect the.... is mein koi do ray nahi....

ant mein kuch shadb writer sahab ke liye - - Kahani mein kayi mod aaye joh kahani ko dilchaspi banaye rakhi ... ek achhe writer ke gun, lakshan yeh ki kahani ki jariye, kahani ke kirdaaro ke jariye kahani ke naam ko sarthak kar de.... jisme aap pure tarike se kamyab rahe...
Har ek pehlu ko aapne dhyan dete huye kahani ko aage badha rahe the ..
jindagi ki karvi sachhai ko realize kar dene wale drisya , dard , ek sikh ke sath sath heavy emotions ka bhi anokhi sangam hai kahani mein ... ... kahani ki ghatana karm aise ki aankho ke samne hi ghat rahi ho... aur kirdaar... jo kahani mein jahan bhi jarurat padi wahan apni bhumika sathik roop se nibha rahe the kahani ki har ek pehlu mein....

yeh bhi ek sach hai ki aapki is kahani mein har ek kirdaar ki mahattva purn hai.. I mean to say ek kirdaar bhi hata diya jaye toh kahani adhuri hai...aur aap har Kirdaar ke sath justify karte hai...
Baaki aapki yeh kahani ab meri favorites kahaniyo mein se ek ho gayi hai....
aise hi aage bhi likhte rahiye aur humari manoranjan karte rahiye

Brilliant update with awesome writing skills TheBlackBlood ji :applause: :applause:
 
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:hello1: Dᴏsᴛᴏ.. :wave2:

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वापसी की कीमत
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यूॅ तो हर प्राणी को एक दिन अपना सब कुछ छोड़ कर इस संसार सागर से जाना ही होता है मगर इस कड़वे सच को जानने समझने के बावजूद हम कभी अपनों के जाने के लिए तो कभी खुद के नुकसान के लिए दुखी हो जाते हैं
Yahi toh maya hai...sab jaante hai ki ye duniya nashwar hai par maanta koe nahin hai. Sab log esse bartaav karte hai ki maano wo amar hai. Aur isse puree sansar ka kendra bindu wahi hai.
Par jab waqt mai piche dekhege tab pata chalta hai ki ye duniya tab bhi thi jab mai nahin tha...ye duniya tab bhi hai jab mai hu...aur ye duniya tab bhi hogi jab mai nahin rahunga.
 

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