Fantasy अंतरा काकी (लघु कथा)

Active member
888
1,279
123
“अरे कहाँ जा रहा है --- ये तो पीता जा!”

पीछे से मम्मी की आवाज़ आई; बहुत ज़ोर से बोली थी --- बोले भी क्यों न --- मैं तो अब तक घर के मेन दरवाज़े से बाहर निकल चुका था...

“बाद में पी लूँगा.. अभी जा रहा हूँ --- लेट हो जाएगा.”

मैं भी ऊँची आवाज़ में बोल कर तेज़ क़दमों से चलते हुए बाहर सड़क तक आ पहुँचा.

अभी कुछ ही दूर गया था कि रास्ते में अंतरा काकी मिल गई.

देखा, माथे और गले में पसीना लिए इधर उधर बेसब्री से देख रही है. उनके पैरों के पास ही एक बड़ा थैला है जिसे देख कर ही साफ समझा जा सकता है की इसमें काफ़ी सामान भरा हुआ है. समझते देर नहीं लगी की थैला निश्चित ही काकी से उठाए नहीं उठ रहा है और इसलिए इसे रास्ते के किनारे रख कर किसी रिक्शा या ऑटो का इंतज़ार कर रही है.

पर इस तपती गर्मी में तुरंत कोई सवारी गाड़ी मिलेगी; ऐसी कोई सम्भावना तो नहीं दिखी मुझे.

अपने मंजिल पर आगे निकल जाने वाला था कि अचानक से मन में एक विचार जागा. गलत का पता नहीं लेकिन मुझे बहुत सही लगा. काकी की ओर देखा... हैरान परेशान सी वो इधर उधर सड़क के दोनों छोर को देखे जा रही है.

मन ही मन सोचा,

‘हम्म.. मदद तो चाहिए इन्हें.. साथ में अपना भी अगर कुछ हो जाए. हाहाहा’

तुरंत ही एक छोटा सा प्लान बनाया और पहुँच गया काकी के पास.

अंतरा काकी की आयु मुश्किल से 45-46 वर्ष होगी... या शायद उससे एक दो साल कम... पहले मैं उन्हें आंटी कह कर बुलाया करता था लेकिन जब से उनके बेटे सूरज की शादी हुई.. शादी हुई भी बहुत जल्दी थी... तब से मैं और मेरे ही दोस्त; जोकि मेरे ही मोहल्ले के निठल्ले लड़के हैं; सब मिल कर अंतरा आंटी को काकी कह कर बुलाने लगे थे.... क्योंकि हम लड़कों का मानना था की अगर इतनी जल्दी इस लौंडे की शादी इसलिए हो रही है तो इसका मतलब यही हुआ कि अब आंटी बूढी हो रही है. उम्र हो रही है... घर का काम काज नहीं सम्भाल पा रही; इसलिए बहु ला रही है. दूसरे लड़कों ने तो फिर भी कुछ समय बाद काकी कहना छोड़ कर आंटी कहना शुरू कर दिया पर मैं नहीं बदला. मेरी और सूरज की अच्छी जमती थी उसकी शादी से पहले तक. शादी हो जाने के बाद उसे काम काज में व्यस्त हो जाना पड़ा और हमारी दोस्ती भी पहले वाली नहीं रही.. लेकिन हमारे घरों में इसका कोई फर्क नहीं पड़ा. अंतरा आंटी के साथ मेरा बहुत पहले से एक ख़ास रिश्ता रहा है. आंटी के पास मैं आज भी कोई भी ज़रूरत होने पर पहुँच जाता हूँ.. और अगर कोई ज़रूरत न भी हो तो भी.. ऐसा क्यों.. ये आप सबको आगे पता चलेगा.

“क्या हुआ, काकी?”

काकी एकदम से अपनी बायीं ओर पलटी, मुझे देखी और देखते ही हँस दी,

“ओह तू है..! बदमाश... क्या कर रहा है इतनी धूप में यहाँ?”

“कुछ खास नहीं काकी, कुछ प्रिंटआउट्स निकलवाने हैं इसलिए कैफ़े जा रहा था. आप यहाँ? क्या हुआ?”

“अरे देख न बेटा, मार्किट गई थी.. सोची थी सामान कम होगा, लेकिन इतना भारी हो गया की अब मेरे से उठाए नहीं उठ रहा है... और कोई सवारी गाड़ी भी नहीं मिल रही है. कैसे जाऊँगी?”

चेहरे से स्पष्ट था कि काकी वाकई परेशान हो रही है. इस तपती धूप में उनसे खड़ा रह पाना सम्भव नहीं हो रहा. काकी से क्या, इस गर्मी में किसी से भी सम्भव नहीं है ऐसे बाहर खड़ा रहना.
अधिक कुछ न सोचते हुए मैंने झट से थैला पकड़ा और उठा कर देखा.. भारी तो है पर हो जाएगा मेरे से. तो फिर क्यों न मैं ही इसे इनके घर तक पहुँचा आऊँ? थोड़ी देर बैठ भी लूँगा और....... हाहा!

मैंने थैले को उठा व घूमा कर अपने पीठ पर ले लिया और हँसते हुए बोला,

“अरे काकी... टेंशन नॉट. मैं हूँ न! चलो घर चलें.”

मुझे थैला उठा कर पीठ पर लेते हुए देख कर काकी हैरान होते हुए मुझे रोकने लगी..

“अरेरेरे... बेटा... ये क्या कर रहे हो... रखो इसे.”

“ओहो काकी... चलो न.. कुछ नहीं होगा.”

“नहीं राजू.. ऐसे नहीं करो.. तुम चोट लग जाएगा. ऑटो मिल जाएगी..”

“ऑटो अगर एक घंटे तक मिली तो क्या आप यहीं रुकी रहोगी.. एक घंटे तक?!”

मैं आँखों को हैरानी से बड़ा बड़ा करते हुए बोला... दरअसल ये दिखावे के अलावा कुछ नहीं था.

“एक घंटा नहीं लगे........”

काकी आगे क्या बोलने वाली है ये सुने बगैर ही मैं चलने लगा.. मुझे क्या पड़ी है कुछ सुनने की; मन में जो ठान लिया उसे तो अब मैं करूँगा ही. बहुत दिनों बाद काकी के साथ कुछ समय बिताने का अवसर जो प्राप्त हुआ उसे ऐसे ही कैसे जाने दिया जाए.

अपनी बात कहते कहते काकी मुझे दस कदम आगे बढ़ जाते देख तुरंत ही मेरे पीछे हो ली.

मैं तो तरोताजा था... कुछ मिनट पहले ही घर से निकला हूँ.. नहा धोकर, नाश्ता वगैरह कर के.. इसलिए तेज़ क़दमों से मुझे चलने में कोई परेशानी नहीं हुई पर काकी जोकि न जाने कितने बजे मार्केट गई थी और अभी मेरे सामने ही उनको सड़क किनारे खड़े खड़े करीब बीस मिनट से ऊपर हो गए थे; बेचारी मेरे क़दमों से अपने कदम न मिला पाने के कारण पीछे ही रह गई.

अगले दस मिनट में हम दोनों ही काकी के ताला लगे दरवाज़े के सामने खड़े थे.

“अरे काकी, घर में कोई नहीं है क्या?”

हांफते हुए अंतरा काकी बोली,

“नहीं बेटा.... सब तो...”

“कहाँ गए सब?”

“सूरज तो काम पर गया है, उसके पापा गाँव चले गए पिछले हफ्ते ही और बहु को कोई काम है इसलिए मार्किट के पास ही कहीं गई है.. आने में देर होगी उसे.”

‘आने में देर होगी उसे’ इस वाक्य को बोलते समय इस पर काकी ने कुछ विशेष जोर दिया.. पहले तो मैं समझा नहीं पर जैसे चंद सेकंड्स बाद समझ में आया मेरी तो बांछे ही खिल गयीं.

काकी अपने हैण्डबैग से चाबी निकाल कर ताले में जैसे ही डाली; मैंने थैले को बायीं कंधे पर रखते हुए एक साँस ली और अब फ्री हो चुके दाएँ हाथ को काकी के पिछवाड़े के बायीं ढोलकी पर रख दिया.. काकी की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.. ये देख कर मैं आनंदित होता हुआ उनके पिछवाड़े के उस बाएं हिस्से को प्यार से दबा दबा कर सहलाने लगा.

काकी धीरे से बोली,

“बदमाश.. ये क्या कर रहा है? कोई देख लेगा तो?”

“कोई नहीं देखेगा काकी.”

“इस तरह बाहर खुले में.......”

“तो जल्दी दरवाज़ा खोलो न काकी.”

जल्दी से ताला खोल कर काकी दरवाज़ा खोलते हुए अंदर घुसी... मैं भी तुरंत घुस गया.

अंदर एक छोटा गली जैसा है.. अँधेरा.. पाँच कदम आगे एक कमरा है जिसकी खिड़की से आती थोड़ी बहुत रौशनी उस गलियारी को भी रोशन कर रही है.

उसी कमरे में जा कर काकी ने बत्ती जलाई, पंखा ऑन किया और धप्प से दो में एक सोफा चेयर में बैठ गई. ठंडी हवा लगते ही उनकी आँखें बंद हो आईं. हांफना कुछ कम हुआ उनका.

मैं थोड़ी देर तक हाथों में थैले को लिए काकी के बदन के ढाँचे को देखता रहा.. क्या मस्त भरी पूरी महिला है.. मोटी नहीं.. फिट है. सही स्थानों में सही मात्रा में चर्बी भरी हुई है. एक जगह हाथ लगाओ, तो दूसरा हाथ अपने आप दूसरी जगह पहुँच जाएगा.

पसीने की बूँदें काकी के कान के बगल से होते हुए गले के रास्ते से होते हुए ब्लाउज के अंदर चली जा रही हैं. ये सीन इतना मस्त लगा मुझे मन तो किया अभी के अभी इनकी चूचियाँ को दबोच कर मसलते हुए अपना लौदा इनके मुँह में दे दूँ..

पर मन ने तुरंत ही किसी तरह की जल्दबाज़ी करने से मना किया. अंदर से सलाह मिली, पहले धीरे धीरे कुछ मज़े तो कर ले बेटा.. फिर जो जी में आए करना..

थैले को कंधे पर लटकाए ही आगे बढ़ा और उनके आंचल को अंगूठे और तर्जनी अँगुली से पकड़ कर आहिस्ते से थोड़ा साइड किया. ऐसा करते ही ब्लाउज कप में गज़ब का उभार लिए उनका दायाँ स्तन दिख गया, साथ ही उनका मनमोहक क्लीवेज भी जो उनके मंगलसूत्र के २०% हिस्से को अपने अंदर समाया हुआ है.

काकी की क्लीवेज तो बहुत ही मस्त है और हमेशा ही बहुत मस्त बनती है; इसमें कोई दो राय नहीं है...पर अभी जिस तरह से उनका मंगलसूत्र उनके क्लीवेज में घुसा हुआ है; इससे ब्लाउज में कैद पूरा हिस्सा ही काफ़ी मादक और अतिलोभनीय बन रहा है.

अब देखा... कि पसीने की बूँदें एक धार में बहती हुई मंगलसूत्र के एक हिस्से से होते हुए सीधे उस रसीले क्लीवेज की गहराईयों में समा रही है.

तुरंत ही अपने जेब से मोबाईल निकाला और ५-६ अलग अलग कोनो से बड़े अच्छे से पिक्स लिया और आहिस्ते से दोबारा अपने जेब के हवाले कर दिया.

अपने रिस्ट वाच पर ध्यान दिया; जहाँ जाने के लिए निकला था वहाँ जाने मुझे देर हो रही है; आलरेडी १५ मिनट लेट हो गया हूँ.. इसलिए जो करने का सोच कर इस भारी थैले को उठा कर काकी के घर तक आया हूँ; वो काम मुझे अब जल्द से जल्द करना होगा.

इसलिए गला खँखार तनिक ज़ोर से बोला,

“काकी, थैला कहाँ रखूँ?”

काकी चौंक कर आँखें खोलते हुए बोली,

“अरे राजू ये क्या.. तुम अभी तक थैला उठाए हुए हो? इधर रख दो.”

मैं मुस्कराता हुआ एक तरफ कोने में थैला रख दिया; साथ ही चेहरे पे ऐसा भाव रखा की जैसे पूरे बदन में थकान सी आ गई हो... फ़िर तुरंत ही मैंने काकी के सामने ही अपनी कलाई घड़ी पर नज़र दौड़ाई.

काकी को चिंता हुई.. उन्हें बुरा भी लगा की एक तो मैं उनका ये भारी सामान उठा कर इतनी दूर से घर तक ले आया; कितनी ही देर तक पकड़े खड़ा रहा और अब शायद जाने की सोच रहा हूँ --- और उन्होंने एक ग्लास पानी तक न पूछा.

तुरंत कुर्सी से उठते हुए बोली,

“रुको जरा..”

मेरे कुछ कह पाने के पहले ही वो कमरे से निकल गई. उनके जाने के बाद मैं सोचने लगा की आज कुछ फ़ायदा उठाया जाए या नहीं? काकी के साथ छेड़छाड़ तो बहुत पहले से करता आया हूँ, इधर उधर छूना, दाबना, चूमना इत्यादि तो कई बार और बहुत बार किया हूँ.. इसलिए आज कुछ अलग करने का मन कर रहा है. सोचते सोचते मैंने अंदर के कमरे में ध्यान दिया --- अंदर से कुछ धोने की आवाज़ सुनाई दी. मेरे पारखी कानों ने सुनाई दे रहे आवाज़ से ही धोये जा रहे बर्तनों को पहचान लिया ... एक ग्लास है, दूसरा है प्लेट.

'हम्म... तो काकी मेरे लिए कुछ ला रही है --- मिष्ठान्न होगा अवश्य ही --- पर काकी को इतना करने की क्या आवश्यकता है?! --- विशेष मिष्ठान्न तो हमेशा अपने साथ लिए ही घूमती है --- अपने तन की यौन तृष्णा की!'

मैं काकी के गदराए भरे बदन के हरेक कटाव के बारे में सोचता हुआ जोश में भरा जा रहा था कि अचानक से काकी उपस्थित हुई. उस समय मेरे चेहरे की रौनक देख कर थोड़ा हैरान तो हुई; परन्तु उनके मन ने तुरंत ताड़ लिया कि मेरा हरामी मन क्या सोच रहा है. उन्होंने नज़रअंदाज़ किया ज़रूर पर अपने होंठों के एक कोने में एक कुटिल मुस्कान को आने से रोक नहीं पाई.


सेंटर टेबल पर उन्होंने प्लेट और ग्लास रख कर सामने सोफे पर बैठ गई. जब प्लेट और ग्लास रख रही थी तब झुकने के कारण आँचल के नीचे से ब्लाउज कप में एकदम फिट नज़र आ रहे उनके टाइट स्तन और पीछे से साड़ी में कैद उनका पिछवाड़े की उभार और गोलाई देख कर मेरा मन ऐसा भटका की ये ध्यान ही नहीं रहा कि कब वो सामने सोफे पर बैठ कर मुझे गौर से देख रही है.

“क्या हुआ? किस सोच में डूबे हो? आओ, खा लो.”

बड़े प्यार से बोली अंतरा काकी. गहराई थी इस में. अपने सोच से निकल कर उन्हें देखा तो पाया की मंद मंद मुस्करा रही है. अंतिम के शब्द ‘आओ, खा लो.’ में एक अजीब कशिश थी... ऐसा लगा मानो वो प्लेट पर रखे मिष्ठान्न के बहाने अपने तन के बारे में बोल रही है कि ‘आओ और उसे ही खा जाओ.’

मुझे लगातार देखे जा रही थी काकी. मैं एक क्षण को ठिठका; फिर मुस्कराते हुए सोफ़े पर उनके बगल में जा कर बैठ गया..हालाँकि थोड़ी दूरी अब है हम दोनों के बीच. देखा, प्लेट में एक रसगुल्ला, एक गुलाब जामुन, दो काजू के बर्फी और थोड़े नमकीन रखा है. मैंने पहले ग्लास उठाया और आराम से गला भिगाया. अभी प्लेट की ओर हाथ बढ़ाया ही कि दिमाग में एक मस्त शैतानी आईडिया आया. काकी की ओर देख कर बोला,

“काकी, मैं इतना नहीं ले पाऊंगा.”

“क्यों बेटा, ज्यादा कहाँ है.. जरा सा ही है.”

मैं नहीं माना,

“नहीं काकी.. नहीं हो पायेगा.”

“बेटा, तुमने इतनी मेहनत की; मेरी सहायता की.. अगर तुम उस समय नहीं पहुँचते तो पता नहीं मैं कब तक घर पहुँच पाती. अब ऐसी हेल्प के लिए तो मुझे चाहिए कि मैं और भी कुछ दूँ; पर फ़िलहाल इतना ही कर सकती हूँ. प्लीज़ बेटा, अपनी काकी का मन रख लो. खा लो.”

इस बार उनके स्वर में अनुनय का पुट था... इसलिए मुझसे फ़िर से ‘ना’ नहीं कहा जा सका. पर इतना तो है कि अपना लक्ष्य पा कर ही रहूँगा. अतः मैंने दूसरा वाक्य बाण चलाया,

“ठीक है.. मैं अपनी इस प्यारी काकी की बात मान लूँगा पर मेरी एक छोटी सी शर्त है; वो ये कि आपको भी कम से कम एक मीठा तो खाना ही पड़ेगा..” ये कहते ही मैंने काकी की ओर से किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही तुरंत चम्मच उठा कर रसगुल्ला को बीच से काटा और उससे बहते रस समेत ही ले कर काकी की ओर सरक गया. मेरे इस त्वरित हरकत से काकी को कुछ भी कहने का समय नहीं मिल पाया और इसलिए होंठों पर एक हल्की मुस्कान और चेहरे पर संकोच का भाव लिए मुँह खोल दी.

मुँह खोलते ही मैंने रस से भरे रसगुल्ले के उस टुकड़े को ऐसे डाला जिससे की टुकड़ा तो अंदर जाए पर सारा रस होंठों से होते हुए नीचे गिरे; और ऐसा हुआ भी.. सारा रस उनकी ठोड़ी से होता हुआ सीने पर गिरा. चूँकि मैंने चम्मच तुरंत नहीं निकाला उनके मुँह से इसलिए वो मुँह पूरी तरह से बंद नहीं कर पाई जिससे कि उस टुकड़े पर ज़रा सा दबाव पड़ते ही और ज़्यादा रस निकल कर होंठों से होते हुए नीचे गिरने लगा. कुछ साड़ी पर गिरे तो कुछ उनकी चेन को भिगोते हुए उनके भरे स्तनों की सुंदर घाटी की गहराईयों में प्रवेश कर गए.

काकी ‘हुम्म’ कर के जल्दी से अपने चेहरे को ऊपर की ओर उठा ली ताकि रस को और गिरने से रोक पाए --- मैं इसी प्रतीक्षा में था --- लपक कर काकी से सट गया और अब उनके ठोड़ी से होकर गले से नीचे आते रस पे मुँह लगा दिया और हौले से चूमते हुए पूरे गर्दन को अपनी जीभ के अग्रभाग से हल्के से छू कर चाटने लगा. मेरे इस अप्रत्याशित हरकत से काकी हड़बड़ा गई और अपने बाएँ हाथ से मुझे रोकने की एक मीठी कोशिश करने लगी. काकी के बायीं ओर बैठने के कारण मुझे पूरी तरह उनपे झुकने में दिक्कत तो हो रहा था पर अपनी इन्हीं कोशिशों में अभी तक करीब 80% सफ़ल तो हो ही चुका था. मैंने उनके बाएँ हाथ को पकड़ कर उनके पीठ के पीछे कर दिया और दाएँ हाथ को मजबूती से अपनी गिरफ़्त में लिए रहा. काकी अब बुरी तरह फँस चुकी थी. मैं उनकी गर्दन को चाटते हुए अपने दूसरे हाथ से सीने पर उनकी साड़ी को हटाना चाहा --- हटी तो सही पर पूरी तरह नहीं क्योंकि काकी सेफ्टी पिन से साड़ी को अटका रखी थी. लेकिन मेरे लिए कोई दिक्कत खड़ी नहीं हुई क्योंकि सीने पर से साड़ी इतनी तो हट ही चुकी थी कि ब्लाउज में कैद उनकी दोनों चूचियाँ मेरे सामने प्रकट हो जाए!

गोरे चूचियों के मध्य एक हल्की काली रेखा ब्लाउज कप्स के ऊपर होती हुई गले के लगभग निचले हिस्से तक पहुँच रही थी. सोने का वो पतला चेन (शायद नकली) उस स्तन रेखा में कुछ इस तरह प्रविष्ट हुआ था कि न सिर्फ़ अपनी बल्कि ब्लाउज कप्स से निकले हुए स्तनों के हिस्सों का भी शोभा बढ़ा रही थी.

गर्दन को चूमते-चाटते हुए काकी के कान में अपने होंठों को लगाते हुए धीरे से कहा, “पैरों को टेबल पर रखो.” काकी ने ऐसा ही किया... बिना किसी प्रतिरोध के उन्होंने अपने दोनों पैर सेंटर टेबल के ऊपर रख दिया! मैं उनकी ओर देखा; काकी ने आँखें बंद की हुई हैं और उनका सिर सोफ़े के बैकरेस्ट रखा है.. खुद को एकदम निढाल, ढीला छोड़ दी है --- मेरे भरोसे! चेहरे के भाव और ऊपर नीचे होता उनके सीने की गति ने स्पष्ट कर दिया कि वो भी उत्तेजित हो रही है जोकि मेरे लिए प्लस पॉइंट ही है. अचानक से गौर किया कि सोफ़े से लग कर रखे एक छोटे टेबल पर एक टेबल फैन रखा हुआ है जो अच्छी ही स्पीड से चल रहा है --- सीलिंग फैन तो है ही फुल स्पीड में. इसका एक फ़ायदा तो ये हो रहा है कि काकी की साड़ी को फैन से आती तेज़ हवा भी उनके वक्ष पर टिकने नहीं दे रही है --- पर एक नुकसान भी है! तेज़ हवा से रस सूख सकता है --- रस कहीं सूख न जाए पूरी तरह से इसलिए अब बिना देर किए काकी पर लपक पड़ा और अब सिर्फ़ गर्दन ही बल्कि होंठों पर भी चुम्बन लेते हुए रस पीने लगा. आह! कितना मीठा..कितना स्वादिष्ट है ये! होंठों पर होंठ लगा कर जैसे ही मैंने उसे चूमते हुए चूसा तो पहली ही चुसाई में मुझे एक अद्भुत मीठास लगा. ऐसा मीठा स्वाद आज से पहले मुझे कभी नहीं मिला था. संभवतः ये स्वाद केवल रसगुल्ले के रस की ही नहीं; काकी के होंठों के रस का भी है!

मेरा दायाँ हाथ जो अब तक अंतरा काकी के बाएँ हाथ को मोड़ कर पकड़े हुए था; उसे छोड़ दिया और अब अपने उस हाथ को काकी के सिर के पीछे से लाकर उनके गाल को सहलाने लगा और दूसरे से उनकी स्तनों को हल्के दबाव से दबाने लगा... मैं दबाने भी ऐसे लगा जिससे की हरेक दबाव से उनकी स्तनरेखा और अधिक लंबी और गहरी हो जाए. मुझे ऐसी हरकत करने और इससे होने वाले परिणाम को देखने में हमेशा से ही एक परम आनंद मिलता रहा है.

मैं अब काकी के पैरों को सहलाते हुए हाथ को हल्के दबाव से ऊपर उठाने लगा .... इससे उनकी साड़ी भी साथ में ऊपर उठने लगी... उठते-उठते जांघ तक आ गई... मैं अब भी उनके गालों और होंठों को चूम और काट रहा था.. मन तो बहुत कर रहा था कि अब ब्लाउज कप्स से ऊपर निकले उनके भरे स्तनों के ऊपरी अंशों को सहलाऊँ, चूमूँ और काटूँ... उनके स्तनरेखा में अपना मुँह डाल कर उसकी नरमाहट का सुखद अहसास लूँ.. पर रह रह कर एक संदेह बार बार उठ रहा था कि कहीं उनके चेहरे को छोड़ कर जैसे ही मैं उनके शरीर के दूसरे अंगों पर ध्यान देने जाऊं; वैसे ही उनकी उत्तेजना समाप्त हो जाए.. और मुझे आगे बढ़ने ही न दे.

संवेदनशील अंगों के साथ छेड़छाड़ बढ़ते ही काकी मस्त हो उठी और मेरे सिर को बालों सहित कस कर पकड़ कर अपने उभारों पर दबाने लगी... नरमी, गर्मी और महक; तीनों से मेरा मन - प्राण सराबोर हो गया. हाथ अब भी उनकी नर्म मांसल जाँघों पर फ़िसल रहा था.

काकी की बदन की नरमाहट ने मुझे मदहोशी की गहराईयों में डाल दिया था --- इतना की मैं अब स्तनरेखा तक सीमित नहीं रहना चाहा --- मन ने स्वयं ही ये दृढ़ संकल्प कर लिया कि आज राजू को; यानि मुझे काकी के इस भरे बदन का रस भोगना ही भोगना है. काकी की ओर देखा. उनकी आँखें बंद और चेहरे से वासना टपक रही है. होंठों की कंपकंपाहट साफ़ बता रही है कि अभी जो कुछ भी हो रहा है --- उन्हें इससे भी अधिक चाहिए. जो अल्प प्रतिरोध शुरू में देखा गया था; उसकी जगह अब उनका रोम रोम हर्ष और आनंद से पुलकित हो रहा है. मैंने उनकी इस स्थिति का पूरा लाभ उठाने का सोच लिया --- ऐसी परिस्थिति रोज़ रोज़ नहीं आती; और अभी जो हो रहा है उसका साफ़ मतलब ये है कि “लोहा गरम है... हथौड़ा मार दो”.

दिमाग में ये विचार आते ही तुरंत सम्भल कर बैठा और बड़े आहिस्ते से ब्लाउज के हुक खोलने लगा. जैसे जैसे मैं एक एक कर के हुक खोलता गया; वैसे वैसे काकी की डीप क्लीवेज धीरे धीरे मेरी उत्सुक आँखों और लालची मन के आगे दृश्यमान होता गया. कुछ देर तक जी भर कर देखने के बाद अब ब्रा में कैद काकी के उन नर्म, मुलायम, गुदाज़ गोलाईयों पर झपट पड़ा --- पागलों की तरह चूमना और दबाना शुरू कर दिया. ज्यादा समय नहीं लगा मुझे काकी के सुंदर अनमोल रत्नों को उस लाल झीनी अन्तः वस्त्र के कैद से उन्मुक्त करने में.


दोनों के बाहर आते ही उन्हें अपने हाथों में लपकने में देर नहीं किया --- आखिर कब सिर्फ़ ऊपर से ही थोड़ा थोड़ा कर के मज़े लेता...

दो सख्त हथेलियों के अपने सुकोमल वक्षों पर पड़ते दबाव से निःसंदेह कसमसा गई थी अंतरा काकी. इतनी देर में काकी ये तो निश्चित ही समझ गई कि उनके व उनके स्तनों के साथ यूँ खिलवाड़ करने वाला ये लड़का आयु से भले छोटा हो उनसे पर अनारी बिल्कुल नहीं है --- क्योंकि जिस अनुपम कलात्मक ढंग से मेरे हाथ और ऊँगलियाँ पूरे स्तनों के क्षेत्रफल पर गोल गोल घूमते हुए उनके निप्पल को छेड़ रहे हैं --- वो कोई मंझा हुआ खिलाड़ी ही हो सकता है.

विरोध-प्रतिरोध तो इस काम क्रीड़ा के शुरू होते ही धीरे धीरे कम पड़ने लगे थे काकी के पर अब उनके बेचैनी से बदलते करवटों से ऐसा प्रतीत होने लगा की रहा सहा बाँध भी टूट कर; उसके जगह एक सुकोमल, निर्दोष सा समर्पण का भाव जन्म लेने लगा है.

ब्रा कप्स को नीचे कर चूचियों को निकाल लेने से वो और भी अधिक सेक्सी लगने लगी है. चूचियों को सख्ती से पकड़ कर मसलते हुए नीचे झुका और काकी की नाभि में किस किया. आह! कितना मुलायम है काकी का पेट... बिल्कुल मक्खन!! एक तो साफ़, श्वेतवर्ण पेट और दूजे कमर के आस पास जमी हल्की चर्बी के कारण पेट और भी अधिक मुलायम हो गया है. खुद को रोक नहीं पाया उनकी मखमली सी पेट को बारम्बार चूमने से --- साथ ही अपने चेहरे को पूरे पेट में रगड़ने लगा.

एक ही समय पर हो रहे दो हरकतों से काकी तड़प उठी --- ऐसे उछल पड़ी मानो पूरे शरीर में गुदगुदी सी दौड़ गई हो --- बहुत कुछ होने लगा था उनके तन बदन में.

काम पीड़ा से तो पहले से ही पीड़ित हो रही थी बेचारी --- और अब यह पूरा उपक्रम!

उनकी नाभि को चूमते हुए मेरे वो दोनों हाथ कभी उनकी चूचियों को नीचे से ऊपर की ओर उठा कर अच्छे से मसलते, तो कभी मसलते हुए नीचे आकर कमर तक पहुँचते और थोड़ी देर वहां गोल गोल घूमने के बाद थोड़ा तिरछा हो कर थोड़ा और नीचे बढ़ते --- साड़ी के ऊपर से ही चूत के ठीक ऊपर तक पहुँचते और दो ऊँगलियों से हल्का प्रेशर दे कर एक ऊँगली को दबाए ; दूसरी ऊँगली को उसी तरह दबाए रख कर धीरे धीरे उस हिस्से को गोल गोल घूमाते हुए चूत के आसपास के हिस्से पर दबाव बढ़ाता...

मैंने नाभि को चूमना - चाटना रोक कर अपना सिर उठा कर काकी की ओर देखा; उनका चेहरा पसीने भीगने लगा था जोकि संभवतः उनकी स्त्रीसुलभ उत्तेजना वाली गर्मी के कारण हो सकता है.

काकी के लाल हो चुके सुडोल स्तन मेरे चेहरे के ऊपर लटकते हुए उन्हें चूसने को आमंत्रित कर रहे थे --- मुझसे रहा नहीं गया और एक झटके में एक निप्पल को मुँह में भरकर ज़ोर से चूसने लगा --- इससे काकी और अधिक उत्तेजित हो उठी.

कामाग्नि अब नस नस में सुलगने लगी थी.

दीवार घड़ी की ओर नज़र गई मेरी --- बहुत समय बीत गया था अब तक --- काकी के अनुसार, उनकी बहु भी मार्किट की ओर ही गई हुई है --- कभी भी लौट सकती है --- अगर मैंने और देर किया तो शायद आज काकी को भोग नहीं पाऊंगा --- ये विचार दिमाग में आते ही मैं तुरंत फाइनल एक्शन की ओर ध्यान दिया.

बेल्ट खोला...

पैंट और अंडरवियर उतार कर सोफे के एक ओर रख दिया..

काकी अधखुली आँखों से मुझे ये सब करती हुई देख रही थी --- होंठों में वासनायुक्त मुस्कान लिए.

मैं अपने सख्त हो चुके लंड को सहलाता हुआ काकी के समीप आया और दोनों टाँगें उठाते हुए साड़ी को पेटीकोट सहित उनके कमर तक चढ़ा दिया --- उनकी काली पैंटी नज़र आई --- गोरे जाँघों में काली पैंटी क्या गज़ब ढा रही थी --- कोई और समय तो शायद मैं इस मनोरम दृश्य का नयनसुख भी लेता और वर्णन भी करता --- परन्तु समय की कमी थी --- कमी क्या थी; सच कहा जाए तो समय का ही पता नहीं था फ़िलहाल तो --- इसलिए पैंटी-दर्शन का प्रोग्राम किसी और दिन करने का सोच कर मैंने एक झटके में उनकी पैंटी उतार कर एक ओर फेंक दिया --- हाँ, फेंकने से पहले एकबार पैंटी में योनि वाले जगह को बहुत अच्छे से सूंघा --- सूंघते हुए देखा, काकी शर्म से लाल हो रही है.

अब तक काकी की नज़र मेरे हिलते छोटे भाई पर चली गई थी --- और उसे देखते ही वासना के भंवर में खोने लगी थी.

मैं अब ज़मीन पर घुटनों के बल झुका और चेहरे को ले गया सीधे काकी की जाँघों की गहराईयों में....

वाह! वो रहा --- वो रहा उनकी गुलाबी चूत --- अद्वितीय! अप्रतिम गुलाबी दृश्य!!

बेसुध सा उस प्राकृतिक लुभावनी चीज़ को कुछ देर देखने के बाद स्वतः ही एक वहशी मुस्कान मेरे अधरों पर खेल गया --- चूत पर झुकता चला गया मैं --- अपने नाक को बहुत पास ले जाकर चूत को सूंघा ---- पसीने और यौनरस मिश्रित एक अजीब सी गंध आ रही थी उस गुलाबी कचौड़ी जैसी जगह से --- पर मेरे चेहरे पर ऐसे भाव रेखाएं बनने लगे मानो मैंने कोकेन से भी ज़्यादा नशे वाली किसी चीज़ का स्वाद ले लिया है --- एकबार फ़िर झुका चूत पर और इस बार अपनी जीभ निकाल कर उसके अग्रभाग से चूत के एक सिरे पर रखते हुए चूत की रेखा के किनारों तक दौड़ाया...

“आआऊऊऊ!” काकी सीत्कार उठी.

कुछ देर ऐसे ही जीभ को चूत के किनारों के चारों ओर घूमा घूमा कर स्वाद लेने के बाद अपनी जीभ को चूत के अंदर गहराई तक धकेला..

ऐसा करते ही,

अंतरा काकी के हाथ नीचे हो कर मेरे सिर के बालों को कस कर पकड़ लिए और चूत की ओर और दबाने लगे.

इधर मैं भी उसके माँसल, मोटे जांघ वाले पैरों को थोड़ा और फैला कर अपना मुँह और अधिक अंदर कर लिया और उनकी चूत को बेतहाशा चाटने लगा --- उनकी चूत के हर कोने को चाटते हुए उनको यौनतृप्ति की एक अलग ही संसार में ले जा रहा था.

मेरे ऐसे हरेक हरकत पर अंतरा काकी ज़ोरों से कराहें भर रही थीं--- इस बात से बिल्कुल बेपरवाह --- कि उनकी ये आहें --- ये कराहें बाहर भी सुनाई दे सकती हैं...

आगे बढ़ने की बारी आ गई थी...

मैं उठ कर लंड को उनकी चूत के मुहाने पर सेट किया और कुछेक बार अंदर बाहर करने के बाद धीरे धीरे अंदर घुसाने लगा...

“आह्ह!!” इस बार काकी दर्द से कराह उठी...

कुछ सेकंड तक लंड को वैसे ही रखने के बाद मैंने धीरे धीरे कमर हिलाने लगा...

चुदाई की गति बढ़ते ही गीली चूत के बावजूद भी काकी को थोड़ा दर्द का अहसास होने लगा --- पर --- मीठा..!

ख़ुद पे नियंत्रण न रख पाने के कारण काकी धीमे स्वर में कराहने लगी,

“आआआह्हह्ह्ह्हsssssss”

काकी की स्वागत करती योनि में अपने लंड को और बलपूर्वक धक्के मारते हुए, चूत की गहराईयों में दबाया और फ़िर उनके बालों को सहलाते हुए पूछा,

“क्या हुआ काकी, दर्द हो रहा है ??”

काकी कुछ बोली नहीं; होंठ खोले बिना धीरे से ‘अम्म्म’ की आवाज़ की.

उनको चूमते हुए बोला,

“आज थोड़ा सा सह लो --- मेरे लिए.” कह कर फिर उनकी ओर प्यार से देखा और उनकी उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा....

पर काकी को होश कहाँ --- वह तो बेचारी यौन तृप्ति की अनंत सागर में गोते लगा रही थी --- सिवाय मुझे एक चुम्बन देने और मेरे पीठ को सख्ती से पकड़ कर अपने बदन से कस कर लगाने के अलावा कुछ करने की सुध नहीं रही उन्हें.

उनका कुछ न कहना मुझे एक संकेत लगा कि शायद ऐसी अवस्था में बातों में समय गँवाने से अच्छा है सिर्फ़ काम और आनंद का उपभोग किया जाए.. इसलिए अगले कुछ पल बेरहमी से धक्के पर धक्के लगाता रहा और उन धक्कों के चोट को बर्दाश्त न कर पाने की वजह से काकी चिहुंक कर, मदमस्त अंदाज़ में और भी अधिक मादक स्वर में कराहने लगी,

“आआआआsssssss.... आआहह”

काकी की प्रत्येक कराह मेरे लिए पॉवर बूस्टर का काम कर रही थी --- वो जितना कराहती मैं उतना ही तेज़ी से धक्के लगाता... पूरा कमरा ‘आह आह’ और ‘ठप ठप’ की आवाज़ से गूँजने लगा था.

कुछ देर लगातार ऐसे ही चुदाई चलते रहने के कारण काकी की चूत पनियाने लगी थी; मैं भी क्लाइमेक्स की ओर पहुँचने लगा था.. लेकिन इन होंठों की गहराईयों में झड़ने का मेरा कोई इरादा न था --- मैं तो ऊपर के होंठों में झड़ने का कई दिनों से तमन्नाई था ---- वो भी इसी अंतरा काकी के.

जब मेरा अंग और भी अधिक सख्त हो गया और ये समझ में आ गया कि मैं अब किसी भी पल झड़ सकता हूँ; तो मैं चुदाई रोकते हुए झट से लंड निकाल कर खड़ा हो गया.. इस अप्रत्याशित हरकत के लिए काकी रत्ती भर भी प्रस्तुत नहीं थी -- इसलिए मेरे ऐसा करते ही आँखें बड़ी बड़ी कर के हतप्रभ सा मुझे देखने लगी..

कुछ कहने के लिए मुँह खोली ही थी कि मैंने उनका हाथ पकड़ कर पहले तो सीधा कर के बैठाया फिर लगभग खींचते हुए; हल्का बल प्रयोग कर के उन्हें ज़मीन पर घुटनों के बल बिठा दिया.

काकी पूरा सहयोग की --- न कुछ पूछी --- न ही झुँझलाई --- बस, जैसा जैसा मैं करता गया वो करती गई..

टेबल फैन के तेज़ चलने के बाद भी काकी को पसीना आ रहा था; खास कर माथे और स्तनों के ऊपरी हिस्सों पर --- उन्हें पसीना आ रहा था और उनकी सांसें तेज़ी से चल रही थीं, जिससे उनके भारी स्तन हर सांस के साथ ऊपर-नीचे हो रहे थे..

उनके चेहरे से कुछ इंच की दूरी बना कर, मैं बड़े प्रेम और बेशर्मी से अपने लंड को सहला रहा था --- मैंने उनके पूरी तरह गोल और भरपूर स्तनों, उनकी गहरी नाभि और लगातार चुदाई और चर्बी के कारण पेट और कमर के आसपास पसीने से गीला हुआ साड़ी देखकर अपने होंठों पर जीभ फेरा... अब तक अपने चूत में मेरे अंग को लेने वाली काकी ने जब ठीक अपने सामने इसे अच्छे से देखा तो मेरे इस मोटे, मर्दाना छड़ को देखते ही उनका मुंह सहज स्वाभाविक रूप से खुल गया! मेरा लंड पूरे शान और गर्व से तना हुआ था और नसें बाहर निकली हुई थीं, जो इसके स्वास्थ्य की सीमा को दर्शा रही थी.. काकी विस्मय से एकटक लंड को घूरने लगी थी.

काकी के विस्मित मुखमंडल पर आते जाते अनेकों एक्सप्रेशन मुझे मेरे चरम तक उत्तेजित करने के लिए पर्याप्त थे --- और देर करना मुझे सही नहीं लगा --- अतः आगे बढ़ कर लंड के अग्रभाग से काकी के होंठों को छुआ.. छूते ही काकी सिहर उठी --- आँखें बंद कर लीं --- वासना और लाज के मिश्रित भाव रेखाएँ उनके गोरे गोल मुखमंडल पर उदित होने लगे --- उनकी इस अवस्था का आनंद लेते हुए होंठों पर लंड को सहलाते हुए एक झटके में उनके मुँह में उस सख्त अंग का प्रवेश कर दिया ...

‘आह..अह्हह्म्मप्प्फ्ह..’

इतनी ही आवाज़ निकली काकी की --- कुछ सेकंड लंड को वैसे ही रहने दिया मुँह में; थोड़ा सा निकाला, फ़िर एक और तगड़ा झटका देते हुए लंड को आधे से ज़्यादा उतार दिया काकी के गले में --- मारे दर्द से काकी तड़प उठी --- साँस लेना तो दूर ; उतने मोटे लंड को मुँह में रखने के लिए होंठों को ज़्यादा फ़ैला भी नहीं पा रही बेचारी --- और इधर अपने लंड पर काकी के मुँह की नरमी व साँसों की गर्मी पा कर हवस में अँधा होकर मैं तेज़ और ताकतवर झटके देने लगा था --- आज काकी की चूत के साथ साथ उनकी हल्के गुलाबी गोरे मुखरे को चोद लेना चाहता था.

‘आह्ह्ह्ह.... ऊम्म्म्हह आप्फ्ह्हह्हह्म्म्म..... गूंss गूंsss गूंsss गूंsss ह्ह्ह्हsss.’ काकी बस इतना ही कह पा रही थी.. कुछ ही क्षणों में उनकी मुँह के किनारों से लार टपकने लगा थे --- टपकने क्या, समझिए बहने लगा थे.

इस बीच, सुख की अतिरेकता में विभोर हो कर मैंने काकी के सिर पर हाथ रखा और उसके बालों को सहलाने लगा --- और सहलाते हुए उनके सिर को अच्छे से पकड़ लिया --- इससे बेचारी काकी के पास अपना मुँह थोड़ी देर के लिए हटा कर साँस लेने तक लिए भी अवसर नहीं बचा.

इसी तरह उनके मुँह को करीब पंद्रह मिनट तक चोदते चोदते आख़िरकार मैं अपने क्लाइमेक्स पर पहुँच गया...
‘फ़फ़’ से ढेर सारा वीर्य उगल दिया मेरे लंड बाबा ने --- काकी का पूरा मुँह भर गया --- रत्ती भर की भी जगह न बची --- इतना वीर्य निकला की निगल लेने के सिवा कोई चारा न था --- और बाकी तो अंतरा काकी के मुँह से बाहर निकल कर गले से होता हुआ उनकी भरी गोल चूचियों पर गिरने लगे --- उनका मुँह वीर्य के नमकीन स्वाद से भर गया था!

चेहरा देखने लायक था..

काकी तुरंत उठ कर अंदर वाशरूम की ओर भागी --- उनकी हालत देख कर मुझे हँसी आ गई --- बड़ा मज़ा आता है जब काकी सरीखी उम्र वाली औरत ऐसे व्यवहार करे तो!

करीब दस मिनट बाद काकी आई...

कपड़ों को व्यवस्थित कर चुकी थी --- बिखरे बाल भी ठीक कर ली थी...

चेहरे पर शर्म और होंठों पर मुस्कान लिए सोफ़े पर ठीक मेरे बगल में आ कर बैठ गई --- आँखें मिलाने से बच रही थी --- मिलाए भी तो कैसे --- पूरा माल जो चख लिया मेरा अभी थोड़ी देर पहले.

“क्या हुआ?” मैंने पूछा.

“कुछ नहीं.” धीरे से कहा उन्होंने.

अगले कुछ पलों तक हम दोनों ने कुछ नहीं कहा... मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी --- काकी को थोड़ा और छूने का मन कर रहा था --- थोड़ा और प्यार करने का मन कर रहा था --- लेकिन काकी तो अब ज्यादा कुछ बोल ही नहीं रही थी..

अंत में मैंने ही चुप्पी तोड़ी..

“अच्छा लगा काकी?”

“ह्म्म्म.”

“क्या ह्म्म्म... बोलो न काकी... प्लीज़..”

“अच्छा क्यों नहीं लगेगा?” काकी अब मेरी ओर देख कर मुस्कराते हुए बोली.

“सच में?”

“बिल्कुल सच.. मुझे तो पता ही नहीं था कि तू इतना बड़ा खिलाड़ी है.”

बड़ी ही कातिलाना मुस्कान मुस्कराती हुई काकी बोली.

मैं ख़ुशी से फूला न समाया... मेरी ड्रीम लेडी मेरी ऐसी तारीफ़ कर रही थी और इस तारीफ़ से मेरे अंडरवियर में फिर से हलचल होने लगी थी.

मैं दोबारा पूछा,

“आप सच कह रही हो काकी?”

“क्यों पूछ रहे हो? शक हो रहा है?”

इस बार काकी ने आँखों को ऐसी अंदाज़ में तिरछी कर के कहा कि मेरे सब्र का बाँध टूट गया --- लगभग उछलते हुए काकी के पास पहुँचा और बाहों में ले कर उन्हें चूमने लगा.

“अरररे ... क्या कर रहे हो?!”

“थोड़ा और करने दो काकी.”

“ओह्ह... राजू...बेटा, किया तो तुमने... अब.. और....ह्म्म्पफ्ह!”

काकी कुछ और बोले उससे पहले ही मैंने उनके होंठों को अपने होंठों में भर लिया. साला कौन ऐसी हसीन – तरीन माल छोड़ता है!


जी भर कर उनके होंठों को चूसा, गालों और गले को चूमा. पिन नहीं लगाई थी इस बार काकी --- इसलिए बड़ी सहजता से पल्लू को नीचे कर के दोबारा सभी हुक खोल कर ब्रा के ऊपर से उनके स्तनों को दबाने लगा. अभी इन नर्म गोलों का मज़ा ले ही रहा था कि

तभी वो हुआ जिसका मुझे डर था --- डोरबेल बज उठा.! ये बिल्कुल ऐसा था जैसे मानो किसी ने मेरे और अंतरा काकी के प्रखर प्रज्वलित कामाग्नि के ऊपर पानी गिरा दिया हो.


हालाँकि मैंने या काकी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी --- काकी अब भी आँखें बंद किए थी और मैं उनकी चूचियों को मसलता हुआ उनके बीच अपने चेहरे को रगड़ रहा था... उन मुलायम गोलाईयों में बस खोया हुआ था.

दूसरी बार घंटी बजी,

काकी अब थोड़ा हिली; हिली क्या बस ज़रा सा ‘उंह’ की. उनके ऐसा करते ही मुझे भी थोड़ा सा होश आया... अब तक इतना समझ में आ गया कि दरवाज़े पर कोई है.. मैं ऐसे बीच में ही; इतने में ही उठ जाने के मूड में बिल्कुल नहीं था. जल्दी से ब्रा को सामने से पकड़ कर थोड़ा और नीचे करके अपने मुँह को उनकी गहरी स्तनरेखा के और अंदर भरने की कोशिश करने लगा. अब तक उनकी जाँघों को सहलाने में लगे हाथ भी उनकी फूली हुई चूचियों पर जम गए थे और कभी बहुत धीमे तो कभी तनिक ज़ोर से दबा रहे थे.

एक बहुत ही अद्भुत सी फीलिंग आ रही थी...

मैं इस फीलिंग में और ज़्यादा खो जाना चाह रहा था.. पर....

पर, कमबख्त बाहर जो भी है इस समय वो साला जाने का नाम ही नहीं ले रहा... दो बार घंटी बजा लेने के कुछ देर बाद अचानक से उसने ज्यादा प्रेशर देकर घंटी बजाई और वो भी चार बार लगातार!

और साथ ही आवाज़ आई,

“माँ जी.”

किसी लड़की की आवाज़ सुनकर मैं यह सोच कर निश्चिन्त होने लगा था कि शायद आस पड़ोस की कोई लड़की होगी; जब कोई प्रत्युत्तर नहीं मिलेगा तो वापस चली जाएगी... लेकिन ये क्या?! काकी मेरे सिर को अपने स्तनों पर से उठाने लगी... घबराई और आतंकित स्वर में बोली,

“अररेरे...य..ये अभी कैसे.... बेटा, जल्दी... उठो.. उठो...”

मैं तो अपने होश ही नहीं सम्भाल पाया था अब तक.. तो शरीर कहाँ से सम्भालता? पर काकी के पास इतना समय नहीं था शायद; --- तभी तो, मुझे धक्का दे कर जल्दी से खड़ी हो गई और अपने कपड़ों को जल्दी जल्दी ठीक करने लगी. मैं अवाक हो कर उन्हें देखने लगा.. वो असहाय सा मुँह बना कर धीरे से ‘सॉरी’ बोली और अब तक अपने ब्लाउज के हुक लगा लेने के बाद अब अपने स्तनों के ऊपर साड़ी अच्छे से ले कर सब कुछ ढक रही थी --- सच कहूँ तो ये सीन देखने में मुझे बहुत मज़ा आया. चूचियों को ढक तो रही ही थी; इस बात का भी ध्यान रख रही थी कि क्लीवेज तक भी न दिखे. पता नहीं ऐसी क्या हो गया कि मुझे उनका इस तरह घबरा कर खुद सम्भालते देख कर भी एक अजीब सी उत्तेजना की लहर दौड़ गई शरीर में और लंड भी उमठने लगा. इससे पहले की काकी आगे बढ़े दरवाज़ा खोलने के लिए, मैं एक अंतिम किस के लिए अंतरा काकी की ओर बढ़ा पर काकी ने एकदम से मना कर दिया --- मैं इसपर थोड़ा झुँझला गया और उनसे पूछा,


“ओफ्फो... आखिर ऐसा क्या हो गया?”

काकी उसी घबराई अंदाज़ में धीमे स्वर में बोली,

“बहु है!”

मेरा तो जैसे दिमाग ही घूम गया.... “व्हाट?!”

काकी सिर ‘हाँ’ में हिला कर दरवाज़ा खोलने चली गई... इधर इससे पहले की मेरा दिमाग इस बात को अच्छे से समझ कर दिमाग में बैठाए... मुझे इस बात की चिंता होने लगी कि मैं अभी क्या करूँ --- तभी मेरा ध्यान प्लेट में रखे मिष्ठान्न पर गया...

उधर,

उस ओर कमरे में होती बातचीत मुझे सुनाई दे रही थी;

“क्या हुआ माँ जी... सो रही थीं आप?”

“अरे नहीं... वो राजू आया है न... उसी के लिए कुछ नाश्ता पानी देख रही थी.”

“ओह्ह! राजू भैया आए हैं? कब? अंदर हैं अभी?”

“हाँ.. अंदर है --- अभी थोड़ी ही देर पहले आया है.” काकी की आवाज़ सुन कर ही लगा की वो जबरदस्ती हँस – मुस्करा कर कहने की कोशिश कर रही है. मुझे उनकी घबराहट का आभास अभी भी हो रहा है.

पैरों की आवाज़ इसी कमरे की ओर आती सुनाई दी.

“नमस्ते भैया --- तो आखिर आपको हमारे गरीबखाने में आने की फुर्सत मिल ही गई.”

कमरे में घुसते ही प्रिया बोली.

उस समय मैं काजू वाली बर्फी प्रेम से मुँह में भर रहा था --- दोनों सास – बहु अंदर आएँगे ये तो पता ही था पर इतनी जल्दी --- मतलब कि कुछेक सेकंड्स में ही आ जाएँगे --- इस बात का बिल्कुल भी कोई अंदाज़ा नहीं था.

“हाँ.. वो बस....”

मेरी बात पूरी होने से पहले ही बहु प्रिया के पीछे से आती अंतरा काकी बोल पड़ी,

“अरे मत पूछ बेटा --- आज मार्किट गयी थी न --- बैग इतना भारी हो जाएगा ये नहीं सोची थी --- मेन मार्केट से तो किसी तरह निकल गई पर घर आने के रास्ते में बहुत दिक्कत हो गई --- भारी बैग और उठाया नहीं जा रहा था --- रुक कर ऑटो – रिक्शा वगैरह का इंतजार कर रही थी; तो ये पता नहीं कहाँ से आ गया --- न आव देखा न ताव; जानने भर की देरी थी की मेरे से बैग नहीं उठाया जा रहा है और घर जाना है --- झटपट बैग उठाया और यहाँ तक आ गया. अब जब हमारे घर आया ही इतने दिनों बाद तो फिर बिना कुछ खाए – खिलाए ऐसे ही थोड़ी जाने देती.”

‘बिना कुछ खाए – खिलाए ऐसे ही थोड़ी जाने देती’ इस लाइन को काकी इस अंदाज़ में मेरी ओर देखते हुए लाज से बोली कि कसम से दिल बाग़ बाग़ और लंड फुल टाइट हो गया.

मुझे जहाँ जिस काम के लिए जाना था वहाँ तो अब जाने का कोई मतलब नहीं रह गया क्योंकि पूरे एक घंटे की देर हो गई थी --- इसलिए जल्दबाजी का भी कोई फ़ायदा नहीं था अभी --- यही सब सोच कर मैंने प्रेम से मिठाई और नमकीन खाने में अपना ध्यान दिया और थोड़ी देर तक सास – बहु से जम कर बातें किया.

अंदर दूसरे कमरे में जाने से पहले बहु प्रिया ने धीरे से कहा,

“माँ जी के साथ तो मिल लिए आप; कभी हमसे भी मिलने आइए..”

यह कह कर हँसते हुए अंदर चली गई. काकी उस समय कुछ कदम दूर पानी पी रही थी --- बहु को हँस कर अंदर जाते और मुझे अवाक देख कर मुस्कराती हुई पास आकर बैठी --- पूछी,

“क्या बात है राजू; प्रिया क्या बोली?”

काकी के चेहरे को देख कर मैं भांप गया कि प्रिया का यूँ हँस कर मुझसे बात कर चले जाना काकी को ईर्ष्यालु बना रहा है --- ज़रूर काकी अपनी गदराई जवानी को बहु की छरहरी काया के सामने कमतर समझती है --- इसलिए ईर्ष्या – जलन उनके मन में घर कर रही है. मेरे साथ काकी का चक्कर तो बहुत समय पहले से है --- सिर्फ़ सेक्स नहीं हुआ है --- नयी नवेली छरहरी काया और शोख अदाओं वाली बहु के सामने कहीं मैं दिल न हार जाऊं और उन्हें छोड़ कर बहु के पीछे न पड़ जाऊं इसी बात की चिंता और डर काकी के मन – मस्तिष्क में है.

मेरे शैतानी दिमाग ने तुरंत इस बात को संदेहास्पद बना कर इससे फ़ायदा लेने का सोचा;

एक मीठी मुस्कान लिए बोला,

“अरे कुछ नहीं; वो मैं ये बर्फी खा रहा था --- बात करते समय थोड़ा सा शर्ट पर गिर गया तो वो बोली की क्या बच्चों जैसा खा रहे हैं. इसी बात पर वो हँस कर चली गई.”

जैसा की मैं चाह रहा था; वही हुआ --- काकी मेरे जवाब से संतुष्ट नहीं हुई --- बोली,

“बस? यही बात थी?”

“हाँ.”

“इसी बात पर वो हँस कर गई?”

“शायद उसे यह बात बड़ा मज़ेदार लगा होगा.”

मैं थोड़ा नादान बनते हुए बोला और प्लेट पर ज़रा सा नमकीन छोड़ कर उठ कर सीधे अंदर एक ओर स्थित वाशबेसिन में जा कर हाथ मुँह धोया और वापस आ कर बोला,

“अच्छा काकी अब चलता हूँ --- फ़िर आऊँगा.”

मेरे उत्तर से पनपा असंतुष्टि का भाव तो उनके मन में था ही; खुद को नार्मल दिखाते हुए पास आ कर बोली,

“अभी चले जाओगे?”

“हाँ काकी; कुछ और काम भी हैं.”

“क्या काम है?”

इस सवाल में ठीक वही बात थी जैसे कोई अपना बहुत करीबी किसी से पूरे अधिकार से सवाल करे....

सीधे न कह कर अंतरा काकी अपने हाव – भाव और बातों से ये साफ़ जताना चाह रही थी कि चाहे कुछ भी हो; वो मुझ पर किसी से भी अधिक अधिकार रखती है --- बहु प्रिया से तो कहीं अधिक.

“काम तो बहुत ज़रूरी है; बहुत पहले ही चला जाता --- लेकिन जा नहीं पाया.”

“क्यों?”

“कारण तो सिर्फ़ आप हो.”


कहते हुए मैंने अपने हाथ बढ़ा कर काकी को उनके कमर से पकड़ कर अपने पास खींच लिया --- ऐसे किसी हरकत के लिए काकी बिल्कुल तैयार नहीं थी --- तुरंत छटपटाने लगी और खुद को छुड़ाने की कोशिश करती हुई बोली,

“अरे क्या कर रहे हो राजू... बहु अंदर है... आ गई तो प्रॉब्लम हो जाएगी बहुत.”

उनका ये संघर्ष और घबराया चेहरा देख कर मुझे बहुत मज़ा आया --- ऐसे हालात में मुझे काकी बहुत प्यारी लगती है.


मैंने छोड़ा तो नहीं; उल्टे और कस कर पकड़ लिया --- उन्हें अपने और पास खींचा --- दोनों हाथों से काकी के कमर को दोनों साइड से पकड़ कर अच्छे से मसला थोड़ी देर --- फिर झुक कर उनके गर्दन के बायीं साइड पे बहुत प्रेम से चूमा; फिर साड़ी हटा कर उनकी क्लीवेज पर एक लम्बा चुम्बन लिया और धीरे से ‘आई लव यू’ कह कर वहाँ से चला गया.



*समाप्त*
 

Top