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अपडेट.........《 31 》
फ्लैशबैक अब आगे_______
उस दिन के बाद से तो जैसे प्रतिमा का यह रोज़ का काम हो गया था। वह हर रोज़ विजय सिंह के लिए खाने का टिफिन और दूध लेकर खेतों पर जाती और वहाॅ पर विजय को अपना अधनंगा जिस्म दिखा कर उसे अपने रूपजाल में फाॅसने की कोशिश करती। किन्तु विजय सिंह उसके जाल में फॅस नहीं रहा था। ये बात प्रतिमा को भी समझ में आ गई थी कि विजय सिंह उसके जाल में फॅसने वाला नहीं है। उधर गौरी की तबीयत अब ठीक हो चुकी थी इस लिए खाने का टिफिन वह खुद ही लेकर जाने लगी थी। प्रतिमा अपना मन मसोस कर रह गई थी। अजय सिंह खुद भी परेशान था इस बात से कि विजय सिंह कैसे उसके जाल में फॅसे?
अजय सिंह ये भी जानता था कि उसके भाई के जैसी ही उसकी मॅझली बहू यानी गौरी थी। वह भी उसके जाल में फॅसने वाली नहीं थी। ऐसे ही दिन गुज़र रहे थे। गौरी की तबीयत सही होने के बाद प्रतिमा को फिर खेतों में जाने का कोई अच्छा सा अवसर ही नहीं मिल पाता था। इधर गौरी भी अपने पति विजय सिंह को खाना लेकर हवेली से खेतों पर चली जाती और फिर वह वहीं रहती। शाम को ही वह वापस हवेली में आती थी। इस लिए अजय सिंह भी कोई मौका नहीं मिल पाता था उसे फॅसाने के लिए।
पिछले एक महीने से प्रतिमा विजय सिंह को अपने रूप जाल में फसाने की कोशिश कर रही थी। शुरू शुरू में तो उसने अपने मन की बातों को उससे उजागर नहीं किया था। बल्कि हर दिन वह विजय सिंह से ऐसी बाते करती जैसे वह उसकी कितनी फिक्र करती है। भोला भाला विजय सिंह यही समझता कि उसकी भाभी कितनी अच्छी है जो उसकी फिक्र करती है और हर रोज़ समय पर उसके लिए इतनी भीषण धूप व गर्मी में खाना लेकर आती है। इन बीस दिनों में विजय सिंह भी कुछ हद तक सहज फील करने लगा था अपनी भाभी से। प्रतिमा उससे खूब हॅसती बोलती और बात बात पर उसके गले लग जाती। विजय सिंह को उसका इस तरह अपने गले लग जाना अच्छा तो नहीं लगता था किन्तु ये सोच कर वह चुप रह जाता कि प्रतिमा शहर वाली औरत है और इस तरह अपनो के गले लग जाना शायद उसके लिए आम बात है। ऐसे ही एक दिन बातों बातों में प्रतिमा ने विजय सिंह से कहा__"हम दोनो देवर भाभी इतने दिनों से खुशी खुशी हॅसते बोलते रहे और फिर एक दिन मैं चली जाऊॅगी शहर। वहाॅ मुझे ये सब बहुत याद आएगा। मुझे तुम्हारे साथ यहाॅ इस तरह हॅसना बोलना और मज़ाक करना बहुत अच्छा लग रहा है। रात में भी मैं तुम्हारे बारे में ही सोचती रहती हूॅ। ऐसा लगा करता है विजय कि कितनी जल्दी सुबह हो और फिर कितनी जल्दी मैं दोपहर में तुम्हारे लिए खाना लेकर जाऊॅ? हाय ये क्या हो गया है मुझे? क्यों मैं तुम्हारी तरफ इस तरह खिंची चली आती हूॅ विजय? क्या तुमने मुझ पर कोई जादू कर दिया है?"
प्रतिमा की ये बातें सुन कर विजय सिंह को ज़बरदस्त झटका लगा। उसकी तरफ देखते हुए इस तरह खड़ा रह गया था जैसे किसी ने उसे पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया हो। मनो मस्तिष्क में धमाके से हो रहे थे उसके। जबकि उसकी हालत से बेख़बर प्रतिमा कहे जा रही थी___"इन चंद दिनों में ये कैसा रिश्ता बन गया है हमारे बीच? तुम्हारा तो पता नहीं विजय लेकिन मुझे अपने अंदर का समझ आ रहा है। मुझे लगता है कि मुझे तुमसे प्रेम हो गया है। हे भगवान! कोई और सुने तो क्या कहे? प्लीज़ विजय मुझे ग़लत मत समझना। ऐसा हो जाता है कि कोई हमें अच्छा लगने लगता है और उससे प्यार हो जाता है। कसम से विजय मुझे इसका पता ही नहीं चला।"
विजय सिंह के दिलो दिमाग़ होने वाले धमाके अब और भी तेज़ हो गए थे। प्रतिमा का एक एक शब्द पिघले हुए शीशे की तरह उसके हृदय पर पड़ रहा था। उसकी हालत देखने लायक हो गई थी। चेहरे पर बारह क्या पूरे के पूरे चौबीस बजे हुए थे। पसीने से तर चेहरा जिसमें हल्दी सी पुती हुई थी।
सहसा प्रतिमा ने उसे ध्यान से देखा तो बुरी तरह चौंकी। उसे पहले तो समझ न आया कि विजय सिंह की ये अचानक ही क्या हो गया है फिर तुरंत ही जैसे उसके दिमाग़ की बत्ती जल उठी। उसे समझते देर न लगी कि उसकी इस हालत का कारण क्या है? एक ऐसा इंसान जिसे रिश्तों की क़दर व उसकी मान मर्यादाओं का बखूबी ख़याल हो तथा जो कभी भी किसी कीमत पर किसी पराई औरत के बारे में ग़लत ख़याल तक न लाता हो उसकी हालत ये जान कर तो ख़राब हो ही जाएगी कि उसकी अपनी भाभी उससे प्रेम करती है। ये बात उससे कैसे पच सकती थी भला? अभी तक जितना कुछ हो रहा था वही उससे नहीं पच रहा था तो फिर इतनी संगीन बात भला कैसे पच जाती?
"वि विजय।" प्रतिमा ने उसे उसके कंधों से पकड़ कर ज़ोर से झकझोरा___"ये ये क्या हो क्या हो गया है तुम्हें?"
प्रतिमा के झकझोरने पर विजय सिंह बुरी तरह चौंका। उसके मनो मस्तिष्क ने तेज़ी से काम करना शुरू कर दिया। अपने नज़दीक प्रतिमा को अपने दोनो कंधे पकड़े देख वह तेज़ी से पीछे हट गया। इस वक्त उसके चेहरे पर बहुत ही अजीब से भाव गर्दिश करते नज़र आने लगे थे।
"विजय क्या हुआ तुम्हें?" प्रतिमा ने चकित भाव से कहा___"देखो विजय मुझे ख़लत मत समझना। इसमे मेरी कोई ग़लती नहीं है।"
"ये ये अच्छा नहीं हुआ भाभी।" विजय सिंह ने आहत भाव से कहा___"आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं? जबकि आपको पता है कि ऐसा सोचना भी पाप है?"
"मैं जानती हूॅ विजय।" प्रतिमा ने दुखी होने की ऐक्टिंग की, बोली___"मुझे पता है कि ऐसा सोचना भी ग़लत है। लेकिन ये कैसे हुआ मुझे नहीं पता विजय। शायद इतने दिनों से एक साथ हॅसने बोलने से ऐसा हुआ है। तुम्हारी मासूमियत, तुम्हारा भोलापन तथा तुम्हारी अच्छाईयाॅ मेरे दिलो दिमाग़ में उतरती चली गईं हैं। किसी के लिए दिल में भावनाएॅ जाग जाना भला किसके अख्तियार में होता है? ये तो दिल का दखल होता है। उसे जो अच्छा लगता उसके लिए धड़कने लगता है। इसका पता इंसान को तब चलता है जब उसका दिल अंदर से अपने महबूब के लिए बेचैन होने लगता है। वही मेरे साथ हुआ है विजय। कदाचित तुम मेरे इस नादान व नासमझ दिल को भा गए इस लिए ये सब हो गया।"
"आप जाइये भाभी यहाॅ से।" विजय सिंह ने कहा___"इस बात को यहीं पर खत्म कर दीजिए। अगर आपको अपने अंदर का पता चल गया है तो अब आप वहीं पर रुक जाइए। अपने क़दमों को रोंक लीजिए। मैं आपके विनती करता हूॅ भाभी। कृपया आप जाइये यहाॅ से।"
"इतनी कठोरता से मुझे जाने के लिए मत कहो विजय।" प्रतिमा ने मगरमच्छ के आॅसू छलका दिये, बोली___"तुम भी समझ सकते हो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। और अपने क़दमों को रोंकना इतना आसान नहीं होता। ये प्रेम बड़ा अजीब होता है विजय। ये किसी की नहीं सुनता, खुद अपनी भी।"
"मैं कुछ सुनना नहीं चाहता भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"मैं सिर्फ इतना जानता हूॅ कि ये ग़लत है और मैं ग़लत चीज़ों के पक्ष में कभी नहीं हो सकता। आप भी इस सबको अपने ज़हन से निकाल दीजिए और हो सके तो कभी भी मेरे सामने मत आइयेगा।"
"ऐसा तुम कैसे कह सकते हो विजय?" प्रतिमा ने रोने का नाटक किया__"मैने इतना बड़ा गुनाह तो नहीं किया है जिसकी सज़ा तुम इस तरह दे रहे हो? प्रेम तो हर इंसान से होता है। क्या देवर भाभी के बीच प्रेम नहीं हो सकता? बिलकुल हो सकता है विजय...प्रेम तो वैसे भी सबसे पाक होता है।"
"ये सब किताबी बातें हैं भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"आज के युग में प्रेम की परिभाषा कुछ और ही हो गई है। अगर नहीं होती तो आपको अपने पति के अलावा किसी और से प्रेम नहीं होता। प्रेम तो वही है जो किसी एक से ही एक बार होता है और फिर ताऊम्र तक वह सिर्फ उसी का होकर रहता है। किसी दूसरे के बारे में उसके दिल में विचार ही नहीं उठता कभी।"
"ये सबके सोचने का नज़रिया है विजय कि वो प्रेम के बारे में कैसी परिभाषा को मानता है और समझता है?" प्रतिमा ने कहा___"मेरा तो मानना ये है कि प्रेम बार बार होता है। दिल भले ही हज़ारों बार टूट कर बिखर जाए मगर वह प्रेम करना नहीं छोंड़ता। वह प्रेम करता ही रहता है।"
"सबकी अपनी सोच होती है भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"लोग अपने मतलब के लिए ग़लत को भी सही ठहरा देते हैं और उसे साबित भी कर देते हैं। मगर मेरी सोच ऐसी नहीं है। मेरे दिल में मेरी पत्नी के अलावा कोई दूसरा आ ही नहीं सकता। मैं उससे बेइंतहां प्रेम करता हूॅ, उसे से मरते दम वफ़ा करूॅगा। किसी और से मुझे वैसा प्रेम हो ही नहीं सकता। प्रेम में सिर्फ दिल का ही नहीं दिमाग़ का भी दखल होना ज़रूरी है। मन में दृढ़ संकल्पों का होना भी ज़रूरी है। अगर ये सब है तो आपको किसी दूसरे प्रेम हो ही नहीं सकता।"
"हो सकता किसी और के पास तुम्हारे जैसी इच्छा शक्ति या दृढ़ संकल्प न हो।" प्रतिमा ने कहा___"और वह मेरे जैसे ही किसी दूसरे से भी प्रेम कर बैठे।"
"तो मैं यही कहूॅगा कि उसका वो प्रेम निम्न दृष्टि का है।" विजय सिंह ने कहा___"जो अपने पहले प्रेमी के लिए वफ़ा नहीं कर सका वह अपने दूसरे प्रेमी के साथ भी वफ़ा नहीं कर सकेगा। क्योंकि संभव है कि कभी ऐसा भी समय आ जाए कि उसे किसी तीसरे इंसान से भी प्रेम हो जाए। तब उसके बारे में क्या कहा जाएगा? सच्चा प्रेम और सच्ची वफ़ा तो वही है भाभी जो सिर्फ अपने पहले प्रेमी से ही की जाए। उसी हो कर रह जाए।"
प्रतिमा को समझ ना आया कि अब वह विजय से क्या कहे? ये बात तो वह खुद भी समझती थी कि विजय ठीक ही कह रहा है। किन्तु उसे तो विजय को फाॅसना था इस लिए भला कैसे वह हार मान लेती? ये दाॅव बेकार चला गया तो कोई दूसरा दाॅव सही।
"तो तुम ये कहना चाहते हो कि मैं तुम्हारे बड़े भइया और अपने पति के लिए वफ़ादार नहीं हूॅ? प्रतिमा ने कहा___"क्योंकि मुझे उनके अलावा तुमसे प्रेम हुआ?"
"मैं किसी एक के लिए नहीं कह रहा भाभी बल्कि हर किसी के लिए कह रहा हूॅ।" विजय सिंह ने कहा___"क्योंकि मेरी सोच यही है। मैं इस जीवन में सिर्फ एक का ही होकर रहना चाहता हूॅ और भगवान से ये प्रार्थना भी करता हूॅ वो अगले जन्मों में भी मुझे मेरी गौरी का ही रहने दे।"
"ठीक है विजय।" प्रतिमा ने सहसा पहलू बदला___"मैं तुमसे ये नहीं कह रही कि तुम गौरी को छोंड़ कर मुझसे प्रेम करो। किन्तु इतना ज़रूर चाहती हूॅ कि मुझे खुद से इस तरह दूर रहने की सज़ा न दो। मैं तुमसे कभी कुछ नहीं मागूॅगी बस दिल के किसी कोने में मेरे लिए भी थोड़ी जगह बनाए रखना।"
"ऐसा कभी नहीं हो सकता भाभी।" विजय सिंह दृढ़ता से कहा___"क्योंकि ये रिश्ता ही मेरी नज़र में ग़लत है और ग़लत मैं कर नहीं सकता। हाॅ आप मेरी भाभी हैं और मेरे लिए पूज्यनीय हैं इस लिए इस रिश्ते के लिए हमेशा मेरे अंदर सम्मान की भावना रहेगी। देवर भाभी के बीच जिस तरह का स्नेह होता है वो भी रहेगा। मगर वो नहीं जिसकी आप बात कर रही हैं।"
"ऐसा क्यों कह रहे हो विजय?" प्रतिमा ने रुआॅसे भाव की ऐक्टिंग की___"क्या मैं इतनी बुरी लगती हूॅ तुम्हें? क्या मैं इस काबिल भी नहीं कि तुम्हारा प्रेम पा सकूॅ?"
"ऐसी बातें आपको करनी ही नहीं चाहिए भाभी।" विजय सिंह ने बेचैनी से पहलू बदला___"आप मुझसे बड़ी हैं हर तरह से। आपको खुद समझना चाहिए कि ये ग़लत है। जानते बूझते हुए भी आप ग़लत राह पर चलने की बात कर रही हैं। जबकि आपको करना ये चाहिए कि आप खुद को समझाएॅ और इससे पहले कि हालात बिगड़ जाएॅ आप उस माहौल से जल्द से जल्द निकल जाइये।"
प्रतिमा की सारी कोशिशें बेकार रहीं। विजय सिंह को तो जैसे उसकी कोई बात ना माननी थी और ना ही माना उसने। थक हार कर प्रतिमा वहाॅ से हवेली लौट आई थी। हवेली में उसने अपने पति से आज की सारी महाभारत बताई। उसकी सारी बातें सुन कर अजय सिंह हैरान रह गया। उसे समझ न आया कि उसका भाई आख़िर किस मिट्टी का बना हुआ है? किन्तु आज की बातों से कहीं न कहीं उसे ये उम्मीद ज़रूर जगी कि आज नहीं तो कल विजय सिंह प्रतिमा के सामने अपने हथियार डाल ही देगा। अगले दिन जब प्रतिमा फिर से विजय के लिए टिफिन तैयार करने किचेन में गई तो गौरी को उसने किचेन में टिफिन तैयार करते देखा।
"अब कैसी तबीयत है गौरी?" प्रतिमा ने किचेन में दाखिल होते हुए पूछा था।
"अब ठीक हूॅ दीदी।" गौरी ने पलट कर देखते हुए कहा___"इस लिए मैने सोचा कि उनके लिए टिफिन तैयार करके खेतों पर चली जाऊॅ।"
"अरे तुम अभी थोड़े दिन और आराम करो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"अभी अभी तो ठीक हुई हो। बाहर बहुत तेज़ धूप और गर्मी है। ऐसे में फिर से बीमार हो जाओगी तुम। मैं तो रोज़ ही विजय को खाना दे आती हूॅ। लाओ मुझे मैं देकर आती खाना विजय को।"
"अरे अब मैं बिलकुल ठीक हूॅ दीदी।" गौरी ने कहा___"आप चिन्ता मत कीजिए। दो चार दिन से आराम ही तो कर रही थी मैं।"
"अरे तो अभी और कुछ दिन आराम कर लो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"और वैसे भी मैं कुछ दिनों बाद चली जाऊॅगी क्योंकि बच्चों के स्कूल खुलने वाले हैं। मुझे अच्छा लगता है खेतों में। वहाॅ पर आम के बाग़ों में कितनी मस्त हवा लगती है। कितना सुकून मिलता है वहाॅ। मैं तो विजय को खाना देने के बाद वहीं चली जाती हूॅ और वहीं पर पेड़ों की घनी छाॅव में बैठी रहती हूॅ। यहाॅ से तो लाख गुना अच्छा है वहाॅ।"
"हाॅ ये तो आपने सही कहा दीदी।" गौरी ने मुस्कुरा कर कहा___"वहाॅ की बात ही अलग है। इसी लिए तो मैं दिन भर वहीं उनके पास ही रहती हूॅ।"
"तुम तो हमेशा ही रहती हो गौरी।" प्रतिमा ने मुस्कुरा कर कहा__"और वहीं पर तुम दोनो मज़ा भी करते हो। है ना??"
"क्या दीदी आप भी कैसी बातें करती हैं?" गौरी ने शरमा कर कहा___"ये सब खेतों में थोड़ी न अच्छा लगता है।"
"ख़ैर छोड़ो।" प्रतिमा ने कहा___"दो चार दिन बचे हैं तो मुझे वहाॅ की ठंडी छाॅव का आनन्द ले लेने दो। उसके बाद तुम जाती रहना।"
"हाॅ तो ठीक है न दीदी।" गौरी ने कहा__"हम दोनो चलते हैं और वहाॅ की ठंडी छाॅव का आनंद लेंगे।"
"तुम अभी अभी बीमारी से बाहर आई हो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"इस लिए तुम्हें अभी इतनी धूप में बाहर नहीं निकलना चाहिए। मैं तुम्हारे स्वास्थ के भले के लिए ही कह रही हूॅ और तुम हो ज़िद किये जा रही हो? अपनी दीदी का बिलकुल भी कहा नहीं मान रही हो तुम। या फिर तुम्हारी नज़र में मेरी कोई अहमियत ही नहीं है। ठीक है गौरी करो जो तुम्हें अच्छा लगे।"
"अरे नहीं दीदी।" गौरी ने जल्दी से कहा___"आपकी अहमियत तो बहुत ज्यादा है हम सबकी नज़र में। मैं तो बस इस लिए कह रही थी कि आप इतने दिनों से धूप और गर्मी में परेशान हो रही हैं। और भला मैं कैसे आपकी बात टाल सकती हूॅ दीदी? मुझे तो बेहद खुश हूॅ कि आप मेरे हित की बारे में सोच रहीं हैं।"
"तो फिर लाओ वो टिफिन मुझे दो।" प्रतिमा ने जो इमोशनली उसे ब्लैकमेल किया था उसमें वह सफल हो गई थी, बोली___"मैं विजय को खाना देने जा रही हूॅ और तुम अभी आराम करो अपने कमरे में।"
"जी ठीक है दीदी।" गौरी ने मुस्कुरा कहा और टिफिन प्रतिमा को पकड़ा दिया। प्रतिमा टिफिन लेकर किचेन से बाहर निकल गई। जबकि गौरी खुशी खुशी ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।
प्रतिमा जब खेतों पर पहुॅची तो वहाॅ का माहौल देख कर उसके सारे अरमानों पर पानी फिर गया। दरअसल आज पिछले दिनों के विपरीत विजय सिंह खेतों पर अकेला नहीं था। बल्कि उसके साथ कई मजदूर भी खेतों पर आज नज़र आ रहे थे। कदाचित विजय सिंह को अंदेशा था कि प्रतिमा आज भी उसके लिए टिफिन लेकर आएगी और फिर यहाॅ पर वह फिर से अपने प्रेम का बेकार ही राग अलापने लगेगी। इस लिए विजय सिंह ने कुछ मजदूरों को कल ही बोल दिया था कि वो अपने लिए दोपहर का खाना घर से ही ले आएॅगे और यहीं पर खाएॅगे। विजय सिंह के कहे अनुसार कई मजदूर आज यहीं पर थे।
प्रतिमा ये सब देख कर अंदर ही अंदर जल भुन गई थी। उसे विजय सिंह से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। वह तो उसे निहायत ही शान्त और भोला समझती थी। किन्तु आज उसे भोले भाले विजय ने अपना दिमाग़ चला दिया था जिसका असर ये हुआ था कि प्रतिमा अब कुछ नहीं कर सकती थी।
प्रतिमा जैसे ही मकान के पास पहुॅची तो एक मजदूर उसके पास आया और बड़े अदब से बोला___"मालकिन, मॅझले मालिक हमका बोले कि आपसे उनके खाने का टिफिनवा ले आऊॅ। काह है ना मालकिन आज मॅझले मालिक हम मजदूरों के साथ ही खाना खाय चाहत हैं। ई हमरे लिए बहुतै सौभाग्य की बात है। दीजिए मालकिन या टिफिनवा हम ले जात हैं।"
प्रतिमा भला क्या कह सकती थी। वह तो अंदर ही अंदर जल कर खाक़ हुई जा रही थी। उसने आए हुए मजदूर को टिफिन पकड़ाया और पैर पटकते हुए मकान के अंदर चली गई और कमरे में जाकर चारपाई पर पसर गई। गुस्से से उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया था।