Incest ♡ एक नया संसार ♡ (Completed)

Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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अपडेट.........《 31 》


फ्लैशबैक अब आगे_______

उस दिन के बाद से तो जैसे प्रतिमा का यह रोज़ का काम हो गया था। वह हर रोज़ विजय सिंह के लिए खाने का टिफिन और दूध लेकर खेतों पर जाती और वहाॅ पर विजय को अपना अधनंगा जिस्म दिखा कर उसे अपने रूपजाल में फाॅसने की कोशिश करती। किन्तु विजय सिंह उसके जाल में फॅस नहीं रहा था। ये बात प्रतिमा को भी समझ में आ गई थी कि विजय सिंह उसके जाल में फॅसने वाला नहीं है। उधर गौरी की तबीयत अब ठीक हो चुकी थी इस लिए खाने का टिफिन वह खुद ही लेकर जाने लगी थी। प्रतिमा अपना मन मसोस कर रह गई थी। अजय सिंह खुद भी परेशान था इस बात से कि विजय सिंह कैसे उसके जाल में फॅसे?

अजय सिंह ये भी जानता था कि उसके भाई के जैसी ही उसकी मॅझली बहू यानी गौरी थी। वह भी उसके जाल में फॅसने वाली नहीं थी। ऐसे ही दिन गुज़र रहे थे। गौरी की तबीयत सही होने के बाद प्रतिमा को फिर खेतों में जाने का कोई अच्छा सा अवसर ही नहीं मिल पाता था। इधर गौरी भी अपने पति विजय सिंह को खाना लेकर हवेली से खेतों पर चली जाती और फिर वह वहीं रहती। शाम को ही वह वापस हवेली में आती थी। इस लिए अजय सिंह भी कोई मौका नहीं मिल पाता था उसे फॅसाने के लिए।

पिछले एक महीने से प्रतिमा विजय सिंह को अपने रूप जाल में फसाने की कोशिश कर रही थी। शुरू शुरू में तो उसने अपने मन की बातों को उससे उजागर नहीं किया था। बल्कि हर दिन वह विजय सिंह से ऐसी बाते करती जैसे वह उसकी कितनी फिक्र करती है। भोला भाला विजय सिंह यही समझता कि उसकी भाभी कितनी अच्छी है जो उसकी फिक्र करती है और हर रोज़ समय पर उसके लिए इतनी भीषण धूप व गर्मी में खाना लेकर आती है। इन बीस दिनों में विजय सिंह भी कुछ हद तक सहज फील करने लगा था अपनी भाभी से। प्रतिमा उससे खूब हॅसती बोलती और बात बात पर उसके गले लग जाती। विजय सिंह को उसका इस तरह अपने गले लग जाना अच्छा तो नहीं लगता था किन्तु ये सोच कर वह चुप रह जाता कि प्रतिमा शहर वाली औरत है और इस तरह अपनो के गले लग जाना शायद उसके लिए आम बात है। ऐसे ही एक दिन बातों बातों में प्रतिमा ने विजय सिंह से कहा__"हम दोनो देवर भाभी इतने दिनों से खुशी खुशी हॅसते बोलते रहे और फिर एक दिन मैं चली जाऊॅगी शहर। वहाॅ मुझे ये सब बहुत याद आएगा। मुझे तुम्हारे साथ यहाॅ इस तरह हॅसना बोलना और मज़ाक करना बहुत अच्छा लग रहा है। रात में भी मैं तुम्हारे बारे में ही सोचती रहती हूॅ। ऐसा लगा करता है विजय कि कितनी जल्दी सुबह हो और फिर कितनी जल्दी मैं दोपहर में तुम्हारे लिए खाना लेकर जाऊॅ? हाय ये क्या हो गया है मुझे? क्यों मैं तुम्हारी तरफ इस तरह खिंची चली आती हूॅ विजय? क्या तुमने मुझ पर कोई जादू कर दिया है?"

प्रतिमा की ये बातें सुन कर विजय सिंह को ज़बरदस्त झटका लगा। उसकी तरफ देखते हुए इस तरह खड़ा रह गया था जैसे किसी ने उसे पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया हो। मनो मस्तिष्क में धमाके से हो रहे थे उसके। जबकि उसकी हालत से बेख़बर प्रतिमा कहे जा रही थी___"इन चंद दिनों में ये कैसा रिश्ता बन गया है हमारे बीच? तुम्हारा तो पता नहीं विजय लेकिन मुझे अपने अंदर का समझ आ रहा है। मुझे लगता है कि मुझे तुमसे प्रेम हो गया है। हे भगवान! कोई और सुने तो क्या कहे? प्लीज़ विजय मुझे ग़लत मत समझना। ऐसा हो जाता है कि कोई हमें अच्छा लगने लगता है और उससे प्यार हो जाता है। कसम से विजय मुझे इसका पता ही नहीं चला।"

विजय सिंह के दिलो दिमाग़ होने वाले धमाके अब और भी तेज़ हो गए थे। प्रतिमा का एक एक शब्द पिघले हुए शीशे की तरह उसके हृदय पर पड़ रहा था। उसकी हालत देखने लायक हो गई थी। चेहरे पर बारह क्या पूरे के पूरे चौबीस बजे हुए थे। पसीने से तर चेहरा जिसमें हल्दी सी पुती हुई थी।

सहसा प्रतिमा ने उसे ध्यान से देखा तो बुरी तरह चौंकी। उसे पहले तो समझ न आया कि विजय सिंह की ये अचानक ही क्या हो गया है फिर तुरंत ही जैसे उसके दिमाग़ की बत्ती जल उठी। उसे समझते देर न लगी कि उसकी इस हालत का कारण क्या है? एक ऐसा इंसान जिसे रिश्तों की क़दर व उसकी मान मर्यादाओं का बखूबी ख़याल हो तथा जो कभी भी किसी कीमत पर किसी पराई औरत के बारे में ग़लत ख़याल तक न लाता हो उसकी हालत ये जान कर तो ख़राब हो ही जाएगी कि उसकी अपनी भाभी उससे प्रेम करती है। ये बात उससे कैसे पच सकती थी भला? अभी तक जितना कुछ हो रहा था वही उससे नहीं पच रहा था तो फिर इतनी संगीन बात भला कैसे पच जाती?

"वि विजय।" प्रतिमा ने उसे उसके कंधों से पकड़ कर ज़ोर से झकझोरा___"ये ये क्या हो क्या हो गया है तुम्हें?"

प्रतिमा के झकझोरने पर विजय सिंह बुरी तरह चौंका। उसके मनो मस्तिष्क ने तेज़ी से काम करना शुरू कर दिया। अपने नज़दीक प्रतिमा को अपने दोनो कंधे पकड़े देख वह तेज़ी से पीछे हट गया। इस वक्त उसके चेहरे पर बहुत ही अजीब से भाव गर्दिश करते नज़र आने लगे थे।

"विजय क्या हुआ तुम्हें?" प्रतिमा ने चकित भाव से कहा___"देखो विजय मुझे ख़लत मत समझना। इसमे मेरी कोई ग़लती नहीं है।"
"ये ये अच्छा नहीं हुआ भाभी।" विजय सिंह ने आहत भाव से कहा___"आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं? जबकि आपको पता है कि ऐसा सोचना भी पाप है?"

"मैं जानती हूॅ विजय।" प्रतिमा ने दुखी होने की ऐक्टिंग की, बोली___"मुझे पता है कि ऐसा सोचना भी ग़लत है। लेकिन ये कैसे हुआ मुझे नहीं पता विजय। शायद इतने दिनों से एक साथ हॅसने बोलने से ऐसा हुआ है। तुम्हारी मासूमियत, तुम्हारा भोलापन तथा तुम्हारी अच्छाईयाॅ मेरे दिलो दिमाग़ में उतरती चली गईं हैं। किसी के लिए दिल में भावनाएॅ जाग जाना भला किसके अख्तियार में होता है? ये तो दिल का दखल होता है। उसे जो अच्छा लगता उसके लिए धड़कने लगता है। इसका पता इंसान को तब चलता है जब उसका दिल अंदर से अपने महबूब के लिए बेचैन होने लगता है। वही मेरे साथ हुआ है विजय। कदाचित तुम मेरे इस नादान व नासमझ दिल को भा गए इस लिए ये सब हो गया।"

"आप जाइये भाभी यहाॅ से।" विजय सिंह ने कहा___"इस बात को यहीं पर खत्म कर दीजिए। अगर आपको अपने अंदर का पता चल गया है तो अब आप वहीं पर रुक जाइए। अपने क़दमों को रोंक लीजिए। मैं आपके विनती करता हूॅ भाभी। कृपया आप जाइये यहाॅ से।"

"इतनी कठोरता से मुझे जाने के लिए मत कहो विजय।" प्रतिमा ने मगरमच्छ के आॅसू छलका दिये, बोली___"तुम भी समझ सकते हो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। और अपने क़दमों को रोंकना इतना आसान नहीं होता। ये प्रेम बड़ा अजीब होता है विजय। ये किसी की नहीं सुनता, खुद अपनी भी।"

"मैं कुछ सुनना नहीं चाहता भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"मैं सिर्फ इतना जानता हूॅ कि ये ग़लत है और मैं ग़लत चीज़ों के पक्ष में कभी नहीं हो सकता। आप भी इस सबको अपने ज़हन से निकाल दीजिए और हो सके तो कभी भी मेरे सामने मत आइयेगा।"

"ऐसा तुम कैसे कह सकते हो विजय?" प्रतिमा ने रोने का नाटक किया__"मैने इतना बड़ा गुनाह तो नहीं किया है जिसकी सज़ा तुम इस तरह दे रहे हो? प्रेम तो हर इंसान से होता है। क्या देवर भाभी के बीच प्रेम नहीं हो सकता? बिलकुल हो सकता है विजय...प्रेम तो वैसे भी सबसे पाक होता है।"

"ये सब किताबी बातें हैं भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"आज के युग में प्रेम की परिभाषा कुछ और ही हो गई है। अगर नहीं होती तो आपको अपने पति के अलावा किसी और से प्रेम नहीं होता। प्रेम तो वही है जो किसी एक से ही एक बार होता है और फिर ताऊम्र तक वह सिर्फ उसी का होकर रहता है। किसी दूसरे के बारे में उसके दिल में विचार ही नहीं उठता कभी।"

"ये सबके सोचने का नज़रिया है विजय कि वो प्रेम के बारे में कैसी परिभाषा को मानता है और समझता है?" प्रतिमा ने कहा___"मेरा तो मानना ये है कि प्रेम बार बार होता है। दिल भले ही हज़ारों बार टूट कर बिखर जाए मगर वह प्रेम करना नहीं छोंड़ता। वह प्रेम करता ही रहता है।"

"सबकी अपनी सोच होती है भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"लोग अपने मतलब के लिए ग़लत को भी सही ठहरा देते हैं और उसे साबित भी कर देते हैं। मगर मेरी सोच ऐसी नहीं है। मेरे दिल में मेरी पत्नी के अलावा कोई दूसरा आ ही नहीं सकता। मैं उससे बेइंतहां प्रेम करता हूॅ, उसे से मरते दम वफ़ा करूॅगा। किसी और से मुझे वैसा प्रेम हो ही नहीं सकता। प्रेम में सिर्फ दिल का ही नहीं दिमाग़ का भी दखल होना ज़रूरी है। मन में दृढ़ संकल्पों का होना भी ज़रूरी है। अगर ये सब है तो आपको किसी दूसरे प्रेम हो ही नहीं सकता।"

"हो सकता किसी और के पास तुम्हारे जैसी इच्छा शक्ति या दृढ़ संकल्प न हो।" प्रतिमा ने कहा___"और वह मेरे जैसे ही किसी दूसरे से भी प्रेम कर बैठे।"
"तो मैं यही कहूॅगा कि उसका वो प्रेम निम्न दृष्टि का है।" विजय सिंह ने कहा___"जो अपने पहले प्रेमी के लिए वफ़ा नहीं कर सका वह अपने दूसरे प्रेमी के साथ भी वफ़ा नहीं कर सकेगा। क्योंकि संभव है कि कभी ऐसा भी समय आ जाए कि उसे किसी तीसरे इंसान से भी प्रेम हो जाए। तब उसके बारे में क्या कहा जाएगा? सच्चा प्रेम और सच्ची वफ़ा तो वही है भाभी जो सिर्फ अपने पहले प्रेमी से ही की जाए। उसी हो कर रह जाए।"
प्रतिमा को समझ ना आया कि अब वह विजय से क्या कहे? ये बात तो वह खुद भी समझती थी कि विजय ठीक ही कह रहा है। किन्तु उसे तो विजय को फाॅसना था इस लिए भला कैसे वह हार मान लेती? ये दाॅव बेकार चला गया तो कोई दूसरा दाॅव सही।

"तो तुम ये कहना चाहते हो कि मैं तुम्हारे बड़े भइया और अपने पति के लिए वफ़ादार नहीं हूॅ? प्रतिमा ने कहा___"क्योंकि मुझे उनके अलावा तुमसे प्रेम हुआ?"
"मैं किसी एक के लिए नहीं कह रहा भाभी बल्कि हर किसी के लिए कह रहा हूॅ।" विजय सिंह ने कहा___"क्योंकि मेरी सोच यही है। मैं इस जीवन में सिर्फ एक का ही होकर रहना चाहता हूॅ और भगवान से ये प्रार्थना भी करता हूॅ वो अगले जन्मों में भी मुझे मेरी गौरी का ही रहने दे।"

"ठीक है विजय।" प्रतिमा ने सहसा पहलू बदला___"मैं तुमसे ये नहीं कह रही कि तुम गौरी को छोंड़ कर मुझसे प्रेम करो। किन्तु इतना ज़रूर चाहती हूॅ कि मुझे खुद से इस तरह दूर रहने की सज़ा न दो। मैं तुमसे कभी कुछ नहीं मागूॅगी बस दिल के किसी कोने में मेरे लिए भी थोड़ी जगह बनाए रखना।"

"ऐसा कभी नहीं हो सकता भाभी।" विजय सिंह दृढ़ता से कहा___"क्योंकि ये रिश्ता ही मेरी नज़र में ग़लत है और ग़लत मैं कर नहीं सकता। हाॅ आप मेरी भाभी हैं और मेरे लिए पूज्यनीय हैं इस लिए इस रिश्ते के लिए हमेशा मेरे अंदर सम्मान की भावना रहेगी। देवर भाभी के बीच जिस तरह का स्नेह होता है वो भी रहेगा। मगर वो नहीं जिसकी आप बात कर रही हैं।"

"ऐसा क्यों कह रहे हो विजय?" प्रतिमा ने रुआॅसे भाव की ऐक्टिंग की___"क्या मैं इतनी बुरी लगती हूॅ तुम्हें? क्या मैं इस काबिल भी नहीं कि तुम्हारा प्रेम पा सकूॅ?"

"ऐसी बातें आपको करनी ही नहीं चाहिए भाभी।" विजय सिंह ने बेचैनी से पहलू बदला___"आप मुझसे बड़ी हैं हर तरह से। आपको खुद समझना चाहिए कि ये ग़लत है। जानते बूझते हुए भी आप ग़लत राह पर चलने की बात कर रही हैं। जबकि आपको करना ये चाहिए कि आप खुद को समझाएॅ और इससे पहले कि हालात बिगड़ जाएॅ आप उस माहौल से जल्द से जल्द निकल जाइये।"

प्रतिमा की सारी कोशिशें बेकार रहीं। विजय सिंह को तो जैसे उसकी कोई बात ना माननी थी और ना ही माना उसने। थक हार कर प्रतिमा वहाॅ से हवेली लौट आई थी। हवेली में उसने अपने पति से आज की सारी महाभारत बताई। उसकी सारी बातें सुन कर अजय सिंह हैरान रह गया। उसे समझ न आया कि उसका भाई आख़िर किस मिट्टी का बना हुआ है? किन्तु आज की बातों से कहीं न कहीं उसे ये उम्मीद ज़रूर जगी कि आज नहीं तो कल विजय सिंह प्रतिमा के सामने अपने हथियार डाल ही देगा। अगले दिन जब प्रतिमा फिर से विजय के लिए टिफिन तैयार करने किचेन में गई तो गौरी को उसने किचेन में टिफिन तैयार करते देखा।

"अब कैसी तबीयत है गौरी?" प्रतिमा ने किचेन में दाखिल होते हुए पूछा था।
"अब ठीक हूॅ दीदी।" गौरी ने पलट कर देखते हुए कहा___"इस लिए मैने सोचा कि उनके लिए टिफिन तैयार करके खेतों पर चली जाऊॅ।"

"अरे तुम अभी थोड़े दिन और आराम करो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"अभी अभी तो ठीक हुई हो। बाहर बहुत तेज़ धूप और गर्मी है। ऐसे में फिर से बीमार हो जाओगी तुम। मैं तो रोज़ ही विजय को खाना दे आती हूॅ। लाओ मुझे मैं देकर आती खाना विजय को।"

"अरे अब मैं बिलकुल ठीक हूॅ दीदी।" गौरी ने कहा___"आप चिन्ता मत कीजिए। दो चार दिन से आराम ही तो कर रही थी मैं।"
"अरे तो अभी और कुछ दिन आराम कर लो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"और वैसे भी मैं कुछ दिनों बाद चली जाऊॅगी क्योंकि बच्चों के स्कूल खुलने वाले हैं। मुझे अच्छा लगता है खेतों में। वहाॅ पर आम के बाग़ों में कितनी मस्त हवा लगती है। कितना सुकून मिलता है वहाॅ। मैं तो विजय को खाना देने के बाद वहीं चली जाती हूॅ और वहीं पर पेड़ों की घनी छाॅव में बैठी रहती हूॅ। यहाॅ से तो लाख गुना अच्छा है वहाॅ।"

"हाॅ ये तो आपने सही कहा दीदी।" गौरी ने मुस्कुरा कर कहा___"वहाॅ की बात ही अलग है। इसी लिए तो मैं दिन भर वहीं उनके पास ही रहती हूॅ।"
"तुम तो हमेशा ही रहती हो गौरी।" प्रतिमा ने मुस्कुरा कर कहा__"और वहीं पर तुम दोनो मज़ा भी करते हो। है ना??"
"क्या दीदी आप भी कैसी बातें करती हैं?" गौरी ने शरमा कर कहा___"ये सब खेतों में थोड़ी न अच्छा लगता है।"

"ख़ैर छोड़ो।" प्रतिमा ने कहा___"दो चार दिन बचे हैं तो मुझे वहाॅ की ठंडी छाॅव का आनन्द ले लेने दो। उसके बाद तुम जाती रहना।"
"हाॅ तो ठीक है न दीदी।" गौरी ने कहा__"हम दोनो चलते हैं और वहाॅ की ठंडी छाॅव का आनंद लेंगे।"

"तुम अभी अभी बीमारी से बाहर आई हो गौरी।" प्रतिमा ने कहा___"इस लिए तुम्हें अभी इतनी धूप में बाहर नहीं निकलना चाहिए। मैं तुम्हारे स्वास्थ के भले के लिए ही कह रही हूॅ और तुम हो ज़िद किये जा रही हो? अपनी दीदी का बिलकुल भी कहा नहीं मान रही हो तुम। या फिर तुम्हारी नज़र में मेरी कोई अहमियत ही नहीं है। ठीक है गौरी करो जो तुम्हें अच्छा लगे।"

"अरे नहीं दीदी।" गौरी ने जल्दी से कहा___"आपकी अहमियत तो बहुत ज्यादा है हम सबकी नज़र में। मैं तो बस इस लिए कह रही थी कि आप इतने दिनों से धूप और गर्मी में परेशान हो रही हैं। और भला मैं कैसे आपकी बात टाल सकती हूॅ दीदी? मुझे तो बेहद खुश हूॅ कि आप मेरे हित की बारे में सोच रहीं हैं।"

"तो फिर लाओ वो टिफिन मुझे दो।" प्रतिमा ने जो इमोशनली उसे ब्लैकमेल किया था उसमें वह सफल हो गई थी, बोली___"मैं विजय को खाना देने जा रही हूॅ और तुम अभी आराम करो अपने कमरे में।"
"जी ठीक है दीदी।" गौरी ने मुस्कुरा कहा और टिफिन प्रतिमा को पकड़ा दिया। प्रतिमा टिफिन लेकर किचेन से बाहर निकल गई। जबकि गौरी खुशी खुशी ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।

प्रतिमा जब खेतों पर पहुॅची तो वहाॅ का माहौल देख कर उसके सारे अरमानों पर पानी फिर गया। दरअसल आज पिछले दिनों के विपरीत विजय सिंह खेतों पर अकेला नहीं था। बल्कि उसके साथ कई मजदूर भी खेतों पर आज नज़र आ रहे थे। कदाचित विजय सिंह को अंदेशा था कि प्रतिमा आज भी उसके लिए टिफिन लेकर आएगी और फिर यहाॅ पर वह फिर से अपने प्रेम का बेकार ही राग अलापने लगेगी। इस लिए विजय सिंह ने कुछ मजदूरों को कल ही बोल दिया था कि वो अपने लिए दोपहर का खाना घर से ही ले आएॅगे और यहीं पर खाएॅगे। विजय सिंह के कहे अनुसार कई मजदूर आज यहीं पर थे।

प्रतिमा ये सब देख कर अंदर ही अंदर जल भुन गई थी। उसे विजय सिंह से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। वह तो उसे निहायत ही शान्त और भोला समझती थी। किन्तु आज उसे भोले भाले विजय ने अपना दिमाग़ चला दिया था जिसका असर ये हुआ था कि प्रतिमा अब कुछ नहीं कर सकती थी।

प्रतिमा जैसे ही मकान के पास पहुॅची तो एक मजदूर उसके पास आया और बड़े अदब से बोला___"मालकिन, मॅझले मालिक हमका बोले कि आपसे उनके खाने का टिफिनवा ले आऊॅ। काह है ना मालकिन आज मॅझले मालिक हम मजदूरों के साथ ही खाना खाय चाहत हैं। ई हमरे लिए बहुतै सौभाग्य की बात है। दीजिए मालकिन या टिफिनवा हम ले जात हैं।"

प्रतिमा भला क्या कह सकती थी। वह तो अंदर ही अंदर जल कर खाक़ हुई जा रही थी। उसने आए हुए मजदूर को टिफिन पकड़ाया और पैर पटकते हुए मकान के अंदर चली गई और कमरे में जाकर चारपाई पर पसर गई। गुस्से से उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया था।
 
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अपडेट.........《 32 》

"ये तुमने अच्छा नहीं किया विजय।" प्रतिमा खुद से ही बड़बड़ा रही थी___"तुम जिस चीज़ को अपनी समझदारी या होशियारी समझ रहे हो वो दरअसल मेरा अपमान है। तुम दिखाना चाहते हो कि तुम्हारी नज़र में मेरी कोई अहमियत ही नहीं है। कितना अपने प्रेम का मैने तुमसे कल रोना रोया था किन्तु तुमने उसे ठुकरा दिया ये कह कर कि ये ग़लत है। अरे सही ग़लत आज के युग में कौन देखता है विजय? चार दिन का जीवन है उसे हॅस खुशी और आनंद के साथ जियो। मगर तुम तो सच्चे प्रेम का राग अलापे जा रहे हो। क्या है इस सच्चे प्रेम में? बताओ विजय क्या हासिल कर लोगे इस सच्चे प्रेम में? अरे एक ही औरत के पल्लू में बॅधे हो तुम। ये कैसा प्रेम है जिसने तुम्हें बाॅध कर रखा हुआ है?"

जाने कितनी ही देर तक प्रतिमा यूॅ ही बड़बड़ाती रही और ऐसे ही सो गई वह। फिर जब उसकी नीद खुली तो हड़बड़ा कर चारपाई से उठी वह। अभी वह उठ कर कमरे से बाहर ही जाने वाली थी कि तभी विजय किसी काम से कमरे में आ गया।

कमरे में अपनी भाभी को देख कर विजय सिंह हैरान रह गया। उसने तो सोचा था कि प्रतिमा उसी समय वापस चली गई होगी किन्तु यहाॅ तो वह अभी भी है। प्रतिमा को देखकर विजय हैरान हुआ फिर जल्द बाहर जाने के लिए पलटा।

"रुक जाओ विजय।" प्रतिमा ने सहसा ठंडे स्वर में कहा___"क्या समझते हो तुम अपने आपको? क्या सोच कर तुमने यहाॅ मजदूरों को बुलाया हुआ था बताओ?"

"क कुछ भी तो नहीं भाभी।" विजय सिंह हड़बड़ा गया था___"मैंने उन्हें नये फलों की फसल के बुलाया था। ताकि खेतों को उनके लिए तैयार किया जा सके।"

"झूठ मत बोलो विजय।" प्रतिमा ने आवेश मेः कहा___"मुझे अच्छी तरह पता है कि तुमने मजदूरों को यहाॅ दोपहर में क्यों बुलाया था? तुम समझते थे कि तुम्हें हर दिन की तरह यहाॅ अकेले देख कर मैं फिर से अपने प्रेम की बातें तुमसे करूॅगी। इसी सबसे बचने के लिए तुमने ये सब किया है ना?"

"आप बेवजह बातें बना रही हैं भाभी।" विजय सिंह ने कहा___"जबकि सच्चाई यही है कि मैने फलों की फसल के लिए ही मजदूरों को यहाॅ बुलाया है।"
"झूठ, सरासर झूठ है ये।" प्रतिमा एक झटके से चारपाई से उठ कर विजय के पास आ गई, फिर बोली___"जो इंसान हमेशा सच बोलता है वो अगर कभी किसी वजह से झूठ बोले तो उसका वह झूठ तुरंत ही पकड़ में आ जाता है विजय। मैं कोई अनपढ़ गवार नहीं हूॅ बल्कि कानून की पढ़ाई की है मैने। मनोविज्ञान का बारीकी से अध्ययन किया है मैने। मैं पल में बता सकती हूॅ कि कौन ब्यक्ति कब झूठ बोल रहा है?"

"चलिये मान लिया कि यही सच है।" विजय सिंह ने कहा___"यानी मैने आपसे बचने के लिए ही मजदूरों को यहाॅ बुलाया था। तब भी क्या ग़लत किया मैने? मैने तो वही किया जो ऐसी परिस्थिति में किसी समझदार आदमी को करना चाहिए। मैं वो नहीं सुनना चाहता और ना ही होने देना चाहता जो आप कहना या करना चाहती हैं। मैने कल भी आपसे कहा था कि ये ग़लत है और हमेशा यही कहता भी रहूॅगा। मैं ख़ैर अनपढ़ ही हूॅ लेकिन आप तो पढ़ी लिखी हैं न? आपको तो रिश्तों के बीच के संबंधों का अच्छी तरह पता होगा कि किन रिश्तों के बीच किन रिश्तों को देश समाज सही ग़लत अथवा जायज़ नाजायज़ ठहराता है? अगर पता है तो फिर ये सब सोचने व करने का क्या मतलब हो सकता है? आपको तो पता है कि आपके दिल में मेरे प्रति क्या है तो क्यों नहीं उसे निकाल देती आप? क्यों रिश्तों के बीच इस पाप को थोपना चाहती हैं आप?"

"किस युग में तुम जी रहे हो विजय किस युग में?" प्रतिमा ने कहा___"आज के युग के अनुसार जीना सीखो। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। तुम भी प्रकृति के नियमों के अनुसार खुद को बदलो। जो समय के साथ नहीं बदलता उसे वक्त बहुत पीचे छोंड़ देता है।"

"अगर परिवर्तन इसी चीज़ के लिए होता है तो माफ़ करना भाभी।" विजय ने कहा__"मुझे आज के इस युग के अनुसार खुद को बदलना गवारा नहीं है। वक्त मुझे पीछे छोंड़ कर कहाॅ चला जाएगा मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं है। मेरी आत्मा तथा मेरा ज़मीर जिस चीज़ को स्वीकार नहीं कर रहा उस चीज़ को मैं किसी भी कीमत पर अपना नहीं सकता। अब आप जा सकती हैं, क्योंकि इससे ज्यादा मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता।"

इतना कह कर विजय बाहर की तरफ जाने ही लगा था कि प्रतिमा झट से उसके पीछे से चिपक गई और फिर दुखी होने का नाटक करते हुए बोली___"ऐसे मुझे छोंड़ कर मत जाओ विजय। मैं खुद को समझाऊॅगी इसके लिए। शायद मेरे दिल से तुम्हारा प्रेम मिट जाए। लेकिन तब तक तो हम कम से कम पहले जैसे हॅस बोल सकते है ना?"

"अब ये संभव नहीं है भाभी।" विजय ने तुरंत ही खुद को उससे अलग करके कहा__"अब हालात बदल चुके हैं। आप मुझे किसी बात के लिए मुजबूर मत कीजिए। मैं नहीं चाहता कि ये बात हमारे बीच से निकल कर घर वालों तक पहुॅच जाए।"

विजय सिंह के अंतिम वाक्यों में धमकी साफ तौर पर महसूस की जा सकती थी। प्रतिमा जैसी शातिर औरत को समझते देर न लगी कि अब इससे आगे कुछ भी करना उसके हित में नहीं होगा। इस लिए वह बिना कुछ बोले कमरे से टिफिन उठा कर हवेली के लिए निकल गई।

गर्मी में बच्चों के स्कूल की छुट्टियाॅ खत्म होने में कुछ ही दिन शेष रह गए थे। विजय सिंह शाम को हवेली आ जाता था। एक दिन ऐसे ही प्रतिमा विजय के कमरे में पहुॅच गई। उस वक्त गौरी किचेन में करुणा के साथ खाना बना रही थी। जबकि नैना सभी बच्चों को अजय सिंह वाले हिस्से में ऊपर अपने कमरें में पढ़ा रही थी। माॅ जी हमेशा की तरह अपने कमरे में थी और बाबू जी गाॅव तरफ कहीं गए हुए थे। अभय सिंह भी हवेली में नहीं था।

अपने कमरे में विजय सिंह लुंगी बनियान पहने हुए ऑख बंद किये लेटा था। तभी उसने किसी की आहट से अपने ऑखें खोली। नज़र प्रतिमा पर पड़ी तो वह बुरी तरह चौंका। एक झटके से वह बेड पर उठ कर बैठ गया। ये पहली बार था कि उसके कमरे में प्रतिमा आई थी वो भी इस तरह जबकि कमरे में वह अकेला ही था। उसे समझ न आया कि प्रतिमा यहाॅ किस लिए आई है? उसके दिल की धड़कन रेल के इंजन की तरह दौड़ रही थी। उसे डर था कि कहीं उसकी पत्नी गौरी न आ जाए। हलाॅकि इसमें इतना डरने या घबराने की बात नहीं किन्तु उनके बीच हालात ऐसे थे कि हर बात से डर लग रहा था उसे।

"क्या कर रहे हो विजय?" प्रतिमा ने मुस्कुरा कर कहा___"मैने सोचा एक बार तुम्हारा दीदार कर लूॅ तो दिल को सुकून मिल जाए थोड़ा। कई दिन से देखा नहीं था तुम्हें तो दिल बड़ा बेचैन था। अब तो तुम्हारे लिए गौरी ही टिफिन लेकर जाती है। पता नहीं क्यों तुम मुझसे कटे कटे से रहते हो। अपनी एक झलक भी देखने नहीं देते मुझे। सच कहती हूॅ विजय, तुमको तो ज़रा भी मेरी चिन्ता नहीं है।"

"ऐसी बातें करते हुए आपको शर्म नहीं आती भाभी?" विजय सिंह को जाने क्यों आज पहली बार उस पर गुस्सा आया था, उसी गुस्से वाले लहजे में बोला___"अपनी ऊम्र का कुछ तो लिहाज कीजिए। तीन तीन बच्चों की माॅ हैं आप और इसके बाद भी मन में ऐसी फालतू बातें लिए फिरती हैं आप।"

"इश्क़ की न कोई जात होती है विजय और ना ही कोई ऊम्र होती है।" प्रतिमा ने दार्शनिकों वाले अंदाज़ में कहा___"इश्क़ तो कभी भी किसी से भी किसी भी ऊम्र में हो सकता है। मुझे एक बार फिर से इस ऊम्र में तुमसे हो गया तो क्या करूॅ मैं? ये तो मेरे दिल की ख़ता है विजय, इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है।"

"देखिये भाभी।" विजय ने कहा___"मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूॅ। और मैं चाहता हूॅ कि मेरे दिल में आपके लिए ये इज़्ज़त ऐसी ही बनी रहे। इस लिए बेहतर होगा कि आप खुद भी अपने मान सम्मान की बात सोचें। अब आप जाइये यहाॅ से।"

"इतने कठोर तो नहीं थे विजय तुम?" प्रतिमा ने उदास भाव से कहा__"हमारे बीच कितना हॅसी मज़ाक होता था पहले। कितना खुश रहते थे न हम दोनो वहाॅ खेतों पर? वो भी तो एक प्रेम ही था विजय। अगर नहीं होता तो क्या हमारे बीच वैसा हॅसना बोलना होता?"

"वो सब देवर भाभी के पाक रिश्तों का प्रेम था भाभी।" विजय ने कहा___"जबकि आज का आपका ये प्रेम उस पाक प्रेम से बहुत जुदा है।"
"कैसे जुदा है विजय?" प्रतिमा ने कहा__"वैसा ही तो है आज भी। तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि वो प्रेम इस प्रेम से बहुत जुदा है?"

"मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता भाभी।" विजय ने बेचैनी से कहा__"और अब आप जाइये यहाॅ से। मैं आपके पैर पड़ता हूॅ, कृपया जाइये यहाॅ से।"

प्रतिमा देखती रह गई विजय सिंह को। उस विजय सिंह को जिसके इरादे तथा जिसके संकल्प किसी फौलाद से भी ज्यादा ठोस व मजबूत थे। कुछ देर एकटक विजय को देखने के बाद प्रतिमा वहाॅ से अंदर ही अंदर जलती भुनती चली आई।
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वर्तमान______

हल्दीपुर पुलिस स्टेशन!!
रितू अपनी पुलिस जिप्सी से नीचे उतरी और थाने के अंदर लम्बे लम्बे कदमों के साथ बढ़ गई। आस पास मौजूद पुलिस के सिपाहियों ने उसे सैल्यूट किया जिसका जबाव वह अपनी गर्दन को हल्का सा खम करते हुए दे रही थी। कुछ ही पल में वह अपने केबिन में पहुॅची और टेबल के उस पार रखी कुर्सी पर बैठ गई। तभी उसके केबिन में हवलदार रामदीन दाखिल हुआ।

"कहो रामदीन क्या रिपोर्ट है लोकेशन की?" रितू ने पूछा उससे।
"मैडम पक्की ख़बर है।" रामदीन ने कहा__"उस नेता का वो हरामी कपूत अपने फार्महाउस पर अपने कुछ लफंगे दोस्तों के साथ ऐश फरमा रहा है।"

"ख़बर पक्की है ना?" रितू ने गहरी नज़र से रामदीन की तरफ देखा।
"सौ टका पक्की है मैडम।" रामदीन ने खींसें निपोरते हुए कहा__"अपनी बेवफा बीवी की कसम।"

"बेवफ़ा बीवी???" रितू ने हैरानी से रामदीन की तरफ देखा___"ये क्या बोल रहे हो तुम रामदीन?"
"अब बेवफा को बेवफा न बोलूॅ तो और क्या बोलूॅ मैडम?" रामदीन ने सहसा दुखी भाव से कहा___"मेरा एक पड़ोसी है...नाम है चालूराम। जैसा नाम वैसा ही है वो मैडम। चालूराम बड़ी चालाकी से मेरी बीवी को फॅसा लेता है और फिर उसके साथ चालू हो जाता है। इतना ही नहीं मेरी बीवी भी उसके साथ चालू हो जाती है। इन दोनो के चालूपन ने मेरा जीना हराम कर रखा है मैडम।"

"ओफ्फो रामदीन।" रितू का दिमाग़ मानो चकरा सा गया___"ये क्या बकवास कर रहे हो तुम? कौन चालूराम और कैसा चालूपन?"
"जाने दीजिए मैडम।" रामदीन ने गहरी साॅस ली___"मेरी तो बड़ी दुखभरी दास्तां है।"

"अच्छा छोड़ो ये सब।" रितू ने कहा___"दो चार हवलदार को लो हाथ में और मेरे साथ चलो जल्दी।"
"जी मैडम।" रामदीन ने नाटकीय अंदाज़ में सैल्यूट बजाया और केबिन से बाहर निकल गया। उसके पीछे रितू भी बाहर आ गई।

बाहर चलते हुए रितू ने पाॅकेट से मोबाइल फोन निकाला और उसमें कोई नंबर डायल कर उसे कान से लगा लिया।

"जय हिन्द सर।" रितू ने कहा___"मुझे इमेडिएटली एक सर्च वारंट चाहिए।"
"............"
"आप फिक्र मत कीजिए सर।" रितू कह रही थी____"मैं सब सम्हाल लूॅगी। आप बस दो मिनट के अंदर मुझे वारंट का काग़ज फैक्स कर दीजिए।"

"..............."
"डोन्ट वरी सर।" रितू ने कहा___"आई विल हैण्डल इट।"
"............"
"जय हिन्द सर।" रितू ने कहा और काल डिस्कनेक्ट करके मोबाइल पुनः पाॅकेट में डाल लिया।
ठीक दो मिनट बाद ही फैक्स मशीन से एक कागज़ निकला। रितू के इशारे पर वहीं खड़े रामदीन ने उस कागज़ को फैक्स मशीन से लेकर रितू को पकड़ा दिया। रितू ने ध्यान से कागज़ में लिखे मजमून को देखा और फिर उसे फोल्ड करके पाॅकेट में डाल लिया।

"रामदीन सबको लेकर मेरे साथ चलो।" रितू ने कहा थाने के बाहर खड़ी जिप्सी के पास आ गई। ड्राईविंग सीट पर खुद बैठी वह। चार हवलदारों के बैठते ही उसने जिप्सी को स्टार्ट कर मेन रोड की तरफ दौड़ा दिया।

लगभग आधे घंटे बाद वह हल्दीपुर की आबादी से बाहर दूर बने एक फार्महाउस के पास पहुॅची। यहाॅ पर रोड के दोनो साइड कई सारे फार्महाउस बने हुए थे। किन्तु रितू की जिप्सी जिस फार्महाउस के गेट के पास रुकी उस पर चौधरी फार्महाउस लिखा हुआ था तथा नाम के नीचे फार्महाउस का नंबर पड़ा था।

फार्महाउस के गेट पर दो बंदूखधारी गार्ड तैनात थे। पुलिस जिप्सी को देखते ही वो दोनो चौंके साथ ही दोनो के चेहरे सफेद फक्क भी पड़ गए। रितू जिप्सी से उतर कर तुरंत उन दोनो के करीब पहुॅची। तब तक चारो हवलदार भी आ चौके थे।

एकाएक ही जैसे बिजली सी चमकी। पलक झपकते ही दोनो बंदूखधारियों के कंठ से घुटी घुटी सी चीख निकली और वो लहरा कर वहीं ज़मीन पर गिर पड़े। वो दोनो बेहोश हो चुके थे। ये सब इतनी तेज़ी से हुआ था कि कोई कुछ समझ भी न पाया था कि ये सब कब और कैसे हो गया। हुआ यूॅ था कि रितू उनके पास पहुॅची और बिना कोई बात किये बिजली की सी तेज़ी से उसने अपने दोनो हाॅथों को कराटे की शक्ल देकर दोनो बंदूखधारियों की कनपटी पर बिजली की स्पीड से प्रहार किया था। वो दोनो कुछ समझ ही नहीं पाए थे और ना ही उन्हें इस सबकी कोई उम्मीद थी।

"इन दोनो की बंदूखों को अपने कब्जे में ले लो।" रितू ने आदेश दिया___"और उसके बाद इन दोनो को उठा कर जिप्सी में डाल दो।"

रितू के आदेश का फौरन ही पालन हुआ। चारो हवलदार अभी तक हैरान थे कि उनकी मैडम ने पलक झपकते ही दो दो बंदूखधारियों को अचेत कर दिया। बेचारे क्या जानते थे कि बला की खूबसूरत ये लड़की कितनी खतरनाक भी है।

सब कुछ होने के बाद चारो हवलदार तेज़ी से गेट के अंदर की तरफ दौड़े क्योंकि रितू तब तक गेट के अंदर जा चुकी थी। फार्महाउस काफी बड़ा था और काफी खूबसूरत भी। हर तरफ रंग बिरंगे फूलों की क्यारियाॅ लगी हुई थी तथा एक से बढ़ एक देशी विदेशी पेड़ पौधे लगे हुए थे। लम्बे चौड़े लान में विदेशी घास लगी हुई थी। कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि चौधरी ने अपनी काली कमाई का अच्छा खासा उपयोग किया हुआ था।

गेट से लेकर फार्महाउस की इमारत के मुख्य द्वार तक लगभग आठ फुट चौड़ी सफेद मारबल की सड़क बनी हुई थी तथा इमारत के पास से ही लगभग बीस फुट की ही चौड़ाई पर भी इमारत के चारो तरफ मारबल लगा हुआ था। बाॅकी हर जगह लान में हरी घास, पेड़ पौधे व फूलों की क्यारियाॅ थी।

मुख्य द्वार के बगल से जो कि पोर्च का ही एक हिस्सा था वहाॅ पर दो कारें खड़ी थी इस वक्त। एक ब्लैक कलर की इनोवा थी तथा दूसरी स्विफ्ट डिजायर थी। मुख्य द्वार बंद था। रितू को कहीं पर बेल लगी हुई न दिखी। इस लिए उसने दरवाजे पर हाथ से ही दस्तक दी। किन्तु अंदर से कोई दरवाजा खोलने नहीं आया। रितू ने कई बार दस्तक दी। परंतु परिणाम वही। ऐसा तो हो ही नहीं सकता था कि अंदर कोई है ही नहीं क्योंकि बाहर खड़ी दो कारें इस बात का सबूत थी कि इनसे कोई आया है जो इस वक्त इमारत के अंदर है।

जब रितू की दस्तक का कोई पराणाम सामने नहीं आया तो उसने इमारत से थोड़ा दूर आकर इमारत की तरफ ध्यान से देखा। इमारत दो मंजिला थी। मुख्य द्वार के कुछ ही फासले पर दोनो साइड काच की बड़ी सी किन्तु ब्लैक कलर की खिड़कियाॅ थी। जिनके ऊपर साइड बरसात के मौसम में पानी की बौछार से बचने के लिए रैक बनाया गया था। मुख्य द्वार पर एक लम्बा चौड़ा पोर्च था जो दोनो तरफ की उन कान की खिड़कियों तक था। पोर्च के ऊपर का भाग खाली था उसके बाद स्टील की रेलिंग लगी हुई थी।

अभी रितू ये सब देख ही रही थी कि मुख्य द्वार खुलने की आहट हुई। रितू ने बड़ी तेज़ी से चारो हवलदारों को इमारत के बगल साईड की दीवार के पीछे छुप जाने का इशारा किया जबकि खुद मुख्य द्वार के पास पहुॅच गई।

तभी दरवाजा खुला और सबसे पहले रोहित मेहरा बाहर निकला। उसके चेहरे पर अजीब से भाव थे, वह पीछे की तरफ ही देख कर हॅसते हुए बाहर आ रहा था। उसके पीछे अलोक वर्मा व किशन श्रीवास्तव था और अंत में सूरज चौधरी था। इसका बाप दिवाकर चौधरी शहर का एम एल ए था।

"भाई तुम सब यहीं रुको मैं अपनी वाली उस राॅड को भी लेकर आता हूॅ।" रोहित मेहरा ने कहा___"साली का फोन स्विच ऑफ बता रहा है। अब तो उसे लेने ही जाना पड़ेगा। आज तो इसकी अच्छे से बजाएॅगे हम सब।"

"ठीक है जल्दी आना।" अलोक ने कहा___"तब तक हम इनके होश में लाने का प्रयास करते हैं। और हाॅ सुन........।" आगे बोलते बोलते वह रुक गया क्योंकि दरवाजे के पार खड़ी पुलिस की वर्दी पहने रितू पर उसकी नज़र पड़ गई।

"क्या हुआ बे बोलते बोलते रुक क्यों गया तू?" रोहित मेहरा हॅसा___"कोई भूत देख लिया क्या?"
"ऐसा ही समझ ले।" अलोक ने ऑखों से बाहर की तरफ इशारा किया।

उसके इशारे से सबने देखा बाहर की तरफ और पुलिस इंस्पेक्टर रितू पर नज़र पड़ते ही उन सबकी नानी मर गई। शराब और शबाब का सारा नशा हिरन हो गया उनका। किन्तु ये कुछ देर के लिए ही था अगले पल वो सब मुस्कुराने लगे।

"ले भाई तू अपनी वाली को लेने जा रहा था यहाॅ तो एक ज़बरदस्त माल खुद ही पुलिस की वर्दी में चल कर आ गया।" किशन ने हॅसते हुए कहा___"अब तुझे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। हम सब इसके साथ ही अब मज़ा करेंगे।"

"सही कह रहा है यार।" रोहित मेहरा ने रितू को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा__"क्या फाड़ू फिगर है इसका। कसम से मज़ा आ जाएगा आज तो।"
"तो फिर देर किस बात की भाई?" अलोक ने कहा___"उठा ले चल इसे अंदर।"

"ओये एक मिनट।" किशन ने कहा___"मत भूलो कि ये पुलिस वाली है। इस वक्त अकेली दिख रही है मगर संभव है इसके साथ कोई और भी पुलिस वाले हों। ऐसे में बड़ी प्रोब्लेम हो जाएगी।"

"अबे साले तू कब अपने वकील बाप की तरह सोचना बंद करेगा?" अलोक घुड़का___"ये हमारा बाल भी बाॅका नहीं कर सकती। अब चल उठा इसे और ले चल अंदर।"

रितू चुपचाप खड़ी इन सबकी बातें सुन रही थी। ये अलग बात थी कि अंदर ही अंदर वह गुस्से भभक रही थी। इधर सबसे आगे रोहित मेहरा ही था सो वही बढ़ा पहले। उसके बाद सभी दरवाजे के बाहर आ गए।

वो चारो रितू के चारो तरफ फैल गए और उसके चारो तरफ गोल गोल चक्कर लगाने लगे।

"भाई हर तरफ से पटाखा है ये तो।" अलोक ने कहा___"सूरज भाई पहले कौन इसकी ले....आहहहहहह।"

अलोक के हलक से दर्द भरी चीख गूॅज गई थी। रितु ने बिजली की सी फुर्ती से पलट कर बैक किक अलोक के सीने पर जड़ा था। किक पड़ते ही वह चीखते हुए तथा हवा में लहराते हुए पोर्च से बाहर जाकर गिरा था। रितूके सब्र का बाॅध जैसे टूट गया था। वह इतने पर ही नहीं रुकी बल्कि पलक झपकते ही बाॅकी तीनों भी पोर्च के अलग अलग हिस्सों पर पड़े कराह रहे थे।

"तुम जैसे हिजड़ों की औलादों को सुधारने के लिए मैं आ गई हूॅ।" रितू ने भभकते हुए कहा___"तुम चारों की ऐसी हालत करूॅगी कि दोबारा जन्म लेने से इंकार कर दोगे।"

"भाई ये क्या था?" किशन ने उठते हुए कहा__"ये तो लगता है करेंट मारती है। हमें इसे अलग तरीके से काबू में करना होगा।"
"सही कह रहा है तू।" अलोक ने कहा__"अब तो शिकार करने में मज़ा आएगा भाई लोग।"

"आ जाओ तुम चारो एक साथ।" रितू ने कहा___"मैंने तुम चारों का हुलिया न बिगाड़ दिया तो मेरा भी नाम रितू सिह बघेल नहीं।"
"चलो देख लेते हैं डियर।" सूरज ने पोजीशन में आते हुए कहा___"कि तुममें कोई बात है या हममें।"

चारों ने रितू को फिर से घेर लिया। किन्तु इस बार वो पूरी तरह सतर्क थे। उनकी पोजीशन से ही लग रहा था कि वो चारो जूड़ो कराटे जानते थे। रितू खुद भी पूरी तरह सतर्क थी।

चारो उसे घेरे हुए थे तथा उनके चेहरों पर कमीनेपन की मुस्कान थी। चारो ने ऑखों ही ऑखों में कोई इशारा किया और अगले ही पल चारो एक साथ रितू की तरफ झपटे किन्तु ये क्या??? वो जैसे ही एक साथ चारो तरफ से रितू पर झपटे वैसे ही रितू ने ऊपर की तरफ जम्प मारी और हवा में ही कलाबाज़ी खाते हुए उन चारों के घरे से बाहर आ गई। उसके बाहर आते ही चारो आपस में ही बुरी तरह टकरा गए। उधर रितू ने मानों उन्हें सम्हलने का मौका ही नहीं दिया बल्कि बिजली की सी स्पीड से उसने लात घूसों और कराटों की बरसात कर दी उन पर। वातावरण में चारों की चीखें गूॅजने लगी। कुछ दूरी पर खड़े वो चारो पुलिस हवलदार भी ये हैरतअंगेज कारनामा देख रहे थे।

ऐसा नहीं था कि चारो लड़के कुछ कर नहीं रहे थे किन्तु उनका हर वार खाली जा रहा था जबकि रितू तो मानो रणचंडी बनी हुई थी। जूड़ो कराटे व मार्शल आर्ट के हैरतअंगेज दाॅव आजमाए थे उसने। परिणाम ये हुआ कि थोड़ी ही देर में उन चारो की हालत ख़राब हो गई। ज़मीन में पड़े वो बुरी तरह कराह रहे थे।
 
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"क्यों सारी हेकड़ी निकल गई क्या?" रितू ने अलोक के पेट में पुलिसिये बूट की तेज़ ठोकर मारते हुए कहा___"उठ सुअर की औलाद। दिखा न अपनी मर्दानगी। साला एक पल में ही पेशाब निकल गया तेरा।"

रितू सच कह रही थी, अलोक की पैन्ट गीली हो गई थी। बूट की ठोकर लगते ही वह हलाल होते बकरे की तरह चिल्लाया था। साथ ही अपने दोनो हाॅथ जोड़कर बोला___"मुझे माफ़ कर दो प्लीज़। आज के बाद मैं ऐसा वैसा कुछ नहीं कहूॅगा।"

"कहेगा तो तब जब कहने लायक तू बचेगा भड़वे की औलाद।" रितू ने एक और ठोकर उसके पेट में जमा दी। वह फिर से चिल्ला उठा था। तभी रितू के हलक से चीख निकल गई। दरअसल उसका सारा ध्यान अलोक की तरफ था इस लिए वह देख ही नहीं पाई कि पीछे से किशन ने उसकी पीठ पर चाकू का वार कर दिया था। पुलिस की वर्दी को चीरता हुआ चाकू उसकी पीठ को भी चीर दिया था। पलक झपकते ही उसकी वर्दी उसके खून से नहाने लगाने थी।

"साली हमसे पंगा ले रही है तू।" किशन ने गुर्राते हुए कहा___"अब देख तेरी क्या हालत बनाते हैं हम?"

बड़ी हैरानी की बात थी कि कुछ ही दूरी पर खड़े चारो हवलदार तमाशा देख रहे थे। उनकी हालत ऐसी थी जैसे जूड़ी के मरीज़ हों। हाॅथों में पुलिस की लाठी लिए वो चारो डरे सहमें से खड़े थे। और उस वक्त तो उनकी हालत और भी खराब हो गई जब किशन ने पीछे से रितू की पीठ पर चाकू से वार किया था। चाकू का वार चीरा सा लगाते हुए निकल गया था, अगर किशन उसे पीठ पर ही पेवस्त कर देता तो मामला बेहद ही गंभीर हो जाता।

"रुक क्यों गया किशन?" सूरज ने उठते हुए कहा___"चीर कर रख दे इस साली की वर्दी को। यहीं पर इसे नंगा करेंगे हम और यहीं पर इसकी इज्जत लूटेंगे।"
"सूरज सही कह रहा है किशन।" रोहित भी उठ चुका था___"इसे सम्हलने का मौका मत दे और चाकू से चीर दे इसकी वर्दी को।"

किशन ने फिर से अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया रितू पर वार करने के लिए। उधर रितू की पीठ में तेज़ी से पीड़ा उठ रही थी। खून बुरी तरह रिस रहा था। जैसे ही किशन ने उस पर वार किया उसने एक हाथ से उसके वार को रोंका और दूसरे हाॅथ से एक ज़बरदस्त मुक्का उसकी नाॅक में जड़ दिया। किशन के नाॅक की हड्डी टूटने की आवाज़ आई साथ ही उसकी भयंकर चीख वातावरण में फैल गई। उसकी नाक से भल्ल भल्ल करके खून बहने लगा था। चाकू उसके हाॅथ से छूट गया और वह ज़मीन पर धड़ाम से गिरा। उधर किशन की ये हालत देख कर बाॅकी तीनो हरकत में आ गए। रितू ने तेज़ी से झुक कर ज़मीन से चाकू उठाया और जैसे ही वो तीनो उसके पास आए उसने चाकू वाला हाॅथ तेज़ी से चला दिया उन पर। सबकी चीखें निकल गई।

हालात बदल चुके थे। रितू जानती थी कि उसकी हालत खुद भी अच्छी नहीं है और अगर वह कमज़ोर पड़ गई तो ये चारो किसी कुत्ते की तरह नोच कर खा जाएॅगे। इस लिए उसने अपने दर्द की परवाह न करते हुए एक बार से उन पर टूट पड़ी और तब तक उन्हें लात घूॅसों पर रखा जब तक कि वो चारो अधमरे न हो गए।

रितू बुरी तरह हाॅफ रही थी। उसकी वर्दी पीक की तरफ से खून में नहा चुकी थी। उसे कमज़ोरी का एहसास होने लगा था।उसने दूर खड़े अपने हवलदारों की तरफ देखा जो किसी पुतलों की तरह खड़े थे। रितू को उन्हें देख कर बेहद क्रोध आया। वह तेज़ी से उनके पास पहुॅची और फिर दे दना दन थप्पड़ों की बरसात कर दी न पर। उन चारों के हलक से चीखें निकल गई।

"मैं तुमको यहाॅ पर क्या तमाशा देखने के लिए लेकर आई थी नामर्दो?" रितू किसी शेरनी की भाॅती गरजी थी, बोली___"तुम चारो यहाॅ पर खड़े बस तमाशा देख रहे थे। तुम दोनो को पुलिस में रहने का कोई हक़ नहीं है। आज और अभी से तुम चारो को ढिसमिस किया जाता है। अब दफा हो जाओ यहाॅ से और कभी अपनी शकल मत दिखाना।"

रितू की गुस्से भरी ये फातें सुनकर चारो की हालत खराब हो गई। वो चारो रितू के पैरों पर गिर कर माफ़ी मागने लगे। किन्तु रितू को उन पर इतना ज्यादा गुस्सा आया हुआ था कि उसने अपने पैरों पर गिरे उन चारों को लात की ठोकरों पर रख दिया।

"हट जाओ मेरे सामने से।" रितू ने गुर्राते हुए कहा___"तुम जैसे निकम्मों और नामर्दों की मेरे पुलिस थाने में कोई जगह नहीं है। अब दफा हो जाओ वरना तुम चारो को गोली मार दूॅगी।"

रितू का रौद्र रूप देख कर वो चारो बुरी तरह ठर गए और फिर वहाॅ से नौ दो ग्यारह हो गए। उनके जाते ही रितू ने उन चारो लड़कों को एक एक करके किसी तरह अपनी पुलिस जिप्सी पर पटका और फिर वह वापस उस जगह आई जहाॅ पर अभी कुछ देर पहले ये संग्राम हुआ था। उसने देखा कि पोर्च के फर्स पर कई जगह खून फैला हुआ था। उसने इधर उधर दृष्टि घुमा कर देखा किन्तु उसे ऐसा कुछ भी न दिखा जो उसके काम का हो। वह मुख्य द्वार से अंदर की तरफ चली गई। अंदर सामने ही एक कमरा दिखा उसे। वह उस कमरे की तरफ बढ़ गई। कमरे का दरवाजा हल्का खुला हुआ था। रितू ने अपने पैरों से दरवाजे को अंदर की तरफ धकेला। दरवाजा बेआवाज़ खुलता चला गया।

अंदर दाखिल होकर उसने देखा कि कमरा काफी बड़ा था तथा काफी शानदार तरीके से सजा हुआ था। एक कोने में बड़ा सा बेड था जिसमें तीन लड़कियाॅ मादरजाद नंगी पड़ी हुई थी। ऐसा लगता था जैसे गहरी नीद में हों। रितू ने नफ़रत से उन्हें देखा और फिर कमरे में उसने अपनी नज़रें दौड़ाईं। बगल की दीवार पर एक तस्वीर टॅगी हुई थी। तस्वीर कोई खास नहीं थी बस साधारण ही थी। रितू के मन में सवाल उभरा कि इतने अलीशान फार्महाउस पर इतनी मामूली तस्वीर कैसे रखी जा सकती है?

रितू ने आगे बढ़ कर तस्वीर को ध्यान से देखा। तस्वीर सच में कोई खास नहीं थी। रितू को जाने क्या सूझा कि उसने हाॅथ बढ़ा कर दीवार से तस्वीर को निकाल लिया। तस्वीर के निकलते ही दीवार पर एक स्विच नज़र आया। रितू ये देख कर चकरा गई। भला दीवार पर लगे स्विच के ऊपर तस्वीर को इस तरह क्यों लगाया गया होगा? क्या स्विच को तस्वीर द्वारा छुपाने के लिए??? रितू को अपना ये विचार कहीं से भी ग़लत नहीं लगा। उसने तस्वीर को एक हाॅथ से पकड़ कर दूसरे हाॅथ को दीवार पर लगे स्विच बटन को ऊपर की तरफ पुश किया। बटन को ऊपर की तरफ पुश करते ही कमरे में अजीब सी घरघराहट की आवाज़ हुई। रितू ये देख कर बुरी तरह चौंकी कि उसके सामने ही दीवार पर एक दरवाजा नज़र आने लगा था।

उसे समझते देर न लगी कि ये दिवाकर चौधरी का गुप्त कमरा है। वह धड़कते दिल के साथ कमरे में दाखिल हो गई। अंदर पहुॅच कर उसने देखा बहुत सारा कबाड़ भरा हुआ था यहाॅ। ये सब देख कर रितू हैरान रह गई। उसे समझ में न आया कि कोई कबाड़ को ऐसे गुप्त रूप से क्यों रखेगा?? रितू ने हर चीज़ को बारीकी से देखा। उसके पास समय नहीं था। क्योंकि उसकी खुद की हालत ख़राब थी। काफी देर तक खोजबीन करने के बाद भी उसे कोई खास चीज़ नज़र न आई। इस लिए वह बाहर आ गई मखर तभी जैसे उसे कुछ याद आया। वह फिर से अंदर गई। इस बार उसने तेज़ी से इधर उधर देखा। जल्द ही उसे एक तरफ की दीवार से सटा हुआ एक टेबल दिखा। टेबल के आस पास तथा ऊपर भी काफी सारा कबाड़ सा पड़ा हुआ था। किन्तु रितू की नज़र कबाड़ के बीच रखे एक छोटे से रिमोट पर पड़ी। उसने तुरंत ही उसे उठा लिया। वो रिमोट टीवी के रिमोट जैसा ही था।

रितू ने हरा बटन दबाया तो उसके दाएॅ तरफ हल्की सी आवाज़ हुई। रितू ने उस तरफ देखा तो उछल पड़ी। ये एक दीवार पर बनी गुप्त आलमारी थी जो आम सूरत में नज़र नहीं आ रही थी। रितू ने आगे बढ़ कर आलमारी की तलाशी लेनी शुरू कर दी। उसमें उसे काफी मसाला मिला। जिन्हें उसने कमरे में ही पड़े एक गंदे से बैग में भर लिया। उसके बाद उसने रिमोट से ही उस आलमारी को बंद कर दिया।

रितू उस बैग को लेकर वापस बाहर आ गई और ड्राइविंग सीट पर बैठ कर जिप्सी को फार्महाउस से मेन सड़क की तरफ दौड़ा दिया। इस वक्त उसके चेहरे पर पत्थर जैसी कठोरता तथा नफ़रत विद्यमान थी। दिलो दिमाग़ में भयंकर चक्रवात सा चल रहा था। उसकी जिप्सी ऑधी तूफान बनी दौड़ी चली जा रही थी।
अपडेट हाज़िर है दोस्तो,,,,,,,,,,,,
 
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अपडेट..........《 33 》

वर्तमान अब आगे_______

रितू की पुलिस जिप्सी जिस जगह रुकी वह एक बहुत ही कम आबादी वाला एरिया था। सड़क के दोनो तरफ यदा कदा ही मकान दिख रहे थे। इस वक्त रितू जिस जगह पर आकर रुकी थी वह कोई फार्महाउस था। जिप्सी की आवाज़ से थोड़ी ही देर में फार्महाउस का बड़ी सी बाउंड्री पर लगा लोहे का भारी गेट खुला। गेट के खुलते ही रितू ने जिप्सी को आगे बढ़ा दिया, उसके पीछे गेट पुनः बंद हो गया। जिप्सी को बड़े से मकान के पास लाकर रितू ने रोंक दिया और फिर उससे नीचे उतर गई।

रितू की हालत बहुत ख़राब हो चुकी थी। बदन में जान नहीं रह गई थी। गेट को बंद करने के बाद दो लोग भागते हुए उसके पास आए।

"अरे क्या हुआ बिटिया तुम्हें?" एक लम्बी मूॅछों वाले ब्यक्ति ने घबराकर कहा___"ये क्या हालत बना ली है तुमने? किसने की तुम्हारी ये हालत? मैं उसे ज़िन्दा नहीं छोंड़ूॅगा बिटिया।"
"काका इन सबको अंदर तहखाने में बंद कर दो।" रितू ने उखड़ी हुई साॅसों से कहा__"और ध्यान रखना किसी को इन लोगों का पता न चल सके। ये तुम्हारी जिम्मेदारी है काका।"

"वो सब तो मैं कर लूॅगा बिटिया।" काका की ऑखों में ऑसू तैरते दिखे___"लेकिन तुम्हारी हालत ठीक नहीं है। तुम्हें जल्द से जल्द हास्पिटल लेकर जाना पड़ेगा। मैं बड़े ठाकुर साहब को फोन लगाता हूॅ बिटिया।"

"नहीं काका प्लीज़।" रितू ने कहा___"जितना कहा है पहले उतना करो। मैं ठीक हूॅ..बस काकी को फस्ट एड बाक्स के साथ मेरे कमरे में भेज दीजिए जल्दी। लेकिन उससे पहले इन्हें तहखाने में बंद कीजिए।"

"ये सब कौन हैं बेटी?" एक अन्य आदमी ने पूछा___"इन सबकी हालत भी बहुत खराब लग रही है।"
"ये सब के सब एक नंबर के मुजरिम हैं शंभू काका।" रितू ने कहा___"इन लोगों बड़े से बड़ा संगीन गुनाह किया है।"

"फिर तो इनको जान से मार देना चाहिए बिटिया।" काका ने जिप्सी में बेहोश पड़े सूरज और उसके दोस्तों को देख कर कहा।
"इन्हें मौत ही मिलेगी काका।" रितू ने भभकते हुए कहा___"लेकिन थोड़ा थोड़ा करके।"

उसके बाद रितू के कहने पर उन दोनो ने उन सभी लड़को को उठा उठा कर अंदर तहखाने में ले जाकर बंद कर दिया। जबकि रितू अंदर अपने कमरे की तरफ बढ़ गई। थोड़ी ही देर में काकी फर्स्ट एड बाक्स लेकर आ गई। रितू के कहने पर काकी ने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया।

रितू ने वर्दी की शर्ट किसी तरह अपने बदन से उतारा। काकी हैरत से देखे जा रही थी।उसके चेहरे पर चिन्ता और दुख साफ दिख रहे थे।

"ये सब कैसे हुआ बिटिया?" काकी ने आगे बढ़ कर शर्ट उतारने में रितू की मदद करते हुए कहा___"देखो तो कितना खून बह गया है, पूरी शरट भींग गई है।"

"अरे काकी ये सब तो चलता रहता है।" रितू ने बदन से शर्ट को अलग करते हुए कहा__"इस नौकरी में कई तरह के मुजरिमों से पाला पड़ता रहता है।"
"अरे तो ऐसी नौकरी करती ही क्यों हो बिटिया?" काकी ने कहा___"भला का कमी है तुम्हें? सब कुछ तो है।"

"बात कमी की नहीं है काकी।" रितू ने कहा___"बात है शौक की। ये नौकरी मैं अपने शौक के लिए कर रही हूॅ। ख़ैर ये सब छोड़िये और मैं जैसा कहूॅ वैसा करते जाइये।"

कहने के साथ ही रितू बेड पर उल्टा होकर लेट गई। इस वक्त वह ऊपर से सिर्फ एक पिंक कलर की ब्रा में थी। दूध जैसी गोरी पीठ पर हर तरफ खून ही खून दिख रहा था। ब्रा के हुक के ऊपरी हिस्से पर दाएॅ से बाएं चाकू का चीरा लगा था। जो कि दाहिने कंधे के थोड़ा नीचे से टेंढ़ा बाएॅ तरफ लगभग दस इंच का था। काकी ने जब उस चीरे को देखा तो उसके शरीर में सिहरन सी दौड़ गई।

"हाय दइया ये तो बहुत खराब कटा है।" काकी ने मुह फाड़ते हुए कहा___"ये सब कैसे हो गया बिटिया? पूरी पीठ पर चीरा लगा है।"
"ये सब छोड़ो आप।" रितू ने गर्दन घुमा कर पीछे काकी की तरफ देख कर कहा___"आप उस बाक्स से रुई लीजिए और उसमे डेटाॅल डाल कर मेरी ठीठ पर फैले इस खून को साफ कीजिए।"

"पर बिटिया तुम्हें दर्द होगा।" काकी ने चिन्तित भाव से कहा___"मैं ये कैसे कर पाऊॅगी?"
"मुझे कुछ नहीं होगा काकी।" रितू ने कहा__"बल्कि अगर आप ऐसा नहीं करेंगी तो ज़रूर मुझे कुछ हो जाएगा। क्या आप चाहती हैं कि आपकी बिटिया को कुछ हो जाए?"

"नहीं नहीं बिटिया।" काकी की ऑखों में ऑसू आ गए___"ये क्या कह रही हो तुम? तुम्हें कभी कुछ न हो बिटिया। मेरी सारी उमर भी तुम्हें लग जाए। रुको मैं करती हूॅ।"

रितू काकी की बातों से मुस्कुरा कर रह गई और अपनी गर्दन वापस सीधा कर तकिये में रख लिया। काकी ने बाक्स से रुई निकाला और उसमे डेटाॅल डाल कर रितू की पीठ पर डरते डरते हाॅथ बढ़ाया। वह बहुत ही धीरे धीरे रितू की पीठ पर फैले खून को साफ कर रही थी। कदाचित वह नहीं चाहती थी कि रितू को ज़रा भी दर्द हो।

"आप डर क्यों रही हैं काकी?" सहसा रितू ने कहा___"अच्छे से हाॅथ गड़ा कर साफ कीजिये न। मुझे बिलकुल भी दर्द नहीं होगा। आप फिक्र मत कीजिए।"

रितू के कहने पर काकी पहले की अपेक्षा अब थोड़ा ठीक से साफ कर रही थी। मगर बड़े एहतियात से ही। कुछ समय बाद ही काकी ने रितू की पीठ को साफ कर दिया। किन्तु चीरा वाला हिस्सा उसने साफ नहीं किया। रितू ने उससे कहा कि वो चीरे वाले हिस्से को भी अच्छी तरह साफ करें। क्योंकि जब तक वो अच्छी तरह साफ नहीं होगा तब तक उस पर दवा नहीं लगाई जा सकती। काकी ने बड़ी सावधानी से उसे भी साफ किया। फिर रितू के बताने पर उसने बाक्स से निकाल कर एक मल्हम चीरे पर लगाया और फिर उसकी पट्टी की। चीरे वाले स्थान से जितना खून बहना था वह बह चुका था किन्तु बहुत ही हल्का हल्का अभी भी रिस रहा था। हलाॅकि अब पट्टी हो चुकी थी इस लिए रितू को आराम मिल रहा था। उसने दर्द की एक टेबलेट खा ली थी।

"अब तुम आराम करो बिटिया।" काकी ने कहा___"तब तक मैं तुम्हारे लिए गरमा गरम खाना बना देती हूॅ।
"नहीं काकी।" रितू ने कहा___"आप खाना बनाने का कस्ट न करें। बस एक कप काफी पिला दीजिए।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" काकी ने कहा और रितू के ऊपर एक चद्दर डाल कर कमरे से बाहर निकल गई। जबकि रितू ने अपनी आॅखें बंद कर ली। कुछ देर ऑखें बंद कर जाने वह क्या सोचती रही फिर उसने अपनी ऑखें खोली और बेड के बगल से ही एक छोटे से स्टूल पर रखे लैण्डलाइन फोन की तरफ अपना हाथ बढ़ाया।

रिसीवर कान से लगा कर उसने कोई नंबर डायल किया। कुछ ही पल में उधर बेल जाने की आवाज़ सुनाई देने लगी।

"हैलो कमिश्नर जगमोहन देसाई हेयर।" उधर से कहा गया।
"जय हिन्द सर मैं इंस्पेक्टर रितू बोल रही हूॅ।" रितू ने उधर की आवाज़ सुनने के बाद कहा।
"ओह यस ऑफिसर।" उधर से कमिश्नर ने कहा___"क्या रिपोर्ट है?"

"सर एक फेवर चाहिए आपसे।" रितू ने कहा।
"फेवर???" कमिश्नर चकराया__"कैसा फेवर हम कुछ समझे नहीं।"
"सर सारी डिटेल मैं आपको आपसे मिल कर ही बताऊॅगी।" रितू ने कहा___"फोन पर बताना उचित नहीं है।"

"ओकेनो प्राब्लेम।" कमिश्नर ने कहा__"अब बताओ कैसे फेवर की बात कर रही थी तुम?"
"सर मैं चाहती हूॅ कि इस केस की सारी जानकारी सिर्फ आप तक ही रहे।" रितू कह रही थी___"आप जानते हैं कि मैंने विधी के रेप केस की अभी तक कोई फाइल नहीं बनाई है। बस आपको इस बारे में इन्फार्म किया था।"

"हाॅ ये हम जानते हैं।" कमिश्नर ने कहा__"पर तुम करना क्या चाहती हो ये हम जानना चाहते हैं?"
"कल आपसे मिल कर सारी बातें बताऊॅगी सर।" रितू ने कहा___"इस वक्त मैं आपसे बस ये फेवर चाहती हूॅ कि दिवाकर चौधरी के बेटे और उसके दोस्तों के बारे में अगर आपके पास कोई बात आए तो आप यही कहिएगा कि पुलिस का इस बात से कोई संबंध नहीं है।"

"क्या मतलब??" कमिश्नर बुरी तरह चौंका था__"आख़िर तुम क्या कर रही हो ऑफिसर? उस समय भी तुमने हमसे इमेडिएटली सर्च वारंट के लिए कहा था और हमने उसका तुरंत इंतजाम भी किया। लेकिन अब तुम ये सब बोल रही हो आख़िर हुआ क्या है?"

"सर मैं आपको सारी बातें मिल कर ही बताऊॅगी।" रितूने कहा___"प्लीज़ सर ट्राई टू अंडरस्टैण्ड।"
"ओके फाइन।" कमिश्नर ने कहा__"हम कल तुम्हारा वेट करेंगे आफिसर।"
"जय हिन्द सर।" रितू ने कहा और रिसीवर वापस केड्रिल पर रख दिया।

रितू ने फिर से आॅखें बंद कर ली। तभी कमरे में काकी दाखिल हुई। उसके हाथ में एक ट्रे था जिसमें एक बड़ा सा कप रखा था। आहट सुन कर रितू ने ऑखें खोल कर देखा। काकी को देखते ही वह बड़ी सावधानी से उठ कर बेड पर बैठ गई। उसके बैठते ही काकी ने रितू को काफी का कप पकड़ाया।

काफी पीने के बाद रितू को थोड़ा बेहतर फील हुआ और वह बेड से उतर आई। आलमारी से उसने एक ब्लू कलर का जीन्स का पैन्ट और एक रेड कलर की टी-शर्ट निकाल कर उसे पहना तथा ऊपर से एक लेदर की जाॅकेट पहन कर उसने आईने में खुद को देखा। फिर पुलिस की वर्दी वाले पैन्ट से होलेस्टर सहित सर्विस रिवाल्वर निकाल कर उसे जीन्स के बेल्ट पर फॅसाया तथा आलमारी से एक रेड एण्ड ब्लैक मिक्स गाॅगल्स निकाल कर उसे ऑखों पर लगाया और फिर बाहर निकल गई।

बाहर उसे काकी दिखी। उसने काकी से कहा कि वह जा रही है। काकी उसे यूॅ देख कर हैरान रह गई। उसे समझ में न आया कि ये लड़की तो अभी थोड़ी देर पहले गंभीर हालत में थी और अब एकदम से टीम टाम होकर चल भी दी।

मकान के बाहर आकर रितू पुलिस जिप्सी की तरफ बढ़ी। वह ये देख कर खुश हो गई कि काका ने जिप्सी को अच्छे से धोकर साफ सुथरा कर दिया था। रितू को काका की समझदारी पर कायल होना पड़ा। जिप्सी को स्टार्ट कर रितू मेन गेट की तरफ बढ़ चली।

"काका उन लोगों का ध्यान रखना।" रितू ने गेट के पास खड़े काका और शंभू काका दोनो की तरफ देख कर कहा___"आज रात का खाना उन्हें नहीं देना। कल मैं दोपहर को आऊॅगी।"

"ठीक है बिटिया।" काका ने कहा__"तुम बिलकुल भी चिन्ता न करो। वो अब यहाॅ से कहीं नहीं जा पाएॅगे।"
"चलो फिर कल मिलती हूॅ आपसे।" रितू ने कहने के साथ ही जिप्सी को गेट के बाहर की तरफ निकाल दिया और मेन रोड पर आते ही जिप्सी हवा से बातें करने लगी।
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फ्लैशबैक अब आगे_______


कमरे से प्रतिमा के जाने के बाद विजय सिंह वापस अपने बिस्तर पर लेट गया। उसके ज़हन में यही ख़याल बार बार उभर रहा था कि वह अपनी भाभी का क्या करे? वह स्पष्टरूप से उससे कह चुकी थी कि वो उससे प्रेम करती है और वह अपने दिल में उसके लिए भी थोड़ी सी जगह दे। भला ऐसा कैसे हो सकता था? विजय सिंह इस बारे में सोचना भी ग़लत व पाप समझता था। उधर प्रतिमा उसकी कोई बात सुनने या मानने को तैयार ही नहीं थी। वह प्रतिमा से बहुत ज्यादा परेशान हो गया था। उसे डर था कि कहीं किसी दिन ये सब बातें उसके माॅ बाबूजी को न पता चल जाएॅ वरना अनर्थ हो जाएगा। आज वो जो मुझे सबसे अच्छा और अपना सबसे लायक बेटा समझते हैं , तो इस सबका पता चलते ही मेरे बारे में उनकी सोच बदल जाएगी। वो यही समझेंगे कि वासना और हवस के लिए मैने ही अपनी माॅ समान भाभी को बरगलाया है या फिर ज़बरदस्ती की है उनसे। कोई मेरी बात का यकीन नहीं करेगा। बड़े भइया को तो और भी मौका मिल जाएगा मेरे खिलाफ ज़हर उगलने का।

विजय सिंह ये सब सोच सोच कर बुरी तरह परेशान व दुखी भी हो रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? वह अब किसी भी सूरत में प्रतिमा के सामने नहीं आना चाहता था। उसने तय कर लिया था कि अब वह देर रात में ही खेतों से हवेली आया करेगा और अपने कमरे में ही खाना मॅगवा कर खाया करेगा।

अगले दिन से विजय की दिनचर्या यही हो गई। वह सुबह जल्दी हवेली से निकल जाता, दोपहर में गौरी उसके लिए खाना ले जाती। गौरी उसके साथ खेतों पर दिन ढले तक रहती फिर वह हवेली आ जाती जबकि विजय सिंह देर रात को ही हवेली लौटत। गौरी कई दिन से गौर कर रही थी कि विजय सिंह कुछ दिनों से कुछ परेशान सा रहने लगा है। उसने उसकी परेशानी का पूछा भी किन्तु विजय सिंह हर बार इस बात को टाल जाता। भला वह क्या बताता उसे कि वह किस वजह से परेशान रहता है आजकल?

विजय सिंह की इस दिनचर्या से प्रतिमा को अब उसके पास जाने की तो बात ही दूर बल्कि उसे देख पाने तक को नहीं मिलता था। इस सबसे प्रतिमा बेहद परेशान व नाखुश हो गई थी। अजय सिंह भी परेशान था इस सबसे। उसकी भी कोई दाल नहीं गल रही थी। गौरी के चलते प्रतिमा को खेतों पर जाने का मौका ही नहीं मिलता था। ऐसा नहीं था कि वह जा नहीं सकती थी लेकिन वह चाहती थी कि वह जब भी खेतों पर जाए तो खेतों पर गौरी न हो बल्कि वह और विजय सिंह बस ही हों वहाॅ। ताकि वह बड़े आराम से विजय पर प्रेम बाॅण चलाए।

एक दिन प्रतिमा को मौका मिल ही गया। दरअसल सुबह सुबह जब गौरी अपने कमरे के बाथरूम में नहा रही तो फर्स पर उसका पैर फिसल गया और वह बड़ा ज़ोर से गिरी थी। जिससे उसकी कमर में असह पीड़ा होने लगी थी। इस सबका परिणाम ये हुआ कि गौरी खेतों पर विजय के लिए खाना लेकर न जा सकी बल्कि प्रतिमा को जाने का सुनहरा मौका मिल गया। प्रतिमा पहले की भाॅति ही पतली साड़ी और बिना ब्रा का ब्लाउज पहना और विजय के लिए टिफिन लेकर खेतों पर चली गई।

प्रतिमा को पता था कि ये मौका उसे बड़े संजोग से मिला है इस लिए वह इस मौके को खोना नहीं चाहती थी। उसने सोच लिया था कि आज वह विजय से अपने प्रेम के लिए कुछ न कुछ तो करेगी ही। उसके पास समय भी नहीं बचा था। बच्चों के स्कूल की छुट्टियाॅ दो दिन बाद खत्म हो रही थी।

नियति को जो मंजूर होता है वही होता है। ये संजोग था कि गौरी का पैर फिसला और उसने बिस्तर पकड़ लिया जिसके कारण प्रतिमा को खेतों में जाने का अवसर मिल गया और एक ये भी संजोग ही था कि आज खेतों पर फिर कोई मजदूर नहीं था। सारी रात जुती हुई ज़मीन पर पानी लगाया और लगवाया था उसने। सुबह नौ बजे सारे मजदूर गए थे। आज के लिए सारा काम हो गया था।

प्रतिमा जब खेतों पर पहुॅची तो हर तरफ सन्नाटा फैला हुआ पाया। आस पास कोई न दिखा उसे। वह मकान के अंदर नहीं गई बल्कि आस पास घूम घूम कर देखा उसने हर तरफ। न कोई मजदूर और ना ही विजय सिंह उसे कहीं नज़र न आए। प्रतिमा को खुशी हुई कि खेतों पर कोई मजदूर नहीं है और अब वह बेफिक्र होकर कुछ भी कर सकती है।

मकान के अंदर जाकर जब वह कमरे में पहुॅची तो विजय को बिस्तर पर सोया हुआ पाया। उसके मुख से हल्के खर्राटों की आवाज़ भी आ रही थी। इस वक्त उसके शरीर पर नीचे एक सफेद धोती थी और ऊपर एक बनियान। वह पक्का किसान था। पढ़ाई छोंड़ने के बाद उसने खेतों पर ही अपना सारा समय गुज़ारा था। ये उसकी कर्मभूमि थी। यहाॅ पर उसने खून पसीना बहाया था। जिसका परिणाम ये था कि उसका शरीर पत्थर की तरह शख्त था। छः फिट लम्बा था वह तथा हट्टा कट्टा शरीर था। किन्तु चेहरे पर हमेशा सादगी विद्यमान रहती थी उसके। उसका ब्यक्तित्व ऐसा था कि गाॅव का हर कोई उसे प्रेम व सम्मान देता था।

प्रतिमा सम्मोहित सी देखे जा रही थी उसे। फिर सहसा जैसे उसे होश आया और एकाएक ही उसके दिमाग़ की बत्ती जल उठी। जाने क्या चलने लगा था उसके मन में जिसे सोच कर वह मस्कुराई। उसने टिफिन को बड़ी सावधानी से वहीं पर रखे एक बेन्च पर रख दिया और सावधानी से विजय की चारपाई के पास पहुॅची।

विजय चारपाई पर चूॅकि गहरी नींद में सोया हुआ था इस लिए उसे ये पता नहीं चला कि उसके कमरे में कौन आया है? प्रतिमा उसके हट्टे कट्टे शरीर को इतने करीब से देख कर आहें भरने लगी। उसने नज़र भर कर विजय को ऊपर से नीचे तक देखा। उसके अंदर काम वासना की अगन सुलग उठी। कुछ देर यूॅ ही ऑखों में वासना के लाल लाल डोरे लिए वह उसे देखती रही फिर सहसा वह वहीं फर्स पर घुटनों के बल बैठती चली गई। उसके हृदय की गति अनायास ही बढ़ गई थी। उसने विजय के चेहरे पर गौर से देखा। विजय किसी कुम्भकर्ण की तरह सो रहा था। प्रतिमा को जब यकीन हो गया कि विजय किसी हल्की आहट पर इतना जल्दी जगने वाला नहीं है तो उसने उसके चेहरे से नज़र हटा कर विजय की धोती यानी लुंगी के उस हिस्से पर नज़र डाली जहाॅ पर विजय का लिंग उसकी लुंगी के अंदर छिपा था। लिंग का उभार लुंगी पर भी स्पष्ट नज़र आ रहा था।

प्रतिमा ने धड़कते दिल के साथ अपने हाॅथों को बढ़ा कर विजय की लुंगी को उसके छोरों से पकड़ कर आहिस्ता से इधर और उधर किया। जिससे विजय के नीचे वाला हिस्सा नग्न हो गया। लुंगी के अंदर उसने कुछ नहीं पहन रखा था। प्रतिमा ने देखा गहरी नींद में उसका घोंड़े जैसा लंड भी गहरी नींद में सोया पड़ा था। लेकिन उस हालत में भी वह लम्बा चौड़ा नज़र आ रहा था। उसका लंड काला या साॅवला बिलकुल नहीं था बल्कि गोरा था बिलकुल अंग्रेजों के लंड जैसा गोरा। उसे देख कर प्रतिमा के मुॅह में पानी आ गया था। उसने बड़ी सावधानी से उसे अपने दाहिने हाॅथ से पकड़ा। उसको इधर उधर से अच्छी तरह देखा। वो बिलकुल किसी मासूम से छोटे बच्चे जैसा सुंदर और प्यारा लगा उसे। उसने उसे मुट्ठी में पकड़ कर ऊपर नीचे किया तो उसका बड़ा सा सुपाड़ा जो हल्का सिंदूरी रंग का था चमकने लगा और साथ ही उसमें कुछ हलचल सी महसूस हुई उसे। उसने ये महसूस करते ही नज़र ऊपर की तरफ करके गहरी नींद में सोये पड़े विजय की तरफ देखा। वो पहले की तरह ही गहरी नींद में सोया हुआ लगा। प्रतिमा ने चैन की साॅस ली और फिर से अपनी नज़रें उसके लंड पर केंद्रित कर दी। उसके हाॅथ के स्पर्श से तथा लंड को मुट्ठी में लिए ऊपर नीचे करने से लंड का आकार धीरे धीरे बढ़ने लगा था। ये देख कर प्रतिमा को अजीब सा नशा भी चढ़ता जा रहा था उसकी साॅसें तेज़ होने लगी थी। उसने देखा कि कुछ ही पलों में विजय का लंड किसी घोड़े के लंड जैसा बड़ा होकर हिनहिनाने लगा था। प्रतिमा को लगा कहीं ऐसा तो नहीं कि विजय जाग रहा हो और ये देखने की कोशिश कर रहा हो कि उसके साथ आगे क्या क्या होता है? मगर उसे ये भी पता था कि अगर विजय जाग रहा होता तो इतना कुछ होने ही न पाता क्योंकि वह उच्च विचारों तथा मान मर्यादा का पालन करने वाला इंसान था। वो कभी किसी को ग़लत नज़र से नहीं देखता था, ऐसा सोचना भी वो पाप समझता था। उसके बारे में वो जान चुका था कि वह क्या चाहती है उससे इस लिए वो हवेली में अब कम ही रहता था। दिन भर खेत में ही मजदूरों के साथ वक्त गुज़ार देता था और देर रात हवेली में आता तथा खाना पीना खा कर अपने कमरे में गौरी के साथ सो जाता था। वह उससे दूर ही रहता था। इस लिए ये सोचना ही ग़लत था कि इस वक्त वह जाग रहा होगा। प्रतिमा ने देखा कि उसका लंड उसकी मुट्ठी में नहीं आ रहा था तथा गरम लोहे जैसा प्रतीत हो रहा था। अब तक प्रतिमा की हालत उसे देख कर खराब हो चुकी थी। उसे लग रहा था कि जल्दी से उछल कर इसको अपनी चूत के अंदर पूरा का पूरा घुसेड़ ले। किन्तु जल्दबाजी में सारा खेल बिगड़ जाता इस लिए अपने पर नियंत्रण रखा उसने और उसके सुंदर मगर बिकराल लंड को मुट्ठी में लिए आहिस्ता आहिस्ता सहलाती रही।
 
Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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प्रतिमा को जाने क्या सूझी कि वह धीरे से उठी और अपने जिस्म से साड़ी निकाल कर एक तरफ फेंक दी। इतना हीं नहीं उसने अपने ब्लाउज के हुक खोल कर उसे भी अपने जिस्म से निकाल दिया। ब्लाउज के हटते ही उसकी खरबूजे जैसी भारी चूचियाॅ उछल पड़ीं। इसके बाद उसने पेटीकोट को भी उतार दिया। अब प्रतिमा बिलकुल मादरजाद नंगी थी। उसका चेहरा हवस तथा वासना से लाल पड़ गया था।

अपने सारे कपड़े उतारने के बाद प्रतिमा फिर से चारपाई के पास घुटनों के बल बैठ गई। उसकी नज़र लुंगी से बाहर उसके ही द्वारा निकाले गए विजय सिंह के हलब्बी लंड पर पड़ी। अपना दाहिना हाॅथ बढ़ा कर उसने उसे आहिस्ता से पकड़ा और फिर आहिस्ता आहिस्ता ही सहलाने लगी। प्रतिमा उसको अपने मुह में भर कर चूसने के लिए पागल हुई जा रही थी, जिसका सबूत ये था कि प्रतिमा अपने एक हाथ से कभी अपनी बड़ी बड़ी चूचियों को मसलने लगती तो कभी अपनी चूॅत को। उसके अंदर वासना अपने चरम पर पहुॅच चुकी थी। उससे बरदास्त न हुआ और उसने एक झटके से नीचे झुक कर विजय के लंड को अपने मुह में भर लिया....और जैसे यहीं पर उससे बड़ी भारी ग़लती हो गई। उसने ये सब अपने आपे से बाहर होकर किया था। विजय का लंड जितना बड़ा था उतना ही मोटा भी था। प्रतिमा ने जैसे ही उसे झटके से अपने मुह में लिया तो उसके ऊपर के दाॅत तेज़ी से लंड में गड़ते चले गए और विजय के मुख से चीख निकल गई साथ ही वह हड़बड़ा कर तेज़ी से चारपाई पर उठ कर बैठ गया। अपने लंड को इस तरह प्रतिमा के मुख में देख वह भौचक्का सा रह गया किन्तु फिर तुरंत ही वह उसके मुह से अपना लंड निकाल कर तथा चारपाई से उतर कर दूर खड़ा हो गया। उसका चेहरा एक दम गुस्से और घ्रणा से भर गया। ये सब इतना जल्दी हुआ कि कुछ देर तक तो प्रतिमा को कुछ समझ ही न आया कि ये सब क्या और कैसे हो गया? होश तो तब आया जब विजय की गुस्से से भरी आवाज़ उसके कानों से टकराई।

"ये क्या बेहूदगी है?" विजय लुंगी को सही करके तथा गुस्से से दहाड़ते हुए कह रहा था__"अपनी हवस में तुम इतनी अंधी हो चुकी हो कि तुम्हें ये भी ख़याल नहीं रहा कि तुम किसके साथ ये नीच काम कर रही हो? अपने ही देवर से मुह काला कर रही हो तुम। अरे देवर तो बेटे के समान होता है ये ख़याल नहीं आया तुम्हें?"

प्रतिमा चूॅकि रॅगे हाॅथों ऐसा करते हुए पकड़ी गई थी उस दिन, इस लिए उसकी ज़ुबान में जैसे ताला सा लग गया था। उस दिन विजय का गुस्से से भरा वह खतरनाक रूप उसने पहली बार देखा था। वह गुस्से में जाने क्या क्या कहे जा रहा था मगर प्रतिमा सिर झुकाए वहीं चारपाई के नीचे बैठी रही उसी तरह मादरजात नंगी हालत में। उसे ख़याल ही नहीं रह गया था कि वह नंगी ही बैठी है। जबकि,,,

"आज तुमने ये सब करके बहुत बड़ा पाप किया है।" विजय कहे जा रहा था__"और मुझे भी पाप का भागीदार बना दिया। क्या समझता था मैं तुम्हें और तुम क्या निकली? एक ऐसी नीच और कुलटा औरत जो अपनी हवस में अंधी होकर अपने ही देवर से मुह काला करने लगी। तुम्हारी नीयत का तो पहले से ही आभास हो गया था मुझे इसी लिए तुमसे दूर रहा। मगर ये नहीं सोचा था कि तुम अपनी नीचता और हवस में इस हद तक भी गिर जाओगी। तुममें और बाज़ार की रंडियों में कोई फर्क नहीं रह गया अब। चली जाओ यहाॅ से...और दुबारा मुझे अपनी ये गंदी शकल मत दिखाना वर्ना मैं भूल जाऊॅगा कि तुम मेरे बड़े भाई की बीवी हो। आज से मेरा और तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं...अब जा यहाॅ से कुलटा औरत...देखो तो कैसे बेशर्मों की तरह नंगी बैठी है?"

विजय की बातों से ही प्रतिमा को ख़याल आया कि वह तो अभी नंगी ही बैठी हुई है तब से। उसने सीघ्रता से अपनी नग्नता को ढॅकने के लिए अपने कपड़ों की तरफ नज़रें घुमाई। पास में ही उसके कपड़े पड़े थे। उसने जल्दी से अपनी साड़ी ब्लाउज पेटीकोट को समेटा किन्तु फिर उसके मन में जाने क्या आया कि वह वहीं पर रुक गई।

विजय की बातों ने प्रतिमा के अंदर मानो ज़हर सा घोल दिया था। जो हमेशा उसे इज्ज़त और सम्मान देता था आज वही उसे आप की जगह तुम और तुम के बाद तू कहते हुए उसकी इज्ज़त की धज्जियाॅ उड़ाए जा रहा था। उसे बाजार की रंडी तक कह रहा था। प्रतिमा के दिल में आग सी धधकने लगी थी। उसे ये डर नहीं था कि विजय ये सब किसी से बता देगा तो उसका क्या होगा। बल्कि अब तो सब कुछ खुल ही गया था इस लिए उसने भी अब पीछे हटने का ख़याल छोंड़ दिया था।

उसने उसी हालत में खिसक कर विजय के पैर पकड़ लिए और फिर बोली__"तुम्हारे लिए मैं कुछ भी बनने को तैयार हूॅ विजय। मुझे इस तरह अब मत दुत्कारो। मैं तुम्हारी शरण में हूॅ, मुझे अपना लो विजय। मुझे अपनी दासी बना लो, मैं वही करूॅगी जो तुम कहोगे। मगर इस तरह मुझे मत दुत्कारो...देख लो मैंने ये सब तुम्हारा प्रेम पाने के लिए किया है। माना कि मैंने ग़लत तरीके से तुम्हारे प्रेम को पाने की कोशिश की लेकिन मैं क्या करती विजय? मुझे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था। पहले भी मैंने तुम्हें ये सब जताने की कोशिश की थी लेकिन तुमने समझा ही नहीं इस लिए मैंने वही किया जो मुझे समझ में आया। अब तो सब कुछ जाहिर ही हो गया है,अब तो मुझे अपना लो विजय...मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए।"

"बंद करो अपनी ये बकवास।" विजय ने अपने पैरों को उसके चंगुल से एक झटके में छुड़ा कर तथा दहाड़ते हुए कहा__"तुझ जैसी गिरी हुई औरत के मैं मुह नहीं लगना चाहता। मुझे हैरत है कि बड़े भइया ने तुझ जैसी नीच और हवस की अंधी औरत से शादी कैसे की? ज़रूर तूने ही मेरे भाई को अपने जाल में फसाया होगा।"

"जो मर्ज़ी कह लो विजय।" प्रतिमा ने सहसा आखों में आॅसू लाते हुए कहा__"मगर मुझे अपने से दूर न करो। दिन रात तुम्हारी सेवा करूॅगी। मैं तुम्हें उस गौरी से भी ज्यादा प्यार करूॅगी विजय।"

"ख़ामोशशशश।" विजय इस तरह दहाड़ा था कि कमरे की दीवारें तक हिल गईं__"अपनी गंदी ज़ुबान से मेरी गौरी का नाम भी मत लेना वर्ना हलक से ज़ुबान खींचकर हाॅथ में दे दूॅगा। तू है क्या बदजात औरत...तेरी औकात आज पता चल गई है मुझे। तेरे जैसी रंडियाॅ कौड़ी के भाव में ऐरों गैरों को अपना जिस्म बेंचती हैं गली चौराहे में। और तू गौरी की बात करती है...अरे वो देवी है देवी...जिसकी मैं इबादत करता हूॅ। तू उसके पैरों की धूल भी नहीं है समझी?? अब जा यहाॅ से वर्ना धक्के मार कर इसी हालत में तुझे यहाॅ से बाहर फेंक दूॅगा।"

प्रतिमा समझ चुकी थी कि उसकी किसी भी बात का विजय पर अब कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं था। उल्टा उसकी बातों ने उसे और उसके अंतर्मन को बुरी तरह शोलों के हवाले कर दिया था। उसने जिस तरीके से उसे दुत्कार कर उसका अपमान किया था उससे प्रतिमा के अंदर भीषण आग लग चुकी थी और उसने मन ही मन एक फैंसला कर लिया था उसके और उसके परिवार के लिए।

"ठीक है विजय सिंह।" फिर उसने अपने कपड़े समेटते हुए ठण्डे स्वर में कहा था__"मैं तो जा रही हूं यहाॅ से मगर जिस तरह से तुमने मुझे दुत्कार कर मेरा अपमान किया है उसका परिणाम तुम्हारे लिए कतई अच्छा नहीं होगा। ईश्वर देखेगा कि एक औरत जब इस तरह अपमानित होकर रुष्ट होती है तो भविष्य में उसका क्या परिणाम निकलता है??"

प्रतिमा की बात का विजय सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि गुस्से से उबलती हुई ऑखों से उसे देख गर वहीं मानो हिकारत से थूॅका और फिर बाहर निकल गया। जबकि बुरी तरह ज़लील व अपमानित प्रतिमा ने अपने कपड़े पहने और हवेली जाने के लिए कमरे से बाहर निकल गई। उसके अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधक हुई उठी थी।

हवेली पहुॅच कर प्रतिमा ने अपने पति अजय सिंह से आज विजय सिंह से हुए कारनामे का सारा व्रत्तान्त मिर्च मशाला लगा कर सुनाया। उसकी सारी बातें सुन कर अजय सिंह सन्न रह गया था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि आज इतना बड़ा काण्ड हो गया है।

"मुझे उस हरामज़ादे से अपने अपमान का प्रतिशोध लेना है अजय।" प्रतिमा ने किसी ज़हरीली नागिन की भाॅति फुंकारते हुए कहा___"जब तक मैं उससे अपमान का बदला नहीं लूॅगी तब तक मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी।"

"ज़रूर डियर।" अजय सिंह ने सहसा कठोरता से कहा___"तुम्हारे इस अपमान का बदला ज़रूर उससे लिया जाएगा। आज के इस हादसे से ये तो साबित हो ही गया कि वो मजदूर हमारे झाॅसे में आने वाला नहीं है। सोचा था कि सब मिल बाॅट कर खाएॅगे और मज़ा करेंगे लेकिन नहीं उस मजदूर को तो कलियुग का हरिश्चन्द्र बनना है। इस लिए ऐसे इंसान का जीवित रहना हमारे लिए अच्छी बात नहीं है। उसके रहते हम अपनी हसरतों को पूरा नहीं कर पाएॅगे प्रतिमा। वो मजदूर हमारे रास्ते का सबसे बड़ा काॅटा है। इस काॅटे को अब जड़ से उखाड़ कर फेंकना ही पड़ेगा।"

"जो भी करना हो जल्दी करो अजय।" प्रतिमा ने कहा___"मैं उस कमीने की अब शकल भी नहीं देखना चाहती कभी। साला कुत्ता मुझे दुत्कारता है। कहता था कि मैं उसकी गौरी की पैरों की धूल भी नहीं हूॅ। मुझे रंडी बोलता है। मैं दिखाऊॅगी उसे कि मेरे सामने उसकी वो राॅड गौरी कुछ भी नहीं है। उसे सबके नीचे न लेटाया तो मेरा भी नाम प्रतिमा सिंह बघेल नहीं। उसे कोठे की नहीं बल्कि बीच चौराहे की रंडी बनाऊॅगी मैं।"

"शान्त हो जाओ प्रतिमा।" अजय सिंह ने उसे खुद से लगा लिया___"सब कुछ वैसा ही होगा जैसा तुम चाहती हो। लेकिन ज़रा तसल्ली से और सोच समझ कर बनाए गए प्लान के अनुसार। ताकि किसी को किसी बात का कोई शक न हो पाए।"

"ठीक है अजय।" प्रतिमा ने कहा___"लेकिन मैं ज्यादा दिनों तक उसे जीवित नहीं देखना चाहती। तुम जल्दी ही कुछ करो।"
"फिक्र मत करो मेरी जान।" अजय ने कुछ सोचते हुए कहा___"आज से और अभी से प्लान बी शुरू। अब चलो गुस्सा थूॅको और मेरे साथ प्यार की वादियों में खो जाओ।"

ये दोनो तो अपने प्यार और वासना में खो गए थे लेकिन उधर खेतों में विजय सिंह बोर बेल के पास बने एक बड़े से गड्ढे में था। उस गड्ढे में हमेशा बोर का पानी भरा रहता था। विजय सिंह उसी पानी से भरे गड्ढे में था। उसके ऊपर बोर का पानी गिर रहा था। वह एकदम किसी पुतले की भाॅति खड़ा था। उसका ज़हन उसके पास नहीं था। बोर का पानी निरंतर उसके सिर पर गिर रहा था।

विजय सिंह के की ऑखों के सामने बार बार वही मंज़र घूम रहा था। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अभी भी उसका लंड प्रतिमा के मुह मे हो। इस मंज़र को देखते ही उसके जिस्म को झटका सा लगता और वह ख़यालों की दुनियाॅ से बाहर आ जाता। उसका मन आज बहुत ज्यादा दुखी हो गया था। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि उसकी सगी भाभी उसके साथ ऐसा घटिया काम कर सकती है। विजय सिंह के मन में सवाल उभरता कि क्या यहीं प्रेम था उसका?

विजय सिंह ये तो समझ गया था कि उसकी भाभी ज़रा खुले विचारों वाली औरत थी। शहर वाली थी इस लिए शहरों जैसा ही रहन सहन था उसका। कुछ दिन से उसकी हरकतें ऐसी थी जिससे साफ पता चलता था कि वह विजय से वास्तव में कैसा प्रेम करती है। किन्तु विजय सिंह को उससे इस हद तक गिर जाने की उम्मीद नहीं थी। विजय सिंह को सोच सोच कर ही उस पर घिन आ रही थी कि कितना घटिया काम कर रही थी वह।

उस दिन विजय सिंह सारा दिन उदास व दुखी रहा। उसका दिल कर रहा था कि वह कहीं बहुत दूर चला जाए। किसी को अपना मुह न दिखाए किन्तु हर बार गौरी और बच्चों का ख़याल आ जाता और फिर जैसे उसके पैरों पर ज़ंजीरें पड़ जातीं।किसी ने सच ही कहा है कि बीवी बच्चे किसी भी इंसान की सबसे बड़ी कमज़ोरी होते हैं। जब आप उनके बारे में दिल से सोचते हैं तो बस यही लगता है कि चाहे कुछ भी हो जाए पर इन पर किसी तरह की कोई पराशानी न हो।

विजय सिंह हमेशा की तरह ही देर से हवेली पहुॅचा। अन्य दिनों की अपेक्षा आज उसका मन किसी भी चीज़ में नहीं लग रहा था। उसने खुद को सामान्य रखने बड़ी कीशिश कर रहा था वो। अपने कमरे में जाकरवह फ्रेश हुआ और बेड पर आकर बैठ गया।
अपडेट हाज़िर है दोस्तो,,,,,,,,
 
Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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A very good story which tells that the author has worked hard from the heart but sadly people read it quietly and leave
If every reader understands the efforts of the author and his feelings, then perhaps the morale of any writer should not be broken. Readers do not understand how hard a writer writes a story for their entertainment. It is very sad that readers read the story silently and leave without appreciating the author. Well, it is a matter of the readers' opinion and choice what they should do. The author cannot force a reader to say something about the story or appreciate the story writer after reading the story. Well leave this topic and thank you for appreciating me. :hug2:
 
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अपडेट.........《 34 》


वर्तमान अब आगे________


इंस्पेक्टर रितू उस हास्पिटल में पहुॅची जहाॅ पर रेप पीड़िता विधी को एडमिट किया गया था। विधी की हालत पहले से काफी ठीक थी। रितू के पहुॅचने के पहले ही विधी के परिवार वाले उससे मिल कर गए थे। इस वक्त विधी के पास उसकी माॅ गायत्री थी। गायत्री अपनी बेटी की इस हालत से बेहद दुखी थी।

रितू जब उस कमरे में पहुॅची तो उसने विधी के पास ही एक कुर्सी पर गायत्री को बैठै पाया। रितू ने औपचारिक तौर पर उससे नमस्ते किया और उसे अपने बारे में बताया। रितू के बारे में जानकर गायत्री पहले तो चौंकी फिर सहसा उसके चेहरे पर अजीब से भाव आ गए।

"मेरी बेटी के साथ जो कुछ हुआ है वो तो वापस नहीं लौट सकता बेटी।" गायत्री ने अधीरता से कहा___"ऊपर से इस सबका केस बन जाने से हमारी समाज में बदनामी ही होगी। इस लिए मैं चाहती हूॅ कि तुम ये केस वेस का चक्कर बंद कर दो। मैं जानती हूॅ कि इस केस में आगे क्या क्या होगा? वो सब बड़े लोग हैं बेटी। वो बड़े से बड़ा वकील अपनी तरफ से खड़ा करेंगे और बड़ी आसानी से केस जीत जाएॅगे। वो कुछ भी कर सकते हैं, वो तो जज को भी खरीद सकते हैं। अदालत के कटघरे में खड़ी मेरी फूल जैसी बेटी से उनका वकील ऐसे ऐसे सवाल करेगा जिसका जवाब देना इसके बस का नहीं होगा। वो सबके सामने मेरी बेटी की इज्ज़त की धज्जियाॅ उड़ाएंगे। ये केस मेरी बेटी के साथ ही एक मज़ाक सा बन कर रह जाएगा। इस लिए मैं तुमसे विनती करती हूॅ बेटी कि ये केस वेस वाला चक्कर छोड़ दो। हमें कोई केस वेस नहीं करना।"

"आप जिस चीज़ की कल्पना कर रही हैं आॅटी जी।" रितू ने विनम्रता से कहा__"मैं उस सबके बारे में पहले ही सोच चुकी हूॅ। मैं जानती हूॅ कि आप जो कह रही हैं वो सोलह आने सच है। यकीनन ऐसा ही होगा मगर, आप चिन्ता मत कीजिए आॅटी। विधी अगर आपकी बेटी है तो ये मेरी भी दोस्त है अब। इसके साथ जो कुछ भी उन लोगों ने घिनौना कर्म किया है उसकी उन्हें ऐसी सज़ा मिलेगी कि हर जन्म में उन्हें ये सज़ा याद रहेगी और वो अपने किसी भी जन्म में किसी की बहन बेटियों के साथ ऐसा करने का सोचेंगे भी नहीं।"

"बात तो वही हुई बेटी।" गायत्री ने कहा__"तुम उन्हें कानूनन इसकी सज़ा दिलवाओगी जबकि मैं जानती हूॅ कि उन लोगों के बाप लोगों के हाॅथ तुम्हारे कानून से भी ज्यादा लम्बे हैं। तुम उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाओगी बेटी। उल्टा होगा ये कि इस सबके चक्कर में खुद तुम्हारी ही जान का खतरा पैदा हो जाएगा।"

"मुझे अपनी जान की कोई परवाह नहीं है आॅटी।" रितू ने सहसा मुस्कुराकर कहा__"और मेरी जान इतनी सस्ती भी नहीं है जो यूॅ ही किसी ऐरे गैरे के हाॅथों शिकार हो जाएगी। खैर, मै ये कहना चाहती हूॅ कि उन लोगों को कानूनन सज़ा दिलवाने का फैसला मैने बदल दिया है।"

"क्या मतलब??" गायत्री के साथ साथ बेड पर लेटी विधी भी चौंक पड़ी थी।
"ये तो मुझे भी पता है ऑटी कि वो लोग कितने बड़े खेत की पैदाइस हैं।" रितू ने अजीब भाव से कहा___"कहने का मतलब ये कि कानूनी तौर पर यकीनन मैं उन्हें वैसी सज़ा नहीं दिला सकती जैसी सज़ा के वो लोग हक़दार हैं। इस लिए अब सज़ा अलग तरीके से दी जाएगी उन्हें। बिलकुल वैसी ही सज़ा जैसी सज़ा ऐसे नीच लोगों को देनी चाहिये।"

"तुम क्या कह रही हो बेटी मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा।" गायत्री का दिमाग़ मानो जाम सा हो गया था।
"ये सब छोंड़िये ऑटी।" रितू ने कहा__"मैं बस आपसे ये कहना चाहती हूॅ कि अगर आपसे कोई इस बारे में कुछ भी पूछे तो आप यही कहियेगा कि हमने कोई केस वगैरा नहीं किया है। ये मत कहियेगा कि मैं आपसे या विधी से मिली थी। यही बात आप विधी के डैड को भी बता दीजिएगा। मेरी तरफ से उनसे कहना कि दिल पर कोई बोझ या मलाल रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। बहुत जल्द कुछ ऐसा उन्हें सुनने को मिलेगा जिससे उनकी आत्मा को असीम तृप्ति का एहसास होगा।"

"तुम क्या करने वाली हो बेटी?" गायत्री का दिल अनायास ही ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था, बोली___"देखो कुछ भी ऐसा वैसा न करना जिससे पुनः मेरी बेटी पर कोई संकट आ जाए।"

"आप बेफिक्र रहिए ऑटी।" रितू ने गायत्री का हाथ पकड़ कर उसे हल्का सा दबाते हुए कहा___"मैं विधी पर अब किसी भी तरह का कोई संकट नहीं आने दूॅगी। मुझे भी उसकी फिक्र है।"

गायत्री कुछ बोल न सकी बस अजीब भाव से रितू को देखती रही। बेड पर लेटी विधी का भी वही हाल था। तभी कमरे में एक नर्स आई। उसने रितू से कहा कि डाक्टर साहब उसे अपने केबिन में बुला रहे हैं। रितू नर्स की बात सुनकर गायत्री से ये कह कर बाहर निकल गई कि वह डाक्टर से मिल कर आती है अभी। कुछ ही देर में रितू डाक्टर के केबिन में उसके सामने टेबल के इस पार रखी कुर्सी पर बैठी थी।

"कहिए डाक्टर साहब।" रितू ने कहा__"किस लिए आपने बुलाया है मुझे?"
"देखो बेटा।" डाक्टर ने गंभीरता से कहा__"तुम मेरी बेटी के समान हो। मैं तुमको तुम्हारे बचपन से जानता हूॅ। ठाकुर साहब से मेरे बहुत अच्छे संबंध हैं आज भी। मुझे ये जान कर बेहद खुशी हुई है कि तुम आज पुलिस आफिसर बन गई हो। लेकिन, इस केस में जिन लोखों पर तुमने हाॅथ डालने का सोचा है या सोच कर अपना कदम बढ़ा लिया है वो निहायत ही बहुत खतरनाक लोग हैं। इस लिए मैं चाहता हूॅ कि तुम इस केस को यहीं पर छोंड़ दो। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम पर कोई ऑच आए। तुम हमारे ठाकुर साहब की बेटी हो।"

"मैं आपके जज़्बातों की कद्र करती हूॅ डाक्टर अंकल।" रितू ने कहा___"लेकिन आप बेफिक्र रहिए मैने विधी के केस की कोई फाइल बनाई ही नहीं है अब तक। क्योंकि मुझे भी पता है कि जिनके खिलाफ केस बनाना है वो कैसे लोग हैं। इस लिए आप बेफिक्र रहिए।"

"ये तो अच्छी बात है बेटी।" डाक्टर ने खुश होकर कहा__"लेकिन तुम यहाॅ पर फिर आई किस लिए हो? अगर केस नहीं बनाया है तो तुम्हारे यहाॅ पर आने का क्या मतलब है? जबकि होना तो ये चाहिये कि तुम्हें इस सबसे दूर ही रहना चाहिए था।"

"इंसानियत नाम की कोई चीज़ भी होती है डाक्टर अंकल।" रितू ने कहा___"इसी लिए आई हूॅ यहाॅ। वरना यूॅ फारमल ड्रेस में न आती बल्कि पुलिस की वर्दी में आती।"
"चलो ठीक है।" डाक्टर ने कहा__"पर ड्रेस बदल देने से तुम्हारा काम तो नहीं बदल जाएगा न। आख़िर हर रूप में तो तुम पुलिस वाली ही कहलाओगी। अब अगर आरोपी के के आकाओं को पता चल जाए कि तुम यहाॅ हो तो वो तो यही समझेंगे कि तुम केस के सिलसिले में ही यहाॅ आई हो।"

"देखिए अंकल।" रितू ने कहा___"फारमेलिटी तो करनी ही पड़ती है। वरना पुलिस की नौकरी के साथ इंसाफ नहीं हो पाएगा। और इसी फाॅरमेलिटी के तहत अभी मुझे दिवाकर चौधरी से भी मिलने जाना है। मुझे पता है कि वो पुलिस को बहुत तुच्छ ही समझेगा। इस लिए उससे मिल कर मैं भी फौरी तौर पर यही कहूॅगी कि फाॅरमेलिटी तो करनी ही पड़ती है न सर। बाॅकी आप इस बात से बेफिक्र रहें कि आपके बेटे और उसके दोस्तों का कोई केस बनेगा। और केस भी तो तभी बनेगा न जब पीड़िता या उसके घरवाले चाहेंगे। अगर वो लोग ही केस नहीं करना चाहेंगे तो भला कैसे कोई केस बन जाएगा? मेरी इन सब बातों से वो खुश हो जाएगा अंकल। वो यही समझेगा कि उसके रुतबे और डर से पीड़िता या उसके घर वालों ने उसके खिलाफ़ केस करने की हिम्मत ही नहीं कर सके।"

"ओह आई सी।" डाक्टर ने कहा___"मगर मुझे ऐसा क्यों लगता है कि असल चक्कर कुछ और ही है जिसे तुम चलाने वाली हो या फिर चलाना शुरू भी कर दिया है।"
"ये सब छोड़िये आप ये बताइये कि आपने और किस लिए बुलाया था मुझे?" रितू ने पहलू बदल दिया।

"पुलिस की नौकरी में आते ही काफी शार्प दिमाग़ हो जाता है न?" डाक्टर मुस्कुराया फिर सहसा गंभीर होकर बोला___"बात ज़रा सीरियस है बेटी।"
"क्या मतलब?" रितू चौंकी।

"विधी की रिपोर्ट आ चुकी है।" डाक्टर ने कहा___"और रिपोर्ट ऐसी है जिसके बारे में जानकर शायद तुम्हें यकीन न आए।"
"ऐसी क्या बात है रिपोर्ट में?" रितू की पेशानी पर बल पड़े___"ज़रा बताइये तो सही।"

"विधी को ब्लड कैंसर है बेटी।" डाक्टर ने जैसे धमाका किया___"वो भी लास्ट स्टेज में है।"
"क्याऽऽऽ????" रितू बुरी तरह उछल पड़ी___"ये आप क्या कह रहे हैं अंकल?"
"यही सच है बेटी।" डाक्टर ने कहा___"वो बस कुछ ही दिनों की मेहमान है। मुझे समझ नहीं आ रहा कि ये बात मैं उसके पैरेन्ट्स को कैसे बताऊॅ? एक तो वैसे भी वो अपनी बेटी की इस हालत से बेहद दुखी हैं दूसरे अगर उन्हें ये पता चल गया कि उनकी बेटी को कैंसर है और वो बस कुछ ही दिनों की मेहमान है तो जाने उन पर इसका क्या असर हो?"

रितू के दिलो दिमाग़ में अभी भी धमाके हो रहे थे। अनायास ही उसकी ऑखें नम हो गई थी। हलाॅकि विधी से उसका कोई रिश्ता नहीं था। उसने तो बस उसे दोस्त कह दिया था ताकि वह आसानी से कुछ बता सके। बाद में उसे ये भी पता चल गया कि ये वही विधी है जिससे विराज प्यार करता था। लेकिन फिर वो दोनो अलग हो गए थे। रितू के मन में एकाएक ही हज़ारों सवाल उभर कर ताण्डव करने लगे थे।

"इसके साथ ही विधी जो दो महीने की प्रेग्नेन्ट है तो उसके पेट में पनप रहे शिशु का भी पतन हो जाएगा।" डाक्टर ने कहा___"यानी एक साथ दो लोगों की जान चली जाएगी।"
"ये तो सचमुच बहुत बड़ी बात है डाक्टर अंकल।" रितू गंभीरता से बोली___"पर सोचने वाली बात है कि इतनी कम उमर में उसे ब्लड कैंसर हो गया।"

"आज कल ऐसा ऐसा सुनने को मिलता बेटा जिसकी आम इंसान तो क्या हम डाक्टर लोग भी कल्पना नहीं कर सकते।" डाक्टर ने कहा___"ख़ैर, मैंने यही बताने के लिए तुम्हें बुलाया था। अभी मुझे मिस्टर चौहान को भी इस बात की सूचना देनी होगी। वो बेचारे तो सुन कर ही गहरे सदमे में आ जाएॅगे।"

"आप सही कह रहे हैं।" रितू ने कहा___"वैसे क्या ये कैंसर वाली बात विधी को पता है??"
"पता नहीं।" डाक्टर ने कहा___"हो भी सकता है और नहीं भी।"
"अच्छा मैं चलती हूॅ अंकल।" रितू ने कुर्सी से उठते हुए कहा___"मुझे विधी से अकेले में कुछ बातें करनी है।"
"ओके बेटा।" डाक्टर ने कहा।

रितू भारी मन से डाक्टर के केबिन से बाहर निकल गई। उसे ये बात हजम ही नहीं हो रही थी कि विधी को लास्ट स्टेज का कैंसर है। उसे विधी के लिए इस सबसे बड़ा दुख सा हो रहा था। उसके मन में कई तरह की बातें चल रही थी। जिनके बारे में उसे विधी ही बता सकती थी। इस लिए वह तेज़ी से उस कमरे की तरफ बढ़ गई।

विधी के कमरे में पहुॅच कर रितू ने गायत्री से बड़े ही विनम्र भाव से कहा कि उसे विधी से अकेले में कुछ बातें करनी है। इस लिए अगर आपको ऐतराज़ न हो तो आप बाहर थोड़ी देर के लिए चले जाइये। गायत्री उसकी ये बात सुन कर कुछ पल तो उसे देखती रही फिर कुर्सी से उठ कर कमरे से बाहर चली गई। रितू ने दरवाजे की कुंडी लगा दी और फिर आ कर वह गायत्री वाली कुर्सी पर ही विधी के बेड के पास ही बैठ गई। विधी उसे बड़े ग़ौर से देख रही थी। रितू भी उसके चेहरे की तरफ देखने लगी।

"तो डाक्टर ने आपको बता दिया कि मुझे लास्ट स्टेज का कैंसर है?" विधी ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा था।
"तुम्हें कैसे पता कि डाक्टर ने मुझे किस लिए बुलाया था?" रितू मन ही मन बुरी तरह चौंकी थी उसकी बात से।

"बड़ी सीधी सी बात है।" विधी ने कहा__"जब कोई ब्यक्ति मरीज़ बन कर हास्पिटल में आता है तो उसकी हर तरह की जाॅच होती है। उसके बाद ये जान जाना कौन सी बड़ी बात है कि मुझे असल में क्या है? ये तो मैं जानती थी कि यहाॅ पर मेरी जाॅच हुई होगी और जब उसकी रिपोर्ट आएगी तो डाक्टर को पता चल ही जाएगा कि मुझे लास्ट स्टेज का कैंसर है। इस लिए जब नर्स आपको बुलाने आई तो मुझे अंदाज़ा हो गया कि डाक्टर यकीनन आपको उस रिपोर्ट के बारे में ही बताएगा। इस कमरे में आते वक्त आपके चेहरे पर जो भाव थे वो दर्शा रहे थे कि आप अंदर से कितनी गंभीर हैं मेरे बारे में जान कर। इस लिए आपसे कहा ऐसा।"

"यकीनन काबिले तारीफ़ दिमाग़ है।" रितू ने कहा___"थोड़े से सबूतों पर कैसे कड़ियों को जोड़ना है ये तुमने दिखा दिया। पुलिस विभाग में होती तो जटिल से जटिल केस बड़ी आसानी से सुलझा लेती तुम।"

"आपने तो बेवजह ही तारीफ़ कर दी।" विधी ने कहा___"जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है।"
"तो इस लिए ही तुमने मेरे भाई विराज से बेवफाई की थी?" रितू के मन में सबसे ज्यादा यही सवाल उछल रहा था___"तुमको पहले से पता था कि तुम्हें कैंसर है इस लिए तुमने ये रास्ता अपनाया। है न?"

"वि विरा...ज??" विधी का चेहरा फक्क पड़ गया। लाख कोशिशों के बाद भी उसकी ज़ुबान लड़खड़ा गई____"क कौन वि..रा..ज? आप किसकी बात कर रही हैं?"
"अब भला झूॅठ बोलने की क्या ज़रूरत है विधी।" रितू ने कहा___"मुझे बहुत अच्छी तरह पता है कि तुम मेरे भाई विराज से आज भी बेपनाह मोहब्बत करती हो। बेवफाई तो तुमने जान बूझ कर की उससे। ताकि वो तुम्हारी उस ज़िंदगी से चला जाए जो बस कुछ ही समय की मेहमान थी। उसे अपने से दूर करने का यही तरीका अपनाया तुमने। जब मेरे डैड ने उसे और उसके परिवार को हवेली से निकाल दिया तब तुम्हें भी मौका मिल गया और तुमने उसी मौके में उससे ऐसी बातें कही कि उसे तुमसे नफरत हो जाए।"

"तो और क्या करती मैं?" विधी के अंदर का बाॅध मानो ज्वारभाॅटा बन कर फूट पड़ा। वह फूट फूट कर रो पड़ी। रोते हुए ही उसने कहा___"मैं उसकी ज़िंदगी में चंद महीनों की मेहमान थी। वो मुझे इतना चाहता था कि वह मेरे बिना जीवन की कल्पना भी नहीं करता था। प्यार तो मैं भी उससे उतना ही करती थी और आज भी करती हूॅ मगर, उस प्यार से क्या हो सकता था भला? हम हमेशा साथ तो नहीं रह सकते थे न। मेरी मौत पर वह टूट जाता। मैने सोचा कि उसके अंदर से अपने प्रति चाहत निकाल दूॅ किसी तरह ताकि वो किसी और के साथ अपने जीवन में आगे बढ़ने का सोच सके। मुझे जो सही लगा वो मैने किया। मैने अपने आपको पत्थर बना लिया और उससे उस तरह की दो टूक बातें की। उसके अंदर अपने प्रति नफरत पैदा करने के लिए मैने सूरज नाम के लड़के से दोस्ती भी कर ली। मैं जानती थी कि सूरज कैसा लड़का है मगर अब मेरे पास जीवन ही कहाॅ बचा था और ना ही मुझमें जीने की चाह रह गई थी। मुझे ये भी पता है कि मेरे पेट में सूरज का ही पाप है लेकिन मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है क्योंकि इस पाप का भी मेरे साथ ही अंत हो जाएगा। सूरज ने मेरे शरीर को भोगा मगर मेरे दिल में मेरे मन में तो हर जन्म में सिर्फ विराज ही रहेगा।"

"ये सब तो ठीक है।" रितू ने कहा___"लेकिन क्या तुमने ये नहीं सोचा कि तुम्हारे ऐसा करने से विराज किस हद तक टूट कर बिखर जाएगा? तुमने तो ये सोच कर उससे बेवफाई की कि वह किसी और के साथ जीवन में आगे बढ़ जाएगा, लेकिन ये क्यों नहीं सोचा कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो???"

"मैने बहुत कुछ सोचा था रितू दीदी।" विधी ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा___"ये दिल बड़ा ही अजीब होता है। कोई हज़ारों बार चाहे इसके साथ खिलौने की तरह खेल कर इसे टुकड़ों में बिखेर दे फिर भी ये मोहब्बत करना बंद नहीं करता। इसके अंदर हर रूप में मोहब्बत विद्यमान रहती है फिर चाहे वो नफरत के रूप में ही क्यों न हो। नफरत से पत्थर बन जाओ फिर भी मोहब्बत से पिघल जाओगे। विराज वो कोहिनूर है जिसे हर लड़की मोहब्बत करना चाहेगी और करती भी थी। मोहब्बत एक एहसास है दीदी, पत्थर भी इस एहसास से पिघल जाते हैं। आपको फिर से कब किसी से मोहब्बत हो जाए ये आपको भी पता नहीं चलेगा। मोहब्बत करने वाला पत्थर दिल में भी मोहब्बत का एहसास जगा देता है। बस यही सोच कर मैने ये सब किया था। मुझे पता था उसके जीवन में कोई न कोई ऐसी लड़की ज़रूर आ जाएगी जो अपनी मोहब्बत से उसकी नफरत को मिटा देगी और फिर से उसके टूटे हुए दिल को जोड़ कर उसे मोहब्बत करना सिखा देगी।"

"क्या पता ऐसा हुआ भी है कि नहीं?" रितू ने कहा___"क्या तुमने कभी पता करने की कोशिश की कि विराज किस हाल में है?"
"कोशिश करने का सवाल ही कहाॅ रह गया दीदी?" विधी ने कहा___"मैंने तो ये सब किया ही उससे दूर होने के लिए था। दुबारा उसके पास जाने का या ये पता करने का कि वो किस हाल में है ये सवाल ही नहीं था। क्योंकि मैने बड़ी मुश्किल से वो सब किया था, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं अपने महबूब के उदास चेहरे को दुबारा देख पाती।"

"ख़ैर, ये बताओ कि जब तुमको पता चल गया था कि तुमको कैंसर है तो तुमने अपने माता पिता को क्यों नहीं बताया?" रितू ने पहलू बदलते हुए पूछा___"अगर बता देती तो संभव था कि तुम्हारा इलाज होता और तुम ठीक हो जाती?"

"ऐसा कुछ न होता दीदी।" विधी ने कहा__"क्योंकि मेरे पिता उस हालत में ही नहीं थे कि वो मेरा कैंसर का इलाज करवा पाते। आप तो बस यही जानती हैं कि वो बड़े आदमी हैं मगर ये नहीं जानती हैं कि उस बड़े आदमी के साथ उसके बड़े भाईयों ने कितना बड़ा अत्याचार किया है? दादा जी के मरते वक्त बड़े ताऊ ने धोखे से सारी प्रापर्टी पर उनके हस्ताक्षर करवा लिया। उसके बाद दादा जी की तेरवीं होने के बाद ही अगले दिन ताऊ और उनके दोगले भाई ने मेरे माता पिता को सारी प्रापर्टी से बेदखल कर दिया। अब आप ही बताइये कि कैसे मेरे पापा मेरा इलाज करवा सकते थे?"

रितू को समझ ही न आया कि वह क्या बोले? विधी की कहानी ही ऐसी थी कि वह बेचारी हर तरह से मजबूर थी। उसके ठीक होने का कहीं कोई चाॅस ही नहीं था।

"अगर मैं अपने कैंसर की बात पापा से बताती तो वो बेचारे बेवजह ही परेशान हो जाते।" विधी कह रही थी___"जिसकी कंपनी में लोग काम करते थे और जो खुद कभी किसी का मालिक हुआ करता था वो आज खुद किसी दूसरे की कंपनी में बीस हजार की नौकरी करता है। बीस हज़ार में अपने तीन बच्चों और खुद दोनो प्राणियों का खर्चा चला लेना सोचिये कितना मुश्किल होगा? ऐसे में वो कैसे मेरा इलाज करवा पाते? इससे अच्छा तो यही था दीदी कि मैं मर ही जाऊॅ। दो चार दिन मेरे लिए रो लेंगे उसके बाद फिर से उनका जीवन आगे चल पड़ेगा।"

"इतनी छोटी सी उमर में इतनी बड़ी सोच और इतना बड़ा त्याग किया तुमने।" रितू की ऑखों में ऑसू आ गए___"ये सब कैसे कर लिया तुमने?"

रितू ने झपट कर उसे अपने सीने से छुपका लिया। विधी को उसके गले लगते ही असीम सुख मिला। भावना में बह गई वह। वर्षों से अपने अंदर कैद वेदना को वह रोंक न पाई बाहर निकलने से। वह हिचकियाॅ ले लेकर रोने लगी थी।

"मेरी आपसे एक विनती है दीदी।" फिर विधी ने अलग होकर तथा ऑसू भरी ऑखों से कहा।
"विनती क्यों करती है पागल?" रितू का गला भर आया___"तू बस बोल। क्या कहना है तुझे?"

"मु मुझे एक बार।" विधी की रुलाई फूट गई, लड़खड़ाती आवाज़ में कहा___"मुझे बस ए एक बार वि..विरा...ज से मिलवा दीजिए। मुझे मेरे महबूब से मिलवा दीजिए दीदी। मैं उसकी गुनहगार हूॅ। मुझे उससे अपने किये की माफ़ी माॅगनी है। मैं उसे बताना चाहती हूॅ कि मैं बेवफा नहीं हूॅ। मैं तो आज भी उससे टूट टूट कर प्यार करती हूॅ। उसे बुलवा दीजिए दीदी। मेरी ख़्वाहिश है कि मेरा अगर दम निकले तो उसकी ही बाहों में निकले। मेरे महबूब की बाॅहों में दीदी। आप बुलवाएॅगी न दीदी? मुझे एक बार देखना है उसे। अपनी ऑखों में उसकी तस्वीर बसा कर मरना चाहती हूॅ मैं। अपने महबूब की सुंदर व मासूम सी तस्वीर।"

"बस कर रे।" रितू का हृदय हाहाकार कर उठा___"मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि मैं तेरी ऐसी करुण बातें सुन सकूॅ। मैं तुझसे वादा करती हूॅ कि तेरे महबूब को मैं तेरे पास ज़रूर लाऊॅगी। मैं धरती आसमान एक कर दूॅगी विधि और उसे ढूॅढ़ कर तेरे सामने हाज़िर कर दूॅगी। मैं अभी से उसका पता लगाती हूॅ। तू बस मेरे आने का इंतज़ार करना।"

रितू ने कर्सी से उठ कर बेड पर लेटी विधी के माॅथे को झुक कर चूॅमा और अपने ऑसू पोंछते हुए बाहर निकल गई।
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