कामवासना
(एक बेहद अजीब और बेहद रहस्यमय प्रेत कथानक)
लेखकीय – जिन्दगी, और जिन्दगी से परे, के अनेक रहस्यमय पहलू अपने आप में समेटे हुये, ये लम्बी कहानी (लघु उपन्यास) दरअसल अपने रहस्यमय कथानक की भांति ही, अपने पीछे भी कहीं अज्ञात में, कहानी के अतिरिक्त, एक और ऐसा सच लिये हुये है ।
जो इसी कहानी की भांति ही, अत्यन्त रहस्यमय है ?
क्योंकि यह कहानी, सिर्फ़ एक कहानी न होकर, उन सभी घटनाक्रमों का एक माकूल जबाब था । नाटक का अन्त था, और पटाक्षेप था । जिसके बारे में सिर्फ़ गिने चुने लोग जानते थे, और वो भी ज्यों का त्यों नहीं जानते थे ।
खैर..कहानी की शैली थोङी अलग, विचित्र सी, दिमाग घुमाने वाली, उलझा कर रख देने वाली है, और सबसे बङी खास बात ये कि भले ही आप घोर उत्सुकता वश जल्दी से कहानी का अन्त पहले पढ़ लें । मध्य, या बीच बीच में, कहीं भी पढ़ लें । जब तक आप पूरी कहानी को गहराई से समझ कर, शुरू से अन्त तक नही पढ़ लेते । कहानी समझ ही नहीं सकते ।
और जैसा कि मेरे सभी लेखनों में होता है कि वे सामान्य दुनियावी लेखन की तरह न होकर विशिष्ट विषय और विशेष सामग्री लिये होते हैं ।
यह उपन्यास आपको कैसा लगा । तथा प्रसून के स्थान पर नया चरित्र नितिन कैसा लगा । इस संबंध में अपनी निष्पक्ष, बेबाक और अमूल्य राय से अवगत अवश्य करायें ।
- राजीव श्रेष्ठ ।
आगरा
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कामवासना
(एक बेहद अजीब और बेहद रहस्यमय प्रेत कथानक)
उस दिन मौसम अपेक्षाकृत शान्त था ।
आकाश में घने काले बादल छाये हुये थे । जिनकी वजह से सुरमई अंधेरा सा फ़ैल चुका था, और दोपहर चार बजे से ही गहराती शाम का आभास हो रहा था । उस एकान्त वीराने स्थान पर एक अजीब सी डरावनी खामोशी छायी हुयी थी । किसी सोच विचार में मगन चुपचाप खङे वृक्ष भी किसी रहस्यमय प्रेत की भांति मालूम होते थे ।
नितिन ने एक सिगरेट सुलगाई, और वहीं वृक्ष की जङ के पास मोटे तने से टिक कर बैठ गया ।
सिगरेट ! एक अजीब चीज, अकेलेपन की बेहतर साथी, दिलोदिमाग को सुकून देने वाली । एक सुन्दर समर्पित प्रेमिका सी, जो अन्त तक सुलगती हुयी प्रेमी को उसके होठों से चिपकी सुख देती है ।
उसने हल्का सा कश लगाया, और उदास निगाहों से सामने देखा । जहाँ टेङी मेङी अजीब से बलखाती हुयी नदी उससे कुछ ही दूरी पर बह रही थी ।
- कभी कभी कितना अजीब लगता है, सब कुछ । उसने सोचा - जिन्दगी भी क्या ठीक ऐसी ही नहीं है, जैसा दृश्य अभी है । टेङी मेङी होकर बहती, उद्देश्य रहित जिन्दगी । दुनियाँ के कोलाहल में भी छुपा अजीब सा सन्नाटा, प्रेत जैसा जीवन । इंसान का जीवन और प्रेत का जीवन समान ही है । दोनों ही अतृप्त, बस तलाश है वासना तृप्ति की ।
- उफ़्फ़ोह ! ये लङका भी अजीब ही है । उसके कानों में दूर माँ की आवाज गूँजी - फ़िर से अकेले में बैठा बैठा क्या सोच रहा है ? इतना बङा हो गया पर समझ में नहीं आता, ये किस समझ का है । आखिर क्या सोचता रहता है इस तरह ।
- क्या सोचता है इस तरह ? उसने फ़िर से सोचा - उसे खुद ही समझ में नहीं आता कि वह क्या सोचता है, क्यों सोचता है, या कुछ भी नहीं सोचता है । जिसे लोग सोचना कहते हैं, वह शायद उसके अन्दर है ही नहीं, वह तो जैसा भी है, है ।
उसने एक नजर पास ही खङे स्कूटर पर डाली और छोटा सा कंकर उठाकर नदी की ओर उछाल दिया ।
नितिन बी.ए. का छात्र था और मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर का रहने वाला था । उसके पिता शहर में ही मध्य स्तर के सरकारी अफ़सर और माँ साधारण सी घरेलू महिला थी । उसकी एक बडी बहन थी, जिसकी मध्यप्रदेश में ही दूर किसी अच्छे गाँव में शादी हो चुकी थी ।
नितिन का कद पाँच फ़ुट नौ इंच था, और वह साधारण शक्ल सूरत वाला, सामान्य से पैन्ट शर्ट पहनने वाला एक कसरती युवा था । उसके बालों का स्टायल साधारण और वाहन के रूप में उसका अपना स्कूटर ही था ।
वह शुरु से ही अकेला और तनहाई पसन्द था । शायद इसीलिये उसकी कभी कोई प्रेमिका न रही, और न ही उसका कोई खास दोस्त ही था । दुनियाँ के लोगों की भीङ में भी वह खुद को बेहद अकेला महसूस करता, और हमेशा चुप और खोया खोया रहता । यहाँ तक कि कामभाव भी उसे स्पर्श नही करता ।
तब इसी अकेलेपन और ऐसी आदतों ने उसे सोलह साल की उम्र में ही गुप्त रूप से तन्त्र, मन्त्र और योग की रहस्यमयी दुनियाँ की तरफ़ धकेल दिया । लेकिन उसके जीवन के इस पहलू को कोई नही जानता था ।
अंतर्मुखी स्वभाव का ये लङका स्वभाव से शिष्ट और बेहद सरल था ।
उसे बस एक ही शौक था, कसरत करना ।
कसरत ! वह उठकर खङा हो गया । उसने खत्म होती सिगरेट में आखिरी कश लगाया और सिगरेट को दूर उछाल दिया ।
स्कूटर की तरफ़ बढ़ते ही उसकी निगाह साइड में कुछ दूर खङे बङे पीपल पर गयी और वह हैरानी से उस तरफ़ देखने लगा ।
कोई नवयुवक पीपल की जङ से दीपक जला रहा था ।
उसने घङी पर निगाह डाली । ठीक छह बज चुके थे ।
अंधेरा तेजी से बढ़ता जा रहा था ।
उसने एक पल के लिये कुछ सोचा फ़िर तेजी से उधर ही जाने लगा ।
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- क्या बताऊँ दोस्त ? वह गम्भीरता से दूर तक देखता हुआ बोला - शायद तुम कुछ न समझोगे, ये बङी अजीब कहानी ही है । भूत प्रेत जैसी कोई चीज क्या होती है ? तुम कहोगे, बिलकुल नहीं । मैं भी कहता हूँ, बिलकुल नहीं । लेकिन कहने से क्या हो जाता है, फ़िर क्या भूत प्रेत नहीं ही होते ।
- ये दीपक ? नितिन हैरानी से बोला - ये दीपक, आप यहाँ क्यों ..मतलब ?
- मेरा नाम मनोज है । लङके ने एक निगाह दीपक पर डाली - मनोज पालीवाल, ये दीपक क्यों? दरअसल मुझे खुद पता नहीं, ये दीपक क्यों ? इस पीपल के नीचे ये दीपक जलाने से क्या हो सकता है । मेरी समझ के बाहर है, लेकिन फ़िर भी जलाता हूँ ।
- पर कोई तो वजह ..वजह ? नितिन हिचकता हुआ सा बोला - जब आप ही..आप ही तो जलाते हैं ।
- बङे भाई ! वह गहरी सांस लेकर बोला - मुझे एक बात बताओ । घङे में ऊँट घुस सकता है, नहीं ना । मगर कहावत है । जब अपना ऊँट खो जाता है, तो वह घङे में भी खोजा जाता है । शायद इसका मतलब यही है कि समस्या का जब कोई हल नजर नहीं आता । तब हम वह काम भी करते हैं, जो देखने सुनने में हास्यास्पद लगते हैं । जिनका कोई सुरताल ही नहीं होता ।
उसने बङे अजीब भाव से एक उपेक्षित निगाह दीपक पर डाली, और यूँ ही चुपचाप सूने मैदानी रास्ते को देखने लगा । उस बूढ़े पुराने पीपल के पत्तों की अजीब सी रहस्यमय सरसराहट उन्हें सुनाई दे रही थी ।
अंधेरा फ़ैल चुका था, और वे दोनों एक दूसरे को साये की तरह देख पा रहे थे ।
मरघट के पास का मैदान ।
उसके पास प्रेत स्थान युक्त ये पीपल, और ये तन्त्रदीप ।
नितिन के रोंगटे खङे होने लगे ।
तभी अचानक उसके बदन में एक तेज झुरझुरी सी दौङ गयी ।
उसकी समस्त इन्द्रियाँ सजग हो उठी ।
वह मनोज के पीछे भासित उस आकृति को देखने लगा ।
जो उस कालिमा में काली छाया सी ही उसके पीछे खङी थी, और मानों उस तन्त्रदीप का उपहास उङा रही थी ।
- मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें । क्या मामला है, क्या होने वाला है ?
- कुछ..सिगरेट वगैरह..। मनोज हिचकिचाता हुआ सा बोला - रखते हो । वैसे अब तक कब का चला जाता, पर तुम्हारी वजह से रुक गया । तुमने दुखती रग को छेङ दिया । इसलिये कभी सोचता हूँ, तुम्हें सब बता डालूँ । दिल का बोझ कम होगा । पर तुरन्त ही सोचता हूँ । उसका क्या फ़ायदा, कुछ होने वाला नहीं है ।
- कितना शान्त होता है, ये मरघट । मनोज एक गहरा कश लगाकर फ़िर बोला - ओशो कहते हैं, दरअसल मरघट ठीक बस्ती के बीच होना चाहिये । जिससे आदमी अपने अन्तिम परिणाम को हमेशा याद रखें ।
मनोज को देने के बाद उसने भी एक सिगरेट सुलगा ली और जमीन पर ही बैठ गया । लेकिन मनोज ने सिगरेट को सादा नहीं पिया । उसने एक पुङिया में से चरस निकाला । उसने वह नशा नितिन को भी आफ़र किया, लेकिन उसने शालीनता से मना कर दिया ।
तेल से लबालब भरे उस बङे दिये की पीली रोशनी में वे दोनों शान्त बैठे थे ।
नितिन ने एक निगाह ऊपर पीपल की तरफ़ डाली, और उत्सुकता से उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा ।
उसे हैरानी हो रही थी । वह काली अशरीरी छाया उन दोनों से थोङा दूर ही शान्ति से बैठी थी, और कभी कभी एक उङती निगाह मरघट की तरफ़ डाल लेती थी ।
नितिन की जिन्दगी में यह पहला वास्ता था । जब उसे ऐसी कोई छाया नजर आ रही थी । रह रहकर उसके शरीर में प्रेत की मौजूदगी के लक्षण बन रहे थे । उसे वायु रूहों का पूर्ण अहसास हो रहा था, और एकबारगी तो वह वहाँ से चला जाना ही चाहता था, पर किन्हीं अदृश्य जंजीरों ने जैसे उसके पैर जकङ दिये थे ।
- मनसा जोगी ! वह हल्का सा भयभीत हुआ - रक्षा करें ।
मनोज पर चरसी सिगरेट का नशा चढ़ने लगा । उसकी आँखें सुर्ख हो उठी ।
- ये जिन्दगी बङी अजीब है मेरे दोस्त । वह किसी कथावाचक की तरह गम्भीरता से बोला - कब किसको बना दे । कब किसको उजाङ दे । कब किसको मार दे । कब किसको जिला दे ।
- आपको । नितिन सरल स्वर में बोला - घर नहीं जाना, रात बढ़ती जा रही है । मेरे पास स्कूटर है । मैं आपको छोङ देता हूँ ।
- एक सिगरेट.. और दोगे । वह प्रार्थना सी करता हुआ बोला - प्लीज बङे भाई ।
उसने बङे अजीब ढंग से फ़िर उस काली छाया को देखा, और पैकेट ही उसे थमा दिया । थोङी थोङी हवा चलने लगी थी, और उससे दिये की लौ लपलपा उठती थी ।
मनोज ने उसे जङ की आङ में कर दिया, और दोबारा पुङिया निकाल ली ।
- बताऊँ । वह फ़िर से उसकी तरफ़ देखता हुआ बोला - या न बताऊँ ?
वह उसे फ़िर से सिगरेट में चरस भरते हुये देखता रहा । उसे इस बात पर हैरानी हो रही थी कि जो प्रेतक उपस्थिति के अनुभव उसे हो रहे हैं । क्या उसे नहीं हो रहे, या फ़िर नशे की वजह से वह उन्हें महसूस नहीं कर पा रहा, या फ़िर अपने किसी गम की वजह से वह उसे महसूस नहीं कर पा रहा ।
या.. उसके दिमाग में यकायक विस्फ़ोट सा हुआ ।
या वह ऐसे अनुभवों का अभ्यस्त तो नहीं है ।
उसकी निगाह तुरन्त तन्त्र दीप पर गयी, और स्वयं ही उस काली छाया पर गयी ।
छाया जो किसी औरत की थी, और पीली मुर्दार आँखों से उन दोनों को ही देख रही थी ।
एकाएक जैसे उसके दिमाग में सब तस्वीर साफ़ हो गयी ।
वह निश्चित ही प्रेतवायु का लम्बा अभ्यस्त था ।
साधारण इंसान किसी हालत में इतनी देर प्रेत के पास नहीं ठहर सकता था ।
- मेरा बस चले तो साली की...। उसने भरपूर सुट्टा लगाया और घोर नफ़रत से बोला -पर.. पर कोई सामने तो हो, कोई नजर तो आये । अदृश्य को कैसे क्या करूँ । बोलो, तुम बोलो । क्या गलत कह रहा हूँ मैं ।
- लेकिन मनोज जी ?
- बताता हूँ, सब बताता हूँ, बङे भाई । जाने क्यों अन्दर से आवाज आ रही है कि तुम्हें सब कुछ बताऊँ, जाने क्यों । मेरे गाली बकने को गलत मत समझना । आदमी जब बेवश हो जाता है, तो फ़िर उसे और कुछ नहीं सूझता, सिवाय गाली देने के ।
फिर उसकी अजीब सी आँखें जैसे शून्य में स्थिर हो गयी, और वह अतीत के आयाम में खोता चला गया ।
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पदमा ने धुले कपङों से भरी बाल्टी उठाई, और बाथरूम से बाहर आ गयी ।
उसके बङे से आंगन में धूप खिली हुयी थी । वह फ़टकारते हुये एक एक कपङे को तार पर डालने लगी । उसकी लटें बारबार उसके चेहरे पर झूल जाती थी, जिन्हें वह नजाकत से पीछे झटक देती थी ।
विवाह के चार सालों में ही उसके यौवन में भरपूर निखार आया था, और उसका अंग अंग खिल सा उठा था । अपने ही सौन्दर्य को देखकर वह मुग्ध हो जाती, और तब उस में एक अजीब सा रोमांच भर जाता ।
वाकई पुरुष में कोई जादू होता है, उसकी समीपता में एक विचित्र उर्जा होती है, जो लङकी को फ़ूल की तरह से महका देती है । विवाह के बाद उसका शरीर तेजी से भरा था ।
ये सोचते ही उसके चेहरे पर शर्म की लाली दौङ गयी ।
मनोज ने एक गहरी सांस ली, और उदास नजरों से नितिन को देखा ।
उसकी आँखें हल्की हल्की नम हो चली थी ।
- नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - कैसा अजीब बनाया है, ये दुनियाँ का सामाजिक ढांचा, और कैसा अजीब बनाया है, देवर भाभी का सम्बन्ध । दरअसल..मेरे दोस्त, ये समाज समाज नहीं, पाखण्डी लोगों का समूह मात्र है । हम ऊपर से कुछ और बरताव करते हैं, हमारे अन्दर कुछ और ही मचल रहा होता है ।
हम सब पाखण्डी हैं, तुम, मैं और सब ।
मेरी भाभी ने मुझे माँ के समान प्यार दिया । मैं पुत्रवत ही उससे लिपट जाता, उसके ऊपर लेट जाता, और कहीं भी छू लेता, क्योंकि तब उस स्पर्श में कामवासना नहीं थी । इसलिये मुझे कहीं भी छूने में झिझक नहीं थी, और फ़िर वही भाभी कुछ समय बाद मुझे एक स्त्री नजर आने लगी, सिर्फ़ एक जवान स्त्री ।
तब मेरे अन्दर का पुत्र लगभग मर गया, और उसकी जगह सिर्फ़ पुरुष बचा रह गया । भाभी को चुपके चुपके देखना और झिझकते हुये छूने को जी ललचाने लगा ।
जिस भाभी को मैं कभी गोद में ऊँचा उठा लेता था । भाभी मैं नहीं, मैं नहीं.. कहते कहते उनके सीने से लग जाता, अब उसी भाभी को छूने में एक अजीब सी झिझक होने लगी ।
इस कामवासना ने हमारे पवित्र माँ, बेटे जैसे प्यार को गन्दगी का कीचङ सा लपेट दिया । लेकिन शायद ये बात सिर्फ़ मेरे अन्दर ही थी, भाभी के अन्दर नहीं ।
उसे पता भी नहीं था कि मेरी निगाहों में क्या रस पैदा हो गया ?
और तब तक तो मैं यही सोचता था ।
बाल्टी से कपङे निकाल कर निचोङती हुयी पदमा की निगाह अचानक सामने बैठे मनोज पर गयी । फ़िर अपने पर गयी, उसका वक्ष आँचल रहित था, और साङी का आँचल उसने कमर में खोंस लिया था ।
अतः वह चोर नजरों से उसे देख रहा था ।
- क्या गलती है इसकी ? उसने सोचा - कुछ भी तो नहीं, ये होने जा रहा मर्द है । कौन ऐसा साधु है, जो युवा स्त्री का दीवाना नहीं होता । बूढ़ा, जवान, अधेङ, शादीशुदा या फ़िर कुंवारा, भूत, प्रेत या देवता भी ।
सच तो ये है कि एक स्त्री भी स्त्री को देखती है । स्वयं से तुलनात्मक या फ़िर वासनात्मक भी । शायद ईश्वर की कुछ खास रचना हैं नारी ।
अतः उसने आँचल ठीक करने का कोई उपक्रम नहीं किया, और सीधे तपाक से पूछा - क्या देख रहा था ?
मनोज एकदम हङबङा गया, उसने झेंप कर मुँह फ़ेर लिया ।
उसके चेहरे पर ग्लानि के भाव थे ।
पदमा ने आखिरी कपङा तार पर डाला, और उसके पास ही चारपाई पर बैठ गयी ।
उसके मन में एक अजीब सा भाव था, शायद एक शाश्वत प्रश्न जैसा ।
औरत ! पुरुष की कामना, औरत । औरत..पुरुष की वासना, औरत । औरत..पुरुष की भावना, औरत ।
फ़िर वह उसके प्राकृतिक भावों को कौन से नजरिये से गलत समझे । उसकी जगह उसका कोई दूरदराज का चाचा, ताऊ भी निश्चित ही उसके लिये यही आंतरिक भाव रखता । क्योंकि वह एक सम्पूर्ण लौकिक औरत थी ।
भांति भांति के कुदरती सुन्दर फ़ूलों की तरह ही सृष्टिकर्ता ने औरत को भी विशेष सांचे में ढालकर बनाया । जहाँ उसके अंगों में मधुर रस भरा, वहीं उसके सौन्दर्य में फ़ूलों की महक डाल दी । जहाँ उसके अंगों में मादक सुरा के पैमाने भर दिये । वहीं उसकी सादगी में एक शान्त, धीर, गम्भीर देवी नजर आयी ।
पदमा भी कुछ ऐसी ही थी ।
उसकी बङी बङी काली आँखों में एक अजीब सा सम्मोहन था, जो साधारण दृष्टि से देखने पर भी यौन आमन्त्रण सा मालूम होता था ।
पदमिनी स्त्री प्रकार की ये नायिका, मानों धरा के फ़लक पर कयामत बनकर उतरी थी । उसके लहराते लम्बे रेशमी बाल उसके कन्धों पर फ़ैले रहते थे । वह नये नये स्टायल का जूङा बनाने और इत्र लगाने की बेहद शौकीन थी ।
- मनोज ! वह सम्मोहनी आँखों से देखती हुयी बोली - तुम चोरी चोरी अभी क्या देख रहे थे । डरो मत सच बताओ, मैं किसी को बोलूँगी नहीं, शायद मेरे तुम्हारे मन में एक ही बात हो ।
- भाभी ! वह कठिनता से बोला - आपने कभी किसी से प्यार किया है ?
- प्यार..हाँ किया है । वह सहजता से सरल स्वर में बोली - हर लङका लङकी किशोरावस्था में किसी न किसी विपरीत लिंगी से प्यार करते ही हैं । भले ही वो प्यार एकतरफ़ा हो, दोतरफ़ा हो । सफ़ल हो, असफ़ल हो । मैंने भी अपने गाँव के एक लङके जतिन से प्यार किया । पर वो ऐसा पागल निकला कि मुझ रूप की रानी के प्यार की परवाह न कर साधु हो गया ।
हाँ मनोज, उसका मानना था कि ईश्वर से प्यार ही सच्चा प्यार है । बाकी मेरी जैसी सुन्दर औरत तो जीती जागती माया है ।
माया ! उसने एक गहरी सांस ली ।
वह चुप ही रहा, पर रह रहकर भाभी का आकर्षण उसे वहीं देखने को विवश कर देता, और पदमा उसे इसका मौका दे रही थी । इसीलिये वह अपनी नजरें उससे मिलाने के बजाय इधर उधर कर लेती ।
- बस । कुछ देर बाद वह फ़िर से बोली - एक बार तुम बिलकुल सच बताओ, तुम चोरी चोरी क्या देख रहे थे । फ़िर मैं भी तुम्हें कुछ बताऊँगी । शायद जिस सौन्दर्य की झलक से तुम बैचेन हो । वह सौन्दर्य तुम्हारे सामने हो, क्योंकि..कहते कहते वह रुकी - मैं भी एक औरत हूँ, और मैं अपने सौन्दर्य प्रेमी को अतृप्त नहीं रहने दे सकती, कभी नहीं ।
- नहीं । वह तेजी से बोला - ऐसा कुछ नहीं, ऐसा कुछ नहीं है भाभी माँ । मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता । पर मैं सच कहूँगा.. न जाने क्यों देखने को दिल करता है ।
उसकी साफ़, सरल, सीधी, सच्ची, स्पष्ट बात और मासूमियत पर पदमा हँसते हँसते पागल हो उठी । यकायक उसके मोतियों जैसे चमकते दाँतों की बिजली सी कौंधती, और उसके हँसने की मधुर मादक स्वर लहरी वातावरण में कामरस घोल देती ।
वह भी मूर्खों की भांति उसके साथ हँसने लगा ।
- एक मिनट, एक मिनट । वह अपने को संयमित करती हुयी बोली - क्या बात कही । मनोज मुझे तेरी बात पर अपनी एक सहेली की याद आ गयी, उसकी नयी नयी शादी हुयी थी । पहली विदाई में जब वह पीहर आने लगी, तो उसका पति बहुत उदास हो गया ।
वह बोली, ऐसे क्यों मुँह लटका लिया, मैं मर थोङे न गयी । सिर्फ़ आठ दिन को जा रही हूँ । तब उसका पति बोला कि वह बात नहीं, दुख जाने का नहीं है । बल्कि दुख तो इस बात का है कि तुझे देखने में भी एक अजीब सा सुख, अजीब सी तृप्ति मिलती थी । अब वह नहीं मिलेगी । इसलिए तू जाती हो तो जा, पर इन यौवन फलों को मुझे देती जा । जो मुझे बेहद सुख देते हैं ।
अचानक अब तक गम्भीर बैठे नितिन ने जोरदार ठहाका लगाया ।
ऐसी अजीब बात उसने पहली बार ही सुनी थी ।
माहौल की मनहूसियत एकाएक छँट सी गयी ।
मनोज हल्के नशे में था, पर वह भी उसके साथ हँसा ।
अजीब सा सस्पेंस फ़ैलाया था इस लङके ने ।
वह सिर्फ़ इस जिज्ञासा के चलते उसके पास आया था कि वो ये तन्त्रदीप क्यों जला रहा था, कौन सी प्रेतबाधा का शिकार हुआ था ?
और अभी इस साधारण से प्रश्न का उत्तर मिल पाता कि वह काली अशरीरी छाया एक बङे अनसुलझे रहस्य की तरह वहाँ प्रकट हुयी, और इस रहस्य में एक और प्रश्न जुङ गया था ।
- मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा कर ।
वह काली छाया अभी भी उस बूढ़े पीपल के आसपास ही टहल रही थी ।
वह शहर से बाहर स्थानीय उजाङ और खुला शमशान था, सो अशरीरी रूहों के आसपास होने का अहसास उसे बारबार हो रहा था ।
पर मनोज इस सबसे बिलकुल बेपरवाह बैठा था ।
दरअसल नितिन ने प्रत्यक्ष अशरीरी भासित रूह को पहली बार ही देखा था, पर वह तन्त्र क्रियाओं से जुङा होने के कारण ऐसे अनुभवों का कुछ हद अभ्यस्त था । लेकिन वह युवक तो उपचार के लिये आया था, फ़िर वह कैसे ये सब महसूस नहीं कर रहा था ?
और उसके ख्याल में इसके दो ही कारण हो सकते थे । उसका भी प्रेतों के सामीप्य का अभ्यस्त होना, या फ़िर नशे में होना, या उसकी निडरता अजानता का कारण वह भी हो सकता था, या फ़िर वह अपने ख्याली गम में इस तरह डूबा था कि उसे माहौल की भयंकरता पता ही नहीं चल रही थी ।
बरबस ही नितिन की निगाह फ़िर एक बार काली छाया पर गयी ।
- मैं सोचता हूँ । फ़िर वह कुछ अजीब से स्वर में बोला - अब हमें घर चलना चाहिये ।
- अरे बैठो दोस्त ! मनोज फ़िर से गहरी सांस भरता हुआ बोला - कैसा घर, कहाँ का घर, सब मायाजाल है, चिङा चिङी के घोंसले । चिङा चिङी..अरे हाँ ..मुझे एक बात बताओ, तुमने औरत को कभी वैसे देखा है, बिना वस्त्रों में । एक खूबसूरत जवान औरत, पदमिनी नायिका, रूपसी, रूप की रानी जैसी एक नग्न औरत ।
- सुनो ! वह हङबङा कर बोला - तुम बहकने लगे हो, हमें अब चलना चाहिये ।
- ठ ठहरो भाई ! तुम गलत समझे । वह उदास हँसी हँसता हुआ बोला - शायद फ़िर तुमने ओशो को नहीं पढ़ा । मैं आंतरिक भावों से नग्नता की बात कर रहा हूँ, और इस तरह कोई नग्न नहीं कर पाता, शायद उसका पति भी नहीं । शायद उसका पति यानी मेरा सगा भाई ।
भाई !
भाई मुझे समझ में नहीं आता कि मैं कसूरवार हूँ या नहीं, याद रखो ।.. वह दार्शनिकता दिखाता हुआ बोला - किसी को नग्न करना आसान नहीं, और वस्त्ररहित नग्नता नग्नता नहीं है ।
- ठीक है मनोज । पदमा अंगङाई लेकर बङी बङी आँखों से सीधी उसकी आँखों में झांकती हुयी बोली - तुमने बिलकुल सही, और सच बोला । ये सच है कि किसी भी लङकी में जैसे ही यौवन पुष्प खिलना शुरू होते हैं, वह सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाती है । एक सादा सी लङकी मोहक मोहिनी में रूपांतरित होने लगती है, तुमने कभी इस तरह सोचा ।.. मैं जानती हूँ, तुम मुझे पूरी तरह देखना चाहते हो, छूना चाहते हो, खेलना चाहते हो । क्योंकि ये सब सोचते समय तुम्हारे अन्दर, मैं तुम्हारी भाभी नहीं, सिर्फ़ एक खूबसूरत औरत होती हूँ । उस समय भाभी मर जाती है, सिर्फ़ औरत रह जाती है, बताओ मैंने सच कहा न ?
- गलत । वह कठिन स्वर में बोला - एकदम गलत, ऐसा तो मैंने कभी नहीं सोचा । सच बस इतना ही है कि जब भी इस घर में तुम्हें चलते फ़िरते देखता हूँ, तो मैं तुम्हें पहले पूरा ही देखता हूँ । लेकिन फ़िर न जाने क्यों निगाह इधर हो जाती है । यह देखना क्यों आकर्षित करता है, मैं समझ नहीं पाता ।
- क्या । वह बेहद हैरत से बोली - तुम्हें मुझे पूरी तरह देखने की इच्छा नहीं करते ?
- कभी नहीं । वह झटके से सख्त स्वर में बोला - क्योंकि साथ ही मुझे ये भी पता है कि तुम मेरी भाभी हो, भाभी माँ ! और एक बच्चा भी अपने माँ के आँचल से प्यार करता है, सम्मोहित होता है । उसे भी माँ के स्तनों से लगाव होता है, जिनसे वह पोषण पाता है । वह एक पति की तरह माँ के शरीर को स्पर्श करता है । उसके पूर्ण शरीर पर जननी भूमि की तरह खेलता है । पर, उसकी ऐसी इच्छा कभी हो सकती है कि अपनी माँ को नग्न देखूँ ।
पदमा की बङी बङी काली आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयी ।
उसका सौन्दर्य अभिमान पल में चूर चूर हो गया ।
मनोज जितना बोल रहा था, एकदम सच बोल रहा था ।
क्या अजीब झमेला था ।
नितिन बङी हैरत में था ।
वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था कि यहाँ रुके या घर चला जाये । इसको साथ ले जाये, या इसे इसके हाल पर छोङ जाये । कौन था ये लङका ? कैसी अजीब सी थी इसकी कहानी, और वह काली स्त्री छाया ।
उसने फ़िर से उधर देखा । वह छाया भी जैसे थक कर जमीन पर बैठ गयी थी ।
तभी अचानक वह चौंका ।
मनोज ने जेब से देशी तमंचा निकाला, और उसकी ओर बढ़ाया ।
- मेरे अजनबी दोस्त । वह डूबे स्वर में बोला - आज तुम मेरी कहानी सुन लो । मुझे कसूरवार पाओ, तो बेझिझक मुझे शूट कर देना, और यदि तुम मेरी कहानी नहीं सुनते । बीच में ही चले जाते हो, फ़िर मैं ही अपने आपको शूट कर लूँगा । और इसके जिम्मेदार तुम होगे, सिर्फ़ तुम ।
उसने उँगली नितिन की तरफ़ उठाई ।
लेकिन वह कुछ न बोला, और चुप बैठा हुआ, उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा ।
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मध्यप्रदेश ।
मध्य भारत का एक राज्य । राजधानी भोपाल ।
यह प्रदेश क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बडा राज्य था, लेकिन इस राज्य के कई नगर उससे हटा कर छत्तीसगढ़ बना दिया गया । इस प्रदेश की सीमायें महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से मिलती है ।
मध्यप्रदेश के तुंग उतुंग पर्वत शिखर, विन्ध्य सतपुड़ा, मैकल कैमूर की उपत्यिकाओं के अन्तर से गूँजती अनेक पौराणिक कथायें नर्मदा, सोन, सिन्ध, चम्बल, बेतवा, केन, धसान, तवा, ताप्ती आदि नदियों के उदगम और मिलन की कथाओं से फूटती हजारों धारायें यहाँ के जीवन को हरा भरा कर तृप्त करती हैं ।
निमाड़ मध्यप्रदेश के पश्चिमी अंचल में आता है ।
इसकी भौगोलिक सीमाओं में एक तरफ़ विन्ध्य की उतुंग पर्वत श्रृंखला और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा की सात उपत्यिकाएँ हैं, और मध्य में बहती है नर्मदा की जलधार ।
पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था, बाद में इसे निमाड़ कहा गया ।
इसी निमाङ की अमराइयों में तब कोयल की कूक गूंजने लगी थी । पलाश के फूलों की लाली फ़ैल रही थी । होली का खुमार सिर चढ़कर बोल रहा था, और मधुर गीतों की गूँज से निमाङ चहक रहा था ।
दिल में ढेरों रंग बिरंगे अरमान लिये, रंग बिरंगे ही वस्त्रों में सजी सुन्दर युवतियों के होंठ गुनगुना रहे थे - म्हारा हरिया ज्वारा हो कि, गहुआ लहलहे मोठा हीरा भाई वर बोया जाग ।
और इसी रंग बिरंगी धरती पर वह रूप की रानी पदमा, आँखों में रंग बिरंगे सपने सजाये, जैसे सब बन्धन तोङ देने को मचल रही थी । उसकी छातियों में मीठी मीठी कसक थी, और उसके दिल में एक अजीब अनजान सी हूक थी ।
- आज की रात । नितिन ने सोचा - इसी वीराने में बीतने वाली थी । कहाँ का फ़ालतू लफ़ङा उसे आ लगा था । साँप के मुँह में छछूँदर, न निगलते बने न उगलते ।
- पर मेरे दोस्त । मनोज फ़िर से बोला - जिन्दगी किसी हसीन ख्वाब जैसी नहीं होती, कभी नहीं होती । जिन्दगी की ठोस हकीकत कुछ और ही होती है ? कुछ और ही ।
यकायक नितिन उकताने सा लगा ।
वह उठ खङा हुआ, और फ़िर बिना बोले ही चलने को हुआ ।
मनोज ने उसे कुछ नहीं कहा, और तमंचा कनपटी से लगा लिया - ओके मेरे अजनबी दोस्त, अलविदा ।
आ बैल मुझे मार, जबरदस्ती गले लग जा । शायद इसी के लिये कहा गया है ।
हारे हुये जुआरी की तरह वह फ़िर से बैठ गया ।
मनोज ने एक सिगरेट निकाल कर सुलगा ली ।
नितिन खामोशी से उस छाया को ही देखता रहा ।
- लेकिन मैं शर्मिन्दा नहीं हूँ । पदमा सहजता से बोली - अभी भी नहीं हूँ । अभी अभी तुमने कहा कि मुझे देखना तुम्हें भाता है, फ़िर बताओ..क्यों ? बोलो बोलो ।
ऐसे ही मैं भी तुमको बहुत निगाहों से देखती हूँ । अगर तुम्हारे दिल में कुछ कामरस सा जागता है, तो फ़िर मेरे दिल में क्यों नहीं ? और वैसे भी देवर भाभी का सम्बन्ध अनैतिक नहीं है । देवर को ‘द्वय वर’ कहा गया है, दूसरा वर । यह एक तरह से समाज का अलिखित कानून है, देवर भाभी के शरीरों का मिलन हो सकता है ।
मनोज शायद तुम्हें मालूम न हो, क्योंकि दुनियादारी के मामले में तुम अभी बच्चे हो । अगर किसी स्त्री को उसके पति से औलाद न होती हो, तो उसकी निर्बीज जमीन में प्रथम देवर ही बीज डालता है । उसके बाद कुछ परिस्थितियों में जेठ भी । और जानते हो, ऐसा हमेशा घर वालों की मर्जी से उनकी जानकारी में होता है । वे कुँवारे या शादीशुदा देवर को प्रेरित करते हैं कि वह भाभी की उजाङ जिन्दगी में खुशियों की फ़सल लहलहा दे ।
नितिन के दिमाग में विस्फ़ोट सा हुआ, कैसा अजीब संसार है यह ।
शायद यहाँ बहुत कुछ ऐसा विचित्र है, जिसको उस जैसे लोग कभी नहीं जान पाते ।
तन्त्रदीप से शुरू हुयी उसकी मामूली प्रेतक जिज्ञासा इस लङके के दिल में घुमङते कैसे तूफ़ान को सामने ला रही थी ।
उसने सोचा तक न था । सोच भी न सकता था ।
- शब्द । वह तमंचा जमीन पर रखता हुआ बोला – शब्द, और शब्दों का कमाल । हैरानी की बात थी कि भाभी के शब्द आज मुझे जहर से लग रहे थे । उसके चुलबुले पन में मुझे एक नागिन नजर आ रही थी । उसके बेमिसाल सौन्दर्य में मुझे डायन नजर आ रही थी, एक खतरनाक चुङैल, मुझे.. । अचानक बीच में जैसे उसे कुछ याद सा आया - एक बात बताओ तुम भूत प्रेतों में विश्वास करते हो । मेरा मतलब भूत होते हैं, या नहीं होते हैं ?
नितिन ने एक सिहरती सी निगाह काली छाया पर डाली ।
उसका ध्यान सरसराते पीपल के पत्तों पर गया ।
फ़िर निरन्तर कभी कभी आसपास महसूस होती अदृश्य रूहों पर गया ।
उसने गौर से मनोज को देखा, और बोला - पता नहीं, कह नहीं सकता, शायद होते हों, शायद न होते हों ।
अब वह बङी उलझन में था ।
उसने सोचा - ये अपने दिल का गम हल्का करना चाहता है । क्या वह स्वयं इससे प्रश्न पूछे, और जल्दी जल्दी ये बताता चला जाये, और बात खत्म हो । पर तुरन्त ही उसका दिमाग रियेक्ट करता, इसके अन्दर कोई बहुत बङा रहस्य, कोई बहुत बङी आग जल रही है । जिसका निकल जाना जरूरी है, वरना शायद ये खुद को गोली भी मार ले, मार सकता था । इसलिये एक जिन्दगी की खातिर, उसमें स्वयं जो क्रिया हो रही थी, वही तरीका अधिक उचित था, और तब उसे सिर्फ़ सुनना था, देखना था ।
- मनसा जोगी । वह भाव से बे स्वर बोला - रक्षा कर ।
- लेकिन, मैं जानता हूँ । मनोज फ़िर से बोला - मैंने उन्हें कभी देखा तो नहीं, पर मुझे पक्का पता है, होते हैं, और तुम जानते हो, इनके भूत-प्रेत होने का जो मुख्य कारण है, बस एक ही है, कामवासना । व्यक्ति में निरन्तर सुलगती, कामवासना । कामवासना से पीङित, कामवासना से अतृप्त रहा इंसान, निश्चय ही भूत-प्रेत के अंजाम को प्राप्त होता है ।
ये सब अचानक क्या हो गया था ।
पदमिनी पदमा भावहीन चेहरे से आंगन के गमलों में खिले फ़ूलों को देख रही थी ।
मनोज को लग रहा था, कुछ असामान्य सा था, जो एकदम घटित हुआ था ।
सेक्स को लेकर वह इतना अनुभवी भी नहीं था कि इन बातों का कोई ठीक अर्थ निकाल सके । बस यार दोस्तों के अनुभव के चलते उसे कुछ जानकारी थी ।
- भाभी ! तब अचानक वह उसकी ओर देखता हुआ बोला - एक बात बोलूँ, सच सच बताना । क्या तुम भैया से खुश नहीं हो, क्या तुम्हें तृप्ति नहीं होती ?
तब दूसरी तरफ़ देखती पदमा ने यकायक झटके से मुँह घुमाया ।
फ़िर उसने तेजी से तीन हुक खोल दिये, और नागिन सी चमकती आँखों से उसकी तरफ़ देखा ।
- देख इधर । वह सख्त स्वर में बोली - ये माँस के गोले, सिर्फ़ चर्बी माँस के गोले, अगर एक जवान सुन्दर मरी औरत का शरीर लावारिस फ़ेंक दिया जाये, तो फ़िर इस शरीर को कौवे कुत्ते ही खायेंगे । ये मृगनयनी आँखें किसी प्यासी चुङैल के समान भयानक हो जायेंगी । इस सुन्दर शरीर से बदबू और घिन आयेगी, फ़िर बताओ इसमें ऐसा क्या है ? जो किसी स्त्री को नहीं पता, जो किसी पुरुष को नहीं पता, फ़िर भी कोई तृप्त हुआ आज तक । अन्तिम अंजाम जानते हुये भी ।
- नितिन जी ! वह ठहरे स्वर में बोला - बङे ही अजीब पल थे वो, वक्त जैसे थम गया था । उस पर कामदेवी सवार थी, और मुझे ये भी नहीं पता कि उस वक्त उसकी मुझसे क्या ख्वाहिश थी । सच ये है कि, मैं किसी सम्मोहन जैसी स्थिति में था । लेकिन उसका सौन्दर्य, उसके अंग, सभी मुझे विषैले लग रहे थे, और जैसे कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही थी । मुझे सही गलत का बोध करा रही थी, शब्द जैसे अपने आप मेरे मुँह से निकल रहे थे । जैसे शायद अभी भी निकल रहे हैं, शब्द ।
- लेकिन भाभी ! मेरा ये मतलब नहीं था । मैंने सावधानी से कहा - औरत की कामवासना को यदि उसके लिये नियुक्त पुरुष मौजूद हो, तब ऐसी बात कुछ अजीब सी लगती है न । इसीलिये मैंने कहा, शायद आप अतृप्त तो नहीं हो ।
- अतृप्तऽ.. अतृप्त । मनोज का यह शब्द रह रहकर उसके दिमाग में हथौङे सी चोट करने लगा । एकाएक उसकी मुखाकृति बिगङने लगी, और उसका बदन ऐंठने लगा । उसका सुन्दर चेहरा बेहद कुरूप हो उठा, और उसके चेहरे पर राख सी पुती नजर आने लगी ।
फिर वह बड़े जोर से हँसी, और..
- हाँ..! उसने एक झटका सा मारा, - हाँ, मैं अतृप्त ही हूँ । सदियों से प्यासी, एक अतृप्त औरत । एक प्यासी आत्मा, जिसकी प्यास, आज तक कोई दूर न कर सका, कोई भी ।
अब तक उकताहट महसूस कर रहा नितिन एकाएक सजग हो गया ।
उसकी निगाह स्वतः ही उस काली छाया पर गयी, जो बैचेनी से पहलू बदलने लगी थी । पर मनोज उन दोनों की अपेक्षा शान्त था ।
- फ़िर क्या हुआ ? बेहद उत्सुकता में नितिन के मुँह से निकला ।
- कुछ नहीं । उसने भावहीन स्वर में उत्तर दिया - कुछ नहीं हुआ, वह बेहोश हो गयी ।
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रात के दस बजने वाले थे ।
बादलों से फ़ैला अंधेरा कब का छँट चुका था, और नीले आसमान में चाँद निकल आया था । उस शमशान में दूर दूर तक कोई भी रात्रिचर जीव नजर नहीं आ रहा था । सिर्फ़ सिर के ऊपर उङते चमगादङों की सर्र सर्र कभी कभी उन्हें सुनाई दे जाती थी । बाकी भयानक सन्नाटा ही सांय सांय कर रहा था ।
मनोज अब काफ़ी सामान्य हो चुका था, और बिलकुल शान्त था ।
लेकिन अब नितिन के मन में भयंकर तूफ़ान उठ रहा था ।
क्या बात को यूँ ही छोङ दिया जाये । इसके घर, या अपने घर चला जाये, या घर चला ही नहीं जाये । यहीं, या फ़िर और कहीं, वह सब जाना जाये, जो इस लङके के दिल में दफ़न था । यदि वह मनोज को यूँ ही छोङ देता, तो फ़िर पता नहीं वह कहाँ मिलता, मिलता भी, या नहीं मिलता । आगे क्या कुछ होने वाला था, ऐसे ढेरों सवाल उसके दिलोदिमाग में हलचल कर रहे थे ।
- बस हम तीन लोग ही हैं घर में । मनोज फिर बिलकुल सामान्य होकर बोला - मैं, मेरा भाई, और मेरी भाभी ।
वे दोनों वापस पुल पर आ गये थे, और पुल की रेलिंग से टिके बैठे थे ।
यह वही स्थान था, जहाँ नीचे बहती नदी से नितिन उठकर उसके पास गया था, और जहाँ उसका वेस्पा स्कूटर भी खङा था ।
आज क्या ही अजीब सी बात हुयी थी । उन्हें यहाँ आये कुछ ही देर हुयी थी, और ये बहुत अच्छा था कि वह काली छाया यहाँ तक उनके साथ नहीं आयी थी । बस कुछ दूर पीछे चलकर अंधेरे में चली गयी थी । यहाँ बारबार आसपास ही महसूस होती अदृश्य रूहें भी नहीं थी, और सबसे बङी बात जो उसे राहत पहुँचा रही थी ।
मनोज यहाँ एकदम सामान्य व्यवहार कर रहा था ।
उसके बोलने का लहजा शब्द आदि भी सामान्य थे ।
फ़िर वहाँ क्या बात थी ? क्या वह किसी अदृश्य प्रभाव में था ।
किसी जादू टोने, किसी सम्मोहन, या ऐसा ही और कुछ अलग सा ।
- फ़िर क्या हुआ ? जब देर तक नितिन अपनी उत्सुकता रोक न सका, तो अचानक स्वतः ही उसके मुँह से निकला - उसके बाद क्या हुआ ?
- कब ? मनोज हैरानी से बोला - कब क्या हुआ, मतलब ?
नितिन के छक्के छूट गये ।
क्या वह किसी ड्रग्स का आदी था, या कोई प्रेत रूह, या कोई शातिर इंसान ।
अब उसके इस ‘कब’ का वह क्या उत्तर देता, सो चुप ही रह गया ।
- मुझे अब चलना चाहिये । अचानक मनोज उठता हुआ बोला - रात बहुत हो रही है, तुम्हें भी घर जाना होगा ।
कहकर वह तेजी से एक तरफ़ बढ़ गया ।
- अरे सुनो सुनो । नितिन हङबङा कर जल्दी से बोला - कहाँ रहते हो आप, मैं छोङ देता हूँ । सुनो भाई एक मिनट.. मनोज, तुम्हारा एड्रेस क्या है ?
- बन्द गली । उसे दूर से आते मनोज के शब्द सुनाई दिये - बन्द घर, जमीन के नीचे, अंधेरा बन्द कमरा ।
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- हा हा हा । मनसा जोगी ने भरपूर ठहाका लगाया - बन्द गली, बन्द घर, जमीन के नीचे, अंधेरा बन्द कमरा । हा हा..एकदम सही पता ।
नितिन एकदम हैरान रह गया ।
अक्सर गम्भीर सा रहने वाला उसका तांत्रिक गुरु खुलकर हँस रहा था ।
और उसके चेहरे पर रहस्यमय मुस्कान खेल रही थी ।
मनसा जोगी कुछ कुछ काले से रंग का, विशालकाय काले पहाङ जैसा, भारी भरकम इंसान था, और कोई भी उसको देखने सुनने वाला, धोखे से गोगा कपूर समझ सकता था । बस उसकी एक आँख छोटी और सिकुङी हुयी थी, जो उसकी भयानकता में वृद्धि करती थी ।
मनसा बहुत समय तक अघोरियों के सम्पर्क में उनकी शिष्यता में रहा था, और मुर्दा शरीरों पर शवसाधना करता था ।
पहले उसका झुकाव पूरी तरह तामसिक शक्तियों के प्रति था, लेकिन भाग्यवश उसके जीवन में यकायक बदलाव आया, और वह उसके साथ साथ द्वैत की छोटी सिद्धियों में हाथ आजमाने लगा ।
अघोर के उस अनुभवी को उम्मीद से पहले सफ़लता मिलने लगी, और उसके अन्दर का सोया इंसान जागने लगा ।
तब ऐसे ही किन्ही क्षणों में नितिन से उसकी मुलाकात हुयी, जो एकान्त स्थानों पर घूमने की आदत से हुआ महज संयोग भर था ।
मनसा जोगी शहर से बाहर थाने के पीछे टयूबवैल के पास घने पेङों के झुरमुट में एक कच्चे से बङे कमरे में रहता था ।
कमरे के आगे पङा बङा सा छप्पर उसके दालान का काम करता था । जिसमें अक्सर दूसरे साधु बैठे रहते थे ।
नितिन को रात भर ठीक से नींद नहीं आयी थी ।
तब वह सुबह इसी आशा में चला आया था कि मनसा शायद कुटिया पर ही हो, और संयोग से वह उसे मिल भी गया था ।
वह भी बिलकुल अकेला ।
इससे नितिन के उलझे दिमाग को बङी राहत मिली थी ।
पूरा विवरण सुनने के बाद जब मनसा एड्रेस को लेकर बेतहाशा हँसा, तो वह सिर्फ़ भौंचक्का सा उसे देखता ही रह गया ।
- भाग जा बच्चे । मनसा रहस्यमय अन्दाज में उसको देखता हुआ बोला - ये साधना, सिद्धि, तन्त्र, मन्त्र बच्चों के खेल नहीं, इनमें दिन रात ऐसे ही झमेले हैं । इसलिये अभी भी समय है । दरअसल ये वो मार्ग है, जिस पर जाना तो आसान है, पर लौटने का कोई विकल्प नहीं है ।
- मेरी ऐसी कोई खास ख्वाहिश भी नहीं । वह साधारण स्वर में बोला - पर इस दुनियाँ में कुछ चीजें क्या लोगों को इस तरह भी प्रभावित कर सकती हैं, कि जीवन उनके लिये एक उलझी हुयी पहेली बनकर रह जाये, उनका जीना ही दुश्वार हो जाये ।
मैं उसे बुलाने नहीं गया था, उससे मिलना एक संयोग भर था । जिस मुसीबत में वो आज था, उसमें कल मैं भी हो सकता हूँ । अन्य भी हो सकते हैं, तब क्या हम हाथ पर हाथ रखकर ऐसे ही बैठे देखते रहें ।
शायद यही होता है एक पढ़े लिखे इंसान, और लगभग अनपढ़ साधुओं में फ़र्क ।
मनसा इन थोङे ही शब्दों से बेहद प्रभावित हुआ । उसे इस सरल मासूम लङके में जगमगाते हीरे सी चमक नजर आयी ।
शायद वह एक सच्चा इंसान था, त्यागी था, और उसके हौसलों में शक्ति का उत्साह था, सो वह तुरन्त ही खुद भी सरल हो गया ।
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वही उस दिन वाला स्थान आज भी था ।
नदी के पुल से नीचे उतरकर बहती नदी के पास ही बङा सा पेङ ।
पिछले तीन दिन से वह यहीं मनोज का इंतजार कर रहा था, पर वह नहीं आया था ।
मनसा ने उसे बन्द गली, बन्द घर, जमीन के नीचे, अंधेरा बन्द कमरा का मतलब भी समझा दिया था । और और भी बहुत कुछ समझा दिया था । बस रही बात मनोज को फ़िर से तलाशने की, तो मनसा ने जो उपाय बताया, वो कोई गुरुज्ञान जैसा नहीं था बल्कि एक साधारण बात ही थी । जो अपनी हालिया उलझन के चलते यकायक उसे नहीं सूझी थी कि वो निश्चित ही उपचार के लिये तन्त्रदीप जलाने उसी स्थान पर आयेगा ।
सो वह पिछले तीन दिन से उसे देख रहा था ,पर वह नहीं आया था ।
उसने एक सिगरेट सुलगायी, और आदतन यूँ ही कंकङ उठाकर नदी की तरफ़ उछालने लगा । और तभी उसे मनोज आता दिखाई दिया । उसके आने से नितिन को एक अजीब सी अंदरूनी खुशी महसूस हुयी ।
- कमाल के आदमी हो भाई । मनोज उसे हैरानी से देखता हुआ बोला - क्या करने आते हो इस मनहूस शमशान में, जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे, पर आना उसकी मजबूरी है । क्योंकि आगे जाने के लिये गाङी यहीं से मिलेगी ।
- यही बात । अबकी वह सतर्कता से बोला - मैं आपसे भी पूछ सकता हूँ । क्या करने आते हो इस मनहूस शमशान में, जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे ।
ये चोट मानों सीधी उसके दिल पर लगी ।
वह बैचेन सा हो गया, और कसमसाता हुआ पहलू बदलने लगा ।
- दरअसल मेरी समझ में नहीं आता । आखिर वह सोचता हुआ सा बोला - क्या बताऊँ, और कैसे बताऊँ । मेरे परिवार में मैं, मेरी भाभी, और मेरा भाई हैं । हमने कुछ साल पहले एक नया घर खरीदा है । सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक कुछ अजीब सा घटने लगा, और उसी के लिये मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह कह सकूँ, जैसे वह होती है, पर मैं कह नहीं पाता ।
ये दीपक..उसने दीप की तरफ़ इशारा किया - एक प्रेत उपचार जैसा बताया गया है । लेकिन वास्तव में मुझे नहीं पता कि इसका सत्य क्या है ? यहाँ शमशान में, खास इस पीपल के वृक्ष के नीचे कोई दीपक जला देने से भला क्या हो सकता है, मेरी समझ से बाहर है । पर उस तांत्रिक भगत ने आश्वासन यही दिया है कि इससे हमारे घर का अजीब सा माहौल खत्म हो जायेगा ।
- क्या अजीब सा ? नितिन यूँ ही सामने दूर तक देखता हुआ बोला ।
- कुछ सिगरेट वगैरह है तुम्हारे पास ? अचानक वह अजीब सी बैचेनी महसूस करता हुआ बोला ।
उसने आज एक बात अलग की थी । वह अपना स्कूटर ही यहीं ले आया था, और उसी की सीट पर आराम से बैठा था । शायद कोई रात उसे पूरी तरह वहीं बितानी पङ जाये । इस हेतु उसने बैटरी से एक छोटा बल्ब जलाने का खास इंतजाम अपने पास कर रखा था, और सिगरेट के एक्स्ट्रा पैकेट का भी ।
उसने पैकेट मनोज की तरफ बढ़ा दिया ।
अगले कुछ ही मिनटों में जैसे फिर से नशा उस पर हावी होने लगा, और वह अतीत की गहराइयों में डूब गया । जहाँ वह था, और उसकी भाभी थी ।
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सुबह के ग्यारह बजने वाले थे ।
पदमा काम से फ़ारिग हो चुकी थी । वह अपने पति अनुराग के आफ़िस चले जाने के बाद सारा काम निबटा कर नहाती थी । उतने समय तक मनोज पढ़ता रहता, और उसके घरेलू कार्यों में भी हाथ बँटा देता ।
उसके नहाने के बाद दोनों साथ साथ खाना खाते । दोनों के बीच एक अजीब सा रिश्ता था, अजीब सी सहमति थी, अजीब सा प्यार था, अजीब सी भावना थी ।
जो कामवासना भी थी, और बिलकुल नहीं भी थी ।
पदमा ने बाथरूम में घुसते हुये कनखियों से मनोज को देखा ।
एक चंचल, शोख, रहस्यमय मुस्कान उसके होठों पर तैर उठी ।
उसने बाथरूम का दरवाजा बन्द नहीं किया, और सिर्फ़ हल्का सा पर्दा ही डाल दिया ।
पर्दा, जो मामूली हवा के झोंके से उङने लगता था ।
तभी आंगन में कुर्सी पर बैठकर पढ़ते हुये मनोज का ध्यान अचानक भाभी की मधुर गुनगुनाहट हु हु हूँ हूँ आऽ आऽ पर गया । वह किताब में इस कदर खोया हुआ था कि उसे पता ही नहीं था कि भाभी कहाँ है, और क्या कर रही है ?
तब उसकी दृष्टि ने आवाज का तार पकङा, और उसका दिल धक्क से रह गया ।
उसके शरीर में एक अजीब गर्माहट सी दौङ गयी ।
बाथरूम का पर्दा रह रहकर हवा से उङ जाता ।
पदमा ऊपरी हिस्से से निर्वस्त्र थी । और आँखें बन्द किये अपने ऊपर पानी उङेल रही थी ।
(एक बेहद अजीब और बेहद रहस्यमय प्रेत कथानक)
लेखकीय – जिन्दगी, और जिन्दगी से परे, के अनेक रहस्यमय पहलू अपने आप में समेटे हुये, ये लम्बी कहानी (लघु उपन्यास) दरअसल अपने रहस्यमय कथानक की भांति ही, अपने पीछे भी कहीं अज्ञात में, कहानी के अतिरिक्त, एक और ऐसा सच लिये हुये है ।
जो इसी कहानी की भांति ही, अत्यन्त रहस्यमय है ?
क्योंकि यह कहानी, सिर्फ़ एक कहानी न होकर, उन सभी घटनाक्रमों का एक माकूल जबाब था । नाटक का अन्त था, और पटाक्षेप था । जिसके बारे में सिर्फ़ गिने चुने लोग जानते थे, और वो भी ज्यों का त्यों नहीं जानते थे ।
खैर..कहानी की शैली थोङी अलग, विचित्र सी, दिमाग घुमाने वाली, उलझा कर रख देने वाली है, और सबसे बङी खास बात ये कि भले ही आप घोर उत्सुकता वश जल्दी से कहानी का अन्त पहले पढ़ लें । मध्य, या बीच बीच में, कहीं भी पढ़ लें । जब तक आप पूरी कहानी को गहराई से समझ कर, शुरू से अन्त तक नही पढ़ लेते । कहानी समझ ही नहीं सकते ।
और जैसा कि मेरे सभी लेखनों में होता है कि वे सामान्य दुनियावी लेखन की तरह न होकर विशिष्ट विषय और विशेष सामग्री लिये होते हैं ।
यह उपन्यास आपको कैसा लगा । तथा प्रसून के स्थान पर नया चरित्र नितिन कैसा लगा । इस संबंध में अपनी निष्पक्ष, बेबाक और अमूल्य राय से अवगत अवश्य करायें ।
- राजीव श्रेष्ठ ।
आगरा
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कामवासना
(एक बेहद अजीब और बेहद रहस्यमय प्रेत कथानक)
उस दिन मौसम अपेक्षाकृत शान्त था ।
आकाश में घने काले बादल छाये हुये थे । जिनकी वजह से सुरमई अंधेरा सा फ़ैल चुका था, और दोपहर चार बजे से ही गहराती शाम का आभास हो रहा था । उस एकान्त वीराने स्थान पर एक अजीब सी डरावनी खामोशी छायी हुयी थी । किसी सोच विचार में मगन चुपचाप खङे वृक्ष भी किसी रहस्यमय प्रेत की भांति मालूम होते थे ।
नितिन ने एक सिगरेट सुलगाई, और वहीं वृक्ष की जङ के पास मोटे तने से टिक कर बैठ गया ।
सिगरेट ! एक अजीब चीज, अकेलेपन की बेहतर साथी, दिलोदिमाग को सुकून देने वाली । एक सुन्दर समर्पित प्रेमिका सी, जो अन्त तक सुलगती हुयी प्रेमी को उसके होठों से चिपकी सुख देती है ।
उसने हल्का सा कश लगाया, और उदास निगाहों से सामने देखा । जहाँ टेङी मेङी अजीब से बलखाती हुयी नदी उससे कुछ ही दूरी पर बह रही थी ।
- कभी कभी कितना अजीब लगता है, सब कुछ । उसने सोचा - जिन्दगी भी क्या ठीक ऐसी ही नहीं है, जैसा दृश्य अभी है । टेङी मेङी होकर बहती, उद्देश्य रहित जिन्दगी । दुनियाँ के कोलाहल में भी छुपा अजीब सा सन्नाटा, प्रेत जैसा जीवन । इंसान का जीवन और प्रेत का जीवन समान ही है । दोनों ही अतृप्त, बस तलाश है वासना तृप्ति की ।
- उफ़्फ़ोह ! ये लङका भी अजीब ही है । उसके कानों में दूर माँ की आवाज गूँजी - फ़िर से अकेले में बैठा बैठा क्या सोच रहा है ? इतना बङा हो गया पर समझ में नहीं आता, ये किस समझ का है । आखिर क्या सोचता रहता है इस तरह ।
- क्या सोचता है इस तरह ? उसने फ़िर से सोचा - उसे खुद ही समझ में नहीं आता कि वह क्या सोचता है, क्यों सोचता है, या कुछ भी नहीं सोचता है । जिसे लोग सोचना कहते हैं, वह शायद उसके अन्दर है ही नहीं, वह तो जैसा भी है, है ।
उसने एक नजर पास ही खङे स्कूटर पर डाली और छोटा सा कंकर उठाकर नदी की ओर उछाल दिया ।
नितिन बी.ए. का छात्र था और मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर का रहने वाला था । उसके पिता शहर में ही मध्य स्तर के सरकारी अफ़सर और माँ साधारण सी घरेलू महिला थी । उसकी एक बडी बहन थी, जिसकी मध्यप्रदेश में ही दूर किसी अच्छे गाँव में शादी हो चुकी थी ।
नितिन का कद पाँच फ़ुट नौ इंच था, और वह साधारण शक्ल सूरत वाला, सामान्य से पैन्ट शर्ट पहनने वाला एक कसरती युवा था । उसके बालों का स्टायल साधारण और वाहन के रूप में उसका अपना स्कूटर ही था ।
वह शुरु से ही अकेला और तनहाई पसन्द था । शायद इसीलिये उसकी कभी कोई प्रेमिका न रही, और न ही उसका कोई खास दोस्त ही था । दुनियाँ के लोगों की भीङ में भी वह खुद को बेहद अकेला महसूस करता, और हमेशा चुप और खोया खोया रहता । यहाँ तक कि कामभाव भी उसे स्पर्श नही करता ।
तब इसी अकेलेपन और ऐसी आदतों ने उसे सोलह साल की उम्र में ही गुप्त रूप से तन्त्र, मन्त्र और योग की रहस्यमयी दुनियाँ की तरफ़ धकेल दिया । लेकिन उसके जीवन के इस पहलू को कोई नही जानता था ।
अंतर्मुखी स्वभाव का ये लङका स्वभाव से शिष्ट और बेहद सरल था ।
उसे बस एक ही शौक था, कसरत करना ।
कसरत ! वह उठकर खङा हो गया । उसने खत्म होती सिगरेट में आखिरी कश लगाया और सिगरेट को दूर उछाल दिया ।
स्कूटर की तरफ़ बढ़ते ही उसकी निगाह साइड में कुछ दूर खङे बङे पीपल पर गयी और वह हैरानी से उस तरफ़ देखने लगा ।
कोई नवयुवक पीपल की जङ से दीपक जला रहा था ।
उसने घङी पर निगाह डाली । ठीक छह बज चुके थे ।
अंधेरा तेजी से बढ़ता जा रहा था ।
उसने एक पल के लिये कुछ सोचा फ़िर तेजी से उधर ही जाने लगा ।
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- क्या बताऊँ दोस्त ? वह गम्भीरता से दूर तक देखता हुआ बोला - शायद तुम कुछ न समझोगे, ये बङी अजीब कहानी ही है । भूत प्रेत जैसी कोई चीज क्या होती है ? तुम कहोगे, बिलकुल नहीं । मैं भी कहता हूँ, बिलकुल नहीं । लेकिन कहने से क्या हो जाता है, फ़िर क्या भूत प्रेत नहीं ही होते ।
- ये दीपक ? नितिन हैरानी से बोला - ये दीपक, आप यहाँ क्यों ..मतलब ?
- मेरा नाम मनोज है । लङके ने एक निगाह दीपक पर डाली - मनोज पालीवाल, ये दीपक क्यों? दरअसल मुझे खुद पता नहीं, ये दीपक क्यों ? इस पीपल के नीचे ये दीपक जलाने से क्या हो सकता है । मेरी समझ के बाहर है, लेकिन फ़िर भी जलाता हूँ ।
- पर कोई तो वजह ..वजह ? नितिन हिचकता हुआ सा बोला - जब आप ही..आप ही तो जलाते हैं ।
- बङे भाई ! वह गहरी सांस लेकर बोला - मुझे एक बात बताओ । घङे में ऊँट घुस सकता है, नहीं ना । मगर कहावत है । जब अपना ऊँट खो जाता है, तो वह घङे में भी खोजा जाता है । शायद इसका मतलब यही है कि समस्या का जब कोई हल नजर नहीं आता । तब हम वह काम भी करते हैं, जो देखने सुनने में हास्यास्पद लगते हैं । जिनका कोई सुरताल ही नहीं होता ।
उसने बङे अजीब भाव से एक उपेक्षित निगाह दीपक पर डाली, और यूँ ही चुपचाप सूने मैदानी रास्ते को देखने लगा । उस बूढ़े पुराने पीपल के पत्तों की अजीब सी रहस्यमय सरसराहट उन्हें सुनाई दे रही थी ।
अंधेरा फ़ैल चुका था, और वे दोनों एक दूसरे को साये की तरह देख पा रहे थे ।
मरघट के पास का मैदान ।
उसके पास प्रेत स्थान युक्त ये पीपल, और ये तन्त्रदीप ।
नितिन के रोंगटे खङे होने लगे ।
तभी अचानक उसके बदन में एक तेज झुरझुरी सी दौङ गयी ।
उसकी समस्त इन्द्रियाँ सजग हो उठी ।
वह मनोज के पीछे भासित उस आकृति को देखने लगा ।
जो उस कालिमा में काली छाया सी ही उसके पीछे खङी थी, और मानों उस तन्त्रदीप का उपहास उङा रही थी ।
- मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें । क्या मामला है, क्या होने वाला है ?
- कुछ..सिगरेट वगैरह..। मनोज हिचकिचाता हुआ सा बोला - रखते हो । वैसे अब तक कब का चला जाता, पर तुम्हारी वजह से रुक गया । तुमने दुखती रग को छेङ दिया । इसलिये कभी सोचता हूँ, तुम्हें सब बता डालूँ । दिल का बोझ कम होगा । पर तुरन्त ही सोचता हूँ । उसका क्या फ़ायदा, कुछ होने वाला नहीं है ।
- कितना शान्त होता है, ये मरघट । मनोज एक गहरा कश लगाकर फ़िर बोला - ओशो कहते हैं, दरअसल मरघट ठीक बस्ती के बीच होना चाहिये । जिससे आदमी अपने अन्तिम परिणाम को हमेशा याद रखें ।
मनोज को देने के बाद उसने भी एक सिगरेट सुलगा ली और जमीन पर ही बैठ गया । लेकिन मनोज ने सिगरेट को सादा नहीं पिया । उसने एक पुङिया में से चरस निकाला । उसने वह नशा नितिन को भी आफ़र किया, लेकिन उसने शालीनता से मना कर दिया ।
तेल से लबालब भरे उस बङे दिये की पीली रोशनी में वे दोनों शान्त बैठे थे ।
नितिन ने एक निगाह ऊपर पीपल की तरफ़ डाली, और उत्सुकता से उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा ।
उसे हैरानी हो रही थी । वह काली अशरीरी छाया उन दोनों से थोङा दूर ही शान्ति से बैठी थी, और कभी कभी एक उङती निगाह मरघट की तरफ़ डाल लेती थी ।
नितिन की जिन्दगी में यह पहला वास्ता था । जब उसे ऐसी कोई छाया नजर आ रही थी । रह रहकर उसके शरीर में प्रेत की मौजूदगी के लक्षण बन रहे थे । उसे वायु रूहों का पूर्ण अहसास हो रहा था, और एकबारगी तो वह वहाँ से चला जाना ही चाहता था, पर किन्हीं अदृश्य जंजीरों ने जैसे उसके पैर जकङ दिये थे ।
- मनसा जोगी ! वह हल्का सा भयभीत हुआ - रक्षा करें ।
मनोज पर चरसी सिगरेट का नशा चढ़ने लगा । उसकी आँखें सुर्ख हो उठी ।
- ये जिन्दगी बङी अजीब है मेरे दोस्त । वह किसी कथावाचक की तरह गम्भीरता से बोला - कब किसको बना दे । कब किसको उजाङ दे । कब किसको मार दे । कब किसको जिला दे ।
- आपको । नितिन सरल स्वर में बोला - घर नहीं जाना, रात बढ़ती जा रही है । मेरे पास स्कूटर है । मैं आपको छोङ देता हूँ ।
- एक सिगरेट.. और दोगे । वह प्रार्थना सी करता हुआ बोला - प्लीज बङे भाई ।
उसने बङे अजीब ढंग से फ़िर उस काली छाया को देखा, और पैकेट ही उसे थमा दिया । थोङी थोङी हवा चलने लगी थी, और उससे दिये की लौ लपलपा उठती थी ।
मनोज ने उसे जङ की आङ में कर दिया, और दोबारा पुङिया निकाल ली ।
- बताऊँ । वह फ़िर से उसकी तरफ़ देखता हुआ बोला - या न बताऊँ ?
वह उसे फ़िर से सिगरेट में चरस भरते हुये देखता रहा । उसे इस बात पर हैरानी हो रही थी कि जो प्रेतक उपस्थिति के अनुभव उसे हो रहे हैं । क्या उसे नहीं हो रहे, या फ़िर नशे की वजह से वह उन्हें महसूस नहीं कर पा रहा, या फ़िर अपने किसी गम की वजह से वह उसे महसूस नहीं कर पा रहा ।
या.. उसके दिमाग में यकायक विस्फ़ोट सा हुआ ।
या वह ऐसे अनुभवों का अभ्यस्त तो नहीं है ।
उसकी निगाह तुरन्त तन्त्र दीप पर गयी, और स्वयं ही उस काली छाया पर गयी ।
छाया जो किसी औरत की थी, और पीली मुर्दार आँखों से उन दोनों को ही देख रही थी ।
एकाएक जैसे उसके दिमाग में सब तस्वीर साफ़ हो गयी ।
वह निश्चित ही प्रेतवायु का लम्बा अभ्यस्त था ।
साधारण इंसान किसी हालत में इतनी देर प्रेत के पास नहीं ठहर सकता था ।
- मेरा बस चले तो साली की...। उसने भरपूर सुट्टा लगाया और घोर नफ़रत से बोला -पर.. पर कोई सामने तो हो, कोई नजर तो आये । अदृश्य को कैसे क्या करूँ । बोलो, तुम बोलो । क्या गलत कह रहा हूँ मैं ।
- लेकिन मनोज जी ?
- बताता हूँ, सब बताता हूँ, बङे भाई । जाने क्यों अन्दर से आवाज आ रही है कि तुम्हें सब कुछ बताऊँ, जाने क्यों । मेरे गाली बकने को गलत मत समझना । आदमी जब बेवश हो जाता है, तो फ़िर उसे और कुछ नहीं सूझता, सिवाय गाली देने के ।
फिर उसकी अजीब सी आँखें जैसे शून्य में स्थिर हो गयी, और वह अतीत के आयाम में खोता चला गया ।
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पदमा ने धुले कपङों से भरी बाल्टी उठाई, और बाथरूम से बाहर आ गयी ।
उसके बङे से आंगन में धूप खिली हुयी थी । वह फ़टकारते हुये एक एक कपङे को तार पर डालने लगी । उसकी लटें बारबार उसके चेहरे पर झूल जाती थी, जिन्हें वह नजाकत से पीछे झटक देती थी ।
विवाह के चार सालों में ही उसके यौवन में भरपूर निखार आया था, और उसका अंग अंग खिल सा उठा था । अपने ही सौन्दर्य को देखकर वह मुग्ध हो जाती, और तब उस में एक अजीब सा रोमांच भर जाता ।
वाकई पुरुष में कोई जादू होता है, उसकी समीपता में एक विचित्र उर्जा होती है, जो लङकी को फ़ूल की तरह से महका देती है । विवाह के बाद उसका शरीर तेजी से भरा था ।
ये सोचते ही उसके चेहरे पर शर्म की लाली दौङ गयी ।
मनोज ने एक गहरी सांस ली, और उदास नजरों से नितिन को देखा ।
उसकी आँखें हल्की हल्की नम हो चली थी ।
- नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - कैसा अजीब बनाया है, ये दुनियाँ का सामाजिक ढांचा, और कैसा अजीब बनाया है, देवर भाभी का सम्बन्ध । दरअसल..मेरे दोस्त, ये समाज समाज नहीं, पाखण्डी लोगों का समूह मात्र है । हम ऊपर से कुछ और बरताव करते हैं, हमारे अन्दर कुछ और ही मचल रहा होता है ।
हम सब पाखण्डी हैं, तुम, मैं और सब ।
मेरी भाभी ने मुझे माँ के समान प्यार दिया । मैं पुत्रवत ही उससे लिपट जाता, उसके ऊपर लेट जाता, और कहीं भी छू लेता, क्योंकि तब उस स्पर्श में कामवासना नहीं थी । इसलिये मुझे कहीं भी छूने में झिझक नहीं थी, और फ़िर वही भाभी कुछ समय बाद मुझे एक स्त्री नजर आने लगी, सिर्फ़ एक जवान स्त्री ।
तब मेरे अन्दर का पुत्र लगभग मर गया, और उसकी जगह सिर्फ़ पुरुष बचा रह गया । भाभी को चुपके चुपके देखना और झिझकते हुये छूने को जी ललचाने लगा ।
जिस भाभी को मैं कभी गोद में ऊँचा उठा लेता था । भाभी मैं नहीं, मैं नहीं.. कहते कहते उनके सीने से लग जाता, अब उसी भाभी को छूने में एक अजीब सी झिझक होने लगी ।
इस कामवासना ने हमारे पवित्र माँ, बेटे जैसे प्यार को गन्दगी का कीचङ सा लपेट दिया । लेकिन शायद ये बात सिर्फ़ मेरे अन्दर ही थी, भाभी के अन्दर नहीं ।
उसे पता भी नहीं था कि मेरी निगाहों में क्या रस पैदा हो गया ?
और तब तक तो मैं यही सोचता था ।
बाल्टी से कपङे निकाल कर निचोङती हुयी पदमा की निगाह अचानक सामने बैठे मनोज पर गयी । फ़िर अपने पर गयी, उसका वक्ष आँचल रहित था, और साङी का आँचल उसने कमर में खोंस लिया था ।
अतः वह चोर नजरों से उसे देख रहा था ।
- क्या गलती है इसकी ? उसने सोचा - कुछ भी तो नहीं, ये होने जा रहा मर्द है । कौन ऐसा साधु है, जो युवा स्त्री का दीवाना नहीं होता । बूढ़ा, जवान, अधेङ, शादीशुदा या फ़िर कुंवारा, भूत, प्रेत या देवता भी ।
सच तो ये है कि एक स्त्री भी स्त्री को देखती है । स्वयं से तुलनात्मक या फ़िर वासनात्मक भी । शायद ईश्वर की कुछ खास रचना हैं नारी ।
अतः उसने आँचल ठीक करने का कोई उपक्रम नहीं किया, और सीधे तपाक से पूछा - क्या देख रहा था ?
मनोज एकदम हङबङा गया, उसने झेंप कर मुँह फ़ेर लिया ।
उसके चेहरे पर ग्लानि के भाव थे ।
पदमा ने आखिरी कपङा तार पर डाला, और उसके पास ही चारपाई पर बैठ गयी ।
उसके मन में एक अजीब सा भाव था, शायद एक शाश्वत प्रश्न जैसा ।
औरत ! पुरुष की कामना, औरत । औरत..पुरुष की वासना, औरत । औरत..पुरुष की भावना, औरत ।
फ़िर वह उसके प्राकृतिक भावों को कौन से नजरिये से गलत समझे । उसकी जगह उसका कोई दूरदराज का चाचा, ताऊ भी निश्चित ही उसके लिये यही आंतरिक भाव रखता । क्योंकि वह एक सम्पूर्ण लौकिक औरत थी ।
भांति भांति के कुदरती सुन्दर फ़ूलों की तरह ही सृष्टिकर्ता ने औरत को भी विशेष सांचे में ढालकर बनाया । जहाँ उसके अंगों में मधुर रस भरा, वहीं उसके सौन्दर्य में फ़ूलों की महक डाल दी । जहाँ उसके अंगों में मादक सुरा के पैमाने भर दिये । वहीं उसकी सादगी में एक शान्त, धीर, गम्भीर देवी नजर आयी ।
पदमा भी कुछ ऐसी ही थी ।
उसकी बङी बङी काली आँखों में एक अजीब सा सम्मोहन था, जो साधारण दृष्टि से देखने पर भी यौन आमन्त्रण सा मालूम होता था ।
पदमिनी स्त्री प्रकार की ये नायिका, मानों धरा के फ़लक पर कयामत बनकर उतरी थी । उसके लहराते लम्बे रेशमी बाल उसके कन्धों पर फ़ैले रहते थे । वह नये नये स्टायल का जूङा बनाने और इत्र लगाने की बेहद शौकीन थी ।
- मनोज ! वह सम्मोहनी आँखों से देखती हुयी बोली - तुम चोरी चोरी अभी क्या देख रहे थे । डरो मत सच बताओ, मैं किसी को बोलूँगी नहीं, शायद मेरे तुम्हारे मन में एक ही बात हो ।
- भाभी ! वह कठिनता से बोला - आपने कभी किसी से प्यार किया है ?
- प्यार..हाँ किया है । वह सहजता से सरल स्वर में बोली - हर लङका लङकी किशोरावस्था में किसी न किसी विपरीत लिंगी से प्यार करते ही हैं । भले ही वो प्यार एकतरफ़ा हो, दोतरफ़ा हो । सफ़ल हो, असफ़ल हो । मैंने भी अपने गाँव के एक लङके जतिन से प्यार किया । पर वो ऐसा पागल निकला कि मुझ रूप की रानी के प्यार की परवाह न कर साधु हो गया ।
हाँ मनोज, उसका मानना था कि ईश्वर से प्यार ही सच्चा प्यार है । बाकी मेरी जैसी सुन्दर औरत तो जीती जागती माया है ।
माया ! उसने एक गहरी सांस ली ।
वह चुप ही रहा, पर रह रहकर भाभी का आकर्षण उसे वहीं देखने को विवश कर देता, और पदमा उसे इसका मौका दे रही थी । इसीलिये वह अपनी नजरें उससे मिलाने के बजाय इधर उधर कर लेती ।
- बस । कुछ देर बाद वह फ़िर से बोली - एक बार तुम बिलकुल सच बताओ, तुम चोरी चोरी क्या देख रहे थे । फ़िर मैं भी तुम्हें कुछ बताऊँगी । शायद जिस सौन्दर्य की झलक से तुम बैचेन हो । वह सौन्दर्य तुम्हारे सामने हो, क्योंकि..कहते कहते वह रुकी - मैं भी एक औरत हूँ, और मैं अपने सौन्दर्य प्रेमी को अतृप्त नहीं रहने दे सकती, कभी नहीं ।
- नहीं । वह तेजी से बोला - ऐसा कुछ नहीं, ऐसा कुछ नहीं है भाभी माँ । मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता । पर मैं सच कहूँगा.. न जाने क्यों देखने को दिल करता है ।
उसकी साफ़, सरल, सीधी, सच्ची, स्पष्ट बात और मासूमियत पर पदमा हँसते हँसते पागल हो उठी । यकायक उसके मोतियों जैसे चमकते दाँतों की बिजली सी कौंधती, और उसके हँसने की मधुर मादक स्वर लहरी वातावरण में कामरस घोल देती ।
वह भी मूर्खों की भांति उसके साथ हँसने लगा ।
- एक मिनट, एक मिनट । वह अपने को संयमित करती हुयी बोली - क्या बात कही । मनोज मुझे तेरी बात पर अपनी एक सहेली की याद आ गयी, उसकी नयी नयी शादी हुयी थी । पहली विदाई में जब वह पीहर आने लगी, तो उसका पति बहुत उदास हो गया ।
वह बोली, ऐसे क्यों मुँह लटका लिया, मैं मर थोङे न गयी । सिर्फ़ आठ दिन को जा रही हूँ । तब उसका पति बोला कि वह बात नहीं, दुख जाने का नहीं है । बल्कि दुख तो इस बात का है कि तुझे देखने में भी एक अजीब सा सुख, अजीब सी तृप्ति मिलती थी । अब वह नहीं मिलेगी । इसलिए तू जाती हो तो जा, पर इन यौवन फलों को मुझे देती जा । जो मुझे बेहद सुख देते हैं ।
अचानक अब तक गम्भीर बैठे नितिन ने जोरदार ठहाका लगाया ।
ऐसी अजीब बात उसने पहली बार ही सुनी थी ।
माहौल की मनहूसियत एकाएक छँट सी गयी ।
मनोज हल्के नशे में था, पर वह भी उसके साथ हँसा ।
अजीब सा सस्पेंस फ़ैलाया था इस लङके ने ।
वह सिर्फ़ इस जिज्ञासा के चलते उसके पास आया था कि वो ये तन्त्रदीप क्यों जला रहा था, कौन सी प्रेतबाधा का शिकार हुआ था ?
और अभी इस साधारण से प्रश्न का उत्तर मिल पाता कि वह काली अशरीरी छाया एक बङे अनसुलझे रहस्य की तरह वहाँ प्रकट हुयी, और इस रहस्य में एक और प्रश्न जुङ गया था ।
- मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा कर ।
वह काली छाया अभी भी उस बूढ़े पीपल के आसपास ही टहल रही थी ।
वह शहर से बाहर स्थानीय उजाङ और खुला शमशान था, सो अशरीरी रूहों के आसपास होने का अहसास उसे बारबार हो रहा था ।
पर मनोज इस सबसे बिलकुल बेपरवाह बैठा था ।
दरअसल नितिन ने प्रत्यक्ष अशरीरी भासित रूह को पहली बार ही देखा था, पर वह तन्त्र क्रियाओं से जुङा होने के कारण ऐसे अनुभवों का कुछ हद अभ्यस्त था । लेकिन वह युवक तो उपचार के लिये आया था, फ़िर वह कैसे ये सब महसूस नहीं कर रहा था ?
और उसके ख्याल में इसके दो ही कारण हो सकते थे । उसका भी प्रेतों के सामीप्य का अभ्यस्त होना, या फ़िर नशे में होना, या उसकी निडरता अजानता का कारण वह भी हो सकता था, या फ़िर वह अपने ख्याली गम में इस तरह डूबा था कि उसे माहौल की भयंकरता पता ही नहीं चल रही थी ।
बरबस ही नितिन की निगाह फ़िर एक बार काली छाया पर गयी ।
- मैं सोचता हूँ । फ़िर वह कुछ अजीब से स्वर में बोला - अब हमें घर चलना चाहिये ।
- अरे बैठो दोस्त ! मनोज फ़िर से गहरी सांस भरता हुआ बोला - कैसा घर, कहाँ का घर, सब मायाजाल है, चिङा चिङी के घोंसले । चिङा चिङी..अरे हाँ ..मुझे एक बात बताओ, तुमने औरत को कभी वैसे देखा है, बिना वस्त्रों में । एक खूबसूरत जवान औरत, पदमिनी नायिका, रूपसी, रूप की रानी जैसी एक नग्न औरत ।
- सुनो ! वह हङबङा कर बोला - तुम बहकने लगे हो, हमें अब चलना चाहिये ।
- ठ ठहरो भाई ! तुम गलत समझे । वह उदास हँसी हँसता हुआ बोला - शायद फ़िर तुमने ओशो को नहीं पढ़ा । मैं आंतरिक भावों से नग्नता की बात कर रहा हूँ, और इस तरह कोई नग्न नहीं कर पाता, शायद उसका पति भी नहीं । शायद उसका पति यानी मेरा सगा भाई ।
भाई !
भाई मुझे समझ में नहीं आता कि मैं कसूरवार हूँ या नहीं, याद रखो ।.. वह दार्शनिकता दिखाता हुआ बोला - किसी को नग्न करना आसान नहीं, और वस्त्ररहित नग्नता नग्नता नहीं है ।
- ठीक है मनोज । पदमा अंगङाई लेकर बङी बङी आँखों से सीधी उसकी आँखों में झांकती हुयी बोली - तुमने बिलकुल सही, और सच बोला । ये सच है कि किसी भी लङकी में जैसे ही यौवन पुष्प खिलना शुरू होते हैं, वह सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाती है । एक सादा सी लङकी मोहक मोहिनी में रूपांतरित होने लगती है, तुमने कभी इस तरह सोचा ।.. मैं जानती हूँ, तुम मुझे पूरी तरह देखना चाहते हो, छूना चाहते हो, खेलना चाहते हो । क्योंकि ये सब सोचते समय तुम्हारे अन्दर, मैं तुम्हारी भाभी नहीं, सिर्फ़ एक खूबसूरत औरत होती हूँ । उस समय भाभी मर जाती है, सिर्फ़ औरत रह जाती है, बताओ मैंने सच कहा न ?
- गलत । वह कठिन स्वर में बोला - एकदम गलत, ऐसा तो मैंने कभी नहीं सोचा । सच बस इतना ही है कि जब भी इस घर में तुम्हें चलते फ़िरते देखता हूँ, तो मैं तुम्हें पहले पूरा ही देखता हूँ । लेकिन फ़िर न जाने क्यों निगाह इधर हो जाती है । यह देखना क्यों आकर्षित करता है, मैं समझ नहीं पाता ।
- क्या । वह बेहद हैरत से बोली - तुम्हें मुझे पूरी तरह देखने की इच्छा नहीं करते ?
- कभी नहीं । वह झटके से सख्त स्वर में बोला - क्योंकि साथ ही मुझे ये भी पता है कि तुम मेरी भाभी हो, भाभी माँ ! और एक बच्चा भी अपने माँ के आँचल से प्यार करता है, सम्मोहित होता है । उसे भी माँ के स्तनों से लगाव होता है, जिनसे वह पोषण पाता है । वह एक पति की तरह माँ के शरीर को स्पर्श करता है । उसके पूर्ण शरीर पर जननी भूमि की तरह खेलता है । पर, उसकी ऐसी इच्छा कभी हो सकती है कि अपनी माँ को नग्न देखूँ ।
पदमा की बङी बङी काली आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयी ।
उसका सौन्दर्य अभिमान पल में चूर चूर हो गया ।
मनोज जितना बोल रहा था, एकदम सच बोल रहा था ।
क्या अजीब झमेला था ।
नितिन बङी हैरत में था ।
वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था कि यहाँ रुके या घर चला जाये । इसको साथ ले जाये, या इसे इसके हाल पर छोङ जाये । कौन था ये लङका ? कैसी अजीब सी थी इसकी कहानी, और वह काली स्त्री छाया ।
उसने फ़िर से उधर देखा । वह छाया भी जैसे थक कर जमीन पर बैठ गयी थी ।
तभी अचानक वह चौंका ।
मनोज ने जेब से देशी तमंचा निकाला, और उसकी ओर बढ़ाया ।
- मेरे अजनबी दोस्त । वह डूबे स्वर में बोला - आज तुम मेरी कहानी सुन लो । मुझे कसूरवार पाओ, तो बेझिझक मुझे शूट कर देना, और यदि तुम मेरी कहानी नहीं सुनते । बीच में ही चले जाते हो, फ़िर मैं ही अपने आपको शूट कर लूँगा । और इसके जिम्मेदार तुम होगे, सिर्फ़ तुम ।
उसने उँगली नितिन की तरफ़ उठाई ।
लेकिन वह कुछ न बोला, और चुप बैठा हुआ, उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा ।
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मध्यप्रदेश ।
मध्य भारत का एक राज्य । राजधानी भोपाल ।
यह प्रदेश क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बडा राज्य था, लेकिन इस राज्य के कई नगर उससे हटा कर छत्तीसगढ़ बना दिया गया । इस प्रदेश की सीमायें महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से मिलती है ।
मध्यप्रदेश के तुंग उतुंग पर्वत शिखर, विन्ध्य सतपुड़ा, मैकल कैमूर की उपत्यिकाओं के अन्तर से गूँजती अनेक पौराणिक कथायें नर्मदा, सोन, सिन्ध, चम्बल, बेतवा, केन, धसान, तवा, ताप्ती आदि नदियों के उदगम और मिलन की कथाओं से फूटती हजारों धारायें यहाँ के जीवन को हरा भरा कर तृप्त करती हैं ।
निमाड़ मध्यप्रदेश के पश्चिमी अंचल में आता है ।
इसकी भौगोलिक सीमाओं में एक तरफ़ विन्ध्य की उतुंग पर्वत श्रृंखला और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा की सात उपत्यिकाएँ हैं, और मध्य में बहती है नर्मदा की जलधार ।
पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था, बाद में इसे निमाड़ कहा गया ।
इसी निमाङ की अमराइयों में तब कोयल की कूक गूंजने लगी थी । पलाश के फूलों की लाली फ़ैल रही थी । होली का खुमार सिर चढ़कर बोल रहा था, और मधुर गीतों की गूँज से निमाङ चहक रहा था ।
दिल में ढेरों रंग बिरंगे अरमान लिये, रंग बिरंगे ही वस्त्रों में सजी सुन्दर युवतियों के होंठ गुनगुना रहे थे - म्हारा हरिया ज्वारा हो कि, गहुआ लहलहे मोठा हीरा भाई वर बोया जाग ।
और इसी रंग बिरंगी धरती पर वह रूप की रानी पदमा, आँखों में रंग बिरंगे सपने सजाये, जैसे सब बन्धन तोङ देने को मचल रही थी । उसकी छातियों में मीठी मीठी कसक थी, और उसके दिल में एक अजीब अनजान सी हूक थी ।
- आज की रात । नितिन ने सोचा - इसी वीराने में बीतने वाली थी । कहाँ का फ़ालतू लफ़ङा उसे आ लगा था । साँप के मुँह में छछूँदर, न निगलते बने न उगलते ।
- पर मेरे दोस्त । मनोज फ़िर से बोला - जिन्दगी किसी हसीन ख्वाब जैसी नहीं होती, कभी नहीं होती । जिन्दगी की ठोस हकीकत कुछ और ही होती है ? कुछ और ही ।
यकायक नितिन उकताने सा लगा ।
वह उठ खङा हुआ, और फ़िर बिना बोले ही चलने को हुआ ।
मनोज ने उसे कुछ नहीं कहा, और तमंचा कनपटी से लगा लिया - ओके मेरे अजनबी दोस्त, अलविदा ।
आ बैल मुझे मार, जबरदस्ती गले लग जा । शायद इसी के लिये कहा गया है ।
हारे हुये जुआरी की तरह वह फ़िर से बैठ गया ।
मनोज ने एक सिगरेट निकाल कर सुलगा ली ।
नितिन खामोशी से उस छाया को ही देखता रहा ।
- लेकिन मैं शर्मिन्दा नहीं हूँ । पदमा सहजता से बोली - अभी भी नहीं हूँ । अभी अभी तुमने कहा कि मुझे देखना तुम्हें भाता है, फ़िर बताओ..क्यों ? बोलो बोलो ।
ऐसे ही मैं भी तुमको बहुत निगाहों से देखती हूँ । अगर तुम्हारे दिल में कुछ कामरस सा जागता है, तो फ़िर मेरे दिल में क्यों नहीं ? और वैसे भी देवर भाभी का सम्बन्ध अनैतिक नहीं है । देवर को ‘द्वय वर’ कहा गया है, दूसरा वर । यह एक तरह से समाज का अलिखित कानून है, देवर भाभी के शरीरों का मिलन हो सकता है ।
मनोज शायद तुम्हें मालूम न हो, क्योंकि दुनियादारी के मामले में तुम अभी बच्चे हो । अगर किसी स्त्री को उसके पति से औलाद न होती हो, तो उसकी निर्बीज जमीन में प्रथम देवर ही बीज डालता है । उसके बाद कुछ परिस्थितियों में जेठ भी । और जानते हो, ऐसा हमेशा घर वालों की मर्जी से उनकी जानकारी में होता है । वे कुँवारे या शादीशुदा देवर को प्रेरित करते हैं कि वह भाभी की उजाङ जिन्दगी में खुशियों की फ़सल लहलहा दे ।
नितिन के दिमाग में विस्फ़ोट सा हुआ, कैसा अजीब संसार है यह ।
शायद यहाँ बहुत कुछ ऐसा विचित्र है, जिसको उस जैसे लोग कभी नहीं जान पाते ।
तन्त्रदीप से शुरू हुयी उसकी मामूली प्रेतक जिज्ञासा इस लङके के दिल में घुमङते कैसे तूफ़ान को सामने ला रही थी ।
उसने सोचा तक न था । सोच भी न सकता था ।
- शब्द । वह तमंचा जमीन पर रखता हुआ बोला – शब्द, और शब्दों का कमाल । हैरानी की बात थी कि भाभी के शब्द आज मुझे जहर से लग रहे थे । उसके चुलबुले पन में मुझे एक नागिन नजर आ रही थी । उसके बेमिसाल सौन्दर्य में मुझे डायन नजर आ रही थी, एक खतरनाक चुङैल, मुझे.. । अचानक बीच में जैसे उसे कुछ याद सा आया - एक बात बताओ तुम भूत प्रेतों में विश्वास करते हो । मेरा मतलब भूत होते हैं, या नहीं होते हैं ?
नितिन ने एक सिहरती सी निगाह काली छाया पर डाली ।
उसका ध्यान सरसराते पीपल के पत्तों पर गया ।
फ़िर निरन्तर कभी कभी आसपास महसूस होती अदृश्य रूहों पर गया ।
उसने गौर से मनोज को देखा, और बोला - पता नहीं, कह नहीं सकता, शायद होते हों, शायद न होते हों ।
अब वह बङी उलझन में था ।
उसने सोचा - ये अपने दिल का गम हल्का करना चाहता है । क्या वह स्वयं इससे प्रश्न पूछे, और जल्दी जल्दी ये बताता चला जाये, और बात खत्म हो । पर तुरन्त ही उसका दिमाग रियेक्ट करता, इसके अन्दर कोई बहुत बङा रहस्य, कोई बहुत बङी आग जल रही है । जिसका निकल जाना जरूरी है, वरना शायद ये खुद को गोली भी मार ले, मार सकता था । इसलिये एक जिन्दगी की खातिर, उसमें स्वयं जो क्रिया हो रही थी, वही तरीका अधिक उचित था, और तब उसे सिर्फ़ सुनना था, देखना था ।
- मनसा जोगी । वह भाव से बे स्वर बोला - रक्षा कर ।
- लेकिन, मैं जानता हूँ । मनोज फ़िर से बोला - मैंने उन्हें कभी देखा तो नहीं, पर मुझे पक्का पता है, होते हैं, और तुम जानते हो, इनके भूत-प्रेत होने का जो मुख्य कारण है, बस एक ही है, कामवासना । व्यक्ति में निरन्तर सुलगती, कामवासना । कामवासना से पीङित, कामवासना से अतृप्त रहा इंसान, निश्चय ही भूत-प्रेत के अंजाम को प्राप्त होता है ।
ये सब अचानक क्या हो गया था ।
पदमिनी पदमा भावहीन चेहरे से आंगन के गमलों में खिले फ़ूलों को देख रही थी ।
मनोज को लग रहा था, कुछ असामान्य सा था, जो एकदम घटित हुआ था ।
सेक्स को लेकर वह इतना अनुभवी भी नहीं था कि इन बातों का कोई ठीक अर्थ निकाल सके । बस यार दोस्तों के अनुभव के चलते उसे कुछ जानकारी थी ।
- भाभी ! तब अचानक वह उसकी ओर देखता हुआ बोला - एक बात बोलूँ, सच सच बताना । क्या तुम भैया से खुश नहीं हो, क्या तुम्हें तृप्ति नहीं होती ?
तब दूसरी तरफ़ देखती पदमा ने यकायक झटके से मुँह घुमाया ।
फ़िर उसने तेजी से तीन हुक खोल दिये, और नागिन सी चमकती आँखों से उसकी तरफ़ देखा ।
- देख इधर । वह सख्त स्वर में बोली - ये माँस के गोले, सिर्फ़ चर्बी माँस के गोले, अगर एक जवान सुन्दर मरी औरत का शरीर लावारिस फ़ेंक दिया जाये, तो फ़िर इस शरीर को कौवे कुत्ते ही खायेंगे । ये मृगनयनी आँखें किसी प्यासी चुङैल के समान भयानक हो जायेंगी । इस सुन्दर शरीर से बदबू और घिन आयेगी, फ़िर बताओ इसमें ऐसा क्या है ? जो किसी स्त्री को नहीं पता, जो किसी पुरुष को नहीं पता, फ़िर भी कोई तृप्त हुआ आज तक । अन्तिम अंजाम जानते हुये भी ।
- नितिन जी ! वह ठहरे स्वर में बोला - बङे ही अजीब पल थे वो, वक्त जैसे थम गया था । उस पर कामदेवी सवार थी, और मुझे ये भी नहीं पता कि उस वक्त उसकी मुझसे क्या ख्वाहिश थी । सच ये है कि, मैं किसी सम्मोहन जैसी स्थिति में था । लेकिन उसका सौन्दर्य, उसके अंग, सभी मुझे विषैले लग रहे थे, और जैसे कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही थी । मुझे सही गलत का बोध करा रही थी, शब्द जैसे अपने आप मेरे मुँह से निकल रहे थे । जैसे शायद अभी भी निकल रहे हैं, शब्द ।
- लेकिन भाभी ! मेरा ये मतलब नहीं था । मैंने सावधानी से कहा - औरत की कामवासना को यदि उसके लिये नियुक्त पुरुष मौजूद हो, तब ऐसी बात कुछ अजीब सी लगती है न । इसीलिये मैंने कहा, शायद आप अतृप्त तो नहीं हो ।
- अतृप्तऽ.. अतृप्त । मनोज का यह शब्द रह रहकर उसके दिमाग में हथौङे सी चोट करने लगा । एकाएक उसकी मुखाकृति बिगङने लगी, और उसका बदन ऐंठने लगा । उसका सुन्दर चेहरा बेहद कुरूप हो उठा, और उसके चेहरे पर राख सी पुती नजर आने लगी ।
फिर वह बड़े जोर से हँसी, और..
- हाँ..! उसने एक झटका सा मारा, - हाँ, मैं अतृप्त ही हूँ । सदियों से प्यासी, एक अतृप्त औरत । एक प्यासी आत्मा, जिसकी प्यास, आज तक कोई दूर न कर सका, कोई भी ।
अब तक उकताहट महसूस कर रहा नितिन एकाएक सजग हो गया ।
उसकी निगाह स्वतः ही उस काली छाया पर गयी, जो बैचेनी से पहलू बदलने लगी थी । पर मनोज उन दोनों की अपेक्षा शान्त था ।
- फ़िर क्या हुआ ? बेहद उत्सुकता में नितिन के मुँह से निकला ।
- कुछ नहीं । उसने भावहीन स्वर में उत्तर दिया - कुछ नहीं हुआ, वह बेहोश हो गयी ।
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रात के दस बजने वाले थे ।
बादलों से फ़ैला अंधेरा कब का छँट चुका था, और नीले आसमान में चाँद निकल आया था । उस शमशान में दूर दूर तक कोई भी रात्रिचर जीव नजर नहीं आ रहा था । सिर्फ़ सिर के ऊपर उङते चमगादङों की सर्र सर्र कभी कभी उन्हें सुनाई दे जाती थी । बाकी भयानक सन्नाटा ही सांय सांय कर रहा था ।
मनोज अब काफ़ी सामान्य हो चुका था, और बिलकुल शान्त था ।
लेकिन अब नितिन के मन में भयंकर तूफ़ान उठ रहा था ।
क्या बात को यूँ ही छोङ दिया जाये । इसके घर, या अपने घर चला जाये, या घर चला ही नहीं जाये । यहीं, या फ़िर और कहीं, वह सब जाना जाये, जो इस लङके के दिल में दफ़न था । यदि वह मनोज को यूँ ही छोङ देता, तो फ़िर पता नहीं वह कहाँ मिलता, मिलता भी, या नहीं मिलता । आगे क्या कुछ होने वाला था, ऐसे ढेरों सवाल उसके दिलोदिमाग में हलचल कर रहे थे ।
- बस हम तीन लोग ही हैं घर में । मनोज फिर बिलकुल सामान्य होकर बोला - मैं, मेरा भाई, और मेरी भाभी ।
वे दोनों वापस पुल पर आ गये थे, और पुल की रेलिंग से टिके बैठे थे ।
यह वही स्थान था, जहाँ नीचे बहती नदी से नितिन उठकर उसके पास गया था, और जहाँ उसका वेस्पा स्कूटर भी खङा था ।
आज क्या ही अजीब सी बात हुयी थी । उन्हें यहाँ आये कुछ ही देर हुयी थी, और ये बहुत अच्छा था कि वह काली छाया यहाँ तक उनके साथ नहीं आयी थी । बस कुछ दूर पीछे चलकर अंधेरे में चली गयी थी । यहाँ बारबार आसपास ही महसूस होती अदृश्य रूहें भी नहीं थी, और सबसे बङी बात जो उसे राहत पहुँचा रही थी ।
मनोज यहाँ एकदम सामान्य व्यवहार कर रहा था ।
उसके बोलने का लहजा शब्द आदि भी सामान्य थे ।
फ़िर वहाँ क्या बात थी ? क्या वह किसी अदृश्य प्रभाव में था ।
किसी जादू टोने, किसी सम्मोहन, या ऐसा ही और कुछ अलग सा ।
- फ़िर क्या हुआ ? जब देर तक नितिन अपनी उत्सुकता रोक न सका, तो अचानक स्वतः ही उसके मुँह से निकला - उसके बाद क्या हुआ ?
- कब ? मनोज हैरानी से बोला - कब क्या हुआ, मतलब ?
नितिन के छक्के छूट गये ।
क्या वह किसी ड्रग्स का आदी था, या कोई प्रेत रूह, या कोई शातिर इंसान ।
अब उसके इस ‘कब’ का वह क्या उत्तर देता, सो चुप ही रह गया ।
- मुझे अब चलना चाहिये । अचानक मनोज उठता हुआ बोला - रात बहुत हो रही है, तुम्हें भी घर जाना होगा ।
कहकर वह तेजी से एक तरफ़ बढ़ गया ।
- अरे सुनो सुनो । नितिन हङबङा कर जल्दी से बोला - कहाँ रहते हो आप, मैं छोङ देता हूँ । सुनो भाई एक मिनट.. मनोज, तुम्हारा एड्रेस क्या है ?
- बन्द गली । उसे दूर से आते मनोज के शब्द सुनाई दिये - बन्द घर, जमीन के नीचे, अंधेरा बन्द कमरा ।
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- हा हा हा । मनसा जोगी ने भरपूर ठहाका लगाया - बन्द गली, बन्द घर, जमीन के नीचे, अंधेरा बन्द कमरा । हा हा..एकदम सही पता ।
नितिन एकदम हैरान रह गया ।
अक्सर गम्भीर सा रहने वाला उसका तांत्रिक गुरु खुलकर हँस रहा था ।
और उसके चेहरे पर रहस्यमय मुस्कान खेल रही थी ।
मनसा जोगी कुछ कुछ काले से रंग का, विशालकाय काले पहाङ जैसा, भारी भरकम इंसान था, और कोई भी उसको देखने सुनने वाला, धोखे से गोगा कपूर समझ सकता था । बस उसकी एक आँख छोटी और सिकुङी हुयी थी, जो उसकी भयानकता में वृद्धि करती थी ।
मनसा बहुत समय तक अघोरियों के सम्पर्क में उनकी शिष्यता में रहा था, और मुर्दा शरीरों पर शवसाधना करता था ।
पहले उसका झुकाव पूरी तरह तामसिक शक्तियों के प्रति था, लेकिन भाग्यवश उसके जीवन में यकायक बदलाव आया, और वह उसके साथ साथ द्वैत की छोटी सिद्धियों में हाथ आजमाने लगा ।
अघोर के उस अनुभवी को उम्मीद से पहले सफ़लता मिलने लगी, और उसके अन्दर का सोया इंसान जागने लगा ।
तब ऐसे ही किन्ही क्षणों में नितिन से उसकी मुलाकात हुयी, जो एकान्त स्थानों पर घूमने की आदत से हुआ महज संयोग भर था ।
मनसा जोगी शहर से बाहर थाने के पीछे टयूबवैल के पास घने पेङों के झुरमुट में एक कच्चे से बङे कमरे में रहता था ।
कमरे के आगे पङा बङा सा छप्पर उसके दालान का काम करता था । जिसमें अक्सर दूसरे साधु बैठे रहते थे ।
नितिन को रात भर ठीक से नींद नहीं आयी थी ।
तब वह सुबह इसी आशा में चला आया था कि मनसा शायद कुटिया पर ही हो, और संयोग से वह उसे मिल भी गया था ।
वह भी बिलकुल अकेला ।
इससे नितिन के उलझे दिमाग को बङी राहत मिली थी ।
पूरा विवरण सुनने के बाद जब मनसा एड्रेस को लेकर बेतहाशा हँसा, तो वह सिर्फ़ भौंचक्का सा उसे देखता ही रह गया ।
- भाग जा बच्चे । मनसा रहस्यमय अन्दाज में उसको देखता हुआ बोला - ये साधना, सिद्धि, तन्त्र, मन्त्र बच्चों के खेल नहीं, इनमें दिन रात ऐसे ही झमेले हैं । इसलिये अभी भी समय है । दरअसल ये वो मार्ग है, जिस पर जाना तो आसान है, पर लौटने का कोई विकल्प नहीं है ।
- मेरी ऐसी कोई खास ख्वाहिश भी नहीं । वह साधारण स्वर में बोला - पर इस दुनियाँ में कुछ चीजें क्या लोगों को इस तरह भी प्रभावित कर सकती हैं, कि जीवन उनके लिये एक उलझी हुयी पहेली बनकर रह जाये, उनका जीना ही दुश्वार हो जाये ।
मैं उसे बुलाने नहीं गया था, उससे मिलना एक संयोग भर था । जिस मुसीबत में वो आज था, उसमें कल मैं भी हो सकता हूँ । अन्य भी हो सकते हैं, तब क्या हम हाथ पर हाथ रखकर ऐसे ही बैठे देखते रहें ।
शायद यही होता है एक पढ़े लिखे इंसान, और लगभग अनपढ़ साधुओं में फ़र्क ।
मनसा इन थोङे ही शब्दों से बेहद प्रभावित हुआ । उसे इस सरल मासूम लङके में जगमगाते हीरे सी चमक नजर आयी ।
शायद वह एक सच्चा इंसान था, त्यागी था, और उसके हौसलों में शक्ति का उत्साह था, सो वह तुरन्त ही खुद भी सरल हो गया ।
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वही उस दिन वाला स्थान आज भी था ।
नदी के पुल से नीचे उतरकर बहती नदी के पास ही बङा सा पेङ ।
पिछले तीन दिन से वह यहीं मनोज का इंतजार कर रहा था, पर वह नहीं आया था ।
मनसा ने उसे बन्द गली, बन्द घर, जमीन के नीचे, अंधेरा बन्द कमरा का मतलब भी समझा दिया था । और और भी बहुत कुछ समझा दिया था । बस रही बात मनोज को फ़िर से तलाशने की, तो मनसा ने जो उपाय बताया, वो कोई गुरुज्ञान जैसा नहीं था बल्कि एक साधारण बात ही थी । जो अपनी हालिया उलझन के चलते यकायक उसे नहीं सूझी थी कि वो निश्चित ही उपचार के लिये तन्त्रदीप जलाने उसी स्थान पर आयेगा ।
सो वह पिछले तीन दिन से उसे देख रहा था ,पर वह नहीं आया था ।
उसने एक सिगरेट सुलगायी, और आदतन यूँ ही कंकङ उठाकर नदी की तरफ़ उछालने लगा । और तभी उसे मनोज आता दिखाई दिया । उसके आने से नितिन को एक अजीब सी अंदरूनी खुशी महसूस हुयी ।
- कमाल के आदमी हो भाई । मनोज उसे हैरानी से देखता हुआ बोला - क्या करने आते हो इस मनहूस शमशान में, जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे, पर आना उसकी मजबूरी है । क्योंकि आगे जाने के लिये गाङी यहीं से मिलेगी ।
- यही बात । अबकी वह सतर्कता से बोला - मैं आपसे भी पूछ सकता हूँ । क्या करने आते हो इस मनहूस शमशान में, जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे ।
ये चोट मानों सीधी उसके दिल पर लगी ।
वह बैचेन सा हो गया, और कसमसाता हुआ पहलू बदलने लगा ।
- दरअसल मेरी समझ में नहीं आता । आखिर वह सोचता हुआ सा बोला - क्या बताऊँ, और कैसे बताऊँ । मेरे परिवार में मैं, मेरी भाभी, और मेरा भाई हैं । हमने कुछ साल पहले एक नया घर खरीदा है । सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक कुछ अजीब सा घटने लगा, और उसी के लिये मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह कह सकूँ, जैसे वह होती है, पर मैं कह नहीं पाता ।
ये दीपक..उसने दीप की तरफ़ इशारा किया - एक प्रेत उपचार जैसा बताया गया है । लेकिन वास्तव में मुझे नहीं पता कि इसका सत्य क्या है ? यहाँ शमशान में, खास इस पीपल के वृक्ष के नीचे कोई दीपक जला देने से भला क्या हो सकता है, मेरी समझ से बाहर है । पर उस तांत्रिक भगत ने आश्वासन यही दिया है कि इससे हमारे घर का अजीब सा माहौल खत्म हो जायेगा ।
- क्या अजीब सा ? नितिन यूँ ही सामने दूर तक देखता हुआ बोला ।
- कुछ सिगरेट वगैरह है तुम्हारे पास ? अचानक वह अजीब सी बैचेनी महसूस करता हुआ बोला ।
उसने आज एक बात अलग की थी । वह अपना स्कूटर ही यहीं ले आया था, और उसी की सीट पर आराम से बैठा था । शायद कोई रात उसे पूरी तरह वहीं बितानी पङ जाये । इस हेतु उसने बैटरी से एक छोटा बल्ब जलाने का खास इंतजाम अपने पास कर रखा था, और सिगरेट के एक्स्ट्रा पैकेट का भी ।
उसने पैकेट मनोज की तरफ बढ़ा दिया ।
अगले कुछ ही मिनटों में जैसे फिर से नशा उस पर हावी होने लगा, और वह अतीत की गहराइयों में डूब गया । जहाँ वह था, और उसकी भाभी थी ।
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सुबह के ग्यारह बजने वाले थे ।
पदमा काम से फ़ारिग हो चुकी थी । वह अपने पति अनुराग के आफ़िस चले जाने के बाद सारा काम निबटा कर नहाती थी । उतने समय तक मनोज पढ़ता रहता, और उसके घरेलू कार्यों में भी हाथ बँटा देता ।
उसके नहाने के बाद दोनों साथ साथ खाना खाते । दोनों के बीच एक अजीब सा रिश्ता था, अजीब सी सहमति थी, अजीब सा प्यार था, अजीब सी भावना थी ।
जो कामवासना भी थी, और बिलकुल नहीं भी थी ।
पदमा ने बाथरूम में घुसते हुये कनखियों से मनोज को देखा ।
एक चंचल, शोख, रहस्यमय मुस्कान उसके होठों पर तैर उठी ।
उसने बाथरूम का दरवाजा बन्द नहीं किया, और सिर्फ़ हल्का सा पर्दा ही डाल दिया ।
पर्दा, जो मामूली हवा के झोंके से उङने लगता था ।
तभी आंगन में कुर्सी पर बैठकर पढ़ते हुये मनोज का ध्यान अचानक भाभी की मधुर गुनगुनाहट हु हु हूँ हूँ आऽ आऽ पर गया । वह किताब में इस कदर खोया हुआ था कि उसे पता ही नहीं था कि भाभी कहाँ है, और क्या कर रही है ?
तब उसकी दृष्टि ने आवाज का तार पकङा, और उसका दिल धक्क से रह गया ।
उसके शरीर में एक अजीब गर्माहट सी दौङ गयी ।
बाथरूम का पर्दा रह रहकर हवा से उङ जाता ।
पदमा ऊपरी हिस्से से निर्वस्त्र थी । और आँखें बन्द किये अपने ऊपर पानी उङेल रही थी ।