Thriller ✧ Double Game ✧(completed)

Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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Chapter - 02
[ Reality & Punishment ]
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Update - 08
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उस दिन एक तरफ मैं इस बात से खुश थी कि आज मेरा ब्याह होने वाला है तो वहीं दूसरी तरफ अब ये सोच सोच कर मुझे घबराहट सी होने लगी थी कि उस वक़्त क्या होगा जब सुहागरात को मेरा पति मेरा चेहरा देखेगा? अगर मुझे ये पता चल जाता कि दुनियां के किसी कोने में कोई ऐसा प्राणी मौजूद है जो एक पल में किसी को भी सुन्दर बना सकता है तो मैं एक पल की भी देरी किए बिना उस प्राणी के पास पहुंच जाने के लिए दौड़ लगा देती लेकिन, ये तो ऐसी बात थी जिसके बारे में सिर्फ कल्पना ही की जा सकती थी। सच तो ये है कि भगवान एक बार जिसको जैसा बना के धरती पर भेज देता है वो मरते दम तक वैसा ही रहता है। हालांकि उम्र के साथ उसका जिस्म बूढ़ा होने लगता है लेकिन उसके रंग रूप में कोई बदलाव नहीं आता।

मैंने अक्सर सुना था कि जब किसी का ब्याह होता है तो लड़का लड़की के घर वाले एक दूसरे के घर जा कर लड़का या लड़की को देखते हैं और ये भी सुना था कि आज कल लड़का लड़की खुद भी एक दूसरे को ब्यक्तिगत तौर पर देखते हैं। ये बातें मेरे लिए डर जैसी बन चुकीं थी। हालांकि मेरे बाबू जी ने जहां मेरा रिश्ता तय किया था उन्होंने लड़की देखने या लड़का दिखाने से मना कर दिया था। विशेष के पिता जी को हर तरह से रिश्ता मंजूर था। मैं नहीं जानती थी कि उनका और मेरे बाबू जी के बीच क्या क़रार हुआ था और ना ही मैं ये जानती थी कि विशेष को इस ब्याह के बारे में पहले से उनके पिता जी ने नहीं बताया था। ख़ैर ब्याह हुआ और बड़े ही धूम धाम से हुआ। दुनियां में जो मुझे सबसे ज़्यादा प्यार और स्नेह करते थे उनसे विदा लेते वक़्त मैं दहाड़ें मार मार कर रोई थी। शायद इस एहसास ने मुझे और भी ज़्यादा रुलाया था कि अब शायद कोई भी मुझे मेरे माता पिता और भाई जितना प्यार नहीं देगा। ईश्वर ने अगर मुझे सुन्दर रंग रूप से नवाजा होता तो संभव था कि आने वाले समय में मेरा पति मुझे इतना प्यार भी देता कि वो मुझे अपनी पलकों पर बैठा कर रख लेता लेकिन इस रंग रूप का उस पर कैसा असर होगा इसका मुझे बखूबी अंदाज़ा था।

अपने दिलो दिमाग़ में ख़ुशी से ज़्यादा डर घबराहट और दुविधा जैसे भावों को लिए मैं अपने ससुराल आ गई थी। हर पल भगवान से बस यही दुआ कर रही थी कि वो मुझे ऐसा पल न दिखाए जो मुझे और मेरी ज़िन्दगी को उस एक पल में ही बद से बदतर बना दे। बड़ी मुश्किल से दिन गुज़रा और फिर रात हुई। आने वाला हर एक पल जैसे मुझे डर और घबराहट को एक नए रूप में पेश करने का आभास करा रहा था। एक लड़की के दिलो दिमाग़ में उस वक़्त जो खुशियां, जो उमंग और जो सपने होते हैं वो न जाने कहां गायब हो गए थे? बल्कि उन सबकी जगह पर सिर्फ एक ही चीज़ ने अपना कब्ज़ा सा जमा लिया था और वो एक चीज़ थी____'डर और घबराहट।'

कमरे में सुहाग सेज पर अपने पति के इंतज़ार में बैठी मैं मन ही मन भगवान को याद कर रही थी। उस वक़्त डर और घबराहट की वजह से मुझे ये तक ख़याल आ गया था कि मैं उस जगह से भाग कर अपने माता पिता के पास पहुंच जाऊं। क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि आने वाला वक़्त मुझे एक ऐसा दुःख दे दे जो उस वक़्त मेरे लिए असहनीय हो जाए। अब तक इतना कुछ मैंने सह लिया था कि उस हालत में अगर ऐसा वैसा कुछ हो जाता तो मैं बस एक ही ख़्वाहिश रखती कि ये धरती फट जाए और मैं उसमे समां जाऊं। मैं सोचने समझने की हालत में ही नहीं रह गई थी। अगर उस हालत में होती तो मैं ये ज़रूर सोच कर खुद को तसल्ली देती कि दुनियां में अच्छे इंसान भी पाए जाते हैं रूपा जो किसी के रंग रूप से नहीं बल्कि उसकी आत्मा की सुंदरता से प्यार करते हैं और तुझे तो पूरा यकीन है कि तेरी आत्मा बहुत सुन्दर है और तेरे अंदर कोई भी बुराई नहीं है।

उस रात जब विशेष जी कमरे में आए और जब मैंने उनके आने की आहट सुनी तो मेरा समूचा वजूद कांप गया। दिल की धड़कनें ये सोच कर बुरी तरह से धाड़ धाड़ कर के कनपटियों पर बजने लगीं कि अब क्या होगा? अगर उन्होंने मेरा चेहरा देख कर मुझे कुछ उल्टा सीधा कह दिया तो कैसे सहन कर पाऊंगी मैं? औरत लाख कुरूप सही लेकिन किसी के द्वारा अपने ही सामने वो अपनी बुराई या अपना अपमान सहन नहीं कर सकती। ख़ास कर उस वक़्त तो बिल्कुल भी नहीं जिस वक़्त उसकी और उसकी ज़िन्दगी की अहमियत बदल जानी वाली हो। मेरी जगह अगर कोई सुन्दर लड़की होती तो उस वक़्त उसका चेहरा ख़ुशी और उमंगों से भरा हुआ होता और उसके होठों पर शर्मो हया की मुस्कान खिली हुई होती लेकिन मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं था। मैं तो अपने ईश्वर से बस यही फ़रियाद कर रही थी कि चाहे कुछ भी कर लेना मेरे ईश्वर लेकिन मेरी आत्मा को दुखी मत होने देना।

सुहाग सेज पर आँखें बंद किए मैं अपने ईश्वर को याद करते हुए उनसे फ़रियाद कर रही थी। मेरा घूंघट मेरे सीने तक ढलका हुआ था लेकिन सुर्ख और झीनी साड़ी से मेरा चेहरा साफ़ झलक रहा था। मैं बेड के बीचो बीच एकदम से सिकुड़ी हुई सी बैठी थी। मेरे अंदर की हालत ऐसी हो गई थी कि अगर कोई काटता तो मेरे जिस्म से ज़रा सा भी खून न निकलता।

एक ऐसी घड़ी आ गई थी जिसका हर लड़की को बड़ी शिद्दत से इंतज़ार होता है लेकिन मुझे नहीं था, बल्कि मैं तो यही चाहती थी कि ये घड़ी मेरी किस्मत की लकीरों से ही मिट जाए। ऐसा इस लिए क्योंकि मैं उस घड़ी के बाद उस हालत में खुद को नहीं पहुंचा देना चाहती थी जिस हालत में मुझे दुनियां का ऐसा दुःख प्राप्त हो जाए जो मेरी अंतरात्मा तक को झकझोर डाले। संसार के सभी देवी देवताओं के पास मेरी फ़रियाद मेरे द्वारा भेजी जा चुकी थी और मुझे अब उनकी रहमत का इंतज़ार था।

विशेष जी कमरे में आए और फिर पलट कर उन्होंने दरवाज़ा बंद कर के अंदर से उसकी कुण्डी लगा दी। उनके आने की आहट को सुन कर ही मेरी हालत बिगड़ने लगी थी। उधर वो अपने होठों पर मुस्कान सजाए और मेरी तरफ देखते हुए बेड की तरफ बढ़ रहे थे। कुछ ही देर में वो बेड के क़रीब आ गए और बेड के किनारे पर ही बैठ ग‌ए। वो मेरे बेहद क़रीब बैठ गए थे लेकिन अपनी पलकें उठा कर उन्हें देख लेने की मुझ में ज़रा भी हिम्मत नहीं हुई थी। बल्कि ये सोच कर मेरे अंदर डर और घबराहट में और भी ज़्यादा इज़ाफ़ा हो गया था कि अब बस कुछ ही पलों में मुझे ऐसा झटका लगेगा जिसे मैं सहन नहीं कर पाऊंगी। मन ही मन एक बार फिर से अपने ईश्वर को याद किया मैंने और उनसे कहा कि मेरी विनती मेरी फ़रियाद को ठुकरा न देना भगवान। बस ये समझ लीजिए कि मेरी ज़िन्दगी और मौत आपके ही हाथों में है।

मैं भगवान को याद करते हुए उनसे ये सब कह ही रही थी कि तभी विशेष जी ने अपने हाथों को बढ़ा कर मेरा घूंघट पकड़ा और उसे बहुत ही आहिस्ता से उठाते हुए कुछ ही पलों में मेरा चेहरा बेपर्दा कर दिया। जैसे ही मेरा चेहरा बेपर्दा हुआ तो मुझे ऐसा लगा जैसे संसार की हर चीज़ अपनी जगह पर रुक गई हो। मुझे एकदम से महसूस हुआ जैसे मेरे दिल की धड़कनों ने धड़कना ही बंद कर दिया हो। मेरा चेहरा झुका हुआ था और मेरी आँखें बंद थीं। मेरे अंदर उस वक़्त अगर कुछ चल रहा था तो वो सिर्फ भगवान को याद करना और उनसे इस पल के लिए ऐसी दुआ करना जो मेरे आत्मा को छलनी छलनी होने से बचा ले।

मैं उस वक़्त एकदम से चौंकी जब मेरा घूंघट वापस अपनी जगह पर पहुंच गया और विशेष जी एक झटके में बेड से उठ कर खड़े हो ग‌ए। मेरी जान जैसे मेरे हलक में ही आ कर फंस गई थी। मैंने बहुत हिम्मत कर के अपना सिर उठाया और बड़ी मुश्किल से अपनी पलकों को खोल कर उनकी तरफ देखा। उनके चेहरे पर उभरे हुए भावों को देख कर मुझे समझने में ज़रा भी देरी नहीं हुई कि ईश्वर ने मेरी फ़रियादों को ठुकरा दिया है। मुझे समझते देर नहीं लगी कि मेरे ईश्वर ने मुझ पर ज़रा भी रहम नहीं किया और फिर अगले कुछ ही पलों में जैसे मेरे ऊपर ही नहीं बल्कि मेरी अन्तरात्मा में भी आसमानी बिजलियां गिरती चली गईं।

"नहीं नहीं, ये नहीं हो सकता।" चेहरे पर नफ़रत और घृणा के भाव लिए विशेष जी अजीब सी आवाज़ में कह उठे____"तुम मेरी बीवी नहीं हो सकती। ऐसे रंग रूप की औरत मेरी बीवी हो ही नहीं सकती। मेरे साथ इतना बड़ा धोखा नहीं हो सकता और ना ही मुझसे जुड़ी हुई कोई चीज़ ऐसी हो सकती है।"

कहने के साथ ही विशेष जी एक झटके से पलट कर कमरे के दरवाज़े की तरफ जाने ही लगे थे कि मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें रुक जाने के लिए जैसे विनती सी की और वो रुक भी गए लेकिन_____"अगर तुम मुझे किसी तरह की सफाई देने वाली हो या ये समझती हो कि मैं तुम्हें अपनी बीवी मान कर तुम्हारे साथ सुहागरात मनाऊंगा तो भूल जाओ। मैं अपने जीवन में तुम जैसी रंग रूप वाली बीवी को कुबूल ही नहीं कर सकता, तुम्हारे साथ जीवन में आगे बढ़ने की तो बात ही दूर है। मेरी एक बात कान खोल कर सुन लो। तुम इस घर की बहू तो हो सकती हो लेकिन मेरी बीवी कभी नहीं हो सकती।"

आख़िर वही हो गया था जिसके बारे में सोच सोच कर मैं इतने समय से डरती आ रही थी। जिस भगवान की मैंने इतनी पूजा की थी और जिस भगवान से मैंने इतनी मिन्नतें की थी उस भगवान ने मेरी भक्ति और मेरी फ़रियाद का ये सिला दिया था। उस वक़्त मेरे अंदर दुःख तक़लीफ और गुस्से का ऐसा ज्वालामुखी फट पड़ा था कि मन किया कि सारी दुनियां को आग लगा दूं और फिर खुद भी उसी आग में कूद कर खुद ख़ुशी कर लूं। विशेष जी ने जो कुछ कहा था उन बातों का इतना दुःख नहीं हुआ था जितना भगवान के द्वारा अपनी फ़रियाद ठुकरा देने का हुआ था। लोगों ने तो बचपन से ले कर अब तक मुझे अपनी बातों से न जाने कितने ही दुःख दिए थे। इतना तो मैं भी समझ चुकी थी कि इंसान कभी भी दूसरे इंसान के बारे में अच्छा नहीं सोचता लेकिन ईश्वर??? ईश्वर ने मेरे बारे में अच्छा क्यों नहीं सोचा? उस वक़्त से मेरे लिए जैसे मेरा ईश्वर मर गया।

विशेष जी के जाने के बाद कमरे में मैं अकेली ही रह गई थी। सारी रात रोते कलपते हुए गुज़र ग‌ई। ज़हन में बचपन से ले कर अब तक की सारी बातें, सारे दृश्य गूँज जाते और मैं उनके बारे में सोच कर फिर से बिलख बिलख कर रोने लगती। रह रह कर माँ बाबू जी का चेहरा मेरी आँखों के सामने घूम जाता और फिर मन करता कि भाग कर उनके पास पहुंच जाऊं और उनके सीने से लिपट खूब रोऊं। मेरे दुःख का कोई पारावार नहीं था। रह रह कर बस एक ही ख़याल आता कि फ़ांसी लगा कर खुद ख़ुशी कर लूं लेकिन हाय री मेरी किस्मत कि वो भी नहीं कर सकी। रात ऐसे ही रोते कलपते हुए गुज़र ग‌ई। मेरी ज़िन्दगी का सूरज जैसे हमेशा के लिए ही डूब चुका था, जिसकी न तो कोई सहर थी और ना ही कोई ख़ासियत।

रात पता नहीं कब मेरी आँख लग गई थी लेकिन इतना ज़रूर एहसास हुआ था कि मुझे सोए हुए ज़्यादा समय नहीं हुआ था क्योंकि मेरी आँखों से बहे हुए आंसू ठीक से सूखे नहीं थे। मैं उस वक़्त अचानक से हड़बड़ा कर उठ बैठी थी जब मेरे कानों में बाहर से माँ जी और विशेष जी के चिल्लाने की आवाज़ें पड़ीं थी। मस्तिष्क जैसे ही जागृत हुआ तो मुझे पिछली रात का सब कुछ याद आता चला गया और उस सब को याद करते ही मेरे चेहरे पर जैसे ज़माने भर का दुःख दर्द आ कर ठहर गया। कमरे के बाहर माँ बेटे ऊँची आवाज़ में चिल्ला चिल्ला कर जाने क्या क्या बोलते जा रहे थे। मुझ में ज़रा भी हिम्मत न हुई कि मैं बेड से उतर कर कमरे से बाहर जाऊं। समझ में ही नहीं आ रहा था कि अब कौन सा मुँह ले कर उस इंसान के सामने जाऊं जिसको मेरी कुरूपता को देख कर पलक झपकते ही मुझसे नफ़रत हो गई थी।

कमरे के बाहर हो रही माँ बेटे के बीच की बातों ने मुझे अजीब ही स्थिति में ला दिया था। माँ जी अपने बेटे को डांटते हुए कह रहीं थी कि उन्हें अपने पिता जी पर गुस्सा करने की या उन्हें बातें सुनाने का कोई हक़ नहीं है, क्योंकि उन्होंने अपने बेटे साथ इतना भी ग़लत नहीं कर दिया है। माँ जी कहना था कि शादी ब्याह जीवन मरण सब ईश्वर के लिखे अनुसार ही होता है इस लिए जो हो गया है उसको ख़ुशी ख़ुशी अपना कर बहू के साथ अपने जीवन को आगे बढ़ाओ। बहू थोड़ी रंग रूप में सांवली ज़रूर है लेकिन उसमें उससे कहीं ज़्यादा गुण मौजूद हैं। माँ जी की इन बातों पर विशेष जी और भी ज़्यादा गुस्सा हो रहे थे। शायद पिता जी घर पर नहीं थे क्योंकि माँ जी के अनुसार विशेष जी इतना चिल्ला चिल्ला कर उनसे ऐसी बातें नहीं कर सकते थे। ख़ैर कुछ देर बाद शान्ति छा गई।

उस दिन जब पिता जी घर आए थे तो उन्होंने भी विशेष जी से यही कहा और उन्हें समझाया था कि विधि के विधान में यही होना लिखा था इस लिए अब इस पर इतना ज़्यादा नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं। पिता जी ने उन्हें धमकी देते हुए ये भी कहा था कि अगर उन्होंने मुझे अपनाने से इंकार किया तो वो उन्हें अपनी हर चीज़ से बेदखल कर देंगे। पिता जी की धमकी और उनके ख़ौफ की वजह से विशेष जी चुप तो हो गए थे लेकिन उन्होंने पिता जी की बात मान कर मुझसे सम्बन्ध रखना हर्गिज़ गवारा नहीं किया था। धीरे धीरे ऐसे ही दिन गुज़रने लगे। विशेष जी मुझसे कोई मतलब नहीं रखते थे और ना ही मेरी तरफ देखना पसंद करते थे। उनके इस रवैए से मैं दुखी तो थी लेकिन अपने मुख से कुछ कहने की मुझ में कोई हिम्मत नहीं होती थी। माँ जी और पिता जी हर रोज़ उन्हें डांटते धमकाते लेकिन वो चुप चाप सुनते और चले जाते थे।

शादी के बाद मैं बीस दिन ससुराल में रही थी उसके बाद मेरे बाबू जी मुझे लिवा ले गए थे। अपने माँ बाबू जी के घर आई तो मेरे अंदर जो इतने दिनों का गुबार भरा हुआ था वो फूट फूट कर आंसुओं के रास्ते निकलने लगा था। अपने माँ बाबू जी से लिपट कर मैं ऐसे रो रही थी कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। पूछने पर मैंने उन्हें सारा हाल सुना दिया था। मेरी बातें सुन कर उन्हें भी बेहद दुःख हुआ लेकिन कदाचित मेरे माँ बाबू जी को पहले से ही ये एहसास था कि ऐसा ही कुछ होगा लेकिन इस पर भला उनका ज़ोर कैसे चल सकता था?

जब तक ब्याह नहीं हुआ था तब तक तो ये सोच कर मैं किसी तरह खुद को दिलासा दे लेती थी कि चाहे लाख दुःख था मुझे लेकिन कम से कम अपने उन माँ बाबू जी के पास तो थी जो मुझे बेहद प्यार करते थे लेकिन अब तो ब्याह के बाद उनका साथ और उनका प्यार भी छूट गया था। जिसके साथ मुझे अपना पूरा जीवन गुज़ारना था उसने तो मुझे अपनी पत्नी मानने से ही इंकार कर दिया था, अपने साथ रखने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। मेरे दुःख दर्द में जैसे एक ये दुःख भी शामिल हो गया था। ज़िन्दगी बोझ सी बन गई थी जिसे मैं ज़बरदस्ती ढो रही थी, सिर्फ अपने माँ बाबू जी और अपने भाई के प्यार को देख कर।

मेरे माँ बाबू जी को अच्छी तरह एहसास था कि जो दुःख दर्द मेरे ज़िन्दगी में शामिल थे उनकी वजह से हो सकता है कि किसी दिन मैं तंग आ कर खुद को ही ना ख़त्म कर लूं इस लिए वो हमेशा मेरे पास ही रहते थे और घंटों मुझे समझाते रहते थे। उनका कहना था कि बेटा हर किसी के जीवन में दुःख दर्द का वक़्त आता है लेकिन ये दुःख दर्द हमेशा के लिए नहीं रहता। एक दिन दुःख दर्द के दिन भी चले जाते हैं और फिर इंसान के जीवन में खुशियों वाला समय आ जाता है। आज भले ही मेरे जीवन में ऐसे दुःख और ऐसी तक़लीफें हैं लेकिन एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा जब मेरा पति मुझे अपनी पत्नी भी मान लेगा और मुझे अपना भी लेगा।

मां बाबू जी की इन बातों से मेरे अंदर फिर से एक उम्मीद की किरण जाग उठी थी। माँ के कहने पर मैं फिर से देवी देवताओं को मान कर उनकी पूजा अर्चना करने लगी थी। अपने पति का प्यार पाने के लिए मैं देवी देवताओं का हर वो व्रत करने लगी थी जिसे माँ कहती थी। वक़्त ऐसे ही गुज़रता रहा। कुछ समय बाद मैं फिर से ससुराल आई लेकिन इस बार ससुराल में मुझे विशेष जी नज़र नहीं आए। माँ जी से पता चला कि वो शहर चले गए हैं और वहीं रह कर नौकरी करते हैं। इस बात से मुझे थोड़ी तक़लीफ तो हुई लेकिन क्या कर सकती थी? घर में रहते हुए माँ पिता जी की सेवा करती और एक ऐसी बहू बनने की कोशिश करने लगी थी जिसमें किसी भी तरह का दोष न हो। अक्सर सोचती थी कि शायद भगवान मेरी इस सेवा भक्ति से प्रसन्न हो कर मेरे दुखों को समाप्त करने के बारे में सोच ले।

अपने कर्म में मैं इतना खो गई थी कि मुझे खुद ही कभी ये एहसास न हुआ था कि मैं चलती फिरती एक ऐसी मशीन बन गई थी जो बिना कुछ बोले सिर्फ काम ही करती रहती थी। माँ जी और पिता जी जो भी कह देते मैं बिना कुछ कहे और बिना कुछ सोचे वो करने लगती थी। इस बीच न जाने कितनी ही बार मेरे मायके से मेरे बाबू जी और मेरा भाई मुझे लेने आए किन्तु मैं उनसे मिल तो लेती थी लेकिन उनके साथ अपने मायके नहीं जाती थी। मैंने जैसे प्रण कर लिया था कि अब यही मेरा घर है, यही मेरी दुनियां है और यहीं पर मेरा सुख दुःख है जिसे भोगते हुए एक दिन मुझे इस दुनियां से चले जाना है। सुबह पांच बजे से ले कर रात दस बजे तक मैं घर के कामों में लगी रहती और फिर बिस्तर पर एक ज़िंदा लाश की तरह लेट जाती। अगर कभी नींद ने आँखों पर रहम किया तो सो जाती वरना सारी रात ऐसे ही जागती रहती। ज़हन में सारी रात ऐसी ऐसी बातें चलती रहती थीं जिनका ना तो कोई मतलब होता था और ना ही उनसे कोई फ़र्क पड़ता था, किन्तु हां उन सबकी वजह से आंखों से आंसू ज़रूर छलक पड़ते थे। विशेष जी घर से एक बार शहर क्या गए वो तो सालों तक लौट कर घर ही नहीं आए लेकिन मेरे अंदर हमेशा उम्मीद बरक़रार रही।

दो साल ऐसे ही गुज़र गए। माँ जी और पिता जी मुझे अपनी बेटी की तरह चाहते थे। उन्हें भी मेरे दुखों का एहसास था लेकिन अपने बेटे पर उनका कोई ज़ोर नहीं रह गया था और ना ही मेरी किस्मत को बदल देने की उनमें क्षमता थी। इन दो सालों में हालात ऐसे हो गए थे कि अब वो भी मेरे लिए दुखी रहने लगे थे। गांव समाज में लोगों के बीच तरह तरह की बातें होने लगीं थी जिससे हम सबके जीवन में बुरा असर होने लगा था। विशेष जी को तो जैसे इन सब से कोई मतलब ही नहीं था। एक दिन इस सबकी वजह से तंग आ कर बाबू जी ने फ़ैसला किया कि अब वो अपने बेटे को शहर से वापस घर ले कर ही आएंगे और उन्हें इस बात के लिए मजबूर करेंगे कि वो मुझे अपनी पत्नी के रूप में अपना ले। बाबू जी गांव के ही अपने किसी जान पहचान वाले को ले कर शहर चले गए थे। आख़िर बड़ी मुश्किल से पता करते हुए वो विशेष जी के पास पहुंच ही गए और उन्हें ले कर घर आ गए थे।

विशेष जी दो साल बाद घर आए थे। उन्हें दूर से और छुप कर देख कर दिल को सुकून तो मिला था लेकिन उनसे कुछ कहने की मुझ में अब भी कोई हिम्मत नहीं थी और वैसे भी मैं खुद उनसे किसी बात की पहल कैसे कर सकती थी जिन्होंने खुद ही मुझे हर तरह से त्याग दिया था? उनके आने से घर में एक बार फिर से शोर शराबा होने लगा था। हर रोज़ पिता जी उनसे मुझे अपना लेने की बातें कहते, यहाँ तक कि उन्होंने ये भी कुबूल किया कि उनसे ये ग़लती हुई थी कि उन्होंने उनसे पूछ कर उनका रिश्ता तय नहीं किया था या धन के लालच में आ कर उन्होंने उनका ब्याह एक ऐसी लड़की से कर दिया था जो दिखने में सुन्दर नहीं थी। पिता जी की बातों से विशेष जी पर कोई असर नहीं पड़ा था। उन्होंने साफ़ कह दिया था कि उनका मुझसे कोई मतलब नहीं है। उनकी ये बातें किसी नस्तर की तरह मेरे दिल को चीर जाती थीं। मेरा रंग रूप जैसे मेरा सबसे बड़ा दुश्मन बना हुआ था जो मुझे एक पल की भी ख़ुशी नहीं दे सकता था।

अकेले में अक्सर सोचती थी कि एक बार विशेष जी से बात करूं और उनसे विनती करूं कि वो अपने जीवन में मेरे लिए थोड़ी सी जगह बना कर मुझे अपना लें लेकिन फिर ये ख़याल आ जाता कि अगर उन्होंने मुझे कुछ उल्टा सीधा कह दिया तो मैं कैसे सहन कर पाऊंगी? इससे अच्छा तो यही है कि मैं घुट घुट के ही इस दर्द रुपी ज़हर को पीते हुए पल पल मरती रहूं। ख़ैर विशेष जी घर में एक हप्ता रुके और फिर वो वापस शहर चले गए।

कभी कभी मेरे मन में ये ख़याल भी आ जाता था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने शहर में किसी सुन्दर लड़की से ब्याह कर लिया हो और हम में से किसी को इस बात का पता ही न हो। ये ख़याल मन में आता तो दिल में एक टीस सी उभरती लेकिन इस पर भी तो मेरा कोई ज़ोर नहीं था। मेरी किस्मत में तो जैसे दुःख दर्द में मरना ही लिख गया था।

दर्द और तक़लीफ क्या होती है? किसी के लिए तिल तिल कर मरना क्या होता है? सब कुछ होते हुए भी कुछ भी न होने का एहसास कैसा होता है? ख़ामोशी किसे कहते हैं? जलती हुई ख़्वाहिशें कैसी होती हैं? टूटती हुई उम्मीदें और झुलसते हुए अरमान कैसे होते हैं? जैसे इन सबका एक उदाहरण या ये कहें कि इन सबका जवाब बन गई थी मैं।

मैं चाहती तो एक झटके में विशेष जी को इस सबके लिए कानूनन सज़ा दिलवा सकती थी या उन्हें इस बात के लिए मजबूर कर सकती थी कि वो मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें लेकिन इस बारे में मैंने कभी सोचा ही नहीं। वैसे भी कानून का सहारा ले कर मैं अगर उनकी पत्नी बन भी जाती या वो मुझे स्वीकार भी कर लेते तो उससे होता क्या? उस सूरत में भी तो वो मेरे न होते। जिसके दिल में मेरे प्रति नफ़रत के सिवा कोई जज़्बात ही नहीं थे उसको किसी बात से मजबूर करने का मैं सोच भी कैसे सकती थी? मैं अभागन तो इतने पर भी खुश हो जाने को तैयार थी कि एक बार वो सपने में ही मुझे अपनी पत्नी स्वीकार कर लें लेकिन फूटी किस्मत कि ऐसे सपने भी मेरी पलकों को नसीब नहीं थे।

कहने को तो इस सबको चार साल गुज़र गए थे लेकिन इन चार सालों में न जाने कितनी ही बार मर मर कर ज़िंदा हो चुकी थी मैं। मेरे लिए आज भी वक़्त वही था जो पहले था। मेरे दुःख दर्द आज भी वही थे और वैसे ही थे जो हमेशा से ही थे लेकिन हाँ इतना फ़र्क ज़रूर आ गया था कि अब इन तक़लीफों को सहने की मुझमें क्षमता बढ़ गई थी। मैं एक ऐसी मनोदशा में पहुंच गई थी जिसके अंदर भभकता हुआ ग़ुबार किसी भयंकर ज्वालामुखी जैसा रूप ले चुका था और वो ग़ुबार बड़ी ही शिद्दत से फट पड़ने को बेक़रार था।


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Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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Chapter - 02
[ Reality & Punishment ]
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Update - 09
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वक़्त कभी भी एक जैसा नहीं रहता और ना ही वो किसी के रोके से रुक सकता है। जो समझदार होते हैं वो वक़्त के साथ ही चलते हैं और जो अपनी अकड़ में रहते हैं या जो समय पर किसी चीज़ से समझौता नहीं करते उन्हें ये वक़्त या तो पीछे छोड़ देता है या फिर ऐसी ठोकर लगा देता है कि इंसान चाह कर भी सम्हल नहीं पाता। विशेष जी के ऐसे रवैये से इन चार सालों में बहुत कुछ बदल गया था। जिस पिता का गांव समाज में अच्छा ख़ासा रुतबा था वो पूरी तरह से खो गया था। जिनके बारे में पहले लोग दबी हुई जुबान में तरह तरह की बातें करते थे वो लोग गुज़रते समय के साथ उनके मुख पर ही करने लगे थे जिसका असर ये हुआ कि उनका गांव समाज में लोगों के बीच उठना बैठना मुश्किल पड़ गया। वो ये तो स्वीकार कर चुके थे कि धन के लालच में आ कर उन्होंने अपने बेटे का ब्याह एक ऐसी लड़की से कर दिया था जिसे दुनियां का कोई भी सुन्दर लड़का अपनी बीवी बनाने का सोच भी नहीं सकता था लेकिन ग़लती स्वीकार कर लेने के बाद भी अगर कोई उन्हें माफ़ न करे या उनके अंदर पैदा हो चुके दुखों के बारे में न सोचे वो तो हद दर्ज़े का ग़लत इंसान ही कहलाएगा।

मां और पिता जी इस सबकी वजह से बीमार पड़ गए थे। ज़ाहिर है कोई भी ऐसा ब्यक्ति बीमार ही पड़ जाएगा जो हर पल यही सोच सोच कर दुखी होता हो कि अब उसके वंश का क्या होगा और गांव समाज में जो इज्ज़त उन्होंने कमाई थी वो सब उनके बेटे की वजह से ख़ाक में मिल चुकी है। कोई भले ही जिस्म पर चार लाठियां मार ले उससे उतनी तक़लीफ नहीं होगी लेकिन लोगों की बातें ऐसी मार करती हैं जो सीधा इंसान की आत्मा को ही तक़लीफ देती हैं और उसका दर्द असहनीय होता है। ऐसी असहनीय तक़लीफ तो मुझे भी थी लेकिन मैंने अपनी तक़लीफ को जज़्ब करना जाने कब का सीख लिया था। लोग मेरे बारे में अक्सर यही कहते थे कि ये किस मिट्टी की बनी है जो इतना कुछ होने के बाद भी जीवित है? मेरी जगह कोई दूसरी औरत होती तो इतना अपमान और इतना दुःख सहन ही नहीं कर पाती और यकीनन एक दिन खुद ख़ुशी कर लेती लेकिन मैं इस सबके बावजूद ज़िंदा थी। कदाचित ये देखने के लिए कि मेरा बनाने वाला मेरे साहस और धैर्य की परीक्षा लेते हुए मुझे कितना दुःख देता है?

मैं पूरे मन से अपने सास ससुर की सेवा कर रही थी। यहाँ तक कि मैंने कभी उन्हें ये नहीं दिखाया कि मैं भी एक इंसान हूं और मुझे भी कभी कोई न कोई बिमारी हो सकती है। मैं हमेशा ख़ामोश ही रहती थी और मेरा ज़हन चौबीसों घंटे जैसे एक ज़िद किए हुए था कि चाहे जो हो जाए मुझे किसी भी चीज़ से हार नहीं मानना है। दुनियां की चाहे जैसी भी तक़लीफ मुझे दर्द देने आ जाए लेकिन मैं उसे ख़ुशी से स्वीकार कर के जज़्ब कर लूंगी।

मां पिता जी की तबीयत जब ज़्यादा ही ख़राब हो गई तो उनके एक पहचान वाले ने विशेष जी को ख़बर भेजवा कर उन्हें बता दिया कि उनके माता पिता की बहुत ज़्यादा तबीयत ख़राब है इस लिए अगर उनके दिल में ज़रा सा भी अपने माता पिता के प्रति लगाव बाकी है तो वो घर आ जाए। इस ख़बर के दूसरे दिन ही विशेष जी शहर से आ गए थे। वो माँ पिता जी का इलाज़ करवाने के लिए उन्हें जिले के अच्छे हॉस्पिटल में ले गए। मैं ये मानती हूं कि विशेष जी ने अपने माता पिता के इलाज़ में कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन अब इसका क्या किया जाए कि इसके बावजूद माँ और पिता जी की सेहत पर कोई सुधार नहीं हो रहा था। यहाँ तक कि एक दिन डॉक्टर ने विशेष जी से ये भी कह दिया कि वो माँ और पिता जी को घर ले जाएं।

कहते हैं कि जो भी इंसान इस धरती पर पैदा होता है वो अपनी एक निश्चित आयु ले कर ही इस धरती पर पैदा होता है। इंसान का जब इस धरती पर रहने का समय समाप्त हो जाता है तो दुनियां का कोई भी डॉक्टर या दुनियां की कोई भी दवा उसे बचा कर उसे जीवन नहीं दे सकती। माँ और पिता जी का आख़िरी वक़्त आ गया था। चार साल से जिनकी पूरे मन से सेवा करती आ रही थी वो भी अब मुझे छोड़ कर चले जाने को तैयार थे। इन चार सालों में मैं कभी अपने मायके अपने माँ बाबू जी के घर नहीं गई थी। मेरे लिए मेरे सास ससुर ही मेरे माँ बाबू जी थे और वो मुझे अपनी बेटी मान कर ही मुझे स्नेह और प्यार देते थे। उन्हें भले ही इस बात का रंज़ था कि उन्होंने अपने बेटे की शादी मुझसे कर के अच्छा नहीं किया था लेकिन उस रंज़ से ज़्यादा उन्हें इस बात की ख़ुशी थी कि उन्हें मेरे जैसी गुणवान बहू मिली थी जिसने इन चार सालों में कभी भी उन्हें अपनी तक़लीफें नहीं दिखाई बल्कि अपनी क्षमता से भी ज़्यादा उनकी सेवा करते हुए घर को सम्हाला था। वो अक्सर माँ जी से कहते थे कि इतनी अच्छी औरत को ऊपर वाला इतना दुःख कैसे दे सकता है? ये एक ऐसा सवाल था जो शायद गांव के हर प्राणी के ज़हन में गूंजता था।

अपने आख़िरी वक़्त में माँ और पिता जी ने मेरे सामने ही विशेष जी से कहा था कि उनके जाने के बाद मेरा इस दुनियां में कोई सहारा नहीं होगा इस लिए अगर उनके दिल में मेरे प्रति ज़रा सा भी रहम या दया भाव है तो वो मुझे अपना लें और जहां भी रहें मुझे अपने साथ ही रखें। उस दिन मैं फूट फूट कर रो रही थी। मेरे लिए वो दोनों प्राणी ऐसे थे जिन्होंने मेरे माँ बाबू जी और भाई के जैसा ही स्नेह और प्यार दिया था। माँ जी ने कभी भी मेरी कुरूपता को ले कर मुझे ताना नहीं मारा था बल्कि हमेशा मुझे बेटी कहते हुए मुझे खुश रखने का ही प्रयास किया था और सच तो ये है कि ये उन दोनों का स्नेह और प्यार ही था जिसके सहारे मैं अब तक जीवित थी।

मां और पिता जी दुनियां से चले गए। उनके जाते ही जैसे मेरी तरह वो घर भी खामोश हो गया था। विशेष जी ने बड़े अच्छे तरीके से उनके जाने के बाद सारी क्रियाएं की थीं और फिर एक दिन उन्होंने मुझसे पहली बार बात करते हुए शहर चलने को कहा। मेरे अंदर उनसे कहने के लिए तो बहुत कुछ था लेकिन फिर ये सोच कर ज़्यादा कुछ नहीं कहा कि उस इंसान से कुछ कहने का क्या फ़ायदा जिसने कभी एक पल के लिए भी ये न सोचा हो कि इतने सालों से मैंने क्या कुछ सहा होगा और उनके इस तरह त्याग देने से मैं कैसे हर रोज़ हर पल तिल तिल कर मरती रही होऊंगी? ये मेरा गुनाह नहीं था कि मैं कुरूप थी, बल्कि ये बनाने वाले का गुनाह था कि उसने मुझे कुरूप बनाया था, वरना मेरे माता पिता और भाई तो सुन्दर ही थे। ख़ैर विशेष जी ने जब मुझसे शहर चलने के लिए कहा तो लाख रोकने के बावजूद मेरे अंदर का थोड़ा सा गुबार निकल ही गया। मैंने सपाट लहजे में उनसे कहा था कि मुझे किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है। जब पिछले चार सालों से मैं उनके सहारे के बिना जीती आई थी तो आगे भी उनके सहारे के बिना अपना ये जीवन गुज़ार ही लूंगी। विशेष जी को शायद मुझसे ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी इस लिए कुछ पलों तक मेरी तरफ देखते रहे थे उसके बाद उन्होंने जैसे फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि अगले दिन की टिकट बनी हुई है इस लिए अपनी तैयारी कर लेना।

माना कि मुझ में इतनी क्षमता थी और इतना साहस था कि मैं उनके सहारे के बिना अपना बाकी का जीवन उस घर में गुज़ार सकती थी लेकिन दिल के किसी हिस्से में ये चाहत उस वक़्त भी मौजूद थी कि अपने इस जीवन में कम से कम एक बार मुझे अपने पति का साथ तो मिल ही जाए। फिर भले ही चाहे ऊपर वाला मेरे प्राण ले ले। अगले दिन विशेष जी के साथ मैं शहर जाने के लिए तैयार थी। मेरे बाबू जी और मेरा छोटा भाई उस दिन घर आये हुए थे। वो दोनों ये देख कर बड़ा खुश हुए थे कि आख़िर वो दिन आ ही गया जब मेरे पति ने मुझे अपना लिया था और अब वो मुझे अपने साथ शहर ले जा रहे थे। उन दोनों की आँखों से ख़ुशी के आंसू छलक पड़े थे। मेरे बाबू जी ने विशेष जी के सामने हाथ जोड़ कर बस इतना ही कहा था कि दामाद जी मेरी बेटी ने अब तक बहुत दुःख सहे हैं इस लिए अब इसे ऐसे दिन दुबारा न दिखाइएगा, बल्कि इसे इतना प्यार और इतनी ख़ुशी देना कि ये अपने अब तक के सारे दुःख दर्द भूल जाए।

उस दिन अपने बाबू जी और भाई से लिपट कर मैं इतना रो रही थी जैसे असल में मैं उस दिन ही ब्याह के बाद उनसे विदा हो रही थी। वो दोनों खुद भी रो रहे थे। उसके बाद ढेर सारा प्यार और ढेर साड़ी दुआएं ले कर मैं विशेष जी के साथ शहर चल पड़ी थी। मेरे अंदर जो सपने, जो ख़्वाहिशें और जो अरमान कहीं मर खप से गए थे वो एक बार फिर से जैसे ज़िंदा होने होने लगे थे। किसी उजड़े हुए चमन की तरह मेरा जो जीवन वीरान हुआ पड़ा था उसमें जैसे बहार की हवा लगती महसूस होने लगी थी। भला मैं ये कैसे सोच सकती थी कि विशेष जी के साथ आगे का मेरा सफ़र मुझे कौन सी मंज़िल की तरफ ले जाने वाला था?

ट्रेन के सफ़र में हमारे बीच कोई बात नहीं हुई। हालांकि मैं यही उम्मीद कर रही थी कि शायद विशेष जी मुझसे कुछ कहेंगे लेकिन मेरी उम्मीद के विपरीत उन्होंने कुछ कहने की तो बात दूर बल्कि मेरी तरफ देखा तक नहीं था। ऐसा लगा था जैसे मुझे अपने साथ ले जाना उनकी मजबूरी थी। ख़ैर मैंने भी उनसे कुछ नहीं कहा, मेरे लिए तो यही काफी था कि वर्षों बाद आज मैं अपने पति के साथ जीवन का कोई सफ़र कर रही थी। दूसरे दिन हम शहर पहुंच गए। शहर की चकाचौंध देख कर एक बार को तो मैं भौचक्की सी रह गई थी लेकिन फिर जैसे मैंने किसी तरह खुद को सम्हाल लिया था।

शहर में विशेष जी मुझे ले कर अपने फ्लैट में आ गए थे। मेरे मन में तरह तरह के ख़याल उभर रहे थे। कुछ ऐसे भी ख़याल थे जो मेरे चेहरे को लाज और शर्म की वजह से सुर्ख कर देते थे। मैंने महसूस किया था कि मेरे अंदर अचानक से ही कुछ चीज़ें बड़ी तेज़ी से उछल कूद कर रहीं थी। ऐसा लगता था जैसे उन्हें किसी बात से बेहद ख़ुशी हो रही थी लेकिन, मेरे अंदर की हर चीज़ को उस वक़्त झटका लगा जब विशेष जी ने कहा कि वो मुझे शहर में ले कर ज़रूर आए हैं लेकिन मुझसे उनका अब भी कोई मतलब नहीं है। यानि वो आज भी मुझे अपनी बीवी नहीं मानते हैं। उस वक़्त दिल तो किया था कि खिड़की से कूद कर अपनी जान दे दूं लेकिन फिर अपने अंदर के इन ख़यालों को किसी तरह ये सोच कर दबा लिया था कि शायद साथ रहने से एक दिन वो वक़्त भी आ जाए जब उनके अंदर भी मेरे प्रति कोई एहसास जागृत हो जाए।

शहर में एक ही फ्लैट में दो अलग अलग कमरों में रहने से ज़िन्दगी बड़ी अजीब सी लगने लगी थी। कहने को तो हम दो इंसान उस घर में रहते थे लेकिन दोनों ही एक दूसरे के लिए अजनबी थे। उन्होंने शुरू में ही कह दिया था कि उन्हें मुझसे कोई मतलब नहीं है और वो चाहते हैं कि मैं भी उनसे कोई मतलब न रखूं। बाकी जीवन जीने के लिए जो ज़रूरी है उसमें वो कभी कोई कमी नहीं करेंगे और आगे चल कर ऐसा भी होने लगा था। एक झटके में वो उमंगें और वो ख़ुशी चकनाचूर हो गई थी जो शहर आते वक़्त रास्ते में जागृत हो गई थी। ऐसा लगा कि कुछ देर के लिए नींद आ गई थी और आँखों ने कुछ पल के लिए कुछ ऐसे ख़्वाब देख लिए थे जो उन्हें नहीं देखना चाहिए था। दिल में बड़ा तेज़ दर्द उठा और उसने एक बार फिर से मेरी अंतरात्मा तक को झकझोर कर रख दिया। अकेले कमरे में एक बार फिर से वही कहानी दोहराई जाने लगी जो पिछले चार सालों से गांव में दोहराई जा रही थी। ज़हन में अपने बनाने वाले से बस एक ही सवाल उभरता कि अभी और कितने दुःख दोगे मुझे?

विशेष जी के साथ शहर आए हुए मुझे छह महीने होने वाले थे। इन छह महीनों में मैंने एक बार फिर से खुद को ब्यवस्थित कर लिया था। विशेष जी अपने कपड़े वग़ैरा खुद ही धो लेते थे। उन्होंने कभी नहीं कहा कि मैं उनके कपड़े धुल दूं। उनसे जितना हो सकता था वो अपने काम ख़ुद ही कर लेते थे लेकिन एक चीज़ अजीब थी कि वो मेरा बनाया हुआ खाना बिना कुछ कहे खा लेते थे। अगर हमें एक दूसरे कुछ कहना होता था तो हम एक दूसरे को कागज़ में लिख कर पर्ची छोड़ देते थे। पर्ची का ये नियम उन्होंने ही शुरू किया था। मैं ये तो मानती थी कि उन्हें मुझसे कोई मतलब नहीं था लेकिन ये भी समझती थी कि इस सबके बावजूद उनकी नज़र में मेरी कुछ तो अहमियत थी ही। अगर नहीं होती तो वो मेरे हाथ का बनाया हुआ खाना भी नहीं खाते। शायद यही वजह थी कि मेरे मन में अभी भी एक उम्मीद बनी हुई थी कि एक दिन वो वक़्त आएगा जब वो मुझे बाकी चीज़ो में भी अहमियत देंगे।

उस दिन भी मैं हर रोज़ की तरह अपने काम में ही लगी हुई थी। शाम हो चुकी थी और ऑफिस से विशेष जी के आने का समय हो रहा था। मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि आज की शाम मेरे लिए एक नई सौग़ात ले कर आने वाली है और वो सौग़ात ऐसी होगी जिससे मारे ख़ुशी के मेरा रोम रोम खिल उठेगा।

डोर बेल बजी तो मैंने जा कर दरवाज़ा खोला और चुप चाप पलट कर अंदर की तरफ आने ही लगी थी कि विशेष जी की आवाज़ सुन कर मेरे क़दम जैसे जाम से हो ग‌ए। पहले तो लगा कि शायद मेरे कान बज उठे थे लेकिन जब दुबारा विशेष जी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मेरा दिल जैसे धक् से रह गया।

"मैं जानता हूं कि मेरी वजह से अब तक तुम्हें न जाने कितनी ही तक़लीफें सहनी पड़ी हैं।" विशेष जी ने गंभीर भाव से कहा था____"और इसके लिए मैं तुम्हारी हर सज़ा को भुगतने के लिए तैयार हूं।"

ये सब कहने के पहले उन्होंने मेरा नाम ले कर मुझे दो बार पुकारा था और मेरे क़दम अपनी जगह पर जैसे जाम से हो गए थे। मेरा दिल बुरी तरह से धड़कने लगा था और जब विशेष जी ने ये सब कहा तो कानों को जैसे यकीन ही नहीं हुआ। बड़ी मुश्किल से मैंने हिम्मत दिखाई और पलट कर उनकी तरफ देखा।

"मैंने हमेशा ये ख़्वाहिश की थी कि मेरी हर चीज़ ख़ास हो।" मेरे पलटते ही उन्होंने आगे कहा____"मैं अपनी ज़िन्दगी में ऐसी कोई चीज़ बरदास्त नहीं करता था जो ख़ास न हो। पिता जी ने जब मुझे बताया कि मेरा ब्याह तय हो गया है तो मैं ये सोच कर थोड़ा घबरा सा गया था कि जिससे मेरा ब्याह तय हुआ है वो अगर ख़ास न हुई तो क्या होगा? फिर मैंने ये सोच कर खुद को तसल्ली दी थी कि मेरे माता पिता किसी ऐसी लड़की से मेरा ब्याह थोड़े न कर देंगे जिसमें कोई ख़ासियत ही न हो। हालांकि उस वक़्त मेरे ज़हन में ये ख़याल भी उभरा था कि एक बार अपनी आँखों से तुम्हें देख लूं लेकिन पिता जी के डर से मैं ऐसा नहीं कर सका था। ख़ैर उसके बाद ब्याह हुआ और उस रात सुहाग सेज पर जब मैंने तुम्हारा घूंघट उठा कर तुम्हें देखा था तो मेरे पैरों तले से ज़मीन ही खिसक गई थी। पलक झपकते ही मेरे अंदर ये सोच कर गुस्सा भर गया था कि जब मेरी हर चीज़ ख़ास है तो मेरी बीवी बन कर मेरी ज़िन्दगी में आने वाली तुम ख़ास क्यों नहीं थी? बात अगर थोड़ी बहुत की होती तो मैं बरदास्त भी कर लेता या खुद को समझा भी लेता लेकिन तुम्हारे में थोड़ी बहुत जैसा सवाल ही नहीं था बल्कि मेरी नज़र में तो तुम दुनियां की सबसे बदसूरत औरत थी। मेरे दिलो दिमाग़ में तुम्हारे प्रति नफ़रत और घृणा इस क़दर भर गई थी कि मैंने गुस्से में तुम्हें वो सब कहा और फिर कभी तुमसे मतलब नहीं रखा। इन साढ़े चार सालों में ऐसा कोई दिन ऐसा कोई पल नहीं गुज़रा जब मैंने इस बारे में सोच कर खुद को समझाया न हो लेकिन मैं हमेशा इसी बात पर अड़ा रहा कि नहीं, मैं एक ऐसी औरत को अपनी बीवी नहीं स्वीकार कर सकता जो हद से ज़्यादा बदसूरत हो।"

विशेष जी ये सब कहने के बाद सांस लेने के लिए रुक गए थे या शायद वो ये देखना चाहते थे कि उनकी बातों का मुझ पर क्या असर हुआ है? मैंने उनसे तो कुछ नहीं कहा लेकिन उनकी बातों से मेरे अंदर भूचाल सा ज़रूर आ गया था जिसे मैं बड़ी मुश्किल से रोकने का प्रयास कर रही थी।

"समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता रूपा।" उन्होंने मेरा नाम लेते हुए कहा था____"हर चीज़ का एक दिन अंत हो ही जाता है। मेरे अंदर तुम्हारे प्रति भले ही इतना ज़हर भरा हुआ था लेकिन इन छह महीनों में मुझे एहसास हो गया है कि मैंने तुम्हें ठुकरा कर अच्छा नहीं किया था। अगर तुम छह महीनों से मेरे साथ यहाँ न होती और मैं तुम्हें इस तरह ख़ामोशी से सब कुछ करते हुए नहीं देखता तो शायद आगे भी मुझे ये एहसास न होता। तुम्हारे यहाँ आने के बाद से मैं अक्सर ये सोचता था कि आख़िर किस मिट्टी की बनी हुई हो तुम कि मेरी इतनी बेरुखी के बाद भी तुम उफ्फ तक नहीं करती? तुम्हारी जगह अगर कोई दूसरी औरत होती तो इतना कुछ होने के बाद यकीनन वो बहुत पहले ही आत्म हत्या कर चुकी होती। ख़ैर तुमने अपने हर कर्तब्य पूरे मन से निभाए और मेरी बेरुखी को भी ऊपर वाले का विधान समझ कर स्वीकार किया। ये सब चीज़ें ऐसी हैं जिनकी वजह से मुझे एहसास हुआ कि मैं अब तक कितना ग़लत था। मुझे अपनी हर चीज़ ख़ास की सूरत में ही चाहिए थी और तुम तो सच में ही ख़ास थी। ये अलग बात है कि मुझे कभी तुम्हारी खासियत का एहसास ही नहीं हुआ। मेरे जैसा बुरा इंसान शायद ही इस दुनियां में कही होगा रूपा। मैं तुम्हारा गुनहगार हूं। मुझे इसके लिए तुम जो चाहे सज़ा दे दो लेकिन आज की सच्चाई यही है कि मेरे दिल में तुम्हारे प्रति अब कोई ज़हर नहीं रहा बल्कि अब अगर कुछ है तो बस इज्ज़त और सम्मान की भावना है।"

विशेष जी बोलते जा रहे थे और मेरे अंदर जैसे विस्फोट से हो रहे थे। ऐसे विस्फोट जिनके धमाकों से मेरा समूचा वजूद हिल भी रहा था और ख़ुशी का एहसास भी करा रहा था। आख़िर ऊपर वाले ने मेरी इतने सालों की तपस्या का फल देने का सोच ही लिया था। मेरा रोम रोम इस फल की ख़ुशी में खिलता जा रहा था। मन कर रहा था कि इस ख़ुशी में नाचने लगूं और सारी दुनियां के सामने चीख चीख कर कहूं कि____'देख लो दुनियां वालो, आज मेरे पति ने मुझे अपना लिया है। आज उन्होंने मुझे अपनी पत्नी मान लिया है। आज उनके दिल में मेरे प्रति नफ़रत और घृणा नहीं है बल्कि मेरे लिए इज्ज़त और सम्मान की भावना आ गई है।'

खुशियों का एहसास इतना भी प्रबल हो सकता है ये उस दिन पता चला था मुझे। लोग ख़ुशी में किस तरह नाचने लग जाते हैं ये उस दिन समझ आया था मुझे। लोग ख़ुशी में पागल कैसे हो जाते हैं ये उस दिन महसूस हुआ था मुझे। मैं तो अपने बनाने वाले से यही कहना चाहती थी कि वो मुझे उस ख़ुशी में पागल ही कर देता। मेरे अंदर मेरे जज़्बात मचल रहे थे और जब मैंने उन खुशियों को किसी तरह भी ब्यक्त न किया तो जैसे मेरी आँखों ने खुद ही उन्हें ज़ाहिर कर देने का फैसला कर लिया था। वो खुद ही मारे ख़ुशी के छलक पड़ीं थी और उस वक़्त तो मैं खुद भी अपने आपको सम्हाल नहीं पाई थी जब विशेष जी ने अपनी बाहें फैला कर मुझे गले लग जाने का इशारा किया था। एक पल की भी तो देरी नहीं की थी मैंने, बल्कि झपट कर मैं उनके सीने से जा लिपटी थी। उनके सीने से लगते ही ऐसा लगा जैसे वर्षों से जल रहे मेरे कलेजे को ठंडक मिल गई हो। अब अगर ऊपर वाला मेरे प्राण भी ले लेता तो मुझे उससे कोई शिकायत न होती। जाने कितनी ही देर तक मैं उनके सीने से लिपटी रोती बिलखती रही। बस रोए ही जा रही थी, मुख से कोई अलफ़ाज़ नहीं निकल रहे थे और वो मेरी पीठ पर इस अंदाज़ से अपने हाथ फेरते जा रहे थे जैसे मुझे दिलासा देते हुए कह रहे हों कि____'बस रूपा, अब से तुम्हें दुनियां का कोई भी दुख दर्द रुलाने नहीं आएगा।'

मेरी ज़िन्दगी में खुशियों का आगमन हो गया था और फिर तो जैसे ये खुशियां अपने नए नए रूपों में मुझे और भी ज़्यादा खुश रखने के करतब दिखाने लगीं थी। सब कुछ मेरी आँखों के सामने हक़ीक़त में होता हुआ नज़र आ रहा था लेकिन ऐसा लगता था जैसे मैं कोई ख़्वाब देख रही थी। मन में ख़याल आता कि अगर ये सब ख़्वाब ही है तो मैं जीवन भर बस ऐसे ही ख़्वाब देखना चाहती हूं। अगले ही पल अपने बनाने वाले से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगती कि____'हे ऊपर वाले! जिस दिन इन ख़्वाबों का अंत हो उसी दिन मेरे प्राणों का भी अंत कर देना। क्योंकि इस सबके बाद मैं खुद भी जीने की ख़्वाहिश नहीं रखूंगी।'


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Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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Chapter - 02
[ Reality & Punishment ]
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Update - 10
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मेरी ज़िन्दगी में खुशियों की बहार आ गई थी। साढ़े चार सालों से मैं जिस चीज़ के लिए तड़प रही थी वो चीज़ मुझे मिल गई थी। मेरे पति ने मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार भी कर लिया था और मुझे हर वो ख़ुशी देने लगे थे जो उनकी पत्नी के रूप में मुझे मिलनी चाहिए थीं। इससे ज़्यादा किसी पत्नी को और भला क्या चाहिए था? रात दिन मैं इस सबके लिए ऊपर वाले का धन्यवाद करती थी। एक हप्ते में ही विशेष जी ने मुझे इतनी खुशियां दे थीं कि मैं अपने अब तक के सारे दुःख दर्द भूल गई थी। उनका प्यार दिखाना और हर चीज़ मेरी इच्छा के अनुसार ही करना मुझे इतना मनमोहक लगता था कि मेरे दिल में विशेष जी के लिए एक अलग ही ख़ास स्थान बनता जा रहा था। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब मेरा वही पति मुझे इतना प्यार देगा जिसने सुहागरात में मुझे देखते ही मुझे त्याग दिया था और अपनी पत्नी मानने से इंकार कर दिया था।

इतना प्यार, इतनी खुशियां और अपने प्रति इतना ख़याल देख कर मुझे ऐसा लगता था जैसे मैं कोई ख़्वाब देख रही हूं। मेरा मन हर पल ख़ुशी के मारे नाचने फुदकने को करता था और अकेले में मैं इस सबसे खुश हो कर नाचती भी थी। विशेष जी मुझे इतना प्यार और इतनी खुशियां दे रहे थे तो बदले में मैं भी पूरी कोशिश कर रही थी कि मैं भी उन्हें उतना ही प्यार दूं और उन्हें खुश रखूं। इस सच्चाई को खुद भी जानते हुए कि मेरा रंग रूप ऐसा नहीं है जो किसी मर्द को आकर्षित करे फिर भी विशेष जी के लिए सजती संवरती रहती थी। मेरे बस में नहीं था वरना मैं अपने रंग रूप को बेइंतेहा सुन्दर बनाने के लिए कुछ भी कर गुज़रती।

हप्ते दस दिन ऐसे ही गुज़र गए थे। इन दस दिनों में विशेष जी ने मुझे इतना प्यार और इतनी खुशियां दे दीं थी कि मैं उन सबको न तो सम्हाल पा रही थी और ना ही हजम कर पा रही थी। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि अचानक से मेरे दामन में इतनी खुशियां भर जाएंगी। मैं विशेष जी के साथ कुछ भी करने के लिए और कहीं भी जाने के लिए हर पल तैयार रहती थी। इन दस दिनों में उन्होंने एक अच्छे पति होने का सबूत दे दिया था या शायद उससे भी ज़्यादा। वो मुझे बाहर घूमाने ले जाते, सिनेमा में मेरी मनपसंद की फिल्म दिखाते और बड़े से शो रूम में ले जा कर मुझे शॉपिंग करवा कर एक अच्छे से होटल में खाना खिलाते। उन्हें देख कर ज़रा भी नहीं लगता था कि उन्हें मेरे जैसी कुरूप बीवी से अब कोई परेशानी थी या कोई मलाल था। मेरी ख़ुशी देख कर वो भी बेहद खुश दिखते थे।

दस दिन ऐसे ख़ुशी ख़ुशी में गुज़र गए थे लेकिन अभी हमने सुहागरात नहीं मनाई थी। हर रोज़ मेरे मन में ख़याल आता कि हमारी शादी को साढ़े चार साल गुज़र गए हैं लेकिन अब तक हमने सुहागरात नहीं मनाई। मुझे तो उनसे इस बारे में बात करने में शर्म आती थी इस लिए मैंने भी सोच लिया था कि जब वो ख़ुद इस बारे में कुछ कहेंगे तभी मैं उनका साथ देते हुए इसके लिए हाँ करुंगी। सुहागरात के बारे में सोच कर ही मेरा रोम रोम पुलकित हो उठता था और फिर ये सोच कर खुद ही शर्मा जाती कि विशेष जी के सामने कैसे मैं अपने जिस्म से कपड़े उतारूंगी? पलक झपकते ही ये सब बातें मुझे सोचों में डाल देती थीं और मेरे दिल की धड़कनों को जैसे रोक देती थीं लेकिन मैं ये भी जानती थी कि किसी दिन ऐसा तो करना ही पड़ेगा और वैसे भी हर औरत की तरह मेरी भी तो यही ख़्वाहिश थी कि मेरी भी ज़िन्दगी में एक रोज़ ऐसा खूबसूरत पल आए और मेरा पति मुझे पूर्ण रूप से औरत बना दे।

एक दिन मज़ाक मज़ाक में ही विशेष जी ने हमारी सुहागरात की बात छेड़ दी तो मैं शर्म से उनकी तरफ देखती रह गई थी। उन्होंने मुझसे कहा था कि वो मेरे साथ सुहागरात तभी मनाएंगे जब इसके लिए मेरी भी मर्ज़ी होगी। उनका कहना था कि वो ऐसा कोई भी काम नहीं करेंगे जिसमें मेरी मर्ज़ी न हो। विशेष जी की इन बातों से मैं बेहद खुश हो गई थी। वो मुझे इतना मान दे रहे थे तो मैं भला कैसे उनके लिए खुश न होती? अब क्योंकि मेरे मन में भी अपनी सुहागरात के प्रति ख़्वाहिश थी इस लिए मैंने शर्म से नज़रें झुका कर उनसे कह दिया था कि उनकी मर्ज़ी ही मेरी मर्ज़ी है।

दूसरे दिन विशेष जी मुझे अपने साथ मंदिर ले कर गए और वहां के पंडित जी से शुभ मुहूर्त निकलवाया। उनका कहना था कि हम पहले एक बार फिर से अपने घर में शादी करेंगे और उसके बाद ही सुहागरात मनाएंगे। विशेष जी की इस सोच से मैं बहुत ज़्यादा प्रभावित हो गई थी और खुश भी हुई थी। खैर पंडित जी के शुभ मुहूर्त के अनुसार हमने एक दिन घर में ही शादी की। हालांकि वो शादी बस कहने के लिए ही थी क्योंकि उसमें हम दोनों शादी वाले कपड़ों में एक दूसरे को जय माला पहनाया था और विशेष जी ने मेरी मांग में सिन्दूर लगाया था। उस दिन मैं बहुत ही ज़्यादा खुश थी और मन ही मन ये सोच कर रोमांचित भी हो रही थी कि रात में सुहागरात को सब कुछ कैसे होगा? विशेष जी मेरे साथ क्या क्या करेंगे और किस तरह से करेंगे? पता नहीं कैसे कैसे ख़याल बुनने लगती थी मैं।

आख़िर रात हुई और मैं कमरे में न‌ई नवेली दुल्हन की तरह सुहाग सेज पर सजी संवरी बैठी थी। मेरे मन में तरह तरह के ख़याल उभर रहे थे जिनकी वजह से कभी मैं बहुत ज़्यादा रोमांच से भर जाती तो कभी ये सोच कर थोड़ा परेशान भी हो जाती कि अगर सुहागरात में विशेष जी को मैं खुश न कर पाई तो क्या होगा? अब तक इतने दुःख दर्द सहे थे कि ज़रा सी बात पर मैं बुरी तरह चिंतित और परेशान हो जाती थी। मैंने मन ही मन ऊपर वाले को याद किया और उनसे कहा कि मुझे इतनी शक्ति और इतनी हिम्मत देना कि मैं अपने पति को हर तरह से खुश करने में कामयाब रहूं।

विशेष जी कमरे में आए तो उनकी आहट से ही मैं एकदम से सिकुड़ गई थी। मेरा दिल बुरी तरह धड़कनें लगा था। मन में एकदम से डर और घबराहट सी भर गई थी। विशेष जी बेड के किनारे पर ही बैठ गए थे। मेरी आँखों के सामने अचानक से साढ़े चार साल पहले का वो दृश्य उजागर हो गया जब ऐसे ही सुहागरात को विशेष जी कमरे में आए थे और फिर बेड के किनारे पर बैठ कर उन्होंने मेरा घूंघट उठाया था। उसके बाद तो जैसे क़यामत ही गई थी मेरी ज़िन्दगी में। ये सब याद आते ही मेरे दिल की धड़कनें और भी ज़्यादा तेज़ी से चलने लगीं थी। पता नहीं क्यों पर मन में ये ख़याल भी उभर आया कि कहीं आज भी तो वैसा ही नहीं हो जाएगा? फिर एकदम से ख़याल आया कि नहीं नहीं आज ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि पहले में और आज में बहुत फ़र्क हो गया है। पहले विशेष जी मुझसे प्यार नहीं करते थे जबकि आज वो मुझे बहुत प्यार करते हैं।

विशेष जी ने मेरा घूंघट उठाया। मेरा चेहरा डर और घबराहट से भरा हुआ था। पलकें झुकी हुईं थी और चेहरा हल्का सा नीचे की तरफ झुका हुआ था। उन्होंने घूंघट उठाने के बाद हल्के से मेरी ठुड्ढी को पकड़ा और फिर ऊपर उठाया तो मेरा चेहरा सीधा उनकी नज़रों के सामने आ गया।

"तुम्हारे बारे में मैं हमेशा से ही ग़लत था रूपा।" विशेष जी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैंने बड़ी मुश्किल से पलकें उठा कर उनकी तरफ देखा था, जबकि उन्होंने आगे कहा____"मैं ये कभी समझ ही नहीं पाया कि जिस खासियत की मैं चाह रखता था वो तो शुरू से ही तुम में थी। हाँ रूपा, तुम शुरू से ही ख़ास थी, बल्कि इतनी ख़ास कि तुमसे ज़्यादा मेरे पास मौजूद दूसरी कोई भी चीज़ ख़ास नहीं थी। आज मैं ये अच्छी तरह समझ चुका हूं कि दुनियां में किसी भी चीज़ की खासियत उसके रंग रूप से नहीं होती बल्कि उसके गुणों से होती है। तुम्हारी सबसे बड़ी खूबसूरती और सबसे बड़ी खासियत यही है कि तुम में गुणों की कोई कमी नहीं है। आज मैं सच में तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में पा कर बेहद खुश हूं।"

विशेष जी के द्वारा कहे गए एक एक शब्द जैसे मेरे दिलो दिमाग़ से उतर कर मेरी रूह को मीठा सा एहसास करा गए थे और मेरे रोम रोम को पुलकित कर गए थे। मेरे समूचे जिस्म में ख़ुशी की लहर दौड़ गई और मैं एक झटके से आगे बढ़ कर उनसे लिपट गई थी। उन्होंने खुद भी मुझे अपने सीने से ऐसे छुपका लिया था जैसे सच में मैं उनकी सबसे प्यारी और सबसे ख़ास चीज़ थी। मैं भला ये कैसे सोच सकती थी कि मेरे साथ उनके द्वारा किया गया हर कार्य महज एक छलावा था? एक ऐसा षड़यंत्र था जिसके बारे में मेरे जैसी औरत कल्पना भी नहीं कर सकती थी। ख़ैर उस रात विशेष जी ने मुझे हद से ज़्यादा प्यार दिया और मैं स्वीकार करती हूं कि उनके दिए हुए उस प्यार से मैं संतुष्ट भी हुई थी।

साढ़े चार सालों बाद मेरी ज़िन्दगी में खुशियां आईं थी और मैं उन खुशियों में इस तरह डूब चुकी थी कि मुझे बाकी किसी भी चीज़ के बारे में सोचने का ख़याल ही नहीं रह गया था। विशेष जी सुबह आठ बजे ऑफिस जाते थे इस लिए मैं उनके लिए खाने का टिफिन तैयार कर देती थी। उनके ऑफिस जाने के बाद घर के सारे काम करती और फिर सारा दिन उनके इंतज़ार में बैठी रहती। उनके इंतज़ार में एक एक पल गुज़ारना जैसे भारी हो जाता था। मन करता था कि जल्दी से शाम हो और मैं अपने उस पति का चेहरा देखूं जो मुझे सबसे ज़्यादा प्यार करता था। मैं अपनी तरफ से हर वो कोशिश करती थी जिससे विशेष जी मुझसे खुश ही रहें और मेरे प्रति उनका ये प्यार कम न होने पाए। हालांकि उनके प्यार में मैंने कमी महसूस भी नहीं की थी बल्कि दिन पर दिन उनका प्यार बढ़ता ही जा रहा था और मैं उनके प्यार से मिलने वाली इस ख़ुशी को सम्हाल ही नहीं पा रही थी। कभी कभी मैं मन ही मन ऊपर वाले से कहने लगती कि इतना प्यार और इतनी खुशियों की तो मैंने कभी कल्पना ही नहीं की थी और ना ही मुझे इन खुशियों को सम्हालने का तज़ुर्बा है इस लिए ऐसा मत होने देना कि अगर मैं इन्हें सम्हाल न पाऊं तो ये खुशियां कम होने लगें।

कुछ दिन पहले कहां मैं ये सोचा करती थी कि ज़िन्दगी बड़ी ही कठोर और मेरी तरह ही बदसूरत होती है लेकिन इस सबकी वजह से मेरी सोच और मेरे ख़यालात बदल गए थे। अब मैं ये सोचने लगी थी कि ज़िन्दगी तो सच में बहुत खूबसूरत होती है। अगर किसी को इतना प्यार और इतनी खुशियां मिलने लगें तो वास्तव में ज़िन्दगी खूबसूरत ही कहलाएगी। विशेष जी ने मुझे तोहफे के रूप में एक टच स्क्रीन वाला मोबाइल खरीद कर दिया था। मैं उस मोबाइल से अपने माँ बाबू जी को फ़ोन लगाती और उनसे घंटों बातें करती रहती। मैं उन्हें बताती कि अब सब कुछ ठीक हो गया है और मेरे पति मुझे बहुत सारा प्यार दे रहे हैं जिसकी ख़ुशी में मैं हर पल डूबी रहती हूं। मेरे माँ बाबू जी मेरी इस बात से बेहद खुश थे। वो अक्सर कहते थे कि हम कहते थे न बेटी कि समय कभी भी एक जैसा नहीं रहता बल्कि वो बदलता रहता है। यानि दुःख के बादल एक दिन ज़रूर छंट जाते हैं और फिर जीवन में खुशियों का आगमन होता है।

खुशियां जब आती हैं तब इंसान उन खुशियों में इतना डूब जाता है कि उसे वक़्त के गुज़रने का एहसास ही नहीं हो पाता। यही हाल मेरा था। मेरी ज़िन्दगी में अचानक से इतनी खुशियां आ गईं थी कि मैं पूरी तरह उसमें डूब चुकी थी जिसकी वजह से मुझे ये पता ही नहीं चल पाया कि कितना वक़्त गुज़र गया?

एक रात अपनी समझ में मैं बेड पर विशेष जी के सीने से छुपकी चैन की नींद सो रही थी। मुझे नहीं पता था कि उस वक़्त रात का कौन सा पहर चल रहा था? अचानक से मेरी नींद टूट गई थी। नींद टूटने की वजह ये थी कि मुझे ज़ोरों का पेशाब आया हुआ था। सोने से पहले हम दोनों ने एक दूसरे को भरपूर प्यार किया था और फिर उसी हालत में सो गए थे। ख़ैर नींद टूटी तो मैंने आँखें खोल कर देखा। कमरे में अँधेरा था लेकिन कमरे के एक कोने में टेबल लैंप जला हुआ नज़र आया मुझे। मैंने दिन के उजाले में क‌ई बार देखा था कि कमरे के उस कोने में एक कुर्सी टेबल रखी होती है जिसमें बैठ कर विशेष जी अक्सर अपने ऑफिस का काम करते थे।

टेबल लैंप को जलता देख मैं इतना तो समझ गई थी कि विशेष जी शायद अपने ऑफिस का कुछ काम कर रहे होंगे लेकिन मन में सवाल उभरा कि इतनी रात में उन्हें ऑफिस का काम करने की क्या ज़रूरत थी? मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि जा कर देखूं कि वो इतनी रात में अपने ऑफिस का कौन सा ऐसा काम कर रहे हैं लेकिन फिर मैंने ये सोच कर अपना इरादा बदल दिया कि मुझे बेवजह उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए। हो सकता है कि वो कोई ज़रूरी काम कर रहे हों और मेरे द्वारा डिस्टर्ब किए जाने पर उन्हें अच्छा न लगे। मैं भला ये कैसे चाह सकती थी कि मेरे द्वारा विशेष जी के किसी काम में अड़चन आए या वो मुझसे किसी वजह से नाराज़ हो जाएं? इस लिए मैं चुपके से उठ कर बेड पर बैठ गई। मुझे ज़ोर का पेशाब आया हुआ था इस लिए मैं बेड इस तरह उतरी कि कोई आवाज़ न हो। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी आहट से उनका अपने काम पर से ध्यान टूटे। मैं बेड से उतर कर बाथरूम में चली गई। थोड़ी देर बाद वापस आई तो देखा विशेष जी अभी भी अपने काम में लगे हुए थे। मैं ये सोच कर थोड़ा हैरान हुई कि क्या उन्हें बाथरूम में मेरे द्वारा टॉयलेट शीट पर पानी डालने की आवाज़ न सुनाई दी होगी? अगर उन्हें सुनाई दी होती तो वो ज़रूर मेरे आने के बाद मेरी तरफ देखते और कुछ न कुछ ज़रूर कहते। इसका मतलब वो अपने काम में इतना डूबे हुए थे कि उन्हें बाकी किसी चीज़ का आभास ही नहीं हुआ था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि आख़िर वो ऐसे कौन से काम में इतना डूबे हुए थे कि उन्हें किसी बात का आभास तक नहीं हुआ?

मेरे मन में ये जानने की उत्सुकता जाग उठी थी लेकिन उनके क़रीब जा कर उनके काम को देखने की हिम्मत मैंने नहीं की, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं मेरे द्वारा ऐसा करने पर वो नाराज़ न हो जाएं। इस लिए मैं जिस ख़ामोशी से बेड से उतर कर बाथरूम गई थी उसी ख़ामोशी से मैं वापस आ कर बेड पर बैठ गई। मैंने मन ही मन सोचा कि मैं विशेष जी के काम पूरा हो जाने का इंतज़ार करती हूं और जब उनका काम पूरा हो जाएगा तो मैं उनसे इस बारे में पूछूंगी।

बेड पर उनकी तरफ ही करवट ले कर मैं लेट गई थी और देखने लगी थी कि वो कब तक अपने काम में लगे रहते हैं? लैंप की रौशनी में मुझे साफ़ नज़र आ रहा था कि वो किसी किताब में कुछ लिख रहे हैं। कभी वो लिखना बंद कर के कुछ सोचने लगते और सोचने के बाद वो फिर से लिखने लगते। मैं काफी देर तक उनका यही क्रिया कलाप देखती रही। क़रीब आधे घंटे बाद उन्होंने उस किताब को बंद किया और गर्दन घुमा कर एक बार मेरी तरफ देखा। मेरी तरफ क्योंकि अँधेरा था इस लिए उन्हें मैं नज़र नहीं आ सकती थी और अगर आ भी रही होती तो वो ये नहीं देख सकते थे कि मेरी आँखें खुली हुई हैं या मैं सोई हुई हूं। मैं तो बस ये सोच कर खुश हो रही थी कि विशेष जी को मुझे प्यार और ख़ुशी देने के चक्कर में अपने निजी काम करने का भी वक़्त नहीं मिलता। तभी तो वो इतनी रात को चुप चाप अपना काम कर रहे थे।

अभी मैं ये सोच सोच कर खुश ही हो रही थी कि तभी मैंने देखा कि विशेष जी ने उस किताब को अपने बगल से रखे बैग में डाल दिया और फिर अपने जनेऊ में बंधी चाभी से उस बैग में ताला लगा दिया। मुझे उनके द्वारा ऐसा करना थोड़ा अजीब सा लगा। मेरे मन में ख़याल उभरा कि आख़िर वो उस किताब में ऐसा क्या लिख रहे थे जिसे लिखने के बाद उन्होंने उस किताब को उस बैग में रख कर उसमें ताला लगा दिया था? स्वाभाविक रूप से मेरे मन में ये जानने की उत्सुकता और भी बढ़ चुकी थी। ज़हन में एक बार फिर ये ख़याल उभरा कि क्या मुझे उनसे इस बारे में पूछना चाहिए लेकिन फिर मन में ही जवाब के रूप में दूसरा ख़याल उभरा कि मुझे उनके निजी कामों के बारे में इस तरह नहीं पूछना चाहिए। क्योंकि संभव है कि उन्हें इस बात से अच्छा न लगे।

मैंने देखा कि विशेष जी कुर्सी से उठे और उस बैग को ले कर मेरी तरफ आए। मैंने फ़ौरन ही अपनी आँखें बंद कर ली थी। कुछ ही देर में मुझे बेड के नीचे कुछ खिसकने की आवाज़ सुनाई दी। मैं समझ गई कि वो खिसकने की आवाज़ किस चीज़ की थी। ख़ैर उसके बाद विशेष जी वापस गए और टेबल लैंप को बुझाने के बाद वो बेड पर आ कर लेट ग‌ए। इधर मैं आँखें बंद किए इस इंतज़ार में पड़ी रही कि शायद वो मेरी तरफ मुड़ेंगे और मुझसे कुछ कहेंगे या फिर मेरे साथ छुपक कर सो जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो दूसरी तरफ करवट ले कर लेट गए थे। मैं काफी देर तक उनके द्वारा कुछ कहे जाने या कुछ किए जाने का इंतज़ार करती रही लेकिन मेरी उम्मीद के विपरीत कुछ भी न हुआ बल्कि कुछ ही देर में मुझे उनके खर्राटों की हल्की आवाज़ सुनाई देने लगी थी। जहां तक मुझे याद है वो मेरे साथ जब बेड पर सोते थे तो मुझे अपने से छुपका कर ही सोते थे लेकिन इस वक़्त ऐसा नहीं हो रहा था। ये देख कर मुझे बड़ी हैरानी हो रही थी लेकिन फिर मैंने सोचा कि शायद वो थके रहे होंगे इस लिए वो सो गए थे। ख़ैर उसके बाद मैं भी मन में तरह तरह की बातें सोचते हुए सो गई थी।

दूसरे दिन हर रोज़ की तरह मैंने उनके लिए ब्रेकफास्ट रेडी किया और टिफिन सजा कर उन्हें दिया। रात वाली बात मेरे ज़हन से निकल चुकी थी। ख़ैर किसी तरह दिन गुज़रा और शाम हुई। विशेष जी घर आए और हमने रात में डिनर किया और प्यार करने के बाद सो गए। इत्तेफ़ाक़ से उस रात फिर से मेरी नींद पेशाब लगे होने की वजह से खुल गई थी और जब मैंने कमरे में इधर उधर नज़र घुमाई तो कमरे के एक कोने में टेबल लैंप की रौशनी दिखी। मेरे मन में ख़याल उभरा कि आज विशेष जी फिर से अपने किसी काम में लगे हुए हैं। मैं बाथरूम गई और वहां से जब वापस आई तो देखा वो वैसे ही लिखने में लगे हुए थे। उस रात भी उन्हें मेरे आने जाने का आभास नहीं हुआ था। मेरे मन में सवाल तो बहुत सारे उभरने लगे थे लेकिन मैंने उनसे कुछ पूछना ठीक नहीं समझा। ख़ैर बेड पर लेट कर मैं उन्हें देखती रही। पिछली रात की तरह ही उन्होंने कुछ समय बाद उस किताब को बंद किया और उसे बैग में रख कर बैग में ताला लगा दिया। उसके बाद उस बैग को बेड के नीचे खिसका कर वो बेड पर दूसरी तरफ को करवट ले कर लेट ग‌ए।

मैं बार बार यही सोचती थी कि विशेष जी से इस बारे में पूछूं कि आख़िर वो इतनी रात में कौन सा काम करते हैं लेकिन हर बार मैं ये सोच कर अपना ख़याल बदल देती कि मुझे उनके निजी कामों के बारे में नहीं पूछना चाहिए। मुझे ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए जिसकी वजह से वर्षों बाद मिली मेरी इन खुशियों पर ग्रहण लग जाए। अपने अब तक के जीवन में मैंने सिर्फ और सिर्फ दुःख दर्द ही सहे थे इस लिए इन खुशियों के मिलने के बाद अब मैं ग़लती से भी ऐसा कुछ नहीं कर देना चाहती थी जिसकी वजह से फिर से पहले जैसे दुःख दर्द मेरे जीवन का हिस्सा बन जाएं।

अगले एक दो दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैंने भी सोचा कि मुझे इस बारे में इतना ज़्यादा नहीं सोचना चाहिए। अक्सर ऐसा होता है कि हम ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाते हैं और अपने ही हाथों अपना सब कुछ बर्बाद कर लेते हैं। मेरे जीवन ने और मेरे दुःख दर्द ने इतना तो मुझे सिखा ही दिया था कि परिस्थितियों से कैसे समझौता करना चाहिए। मेरे लिए यही बहुत बड़ी बात थी कि मेरे जैसी कुरूप औरत को उसके पति ने अपनी पत्नी स्वीकार कर लिया था और उसे इतना प्यार तथा इतनी खुशियां दे रहा था। मुझे इससे ज़्यादा और भला क्या चाहिए था?

हर इंसान अपने हिसाब से और अपने बुद्धि विवेक से जीवन में आगे बढ़ता रहता है और साथ ही वो परिस्थितियों के अनुसार अपने मन में हसरतें पालता रहता है लेकिन होता वही है जो ऊपर वाला चाहता है। मेरे जीवन में खुशियों के बस चार दिन ही लिखे थे। उसके बाद फिर से वही दुःख दर्द का चक्कर शुरू हो जाना था।

एक रात फिर से मेरी नींद टूट गई और फिर से मैंने विशेष जी को वैसे ही टेबल लैंप की रौशनी में किताब पर कुछ लिखते हुए देखा और फिर उस किताब को बैग में रखने के बाद उस बैग को ताला लगाते देखा। किसी इंसान को एक दो बार वहम हो सकता है या उसके साथ ऐसा इत्तेफ़ाक़ हो सकता है लेकिन बार बार तो नहीं? हम कितना भी ख़ुद को समझाएं लेकिन हमारा मन तब तक आपको शान्ति से बैठने नहीं देता जब तक कि ख़ुद उसके अंदर शान्ति और सुकून न आ जाए।

मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि विशेष जी उस किताब में कौन सी इबारत लिखते थे। मैं तो बस ये सोच कर एक बार उस किताब में लिखी इबारत को देख लेना चाहती थी कि आख़िर वो उसमें ऐसा क्या लिखते हैं जिसके लिए उन्हें और कोई वक़्त ही नहीं मिलता, सिर्फ आधी रात का ही वक़्त मिलता है? आख़िर ऐसा उस किताब में वो क्या लिखते हैं जिसके लिए उन्हें अपनी नींद ख़राब करनी पड़ती है? मेरे मन में विशेष जी के लिए बस एक फ़िक्र ही थी। भला मैं अपने इतना प्यार करने वाले पति को किसी तरह की चिंता या तक़लीफ में कैसे देख सकती थी? इस लिए मैंने फ़ैसला कर लिया था कि ग़लत ही सही लेकिन अब मैं ये जान कर ही रहूंगी।

उस रात जब विशेष जी सो गए तो मैं चुपके से उठ कर बेड से नीचे उतरी। बेड के नीचे से मैंने वो बैग निकाला और बैग को उठा कर उसके साथ ही ताले वाले हिस्से को बेड के उस हिस्से पर रखा जहां पर मेरे अंदाज़े के अनुसार विशेष जी के जनेऊ में उस ताले की चाभी हो सकती थी। उस वक़्त डर और घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल तो था लेकिन मन में उनके प्रति फ़िक्र और उत्सुकता की वजह से मैं कुछ भी करने के लिए मजबूर हो चुकी थी। मैंने बड़ी ही सावधानी से विशेष जी के जनेऊ में बंधी चाभी पकड़ी और उससे बैग के ताले को खोला। मेरे दिल की धड़कनें धाड़ धाड़ कर के मेरी कनपटियों पर चोट कर रहीं थी। घबराहट के मारे मेरा चेहरा पसीने से भर गया था। ख़ैर ताला खुल गया तो मैंने ताले से चाभी निकाल दिया। ऐसा इस लिए क्योंकि अगर चाभी ताले में ही फंसी रह गई तो उससे वजन पैदा हो जाता और विशेष जी के द्वारा बेड पर इधर उधर करवट लेने से वो वजन उन्हें जगा भी सकता था।

बैग को बड़ी सावधानी से ले कर मैं टेबल के पास आई। अभी मैं टेबल लैंप को जलाने के लिए बटन दबाने ही वाली थी कि तभी मेरे मन में ख़याल उभरा कि अगर विशेष जी किसी वजह से जाग गए और उन्होंने टेबल लैंप को जलते हुए देखा तो गज़ब हो जाएगा। ये सोच कर मैंने मोबाइल की स्क्रीन के उजाले द्वारा बैग से वो किताब निकाली और फिर बैग को बेड के नीचे आहिस्ता से सरका दिया। उसके बाद मैं उस किताब को ले कर बाथरूम में घुस गई। बाथरूम के दरवाज़े को अंदर से बंद कर के मैंने मोबाइल की टार्च जला कर उस किताब को खोला। इस वक़्त मेरी हालत चोरों वाली हो गई थी। मन में एक डर सा समाया हुआ था कि अगर विशेष जी के द्वारा पकड़ी गई तो शायद अनर्थ ही हो जाए और फिर मेरा जीवन पहले की ही तरह नर्क जैसा बन जाए।

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