Incest एक अनोखा बंधन

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पात्र

इससे पहले की मैं कहानी शुरू करूँ मैं पहले आपको इसके पत्रों से रूबरू करना चाहता हूँ| सभी पात्रों के नाम काल्पनिक हैं, सिवाए दो मुख्य पात्रों के!

तो चलिए शुरू करते हैं, मेरे पिता के दो भाई हैं और एक बहन जिनके नाम इस प्रकार हैं :

१. बड़े भाई - राकेश (जिन्हें में 'बड़के दादा' कहता हूँ|)
२. मझिल* - मुकेश (*बीच वाले भाई, जिन्हें मैं मझोले दादा कहता हूँ|)
३. सुरेश (मेरे पिता)
४. बड़ी बहन - रेणुका


बड़े भाई राकेश के पाँच पुत्र हैं| उनके नाम इस प्रकार हैं :

१. चन्दर
२. अशोक
३. अजय
४. अनिल
५. गटु



मझिले दादा के तीन पुत्र और तीन पुत्रियाँ हैं| उनके नाम इस प्रकार हैं :


१. रामु (बड़ा लड़का)
२. शिवु
३. पंकज
४. सोनिया (बड़ी बेटी)
५. सलोनी
६. सरोज

इस कहानी में केवल और केवल बड़के दादा और उनके परिवार के ही नाम जर्रूरी हैं, कारन आपको आगे पता चल जायेगा|


ये है मेरे गाँव के घर का एक नक्शा

Overview

बड़े घर का नक्शा

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भौजी के घर का नक्शा

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प्रथम अध्याय : पारिवारिक कलह

हमारा गाओं उत्तर प्रदेश के एक छोटे से प्रांत में है| एक हरा भरा गाओं जिसकी खासियत है उसके बाग़ बगीचे और हरी भरी फसलों से लह-लहाते खेत परन्तु मौलिक सुविधाओं की यदि बात करें तो वह न के बराबर है| न सड़क, न बिजली और न ही शौचालय! शौचालय की बात आई है तो आप को शौच के स्थान के बारे में बता दूँ की हमारे गावों में मूँज नामक पौधा होता है,जो झाड़ की तरह फैला होता है| सुबह-सुबह लोग अपने खेतों में इन्ही मूँज के पौधों की ओट में सौच के लिए जाते हैं, आदमी और औरतों के लिए अलग-अलग जगह है शौच की| अस्पताल गाँव से एक घंटा दूर है, अगर कोई इंसान बीमार होता तो कई बार अस्पताल पहुँचने से पहले ही मर जाता| चूँकि गाँव में सड़कें नहीं हैं तो आने-जाने के बस तीन ही साधन हैं; साइकिल, रिक्शा या बैल गाडी! प्रमुख सड़क जो घर से करीब 20 मिनट दूर है वहाँ से जीप, टाटा बस या फिर एक पुराने जमाने का ऑटो चलता है|


यही वो शानदार ऑटो है....:laugh:

पाँचवीं तक पढ़े मेरे पिताजी ने जवानी में कदम रखते ही घर छोड़ दिया था, शहर आ कर उन्होंने नौकरी ढूँढी और फिर एक दिन उनकी मुलाक़ात मेरी माँ से हुई| मेरी माँ का पूरा परिवार एक हादसे में मर गया था, शहर में माँ को एक घर में आया की नौकरी मिल गई थी और वो वहीं रहा करती थी| जल्द ही माँ-पिताजी को प्यार हुआ और हालात कुछ ऐसे बिगड़े की दोनों को शहर में ही शादी करनी पड़ी| शादी कर के जब पिताजी गाँव लौटे तो उनका बहुत तिरस्कार हुआ! कारन था माँ का दूसरी ज़ात का होना! बड़के दादा ने उन्हें बड़ा जलील किया और गन्दी-गन्दी गालियाँ देकर घर से निकाल दिया| पिताजी ने चुप-चाप उनका तिरस्कार सहा और सर झुकाये हुए दिल्ली वापस आ गए| वो बड़के दादा को अपने पिताजी की तरह पूजते थे और उनका हर हुक्म उनके लिए आदेश होता था जिसकी अवहेलना वो कभी नहीं कर सकते थे| जिंदगी में पहलीबार उन्होंने बिना बताये प्यार किया और उसके नतीजन उन्हें घर निकाला मिला!
मेरे माझिले दादा बहुत लालची प्रवित्ति के थे और पिताजी को घर से निकालते ही उन्होंने उनके हिस्से की जमीन पर कब्ज़ा कर लिया| बड़के दादा को पता चले उसके पहले ही उन्होंने वो जमीन तथा अपने हिस्से की जमीन बेच कर रेवाड़ी आ गए| बड़के दादा को ये पता तब चला जब साहूकार जमीन पर अपना कब्ज़ा लेने आया| बड़के दादा का दिल बहुत दुखा पर वो अब कुछ नहीं कर सकते थे, क्योंकि माझिले दादा रेवाड़ी में कहाँ थे इसका उन्हें कुछ पता नहीं था|

इधर इन सब बातों से अनजान, पिताजी ने शहर में अपनी नई जिंदगी शुरू कर दी थी| माँ से शादी करने के बाद उनकी किस्मत ने बहुत बड़ी करवट ली थी| पिताजी ने बहुत ही छोटे स्तर पर ठेकेदारी शुरू कर दी थी, छोटे-मोटे काम जैसे की कारपेन्टरी, प्लंबिंग का काम करवाना| इससे घर में आमदनी शुरू हो गई थी और गुजर-बसर आराम से हो जाता था| फिर पिताजी को पता चला की माँ पेट से हैं तो वो बहुत खुश हुए पर तब तक काम इतना फ़ैल चूका था की उनके पास माँ के लिए समय नहीं होता था| माँ को रक्तचाप की समस्या थी इसलिए डॉक्टर ने माँ को कुछ ख़ास हिदायतें दी थीं जैसे की चावल ना खाना, नमक ना खाना, अधिक से अधिक आराम करना आदि| पर पिताजी की अनुपस्थिति में माँ लापरवाह हो गईं और उनके चोरी-छुपे उन्होंने वो सारी चीजें की जो उन्हें नहीं करनी चाहिए थी| इसके परिणाम स्वरुप जब मेरा जन्म हुआ तो मैं शारीरिक रूप से बहुत कमजोर था, मेरे जिस्म का तापमान काफी ज्यादा था और माँ-पिताजी की रक्तचाप की अनुवांशिक बिमारी मुझे सौगात में मिली| मेरे जन्म के दो महीने तक पिताजी मुझे गोद में नहीं उठाते थे, उन्हें डर था की कहीं उनके सख्त हाथों से मुझे कोई चोट ना लग जाए! मेरी माँ मुझे बड़ा लाड-प्यार करती थी और दिनभर में नाजाने कितने नामों से पुकारती| तीन महीने बाद जब पिताजी ने मुझे गोद में लिया तो उनके दुलार की कोई सीमा नहीं थी, उनके प्यार के आगे माँ का लाड-प्यार कम था| पिताजी ने काम-धाम छोड़ कर बस मुझे गोद में खिलाना शुरू कर दिया| सिवाए दूध पिलाने के, पिताजी सारे काम करते थे| जो सबसे ज्यादा उन्हें पसंद था वो था मेरी मालिश करना, उनकी जितनी मालिश कभी किसी ने अपने बच्चे की नहीं की होगी| पिताजी मुझे प्यार से लाड-साहब कहा करते और मेरी माँ तो मेरे प्यार से इतने सारे नाम रखती की पिताजी हँस पड़ते थे|

दिन बड़े प्यार-मोहब्बत से बीत रहे थे और मैं अब 3 साल का हो गया था| की तभी एक दिन...........
 
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द्वितीय अध्याय : घर वापसी


मैं तीन साल का था तब एक दिन गाँव से पिताजी को तार आया| दिल्ली में जहाँ पिताजी शादी से पहले रहा करते थे, वहीं से बड़के दादा ने पिताजी का नया पता ढूँढ निकाला था और आज तीन साल बाद उन्होंने तार दे कर उन्हें मिलने बुलाया था| तार पढ़ते ही पिताजी फूले नहीं समाये और तुरंत मुझे और माँ को ले कर गाँव पहुँच गए| मैं तब माँ की गोद में था, बड़की अम्मा (बड़के दादा की पत्नी) ने मुझे देखते ही अपनी गोद में ले लिया था और मेरे चेहरे को चूमना शुरू कर दिया था| बड़के दादा ने माँ-पिताजी को माफ़ कर दिया था और ख़ुशी-ख़ुशी अपना लिया था| पिताजी को जब माझिले दादा की करनी का पता लगा तो उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा और उन्होंने सोच लिया की कभी न कभी वो उन्हें ढूँढ कर उनसे बात अवश्य करेंगे|

बड़के दादा के पाँचों बच्चे बड़े हो गए थे और एक-एक कर सब ने माँ-पिताजी के पाँव छुए और आशीर्वाद लिया| मैं चूँकि घर में सबसे छोटा था तो मुझे सब का लाड-प्यार मिलने लगा था| बड़के दादा के साथ मेरा उतना लगाव नहीं था जितना होना चाहिए था, पर देखा जाए तो उनका लगाव बच्चों से अधिक था भी नहीं! बहरहाल बड़के दादा का मेरे पिताजी को घर बुलाने का कारन कुछ और था| दरअसल उन्हें एक बड़ा घर बनाना था और सिवाए मेरे पिताजी के और कोई नहीं था जो उनकी मदद करता| मेर पिताजी तो थे ही अपने भाई के प्यार में अंधे तो जैसे-जैसा बड़के दादा कहते गए वैसे-वैसे पिताजी करते गए और इस तरह 5 कमरों का एक बड़ा घर तैयार हुआ जिसे बनाने में पिताजी की पाई-पाई लगी| एक कमरा हमारा था, एक बड़के दादा और बड़की अम्मा का, एक कमरा चारों भतीजों का क्योंकि अभी उनकी शादी नहीं हुई थी, और बाकी में अनाज भर दिया गया था|


खेर मैं बड़ा होने लगा था और अब स्कूल जाने लगा था| धीरे-धीरे मैं बड़ी क्लास में आगया और पिताजी का बर्ताव मेरे प्रति कठोर होता गया| पिताजी मुझे हिंदी और गणित पढ़ाया करते और ऐसा पढ़ाते की मेरे आँसू निकाल दिया करते! जब भी मैं गलती करता तो पिताजी बहुत झाड़ते, इतना झाड़ते के पड़ोसियों तक को पता चल जाता की पिताजी मेरी क्लास ले रहे हैं! माँ चुप-चाप देखती रहती, कहती भी क्या क्योंकि पिताजी के आगे तो उनकी चलती नहीं थी! पढ़ाई के साथ-साथ पिताजी ने मेरे अंदर शिष्टाचार कूट-कूट कर भरने शरू कर दिए थे, कूट-कूट के भरने से मेरा मतलब है पीट-पीट कर! अपने से बड़ों से कैसे बात करते हैं, कोई पैसे दे तो नहीं लेना, अपने से बड़ों के पाँव छूना और हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्ते कहना, तू-तड़ाक से बात न करना, गालियाँ या अपशब्द इस्तेमाल न करना, सबसे 'जी' लगा कर बात करना, खाना बर्बाद न करना, मन लगा कर पढ़ना, आवारागर्दी नहीं करना, बिना बताये कोई काम नहीं करना आदि! पिताजी की सख्ती के कारन ही मैं खेल में कम और पढ़ाई में ज्यादा मन लगाया करता, पर इस सब के बावजूद कभी-कभी गलती कर दिया करता और पिताजी बहुत भड़क जाते| पर एक गुण अवश्य था मुझमें, जो गलती एक बार कर देता था उसे दुबारा कभी नहीं करता था| मेरे जैसा आज्ञाकारी बच्चा पूरे मोहल्ले में नहीं था, जब कभी पिताजी मुझे मेरी की गलती पर सब के सामने डाँटते तो मेरी गर्दन शर्म से झुक जाती जो ये दर्शाता था की मैं अपने पिताजी का कितना मान करता हूँ| यही कारन था की मोहल्ले वाले पिताजी की बड़ाई करते नहीं थकते थे की उन्होंने कैसे आज्ञाकारी पुत्र की परवरिश की है और पिताजी को ये सुन कर खुद पर बहुत गर्व होता|
स्कूल में जब गर्मियों की छुटियाँ होती तो पिताजी मुझे और माँ को गाँव ले जाय करते और वहाँ के लोग जब मेरा आचरण देखते तो पिताजी की छाती गर्व से चौड़ी हो जाती| वहाँ के बच्चों के उलट मैं सबसे बड़े प्यार और आदर से बात करता था| जिद्दी नहीं था, शर्मीला था, धुल-मिटटी में नहीं खेलता था, माँ-पिताजी की सारी बातें सुना और माना करता था|


मैं 4 साल का था की बड़के दादा ने चन्दर भैया की शादी के लिए पिताजी को घर बुलाया| शादी का सारा इंतजाम उन्होंने मेरे पिताजी के सर डाल दिया जिसे मेरे पिताजी ने अच्छी तरह से निभाया| गाँव में शादी-ब्याह के अवसर पर घर में रिश्तेदारों का ताँता लग जाता है| फिर मेरे पिताजी जो की दिल्ली में रहते थे, जिनका अपना घर था दिल्ली में और जिनका ठेकेदारी का काम अब काफी बढ़ और फ़ैल चूका था| उनकी बराबरी करने वाला पूरे खानदान में कोई नहीं था, जब शादी का सारा इंतजाम उनके सर पड़ा तो परिवार में उनकी इज्जत कई गुना बढ़ गई, घर का हर काम उनसे पूछ कर किया जाने लगा| इतनी इज्जत और शोहरत के बाद भी पिताजी का अपने बड़े भाई और भाभी के प्रति आदर भाव बना रहा| इधर बड़की अम्मा ने मुझे एक दिन अपने पास बिठाया और बोलीं; "मुन्ना बहुत जल्द तोहार खतिर एक ठो नीक-नीक भौजी आई!" (बहुत जल्दी तेरे लिए एक सुन्दर-सुन्दर भाभी आएगी|)

मुझे तब गाँव की भाषा समझ नहीं आती थी और अगर मुझे से कोई देहाती में बात करता तो मैं अपने माँ-पिताजी की तरफ देखने लगता था ताकि वो मुझे अनुवाद कर के बतायें| आज जब बड़की अम्मा ने मुझसे ये बात कही तो मेरे पल्ले नहीं पड़ी और मैं अपनी माँ की तरफ देखने लगा; "बड़की अम्मा कह रही हैं की अब बहुत जल्दी तेरी सुन्दर-सुन्दर भौजी आएँगी!" माँ ने बड़की अम्मा की बात का अनुवाद किया| बाकी सब तो मैं समझ गया पर ये 'भौजी' शब्द सुन मैं उलझ गया और सवालिया आँखों से माँ से पुछा; "भौजी मतलब?" ये सुन कर माँ और बड़की अम्मा हँस पड़े| "बेटाभौजी का मतलब होता है भाभी|" माँ ने हँसते हुए कहा| अब ये ऐसा शब्द था जो मैंने पहले सुन रखा था और मेरे छोटे से दिमाग के अनुसार इसका मतलब होता था अपने से किसी बड़े भैया की पत्नी पर पत्नी क्या होती ये मुझे नहीं पता था! ये कौन से वाला भैया की पत्नी होंगी इससे मुझे कोई मतलब नहीं था, मैं तो यही सोच कर खुश था की कोई नई-नई चीज घर में आने वाली है| खेर धीरे-धीरे मुझे पता चल ही गया की चन्दर भैया की शादी होने वाली है|


शादी का दिन आया और बरात ले कर हम नई भाभी के घर पहुँचे, भाभी का घर यानी चन्दर भैया का ससुराल बहुत दूर नहीं था| यही कोई २-३ किलोमीटर होगा, पर पिताजी ने शादी का इंतजाम बिलकुल शहरी तरीके से किया था| हमारे यहाँ बरात में औरतें नहीं जाती, केवल मर्द जाते हैं| इसलिए घर पर सभी औरतें रुकी हुई थीं और पिताजी मुझे अपनी गोद में लेकर बड़के दादा के साथ चल रहे थे| गाजे-बाजे के साथ हम पहुँचे और वहाँ हमारा बहुत स्वागत हुआ| भाभी के परिवार में मेरा परिचय 'दिल्ली वाले काका' के लड़के के रूप में हुआ| सभी रस्में निभाई गईं और इस पूरे दौरान मैं पिताजी के साथ रहा| नई जगह थी और मैं किसी को जानता भी नहीं था, जिसे जानता भी था मतलब की मेरे बुआ के बच्चे या मौसा के बच्चे उनके साथ खो जाने के डर से नहीं गया| विवाह की रस्में खत्म होने के बाद भोजन हुआ जिसमें सारे भाई साथ बैठे थे| मैं चूँकि सबसे छोटा था और पिताजी से चिपका हुआ था इसलिए मैं वहाँ नहीं बैठा| मैंने पिताजी के साथ बैठ कर ही भोजन किया और उन्हीं के साथ सो गया| अगली सुबह सब उठे, मुँह-हाथ धो के सब तैयार हुए और सब ने चाय-नाश्ता किया| अब बारी थी विदा लेने की पर भाभी की विदाई नहीं हुई थी| सारे बाराती ख़ुशी-ख़ुशी वापस आ गए थे और मैं सोच-सोच कर हैरान था की आखिर नई वाली भाभी को क्यों नहीं लाये? घर आ कर कुछ रस्में निभाई गईं और मैं अपने दोस्तों के साथ खेलने लगा| शाम को जब माँ मुझे दूध पिला रही थीं तो बुआ बुआ बोली; "छोटी! मुन्ना इतना बड़ा हो गया है और तू इसे अब भी दूध पिला रही है?" तभी पिताजी वहाँ आ गए और बोले; "दीदी मानु को अब भी माँ के दूध की आदत है, ना दो तो रोने लगता है!" ये सुन बुआ और कुछ नहीं बोलीं पर मेरा दूध पीना हो गया था तो मैं उठ के बैठ गया और बोला; "पिताजी....नई भाभी कहाँ है?" मेरी बात सुन कर सारे लोग हँस पड़े और तब मुझे मेरे पिताजी ने गौने के बारे में समझाया| "बेटा शादी के बाद शहर की तरह बहु को घर नहीं लाया जाता| यहाँ के रिवाज के अनुसार ३ साल या ५ साल के बाद ही बहु को घर लाया जाता है|" पिताजी की ये बात मेरे सर के ऊपर से गई पर उन्हें दिखाने के लिए मैंने हाँ में सर हिलाया जैसे मैं सब समझ गया हूँ जबकि ये बात मुझे बड़ा होने के बाद समझ आई| गाँव में कम उम्र में ही शादी कर दिया करते थे, जिस वक़्त चन्दर भैया की शादी हुई वो मात्र १६ साल के थे और भाभी की उम्र १४ साल थी| इस उम्र में लड़के और लड़की का जिस्म पूरी तरह परिपक्व नहीं होता और इसी कारन से गौना किया जाता था, ताकि गौना होने तक दोनों ही व्यक्ति पूरी तरह परिपक्व हो जाएँ और अपने जीवन की गाडी चला सकें|

है तो ये अन्याय ही पर गाँव-देहात में इन कानूनों को कोई नहीं मानता! उनके लिए तो लड़की का जन्म एक बोझ माना जाता है और लड़के का जन्म वंश बेल को आगे बढ़ाने वाला समझा जाता है| इसी कारन से लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है ताकि शादी के कर्ज से पिता निजात पा सके, वरना बढ़ती महँगाई में एक गरीब बाप कैसे अपनी बेटी की शादी करेगा?
 
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तृतीय अध्याय : प्रथम मिलन

भाग - 1



शादी निपटने के बाद हम दिल्ली लौट आये, पिताजी ने काम संभाला और मैंने थोड़ी मस्ती और पढ़ाई करनी शुरू की| साल दर साल हम गर्मियों की छुट्टियों में गाँव जाया करते, मैं बड़ा होने लगा था तो अब वहाँ की बोली-भाषा समझने लगा था और कुछ-कुछ बोलने भी लगा था| इस तरह तीन साल निकल गए और फिर वो समय आया जब भाभी का गौना हुआ| मुझे लगा था की बहुत बड़ा समारोह होगा जिसमें बहुत सारे लोग आएंगे, पार्टी होगी पर हुआ ऐसा कुछ भी नहीं| खेर गौना बड़ा ही शांत तौर पर हुआ और नई भाभी के आते ही सारी औरतें उन्हें घेर कर बैठ गईं| मैं अब 7 साल का हो गया था और मेरे कुछ दोस्त गाँव में बन गए थे जिनके साथ मैं खेलता था| कुछ देर बाद बड़की अम्मा ने मुझे और गट्टू दोनों को बुलाया और नई भाभी से मिलवाया|





मैं और गट्टू दोनों ही बड़े घर पहुँचे, गट्टू तो पूरे आत्मविश्वास से खड़ा था और मैं शर्म से लाल हो गया था| सफ़ेद कुरता पजामा पहने हुए मैं अपने हाथ पीछे बांधे खड़ा था, मेरी नजरें सबसे पहले भाभी पर पड़ी जो लाल साडी पहने, डेढ़ हाथ का घूँघट काढ़े आँगन के बीचों बीच बैठी थीं| उस एक पल के लिए मेरे मन में नजाने क्यों मेरे पेट में तितलियाँ उड़ने लगी थीं| पूरा घर औरतों से भरा हुआ था और मुझे बहुत ज्यादा ही शर्म आ रही थी इसलिए भाभी को घूँघट में देखने के बाद मेरी नजरें झुक गई| बड़की अम्मा ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे सब औरतों के बीच से होते हुए भाभी के सामने खड़ा कर दिया| गट्टू मेरी बाईं तरफ खड़ा था और उत्सुकता भरी आँखों से उन्हें देख रहा था| मेरी नजरें बस जमीन में गाड़ी हुई थीं, मानो यहाँ दुल्हन भाभी नहीं मैं हूँ!



अम्मा ने पहले गट्टू का परिचय भाभी से कराया, बड़की अम्मा के कहने पर उसने भाभी के पाँव छुए और फिर बाहर चला गया| अब बारी थी मेरी; " दुल्हिन! ई तोहार सबसे छोट देवर है!" इतना कह कर बड़की अम्मा ने मुझे उनकी बगल में बिठा दिया और मैं शर्म से सर झुकाये बैठ गया| भाभी ने मुड़ कर मेरी तरफ देखा और अपने दाहिने हाथ को मेरे गाल पर फेरा| ये भाभी और मेरा पहला स्पर्श था, उनका तो मुझे नहीं पता पर मेरे शरीर में जर्रूर कुछ अजीब सा हुआ था जिसे उस समय व्यक्त कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं था| वहाँ बैठी सभी औरतें हँसने लगी और कहने लगीं की कितना शर्मिला लड़का है, इतनी देर से बैठा पर इसने आँख उठा कर किसी को देखा तक नहीं! बड़की अम्मा ने सबसे मेरी बड़ी तारीफ करते हुए कहा की ये यहाँ के बच्चों की तरह नहीं है, बड़ा ही संस्कारी लड़का है जो किसी से लड़ाई-झगड़ा या गाली-गलौज नहीं करता! मेरी तारीफ सुन जहाँ माँ को बड़ा गर्व हो रहा था वहीं मेरे गाल और भी लाल हो रहे थे| जब कुछ औरतें इधर-उधर हुईं तो मैं माँ के पास चला गया, माँ को लगा की मैं दूध पीने आया हूँ तो उन्होंने मुझे कमरे में दूध पिलाना शुरू कर दिया| वहाँ मौजूद जिस किसी ने भी ये देखा वो हैरान था क्योंकि गाँव में बच्चे माँ का दूध ज्यादा दूध नहीं पीते थे| बुआ ने फिर से माँ को टोका तो बड़की अम्मा बीच में बोल पड़ीं; "दीदी रहय दिओ! बच्चा है, धीरे-धीरे सीख जाई!" और बुआ को अपने साथ ले गईं, मैं मन ही मन सोच रहा था की दूध मैं अपनी माँ का पी रहा हूँ और मिर्ची इन्हें लग रही है?! पर सब औरतों को बात करने के लिए एक नया विषय मिल गया था तो सबने अपने-अपने नुस्खे बताने शुरू कर दिए| कोई कहता की माँ अपने स्तन पर मिर्ची लगा ले तो कोई कहता की गोबर लगा लें| माँ ने कहा भी की ये एक ऐसी जिद्द है जो इसने अभी तक नहीं छोड़ी है, पिताजी ने कितनी बार डाँटा पर मैं नहीं माना और खूब रोने लगता तो हार कर उन्हें दूध पिलाना पड़ता है| भाभी आंगन में बैठी ये सब सुन रही थी और घूँघट के अंदर से मुस्कुराये जा रही थी| खेर भाभी के सामने अपनी बेइज्जती करवा कर मैं बाहर भाग आया और खेलने लगा| वो पूरा दिन मैं भाभी के आस-पास भी नहीं भटका, बस अपने मौसा, मामा या बुआ के बच्चों संग खेलता रहा| मौसा और मामा सब बड़की अम्मा की तरफ के थे पर मुझसे बिलकुल वैसे ही प्यार करते थे जैसा वो बड़की अम्मा के बच्चों से करते थे| इधर चन्दर भैया अपनी सुहागरात के लिए मरे जा रहे थे, दिन भर वो अपने दोस्तों के साथ खेतों में पेड़ के नीचे चारपाई डाल कर बैठे थे| वहाँ उनकी अपनी ही अलग महफ़िल सजी हुई थी जिससे मुझे दूर रखा गया था| गाँव में एक कमरे और आँगन के साथ हमारा पुराण घर था, जिसे अब चन्दर भय का निजी घर बना दिया गया था| भाभी को वहीं बिठाया गया था और उनके पास आस-पड़ोस की भाभियाँ बैठी थीं| खेर रात हुई और खाना खाने के बाद चन्दर भैया उस घर में घुसे और दरवाजा बंद हुआ| बाकी सब तो प्रमुख आँगन में फैले पड़े थे और औरतें बड़े घर में सोइ थीं|





अगली सुबह हुई, मेरे लिए तो ये एक आम सुबह थी पर भाभी और मेरे रिश्ते की शुरुआत आज ही के दिन से हुई थी| मैं आज कुछ ज्यादा लेट उठा था, उठते ही मैं नहाया-धोया और प्रमुख आंगन में चारपाई पर बैठ गया| कुछ देर बाद भाभी ने खाना बनाया और सब आदमियों और बच्चों ने बैठ कर खाया, सब ने भाभी को पहली रसोई के लिए बहुत आशीर्वाद दिए! शाम होने तक सब अपने-अपने घर को जा चुके थे और अब घर में केवल माँ-पिताजी, बड़के दादा-बड़की अम्मा, चन्दर भैया, अशोक भैया, अजय भैया, अनिल भैया, गट्टू, मैं और भाभी ही रह गए थे| रात के भोजन के समय मैं रसोई के पास छप्पर के नीचे चुप चाप बैठा था| भाभी ने मेरी तरफ घूँघट किये हुए देखा और मुझे इशारे से अपने पास बुलाया| मैं मुस्कुराता हुआ उठा और भाभी के सामने जा कर शर्म से सर झुका बैठ गया| मुझे देखते ही भाभी की हँसी छूट गई और आज मुझे घूँघट के भीतर से भाभी के गुलाबी होंठ और मोती से सफ़ेद दांतों का दीदार हुआ| "तुम्हारा नाम क्या है?" भाभी ने धीरे से पुछा| उनकी मिश्री सी मीठी आवाज सुन मैं कुछ पल के लिए खामोश हो गया और फिर अनायास ही मुँह से निकला; "मानु"| भाभी को मेरा नाम बहुत पसंद आया जो उनकी मुस्कराहट से पता चल रहा था| "तुम शहर में पढ़ते हो?" भाभी ने पुछा तो मैंने बस हाँ में गर्दन हिलाई| "कौन सी क्लास में हो?" भाभी ने अपनी मधुर आवाज में पुछा और जवाब में मैंने; "फर्स्ट क्लास में" कहा| इतने में माँ आ गई और भाभी से बोली; "दुल्हिन देवर से बतुआत हो?" ये सुन भाभी बोलीं; "चाची ये कछु बोलते नहीं!" ये सुन माँ मुस्कुराने लगी और बोलीं; "तोह से सरमात है!" इसके आगे भाभी कुछ बोलती मैं उठ कर भाग गया| आज भाभी की बात सुन कर दिल में अजीब सी गुदगुदी हुई थी, ऐसी गुदगुदी मुझे पहले कभी नहीं हुई थी|



फिर रात हुई और खाना खाने के बाद सब अपनी-अपनी जगह लेट गए, चन्दर भैया और भाभी अपने घर में थे की तभी कुछ ही देर में मुझे लड़ाई-झगड़े की आवाज सुनाई दी| घर के सारे लोग उठ गए थे और मैं भी, चीखने की आवाज सिर्फ चन्दर भैया की थी और वो भाभी को गन्दी-गन्दी गालियाँ दे रहे थे| बड़की अम्मा अंदर पहुँची और चन्दर भैया को बाहर ले आईं, बड़के दादा और पिताजी ने बहुत पुछा की क्या हुआ पर भैया ने कुछ नहीं बताया| मेरे कदम अनायास ही मुझे भाभी के घर की तरफ ले जा रहे थे की तभी माँ बीच में आ गई और मुझे पिताजी के पास जाने को बोला|मैं चुप-चाप पिताजी के पास खड़ा हो गया तो उन्होंने मुझे गट्टू के साथ दूर जाने को कहा क्योंकि वहाँ होने वाली बात सुनने के लिए मैं परिपक्व नहीं हुआ था| धीरे-धीरे बात सुलझी और चन्दर भैया रात को बाहर सोये और सुबह होते ही मामा के घर निकल गए| इधर मैं सुबह आँख मलता हुआ उठा और माँ-पिताजी के पाँव छू कर दैनिक कार्यों से निपटा और रसोई में आया| भाभी वहाँ चाय बना रही थी, उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे चाय दी और फिर बड़की अम्मा के पास चली गईं| मैं चाय पी कर बासी खा कर गट्टू के साथ गाय चराने निकल गया|



हमारे गाँव में सुबह नाश्ता बनाना का रिवाज नहीं है, बल्कि रात का बासी खाना ही नाश्ते के रूप में खाया जाता है| ये बासी सभी नहीं खाते, केवल छोटे बच्चे ही खाते हैं| बड़े लोग चाय पी कर, या कभी दही-चिवड़ा खा कर ही खेतों पर काम करने चले जाते हैं| छोटे बच्चे खेतों में काम नहीं करते, बल्कि वो गाय-भैंस चराने जाते थे, मैं भी सभी बच्चों के साथ गाय चराने चला जाता था| गाय बेचारी चरती रहती और हम सारे गिल्ली-डंडा या क्रिकेट खेलते रहते| दोपहर को जब मैं गाय चरा कर आया तो खाना खाने के बाद भाभी ने मुझे आवाज दे कर अपने पास बुलाया| मैं और भाभी पुराने घर के आंगन में बैठे थे, भाभी ने अब भी घूँघट कर रखा था और मैं उनके सामने सर झुका कर बैठा था|



भाभी: मानु आप मुझसे बात क्यों नहीं करते? क्या मैं तुम्हें पसंद नहीं?



मैं: नहीं...ऐसा तो कुछ नहीं!



भाभी: फिर?



मैं: वो....वो मुझे ....शर्म....आती है!



भाभी: अरे मुझसे कैसा शर्माना?



मैं: हम्म्म्म....



भाभी: तुमने तो अभी तक मेरा नाम तक नहीं पुछा?



मैं: मुझे पता है|



मैंने पूरे आत्मविश्वास से कहा|



भाभी: अच्छा? क्या नाम है मेरा?



मैं: भौजी !!!



मैंने गर्दन उठा कर भाभी की तरफ देखते हुए कहा| मेरे मुँह से भौजी सुन कर भाभी एक दम से खामोश हो गईं| दरअसल मैं उस वक़्त इतना सीधा था की मुझे माँ-पिताजी जो रिश्ता बता देते मेरे लिए वही नाम हो जाता था| अगर पिताजी ने कहा की ये तुम्हारे भैया हैं तो मैं उनसे उस व्यक्ति का नाम तक नहीं पूछता था और उस व्यक्ति को बस भैया कह कर सम्बोधित करता था| इसीलिए जब बड़की अम्मा ने मुझे कहा की ये तेरी भौजी हैं तो मेरे मन में बस वही नाम बस गया|



भाभी: ये मेरा नाम थोड़े ही है? ........ पर आज से तुम मुझे यही कह कर बुलाना|



मुझे ये सुन कर थोड़ा अजीब लगा क्योंकि मेरे आलावा बाकी सब भैया भी भाभी को भौजी ही कहते थे!



मैं: आपको तो अशोक भैया, अजय भैया और गट्टू भैया भी आपको भौजी ही कहते हैं, तो .....



मेरे आगे कुछ कहने से पहले ही भाभी बोल पड़ीं;



भौजी: तुम्हारी बात अलग है, तुम्हारे मुँह से भौजी शब्द बड़ा मीठा लगता है!



मैंने भाभी की बात निर्विरोध मान ली, ये सोच कर की शायद मैं दिल्ली से आया हूँ और मेरे मुँह से भौजी सुनने में उन्हें अच्छा लगता है| खेर भाभी ....मतलब भौजी ने मुझे अपना असली नाम नहीं बताया और न ही मैंने उनसे उनका नाम पुछा| मैंने उस दिन से उन्हें भौजी बुलाना शुरू कर दिया|





मैं: भौजी..... ये....घूँघट.....जर्रूरी है?



भौजी: ये लाज के लिए है, अपने से बड़ों का मान रखने के लिए|



मैं: पर मैं तो आपसे छोटा हूँ? मेरे से भी आपको लाज़ आती है?



मैंने उत्सुकतावश सवाल पुछा पर भौजी को लगा की मैं उनका चेहरा देखना चाहता हूँ|



भौजी: मेरे छोटे देवर को मेरा चेहरा देखना है?



मैं: वो....मैं....



ये सुन कर मेरे मुँह से शब्द नहीं फुट रहे थे और भाभी को इसमें बड़ा मजा आ रहा था इसलिए वो हँसने लगीं| भाभी को हँसता हुआ देख मेरा सर फिर शर्म से झुक गया| भाभी ने मेरी ठुड्डी पकड़ कर ऊपर उठाई और मेरी नजरें उनके घूँघट पर टिक गईं, भाभी ने अपना घूँघट उठाया और तब मुझे उनके हुस्न का दीदार हुआ| माँग में लाल सिन्दूर, आँखों में काजल, नाक में नथनी, गुलाबी होंठ ये देख कर दिल में अचानक ही हलचल पैदा हो गई| मुँह सूखने लगा और जुबान जैसे पत्थर की बन गई, आँखों को मिलने वाला ये सुख इतना अद्भुत था की उसे बताने के लिए शब्द नहीं! उस समय मैं नहीं जानता था की प्रेम क्या होता है? अगर जानता होता तो कह देता की भौजी मुझे आपसे पहली नजर में प्रेम हो गया है!



जब मैं बिना कुछ बोले भाभी को इस कदर देखने लगा तो भाभी से ये ख़ामोशी बर्दाश्त नहीं हुई और वो बोल पड़ीं;



भौजी: ऐसे क्या देख रहे हो?



मेरे पास उनकी बात का कोई जवाब नहीं था, इसलिए मैंने शर्म से फिर अपना सर झुका लिया| पर भाभी को मेरे मुँह से जवाब सुन्ना था;



भौजी: बोलो ना? क्या देख रहे थे?



मैं: वो....आप.....



मैं सर झुकाये हुए ही बोला, पर भाभी को जवाब चाहिए था सो उन्होंने मेरी ठुड्डी पकड़ कर ऊपर की और बोलीं;



भौजी: मेरी आँखों में देखो और कहो?



मैं: आप....बहुत सुन्दर हो!



इतना कह कर मेरे गाल और कान शर्म से सुर्ख लाल हो गए और मैने गर्दन फिर से झुका ली|



भौजी: सच?



मैंने सर झुकाये हुए ही हाँ कहा|



भौजी: तो मुझे मुँह दिखाई में क्या दोगे?



भौजी ने अचानक से कहा और मैं सोच में पड़ गया की मैं उन्हें क्या दूँ? मेरे पास तो कुछ था नहीं? बड़ी हिम्मत कर के मैंने उनकी तरफ देखा और कहा;



मैं: भौजी....मेरे पास तो कुछ नहीं! मैं माँ से ले आऊँ?



इतना कह कर मैं उठने लगा तो भाभी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मुझे जाने से रोक दिया|भौजी: पहले सुन तो लो की मुझे चाहिए क्या?



भौजी ने हँसते हुए कहा|



“मुझे तुम्हारी एक पप्पी चाहिए|” ये सुन कर मेरे कान एक बार फिर लाल हो गए पर दिल ने कहा की एक पप्पी ही तो है, इसलिए मैंने हाँ में सर हिला दिया| भौजी ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे धीरे से अपने पास खींचा, फिर अपने बाएँ हाथ को मेरे सर के पीछे रखा और दाएँ हाथ से मेरी ठुड्डी पकड़ कर मुझे अपने होठों के नजदीक लाईं| भौजी ने अपना मुँह थोड़ा खोला और मेरे दाएँ गाल को अपने मुँह में भर कर थोड़ा चूसा और फिर धीरे से काट लिया| जैसे ही भाभी ने मेरे गालों को छुआ मेरी आँखें बंद हो गईं, मेरे पूरे जिस्म में जैसे आतिशबाजी शुरू हो गई और पेट में तितलियाँ उड़ने लगी| कुछ सेकण्ड्स बाद उन्होंने मेरे गाल को अपने होटों की गिरफ्त से छोड़ दिया, पर इस एहसास ने मेरे शरीर में क्रान्ति छेड़ दी! जिंदगी में पहले बार किसी ने मुझे इस तरह से चूमा था|



“तुम्हें दर्द तो नहीं हुआ?” भौजी ने चिंता जताते हुए पुछा, तो मैंने मुस्कुराते हुए ना में गर्दन हिला दी| भाभी ने अपने दाएँ हाथ से मेरे गाल पर लगे उनके रस को साफ़ कर दिया और मुस्कुराने लगी| पर मेरे मन में अब लालच जाग गया था, मुझे मेरे दूसरे गाल पर भी भाभी के होठों की छाप चाहिए थी पर कहूँ कैसे? जब कुछ नहीं सूझा तो मैं एक दम से भाभी की गोद में सर रख कर लेट गया| पर भाभी मेरी हरकत नहीं समझी, या फिर वो मुझे और तड़पाना चाहती थीं| उन्होंने मेरे बालों में ऊँगली फेरना शुरू कर दिया, पहले तो मन किया की उन्हें बोल दूँ पर फिर हिम्मत नहीं हुई की कुछ कह सकूँ| इसलिए मैं आँख बंद किये हुए लेटा रहा और कुछ ही देर में मेरी आँख लग गई| शाम को 4 बजे गट्टू मुझे बुलाने आया तो भौजी ने उसे इशारे से मना कर दिया और वो अकेला ही गाय चराने निकल गया| 5 बजे चाय बानी और तब मैं आँख मलता हुआ बाहर आया, जब मैंने देखा की गाय नहीं बंधी है तो मैं समझ गया की गट्टू गाय चराने जा चूका है| अब मैं कहाँ जाता इसलिए मैं कुएँ के पास बैठ गया और ढलते हुए सूरज को देखने लगा| कुछ देर बाद भौजी मेरी चाय ले कर आईं; "मानु....चाय पी लो!" भौजी ने मुझे चाय दी और फिर मेरे ही पास बैठ गईं| भाभी को देखते ही मुझे दोपहर का समय याद आ गया और मन में फुलझड़ी छूटने लगी, तभी एक सवाल टूट-फूट के बाहर आया;



मैं: भौजी.....वो ...दोपहर में......वो क्या था?



भौजी: वो ना....एक रस्म होती है! गाल काटने की!



भाभी ने हँसते हुए कहा|



मैं: तो आपने गट्टू को भी.....



मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाभी बोल पड़ीं;



भौजी: नहीं...वो सिर्फ....सबसे छोटे देवर के लिए होती है!



भौजी की बात सुन कर मुझे मेरे सबसे छोटे होने पर गर्व होने लगा" मतलब ये ख़ास सुख सिर्फ और सिर्फ मुझे मिलेगा! कुछ देर बाद बड़के दादा और पिताजी खेतों की तरफ से आते हुए दिखाई दिए तो भौजी उठ कर चली गईं| मुझे कुएँ के पास बैठा देख पिताजी ने मुझे डाँट दिया; "तुझे बैठने को कोई और जगह नहीं मिली?" मैं सर झुका कर उठा और रसोई के पास छप्पर के नीचे बैठ गया| कुछ देर बाद गट्टू भैया गाय ले कर आ गए और गाय को पानी पिलाने के बाद मेरे पास बैठ गए| "मुझे साथ क्यों नहीं ले गए?" मैंने थोड़ा गुस्से से पुछा तो वो हैरान होते हुए बोले; "तू सोवत रहेओ!" और भाभी की तरफ इशारा किया| मैं समझ गया की भौजी ने जानबूझ कर मुझे नहीं उठाया था| मैं उस समय चुप रहा और रात को जब भौजी मसाला पीस रही थी तब मैंने भौजी से पुछा;



मैं: भौजी ... गट्टू भैया जब मुझे उठाने आये थे तो आपने मुझे उठाया क्यों नहीं?



भौजी: क्यों? शहर से तुम यहाँ गाय चराने आये हो? या फिर दिल्ली जा कर गाय खरीदनी है? मैं अभी नई-नई आई हूँ, मेरे से कोई बात करने वाला भी नहीं, खाली बैठे-बैठे ऊब जाती हूँ| मैंने सोचा की तुम मेरे पास बैठोगे कुछ बात करोगे, पर तुम्हें तो गाय चरानी है, ठीक है जाओ कल से नहीं रोकूँगी!



भौजी ने ये बात बड़े हक़ से बोली थी, ऐसा नहीं था की घर में कोई उनसे बात करने वाला नहीं था बल्कि वो खुद हमेशा मा या बड़की अम्मा के पास बैठी रहती थीं, ये बात उन्होंने सिर्फ और सिर्फ मुझे सुनाने के लिए कही थी! मैं इन सब बातों से अनजान था और भाभी की बात मुझे सच्ची लगी| इसलिए जब वो नीचे बैठ कर मसाला पीस रही थीं तो मैं पीछे से जाकर उन पर अपना बोझ डाले झुक गया और अपने हाथों को उनकी गर्दन के आगे कस लिया; "माफ़ कर दो भौजी! अब से मैं सिर्फ और सिर्फ आपके साथ रहूँगा, आपके साथ खाऊँगा, आपके साथ पीयूँगा और आप ही के साथ सोऊँगा|" मैंने एक बच्चे की भाँती ये सब बोला और भाभी मेरा बचपना देख हँस पड़ी|





रात का खाना बना और भाभी ने मुझे भी सब के साथ खाना परोस दिया; "भौजी मैं आपके साथ खाऊँगा!" मैंने बड़े भोलेपन से कहा तो भौजी बड़की अम्मा को देखने लगीं| "ठीक है मुन्ना!" अम्मा ने मुस्कुराते हुए कहा| पर भौजी, मा और बड़की अम्मा को सबसे अंत में खाना था क्योंकि ये ही हमारे गाँव की रीत थी| मैंने बड़े इत्मीनान से सबके खाने का इंतजार किया और अंत में भौजी ने पहले बड़की अम्मा उसके बाद माँ को खाना परोस कर अपना और मेरा खाना एक थाली में लिए हुए मेरे पास बैठ गईं| भौजी के चेहरे पर एक मुस्कराहट थी और वही मुस्कराहट मेरे चेहरे पर भी थी| हम दोनों चुप-छाप खाना खा रहे थे और बीच-बीच में एक दूसरे को देख मुस्कुरा भी रहे थे| तभी भौजी ने मुझे खिलाने के लिए एक कौर मेरी तरफ बढ़ाया| मैंने बिना कुछ सोचे वो कौर खा लिया, भौजी 2 सेकंड के लिए मुझे देखती रही| पर मेरी नजर उन पर नहीं थी, भौजी ने एक और कौर मुझे खिलाया और मैंने वो भी खा लिया पर इस बार जब मैंने भौजी की तरफ देखा तो उनके चेहरे पर मुझे संतोष नजर आया| ये कैसा संतोष था ये मैं समझ नहीं पाया, पर अब मेरे मन में भी विचार आया की मैं भौजी को एक कौर खिलाऊँ| मैंने अगला कौर उन्हें खिलाया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए खा लिया| बड़की अम्मा की नजर मेरे ऊपर पड़ी तो वो मुस्कुराते हुए बोलीं; "लागत है मानु का नई दुल्हिन भा गई!" ये सुन कर मेरे गाल शर्म से लाल हो गए और माँ, बड़की अम्मा और भौजी हँस पड़े| खाना खाने के बाद सोने की बारी आई, अब मेरा मन भौजी के साथ लग गया था और मुझे अब उनके साथ सोना था| पर ये बड़ी टेढ़ी खीर साबित हुआ क्योंकि चन्दर भैया की गैरमौजूदगी में बड़की अम्मा ने भौजी को अपने और माँ के साथ रसोई के पास छापर के नीचे सोने को कहा| मैंने सोचा की कोई बात नहीं, कल दिन भर तो मुझे भौजी के साथ ही रहना है, ये सोचते हुए मैं सो गया|



अगली सुबह हुई और आज मुझे भौजी ने खुद उठाया, मैं आँख मलते हुए उठा और उनका चेहरा देखा पर आज उनके चेहरे पर एक बेचैनी थी| दरअसल चन्दर भैया सुबह ही आ धमके थे, मैं उनसे कुछ पूछ पाता उससे पहले ही भौजी ने मुझे जल्दी से तैयार हो कर आने को कहा| मैं जल्दी से तैयार हो कर आया और भौजी के पास रसोई में घुस गया वो भी चप्पल पहने, भौजी ने मुझे जल्दी से चप्पल दूर उतार आने को कहा| हमारे गाँव में रसोई में बिना नहाये-धोये जाने नहीं दिया जाता, गलती से कोई अगर चप्पल पहन कर रसोई में घुस जाए तो उसे बड़ी डाँट पड़ती है और किसी ने अगर खाना बनाने वाले को बिना नहाये-धोये छू लिया तो वो रसोई घर के बड़े नहीं छूते| जब तक पूरी रसोई गोबर से नहीं लीपी जाती तब तक उसका बना खाना नहीं खाया जाता| माँ ने मुझे चप्पल पहने अंदर जाते देख लिया था इसलिए उन्होंने मुझे बड़ी जोर से डाँटा, तभी अम्मा वहाँ आ गईं और उन्होंने माँ से कहा; "अरे मुन्ना है...छोट है...!" बड़की अम्मा ने मेरा बचाव किया और फिर मुझे अच्छे से समझाया; "मुन्ना ई चूल्हा पूजा जात है, हियाँ बिना नहाये-धोये नहीं आवा जात है! तोहार भौजाई खाना बनात है और अइसे में तू अगर ऊ का छू लिहो तो फिर ई खाना कोई न खाई!" बड़की अम्मा की बात बड़ी सीधी थी तो और मेरे पल्ले पड़ गई, इसलिए मैंने हाँ में सर हिलाया और कान पकड़ कर उनसे माफ़ी माँगी| उस दिन के बाद मैं कभी भी रसोई में चप्पल पहन कर या बिना नहाये धोये नहीं घुसा| अब डाँट पड़ी थी इसलिए मैं सर झुकाये रसोई के बाहर बैठ गया|



भौजी: क्या हुआ मानु? तुम्हें पता नहीं था की रसोई में चप्पल पहन कर नहीं आते?



मैं: आज तक मुझे कभी रसोई में आने की जर्रूरत ही नहीं पड़ी|



भौजी ये सुन कर मुस्कुराने लगी, दोपहर का खाना बना और भौजी ने जानबूझ कर मुझे खाना नहीं परोसा| सब के खाने के बाद मैं और भौजी साथ खाने बैठे और कल रात की ही तरह भौजी ने मुझे खाना अपने हाथ से खिलाया| मैंने भी उन्हें खिलाना चाहा पर उन्होंने बस 1-2 कौर ही खाये| खाने के बाद गट्टू भैया भौजी से बात आकर रहे थे| उस समय मैंने एक बात गौर की, वो ये की भौजी गट्टू से देहाती भाषा में बात की जबकि मेरे से तो वो हिंदी में बात करती थीं?! जब गट्टू भैया चले गए तब मैंने उनसे ये सवाल पुछा;



मैं: भौजी ... आप बाकी सब के साथ तो देहाती भाषा में बात करते हो और मेरे साथ हिंदी में ऐसा क्यों?



भौजी: क्योंकि तुम्हें हिंदी अच्छे से समझ आती है|



भौजी की बात बड़ी साफ़ थी पर मेरा दिल कह रहा था की भौजी का रवैय्या मेरे प्रति कुछ अलग है| मुझसे वो बाकियों के मुक़ाबले बड़े अच्छे से बात करतीं थीं और ये मुझे ख़ास बनाता था|



जारी रहेगा भाग 2 में...
 
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तृतीय अध्याय : प्रथम मिलान
भाग - 2


मैं और भौजी उनके घर के आंगन में बैठे थे और बातें कर रहे थे की मुझे कल भौजी द्वारा किये उस चुंबन की याद आई, अब खुल कर कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी तो मैंने बात घुमा कर कहने की सोची; "भौजी मुझे नींद आ रही है, आप सुला दो ना!" ये कह कर मैं उनकी गोद में सर रख कर लेट गया और उम्मीद करने लगा की कम से कम इस बार वो मेरी बात समझ जाएँ| मैंने फ़ौरन अपनी आँखें मूँद ली और तभी मुझे भौजी गर्म साँस मेरे चेहरे पर महसूस हुई! भौजी ने मेरे चेहरे को बायीँ तरफ घुमाया और अपने गुलाबी होंठ मेरे दाएँ गाल पर रख दिए| पहले उन्हें मुझे केवल चूमा और इतने से ही मेरे जिस्म में हलचल शुरू हो गई थी| फिर भौजी ने धीरे से मेरे दाएँ गाल को अपने मुँह में भरा और उसे चूसा मानो जैसे कोई टॉफ़ी चूस रही हूँ और अंत में 'कच' से काट लिया| "सससस'....आह!" मेरे मुँह से दर्द भरी सीत्कार निकली जिसे सुन भौजी को एहसास हुआ की मुझे दर्द हुआ है और उन्होंने तुरंत मेरा गाल छोड़ दिया और उस पर से अपने रस को साफ़ किया और उसे धीरे-धीरे सहलाने लगी| मानो उन्हें दुख हो रहा हो की उन्होंने मुझे दर्द दिया है, पर ये दर्द तो दिल को मिलने वाले सूख के आगे कुछ नहीं था| कुछ ही सेकंड में मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गई जिसे देख भौजी को तसल्ली हुई की मैं रोने वाला नहीं हूँ! अब शरारत कहो या मस्ती पर मैंने अपना बायाँ गाल भौजी को दिखा दिया जो ये दर्शा रहा था की मुझे इस गाल पर भी पप्पी चाहिए! मेरा बचपना देख भौजी हँस पड़ी और उन्होंने ठीक पहले की तरह मेरे बाएँ गाल को पहले चूमा, फिर चूसा और अंत में धीरे से काट लिया! इतने भर से मेरे जिस्म में तरंगें छूटने लगी थीं और मैं आँखें मूंदे इस सुख के सागर में गोते लगाने लगा था| गोते लगते-लगाते मैं नींद के आगोश में चला गया और फिर आँख सीधा शाम को 5 बजे खुली| मैं बाहर उठ कर आया तो देखा भौजी चाय बना रही है, मैं उन्ही के सामने बैठ गया और मुस्कुराते हुए उन्हें देखने लगा| भौजी मेरी मुस्कराहट का कारन जानती थी और वो भी मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं| वो पूरी शाम और रात मैं भौजी के साथ रहा और अब समय था सोने का और मेरा मन भौजी के साथ सोने का था| "भौजी आज रात मैं आपके पास सो जाऊँ?" बड़े भोलेपन से कहा और भौजी ने हाँ में गर्दन हिलाई| मैं सीधा माँ के पास दौड़ा और उन्हें बता कर भौजी के पास सोने उनके घर में आया पर वो वहाँ नहीं थी| मैं बाहर आ कर उन्हें ढूँढने लगा की तभी भौजी मुझे बड़े घर की तरफ से आती हुई नजर आईं| उन्होंने बताया की आज सब छत पर सोयेंगे और वो मुझे ही लेने आई थीं| मैं भौजी के साथ छत पर आया, वहाँ जमीन पर सबका बिस्तर लगा हुआ था| मैं अपने सोने की जगह तय करने में लगा था की तभी वहाँ माँ और बड़की अम्मा आ गए| "तू यहाँ क्या कर रहा है?" माँ ने पुछा तो मैंने बड़े भोलेपन से जवाब दिया; "मैं आज यहीं सोऊँगा!"

बड़की अम्मा और माँ दोनों बिस्तर के एक-एक किनारे पर लेट गईं और बीच में बची जगह पर हमें सोना था| मैं माँ की तरफ लेटा और भौजी बड़की अम्मा की तरफ, अब उनकी मौजूदगी में तो कुछ होने से रहा इसलिए मैं सीधा लेटा रहा| भौजी ने मेरी तरफ करवट ली और उनके चेहरे पर आई मुस्कान ये दर्शा रही थी की उन्हें मेरी हालत देख कर कितना मजा आ रहा है| उन्होंने अपना दाहिना हाथ मेरी छाती पर रख दिया और अपनी आँखें बंद कर ली| मैं भी सोने लगा पर चूँकि दिन में सो चूका था इसलिए नींद जल्दी आने वाली तो थी नहीं| मैंने लेटे-लेटे अपने और भौजी के बारे में सोचने लगा, इन कुछ ही दिनों में मैं और भौजी अच्छे दोस्त बन गए थे| उनके होते हुए मुझे अब किसी दोस्त की कमी नहीं होती थी, फिर उनका मुझे इस कदर प्यार से चूमना ये सब मेरे लिए सब कुछ था| तभी भौजी ने अम्मा की तरफ करवट ली और उनका हाथ हट जाने से मुझे उनकी कमी महसूस हुई| मैंने तुरंत उनकी तरफ करवट की और अपना हाथ उनकी गोरी-गोरी कमर पर रख दिया| मेरा स्पर्श पाते ही वो थोड़ा सिहर गईं और मेरी तरफ मुँह कर के देखने लगीं| मेरी आँखें उस वक़्त खुली थी तो जैसे ही उन्होंने मुझे देखा मैं मुस्कुरा दिया| भौजी ने वापस अम्मा की तरफ करवट ली और मेरा बायाँ हाथ जो उनकी कमर पर था उसे पकड़ कर अपनी छाती पर रख लिया| मुझे नहीं पता था की मेरा हाथ कहाँ पर है, मुझे तो अब नींद आने लगी थी इसलिए मैं सो गया|सुबह हुई और मैं जब उठा तो देखा की मैं अकेला ही छत पर सो रहा हूँ, मैं उठ कर नीचे आया और चाय पीने रसोई आया पर वहाँ चाय खत्म हो गई थी| सुबह-सुबह मामा-मामी आये थे और तब से वहाँ किसी बात पर बातचीत हो रही थी| मैं भौजी को ढूंढता हुआ उनके घर में आया तो वहाँ माँ, मामी, बड़की अम्मा और भौजी बैठे थे और बात कर रहे थे| मुझे देखते ही वो चुप हो गये और मामी जी उठ कर बाहर चली गईं| मैं जा कर माँ की गोद में बैठ गया और उनसे कहा की मुझे भूख लगी है| माँ ने मुझे दूध पिलाना शुरू कर दिया, पर पता नहीं क्यों भौजी मुझे हैरानी से देखने लगी| शाम तक मामा-मामी चले गए थे और मैं फिर से भौजी के पास बैठ गया था| भौजी उस वक़्त खाना बना रही थीं, और मुझे वहाँ बैठा देख उनके चेहरे पर फिर से मुस्कराहट आ गई|

भौजी: मानु तुम अब भी दूध पीते हो?

मैं: हाँ...क्यों?

भौजी: अब तुम बड़े हो गए हो!

मैं: भौजी मन करता है दूध पीने का, अब आप भी बाकियों की तरह मुझे सुनना शुरू मत कर देना|

मैंने नाराज होते हुए कहा, अब भौजी भला अपने प्यारे देवर को नाराज कैसे करतीं!

भौजी: अच्छा मेरा दूध पियोगे?

भौजी की बात सुनते ही मेरी आँखों में चमक आ गई| मैंने फ़ौरन हाँ में गर्दन हिलाई और ये देख भौजी के चेहरे पर मुस्कान आ गई| उन्होंने मुझे हाथ-मुँह धो के आने को कहा, मैं फ़ौरन हाथ-मुँह साबुन से रगड़-रगड़ कर धो आया| भौजी चूल्हे से थोड़ी दूरी पर बैठ गईं और मुझे उनकी गोद में बैठने को कहा| मैं उनकी गोद में बैठ गया पर पता नहीं क्यों मेरा दिल आज बड़ी जोर से धड़कने लगा था| मन में गलत विचार नहीं था बस एक ललक थी की आज मुझे भौजी का दूध पीने को मिलेगा| देखते ही देखते भौजी ने अपना ब्लाउज के दायें तरफ का एक बटन खोला और अपना दायाँ चुचुक मेरे होठों के सामने कर दिया| मेरे होंठ स्वतः ही खुले और मैंने भौजी के दायें चुचुक को मुँह में भर लिया और उसे चूसने लगा| मेरी दिल की धड़कन अब शांत हो गई थी, पर भौजी के दिल की धड़कन अचानक ही बढ़ गई थी| उनके मुँह से एक मादक सिसकारी निकली; "ससससस" और भौजी ने मेरे बालों में हाथ फेरना शुरू कर लिया| मैंने बड़ी कोशिश की पर इतना चूसने के बाद भी भौजी के चुचुक से दूध नहीं निकला, अब मुझे ये बिलकुल समझ नहीं आया की भला ऐसा क्यों हुआ? माँ को तो दूध आता है, फिर भौजी को क्यों नहीं आता? मेरे दिमाग में बस यही सवाल गूँज रहा था, मैंने भौजी का चुचुक अपने मुँह से निकाल दिया और तभी बड़की अम्मा और माँ आ गए| मुझे भौजी की गोद में देख कर वो समझ गए की मैं दूध पी रहा हूँ, ये देख माँ और बड़की अम्मा हँसने लगे| उनकी हँसी सुन मैं भौजी की गोद से उतरने को छटपटाने लगा, भौजी ने मुझे अपनी गोद से जाने दिया पर बड़की अम्मा ने मुझे पकड़ कर अपने पास बिठा लिया| "मुन्ना अपनी भौजी का दूध पीत रहेओ? " बड़की अम्मा बोलीं| पर मेरे कुछ कहने से पहले ही भौजी बोल पड़ीं; "हाँ अम्मा, कहे लागे की भौजी हमका दूध पिलाओ!" भौजी ने बड़ी चालाकी से साड़ी बात मेरे ऊपर डाल दी| अब मैं भौजी को झूठा नहीं बनाना चाहता था इसलिए मैंने सर झुका लिया और उनकी बात का मान रखा| भौजी की बात सुन माँ और बड़की अम्मा हँस पड़े और मैं सर झुकाये सोच रहा था की दूध पिया ही नहीं फिर भी मज़ाक बन गया| इधर बड़की अम्मा की हँसी सुन पिताजी और बड़के दादा भी आ गए और उनके आते ही भौजी ने तुरंत घूँघट कर लिया और खाना बनाने लगी| माँ ने उन्हें सारी बात बताई तो वो भी मेरे इस भोलेपन पर हँस पड़े| मैं चुप-चाप सर झुकाये खड़ा रहा और सबकी हँसी सुनता रहा|



रात को जब मैं और भौजी खाने बैठे तब मैंने उनसे अपने मन में गूँज रहे सवाल का जवाब माँगा;

मैं: भौजी माँ को तो दूध आता है पर आपको दूध क्यों नहीं आता?

मेरा सवाल सुन कर भौजी एक दम से खामोश हो गईं, कुछ देर पहले जो उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी वो अब गायब हो गई और वो बिना कुछ बोले खाना खाने लगी| खाना खा कर वो सीधा अपने घर में सोने चली गईं, मुझे लगने लगा की मैंने शायद उनके दिल को चोट पहुँचाई है इसलिए मैं उनके पीछे-पीछे पहुँच गया| भौजी अपने घर के आंगन में चारपाई पर बैठी थीं, मैं उनके सामने खड़ा हो गया| मैं जब भी कोई गलती करता था तो पिताजी मुझसे अक्सर कान पकड़ कर उठक-बैठक करवाते| यही सोच कर मैंने अपने कान पकडे और उनके सामने उठक-बैठक करने लगा| अभी बस तीन ही उठक-बैठक हुई होगी की भौजी ये देख मुस्कुरा दीं और अपनी बाहें खोल कर मुझे उनके गले लगने को कहा| मैं तुरंत जा कर भौजी के गले लग गया; "Sorry भौजी!" मैंने कहा पर तभी याद आया की भौजी को कहाँ अंग्रेजी आती होगी, इसलिए मैंने हिंदी में उनसे माफ़ी माँगी; "भौजी मुझे माफ़ कर दो!" ये सुन कर भौजी हँस पड़ी और उन्होंने मुझे माफ़ कर दिया पर मुझे अपनी नाराजगी का कोई कारन नहीं बताया| मेरे लिए उनकी माफ़ी ही काफी थी तो मैंने उनसे इस बारे में कुछ नहीं कहा| रात को मुझे उनके पास सोने का मौका नहीं मिला क्योंकि आज पिताजी ने मुझे अपने पास सोने को कहा था| पर आधी रात को फिर से लड़ाई-झगड़ा हुआ और इस बार भी मुझे भौजी के पास जाने नहीं दिया गया| जितने दिन हम गाँव में रहे ये लड़ाई-झगड़ा होता रहता, कभी दिन में तो कभी रात को| मुझे इससे दूर रखा जाता, मैंने एक आध बार माँ से पूछना भी चाहा तो माँ ने मुझे ये कह कर चुप करा दिया की ये बड़ों की बात है और मैं अभी बहुत छोटा हूँ| मुझ में हिम्मत नहीं होती थी की मैं भौजी से कुछ पूछ सकूँ, मैं तो बस अपने भोलेपन और प्यार से उन्हें हँसा दिया करता था| कभी-कभी जब भौजी खाना बना रही होती तो मैं चप्पल पहन कर उनसे जान बूझ कर उन्हें चिढ़ाता; "भौजी मैं आपको छू लूँ?" और ये सुन कर भौजी एकदम पीछे हट जातीं क्योंकि अगर मजाक-मजाक में मैं उन्हें छू लेटा तो मुझे बहुत डाँट पड़ती|

दिन इसी तरह प्यार-मोहब्बत से बीतने लगे थे और फिर हमारे दिल्ली वापस जाने का समय आया| जब भौजी को ये पता चला तो वो उदास हो गईं, मैं उनके पास आया और बड़े भोलेपन से कहा; "भौजी आप मेरे साथ दिल्ली चलो!" ये सुन कर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई और फिर मैंने उन्हें दिल्ली के बारे में, हमारे घर के बारे में, टी.वी के बारे में (गाँव में तो टी.वी. होता नहीं था!) सब बताना शुरू कर दिया| तभी वहाँ बड़की अम्मा आ गईं, भौजी ने बड़की अम्मा को उलहाना देते हुए कहा; "मैं चल तो लूँ तुम्हारे साथ पर बड़की अम्मा जाने नहीं देंगी!" बड़की अम्मा ये सुन कर मुस्कुरा दीं, पर मैं हार मानने वालों में से नहीं था इसलिए मैंने उनसे मिन्नतकी; "अम्मा जाने दो ना भौजी को मेरे साथ!"

"मुन्ना ..तू अगर आपन भौजी को ले जाबू तो हियाँ घर के संभाली?!" ये ऐसा सवाल था जिसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था, मैं उन्हें ये नहीं कह सकता था की आप संभाल लेना! वो हँसते हुए चली गईं पर मेरे दिमाग में आज खुराफात शुरू हो गई; "भौजी मैं आपको भगा कर ले जाऊँगा! जब हम निकलेंगे न तो आप ये वाली दिवार फांद कर मुझे सड़क पर मिलना और फिर आप, मैं, माँ-पिताजी सब शहर चले जायेंगे|" मेरी बात सुन भौजी हँस पड़ी, तभी माँ आ गईं और उन्होंने जब उनकी हँसी का कारन पुछा तो भौजी ने उन्हें सब बता दिया| ये सुन कर वो भी हँस पड़ीं और मेरी भोली बातों में आ गईं और मेरी ही तरफदारी करने लगी| उस समय मेरे छोटे से दिमाग ने भागने का मतलब दिल्ली दौड़ कर जाना निकाला था, भौजी को मेरे इसी अबोधपने से प्यार था!

खेर वो दिन आ ही गया जब हमें दिल्ली वापस जाना था, सारा समान रिक्शे पर रखा जा चूका था| मैं सबसे मिल लिया था बस एक भौजी ही रह गईं थीं, जैसे ही मैं उनके पास आया उन्होंने मुझे कस कर अपने गले लगा लिया| पर उनके दिल को इस आलिंगन से करार नहीं मिला था, उन्होंने मेरे पूरे चेहरे पर अपने चुम्मियों की झड़ी लगा दी| बड़ा संभाला पर आखिर मेरे आँसू निकल ही गए और मुझे रोता हुआ देख भौजी भी रो पड़ीं!

हमें रोता हुआ देख माँ आगे आईं; "बस बेटा, अगले साल फिर आना है!" माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा| ये सुन कर मेरा दिल तो मान गया पर भौजी का दिल अब भी नहीं मान रहा था| उन्होंने एक आखरी बार मुझे गले लगाया और फिर हम सब से विदा ले कर दिल्ली आ गए| दिल्ली आ कर मेरे सर पर गर्मियों की छुट्टियों का गृहकार्य का पहाड़ था इसलिए मैं उसे पूरा करने में लग गया| कुछ दिन लगे और मैं पढ़ाई में व्यस्त हो गया, पर मैं वो हसीन दीं नहीं भुला था| भौजी का वो हँसता हुआ चेहरा मेरे दिलों-दिमाग में बस गया था, रात को सोते समय उन्हें एक बार याद जर्रूर करता और उम्मीद करता ये समय जल्दी से बीते ताकि मैं उनसे फिर मिल पाऊँ|
 
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चौथा अध्याय : पुनः मिलन
भाग - 1

दिल्ली आये हुए कुछ महीने हुए थे की स्कूल की मध्यावधि परीक्षा (Mid-Term Exams) आ गए और मैं बस इस बार बड़ी मुश्किल से पास हुआ| पिताजी ने जब परिणाम देखा तो मुझे बहुत डाँटा और मेरा खेलना-कूदना बंद करवा दिया| उनका कहना था की गाँव में इतने दिन रहने से मैं बिगड़ गया हूँ| कुछ महीने बाद जब आखरी परीक्षा (Final Exams) हुई तो उसमें मैं ठीक-ठाक नम्बरों से पास हो गया| पिताजी की मुझसे हमेशा ही अपेक्षा रही की मैं कक्षा में प्रथम आऊँ, पर मैं इतना ज्यादा होशियार नहीं था| पढ़ाई में मैं बस एक औसत छात्र था और कोशिश करता रहता था की प्रथम आऊँ पर मेरी सारी कोशिशें कम पड़ती| मेरी माँ की सोच मेरे पिताजी से बिलकुल उलट थी, उनका कहना होता था की बेटा तू बस पास हो जा, तेरे पिताजी को मैं समझा दूँगी| तो मैंने माँ की बात को गाँठ बाँध ली और पढ़ाई में मन लगाने लगा| जब स्कूल का नया साल शुरू हुआ तो इस साल पिताजी ने मेरी टूशन लगा दी, उनके पास अब मुझे पढ़ाने का समय नहीं होता था| वैसे अब उनके पास मेरे लिए ही समय नहीं होता था, मेरी उनसे मुलाक़ात बस सुबह स्कूल जाने के समय होती थी|

उधर गाँव में भौजी की जिंदगी नर्क बनती जा रही थी| गौने को साल से ऊपर होने आया था पर अभी तक उन्हें गर्भ नहीं ठहरा था| उनके और चन्दर भैया के बीच झगडे अब भी चालु थे और चन्दर भय आये दिन मामा जी के घर भाग जाय करते थे| घर के बड़े-बूढ़ों ने भौजी को ताने देना शुरू कर दिया था, कोई कहता की उन्हें डॉक्टर के ले जाओ तो कोई कहता किसी ओझा-तांत्रिक के! पता नहीं क्या-क्या उपचार भौजी के ऊपर प्रयोग किये गए| इस सब से दुखी भौजी बस मेरे आने का इंतजार कर रही थीं क्योंकि एक मैं ही तो था जो उन्हें खुश रखा करता था!


इधर दिल्ली में, महीने निकले और गर्मियों की छुट्टियाँ आ गईं| साल भर बाद मैं भौजी से मिलूँगा ये सोच कर मन प्रफुल्लित हो रहा था, पर पिताजी ने मेरे ख़्वाबों पर पानी डाल दिया; "एक बहुत बड़ा ठेका मिला है तो इस साल हम कहीं नहीं जायेंगे!" पिताजी की बात सुन मैं मायूस हो गया, मैं तो माँ से भी नहीं कह सकता था की वो मुझे गाँव ले जाएँ क्योंकि माँ पिताजी के बिना कहीं आती-जाती नहीं थीं| खेर दिल ने कहा कोई नहीं अगले साल सही, पर अगले साल भी जाना नहीं हो पाया| हाँ पिताजी की बड़के दादा से हर हफ्ते बात होती रहती और वो कह देते की काम की वजह से नहीं आ पाएंगे, मैंने मन ही मन सोचा की काश बड़के दादा ही जोर दें तब तो पिताजी को जाना पड़ेगा| पर ऐसा नहीं हुआ........ कुछ समय के लिए!

कुछ महीनों बाद एक दिन अचानक बड़के दादा का फ़ोन आया और उन्होंने बताया की अशोक और अजय भैया के लिए रिश्ता आया है| अब ये सुन कर मेरे मन ने भौजी से मिलने का सुखद सपना संजोना शुरू कर दिया| तक़रीबन डेढ़ साल बाद हमारा मधुर मिलन होगा यही सोच-सोच कर मैं खुश हो रहा था, पर मेरे पिताजी अकेले ही गाँव चल दिए और रिश्ता पक्का करवा कर आ गए| शादी की तरीक अगले साल मई की निकली| एक बार फिर मैंने दिल को तसल्ली दे दी की चल कोई ना अगले साल तो मिलना ही है! मैंने अगले साल के लिए बड़ी मेहनत की, पढ़ाई में अच्छा हो गया और पिताजी को किसी भी शिकायत का मौका नहीं दिया| जब परीक्षा का परिणाम आया तो पिताजी खुश हो गए और मेरे लिए उस दिन खुद चाऊमीन ले कर आये| मैं नै क्लास में आ गया था और नई-नई किताबों की खुशबू, नए कपडे आदि के साथ मुझे आज नए स्कूल में जाना था| इसी बीच पिताजी को एक अच्छा मकान कम दामों पर मिला तो हम नए घर में रहने चले गए, पर तब तक शादी का समय नजदीक आ गया था और पिताजी ने टिकट भी बुक नहीं करवाई थी| नए घर में समान व्यवस्थित करना, बिजली-पानी के बिल में नाम बदलवाना आदि काम बाकी थे| पिताजी ने ये काम माँ और मेरे जिम्मे लगा दिए और खुद अकेले शादी में सम्मिलित होने चले गए| उस दिन मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था, सारा साल इतनी मेहनत करने के बाद भी मिला क्या? खेर मैंने अपनी किस्मत से समझौता कर लिया और भौजी से मिलने की आस को बुझा दिया| पिताजी ने जो काम माँ और मेरे जिम्मे किया था उसे मैंने पड़ोस के एक भैया की मदद से पूरा किया, घर व्यवस्थित किया और तो और अपना कमरा भी पिताजी की लेबर की मदद से पेंट करवा दिया| शादी से निपट कर पिताजी एक महीने बाद लौटे और उनकी गैरहाजरी में जो काम हुआ था उसे देख और सुन कर बहुत खुश हुए| "तुम दोनों को सब ने बड़ा याद किया!" पिताजी बोले पर मैं मुँह फेर कर बाहर चला गया| पिताजी मेरी नाराजगी समझ गए और रात में उन्होंने मुझे बड़े प्यार से समझाया; "बेटा अगर हम सब शादी में चले जाते तो ये काम कौन करता? फिर तुमने कितनी होशियारी और अक्लमंदी से सारे काम किये, मुझे तुम पर नाज है!" आज इतने सालों में अपने पिताजी से अपनी बड़ाई सुन मैं गदगद हो गया और अपना गुस्सा भूल गया|


इस तरह से चार साल निकले और मैं किशोरावस्था में प्रवेश कर चूका था| भौजी के साथ बिताये वो पल अब बस एक मीठी सी याद बन कर दफन हो चुके थे|अब मैं चूँकि बड़ा हो चूका था तो दोस्तों की सही-गलत संगत में सेक्स के बारे में कुछ-कुछ जान गया था| कुछ-कुछ से मतलब था की चुम्मा-चाटी के बारे में जान गया था और मेरा मानना था की इसी से बच्चा भी होता है| दोस्तों के साथ एक-आध बार मैंने अंग्रेजी पिक्चर देखि थी जिसमें हीरो-हेरोइन Kiss करते और ये सीन देख कर ही धड़कनें तेज हो जाती, जिस्म में झुरझुरी छूट जाती| वैसे इन 4 सालों में बहुत कुछ बदल चूका था, अशोक और अजय भैया का गौना हो चूका था और उनकी पत्नियाँ घर संभाल रही थीं| अशोक भैया रायपुर में एक कंपनी में चपरासी की नौकरी करने लगे थे, इसलिए वो अपनी पत्नी को लेकर रायपुर में रहने लगे थे| अनिल भैया और गट्टू दोनों अम्बाला शहर आ गए थे, अनिल भैया ने वहाँ खाने-पीने का एक ठेला डाल लिया था और गट्टू ने एक स्कूल में पढ़ाई शुरू कर दी थी| गाँव में अब केवल अजय भय और चन्दर भैया रह गए थे, चन्दर भैया का मन अब खेती में नहीं लगता था और वो दिनभर कहीं घुमते रहते या फिर मामा जी के घर चले जाय करते थे| खेती का सारा काम बड़के दादा और अजय भैया सँभालते थे| गौने के साल-भर के अंदर ही अजय भैया के घर लड़का पैदा हुआ जिसका नाम वरुण रखा गया| उधर डेढ़साल बाद अशोक भैया के यहाँ भी लड़का पैदा हुआ जिसका नाम राकेश रखा गया| ये सारी खुशियाँ मुझे सिर्फ सुनने को मिली थीं क्योंकि पिताजी ने मेरा गाँव जाना बंद कर दिया था|

एक दिन जब पिताजी अच्छे मूड में थे तो मैंने उनसे कारन पूछ लिया तो वो बोले; "बेटा काम बहुत बढ़ गया है, गाँव जाने का समय नहीं निकल पाता| मैं खुद बस 2-3 के लिए जाता हूँ ताकि कल को भैया ये न कहें की मैं घर नहीं आता| अब तुम्हें साथ ले जाऊँ वो भी सिर्फ 2-3 के लिए तो ना तो तुम वहाँ कुछ देख पाओगे न किसी से मिल पाओगे!"

"बेटा देख मैं समझ सकती हूँ तेरा मन घूमने को करता है पर बजाए गाँव जाने के हम 1-2 दिन के लिए कहीं घूम आते हैं!" माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा|

"ठीक है तो इस बार हम मथुरा चलते हैं घूमने!" पिताजी बोले और मैं घूमने की बात सुन कर ही खुश हो गया|


कुछ महीनों बाद खबर आई की भौजी पेट से हैं और घर वालों ने उनसे बहुत सी उमीदें बाँध ली| आखिर वो घर की बड़ी बहु थी और सब को उनसे पोते की आस थी| बुआ, मामा, मामी, मौसा, मौसी, बड़की अम्मा सब के सब ने भौजी के आस-पास घूमना शुरू कर दिया| उन नौ महीनों में उनकी बड़ी खातिरदारी की गई पर जब बच्चा पैदा हुआ तो सब का मुँह उतर गया, क्योंकि लड़का नहीं लड़की पैदा हुई थी| एकदम से सबने भौजी से किनारा कर लिया था और अब वो उस बच्ची के साथ अकेली हो गई थीं|

इधर जब भौजी के माँ बनने की बात दिल्ली पहुँची तो माँ-पिताजी बड़े खुश हुए, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा था की लड़की पैदा हुई है| "बेटा तू चाचा बन गया!" माँ ने कहा| ये सुन कर मुझे भौजी के माँ बनने पर ख़ुशी तो हुई पर अपने चाचा बनने पर बड़ा अजीब सा लगा| कारन ये की मुझे बचपन से ये लगता था की सिर्फ उम्र में बड़े लोग ही चाचा, मामा, फूफा बनते हैं और मैं तो उम्र में अभी बहुत छोटा था तो ऐसे में मेरा चाचा बनना ऐसा था जैसे किसी ने मुझे बुजुर्ग बना दिया हो! जब ये बात मैंने माँ से कही तो वो खूब हँसी और फिर उन्होंने मुझे बात समझाई की ये चाचा, मामा आदि बनने से कोई बुजुर्ग नहीं हो जाता, बल्कि मुझे तो खुश होना चाहिए की इतनी कम उम्र में मैं चाचा बन गया| उनकी बात मैंने आज तक नहीं टाली थी सो इस बार भी मैंने ये सोच लिया की चलो चाचा तो चाचा सही, कुछ तो बना| पर मैंने ये बात स्कूल में अपने दोस्तों को कभी नहीं बताई वरना वो मेरा खूब मजाक उड़ाते!

6 महीने बीते और फिर पिताजी ने मुझे अभी तक की सबसे बड़ी खुश ख़बरी दी| "बेटा 2 दिन बाद तेरी भौजी और चन्दर भैया आ रहे हैं!" ये खबर सुनते ही मेरे दिल में जो भौजी से मिलने की आग थी वो धधकने लगी| ख़ुशी मेरे चेहरे से टपक रही थी और मैं पूरे घर में नाच रहा था पर अगले ही पल एक ख्याल आया, नाजाने क्यों दिल को लगा की भौजी अब तक मुझे भूल गई होंगी आखिर मैं भी तो उन्हें कुछ-कुछ भूल ही गया था| इसलिए जो ख़ुशी थी वो शांत हो कर रह गई और मैं वापस पढ़ाई करने बैठ गया| दरअसल बच्ची के जन्म पर हम में से कोई भी वहाँ नहीं था और काम के चलते पिताजी के पास बिलकुल समय नहीं था की वो गाँव जा सकें इसलिए उन्होंने चन्दर भैया और भौजी को दिल्ली बुला लिया|

दो दिन कैसे बीते पता ही नहीं चला और फिर वो दिन आ गया जब मेरा और भौजी का पुनः मिलन होना था| मुझे पता था की आज भौजी आएँगी इसलिए मैं जल्दी उठा और तैयार हो कर पढ़ने बैठ गया था| ठीक 7 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई, माँ ने दरवाजा खोला और मैं अपने कमरे से निकल कर बैठक में दिवार का सहारा ले कर खड़ा हो गया| चन्दर भैया सबसे पहले दिखे और उन्होंने माँ-पिताजी के पाँव छुए उसके बाद भौजी दिखीं, उन्होंने अब भी डेढ़ हाथ का घूंघट काढ़ा हुआ था| फिर मेरी नजर उस छोटी सी बच्ची पर पड़ी, भौजी ने पिताजी और माँ के पाँव छुए और फिर मेरी तरफ देखा| माँ ने उनकी गोद से उस बच्ची को ले लिया और भौजी ने आ कर सीधा मुझे अपने सीने से लगा लिया| आज बरसों बाद मुझे वो तपिश महसूस हुई, इस तपिश ने मेरे सारे बुरे ख्यालों को मिटा दिया| वो ख्याल की भौजी मुझे भूल गई होंगी अब मिट चूका था| मुझसे गले लगे हुए ही भौजी की आँखें भर आईं और उनके आँसूँ का क़तरा मेरी टी-शर्ट पर गिरा| उस कतरे को मेरी रूह ने महसूस किया और मैंने भौजी को और कस कर अपने से चिपका लिया| "बस बेटा! अब अपनी भौजी को यहीं खड़े रखने का इरादा है?" माँ बोलीं पर उन्होंने अभी तक उनके आँसू नहीं देखे थे| भौजी ने आलिंगन तोडा और साडी के पल्लू से अपने आँसू पोछने लगी| "बहु तो रो क्यों रही है?" माँ ने पुछा तो पिताजी और चन्दर भैया का ध्यान हम दोनों पर आया| "वो चाची मैंने आपको और मानु को बहुत याद किया था!" भौजी ने बात बनाते हुए कहा, ये तो मैं जानता था की याद तो उन्होंने सिर्फ मुझे किया था!


खेर सब बैठक में बैठ गए और मैं भौजी के साथ चिपक कर बैठा था| माँ ने उस नन्ही सी बच्ची को मुझे दिया, मैंने बड़ी सावधानी से उसे गोद में लिया| वो बच्ची अपनी छोटी-छोटी आँखों से मुझे देख रही थी और मैं उसे देख कर उम्मीद कर रहा था की वो कुछ बोलेगी| जब वो कुछ न बोली तो मैंने ही उससे पूछ लिया; "आपका नाम क्या है?" अब अगर वो बोल पाती तो ना?! मेरा बचपना देख भौजी, माँ और पिताजी हँस पड़े| मैंने भौजी की तरफ देखा तो उन्होंने घूंघट के भीतर से मुस्कुराते हुए कहा; "नेहा", ये नाम मुझे बड़ा अच्छा लगा और मैंने नेहा की तरफ देखते हुए मुस्कुरा दिया और उसने भी मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा दिया| खैर माँ चाय बनाने उठी तो भौजी भी उन्हीं के साथ चली गईं और चाय बनाने लगी| मैं भी नेहा को ले कर उठा और किचन के बाहर खड़ा हो गया| भौजी और माँ गाँव की बातें कर रहे थे, भौजी का मेरे ऊपर ज़रा भी ध्यान नहीं था और मैं इससे थोड़ा नाराज था| मैं नेहा को गोद में ले कर अपने कमरे में आ गया, दस मिनट बाद भौजी मुझे ढूँढ़ते हुए मेरे कमरे में आई| मैं उस वक़्त किताब खोले कुछ पढ़ रहा था और नेहा मेरी गोद में सो चुकी थी| भौजी ने अपना घूंघट हटाया और मुझसे बोलीं;

भौजी : तो नेहा को अभी से पढ़ा रहे हो?

मैं : (गुस्से में) आप यहाँ क्या कर रहे हो? जा कर चाय बनाओ!

भौजी : अरे बाप रे बाप! इतना गुस्सा?

मैं : आप यहाँ चाय बनाने आये हो ना? जा के बनाओ फिर!

भौजी : (अपने कान पकड़ते हुए) अच्छा बाबा माफ़ कर दो! पर ये बताओ मेरे होते हुए चाची चाय बनाये ये अच्छी बात है?

मैं : ठीक है, माफ़ किया!

दरअसल भौजी का चेहरा देख कर मेरा गुस्सा काफूर हो गया था|

भौजी : वैसे ये बढ़िया है? सालों साल तुम मुझसे मिलने ना आओ और गुस्सा भी तुम हो जाओ?

अब भौजी रूठ गई थीं और मैंने उन्हें मनाने के लिए उनका तर्क उन्हीं पर आजमाया;

मैं : भौजी यहाँ काम बहुत बढ़ गया था, फिर पिताजी गाँव जाते ही 3-4 दिन के लिए थे| अब वो ही ले कर नहीं जायेंगे तो मैं कैसे आऊँगा?

भौजी : ठीक है, माफ़ किया!

भौजी ने मेरी ही तरह से जवाब दिया तो हम दोनों खिलखिला कर हँस पड़े| तभी माँ हमें बुलाने आ गई और हम सब बैठक में बैठ गए| पिताजी ने बताया की आज वो किराए पर VCR लाएंगे और आज रात हम सारे पिक्चर देखेंगे| उन दिनों ना तो CD होती थी न ही DVD, चलता था तो बस VCR जिसकी एक बड़ी सी कैसेट होती थी| पिताजी ने उस दिन बीवी नंबर 1 किराए पर मंगवाई थी, रात का प्रोग्राम सेट था तो मुझे ख़ास कर बोलै गया की मैं दिन में सो जाऊँ ताकि देर रात तक जाग सकूँ| दोपहर का खाना माँ और भौजी ने बनाया, हमारे घर में ऐसा कोई नियम नहीं की मर्द पहले खाएंगे और औरतें बाद में तो भौजी को हमारे साथ ही खाना था इस कारन मैं उनके साथ नहीं खा पाया|


खाना खत्म हुआ और अभी बर्तन धुले ही थे की लाइट चली गई, इसलिए माँ, पिताजी और चन्दर भैया गली में चारपाई डाल कर बैठ गए| गली में बाकी लोग भी अपनी-अपनी चारपाई पर बैठे थे और सब की बातें शुरू हो गईं| मैं, भौजी और नेहा जानबूझ कर अंदर ही रह गए ताकि हमें कुछ बात

करने को समय मिल जाए| मैं और भौजी मेरे कमरे में बैठे थे, कमरे में बस इतनी रौशनी थी की हम एक दूसरे का चेहरा देख पा रहे थे| नेहा पलंग पर लेटी सो चुकी थी और भौजी उसे पंखा कर रही थीं ताकि वो गर्मी से उठ ना जाये!

भौजी : मानु तुम्हें मेरी जरा भी याद नहीं आई?

भौजी ने शिकायत करते हुए कहा|

मैं : भौजी सच्ची आपकी बहुत याद आती थी, कोई ऐसा दिन नहीं गया जब मैंने आपके साथ बिठाये वो दिन याद न किये हों पर पिताजी गाँव ही नहीं ले जाते थे! मैंने बड़ी कोशिश की पर पिताजी नहीं माने, फिर पढ़ाई का बोझ .....अब आप ही बताओ मैं क्या करता?

मैंने भौजी से अपने दिल का हाल कहा|

भौजी : तुम से बुरा हाल मेरा था! कितनी आस लगाए बैठी थी की तुम अगले साल आओगे पर फिर चाचा का फ़ोन आया की वो नहीं आयंगे| शादी पर भी तुम नहीं आये ..... पता है मैंने कैसे ये दिन निकाले?

भौजी थोड़ा रुनवासी हो कर बोलीं| मैं भौजी के नजदीक बैठ गया और उनका हाथ पकड़ लिया| मैं उस वक़्त इतना परिपक्व नहीं हुआ था की जज्बातों को अच्छे से समझ सकूँ| मैं भौजी का दर्द देख सकता था पर उसकी गहराई नहीं समझ सकता था| मेरे लिए उनका ये भावुक होना दिखाता था की वो मुझे बहुत चाहती हैं......एक देवर की तरह!

कुछ समय चुप रहने के बाद भौजी ने बात शुरू की क्योंकि वो जानती थी की ये कुछ पल हमें साथ मिले हैं इन्हें रोने-धोने में बर्बाद नहीं करना चाहिए! हमने बहुत सी बातें याद की और मैंने उन्हें यहाँ के बारे में बहुत कुछ बताया, दिल्ली में कहाँ क्या होता है सब! इन बातों में एक घंटा निकल गया, पर तभी मुझे कुछ याद आया| "भौजी मुझे नींद आ रही है, आप सुला दो ना?!" ये वो दस जादुई शब्द थे जो मुझे मेरी खुशियों की तरफ ले जाने वाले थे| ये शब्द सुनते ही भौजी के चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई, ये वही मुस्कान थी जो सालों पहले आ जाय करती थी जब मैं गाँव में उनसे यही शब्द कहा करता था| मैं भौजी की गोद में सर रख कर लेट गया और फ़ौरन अपनी आँखें मूँद लीं| मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गईं थीं, क्योंकि मैं जानता था की आज इतने बरसों बाद मुझे वो सुख मिलेगा! वो सुख जिसका मैंने इतना इंतजार हूँ.....

जारी रहेगा भाग - 2 में........
 
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चौथा अध्याय : पुनः मिलन

भाग - 2
"भौजी मुझे नींद आ रही है, आप सुला दो ना?!" ये वो दस जादुई शब्द थे जो मुझे मेरी खुशियों की तरफ ले जाने वाले थे| ये शब्द सुनते ही भौजी के चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई, ये वही मुस्कान थी जो सालों पहले आ जाय करती थी जब मैं गाँव में उनसे यही शब्द कहा करता था| मैं भौजी की गोद में सर रख कर लेट गया और फ़ौरन अपनी आँखें मूँद लीं| मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गईं थीं, क्योंकि मैं जानता था की आज इतने बरसों बाद मुझे वो सुख मिलेगा! वो सुख जिसका मैंने इतना इंतजार हूँ.....


भौजी ने मेरे गाल को दायीं तरफ घुमाया और झुक कर अपने नरम गुलाबी होंठ मेरे बाएँ गाल पर रख दिए| धीरे से उन्होंने मेरे गाल को अपने मुँह में भरा और उसे चूसने लगीं| उनका ऐसा करने से मेरे जिस्म में हरकत शुरू हो गई, ऐसा लगा मानो मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया हो! तभी भौजी ने धीरे से मेरे गाल को अपने दांतों से काट लिया| अब मेरे जिस्म ने प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी थी, जिस्म के उस हिस्से में अकड़न आने लगी थी जो अब थक शिथिल पड़ा हुआ था| पर वो अभी ठीक से अकड़ भी नहीं पाया था की भौजी ने मेरे बाएँ गाल को काटना छोड़ दिया और अपने हाथ से उस पर मौजूद अपना रस साफ़ कर दिया| मुझे बरसों बाद सुख तो मिला पर वो अभी ठीक से नहीं मिला था, दिल अब लालची हो गया था और उसे अब और प्यार चाहिए था| इसलिए मैंने अपनी गर्दन बायीँ तरफ घुमाई और उनको अपना दायाँ गाल दिखाया ताकि वो उस पर भी अपने प्यार की छाप छोड़ सकें! भौजी मेरा ये उतावलापन देख कर मुस्कुराने लगीं और झुक कर उन्होंने मेरे दाएँ गाल को पहले अपने होठों से छुआ और फिर उसे अपने मुँह में भर कर चूसने लगी| इस बार उन्होंने इस गाल को काफी देर तक चूसा जिसके परिणाम स्वरुप मेरे जिस्म में तरंगें उठने लगीं| ये तरंगें मेरे जिस्म को मरोड़ने लगी थीं और दिल में एक ललक पैदा हो गई थी| ये तरंगें मैंने आज से पहले कभी महसूस नहीं की थीं, दिल की धड़कनें अचानक ऐसे तेज हो गईं जैसे 100 की स्पीड पर भागती की कोई गाडी हो! भौजी ने मेरे बाएँ गाल पर जैसे ही अपने दाँत गड़ाए जिस्म के अंदर एक रासायनिक प्रतिक्रिया शुरू हो गई| कमर के नीचे मौजूद भाईसाहब आज पूरे जोश में आगये और अकड़ कर खड़े हो गए| कमरे में अँधेरा होने के कारन और मेरे गाल पर अपने दाँत गड़े होने के कारन भौजी मेरे उस उभार को देख नहीं पाई थीं| कुछ सेकंड बाद भौजी ने जब मेरे गाल को छोड़ा तो उस पर उनके दाँत छाप गए थे| मतलब जो रासायनिक प्रतिक्रिया मेरे जिस्म में हो रही थी वो भौजी के जिस्म में भी हो रही थी और उसी की चपेट में आ कर भौजी ने मेरे गाल को आज पहली बार जोर से काट लिया था| जब भौजी ने मेरे बाएँ गाल पर से अपने मुँह के रास को साफ़ करने के लिए छुए तब उन्हें गाल पर बने अपने दांतों के निशान का पता चला| उनकी उँगलियाँ मेरे गाल पर बने छाप पर आईं और अपनी इस हरकत को देख वो शर्म से लाल हो गईं| इस पूरे दौरान मैं आँखें बंद किये हुए था और मुझे इतना आनंद आ रहा था की मैं वो दर्द महसूस भी नहीं कर पाया था| "मानु! तुम्हारे गाल पर मैंने जोर से काट लिया, तुम्हें दर्द नहीं हुआ?" भौजी खुसफुसाते हुए बोलीं, पर मैं उस वक़्त आँखें बंद किये एक अलग दुनिया में खो गया था और वहाँ से बाहर नहीं आना चाहता था| भौजी के इस Kiss ने मुझे मेरे जिस्म के एक ऐसे हिस्से से रूबरू करा दिया था जो आज से पहले शिथिल रहता था| "मानु....मानु? सो गए क्या?" भौजी ने पुकारा तो मैंने अपनी आँखें खोलीं और मुस्कुराते हुए उनकी तरफ देखा| मेरी मुस्कराहट देख भौजी समझ गईं की मैं सो नहीं रहा था बल्कि उनके Kiss के कारन मदहोश हो गया था| ये देख भौजी के चेहरे पर भी एक अलग मुस्कराहट आ गई|

कुछ देर हम ऐसे ही चुप-चाप एक दूसरे को देखते रहे, आँखें जैसे प्यासी हो चली थीं और मन था की उन्हें देख कर भर ही नहीं रहा था| पर कुछ तो था जो अलग था, जो मेरे जिस्म में जाग गया था और मेरे दिल की धड़कनों को तेज किये हुए था| मेरे होंठ आज पहली बार काँप रहे थे, दिल प्यासा हो चला था दिल कहने लगा था की मुझे और प्यार चाहिए, वो सुख और चाहिए! दिल और आज जो चरम सूख मुझे मिला था उसने मुझे भौजी से एक माँग करने के लिए मजबूर कर दिया| "भौजी.....एक बात कहूँ!" मैंने हिम्मत जुटाते हुए कहा| मेरी बात सुन भौजी फिर से मुस्कुराने लगीं और गर्दन हिला कर अपनी सहमति दी| "भौजी.... आप मुझे यहाँ (अपने होठों पर उंगली रखते हुए) Kiss करोगे?" मैंने ये कह तो दिया पर फिर मुझे लगने लगा की भौजी शायद मना कर देंगी, क्योंकि मैंने जो अंग्रेजी फिल्मों देखा था उसके अनुसार ये Kiss सिर्फ दो प्यार करने वाले करते थे| मैं और भौजी तो बहुत अच्छे दोस्त थे इसलिए हमारे बीच ये Kiss होना नामुमकिन था| पर मैं भौजी के मन को पढ़ना नहीं सीखा था, उन्होंने मेरी बात सुन कर मुस्कुरा दिया और धीरे-धीरे मेरे मुँह पर झुकने लगी| ये देख मैंने फ़ौरन अपनी आँख बंद कर ली, भौजी के होठों ने जैसे ही मेरे पतले होठों को छुआ मेरे जिस्म में झनझनाहट शुरू हो गई| अभी मैं इस झनझनाहट से सम्भल पाता उससे पहले ही भौजी ने अपना मुँह थोड़ा सा खोला और मेरा निचला होंठ अपने मुँह में भर कर चूसने लगीं| उनकी इस हरकत के बारे में मैंने कल्पना भी नहीं की थी| मुझे तो लगता था की भौजी बस मेरे होंठों को चूम कर छोड़ देंगी पर उनके मेरे निचले होंठ को चूसने से मेरे पूरे जिस्म में फुलझड़ियाँ छूट गईं| दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था, मेरे रोएं तक खड़े हो गए थे! भौजी ने 10 सेकंड मेरे निचले होंठ को चूसा था और अब वो उसे छोड़ कर मेरे ऊपर वाले होंठ को मुँह में ले कर चूस रही थीं| अब तो मेरे पूरे जिस्म में लड़ाई छिड़ गई थी, मेरे हाथ अपने आप उठे और मैंने भौजी के सर को अपने दोनों हाथों से थाम लिया ताकि वो अपना सर न उठा सकें और ये Kiss कभी खत्म ही न हो! भौजी मेरा उतावलापन देख खुश हो रही होंगी और बड़े प्यार से मेरे होठों को चूस रही थीं| मैं उस समय नहीं जानता था की Kiss कैसे करते हैं, फिल्मों से मिला ज्ञान अधूरा था और आज मिल रहा वास्तविक ज्ञान मेरे दिलों दिमाग पर हावी होने लगा था| मैंने बीच-बीच में कोशिश की भौजी के होठों को चूसने की पर मुझे उसमें कोई कामयाबी नहीं मिली, बजाये चूसने के मैं उन्हें खींच लेता! पर भौजी ने इस बात का बुरा नहीं माना बल्कि उन्होंने और जोश से मेरे होंठ चूसने जारी रखे| इधर नीचे मेरे लिंग में आज जान आ गई थी और वो फूल कर खड़ा हो चूका था| मैं अभी तक अपने इस अंग काउपयोग नहीं समझा था, मेरे लिए तो ये बस पेशाब करने का अंग था और अचानक आये तनाव और दर्द के कारन मुझे बड़ा अजीब सा डर लगने लगा था| पर वो डर इस चरम सुख के आगे कुछ भी नहीं था, इसलिए अगले ही पल दिल ने उसे डर को दबा दिया और आनंद के सागर में डूबना शुरू कर दिया|


उन दिनों मेरी किस्मत मुझ पर कुछ ख़ास मेहरबान नहीं थी और जब भी मुझे कुछ अच्छा अनुभव मिल रहा होता तो किस्मत मुझे अड़ंगी दे कर गिरा दिया करती थी! पता नहीं ससुरी को क्या मजा आता था मेरी लेने में! भौजी और मेरा ये तिलस्मी Kiss चल ही रहा था की अचानक से किसी के आने की आहट से भौजी मेरे ऊपर से उठ गईं| जैसे ही ये Kiss टूटा मैं अपनी अवचेतन अवस्था से जगा और भौजी की तरफ सवालिया नजरों से देखने लगा| मेरी आँखें आज भौजी से शिकायत करने लगी थीं की क्यों उन्होंने ये Kiss तोडा? कुछ देर और रुक जाती तो उनका क्या जाता? पर इसका जवाब मेरे कानों में पड़ा; "मानु! चल मारम-पिट्टी खेलते हैं?" ये आवाज मेरे दोस्त अजय की थी, जिसे सुनते ही मेरे जिस्म में गुस्से की आग लग गई| मैं बड़ी जोर से चिल्लाया; "भाग यहाँ से!" मेरी गुस्से से भरी चीख सुन वो बेचारा सन्न रह गया और फिर बाहर भाग गया| भौजी मेरे इस बर्ताव से हैरान हो गईं, की उनका इतना शांत देवर कैसे इतना आग-बबूला हो गया? अगर उस समय मेरे हाथ में बन्दूक होती तो मैं अजय को गोली जर्रूर मार देता, साले ने इतने हसीन समा को मारम-पिट्टी खेलने के लिए खराब कर दिया था!

"क्या हुआ मानु?" भौजी ने बड़े प्यार से पुछा और उनकी आवाज सुन कर मेरा गुस्सा शांत होने लगा| मैंने सर झुका कर ना में सर हिलाया तो भौजी को मेरे गुस्सा होने का कारन समझ आया; "आज रात मैं नेहा को जल्दी सुला दूँगी!" भौजी बोलीं और ये सुनकर मेरी आँखें चमकने लगी| पर कुछ देर पहले मेरी गुस्से की गर्जन सुन माँ अंदर आईं और मैं जल्दी से भौजी की गोद में सर रख कर लेट गया; "क्या हुआ? क्यों चिल्ला रहा था?" माँ ने पुछा|

"चाची मानु सो रहा था और उसका दोस्त उसे खेलने के लिए बुलाने आया तो मानु को बहुत गुस्सा आया|" भौजी ने बात संभालते हुए कहा|

"ये बच्चे न जब देखो इसे खलने के लिए बुलाने आते रहते हैं, तभी ये इतना बिगड़ रहा है! तू यहाँ गर्मी में क्यों बैठी है बहु, चल बाहर चल|" माँ बोलीं|

"चाची वो ...चाचा भी बाहर हैं....तो मैं...." भौजी ने झिझकते हुए कहा| दरअसल गाँव में रहने के कारण भौजी का ये मानना था की अपने से किसी भी बड़े की मौजूदगी में उनके सामने बैठना अच्छी बात नहीं| हाँ अगर बाहर सब औरतें बैठी होती तो वो बेझिझक बैठ जातीं| ये हमारे गाँव के नियम\कानून थे जो एक औरत को गर्मी में बैठने को मजबूर कर देते थे पर उसे खुली हवा में अपने ससुर या बाकी मर्दों के सामने जाने से रोकते थे| "बहु तू मेरे साथ बैठ जाइओ!" इतना कह कर माँ भौजी को अपने साथ बाहर ले आईं| मैं अकेला अंदर लेटा रहा और नेहा को पंखा करता रहा| मेरा लगाव नेहा के प्रति अभी बहुत कम था, उसका कारन था उससे हमेशा दूध की महक आना! मुझे दूध पीना तो पसंद था पर उसकी महक बड़ी अजीब लगती थी| घर में अगर कभी दूध से नहाने को कहा जाता तो मैं हमेशा मना कर देता, पिताजी या और कोई अगर दूध से नहा कर मेरे आस-पास भी आता तो मैं उठ कर दूर चला जाता था|


खेर कुछ देर बाद बत्ती आ गई और सब के सब अंदर आ गए और मैं अब भी नेहा को पंखा कर रहा था| मेरी आंखें खुली थीं पर दिमाग में रात की योजना बननी चालु हो गई थी| पिताजी ने मुझे सोने को कहा ताकि मैं रात को जाग सकूँ, पर अगर मैं सो जाता तो रात की योजना कैसे बनती? इसलिए मैं उठ गया और किताब ले कर बैठ गया ताकि पिताजी को लगे की मैं समय बर्बाद नहीं कर रहा| कुछ देर बाद एक आदमी घर आया जिसके पास वीसीआर था और बीवी नंबर 1 की कैसेट थी| मैंने उससे वीसीआर पिताजी वाले कमरे में लगवाया क्योंकि वहीं पर टी.वी. लगा हुआ था| कमरे में एक डबल बेड था जो दिवार के साथ लगा हुआ था और पीछे की तरफ एक सोफ़ा था| योजना के मुताबिक मैं, माँ, और भौजी पलंग पर सोने वाले थे तथा पिताजी और चन्दर भैया फर्श पर बिस्तर लगा कर सोने वाले थे| सब कुछ सेट हो गया था, शाम को चाय पीने के दौरान मैंने भौजी को इशारे से अपने पास बुलाया और उनसे कहा; "खाना खाने के बाद आप जल्दी से नेहा को सुला देना, ताकि हम ......" इसके आगे बोलने के लिए मेरे अंदर हिम्मत नहीं रही और शर्म से मेरे गाल लाल हो गए| भौजी मेरा उतावलापन देख हँस पड़ी और उन्होंने हाँ में सर हिला कर मेरी बात को अपनी सहमति दी|


रात का खाना माँ और भौजी ने मिल कर बनाया और सभी एक साथ बैठ कर खाना खाने लगे| भौजी के लिए ये अनुभव बहुत अच्छा था क्योंकि आज महीनों बाद उन्हें इतना मान-सम्मान और प्यार मिल रहा था| गाँव में तो जब से नेहा पैदा हुई थी तब से कोई उनसे ठीक से बात तक नहीं करता था| एक बेटी जन्ने से सब ने जैसे उनसे किनारा कर लिया था, इसमें भला भौजी की क्या गलती थी?

खाना खाने के दौरान सब बातों में लगे थे, मेरे और चन्दर भैया के बीच लगाव बहुत कम था, कारन था उनकी उम्र और उनका अपने दोस्तों संग रहना| आज जब वो आये थे तब भी हमने बस नमस्ते के आलावा और कोई बात नहीं की थी| पिताजी उन्हें अपने काम के बारे में बता रहे थे और इधर मैं अपने ही ख्यालों में गुम था| दोपहर में जो हुआ उसे सोच-सोच कर मेरे दिमाग में तूफ़ान मचा हुआ था, मेरा दिल कह रहा था की काश ऐसा हो की सब के सब बेसुध हो जाएँ, ताकि मैं और भौजी एक दूसरे को बेख़ौफ़ Kiss कर सकें!

अपने इसी ख्याल में गुम में मैं आँख बंद किये हुए सपनों की जमीन पर चल रहा था, मुझे नहीं पता था की मेरी किस्मत अपनी टाँग फैलाये हुए मुझे अड़ंगी देने के लिए बैठी है| खाना खत्म हुआ और सब मुँह-हाथ धो कर पिताजी के कमरे में आ गए| मैं सबसे आगे था और फ़ौरन पलंग के बीचों-बीच लेट गया और अपना कब्ज़ा स्थापित किया| भौजी को मेरा ये उतावलापन देख बहुत हँसी आई पर उन्होंने जैसे-तैसे अपनी हँसी दबा ली| भौजी ने नेहा को दिवार की तरफ लिटाया और खुद मेरे और नेहा के बीच लेट गईं| कुछ देर में माँ भी बची हुई जगह में लेट गईं, पिताजी और चन्दर भैया तो पहले ही लेट चुके थे| फिल्म चालु हुई पर मेरा ध्यान सिर्फ भौजी पर था, दिक्कत ये थी की अभी कुछ भी कर पाना मुमकिन नहीं था क्योंकि कमरे की टियूबलाइट चालु थी| मैं बाथरूम जाने के लिए उठा और आते समय जानबूझ कर टियूबलाइट बंद कर दी| जैसे ही टियूबलाइट बंद हुई पिताजी बोले; "टियूबलाइट क्यों बंद की?" मैं इसका जवाब पहले ही सोच चूका था तो मैंने फ़ट से जवाब दिया; "पिताजी अब बिक्लुल सिनेमा हॉल वाला मजा आएगा|" इतना कह कर मैं लेट गया| पिताजी ने आगे कुछ नहीं कहा, मैं कुछ देर तो शांत लेटा रहा और जब मुझे लगा की सबका ध्यान फिल्म पर है तब मैंने धीरे से भौजी की तरफ करवट ली और बोला; "भौजी! नेहा सो गई?" ये सवाल कम था और इशारा ज्यादा था, अब उनसे सीधे-सीधे तो कह नहीं सकता था की मुझे Kiss करनी है! ये शब्द सुनते ही भौजी ने न में गर्दन हिलाई और खुसफुसाते हुए बोलीं; "नहीं मानु चाची देख लेंगी!" उनका जवाब सुनते ही मैं बोल पड़ा; "कोई नहीं देख पायेगा ट्यूबलाइट बंद है!" पर भौजी नहीं मानने वालीं थीं इसलिए उन्होंने साफ़ जवाब दे दिया; "अगर चाची इधर पलट गईं तो बहुत बुरा होगा! तुम्हें बहुत मार पड़ेगी और मेरी बहुत बदनामी होगी! बाद में करेंगे!" भौजी का ये जवाब मुझे कतई नहीं भाया| मेरे सर पर तो Kiss का भूत सवार था, पर बिना भौजी की मर्जी के मैं कुछ नहीं कर सकता था| इसलिए मैंने एक आखरी कोशिश करने की सोची| मैं जानता था की सीधे-सीधे तो मैं बोल नहीं सकता, थोड़ा घुमा कर कोशिश करता हूँ शायद भौजी मान जाएँ! मैंने भौजी की तरफ अपना दायाँ गाल किया और ऊँगली से उस पर इशारा करते हुए कहा; "अच्छा यहाँ तो Kiss कर सकते हो?" मैंने बड़े प्यार से खुसफुसाते हुए कहा ताकि भौजी पिघल जाएँ पर भौजी ने गुस्से से कहा; "नहीं मानु! बात को समझो, कोई देख लेगा!!!" उनका ये गुस्सा देख मेरे सब्र का बाँध टूट गया और मेरा गुस्सा मेरे सर चढ़ गया था| मैं उस वक़्त कुछ बोल नहीं सकता था वरना सब के सब मेरी ही ऐसी-तैसी कर देते, पर भौजी को अपना गुस्सा तो दिखाना था| इसलिए मैं माँ की तरफ करवट ले कर लेट गया| भौजी को भी अपने गुस्से का एहसास हुआ तो उन्होंने मुझे मनाना चाहा और अपना हाथ मेरी कमर पर रख मुझे अपनी तरफ करवट लेने को कहने लगीं पर अब मैं उनकी सुनने वाला नहीं था सो मैंने उनका हाथ गुस्से में झटक दिया|

"शुभ रात्रि!" मैं बोला| रोज रात को सोने से पहले मैं माँ-पिताजी को शुभ रात्रि बोला करता था| जैसे ही मैंने ये शब्द कहे तो पिताजी गुस्से से बोले; "क्यों? क्या हुआ तुझे? इतने दिनों से तूफ़ान मचाया हुआ था की फिल्म देखनी है और आज जब मंगवाई है तो नखरे कर रहा है?" अब मैं उस वक़्त कुछ बोलता तो पिताजी का गुस्सा और बढ़ जाता इसलिए मैंने चुप-चाप लेटे रहने में अपनी भलाई समझी| पिताजी को लगा की मैं सो गया हूँ तो वो और कुछ नहीं बोले, सब ने आराम से फिल्म देखि और सब वहीं सो गए| सुबह मैं जल्दी उठा और भौजी को अपना गुस्सा दिखाते हुए अपने कमरे में घुस गया| भौजी मुझसे बात करने आईं तो मैं बाथरूम में घुस गया| भौजी ने बाहर से मुझे बड़ी आवाज दी पर मैं कुछ नहीं बोला| आखिर हार कर भौजी चली गईं और मैं नहा-धो कर बाहर आया| नाश्ता बनने तक भौजी ने कितनी ही बार इशारे से मुझे अपने पास बुलाया पर मैं नहीं गया| ये मेरा तरीका था उन्हें याद दिलाने का की रात को उन्होंने जैसा व्यवहार मेरे साथ किया वो गलत था| अपने गुस्से में मैं ये भी भूल गया की आज ही भौजी को वापस जाना है|


नाश्ते के बाद जब पिताजी ने स्टेशन जाने के बारे में कहा तो मेरी हालत खराब हो गई, गला सूख गया, शक्ल पर बारह बज गए! उस एक पल में मुझे मेरी गलती समझ आ गई, भौजी ने कल रात जो किया वो सही था| अगर हमें कोई देख लेटा तो पता नहीं आज क्या होता! मैं ही बुद्धू था जो उनके पीछे पड़ गया और अपने इस पागलपन में मैंने इन चंद लम्हों को खराब कर दिया! मन ही मन मैं खुद को धिक्कारने लगा था, दिल किया खुद को ही झापड़ लगाऊँ पर उसके लिए भी बहुत हिम्मत चाहिए होती है! दिमाग कह रहा था कैसे भी कर के भौजी को रोक ले, कम से कम आज का दिन रोक ले, पर ये नामुमकिन था! मैं अपने ख्यालों में खुद को कोस रहा था और इधर पिताजी ने मेरी बारह बजे वाली शक्ल देखि तो उन्हें तुरंत समझ आ गया| तभी चन्दर भैया हाथ धो कर आये और उन्होंने मुझे गले लगाया जिससे मैं कुछ होश में आया; "मानु भैया, ई साल गाँव जर्रूर आयो! हुआँ तोहार नई-नई भौजाई हैं!" चन्दर भैया बोले| पर मेरा दिल तो बस एक ही को अपनी भौजी मानता था जो मेरे सामने घूंघट काढ़े खड़ी थीं| "भौजी तो मेरी बस एक हैं!" मैंने कहा और भौजी की तरफ चल दिया और उनसे गले लग गया| भौजी को अपने जज्बात छुपाने में बड़ी महारत हासिल थी, जब मैं उनके गले लगा तो मैंने घूंघट के भीतर उनकी ये नकली मुस्कराहट देख ली| "आप खुश हो?" मैंने भौजी के कान में खुसफुसाते हुए कहा तो उन्होंने झट से ना में गर्दन हिला दी| चूँकि भौजी का मुँह माँ की तरफ था इसलिए वो कुछ कह नहीं सकती थी, तभी उन्होंने गर्दन के इशारे से अपनी बात कही| उनसे गले मिलने के बाद मैंने भौजी का दायाँ हाथ पकड़ लिया और पिताजी से बोला की मैं भी स्टेशन चलूँगा| मेरी रुनवासी शक्ल देख पिताजी ने हाँ कर दी पर तभी उनकी नजर मेरे दाहिने हाथ पर पड़ी जिससे मैंने भौजी का हाथ पकड़ रखा था| पिताजी उस समय कुछ नहीं बोले और नेहा को अपनी गोद में ले लिया, पिताजी और चन्दर भैया आगे निकले| भौजी आखरी बार माँ से मिलीं और उनके पैर छू कर हम दोनों साथ-साथ निकले| घर से ऑटो स्टैंड कुछ 10 मिनट दूर था और वहाँ तक हमें पैदल ही जाना था, पिताजी तो चन्दर भैया से कुछ बातें करते हुए जा रहे थे इधर मैं और भौजी बड़े धीरे-धीरे चल रहे थे| मेरे हाथ का दबाव भौजी के हाथ पर बढ़ता जा रहा था, मानो जैसे मैं उन्हें जबरदस्ती रोक लूँ और वापस घर ले आऊँ पर अब उसके लिए बहुत देर हो चुकी थी!

ऑटो स्टैंड आ गया था, पिताजी ने स्टेशन के लिए ऑटो किया और भौजी को बैठने को कहा| भौजी के अंदर घुसते ही मैं भी घुस गया और साइड वाले डंडे पर बैठ गया| अब चन्दर भैया घुसे और अंत में पिताजी बैठे| पिताजी ने मुझे डंडे से उठ कर भैया की गोद में बैठने को कहा, तो मैं अपना एक कुल्हा उनके घुटने पर टिका कर बैठ गया और भौजी की तरफ मुँह कर के उनका बायाँ हाथ पकड़ लिया| में जानता था की कुछ ही देर में ऑटो हमें रेलवे स्टेशन छोड़ देगा और फिर भौजी चली जाएँगी, ये सोच कर मेरी आँखों से आखिर आँसूँ छलक आये| मेरी ये दशा देख भौजी भी खुद को रोक नहीं पाइन और उनकी आँखों से आँसूँ बाह निकले| आँसू के कतरे उनकी साडी पर गिरते हुए मैंने देख लिए और फ़ौरन उनके आँसू पोंछने लगा| मैंने ना में गर्दन हिला कर उन्हें रोने से मना किया, भौजी ने मेरे भी आँसू पोछे पर वो कुछ कह नहीं पाईं| वो एक ऐसा पल था जब हम दोनों एक दूसरे से बहुत कुछ कहना चाहते थे पर हिम्मत नहीं कर पा रहे थे| हम दोनों ने जैसे खुद को रोक रखा था की अगर कुछ कहा तो कहीं दोनों रो ना पड़ें! हम दोनों का रोना उस समय सवाल खड़े कर देता, मैं तो फिर भी बच जाता की मैं उम्र में छोटा हूँ पर भौजी के लिए जवाबा देना मुश्किल हो जाता|


आखिर स्टेशन आ गया, मुझे लगा की जब तक ट्रैन आएगी तब तक मैं भौजी से कुछ बात कर लूँगा, पर हम लेट हो गए थे और ट्रैन आ चुकी थी| चन्दर भैया और भौजी को उनकी सीट पर बिठा मैं और पिताजी बाहर आने लगे| मैंने हाथ हिला कर भौजी को बाय कहा, उस पल मुझे लगा जैसे भौजी कुछ कहना चाहती हों पर फिर रुक गई हों| तभी ट्रैन चल पड़ी और मैं फटाफट उतर गया और हाथ हिला कर उन्हें बाय करने लगा| ट्रैन ने अपनी रफ़्तार पकड़ी और छुक-छुक करती हुई चली गई, इधर मैं प्लेटफार्म पर खड़ा हाथ हिलाता रहा और मन ही मन भौजी को अलविदा कहता रहा| यूँ तो बहुत से लोग स्टेशन आते हैं, कोई छोड़ने तो कोई लेने पर आज नाजाने मुझे ऐसा क्यों लग रहा था की मेरे दिल का एक टुकड़ा टूट कर चला गया और मैं उसे छह कर भी रोक नहीं पाया| ये मेरी बदकिस्मती ही थी की उस दिन के बाद भौजी का दुबारा कभी शहर आना नहीं हुआ!
 
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पाँचवा अध्याय : खिंचाव


भौजी तो चलीं गईं पर मेरे दिल में आज एक अजीब सा सुनापन था| मैंने आजतक कभी ऐसा कुछ नहीं महसूस किया था, कुछ सोचने के बाद मेरे दिमाग ने इस सूनेपन को 'दोस्त की जुदाई' का नाम दे दिया और दिल ने निर्विरोध ही इस बात को मान लिया था| अगले कुछ दिनों तक मैंने खुद को बहुत कोसा की मेरे गुस्से के कारन मैंने वो हसीन पल बर्बाद कर दिए| अगर मैं नाराज न होता और थोड़ा सब्र से काम लेता तो शायद कुछ हो सकता था, पर नहीं मेरे इस गुस्से ने सब कुछ बर्बाद कर दिया| अब पता नहीं कब भौजी से मुलाक़ात हो? या फिर हो भी नहीं? पर जो होगया था उसे मैं बदल नहीं सकता था, न ही मैं किसी तरह से प्रायश्चित कर सकता था! मैंने निर्णय लिया की आज के बाद मैं कभी इस तरह बेवजह गुस्सा नहीं करूँगा, भौजी से उनके हिस्से की बात अवश्य जानूँगा और फिर कोई फैसला लूँगा| पर एक किशोर का दिमाग निर्णय तो ले लेता है पर हमेशा उस पर अम्ल नहीं कर पाता| ये वो उम्र का पड़ाव होता है जब हमारे जिस्म में बहुत से बदलाव होते हैं और इन्हीं बदलावों में से मैं एक को महसूस कर चूका था| लेकिन मैं इस बदलाव का न तो नाम जनता था न ही इसका कारन जानता था| मुझे उस दिन मेरे जिस्म में उठी तरंग का कारन जानना था पर पूछूँ किस्से? दोस्तों को कुछ बताना मतलब घर की बदनामी, इसलिए मैंने अपने अच्छे दोस्त दिषु से इस बारे में पुछा पर उसे भी मैंने सब सच नहीं कहा बल्कि बात गोल-गोल घुमा कर कही| मैंने उससे कहा की मेरे चाचा का लड़का मुझसे मिलने आया था, उसने एक लड़की को Kiss किया तो उसके जिस्म में बड़ी अजीब सी हरकत हुई| ये सुन कर दिषु बोला; "अबे उसे सेक्स चढ़ रहा था!" इतना कह कर उसने इस एहसास को ये नाम दे दिया और मैंने भी इसी बात को मान लिया की उस दिन मुझे सेक्स चढ़ रहा था| पर सेक्स होता क्या है ये मुझे अब तक नहीं पता था!


खैर कुछ समय लगा और फिर भौजी की याद एक बार फिर पढ़ाई के बोझ तले दब गई| कुछ महीनों बाद अंतिम परीक्षा हुई और मैं उसमें अच्छे नम्बरों से पास हुआ और नौवीं कक्षा में आया| पिताजी बड़े खुश हुए पर उनकी ख़ुशी ज्यादा इस लिए थी की अगले साल मैं दसवीं में जाऊँगा और खानदान का पहला लड़का बोर्ड का पेपर देगा! नया साल शुरू हुआ और स्कूल में कुछ लड़के दूसरे स्कूल से एडमिशन ले कर आये| ये बड़े ही छिछोरे लड़के थे, जब भी कोई अध्यपिका पढ़ा होती तो ये अपने-अपने लिंग पैंट से निकाल लेते और एक दूसरे को दिखा कर अपने लम्बे लिंग की बढ़ाई करते! मुझे ये बड़ा ही घिनोना काम लगता इसलिए मैं हमेशा उनसे दूर रहता, कक्षा में अगर कोई भोला-भाला विद्यार्थी था तो वो मैं था| जब भी कभी अभिभावक शिक्षक बैठक होती तो मेरे अध्यापक यही कहते की मानु बड़ा ही शांत और अच्छे स्वभाव का विद्यार्थी है, ये सुन पिताजी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता|

जैसे ही गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू होने वाली थीं पिताजी ने मुझे बताया की इस बार हम गाँव जायेंगे| ये खबर सुनते ही मेरे चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई! भौजी से मिलने के बारे में सोचते ही मेरे दिल में पटाखे फूटने लगे और मैंने दौड़ कर पिताजी को गले लगा लिया| गाँव जाने की सारी पैकिंग मैंने की और मुझे इतना जोश में देख पिताजी बोल पड़े; "भई क्या बात है, इस बार सारी पैकिंग तू कर रहा है? वर्ण तो तुझे कहते रहो की अपने कपडे दे दे पर तेरे कान पर जूँ नहीं रेंगती थी!" पिताजी की बात सुन मैंने शर्म से सर झुका लिया, तो माँ मेरे बचाव में बोलीं; "अब बड़ा हो गया है, अपनी जिम्मेदारियाँ समझने लगा है!" ये सुन मैं बस मुस्कुरा दिया क्योंकि मेरा दिल जानता था की मुझे भौजी से मिलने की कितनी जल्दी है! गाओं जाने का जोश इतना था की मेरी रक़ातों की नींद हराम थी, रह-रह कर भौजी का वो मुस्कुराता हुआ चेहरा याद आ रहा था| उनकी वो कातिलाना मुस्कान, जिसके लिए मैं कुछ भी कर सकता था| मुझे मेरे द्वारा लिया हुआ निर्णय भी याद था, इस बार मैंने मन बना लिया था की इस बार मैं कोई मूर्खता नहीं दिखाऊँगा, भौजी से नाराज हो के इस स्वर्णिम मौके को बेकार नहीं करूँगा| सारी रात दिमाग में रणनीतियाँ बनाता रहता की मैं ये बोलूंगा, ये कहूँगा, भौजी से ऐसे बात करूँगा, उन्हें ऐसे छुऊँगा!


खेर वो दिन आ ही गए जब हम गावों पहुँचे, हमारी बड़ी आओ-भगत हुई| गावों में जिस को भी पता चला की दिल्ली से सुरेश और उनका परिवार आया है, वो सब हमसे मिलने आये तथा सब लोग हमें घेर के बैठे थे जैसे कोई फ़िल्मी हस्ती आई हो| सभी का ध्यान पिता जी की बातों पर था और मैं तो बस भौजी की एक झलक देखने को तड़प रहा था| तभी बड़की अम्मा गुड और पानी लाईं, पर मेरी नजर तो भौजी को ढूँढ रही थी| मैंने गुड उठाया और मुँह में डाला और जैसे ही पानी का गिलास उठा के पानी का पहला घूट पिया की मुझे भौजी की साडी दिखाई दी| भौजी की साडी भर देखने से मेरे दिल में जैसे गिटार बजने लगा, जैसे-जैसे वो नजदीक आने लगीं मेरे चेहरे पर मुस्कान बढ़ने लगी| उन्होंने सबसे पहले मेरी तररफ देखा और घूँघट के भीतर से एक प्यार भरी मुस्कराहट दी| सूती साडी थी तो मुझे उनके मोतियों से सफ़ेद दाँत दिखाई दे गए| हाय!!!...इसी मुस्कराहट के लिए तो मैं कितने दिनों से तड़प रहा था|

मैंने देखा की उनके हाथ में एक बड़ी सी परात थी और उसमें पानी था, मैं सवालों भरी नज़रों से उन्हें देख रहा था क्योंकि मैं नहीं जानता था की वो ये क्यों ले कर आई हैं? भौजी मेरे पास आई और नीचे झुक कर उन्होंने वो बर्तन ज़मीन पर रखा और और मेरे जूते उतारने लगीं| अब मुझे अपने सवाल का जवाब चाहिए था तो मैंने थोड़ा मजाक करते हुए उनसे पूछा; "भाभी इस बर्तन में पानी है, क्या मुझे नहलाने का इरादा है" ये कहते हुए मैंने हलकी से मुस्कान दी! पिताजी ठीक मेरे पीछे ही बैठे थे, उन्होंने मेरी बात सुन ली और पीछे घूम के देखा और बोले; "नहलाने नहीं इसमें तेरे पैर धोएंगे, जिससे तेरी सारी थकान उतर जाएगी|" ये सुन मैं बड़ी हैरत वाली नज़रों से भाभी की और देखने लगा और अपने पैर भाभी के हाथ से ऐसे छुड़ाय जैसे वो मेरे पैर काटने वालीं हों| मेरे इस अजीब बर्ताव से भाभी हैरान हुई और मेरी और देखने लगीं, इससे पहले की वो कुछ कहती मैं स्वयं बोल पड़ा; "नहीं भाभी मैं आपसे पैर नहीं धुलवाने वाला, आप मुझसे बड़े हो फिर भला मैं आपको अपने पैर कैसे छूने दूँ?" मेरी बात सुन भौजी और वहां मौजूद सब के सब सन्न रह गए|


दरअसल हमारे गाओं में औरतों को बहुत निचला दर्जा दिया जाता है, सामान्य भाषा में कहूँ तो उसे पैर की जूती समझा जाता है| परन्तु मेरा व्यवहार ऐसा नहीं है, काफी हद्द तक मेरे पिताजी की सोच भी ऐसी ही है, शुरू से ही उन्होंने मेरी माँ को दबा कर रखा था| मेरी इस सोच का श्रेय में अपनी माँ को देना चाहूँगा, जिन्होंने मुझे सब के प्रति आदर भाव की शिक्षा दी, कभी किसी से किसी भी तरह का भेद-भाव नहीं करने दिया| खेर वहाँ बैठे सभी मर्द मेरे पिताजी की तारीफ करने लगे की उन्होंने क्या शिक्षा दी है| हालाँकि उनके शब्द और चहरे के भाव एक साथ मेल नहीं खा रहे थे और ये मैं अच्छे से समझने लगा था| वहाँ जितनी औरतें थीं वे सब मेरी माँ के पास बैठीं थी और उनसे मेरी तारीफ कर रहीं थी, ये बात मुझे माँ ने रात्रि भोज के समय बताईं| इधर भौजी मेरी इस बात से बहुत प्रभावित लग रहीं थी और उन्हें मुझ पे गर्व हो रहा था| दोपहर होने को आई थी और अब खाने का समय था| घर के सारे मर्द खाना खाने बैठ गए, आज मैं सालों बाद भौजी के हाथ का खाना खाने जा रहा था| खाने में एक अजब स्वाद था, दिल कहने लगा की बोल दे 'वाह भौजी क्या खाना बनाया है!' पर सब की मौजूदगी में हिम्मत नहीं हुई| जब सब खाना खा चुके थे तब घर की औरतों के खाना खाने की बारी थी| मेरी दोनों नै भाभियाँ भी घर पर थीं, भौजी ने सबसे पहले बड़की अम्मा, फिर माँ तथा नै भाभियों को खाना परोसा और सबसे आखिर में अपने लिए खाना परोस कर बैठ गईं| मैं छप्पर के नीचे पड़ी चारपाई पर चुप-चाप बैठा था और उन्हें प्यार भरी नज़रों से देखते हुए उनके ख्यालों में गुम था| भौजी ने क्योंकि अभी घूंघट हटा रखा था तो मैं उनके चेहरे को बड़े गौर से देख रहा था| उस चेहरे को देखते ही आज दिल में पहली बार कुछ तरंगें उठी थीं! भौजी ने आँख बचा के मुझे अपनी और तकते हुए पकड़ लिया था और एक हलकी सी मुस्कान उनके चेहरे पर छलक आई थी| जब उनका खाना खत्म हुआ तब वो बर्तन उठा कर बहार गईं, और हाथ मुँह धो कर मेरे पास चारपाई पर बैठ गईं| उन्होंने बड़े प्यार से मेरे गाल पर हाथ फेरा और आगे बड़के मेरे गाल को चूमा| फिर मेरी आँखों में देखते हुए पूछा; "खाना कैसा बना था?" मैंने उनके हाथों को पकड़ा और उन्हें चूमते हुए कहा; "भौजी आज खाने में मज़ा आ गया|" ये सुन कर भौजी शर्मा गईं और बोली; "और सुनाओ, क्या हाल है मेरे सबसे छोटे देवर का? पढ़ाई कैसी चल रही है? मुझे भूल तो नहीं गए?"

भौजी के इस अंतिम प्रश्न को सुन से मेरे कान लाल हो गये और मैंने केवल उसी अंतिम प्रश्न का उत्तर दिया; "भौजी आपको कैसे भूल सकता हूँ! आप तो मेरी सबसे प्यारी भौजी हो!" ये सुन के वो थोड़ा मुस्कुरा दीं| इससे पहले की मैं और कुछ कहता उनकी बेटी अर्थात मेरी भतीजी नेहा की रोने की आवाज आई| वो अब डेढ़ साल की हो गई थी, भौजी उसे दूसरी चारपाई से उठा कर मेरे पास लाईं और मेरा उससे एक बार और परिचय कराया; "मुन्नी ये तुम्हारे दिल्ली वाले चाचा हैं!" ये सुन नेहा अपनी छोटी-छोटी आँखों से चुप-चाप मुझे देखने लगी| वो कुछ भी बोलने के लिए बहुत छोटी थी और मुझे देखने के बाद नेहा के चेहरे पर किसी भोले बच्चे जैसी मुस्कराहट आ गई| अब चूँकि वो जाग चुकी थी तो जाहिर था की भौजी उसे दूध पिलायेंगी, इसलिए मैं अब न तो कुछ कह सकता था और न ही कुछ कर सकता था| फिर भी मैंने एक आखरी बार कोशिश करने की सोची और अपना वही पुराना डायलाग मारा; "भौजी मुझे नींद आ रही है|" पर हाय रे मेरी किस्मत भौजी ने मेरे उस संकेत को जैसे नज़र अंदाज़ करते हुए, चारपाई से उठीं और दूसरी चारपाई पर मेरे लिए बिस्तर लगा दिया| पहले तो मन किया की उनसे खुल कर कह दूँ पर फिर मैं मन मसोस के दूसरी चारपाई आर लेट गया, इधर भौजी नेहा को गोद में ले कर पुराने घर चली गईं जहाँ मेरी दोनों भाभियाँ पहले से लेटी हुई बातें कर रही थीं| मेरे मन में उथल-पुथल मचने लगी, भौजी मुझसे भूलने की बात कर रहीं थी पर लग रहा थी की जैसे वो मुझे भूल गईं हो! क्या उन्हें कुछ भी याद नहीं? अपनी इसी उधेड़ बन में मुझे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला| जब आँख खुली तो शाम के करीब पाँच बजे होंगे, मेरे मन में अभी भी उन सवालों का बवंडर उठा हुआ था| मैंने अपनी शंका दूर करने के लिए उनसे बात करना ठीक समझा और उन्हें इशारे से अपनी चारपाई पर बुलाया| भौजी उस टाइम रसोई में चाय बना रही थीं, उन्होंने हाथ के इशारे से कहा की अभी आती हूँ| मैं उठ के भौजी के घर यानी पुराने घर चला गया और आंगन में अकेला बैठ गया| दस मिनट बाद भौजी आईं और मेरी तरफ चाय का गिलास बढ़ा दिया तथा मेरे पास चारपाई पर बैठ गईं| मेरे अंदर इतना सहस नहीं हो रहा था की मैं उनसे ये पूछ सकूँ की उनके दोपहर वाले व्यवहार की वजह क्या थी? पर बिना कुछ पूछे चैन कहाँ आने वाला था सो बड़ी हिम्मत जुटाते हुए उनसे पूछ ही लिया;

मैं: भौजी आप मुझसे नाराज़ हो?

भौजी: "नहीं तो"
मैं : तो जबसे मैं आया हूँ आपने मेरे पास बैठ के कोई बात ही नहीं की?

भौजी : मानु तुम थके हुए थे इसीलिए|

मैं : तो अब तो बात कर सकते हैं, अब तो मैं नींद लेकर बिलकुल तारो-ताज़ा हो चूका हूँ|

भौजी : मानु मुझे अभी खाना बनाना है!

मैं : वो कोई और बना लेगा, आप मेरे पास बैठो नहीं तो मैं आपसे बात नहीं करूँगा| (मैंने गुस्से का दिखावा किया)

भौजी : अच्छा ठीक है मैं तुम्हारी मझली भाभी को कह देती हूँ|


भाभी दो मिनट के लिए कह के गईं और मेरी मझली भाभी को खाना बनाने के लिए कह के मेरे पास लौट आईं|


भौजी : अच्छा तो बोलो क्या बात करनी है ?

मैं : भौजी आप कुछ भूल नहीं रहे हो?

भौजी : (चौंकते हुए) क्या?

मैं : (अपना बायाँ गाल आगे लाते हुआ बोला) भूल गए बचपन में आप मेरे कितने प्यार से गाल काट लिया आते थे|
भौजी ने अपने दोनों हाथों से मेरा मुँह पकड़ा और फिर धीरे-धीरे मेरी और बढ़ीं, और अपने गुलाबी होटों को मेरे गाल पर रख दिया, मुझे ऐसा लगा मानो मेरे शरीर में जैसे करंट दौड़ गया और मेरे रोंगटे खड़े हो गए| फिर उन्होंने धीरे से मेरे गाल को अपने मुँह में भरा और अपने दांतों से प्यार से काटने लगीं| अब मेरे लिंग में कसावट आ चुकी थी और अब वो टाइट हो चूका था, इतना टाइट की उसका उभार अब दिखने वाली हालत में था| मेरे दिमाग ने अब आगे की रणनीतियाँ बना ली थी| फिर जैसे ही उन्होंने मेरे गाल को अपने मुँह की गिरफ्त से छोड़ा मैंने अपना मुँह घुमाके उनकी ओर अपना दायाँ गाल आगे कर दिया| वो मेरा इशारा समझ गईं और मेरे इस गाल पर भी अपने रसीले होठों के द्वारा अपने रस की छाप छोड़ दी| मैं चाहता था की मैं अपने गाल पर पड़े उस रस की छाप का स्वाद लूँ, पर इससे पहले की मैं अपने गालों पर पड़ी उन ओस की बूंदों को छू पाता, भौजी ने अपने हाथ से उन्हें पोंछ के साफ़ कर दिया| उस समय मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योंकि आज मुझे उनके रसीले लबों को चूमना था| इतने महीनों में मैंने अंग्रेजी फिल्मों से Kiss करने का जो ज्ञान बटोरा था आज मुझे उसका इम्तिहान देना था| "भाभी मैं भी आपकी पप्पी लूँ?" मैंने बिना डरे कहा| ये देख भौजी पहले थोड़ा मुस्कुराईं और फिर उन्होंने अपना दायाँ गाल मेरे आगे परोस दिया| उनका वो मुलायम गोरा गाल देख मेरा खुद पर से काबू छूटने लगा था, पर कहीं भौजी को मैं अनादि ना दिखूँ इसलिए मैंने किसी तरह खुद पर काबू पाया और मैंने अपने दहकते होठों को उनके ठन्डे गालों से मिला दिया| अभी मेरे होंठ उनके गाल से स्पर्श हुए थे की मेरा दिल धाड़-धाड़ बजने लगा था| मैंने धीरे से भौजी के गाल को अपने मुँह में भरा और टॉफ़ी की तरह चूसने लगा| मेरे उनका गाल चूसने से भौजी के मुँह से मादक सिसकारी निकली; "स्स्स्स ....!!!!" ये सुन एक पल को तो मैं डर गया पर जब उन्होंने मुझे खुद से अलग नहीं किया तो मेरी हिम्मत और बढ़ गई| अब मैंने उनका मुँह घुमाते हुए दूसरे गाल को भी अपने दहकते होटों की गिरफ्त में ले लिया और उनके ऊपर भी वही मादक अत्याचार करने लगा| पता नहीं भाभी को क्या सूझी उन्होंने अचानक मुझे अपने से अलग करने की कोशिश की, मैंने तुरंत उनका गाल छोड़ दिया और उनकी तरफ सवालिया नज़रों से देखने लगा|

वो एक पल के लिए मुझे देख कर मुस्कुराईं और फिर उन्होंने मुझे गुद-गुदी करना शुरू कर दिया| मैं अपने ऊपर हुए इस अचानक हमले से हैरान था पर मुझे भौजी से कुछ पूछने का अवसर ही नहीं मिला और उनकी की जा रही गुदगुदी के कारन मैं खिल-खिलाके हँसने लगा| अब बारी मेरी थी सो उनकी गुद-गुदी का जवाब देते हुए मैंने भी उनकी बगल में अपनी ऊँगली छुआ दी और वो हँसती हुई लेट गईं| मैंने उन्हें गुद-गुदी करना बंद नहीं किया और वो जोर-जोर से हँसती हुई मेरे हाथ पकड़ने की कोशिश करने लगीं पर मैं कहाँ मानने वाला था! तभी उस कमरे में मझिली भाभी ने प्रवेश किया और वो हमें इस तरह एक दूसरे को गुद-गुदी करते देख हँसने लगीं और वापस रसोई की और चली गईं| इधर मैंने भौजी को गुद-गुदी करते हुए अपनी दाईं टांग उठा के उनकी झांघों पर रख दी| मेरे ऐसा करने से मेरा लंड उनकी जगहों से स्पर्श हुआ और उन्हें मेरे लंड के तनाव का आभास हुआ| खेल-खेल में ही दोनों जिस्मों में आग लग चुकी थी, और हम किसी भी समय अपनी सीमाएं लांघने को तैयार थे| मैंने भौजी को गुद-गुदी करना बंद कर दिया था और अब उनके होंठों को सहलाना शुरू किया, हमें अब कोई भी परेशान करने वाला आस-पास नहीं था और मैं इस स्थिति का फायदा उठाना चाहता था| मैंने धीरे-धीरे आगे बढ़के भौजी के गुलाबी थर-थर्राते होठों पर अपने होंठ रख दिए और उन्हें अपने आगोश में ले लिए| मेरे ऐसा करने से भौजी ने तुरंत मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया, ऐसा लगा मानो भौजी बहुत प्यासी हो और इसी के साथ वो मेरा जमके साथ देने लगीं| उन्होंने सर्वप्रथम मेरे होठों को अपने मुख के अंदर भर लिया और उन्हें चूसने लगीं, इधर मैंने थोड़ी कोशिश की और ठीक उनके ऊपर आ गया और अपने ऊपर वाले होंठ को उनसे छुड़ा लिया और उनके नीचे वाले होंठ को अपने मुँह में दबोच कर उसका रसपान करने लगा| मेरा शरीर बिलकुल तप रहा था और मेरा लंड ठीक उनके योनि के ऊपर अपनी उपस्थिति का आभास करा रहा था| भाभी को भी अपनी योनि पर होने वाले इस हमले का मानो इन्तेजार था| पर मेरा ध्यान अभी सिर्फ और सिर्फ उनके होठों पर था जिन्हें मैंने अभी तक नहीं छोड़ा था, इस चुम्बन में बस कमीं थी तो बस फ्रेंच Kiss की! क्योंकि मैं फ्रेंच किस के बारे में अनविज्ञ था इसलिए मैंने उनके मुँह में अपनी जुबान प्रवेश नहीं कराई थी| भौजी धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहती थी पर मैं इतना उतावला था की सब कुछ अभी करना चाहता था| कोई भी अनुभव न होने के कारन मैंने अभी तक न तो उनकी योनि को स्पर्श किया था और न ही उनके उरोजों को| भौजी इन्तेजार कर रहीं थी की कब मैं उनके बदन के बाकी अंगों को स्पर्श करूँगा, पर मेरा ध्यान तो उनके होठों से हट ही नहीं रहा था!


पर जैसा की मैंने पहले कहा, उन दिनों मेरी किस्मत मुझ पर ज्यादा मेहरबान नहीं थी| वो मुझे भौजी के पास तो ले जाती पर जैसे ही मैं ज्यादा नजदीक जाने की कोशिश करता किस्मत मुझे वापस उनसे दूर कर देती| और ठीक वही उस समय हुआ......


अचानक भौजी को किसी के आने की आहट सुनाई दी और उन्होंने जोर लगा के मुझे अपने से अलग कर दिया| भौजी मुझसे अलग हो अपने कपडे ठीक करने लगीं और इधर मैं हैरानी से अपने साथ हो रहे इस अत्याचार के लिए उन्हें दोषी मान रहा था| इससे पहले की मैं उनसे इस अत्याचार का कारण पूछता मेरे कानों में गट्टू की आवाज पड़ी| भौजी सामने पड़ी चारपाई पर बैठ गई और गट्टू मेरे पास आके बैठ गया और मेरा हाल-चाल पूछने लगा| मेरा मन किया की उसे जी भर के गालियाँ दूँ पर पिताजी के शिष्टाचार ने मेरे मुँह पर ताला लगा दिया| मैंने ताने मारते हुए उसे बस इतना ही कहा; "आपको भी अभी आना था!!!"

गट्टू: काहे?

मैं: कुछ नहीं (मैंने बात को खत्म करते हुए कहा|)

गट्टू: और बताओ का हाल-चाल हैं दिल्ली के?

और इस तरह उसने सवालों का टोकरा नीचे पटका, मैं उसके सवालों का जवाब बेमन से देने लगा| दिल्ली के हाल-चाल तो ऐसे पूछ रहा था जैसे इसे बड़ी चिंता है दिल्ली की| मैंने आँखें चुराके भौजी की तरफ देखा तो उनके चेहरे पर उदासी साफ़ दिख रही थी, वो उठीं और बहार चलीं गई| मुझे इतना गुस्सा आया की पूछो मत| पर मन में एक आशा की किरण थी की आज नहीं तो कल सही| कल तो मैं भाभी के बहुत प्यार करूँगा और आज की रही-सही सारी कसर पूरी कर दूँगा|


पर हाय रे मेरी किस्मत!!! एक बार फिर मुझे धोका दे गई! अगले दिन सुबह भौजी का भाई उन्हें मायके लेजाने आया था क्योंकि उनके मायके में हवन था| सच मानो मेरे दिल पे जैसे लाखों छुरियाँ चल गईं, आँखों में जैसे खून उत्तर आया| मन किया की भौजी को ले कर कहीं भाग जाऊँ| पर समाजिक नियमों से जकड़ा होने के कारण में कुछ नहीं कर पाया| जो एक रौशनी की किरण मेरे दिल मैं बची थी उसे किसी तूफ़ान ने बुझा दिया था| मुझे तो इतना समय भी नहीं मिला की मैं उन्हें एक गुडबाय Kiss दे सकूँ या काम से काम इतना ही पूछ सकूँ की आप कब लौटोगी| मैं बेबस खड़ा उन्हें जाते हुए देखता रहा, पर दिल में कहीं न कहीं आस थी की भौजी जल्दी आ जाएंगी| उनके जाने के बाद मुझे ऐसा लगने लगा की जैसे मैं इसी आस के सहारे जिंदा हूँ| दिन बीतते गए पर वो नहीं आईं, मेरी जिंदगी बिलकुल नीरस सी हो गई थी| मैं किसी से बात नहीं करता था बस घर में चारपाई पर लेटा रहता था| मेरा मन ये नहीं समझ पा रहा था की इसमें गलती किसकी है? मैंने तो इस बार कोई बेवकूफी नहीं की! भौजी को जाना ही था तो ठीक है पर कम से कम वो जल्दी आ जातीं| वो अच्छी तरह से जानती थीं की उनके अलावा मैं किसी से बात नहीं करता, पर उन्होंने तो वापस नहीं आने की जैसे कसम खा ली थी| ये सब सोचते हुए दिमाग ने भौजी को दोषी करार दे दिया था| मेरे ये भाव ज्यादा दिन मेरी माँ से नहीं छुप पाये, उन्होंने मेरी उदासी का कारण भाँप लिया था| माँ ने पिताजी से दोपहर को बात की; "देखिये लड़के का मन अब यहाँ नहीं लग रहा, सारा दिन बस चारपाई पर लेटा रहता है| न कहीं खेलने जाता है ना ही घूमने, एक उसकी बड़ी भौजी ही थी जिसके साथ वो सारा-सारा दिन बातें करता था और अब वो नहीं है तो बस उदास लेटा रहता है| इसलिए मैं सोच रही थी की वापस ही चलते हैं?" ये सुन पिताजी बोले; "रुको मैं बात करता हूँ उससे!" और फिर पिताजी मुझसे बात करने बड़े घर के आंगन आये जहाँ मैं चारपाई पर लेटा हुआ आसमान में देख रहा था|

पिताजी: हाँ भाई लाड-साहब क्या बात है?

मैं : जी? कुछ भी तो नहीं! (मैंने चौंकते हुए कहा|)

पिताजी: कुछ नहीं है तो सारा दिन यहाँ पलंग क्यों तोड़ता रहता है?| जाके अपनी नई भाभियों से बात कर, बच्चों के साथ खेल| (पिताजी थोड़ा डाँटते हुए बोले|)

मैं : नहीं पिताजी अब मन नहीं लगता यहाँ, ऊब गया हूँ, वापस दिल्ली चलते हैं! (मैंने बात बनाते हुए कहा|)

पिताजी: मैं जानता हूँ तू अपनी बड़ी भौजी को याद कर रहा है| बेटा उनके घर में हवन है इसलिए वो अपने मायके गई है, जल्द ही आ जाएगी| (पिताजी ने थोड़ा समझाते हुए कहा|)

मैं: नहीं पिताजी मुझे वापस जाना है, और रही बात भौजी की तो मैं उनसे कभी बात नहीं करूँगा| (मैंने अपना गुस्सा जाहिर करते हुए कहा|)

पिताजी: (गरजते हुए) क्यों? क्या वो अपने मायके नहीं जा सकती, क्योंकि लाड-साहब के पास टाइम पास करने के लिए और कोई नहीं है|


मैंने पिताजी की बात का कोई जवाब नहीं दिया और सर सर झुका कर बैठ गया| वे गुस्से में बहार निकल गए और बड़के दादा को सारी बात बता दी, मेरे बड़के दादा और बड़की अम्मा मुझे समझाने आये:

बड़के दादा: अरे मुन्ना कउनो बात नहीं, अगर तोहार बड़की भौजी नाई हैं तो का? हुआ हम सब तो हैं!

बड़की अम्मा: मुन्ना हमरी बात सुनो, तोहार एकै भौजी थोड़े ही है? ई जो दो नई-नई आईं हैं उनसे भी बतुआओ...तनी हंसी-ठिठोली करा!

मैं: (बात घुमाते हुए)… अम्मा बात ये है की स्कूल से गर्मियों की छुटियों का काम मिला है, वो भी तो पूरा करना है|

ये सुन माँ ने मेरा पक्ष लेते हुए कहा: "हाँ, अब केवल एक महीने ही रह गया है इसकी छुटियाँ खत्म होने में|"


स्कूल की बात सुनके अब पिताजी के पास बहस करने के लिए कुछ नहीं था इसलिए उन्होंने फैसला सुनाते हुए कहा; "ठीक है हम कल ही निकलेंगे, ट्रैन की टिकट तो इतनी जल्दी मिलेगी नहीं इसलिए बस से जायंगे|" उनके इस फैसले से मेरे बेकरार मन को चैन नहीं मिला क्योंकि दिल को अब भी लग रहा था की शाम तक शायद भौजी अपने मायके से जर्रूर लौट आएँगी और तब मैं पिताजी को फिर से मना लूँगा| पर रात होने को आई थी और अब तक भौजी नहीं आई थीं| मैंने फिर एक आखरी उम्मीद की, कि कल सुबह-सुबह भौजी आ जाएँ| रात्रि भोज के बाद सोते समय मैं फिर से भौजी की यादों में डूब गया और मन ही मन ये प्रार्थना कर रहा था की भौजी कल सुबह-सुबह लौटआएं| सुबह हुई पर भौजी नहीं आई पर चन्दर भैया को ना जाने क्या सूझी उन्होंने भौजी के मायके ये खबर पहुँचा दी की मानु थोड़ी देर में शहर वापस जा रहा है| भौजी ने फ़ौरन कहला भेजा की वो हमें रास्ते में मिलेंगी| जब मुझे इस बात का पता चला तो मेरे तन बदन में न जाने क्यों आग लग गई| मैंने पिताजी से कहा; "पिताजी हम रास्ते में कहीं नहीं रुकेंगे, सीधा बस अड्डे जायेंगे|" पिताजी मेरी नाराजगी समझ गए और उन्होंने मुझे समझते हुए कहा; “बेटा, इतनी नाराजगी ठीक नहीं और तेरी भौजी का मायका बिलकुल रास्ते में पड़ता है अब हम घूमके तो जा नहीं सकते| अब उसी रस्ते से जाएँ और उनके घर नहीं रुकेंगे तो अच्छे थोड़े ही लगेगा?" अब मरते क्या न करते, पिताजी ने रिक्शा किया और मैंने सारा सामान रिक्शा पे लाद दिया| सबसे विदा ले कर हम चल दिए, पर मैंने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया की चाहे कुछ भी हो जाए मैं रिक्शा से नहीं उतरूँगा| भौजी का मायका आ गया था और में तिरछी नज़र से भाभी को दरवाजे पे खड़ा देख रहा था| रिक्शा रुकते ही भौजी मेरे पास आईं, उनके हाथ में एक लोटा था जिसमें गुड की लस्सी थी जो वो मेरे लिए लाइ थीं, क्योंकि उन्हें पता था की मुझे लस्सी बहुत पसंद है| माँ ने मुझे कोहनी मारते हुए रिक्शा से उतरने का इशारा किया पर मैं अपनी अकड़ी हुई गर्दन ले कर रिक्शा से नीचे नहीं उतरा| मेरा गुस्सा भौजी और मेरे बीच में आग की दिवार के रूप में दहक रहा था| भौजी ने पहले पिताजी और माँ के पाँव छुए और माँ ने उन्हें मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा; "मानु बहुत नाराज है तुमसे इसीलिए रिक्क्षे से नहीं उतर रहा, जाओ उसे लस्सी दो तो शांत हो जायेगा!" मैं ये सब तिरछी नज़रों से देख रहा था, उधर माँ और पिताजी भौजी के मायके वालों से मिलने लगे| मैं अनजान लोगों से ज्यादा घुलने मिलने की कोशिश नहीं करता, यही मेरा सौभाव था और चूँकि मैं अब किशोरावस्था में था इसलिए पिताजी मुझपे इतना दबाव नहीं डालते थे|


भौजी ने अपना घूंघट हटाया और अपनी कटीली मुस्कान लिए हुए मेरी और बढ़ने लगीं| वो मेरे पास आइ और मेरी कलाई को पकड़ा और बोलीं; “मानु ….मुझसे नाराज हो?” मैंने फ़ौरन उनका हाथ झिड़कते हुए अपना हाथ उनसे छुड़ा लिया| "मुझसे बात भी नहीं करोगे?" भौजी बोलीं, पर मैं चुप रहा|

वो परेशान हो मेरी तरफ देखने लगीं, फिर भौजी ने एक बार और हिम्मत कर के मेरा हाथ पकड़ लिया और लस्सी वाला लोटा मेरी बगल में रख दिया| इस बार उनके स्पर्श में वही कठोरता थी जो मेरे हाथ में कुछ साल पहले थी जब वो दिल्ली आई थीं, तब मैं उन्हें जाने नहीं देना चाहता था और आज वो मुझे जाने नहीं देना चाहती थीं| मुझे ऐसा लगा जैसे वो मुझे रोक कर मुझसे माफ़ी माँगना चाहती हो, परन्तु गुस्से की अग्नि ने मेरे दिल को जला रखा था| मेरी आँख में अचानक आँसूँ छलक आये और मैंने दूसरी तरफ मुँह मोड़ लिया क्योंकि मैं भौजी को केवल अपनी कठोरता दिखाना चाहता था न की अपने अश्रु! मैं चाहता था की उन्हें एहसास हो की जो उन्होंने मेरे साथ किया वो कितना गलत था और उन्हें ये भी महसूस कराना चाहता था की मुझे पे क्या बीती थी| पर मेरे आंसुओं ने मेरे ही खिलाफ बगावत कर दी और वो छलक के सीधा भौजी के हाथ पे गिरे| उन्हें ये समझते देर न लगी की मेरी मनो दशा क्या थी| उन्होंने मेरी ठुड्डी पकड़ी और अपनी ओर घुमाई, मैंने फ़ौरन अपनी आँख बंद कर ली पर भौजी ने मेरे मुख पर बानी आसुओं कि लकीर देख ली थी| उन्होंने अपने हाथ से मेरे आँसु पोछे, इधर मेरा गला बिलकुल सुख चूका था और मेरे मुख से बोल नहीं फूट रहे थे| जब मैंने आँख खोली तो देखा की भाभी मेरी और बड़े प्यार से देख रही हैं; "अच्छा बात नहीं करनी है ना सही! पर कम से कम मेरे हाथ की बनी लस्सी तो पी लो?!" पर मेरे अंदर का गुस्सा अभी भी शांत नहीं हुआ था, मैंने ना में सर हिलाते हुए उनके लस्सी के गिलास को अपने से दूर कर दिया| “मानु मेरी बात तो.......” इतना कहते हुए भौजी रुक गयीं| मैंने पलट के देखा तो माँ और पिताजी रिक्क्षे के करीब आ चुके थे| भौजी ने तुरंत घुंगट काढ़ लिया, पिताजी ने भौजी के हाथ में लस्सी वाला लोटा देख बोले;

पिताजी: क्या हुआ बहु, अभी तक गुस्सा है?

भौजी: हाँ चाचा, देखो ना लस्सी भी नहीं पी रहा|

पिताजी: अब छोड़ भी दे गुस्सा और चल जल्दी से लस्सी पी ले देर हो रही है|

मैं जानता था की अगर मैंने कुछ बोलने की कोशिश की तो मेरी आँख से गंगा-जमुना बहने लगेगी और मैं भौजी के सामने कमजोर साबित हूँगा, इसलिए मैंने केवल ना में सर हिला दिया| पिताजी को ना सुनने की आदत नहीं थी और वो भी इस नाजायज गुस्से की, इसलिए वो आग बबूला हो गए और बोले;

पिताजी: रहने दो बहु, लाड़-साहब के नखरे बहुत हैं| बड़ी अकड़ आ गई है तेरी गर्दन में, घर चल सारी अकड़ निकालता हूँ|

माँ ने बात को खत्म करने के लिए भौजी के हाथ से लोटा लेते हुए कहा; "लाओ मैं ही पी लूँ| हम्म्म.... बहुत मीठा है|" माँ ने मुझे ललचाते हुए कहा, पर मेरे कान पर जूँ तक ना रेंगी| पिताजी ने पेड़ के नीचे खड़े तम्बाकू खाते हुए रिक्क्षे वाले को चलने के लिए आवाज लगाई| रिक्शा चल पड़ा और भौजी की नजरें घूंघट के भीतर से रिक्क्षे का पीछा कर ने लगीं, इस उम्मीद में की शायद मैं उन्हें एक आखरी बार देखूँ| पर मैं सर झुकाये हुए कनखी नजरों से उन्हें पीछे छूटता हुआ देखता रहा|


खेर हम घर लौट आये और मैं अपने ऊपर हुए इस अन्याय से कुछ दिन तक बहुत विचलित था, मुझे इस वाक्या को कैसे भी भूलना था इसलिए मैंने पढ़ाई में अपना ध्यान लगाना चालु कर दिया|
 
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छटा अध्याय : इजहार!


पढ़ाई का दबाव मुझ पर बहुत बढ़ने लगा था, सिवाए दिषु के स्कूल में मेरा कोई ख़ास दोस्त नहीं था| पिताजी भी अब मुझे कम ही समय देते थे और मैं थोड़ा अकेला महसूस करने लगा था| कभी-कभार क्रिकेट खेलने को मिलता तो खेल लेता वरना हमेशा किताबों में घुसा रहता| धीरे-धीरे मैं गाँव की सब बातें भूल गया, स्कूल के छिछोरे दोस्तों और दिषु के कारन मेरा परिचय हस्तमैथुन से हुआ| कक्षा के अंदर कई बार छिछोरे लड़के आखरी बेंच पर बैठी हस्तमैथुन करते, ना चाहते हुए भी एक-दो बार मैंने ये होते हुए देखा| एक बार मैं घर पर अकेला था तो मैंने भी हस्तमैथुन करने कि सोची और इस तरह से मैं हस्थमैथुन की कला सिख गया| स्खलित होने के बाद दिमाग जैसे तारो-ताजा हो जाया करता था, इसलिए जब भी मेरा दिमाग पढ़ाई के कारन टेंशन से घिर जाता तो हस्तमैथुन मेरा स्ट्रेस-बस्टर साबित होता| फिर जब घर में डी.वी.डी प्लेयर आया तो दोस्तों से ब्लू फिल्म के जुगाड़ में लग गया और जब भी मौका मिलता उन फिल्मों को देखता और हाटसमैथुन करता| इन्हीं ब्लू फिल्मों के कारन अब मैं सेक्स के बारे में सब जान चूका था और किसी किशोर की तरह कैसे ना कैसे करके किसी भी नौजवान लड़की को भोगना चाहता था| पर दिक्कत ये थी की किसी लड़की से कैसे कहूँगा की मुझे क्या चाहिए? साफ़-साफ़ तो कह नहीं सकते, वरना बदनामी होना तय है! बड़ी अजीब सी कश्मकश थी, बन्दूक चलाना तो आ गया था पर निशाना लगाने के लिए कोई टारगेट नहीं था!


खेर दसवीं की बोर्ड की परीक्षा सर पर पड़ीं और मैंने उन दिनों हस्तमैथुन बंद कर दिया, मैंने बड़ा मन लगा कर बोर्ड कि परीक्षा दी और अच्छे नम्बरों से पास भी हुआ| पिताजी बहुत खुश हुए और उन्होंने मेरे सामने अगला पड़ाव बारहवीं के बोर्ड की परीक्षा को रख दिया| ग्यारहवीं में मैंने कॉमर्स लिया हालांकि मेरा मन था साइंस लेने का पर बाद में पता चला की अच्छा हुआ की मैंने साइंस नहीं ली वरना फिर सारा साल वो मेरी लेती रहती!

नया साल, नई किताबें और नए विषय! एकाउंटेंसी एक ऐसा विषय जिससे मैं शुरू में बहुत डरा पर धीरे-धीरे मैंने उस पर विजय प्राप्त कर ली| कक्षा में अगर किसी के एकाउंटेंसी में सबसे ज्यादा नंबर आते थे तो वो था मैं, एकाउंट्स की अध्यपिका पिताजी से मेरी प्रशंसा करती नहीं थकती थीं| इस कारन अब मुझ में नया आत्मविश्वास पैदा हो चूका था| हमेशा सर झुका कर रहने वाला मानु अब गर्व से अपनी गर्दन उठा कर घूमता था| शिष्टाचार पूरे थे पर कुछ गलत सहना मैंने बंद कर दिया था| मैंने बचपन से माँ को हमेशा दबे हुए देखा था इसलिए मैंने अब उनका पक्ष लेना शुरू कर दिया था| पिताजी की गैरमौजूदगी में मैं माँ को बाहर ले जाने लगा, उनका कहा कोई भी काम मैं मना नहीं करता था|


इधर मुझे गाँव गए हुए दो साल होने को आये थे, मैंने गाँव से मुँह मोड़ लिया था| जब मैं दसवीं में था तब पिताजी ने कहा भी था की गाँव चलते हैं पर मैंने पढ़ाई का बहाना बना दिया| गाँव जा कर मैं करता भी क्या? अब था ही कौन वहां मेरा? जिसे अपना सबसे अच्छा दोस्त माना, उन्हें तो मुझसे ज्यादा घर के हवं में सम्मिलित होने की आग लगी थी! 4-5 दिन बाद भी अगर वो वापस आ जातीं तो मैं इतना नाराज नहीं होता, पर उन्होंने तो अपने घर जा कर डेरा डाल लिया था| खेर समय का पहिया बहुत तेजी से घुमा और अब मेरे सर पर ग्यारहवीं की परीक्षा थी| फरवरी का महीना था और परीक्षा में केवल एक महीना ही शेष था, स्कूल की छुटियाँ चालु थीं| अचानक वो हुआ जिसकी मैं कभी कामना ही नहीं की थी| सुबह का समय था और मैं अपने कमरे में पढ़ रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई| माँ ने मुझे दरवाजा खोलने को बोला, मैं हाथ में किताब लिए दरवाजे के पास पहुँचा, मुझे लगा की पिताजी होंगे इसलिए मैंने बिना देखे की कौन आया है दरवाजा खोल दिया और वापस अपने कमरे में जाने के लिए मुड़ गया| पर तभी मेरे कान में एक मधुर आवाज पड़ी; "मानु....?!"

ये आवाज मुझे जानी-पहचानी लगी, मैं पीछे घुमा तो देखा लाल साडी में भौजी खड़ी हैं और उनके साथ नेहा जो की अब बड़ी हो चुकी थी, वो भी खड़ी मुस्कुरा रही है| भौजी के चेहरे पर वही प्यारी मुस्कान, आँखों में काजल, गुलाबी होठों और सर पर पल्लू, उन्हें इस तरह देख मेरा मुँह खुला का खुला रह गया! अपने आपको सँभालते हुए मैंने भौजी को अंदर आने को कहा| इतने में माँ भी भौजी की आवाज सुन अपने कमरे से निकल आईं| भौजी ने उनके पैर छुए और माँ ने उन्हें आशीर्वाद दिया| मैंने कभी भी सोचा ही नहीं था की भौजी ढाई साल बाद अकेली आएँगी, लगता है आज मेरी किस्मत मुझपे कुछ ज्यादा ही मेहरबान थी| माँ ने उन्हें अपने कमरे में बैठने को बोला, मैं जानबूझ कर अपने कमरे में आ कर बैठ गया था| मेरे दिल में अचानक ही उथल-पुथल शुरू हो गई थी, मैं अभी इस उथल-पुथल को सुलझाने लगा था की माँ ने मुझे भौजी के पास जाने को कहा ताकि वो अकेला न महसूस करें| मैं भारी कदमों से कमरे में दाखिल हुआ तो देखा भौजी पलंग पर बैठी थी और उनकी बेटी नेहा टी.वी की ओर इशारा कर उनसे कुछ पूछ रही थी| मैंने बिना कुछ कहे टी.वी चालु कर दिया और कार्टून लगा दिया, नेहा बड़े चाव से टी.वी के नजदीक फर्श पर बैठ देखने लगी| फर्श ठंडा था तो मैंने उसे गोद में उठाया और उसे कुर्सी पर बिठा दिया| नेहा मुझे देख कर मुस्कुराई पर बोली कुछ नहीं| फिर मैंने डरते हुए भौजी की तरफ देखा तो पाया की उनकी नज़र कब से मुझपे टिकी हुई थी, मेरे मन में उथल-पुथल मचनी शुरू हो गई थी| दिमाग दो साल पहले हुए उस पल को फिर से याद दिल रहा था और रह-रह के वो दबा हुआ गुस्सा फिर से चहरे पर आने को बेताब था| मैं चाहता था की भौजी को पकड़ कर उनसे पूछूँ की आपने मेरे साथ उस दिन धोका क्यों किया था, पर हिम्मत नहीं हुई!

कमरे में सन्नाटा था केवल टी.वी की आवाज आ रही थी की तभी माँ हाथ में कोका कोला और गिलास लिए अंदर आई| भौजी झट से उठ खड़ी हुई और माँ के हाथ से ट्रे ले ली; "चाची आपने तकलीफ क्यों की मुझे बुला लिया होता?!"

"अरे बेटा तकलीफ कैसी आज तुम इतने दिनों बाद हमारे घर आई हो| और बताओ घर में सब ठीक ठाक तो है???" माँ बोली और इस तरह दोनों महिलाओं की गप्पें शुरू हो गई| मैं दरवाजे के पास खड़ा हुआ अपने दिमाग को टी.वी. में लगाना चाहता था पर दिल उन हसीन पलों को याद कर खुश हो रहा था, जो मैंने भौजी के साथ बिताये थे! उन पलों को याद कर के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं और मन बेकाबू होने लगा पर पता नहीं क्यों हिम्मत नहीं हुई भौजी से बात करने की| एक अजीब सी शक्ति मुझे भौजी के पास जाने से रोक रही थी| एक हिचक थी, मानो वो मेरे लिए कोई अनजान शख्स हों| परन्तु अब मेरा कौमार्य दिमाग चल पड़ा था और अब वो मेरे दिमाग पर हावी होना चाहता था| ब्लू फिल्म वाले सीन अचानक मेरे दिमाग पर हावी होने लगे थे, पर दिमाग ने तर्क देते हुए कह रहा था की बेटा तेरी किस्मत हमेशा ऐन वक्त पे धोका देती है| जब गावों में जहाँ की इतनी खुली जगह है वहाँ पर कुछ नहीं हो पाया तो ये तो तेरा अपना घर है जिसमें केवल तीन कमरे और एक छत हैं| पर कौमार्य कह रहा था की एक कोशिश तो बनती है पर करें क्या?

इधर मैं ये सब सोच रहा था और उधर माँ भौजी से पूछ रही थी;


माँ: बेटा तुम अकेली क्यों आई हो? चन्दर नहीं आय तुम्हारे साथ?

भौजी: चाची नेहा के पापा साथ तो आये थे पर बाहर गावों के मनोहर काका का लड़का मिला था वो उन्हें अपने साथ ले गया और वो मुझे बहार छोड़के उसके साथ चले गए|

माँ: बेटा अच्छा तुम बैठो मैं खाना बनाती हूँ|

भाभी : अरे चाची मेरे होते हुए आप क्यों खाना बनाओगी?

माँ: नहीं बेटा, तुम इतने सालों बाद आई हो, अब तुमसे काम करवाऊँगी तो मानु मुझसे लड़ेगा की मेहमान से काम करवाते हो!


इतना कह माँ हँसते हुए रसोई में चली गई, माँ ने ये बात मुझसे छेड़ने के लिए कही थी| शायद इन दो सालों में वो मेरे गुस्से का कारन समझ गई थीं| भौजी ने आगे जान कर कुछ नहीं कहा और मेरी तरफ देखने लगीं, फिर उन्होंने मुझे इशारे से अपने पास बैठने को बुलाया| मैं उनके पास जाने से डर रहा था क्योंकि शायद अब मैं एक बार फिर अपना दिल टूटते हुए नहीं देखना चाहता था| पर मेरे पैर मेरे दिमाग के एकदम विपरीत सोच रहे थे और अपने आप भौजी की ओर बढ़ने लगे थे| मैं उनके सामने पलंग पर बैठ गया और सरझुका लिया| भौजी ने बड़े प्यार से अपने हाथों से मेरा चेहरा ऊपर उठाया, जैसे की कोई दूल्हा अपनी दुल्हन का सुन्दर मुखड़ा सुहागरात पे अपने हाथ से उठता है| मेरे चेहरे पर सवाल थे और भौजी मेरा चेहरा पढ़ चुकी थी| "मानु अब भी मुझसे नाराज हो?" उनके मुँह से ये सवाल सुन मैं भावुक हो उठा और टूट पड़ा| मेरी आँखों से आसूँ छलक आये, भौजी ने बिना कुछ कहे मुझे अपने सीने से चिपका लिया| उनके शरीर की उस गर्मी ने मुझे पिघला दिया और मेरे आँसू भौजी के कन्धों पर गिर उनके ब्लॉउस को भिगोने लगे| मैं फुट-फुट के रोने लगा और मेरी आवाज सुन भौजी भी अपने आपको रोक नहीं पाईं और वो भी सुबक उठीं और उनके आँसू मुझे मेरी टी-शर्ट पे महसूस होने लगे| मुझे ऐसा लगा जैसे एक अरसे बाद एक गर्म रेगिस्तान पर भरिश की बूंदें पड़ीं हों| ऐसा लगा जैसे आज बरसो बाद मेरा एक हिस्सा जो कहीं गुम हो गया था उसने आज मुझे पूरा कर दिया|

भौजी ने मुझे अपने से अलग किया और अपने हाथ से मेरे आसूँ पोछे, मैंने भी अपने हाथ से उनके आसूँ पोछने लगा| नेहा जो अब बड़ी हो चुकी थी और कुछ ही देर पहले जिसने हम दोनों का रोना सुना था अब अपनी सवालिया नज़रों से हमें देख रही थी| भौजी ने उसे अपने पास बुलाया और अपनी सफाई देते हुए कहा; "बेटा चाचा मुझे और तेरे पापा को बड़ा प्यार करते हैं, इसलिए आज जब इतने साल बाद मिलें तो चाचा को रोना आगया|" ये सुन नेहा पलंग पर चढ़ खड़ी हो गई और मेरे गाल पर एक पापी दी, फिर मेरे गाल पकड़ कर छोटे बच्चे की तरह हिलाने लगी| उसकी इस बचकानी हरकत पर मुझे हँसी आ गई| नेहा वापस टी.वी देखने में मशगूल हो गई और मुझे हँसता देख भाभी बोल पड़ी; "सच मानु तुम्हारी इस मुस्कान के लिए मैं तो तरस गई थी|" उनकी बात सुन मुझे याद आया की मुझे मेरे सवालों का जवाब चाहिए था|

मैं: भाभी मुझे आपसे कुछ बात करनी है|

भाभी: पहले ये बताओ की क्या तुम अब मुझसे प्यार नहीं करते?

मैं: क्यों?

भाभी: तुम तो मुझे भौजी कहते थे ना?

मैं: हाँ...पर मैं भूल गया था|

भाभी: समझी, किसी लड़की का चक्कर है? (भौजी ने थोड़ा चिंतित होते हुए कहा|)

मैं: नहीं!

भाभी: तो मुझे भूल गए?

मैं: नहीं ... भाभी पहले आप मेरे साथ छत पे चलो मुझे आपसे कुछ बात करनी है|

भाभी: फिर भाभी? जाओ मैं नहीं आती| (उन्होंने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा|)

मैं: (अपनी आवाज में कड़ा पन लाते हुए) भाभी मुझे आपसे बहुत जर्रुरी बात करनी है|

ये कहते हुए मैंने उनका हाथ कस कर पकड़ा और उन्हें पलंग पर से खींच दरवाजे की ओर जाने लगा| भाभी मेरे इस बर्ताव से हैरान थी पर फिर भी मेरे पीछे-पीछे चल दीं| हम बैठक में पहुँचे तो देखा माँ रसोई में नहीं थीं| वो बाहर खड़ीं सामने वाली भाभी से बात कर रहीं थीं; "माँ मैं भाभी को छत दिखा के लाता हूँ|" मैंने कहा तो माँ ने हाँ में सर हिलाया और मुझे छत पर जाने की आज्ञा दीं| चूँकि मैंने अब भी भौजी का हाथ पकड़ा हुआ था इसलिए पड़ोस वाली भाभी मुझे बड़े गोर से देख रहीं थी|


भाभी और मैं फटाफट सीढ़ी चढ़ते हुए छत पर पहुँचे, मैंने भौजी का हाथ छोड़ा और एक लम्बी साँस ली फिर भौजी की ओर गुस्से भरी नज़रों से देखते हुए अपना सवाल दागा; "भाभी आपने पूछा था की मैंने आपको भौजी क्यों नहीं कहा? तो मेरे सवाल का जवाब दो, क्यों आप मुझे छोड़के इतने दिनों तक अपने मायके रुकीं रही? आपको मेरा जरा भी ख्याल नहीं आया? आप जानते थे ना गाँव मैं सिर्फ आपके लिए आया था, आपसे मिलने, आपसे बात करने वरना वहाँ कौन सा मेरा कोई दोस्त था? 15 दिन तक अपने मायके में क्या कर रहे थे आप? वहाँ अपने रिश्तेदारों में मुझे भूल गए थे ना? भला उनके आगे मेरा क्या महत्त्व? वो आपके सगे हैं, मैं तो बस आपका देवर हूँ यही सोच कर वहाँ रुक गए थे ना?” ये सब कहने में मुझे बहुत ताक़त लगी थी और मेरी आँखें फिर से भर आईं थी| अब बस मन उनका जवाब सुनने को तड़प रहा था|


भौजी की आँखों में आँसू छलक आय और उन्होंने रोते हुए मेरे सभी सवालों का बस एक जवाब दिया; "मानु तुम मुझे गलत समझ रहे हो, मैंने कभी भी तुम्हें अपने दिल की बात नहीं बताई|" इतना कह कर भौजी रुक गईं और मेरी आँखों में देखते हुए बोलीं; "मैं तुम से प्यार करती हूँ|"


भौजी के मुँह से ये सुन के मैं सन्न रह गया! मुझे अपने कानों पे विश्वास नहीं हुआ, मैं अचरज भरी नजरों से भौजी को देखने लगा| पर भौजी की बात अभी पूरी नहीं हुई थी; "उस दिन जब तुम और मैं खेलते-खेलते इतना नजदीक आ गए थे.....मैं तुम्हें अपनी दिल की बात उसी दिन कह देती पर....तुम्हारा भाई आगया| शायद हमें उतना नजदीक नहीं आना चाहिए था| तुम्हें अंदाजा भी नहीं है की मुझपे क्या बीती उस रात! मैं सारी रात नहीं सोई ओर बस हमारे रिश्ते के बारे में सोचती रही| मुझे मजबूरन अगले दिन अपने मायके जाना पड़ा और यकीन मानो मैंने तुमसे मिलने की जी तोड़ कोशिश की पर तुम्हें तो पता ही है की गाओं में पूजा-पाठ, रस्मों में कितना समय निकल जाता है| अब तुम बताओ मैं वहाँ से क्या कह के आती? की मुझे अपने देवर के पास जाना है! ये सुन कर लोग क्या कहते? और मुझे अपनी कोई फ़िक्र नहीं, फ़िक्र है तो बस तुम्हारी! तुम मेरे देवर हो पर नजाने क्यों मैंने तुम्हें कभी अपना देवर नहीं माना....अब तुम्हीं बताओ इस रिश्ते को मैं क्या नाम दूँ?" भौजी के इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था| जवाब था तो बस ये की मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया था| मैं भौजी के सामने घुटनों पर बैठ गया; "भौजी मुझे माफ़ कर दो मैंने आपको गलत समझा| मुझे उस समय ये नहीं पता था की दुनियादारी भी एक चीज है, और सच मानो तो मैं खुद आपके और मेरे रिश्ते को केवल एक दोस्ती का रिश्ता ही मानता हूँ| अब मेरे सबसे करीबी दोस्त हो, ऐसा दोस्त जिसके ना होने पर मुझे बहुत दुःख होता है और जब आँखों के पास होता है तो दिल जोरों से धड़कनें लगता है| मुझे बिलकुल नहीं पता था की आप मुझसे सच्चा प्यार करते हो!" मेरी बात सुन भौजी को एक अजीब सा डर लगा जो उनके चेहरे से साफ़ झलक रहा था| भौजी ने भरी हुई आँखों से कहा;

भौजी: मानु क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करते? दोस्ती वाला प्यार नहीं, सच्चा प्यार?

मैं: भौजी मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा, मैं तो केवल आपको अपना दोस्त समझता था|

मेरा जवाब सुन उनका दिल टूट गया और वो बोलीं;

भौजी: मुझे माफ़ कर दो मानु, मैं हमारे इस रूठना-मानाने वाले खेल को गलत समझ बैठी!

इतना कहते हुए भौजी छत के दूसरी ओर चली गईं| मुझे न जाने क्यों अपने ऊपर गुस्सा आने लगा, मैं सोच रह था की कम से काम झूठ ही बोल देता तो भाभी का दिल तो नहीं टूटता| मैं भाभी की ओर भागा और उन्हें समझने लगा;

मैं: भौजी मुझे माफ़ कर दो, मेरी उम्र उस समय बहुत काम थी, मैं प्यार क्या होता है ये तक नहीं जानता था| मैं आपसे प्यार करता था, वही प्यार जो दो दोस्तों में होता है| अब मैं बड़ा हो गया हूँ और अच्छे से जानता हूँ की प्यार क्या होता है| मैं आपसे विनती करता हूँ भौजी, आप मत रोऔ, मैं आपको रोते हुए नहीं देख सकता|

ये कहते हुए मैंने उन्हें अपनी ओर घुमा लिया ओर उनके दोनों कन्धों पे हाथ रख उनकी आँखों में देखने लगा| उनकी आँखें आँसुंओं से भरी हुई थी और लाल हो गई थीं| उस वक़्त मैं बता नहीं सकता की मुझ पर क्या बीती| भौजी ने अपने आँसूँ पोछते हुए फिर मुझसे वही सवाल पूछा;

भौजी : मानु क्या तुम अब मुझसे प्यार करते हो?"

मैं: हाँ!!!

मुझे कुछ सुझा ही नहीं, नज़रों के सामने उनका प्यार चेहरा था और पता नहीं कैसे मैंने उन्हें हाँ में जवाब दे दिया| मेरा जवाब सुनते ही भौजी ने मुझे कस के गले लगा ले लिया, उनके इस आलिंगन में अजीब सी कशिश थी| ऐसा लगा जैसे उन्होंने अपने आप को मुझे सौंप दिया हो| भौजी अब मेरी छाती में सर छुपाये सुबक रहीं थी और अचानक ही मुझे ये डर सताने लगा की कहीं कोई अपनी छत से हमें इस तरह देख लेगा तो क्या होगा, या फिर हमें ढूँढती हुई माँ ऊपर आ गई तो? मुझे एहसास होने लगा जैसे मेरे अंदर सुरक्षात्मक प्रवृत्ति जन्म ले चुकी है! ये भौजी के आलिंगन का असर था, जहाँ एक तरफ मैं इस एहसास को सुरक्षात्मक प्रवृत्ति मानने लगा था वहीँ भौजी खुद को महफूस महसूस कर रहीं थीं| उन्हें उनके जीवन का वो बिंदु मिल गया था जहाँ से उनकी नई जिंदगी शुरू हो सकती थी|

कुछ क्षण बाद भौजी ने अपना मुख मेरी छाती से अलग किया और मेरी ओर देख ने लगीं, मेरी नजर उनके चेहरे पर पड़ी तो मैंने देखा उनके होंठ काँप रहे थे| मानो जैसे वो मुझे चूमना चाहती हों और मुझसे अनुमति माँग रही हों! मैंने मौके की नजाकत को समझते हुए उनके कोमल होठों को अपने होंठों की गिरफ्त में ले लिए| आज जिंदगी में पहली बार हम दोनों भावुक हो कर एक दूसरे को Kiss कर रहे थे| भौजी को तो जैसे अब किसी की फ़िक्र ही नहीं थी और उन कुछ क्षण के लिए मैं भी सब कुछ भूल चूका था| हम दोनों की आँखें बंद थी और समय जैसे थम सा गया| मैं बस भौजी के पुष्प से कोमल होठों को अपने होठों में दबा के चूस रहा था| भौजी भी मेरा पूरा साथ दे रही थी, वो बीच-बीच में मेरे होठों को अपने होठों में भींच लेती| इधर उनके दोनों हाथ मेरी पीठ पर चल रहे थे! पर मेरे हाथ उनकी पीठ पर स्थिर थे| उत्तेजना हम दोनों पर सवार हो चुकी थी, पर तभी नीचे से माँ की आवाज आई; "मानु जल्दी से नीचे आ, तेरे पिताजी आ गए हैं|" इस आवाज के विघ्न के कारन भौजी और मैं जल्दी से अलग हो गए| मैंने उन्हें नीचे चलने को कहा, भौजी अपनी प्यासी नज़रों से मुझे देख रही थी; "भौजी चिंता मत करो, कुछ जुगाड़ करता हूँ|" मैं बोलै और हम दोनों नीचे आ गए| भौजी ने सीढ़ियों में ही घूंघट काढ़ लिया था, नीचे आ कर उन्होंने पिताजी की पैर छुए ओर बातों का सिल-सिला चालु हो गया| मैं किताब लेकर भौजी के पास पलंग पर बैठ गया| कमरा ठंडा होने की वजह से मैंने कम्बल ले लिया और भौजी के पाँव भी ढक दिए| अब बारी थी पिताजी को व्यस्त करने की वरना आज मेरी प्यारी भौजी प्यासी रह जाती! मैं उठा और बहाना कर बहार भाग गया, जब मैं वापस आया तो पिताजी से बोला; “पिताजी रोशनलाल अंकल आपको बहार बुला रहे हैं|" मैंने झूठ बोला ताकि पिताजी बाहर चले जाएँ और पिताजी मेरी बात सुन बहार चले गए, माँ रसोई में व्यस्त थी| मौका अच्छा था पर मुझे डर था की पिताजी मेरा झूठ अवश्य पकड़ लेंगे| तभी पिताजी वापस अंदर आये और बोले; "बहार तो कोई नहीं है?"

मैं: शायद चले गए होंगे| (मैंने फिर झूठ बोला|)

पिताजी: अच्छा बहु मैं चलता हूँ शायद रोशनलाल पैसे देने आया होगा| (उन दिनों पिताजी को उनसे पैसे लेने थे इसलिए पिताजी मेरी बात मान गए|) अब कमरे में सिर्फ मैं और भौजी ही बचे थे, नेहा तो टी.वी. देखने में व्यस्त थी| हम दोनों एक ही कम्बल में थे; "भौजी आज भी बचपन जैसे ही सुला दो|" मैंने ये कहते हुए मैंने आज पहलीबार उनके बाएँ स्तन को छुआ| मेरे छूते ही भौजी की सिसकारी निकल गई; "स्स्स्स ..मम्म!!!"

"मानु रुको मैंने अंदर ब्रा पहनी है ओर ब्लाउज का हुक तुमसे नहीं खुलेगा|" भौजी बोलीं और उन्होंने अपने ब्लाउज के नीचे के दो हुक खोले, तथा अपना बायाँ स्तन मेरे सामने झलका दिया| उनके 38 साइज के उरोजों में से एक मेरे सामने था, जिसे देख मेरी हालत खराब हो गई थी! मैंने अपने काँपते हुए हाथों से उनके बाएँ उरोज को अपने हाथ में लिया और एक बार हलके से मसल दिया, भौजी की सिसकारी एक और बार फूट पड़ी; “सिस्स्स् .. अह्ह्हह्ह !!!” मेरा मन मचलने लगा था, मैंने भौजी के स्तन को अपने मुख में भर लिया और उनके निप्पल को अपनी जीभ से छेड़ने लगा| दूध की कुछ बूँदें मेरे मुँह में आईं पर आज मेरा दूध पीने का मन नहीं था! इधर भौजी के मुख के हाव-भाव बदलने लगे और वो मस्त होने लगीं| चूँकि मेरा दिमाग अभी भी सचेत अवस्था में था, इसलिए मैंने सोचा की "सम्भोग के पूर्व आपसी लैंगिक उत्तेजना एवं आनंददायक कार्य" अर्थात "Foreplay" में समय गवाना उचित नहीं होगा| मैं तो बस अब भौजी को भोगना चाहता था इसीलिए मैंने उनके स्तन को चूसना बंद कर दिया और मेरे रुकते ही भौजी बोल पड़ीं;

भौजी: बस मानु? मन भर गया?

मैं: नहीं भौजी!

ये कहते हुए मैंने कम्बल के नीचे उनका हाथ अपने पैंट के ऊपर बने उभार से छुआ दिया| भौजी ने मेरे लिंग को पैंट के ऊपर से ही अपनी मुट्ठी में दबोच लिया, मेरे मुँह से विस्मयी सिसकारी निकली; "स्स्स...!!!"


मैंने एक नजर नेहा पर डाली क्योंकि मुझे डर था की कहीं वो हमें ये सब करते देख न लें| पर नेहा अब भी टी.वी देख रही थी, मैंने उसे व्यस्त करने की सोची, मैं पलंग से उठा और अलमारी खोल के अपने पुराने खिलोने जो मुझे अति प्रिय थे उन्हें मैं किसी से भी नहीं बाँटता था वो निकाल के मैंने नेहा को दे दिया अब वो जमीन पर बिछी चटाई पर बैठ ख़ुशी-ख़ुशी खेलने लगी और साथ-साथ टी.वी में कार्टून भी देख रही थी| जमीन पर बैठे होने के कारन वो ऊपर पलंग पर होने वाली हरकतें नहीं देख सकती थी और इसी बात का मैं फायदा उठाना चाहता था| मैंने पलंग पर वापस अपना स्थान ग्रहण किया और कम्बल दुबारा ओढ़ लिया| फिर मैंने अपनी पैंट की चैन खोल दी और अपना लिंग बाहर निकाल कर भौजी का हाथ उससे छुआ दिया| भौजी ने झट से मेरे लिंग को अपने हाथों से दबोच लिया और उसे धीरे-धीरे ऊपर-नीचे करने लगी| आज पहली बार किसी स्त्री ने मेरा लिंग छुआ था| भौजी चाह रही थी की वो मेरे लिंग की चमड़ी को पूरा नीचे कर दें ताकि मेरा सुपाड़ा बाहर आ जाये, पर मुझे इसमें दर्द होने लगा था| दरअसल मेरे लिंग की चमड़ी कभी पूरा नीचे नहीं होती थी| अर्थात मेरे लंड का सुपर कभी भी खुल के बहार नहीं आया था| जब मैंने अपने मित्रों से ये बात बताई थी तो उन्होंने कहा था की समय के साथ ये अपने आप खुलता जाएगा| इसलिए मैंने भौजी से विनती करते हुए कहा; "भौजी ज़रा आराम से हिलाओ मेरा ये (लिंग) पूरा नहीं खुलता|" नजाने उन्हें क्या सूझी उन्होंने मेरे लिंग का मुँह थोड़ा सा खोला और अपनी ऊँगली से मेरे पेशाब निकलने वाले छेद पर धीरे-धीरे मालिश करना शुरू कर दिया| उनके हर बार छूने से मुझे मानो करंट सा लगने लगा था और मैं बार-बार उचक जाता था| बदकिस्मती से हमारा ये खेल भी ज्यादा देर तक न चला, माँ कमरे में कुछ सामान लेने आई तो भौजी ने चुपके से अपना हाथ मेरे लंड से हटा लिया| मैंने भी अपनी टांग मोड़ के कम्बल के अंदर खड़ी कर दी ताकि माँ को कम्बल में बने उस छोटे तम्बू का एहसास न हो जाए| खेर माँ दो मिनट के भीतर ही बहार चली गईं और इधर भौजी और मैं दोनों गरम हो चुके थे और एक दूसरे के आगोश में सिमटना चाहते थे| मैंने अपनी पैंट की चैन बंद की और पीछे से भौजी की योनि स्पर्श करने के लिए हाथ डाल दिया| भौजी उकड़ूँ हो के बैठ गई जिससे मेरा हाथ ठीक उनकी योनि के नीचे आ गया| मैंने साड़ी के ऊपर से उनकी योनि छूने व पकड़ने की बहुत कोशिश की परन्तु न कामयाब रहा इसलिए भौजी ने मुझे जगह बदलने की सलाह दी| मैं उठ के भौजी के ठीक सामने अपने पैर नीचे लटका के बैठ गया| अब मेरे मन में भौजी के योनि दर्शन की भावना जाग चुकी थी और मैं बहुत ही उतावला होता जा रहा था| मैंने एक-एक कर भाभी की साडी की परतों को कुरेदना चालु किया ताकि मेरी उँगलियाँ उनके योनि द्वार तक पहुँचे| मैं उनकी साडी तो ऊँची नहीं कर सकता था क्योंकि यदि मैं ऐसा करता तो माँ के अचानक अंदर आने से बवाल मच जाता, इसीलिए मैं गुप-चुप तरीके से काम कर रहा था| आखिर कर मेरा सीधा हाथ उनकी योनि से स्पर्श हुआ इतनी मुलायम और कोमल की मुझे विश्वास ही नहीं हुआ| 'आअह्ह्ह' जैसे आप नई गुलाब की काली को अपने हाथ पे महसूस किया हो|

मैंने अपनी ऊँगली से धीरे-धीरे उनकी योनि द्वार को सहलाना शुरू किया और भाभी की सिसकारियाँ फूटने लगीं; “सीइइइइइइइइइइइ....इस्स्स्स!!!” मेरी उँगलियों के स्पर्श से भौजी की योनि फड़कने लगी, उनकी योनि का एहसास बहार से ठंडा था और ऐसा लगा जैसे भौजी की योनि मेरी गर्म उँगलियों के गरम स्पर्श से काँप रही हों| मैंने और देर न करते हुए अपनी बीच वाली ऊँगली उनकी योनि के अंदर धकेल दी, योनि के भीतर का तापमान बाहर के मुकाबले बिलकुल उलट था| अंदर से भौजी की योनि गर्म थी, जैसे की कोई भट्टी! मेरे इस अनुचित हस्तक्षेप से भाभी सिहंर उठी और उनके मुख से एक दबी सी आह निकली; “अह्ह्हह्ह ... सीईईइ!!!“ मैंने धीरे-धीरे अपनी बीच वाली ऊँगली को अंदर बहार करना चालु कर दिया और भौजी के चेहरे पर आ रहे उन आनंदमयी भावों को देखने लगा| उन्हें इस तरह देख के मुझे एक अजीब सी ख़ुशी हो रही थी, किसी को खुश करने की ख़ुशी| भौजी की सीतकारें अब लय पकड़ने लगीं थी; "स्स्स्स...आह्ह्ह... स्सीईई ..अम्म्म्म ...!!!" उन्होंने अचानक से मेरा हाथ जो अंदर बहार हो रहा था उसे थाम लिया| मुझे लगा शायद भौजी को इससे तकलीफ हो रही है परन्तु मेरी सोच बिलकुल गलत निकली| उन्होंने मेरा हाथ पकड़ के गति बढ़ाने का इशारा किया| मैं ठहरा एक दम अनाड़ी, मैं अपनी पूरी ताकत से अपनी बीच वाली ऊँगली तेजी से अंदर-बहार करता रहा ये सोच के की भौजी को जल्द ही परम सुख का आनंद मिलेगा| परन्तु मेरी इतनी कोशिश पर भी भौजी के मुख पर वो भाव नहीं आये जिनकी मैं कल्पना कर रहा था| तभी अचानक मुझे पता नहीं क्या सुझा और मैंने अपनी तीन ऊँगली भौजी की योनि में प्रवेश करा दीं और भौजी के चहरे के भाव अचानक से बदल गए| उनके चेहरे पर पीड़ा तथा आनंद के मिलेजुले भाव थे और मैं ये तय नहीं कर पा रहा था की उन्हें पीड़ा अधिक हो रही है या आनंद अधिक प्राप्त हो रहा है? मेरी इस दुविधा का जवाब उन्होंने स्वयं दे दिया; "मानु ... स्स्स्स ....ऐसे ही अह्ह्ह्ह ...और तेज करो...म्म्म्म!!!" मैंने अपनी पूरी शक्ति उँगलियाँ अंदर-बाहर करने में झोंक दी और ऐसा लगा की भौजी चरम पर पहुँच ही गईं, की तभी माँ ने दरवाजा खोला!!!



मेरी हालत खराब हो गई, कान एक दम से सुर्ख लाल हो गए और गला सूख गया| वो तो शुक्र था की माँ थोड़ा ही दरवाजा खोल पाई थी की उसी समय किसी ने मैन गेट की घंटी बजाई जिससे उनका ध्यान भंग हो गया इसलिए माँ ने अंदर कुछ भी नहीं देखा और माँ बहार दरवाजा खोलने चलीं गई| मैंने अपना हाथ भौजी की साडी से बाहर खींच लिया था, भौजी अतृप्त थी पर मैं कुछ नहीं कर सकता था| हम दोनों ही मन मसोस के रह गए| तभी मुझे कुछ सुझा, मैंने अपनी तीनों उँगलियाँ जो भौजी के योनि रस में सरोबोर थीं उन्हें सूँघा| उसमें से मुझे एक अजीब सी अभिमंत्रित गंध आई और मैं जैसे उसके नशे में झूमने लगा| मैँ भौजी की ओर मुड़ा और भौजी को दिखाते हुए अपनी तीनों उँगलियों को बारी-बारी से मुँह में ले के चूसने लगा! ये देख भौजी के चेहरे पर बड़े ही अजीब से भाव थे, वो तो जैसे हैरान थी की मैंने ये क्या कर दिया! मैंने इस बात पर इतना ध्यान नहीं दिया और न ही उनसे कुछ पूछा, मैंने कमरे से बाहर झाँका तो पाया माँ पड़ोस वाली भाभी के यहाँ गई हैं, शायद उन्होंने ने ही घंटी बजाई थी| एक पल के लिए तो मुझे उन भाभी पर बहुत गुस्सा आया की थोड़ी देर पहले आ जाती तो कम से कम भौजी को तो चैन मिल जाता!


फिर मैंने भौजी को इशारे से अपने पास बुलाया और उन्हें बाथरूम की ओर ले गया, मैंने बाथरूम का दरवाजा खुला छोड़ दिया और भौजी की ओर मुँह कर के अपनी पैंट की चैन खोली| फिर अपने अकड़े हुए लिंग को बाहर निकाला और भौजी को दिखा के उनके योनि रस से लिप्त अपनी उँगलियों से अपने लंड को स्पर्श किया और उन्हें दिखा-दिखा के हस्तमैथुन करने लगा| मेरा लिंग देख भौजी का मुख खुला का खुला रह गया, इधर मुझे भी छूटने में ज्यादा समय नहीं लगा| भौजी के देखते ही देखते मैंने अपना वीर्य की बौछार कर दी जो सीधा कमोड में जा गिरी| भौजी मेरी इस वीर्य की बारिश को देख उत्तेजित हो चुकी थी और साथ ही साथ हैरान भी थी परन्तु अब किया कुछ नहीं जा सकता था| चिड़िया खेत चुग चुकी थी !! अर्थात, चिड़िया रुपी मैँ, तो बाथरूम में जाके भौजी को दिखाते हुए अपने शरीर में उठ रही मौजों की लहरों को किनारे ला चूका था परन्तु किसान रूपी भौजी अब भी भूखी थी, प्यासी थी| उनके चेहरे से साफ़ झलक रहा था की वो कितनी प्यासी हैं और शायद मुझे अंदर ही अंदर कोस रही थीं| खेर मैँ बाथरूम से हाथ धोके निकला और मेरे मुख पर सकून के भाव थे और भौजी के मुख पर क्रोध के! परन्तु पता नहीं क्या हुआ उन्हें, मेरे चेहरे के भाव देखते हुए वो मेरे पास आईं और मेरे गाल पर एक पप्पी जड़ दी, फिर मुस्कुराते हुए बाथरूम में चली गईं| मैँ कुछ भी समझ नहीं पाया और भौजी को बाथरूम के अंदर वॉशबेसिन पर खड़ा देखता रहा| मुझे लगा शायद वो अंदर जाके अपने आप को शांत करने की कोशिश करेंगी पर उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, वो बस ठन्डे पानी से अपना मुँह धो के अपने साडी के आँचल से पोछती हुई बहार आ गईं| इतने में माँ भी पड़ोस वाली भाभी के घर से लौट आईं और हम दोनों को एक साथ बाथरूम के बाहर खड़ा देख पूछने लगीं;

माँ: तुम दोनों यहाँ क्या कर रहे हो?

भौजी: चाची मैंने सोचा आपकी मदद कर दूँ| (भौजी ने बड़ी होशियारी से झूठ बोला|)

माँ: नहीं बहु तुम बैठो खाना तैयार है, मैँ तुम दोनों को परोसने ही जा रही थी की रामा (हमारी पड़ोस वाली भाभी) ने बुला लिया, चलो हाथ मुँह धो लो मैँ अभी खाना परोसती हूँ|

मैँ: (भौजी को छेड़ते हुए) मुँह भौजी ने धो लिया और हाथ मैंने!

भौजी ने चुपके से मुझे कोहनी मारी और अपना नीचे वाला होंठ दबाते हुए हुए झूठा गुस्सा दिखाने लगीं| मैँ और भौजी वापस अपने स्थान पर चल दिए और तभी मेरी और भौजी की नज़र नेहा पर पड़ी, वो खेलते-खेलते चटाई पर ही सो चुकी थी| मैंने एक चैन की साँस ली क्योंकि नेहा को देखने के बाद मेरे मन में ख़याल आया की कहीं इसने वो सब देख तो नहीं लिया? भौजी ने नेहा को फटा-फ़ट चटाई से उठा के पलंग पर सुला दिया और मैंने उसे रजाई उढ़ा दी| इतने में माँ खाना ले कर आ गईं, आज खाने में मेरी पसंदीदा सब्जी थी, मटर पनीर और बैगन का भरता! माँ ने अपने सामने बैठा के भौजी और मुझे खाना खिलाया| खाना खाने के पश्चात मैँ और भौजी सैर करने के लिए वापस छत पर आ गये| मैंने भौजी का हाथ थाम लिया और हम एक कोने से दूसरे कने तक सैर करने लगे|

सैर करते समय भौजी बिलकुल चुप थीं और मैं उनकी इस चुप्पी के कारन से अनविज्ञ था| मन में अब भी उन्हें भोगने की तीव्र इच्छा हिलोरे मार रही थी, पर मैं अपने मन में उठ रही मौजों की लहरों के आगे विवश नहीं होना चाहता था| तभी एक अजीब सा डर सताने लगा की कहीं भौजी गाँव जा कर ये सब भूल गईं तो? या फिर मैं गाँव ना जा पाया तो? ये सोचते हुए अचानक मेरी पकड़ भौजी के हाथ पर सख्त होती गई| भौजी तुरंत मेरी तरफ देखने लगीं पर मेरी नजर सामने की ओर थी और मन में अब भी यही सवाल चल रहे थे| भौजी चलते-चलते रुक गईं और सवालिया नज़रों से मेरी ओर देखने लगीं| मैं उनके चेहरे को देख ये भाँप चूका था की वो मेरे कारन परेशान हैं, परन्तु मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी की मैं उन्हें अपने अंदर उठे तूफ़ान के बारे में कुछ बता सकूँ| दरअसल हर वो नौजवान जिसने अभी-अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखा हो और वो सेक्स के बारे में सब कुछ जानता हो उसके अंदर कहीं न कहीं अपने कौमार्य को भंग करने की इच्छा अवश्य छुपी होती है| यही इच्छा अब मेरे अंदर अपना प्रगाढ़ रूप धारण कर चुकी थी और इसीलिए मेरा मन आज इतना विचिलत था| मेरा गला सुख चूका था और मुख से शब्द फुट ही नहीं रहे थे| पता नहीं कैसे परन्तु भौजी मेरे भावों को अच्छे से पढ़ना जानती थी| वो ये समझ चुकी थीं की मेरे मन में क्या चल रहा है और उन्होंने स्वयं चुप्पी तोड़ते हुए कहा; "मानु... मैं जानती हूँ तुम क्या सोच रहे हो| जब तुम गावों आओगे तब तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी हो जाएंगी|" भौजी ने मुस्कुराते हुए कहा| उनकी ये बात सुनते ही जैसे मेरी बाछें खिल गईं| मन में उठ रहा तूफ़ान थम गया और मैंने आग बाद कर भाभी के मुख को अपने हाथों से थाम लिया और उनके होठों पर एक चुम्बन जड़ दिया| ये चुम्बन इतना लम्बा नहीं चला क्योंकि हम दोनों बहुत सतर्क थे|



सर्दी के दीं थे तो पता ही नहीं चला की दोपहर कब बीती और सांझ होने को आई| भौजी के विदा लेना का समय था, पर मन में बस उनसे पुनः मिलने की इच्छा जग चुकी थी| तभी चन्दर भैया का फ़ोन आया की मैं भौजी को बस अड्डे छोड़ दूँ, बस अड्डा हमारे घर से करीबन आधा घंटा दूर था ओर भैया वहीं हम से मिलेंगे| मैं, भौजी और नेहा तीनों रिक्शा स्टैंड तक चल दिए और इस बार पिछली बार के उलट हम दोनों खुश थे| मैंने नेहा को अपनी गोद में उठा लिया और हम लोग दिखने में एक नव विवाहित जोड़े की तरह लग रहे थे, ये बात मुझे मेरे दोस्त ने बताई जो मुझे और भौजी को दूर से आता देख रहा था| परन्तु मेरा ध्यान केवल भौजी पर था इस कारन मैं अपने दोस्त को नहीं देख पाया| ऑटो स्टैंड पहुँच के मैंने ऑटो किया और हम तीनों बस अड्डे पहुँच गए| रास्ते भर हम दोनों चुप थे बस दोनों के मुख पर एक मुस्कुराहट छलक रही थी| मन में एक एजीब से प्रसन्त्ता थी, मैंने सोचा की जब तक भैया नहीं आते तब तक भौजी से कुछ बात ही कर लूँ| तो मैंने भौजी से एक वचन माँगा;

मैं: भौजी आप मुझे एक वचन दे सकते हो?

भौजी: वचन क्या तुम मेरी जान माँग लो तो वो भी दे दूँगी|

मैं: भौजी अगर आपकी जान माँग ली तो मैं जिन्दा कैसे रहूँगा|

भौजी: नहीं..... ऐसा मत बोला मानु!

मैं: भौजी वचन दो की आप गाओं में मेरा इन्तेजार करोगी? मुझे भूलोगी नहीं? और छत पे जो आपने बात कही थी उसे भी नहीं भूलोगी?

भौजी: मैं तुम्हे वचन देती हूँ! तुम बस जल्दी से गाओं आ जाओ मैं वहाँ तुम्हारा बेसब्री से इन्तेजार करुँगी|


इतने में वहाँ से एक आइस-क्रीम वाला गुजर रहा था, उसे देख नेहा आइस-क्रीम के लिए जिद्द करने लगी| भौजी उसे डाँटते हुए मना करने लगी| माँ की डाँट सुन नेहा अब मेरी ओर देख रही थी| मैंने भाभी को रोक और नेहा को अपनी ऊँगली पकड़ाई ओर उसे आइस-क्रीम दिल दी| नेहा बड़े चाव से आइस-क्रीम खाने लगी, मेरा नेहा के प्रति प्यार देख भौजी ने मुझसे कहा;

भौजी: मानु....मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूँ| (भौजी संकुचाते हुए बोलीं|)

मैं: हाँ जी बोलो|

भौजी: पता नहीं तुम विश्वास करोगे या नहीं.....(इतना कहते हुए भौजी रुक गईं|)

मैं: भौजी मैं आपकी कही हर बात का विश्वास करूँगा, आप बोलो तो सही| अपने अंदर कुछ मत छुपाओ!

भौजी: मैंने नेहा के मेरे गर्भ में आने के बाद से तुम्हारे भैया के साथ कभी भी शारीरिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किये!!!

ये सुनते ही मैं दंग रह गया, पर अभी भौजी की बात पूरी नहीं हुई थी;

भौजी: यही कारन है की अब तुम्हारे भैया और मेरे बीच में नहीं पटती| कई बार हमारे बीच इसी बात को ले कर लड़ाई होती है| अब तो बस हमारे बीच केवल मौखिक रूप से ही बातचीत होती है| यही कारन है की वो अब मेरे साथ कहीं आते-जाते भी नहीं| जब मैंने दिल्ली आने की जिद्द की तो वे बिगड़ गए, इसीलिए मैंने नेहा को पढ़ाया की वो ससुर जी (बड़के दादा) से जिद्द करे तुम से मिलने की, तुम्हारे भैया ससुर जी का कहना हमेशा मानते हैं| आमतौर पर तो मेरी या नेहा की जिद्द कोई पूरी नहीं करता पर शायद इस बार किस्मत को कुछ और मंजूर था तभी ससुर जी मान गए|

भौजी की बात सुन अब मेरी समझ में आया की आखिर भैया क्यों घर नहीं आये| अब मुझे भौजी के लिए चिंता होने लगी थी, दर लगने लगा था की पता नहीं भौजी कैसे वहाँ दीं गुजारती होंगी! मैं इस बारे में कुछ कह पाता उससे पहले ही मुझे चन्दर भैयाआते हुए नजर आये| भैया मुझसे गले मिले ओर हाल-चाल लिया, जब मैंने उनसे घर ना आने का रन पूछा तो उन्होंने बात टाल दी और मुझसे विदा ली| गाओं जाने वाली बस खचा-खच भरी हुई थी, उसमें मुझे दो औरतों के बीच एक जगह मिली और मैंने वहाँ भौजी को बैठा दिया| भैया अभी भी खड़े थे, मैंने भैया को बाहर बुलाया और कंडक्टर से बात कराई की जैसे ही जगह मिले वो भैया को सीट सबसे पहले दें इसके लिए मैंने कंडक्टर को एक हरी पत्ती भी दे दी| कंडक्टर खुश हो गया और बोला; "सहब आप चिंता मत करो भाईसाहब को मैं अपनी सीट पर बैठा देता हूँ|" भैया ये सब देख के खुश थे उन्होंने टिकट के पैसे देने के लिए पैसे आगे बढ़ाये तो मैंने उन्हें मना कर दिया और कहा; "भैया पिताजी ने कहा था की टिकट मैं ही खरीदूँ| आप ये लो टिकट और अंदर कंडक्टर साहब की सीट पर बैठो|"

कंडक्टर से निपट के मैं अंदर आया और भैया से पूछा की वो कुछ खाने के लिए लेंगे तो उन्होंने मना कर दिया, मैं भौजी की ओर बढ़ा और उनसे पूछा तो उन्होंने भी मना कर दिया पर मैं मानने वाला कहाँ था| मैं झट से नीचे उतरा और दो पैकेट चिप्स और दो ठंडी कोका कोला की बोतल ले आया और एक बोतल और चिप्स भैया को थमा दिया और दूसरी बोतल और चिप्स भौजी को दे दी| भौजी न-नकुर करने लगी पर मैंने उन्हें अपनी कसम दे कर जबरदस्ती की| आखिर भौजी मान गईं फिर मैंने नेहा की एक पप्पी ले कर भौजी को इशारे से कहा की मैं जल्दी आऊँगा| इतने में बस चलने का समय हो गया तो मैं भौजी और नेहा को बॉय कह कर नीचे उतर गया| बस चली गई और मैं गाओं जाने की उम्मीद लिए घर लौट आया|
 
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सातवाँ अध्याय: समर्पण
भाग-1

भौजी के जाने के बाद अब मेरे मन में एक सवाल कोंध रहा था| क्या मैं सच में भौजी से प्यार करता हूँ? उस दिन तो मैंने बस उनका दिल रखने के लिए कह दिया था, पर भौजी उसे सच मान चुकी थीं| ये एक ऐसा सवाल था जिसने मुझे कई रात जगाये रखा, वो तो पिताजी का डर था जिसके कारन मैं पढ़ाई में मन लगा लिया करता था वर्ण इस साल मेरा फेल होना तय था| पहला पेपर एकाउंट्स का था जो बड़ा जबरदस्त हुआ जिससे मेरा आत्मविश्वास मजबूत हुआ| उसके बाद तो सारे पेपर मैंने अच्छे से दिए, रिजल्ट वाले दिन पिताजी बड़े खुश हुए और उन्होंने कहा; "बेटा अब तू बारहवीं में आ गया है, पूरे खानदान का अकेला ऐसा बच्चा जो अगले साल बारहवीं बोर्ड के पेपर देगा| अब तुझे और भी ज्यादा मेहनत करनी होगी!" पिताजी की ये बात मेरे लिए ऐसे थी मानो द्रोणाचार्य ने अर्जुन को उसका लक्ष्य दिखा दिया हो| मैंने पिताजी का आशीर्वाद लिया और उन्हें वादा किया की मैं पढ़ाई में कोई लापरवाही नहीं बरतूँगा| फिर स्कूल शुरू हुए, नई किताबें, नए कपडे आदि और फिर आईं गर्मियों की छुट्टियाँ| इन्हीं छुट्टियों का तो मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था!


छुट्टियाँ शुरू होने से पहले ही मैं पिताजी के पीछे पड़ गया की इस साल गाओं जाना है और साथ ही साथ वाराणसी मंदिरों की यात्रा भी करनी है| मैं यूँ ही कभी पिताजी से माँग नहीं करता था और इस बार तो ग्यारहवीं के पेपर वैसे ही बहुत अच्छे हुए थे तो इनाम स्वरुप पिताजी भी तैयार हो गए, तथा उन्होंने गाओं जाने की टिकट निकाल ली| गाओं जाने में दस दिन रह गए थे और मैं मन ही मन अपनी इच्छाओं की लिस्ट बना रहा था| अचानक खबर आई की पिताजी के घनिष्ठ मित्र के बेटे, जो गुजरात रहते हैं वो आज हमसे मिलने दिल्ली आ रहे हैं| मैं और भैया बचपन में एक साथ खेले थे, लड़े थे, झगडे थे और हमारे बीच में भाइयों जैसा प्यार था| उनके आने की खबर सुन के थोड़ा सा अचम्भा जर्रूर लगा की यूँ अचानक वो क्यों आ रहे हैं और एक डर सताने लगा की कहीं पिताजी इस चक्कर में गाओं जाना रद्द न कर दें| मेरा मन एक अजीब सी दुविधा में फँस गया क्योंकि एक तरफ भैया हैं जिनसे मेरी अच्छी पटती है और दूसरी तरफ भौजी हैं जो शायद मेरा कौमार्य भांग कर दें| खेर मेरे हाथ में कुछ नहीं था, उन्हें लेने स्वयं पिताजी स्टेशन पहुँचे और वे दोनों घर आ गए| मैंने उनका स्वागत किया और हम बैठ के गप्पें मारने लगे| मैं बहुत ही सामान्य तरीके से बात कर रहा था और अपने अंदर उमड़ रहे तूफ़ान को थामे हुए था| उनसे बातों ही बातों में पता चला की वे ज्यादा दिन नहीं रुकेंगे, उनका प्लान केवल 2-4 दिन का ही है| ये सुन के मेरी जान में जान आई की कम से कम गाओं जाने का प्लान तो रद्द नहीं होगा| उनके जाने से ठीक एक दिन पहले की बात है, मैं और भैया कमरे में बैठे पुराने दिन याद कर रहे थे और खाना खा रहे थे| तभी बातों ही बातों में भैया के मुख से कुछ ऐसा निकला जिससे सुन के मन सन्न रह गया;

भैया: मानु अब तुम बड़े हो गए हो, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहता हूँ| जिंदगी में ऐसे बहुत से क्षण आते हैं जब मनुष्य गलत फैसले लेता है| वो ऐसी रह चुनता है जिसके बारे में वो जानता है की उसे बुराई की और ले जायेगी| तुम ऐसी बुराई से दूर रहना क्योंकि बुराई एक ऐसा दलदल है जिस में जो भी गिरता है वो फँस के रह जाता है|

मैं: जी मैं ध्यान रखूँगा भैया की मैं ऐसा कोई गलत फैसला न लूँ|

उस समय तो मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, परन्तु रात्रि भोज के बाद जब मैं छत पर सैर कर रहा था तब उनकी कही बात के बारे में सोचने लगा| दिमाग असमन्झस की स्थिति में पड़ चूका था, मन कहता था की भौजी गाओं में मेरा इंतजार कर रहीं हैं और मैं भी उनसे मिलने और अपना कौमर्य भंग करने के लिए सज हूँ और दिमाग भैया की बात को सही मान कर मुझे भौजी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने से रोक रहा था| मन बड़ा चंचल होता है और वो भी एक ऐसे लड़के का जिसने जवानी की दहलीज पर अभी-अभी कदम रखा हो! यही कारन था की मैंने मन की बात मानी और फिर से भौजी और अपने सुहाने सपने सजोने लग पड़ा|


आखिर वो दिन आ ही गया जिस दिन हम गाओं पहुंचे, घर पहुँचते ही सब हमारी आव भगत में जुट गए और इस बार मेरी नजरें भौजी को और भी बेसब्री से ढूँढने लगीं| भौजी मेरे लिए अपने हाथों से बना कर लस्सी का गिलास लेकर आईं और मेरे हाथों में थमाते हुए घूँघट के नीचे से अपनी कटीली मुस्कान से मुझे घायल कर गईं| जब वो वापस आई तो उनके हाथ में वही बर्तन था जिसमें वो मेरे पैर धोना चाहती थीं| पर मैं भी अपनी आदत से मजबूर था, मैंने अपने पाँव मोड़ लिए और आलथी-पालथी मार के बैठ गया| भौजी के मुख पे बनावटी गुस्सा था पर वो बोलीं कुछ नहीं| कुछ देर बाद जब लोगों का मजमा खत्म हुआ तो वो मेरे पास आईं और अपने बनावटी गुस्से में बोलीं;

भौजी: मानु मैं तुम से नाराज हूँ|

मैं: पर क्यों? मैंने ऐसा क्या कर दिया?

भौजी: तुमने मुझे अपने पैर क्यों नहीं धोने दिए?

मैं: भौजी आपकी जगह मेरे दिल में है पैरों में नहीं! (मेरा डायलाग सुन भाभी हँस दी|)

भौजी: कौन सी पिक्चर का डायलाग है?

मैं: पता नहीं, पिक्चर देखे तो एक जमाना हो गया| (मैंने भौजी को आँख मारी और उन्हें वो दिन याद दिलाया जब वो दिल्ली पहली बार आईं थी|)

भौजी: अच्छा जी!

मैं: भौजी आपको अपना वचन याद है ना?

भौजी: हाँ बाबा सब याद है, आज ही तो आये हो थोड़ा आराम करो|

मैं: भौजी मेरी थकान तो आपको देखते ही काफूर हो गई और जो कुछ बची-कूची थी भी वो आपके लस्सी के गिलास ने मिटा दी|


हम ज्यादा बात कर पाते इससे पहले ही हमारे गाँव के ठाकुर मुझसे मिलने आ गए| उन्हें देख भौजी ने घूँघट किया और थोड़ी दूर जमीन पर बैठके कुछ काम करने लगीं| एक तो मैं उस ठाकुर को जानता नहीं था और न ही मेरा मन था उससे मिलने का और दूसरा उसकी वजह से मेरी और भौजी की बातों में खलल पड़ गया था, इस कारन मुझे थोडा गुस्सा आ रहा था| ये ठाकुर जब भी गाँव में वो किसी के घर जाता तो सब खड़े हो के उसे प्रणाम करते और पहले वो बैठता उसके बाद उसकी आव-भगत होती| पर यहाँ तो मेरा रवैया देख वो थोड़ा हैरान हुआ, वो सीधा मेरे पास आके बैठा और मेरे कंधे पे हाथ रखते हुए बोला;

ठाकुर: और बताओ मुन्ना का हाल चाल है| कैसी चलत है तोहार पढ़ाई-लिखाई?

मैं: ठीक चल रही है| (मैंने उखड़े स्वर में जवाब दिया)

ठाकुर: अरे भई अब तोहार उम्र हो गई शादी-ब्याह की और तुम पढ़ाई मा जुटे हो| हमरी बात मानो तो झट से ब्याह कर लो|

उनका इतना कहना था की भौजी का मुँह बन गया|

ठाकुर: हमार बेटी से शादी करोगे? ई देखो फोटो, जवान है, सुशील है, खाना बनाने में माहिर है और दसवीं तक पढ़ी भी है ऊ भी अंग्रेजी स्कूल से|

अब भौजी का मुँह देखने लायक था, उन्हें देख के ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनकी सौत लाने का प्रस्ताव लेकर आया हो और वो भी उनके सामने| अब भौजी को मेरे जवाब का इन्तेजार था; "देखिये आप ये तस्वीर अपने पास रखिये न तो मेरा आपकी बेटी में कोई दिलचस्पी है और न ही शादी करने का अभी कोई विचार है| मैं अभी और पढ़ना चाहता हूँ, कुछ बनना चाहता हूँ|" मैंने तस्वीर बिना देखे ही उन्हें लौटा दी थी और ये जवाब सुन भौजी को बड़ी तस्सल्ली हुई की उनका देवर सिर्फ उनका है| इधर ठाकुर अपनी बेइज्जती सुन तिलमिला गया और गुस्से में मेरे पिताजी से मेरी शिकायत करने चला गया| उसके जाने के बाद भौजी ने घूंघट हटाया तो मैंने उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा देखा| "क्यों मानु, तुम्हें लड़कियों में दिलचस्पी नहीं है?" भौजी ने मुझे छेड़ते हुए पुछा|

भौजी मुझे तो आप में दिलचस्पी है|" मैंने बड़ी होशियारी से जवाब दिया जिसे सुन भौजी खिल-खिला के हँस पड़ी|


सूरज अस्त हो रहा था और अब मेरा मन भौजी को पाने के लिए बेचैन था| मुझे केवल इन्तेजार था तो बस सही मौके का| रायपुर से अशोक भैया, मधु भाभी (उनकी पत्नी) और राकेश (उनका बेटा) भी कुछ दिन के लिए आये हुए थे| सांझ होते ही राकेश, वरुण (अजय भैया का बेटा) और नेहा ने मुझे घेर लिया और मैं उनके साथ क्रिकेट खलेने लगा| कुछ समय बीता और साढ़े सात बजे थे की भौजी ने उन्हें खाना खाने के बहाने बुला लिया और वे सभी मुझे खींचते हुए भौजी के पास रसोई में ले आये| ऐसा लगा जैसे सुहागरात के समय भाभियाँ अपने देवर को कमरे के अंदर धकेल ने जा रहीं हों! भौजी ने मुझे भी खाना खाने के लिए कहा परन्तु मेरा मन तो कुछ और चाहता था, मैंने ना में सर हिला दिया| भौजी दबाव डालने लगीं, परन्तु मैंने उनसे कह दिया; "भौजी मैं आपके साथ खाना खाऊँगा|" मेरा जवाब सुन भौजी सन्न रह गईं, क्योंकि मैंने इतना धड़ल्ले से उन्हें जवाब दिया था और वो भी उन सभी बच्चों के सामने| वो तो गनीमत थी की बच्चे तब तक खाना खाने बैठ चुके थे और उन्होंने मेरी बात पर ज्यादा गौर नहीं किया| मैं भी भौजी के भाव देख हैरान था की अब मैंने कौन सा पाप कर दिया, सिर्फ उनके साथ खाना ही तो खाना चाहता हूँ| भौजी ने मुझे इशारे से कुऐं के पास बुलाया और मैं ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ चला गया|

अमावस की रात थी, काफी अँधेरा था और मेरे मन में मस्ती सूझ रही थी| इस समय कुऐं के आस-पास रात होने के बाद कोई नहीं जाता ,था क्योंकि कुऐं में गिरना का खतरा था| जब मैं कुऐं के पास पहुँचा तो देखा भौजी खेतों की तरफ देख रहीं थी, मैंने अचानक पीछे से जाकर भौजी को अपनी बाँहों में जकड़ लिया| भौजी अचानक हुए इस हमले से सकपका गई और मेरी गिरफ्त से छूटती हुई दूर खड़ी हो गई| मैं तो उनका व्यवहार देख हैरान हो गया की आखिर उन्हें हो क्या गया? अब कोन सी मक्खी ने उन्हें लात मार दी? इससे पहले की मैं उनसे कुछ पूछता, वो खुद ही बोलीं;

भौजी: मानु तुम्हें अपने ऊपर थोड़ा काबू रखना होगा| ये गावों है, शहर नहीं यहाँ लोग हमें लेकर तरह-तरह की बातें करेंगे| (भौजी ने बड़े रूखे मन से कहा|)

मैं: पर भौजी हुआ क्या?

भौजी: अभी तुम ने जो कहा की तुम मेरे साथ खाना खाओगे और फिर ये तुमने जो मुझे पीछे से पकड़ लिया उसके लिए|

मैं: पर भौजी.... (मैंने उन्हें अपनी सफाई देनी चाही, पर भौजी बिना कुछ सुने ही बीच में बोल पड़ीं|)

भौजी: पर-वार कुछ नहीं! (भौजी ने गुस्से से जवाब दिया|)

मैं: ठीक है| मुझसे गलती हो गई, मुझे माफ़ कर दो| (मैंने सर झुकाते हुए कहा|)


इतना कह के मैं वहाँ से चल दिया और भौजी मुझे देखती रह गई| शायद उन्हें अपने कहे गए शब्दों पर पछतावा हो रहा था| मैं वापस आँगन में अपना मुँह लटकाये लौट आया और अपनी चारपाई पर सर झुका कर बैठ गया| मेरे मन में जितने भी तितलियाँ उड़ रहीं थी उनपे भौजी ने मॉर्टिन स्प्रे मार दिया था| *(मॉर्टिन स्प्रे = कीड़े मारने वाला स्प्रे|)

मेरे अनुसार मैंने कुछ भी गलत नहीं कहा था, साथ खाना खा लेने से कौन सा पहाड़ टूट जाता? ये सोचते हुए मुझे भौजी पर गुस्सा आने लगा| मैं गुस्से से उठा और अपना बिस्तरा स्वयं बिछाने लगा| मुझे बिस्तरा बिछाते देख अजय भैया ने पूछा;

अजय भैया: मानु भैया खाना खायो?

मैं: नहीं भैया, भूख नहीं है| (मैंने मुँह लटकाये हुए जवाब दिया|)

अजय भैया: कोई कछु कहिस तोहका?

मैं: नहीं तो|

अजय भैया: नहीं भैया कछु तो बात है जो तुम खाना नहीं खात हो| हम अभी सबसे पूचित है की के तोहका कछु कहिस है|

अब मुझे कैसे भी बात सम्भालनि थी वर्ण भुआजी को न सही पर मुझे डाँट जर्रूर पड़ती|

मैं: भैया ऐसी कोई बात नहीं है, दरअसल दोपहर में मैंने थोड़ा डट के खाना खा लिया था इसीलिए भूख नहीं है| ये देखो मैं हाजमोला खाने जा रहा हूँ|

ये कहते हुए मैं ने पिताजी के सिरहाने रखे बैग से हाजमोला की शीशी निकाली और उसमें से कुछ गोलियाँ खाने लगा| मैं मन ही मन में सोच रहा था की कहाँ तो आज मेरा कौमार्य भांग होना था और कहाँ मैं आज भूखे पेट सो रहा हूँ वो भी हाजमोला खा के, अब पेट में कुछ हो तब तो हाजमोला काम करे| खैर अजय भैया को इत्मीनान हो गया की मेरा पेट भरा हुआ है| मैंने अपनी चारपाई आँगन में एक कोने पर बिछाई, बाकि सब से दूर क्योंकि मैं आज अकेला रहना चाहता था| ये देख अशोक भैया बोले; "मानु भैया इतनी दूर सो रहे हो? अपनी चारपाई हमारे पास ले आओ|" चूँकि अशोक भैया रायपुर में रहते थे तो वो अब मुझसे हिंदी में ही बात करते थे|

“भैया आप लोग दिनभर खेत में मेहनत करते हो इसलिए बहत थके हुए होगे और थकावट में नींद बड़ी जबरदस्त आती है... और साथ-साथ खरांटे भी|” मैंने तर्क दिया ताकि मैं अकेला सो सकूँ| मेरी बात सुन अशोक और अजय भैया दोनों खिल-खिला के हंसने लगे| इधर मैं आँखें बंद किये हुए अपने सर पे हाथ रख के सोने की कोशिश करने लगा| पर जब पेट खाली होता है तो नींद नहीं आती, दिमाग फिर से उधेड़-बन में लगा गया की कम से कम भौजी मेरी बात तो सुन लेतीं| मैंने अगर उनके साथ खाना खाने की बात कही तो इसमें बुरा ही क्या था? पहले भी तो हम दोनों एक ही थाली में खाना खाते थे?! अभी मैं अपने मूल्यांकन में व्यस्त था की तभी मेरे कानों में खुस-फुसाहट सी आवाज सुनाई पड़ी; "मानु चलो खाना खा लो?" ये आवाज भौजी की थी, पर मैं अभी भी उनसे नाराज था इसीलिए मैंने कोई जवाब नहीं दिया और ऐसा दिखाया जैसे मैं सो रहा हूँ| तभी उन्होंने मुझे थोड़ा हिलाते हुए कहा; "मानु मैं जानती हूँ तुम सोये नहीं हो, भूखे पेट कभी नींद नहीं आती!" मैं अब भी कुछ नहीं बोला पर भौजी का मुझे मनाना जारी रहा; "मानु मुझे माफ़ कर दो, मेरा गुस्सा खाने पर मत निकालो| देखो कितने प्यार से मैंने तुम्हारे लिए खान बनाया है|" पर मैं अब भी खामोश था| "देखो अगर तुमने खाना नहीं खाया तो मैं भी नहीं खाऊँगी, मैं भी भूखे पेट सो जाऊँगी|" भौजी ने एक आखरी कोशिश करते हुए मुझे भावुक करने की कोशिश की पर उन्हें सिर्फ असफलता ही मिली क्योंकि मेर गुस्सा शांत नहीं होने वाल था| मैं अब भी किसी निर्जीव शरीर की तरह पड़ा था और भौजी को डर था की कोई हमें इस तरह देख लेगा तो बातें बनाने लगेगा इसीलिए वो वहाँ से उठ के चली गईं|

सच कहूँ तो मैं इतना भी पत्थर दिल नहीं था की अपने गुस्से के कारन दूसरों को दुःख दूँ पर मैं अपने ही द्वारा बोले झूठ में फँस चूका था| अब यदि अजय भैया मुझे खाना खाते हुए देख लेता तो समझ जाते की मैंने उनसे झूठ बोला था की मेरा पेट भरा हुआ है| कुछ समय बीता और भूख लगने लगी, अगर मैं शहर में अपने घर होता तो रसोई से कुछ न कुछ खा ही लेता पर गाओं में ये काम करने में बहुत डर लग रहा था, इसीलिए मैंने सोने की कोशिश की| इस कोशिश को कामयाबी मिलने में बहुत समय लगा और मुश्किल से तीन घंटे ही सो पाया की सुबह हो गई| गाओं में तो सभी सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं इसलिए मुझे भी मजबूरन उठना पड़ा| तभी अशोक भैया लोटा लेके शौच के लिए जाते दिखाई दिए और मुझे भी साथ आने के लिए कहा| मैंने मुस्कुरा कर उन्हें मना कर दिया, अब उन्हें कैसे कहूँ की पेट में कुछ है ही नहीं तो निकलेगा क्या ख़ाक?!!!


मैं नहा-धो के तैयार हो गया की अब सुबह की चाय मिलेगी तो उससे रात की भूख कुछ शांत होगी| मैं नए घर के आंगन में खड़ा था और रसोई की तरफ जाने ही वाला था की भौजी अपने हाथ में दो चाय के कप ले कर मेरे समक्ष प्रकट हो गईं| उन्होने एक कप मुझे दिया और बात शुरू करते हुए मुझसे पुछा की नींद कैसी आई? नाराजगी अब भी मन में दही की तरह जमी बैठी थी इसलिए मैंने बड़े उखड़े मन से जवाब दिया; "बहुत बढ़िया... इतनी बढ़िया की क्या बताऊँ?! सोच रहा था की मैं यहाँ आया ही क्यों? इससे अच्छा तो दिल्ली में रहता|" इतना कहते हुए मैं कप अपने होठों तक लाया ही था की तभी नेहा दौड़ती हुई आई और मेरी टांगों से लिपट गई| इस अचानक हुई हरकत से मेरे हाथ से कप छूट गया और गर्म-गर्म चाय मेरे तथा नेहा के ऊपर गिर गई| कप गिरते ही भौजी नेहा पर जोर से चिल्लाईं; "बद्तमीज! देख तूने चाचा की सारी चाय गिरा दी| तुझे पता भी है चाचा ने रात से कुछ नहीं खाया और सुबह की चाय भी तूने गिरा दी! तुझे मैं अभी बताती हूँ!" इतना कहते हुए भौजी ने नेहा को मारने के लिए हाथ उठाया| अपनी माँ का रौद्र रूप और चाय गिरने की जलन के कारन नेहा रोये जा रही थी| मैंने भौजी का हाथ हवा में ही रोक दिया और नेहा को उठा के अपने कमरे में ले आया ताकि जहाँ-जहाँ चाय गिरी थी उस जगह पर दवाई लगा सकूँ| भौजी भी मेरे पीछे-पीछे आई और अपनी चाय मुझे देने लगी;

भौजी: इसे छोडो, ये लो तुम ये चाय पी लो| मैं इसे मरहम लगा देती हूँ|

मैं: नहीं रहने दो, जब मैं आपके साथ खाना नहीं खा सकता तो आपकी झूठी चाय कैसे पियूँ? (मैंने भौजी को ताना मारा|)

भौजी: अच्छा बाबा मैं दूसरी चाय ले आती हूँ| (पर भौजी मेरा ताना नहीं समझी!)

ये कहते हुए भौजी मेरे लिए दूसरी चाय लेने चली गईं और मैं नेहा को चुप करा उसके हाथ ठन्डे पानी से पोंछने लगा| शुक्र था की उसके हाथों पर कोई निशाँ नहीं था, बस जलन थी जिसे मिटाने के लिए मैंने उसके हाथ पर एंटीसेप्टिक क्रीम लगा दी| नेहा अपनी माँ के डर के मारे अभी भी सुबक रही थी, मैंने उसे गले लगाया और वो अपनी सुबकती हुई बोली; "माफ़ कर दो चाचू!" उसकी बात सुन कर मुझे उस पर बहुत प्यार आया| मैंने उसे कस कर अपने गले लगा लिया और कहा; ""कोई बात नहीं बेटा, मैं जब आपकी उम्र का था तो मैं आपसे भी ज्यादा शरारत करता था| चलो जाके खेलो, मैं तब तक ये कप के टुकड़े हटा देता हूँ नहीं तो किसी के पावों में चुभ जायेंगे|" नेहा मुस्कुराते हुए बाहर चली गई और मैं कप के टुकड़े इकठ्ठा करने लगा| इतने में भौजी वापस आईं और अपना वही कप मेरी तरफ बढ़ा दिया, मुझे शक हुआ तो मैंने पूछ लिया;

मैं: आपकी चाय कहाँ है?

भौजी: मैंने पी ली, तुम ये चाय पीओ मैं ये टुकड़े उठती हूँ| (भौजी ने मुझसे नजर चुराते हुए कहा|)

मैं: खाओ मेरी कसम की आपने चाय पी ली?

भौजी: क्यों? मैं कोई कसम- वसम नहीं खाती, तुम ये चाय पी लो| (भौजी ने उखड़ते हुए कहा|)

मैं: भौजी जूठ मत बोलो मैं जानता हूँ आपने चाय नहीं पी, क्योंकि चाय खत्म हो चुकी है|

मैंने रक तुक्का मारा तभी वहाँ मेरा भाई गट्टू आ गया;

गट्टू: अरे ई कप..... (उसकी बात पूरी होती उससे पहले ही मैं बोल पड़ा|)

मैं: मुझसे छूट गया और तुम सुनाओ क्या हाल-चाल है| (मैंने बात पलटते हुए कहा)

गट्टू: मानु चलो गाय चराने|

मैं: हाँ चलो| (मैंने तुरंत उसकी बात मान ली, क्योंकि मैं अब भी भौजी से नाराज था|)

भौजी: अरे गट्टू कहाँ ले जा रहे हो मानु को?! चाय तो पी लेने दो, कल रात से कुछ नहीं खाया| (भौजी ने मुझे रोकना चाहा पर मैंने बात घुमा दी|)

मैं: तू चल भाई, मैंने चाय पी ली है| ये भौजी की चाय है|

इतना कहता हुए हम दोनों निकल पड़े, इसे कहते हैं होठों तक आती हुई चाय भी नसीब नहीं हुई|

गट्टू के संग गाय चराने जाने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी, मैं तो भौजी को अपना गुस्सा दिखाना चाहता था| दोपहर हुई और भोजन के लिए हम दोनों अपनी गायें हाँकते हुए घर लौट आये| गट्टू तो हाथ मुँह धो कर खाना खाने बैठ गया पर मैं गायों को पानी पिलाने लग गया| भोजन हमेशा की तरह भौजी ने बनाया था पर नजाने क्यों मेरा खाना खाने की इच्छा नहीं हुई| रह-रह कर भौजी की बातें दिल में सुई की तरह चुभ रही थी और मैं भौजी से नजरें चुरा रहा था| सब लोग रसोई के पास बैठे भोजन कर रहे थे और इधर मैं अपने कमरे में आगया और चारपाई पर बैठ कुछ सोचने लगा| भूख तो अब जैसे महसूस ही नहीं हो रही थी की तभी माँ मुझे ढूँढ़ते हुए कमरे में आगई और भोजन के लिए जोर डालने लगी| मुझे मायूस बैठा देख माँ ये तो समझ चुकी थी की कुछ तो गड़बड़ है मेरे साथ, पर क्या इसका अंदाजा उन्हें नहीं था| माँ जानती थी की गाओं में केवल एक ही मेरा सच्चा दोस्त है और वो है 'भौजी'! माँ भौजी को बुलाने गई और कुछ ही देर में भौजी भोजन की दो थालियाँ ले आई| मैं समझ चूका था की भौजी मेरे और माँ के लिए भोजन परोस के लाईं हैं| भौजी ने दोनों थालियाँ सामने मेज पर रखी और मेरे सामने आकर अपने घुटनों पर बैठ गईं| उन्होंने मेरा नीचे झुका चेहरा उठाया और मेरी आँखों में देखते हुए रुँवाँसी हो कर बोलीं;

भौजी: मानु .... मुझे माफ़ कर दो!

मैं: आखिर मेरा कसूर ही क्या था? सिर्फ आपके साथ भोजन ही तो करना चाहता था, जैसे हम पहले साथ-साथ भोजन किया करते थे| इसके लिए भी आपको दुनिया दारी की चिंता है?! तो ठीक है आप सम्भालो दुनिया दारी को, मुझे तो लगा था की आप मुझसे प्यार करते हो पर आपने तो अपने और मेरे बीच में दुनियादारी की लकीर ही खींच दी!

भौजी: मानु... मेरी बात तो एक बार सुन लो! उसके बाद तुम जो सजा दोगे मुझे मंजूर है|

मैं चुप हो गया और उन्हें अपनी बात कहने का मौका दिया|

भौजी: (भौजी ने अपना सीधा हाथ मेरे सर पे रख दिया और कहने लगीं) तुम्हारे भैया कल दोपहर को मेरे साथ सम्भोग करना चाहते थे, जब मैंने उन्हें मना किया तो वो भड़क गए और मेरी और उनकी तू-तू मैं-मैं हो गई, और उनका गुस्सा मैंने गलती से तुम पर निकाल दिया| इसके लिए मुझे माफ़ कर दो, कल रात से तुम्हारे साथ मैंने भी कुछ नहीं खाया यहाँ तक की सुबह की चाय भी नहीं पी|

मैं: आपको कसम खाने की कोई जर्रूरत नहीं है, मैं आप पर आँख मूँद के विश्वास करता हूँ|

और मैंने अपने हाथ से भौजी के आँसूँ पोंछें| तभी माँ भी आ गईं, शुक्र था की माँ ने हमारी कोई बात नहीं सुनी थी| भौजी ने एक थाली माँ को दे दी और दूसरी थाली ले कर मेरे सामने पलंग पर बैठ गईं| मैं हैरान था क्योंकि मैं जानता था की हम दोनों साथ खाना नहीं खा सकते;

भौजी: चलो मानु शुरू करो| (भौजी ने चावल का एक कौर खुद खाने के लिए बनाया|)

मैं: आप मेरे साथ एक ही थाली में खाना खाओगी? (मैंने हैरान होते हुए कहा|)

भौजी: हाँ! तुम मेरे झूठा नहीं खाओगे? (भौजी ने बड़ी सरलता से मुझसे पुछा पर तभी माँ बोल पड़ीं|)

माँ: जब छोटा था तो अपनी भौजी का पीछा नहीं छोड़ता था, तेरी भौजी ही तुझे खाना खिलाती थी और अब ड्रामे तो देखो इसके!

माँ ने मुझे प्यार से डाँटा| माँ की बात सुन भौजी मुस्कुरा दीं और मैं भी मुस्कुरा दिया| माँ ने खाना जल्दी खत्म किया और अपने बर्तन लेकर रसोई की तरफ चल दीं| कमरे में केवल मैं और भौजी ही रह गए थे, अब मुझे शरारत सूझी और मैंने भौजी से कहा:

मैं: भाभी खाना तो हो गया, पर मीठे में क्या है?

भौजी मेरा मतलब समझ गईं और मुस्कुराते हुए बोलीं|

भौजी: मीठे में एक बड़ी ख़ास चीज है|

मैं: वो क्या? (मैंने हैरानी से पुछा|)

भौजी: अपनी आँखें बंद करो!!!

मैं : लो कर ली| (मैंने फ़ौरन आँख बंद कर लीं|)


भौजी धीरे-धीरे आगे बढ़ीं और मेरे थर-थराते होंठों पर अपने होंठ रख दिए| आज भौजी की प्यास मैं साफ़ महसूस कर पा रहा था, उनकी प्यास मिटाने को उनके लबों को अपने मुँह में भर के उनका रस पीना चाहता था परन्तु उन्होंने मेरे होठों को निचोड़ना शुरू कर दिया| मैं इस मर्दन को रोकना नहीं चाहता था, इसलिए आँख बंद किये हुए आनंद के सागर में गोते लगाने लगा| पर भौजी सच में बहुत प्यासी थी, इतनी प्यासी की एक पल के लिए तो मुझे लगा की भौजी को अगर मौका मिल गया तो वो मुझे खा जाएँगी| उन्होंने तो मुझे सँभालने तक का मौका भी नहीं दिया और बारी-बारी मेरे होंठों को चूसने में लगीं थी| मैं मदहोश होता जा रहा था क्योंकि मैंने तो अपने जीवन में ऐसे सुख की कल्पना भी नहीं की थी| नीचे मेरे लिंग का हाल मुझसे भी बत्तर था, वो इतना तनाव में था जैसे की अभी पैंट फाड़ के बाहर आ जायेगा| मस्ती में चूर मैंने अपना हाथ भौजी के स्तन पर रखा और उन्हें धीरे-धीरे मींजने लगा| तभी भौजी ने चुम्बन तोडा और उनके मुख से सिसकारी फुट पड़ी; "स्स्स्स्स....मानु...आअह्ह्ह्ह!!! रुको......!" मेरा अपने ऊपर से काबू छूट रहा था और मैं मर्यादा लांघने के लिए तैयार था, ठीक ऐसा ही हाल भौजी का भी था| उन्होंने मुझे दोनों कन्धों से कस कर पकड़ा और झिंझोड़ा जिससे मैं आनंद के सागर से बाहर निकला;

भौजी: मानु अभी नहीं, कोई आ जायेगा| आज रात जब सब सो जायेंगे तब जो चाहे कर लेना मैं नहीं रोकूँगी!

भौजी ने बड़ी मुश्किल से अपने दिल पर काबू करते हुए कहा| मैं उनकी बात मान गया और बोला;

मैं: भौजी मुँह मीठा कर के मजा आ गया|

भाभी: अच्छा? (भौजी मुस्कुराने लगीं|)

मैं: भौजी इस बार तो कहीं आप अपने मायके तो नहीं भाग जाओगी? (मैंने भौजी को बात घुमाते हुए चेतावनी दी|)

भौजी: नहीं मानुवादा करती हूँ की मैं तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगी और अगर गई भी तो तुम्हें साथ ले जाऊँगी|

मैं: और अपने घर में सब से क्या कहोगी की मुझे अपने संग क्यों लाई हो?

भौजी: कह दूँगी की ससुराल से दहेज़ में तुम मिले हो!

भौजी के ये कहते ही हम दोनों खिल-खिला के हँसने लगे| मैंने अपनी प्यास जाहिर करते हुए कहा;

मैं: अब शाम तक इन्तेजार कैसे करूँ?

भौजी: मानु सब्र का फल मीठा होता है!


इतना कह के भौजी मुस्कुराते हुए उठीं, उस समय मैंने जैसे-तैसे अपने आप को रोका| अपनी इच्छाओं पर काबू पाना इतना आसान नहीं होता पर फिर भी मैंने जैसे-तैसे खुद को रोक लिया|

भौजी अपनी थाली ले कर रसोई की ओर चलीं गईं| मैं अकेला यहाँ बैठ कर क्या करता इसलिए मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दिया| मेरे लिए शाम होने का इन्तेजार करना बहुत मुश्किल था, एक-एक क्षण मानो साल जैसा प्रतीत हो रहा था| मैंने सोचा की अगर रात को जो होगा सो होगा कम से कम अभी तो भौजी के साथ थोड़ी मस्ती की जाए| भौजी बर्तन रसोई में रख पुराने घर चलीं गई थीं| अपने कमरे में वो संदूक में कपडे रख रही थीं| मैंने पीछे से भौजी को दबोच लिया और अपने हाथ उनके वक्ष पे रख उन्हें होले-होले दबाने लगा| भौजी मेरी बाँहों में कसमसा रही थी और छूटने की नाकाम कोशिश करने लगीं; "स्स्स्स्स ....उम्म्म्म्म ... छोड़ो...ना..!!!!" भौजी सिसयाते हुए बोलीं| मैंने बेदर्दी न दिखाते हुए उन्हें एकदम से अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया, अब मुझे ये नहीं पता था की ये तो स्त्री की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है| अंदर ही अंदर तो भौजी चाहती होंगी की हम कभी अलग ही ना हों|

भौजी: मानु तुम से सब्र नहीं होता ना?!

मैं: भौजी अपने ही तो आग लगाईं थी, अब आग इतनी जल्दी शांत कैसे होगी?!


मैंने मुस्कुराते हुए कहा, पर भौजी को डर था की कहीं कोई हमें एक कमरे में अकेले देख लेगा तो बातें बनाएगा, इसलिए वो बिना कुछ कहे बाहर चली आईं| मैं भी उनके पीछे-पीछे बाहर आ गया|


अजय भैया और रसिका भाभी (उनकी पत्नी) में बिलकुल नहीं बनती थी और दोनों छोटी-छोटी बात पर लड़ते रहते थे| रसिका भाभी अपना सारा गुस्सा अपने बच्चे वरुण पे उतारती, वो बिचारा दोनों के बीच में घुन की तरह पीस रहा था| पिताजी और माँ ने बहुत कोशिश की परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ| मैं जब पिछली बार गाओं आया था तब से ले कर आज तक मेरी रसिका भाभी से बात करने की हिम्मत नहीं होती, वो ज्यादातर अपने कमरे में ही रहतीं| घर का कोई काम नहीं करतीं और अगर कोई काम करने को कहता तो अपनी बिमारी का बहाना बना लेती| बाकी बच्चों की तरह वरुण भी मेरी ही गोद में खेलता रहता, मैं तो अपने गाओं का जगत चाचा बन गया था, हर बच्चा मेरे साथ ही रहना चाहता था इसी कारन मुझे भौजी के साथ अकेले रहने का समय नहीं मिल पता था| अभी मुझे आये एक दिन ही हुआ था और मेरे तीनों भतीजे और भतीजी मुझसे बहुत घुल-मिल गए थे| मधु भाभी (अशोक भैया की पत्नी) से मेरी बस दुआ-सलाम ही होती थी| उनके मन में नजाने क्यों मेरे प्रति द्वेष था| शायद इसलिए की मैं दिल्ली में रह कर पढ़ रहा था, पिताजी का अपना मकान था या फिर शायद इसलिए की घर में सबसे ज्यादा मान पिताजी, माँ और मेरा होता था! कारन मैं नहीं जानता और ना ही जानना चाहता था, जब भी वो राकेश को मेरे साथ खेलता हुआ देखतीं तो फ़ौरन उसे अपने पास बुला लेतीं|

जारी रहेगा भाग-2 में.....
 

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