Thriller खजाने की तलाश (completed)

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Update 10

"सुनो, यह रोशनदान इस तरह बने हैं कि मानो किसी मनुष्य का हाथ लगा हो. पत्थरों को एकदम गोलाई से काटकर यह रोशनदान बनाए गए हैं."
"इसी कारण इस प्राकृतिक कमरे में घुटन भी नहीं है." रामसिंह बोला.

"इसीलिये मैं यह सोचने पर विवश हूँ कि यह कमरा प्रकृतिक नहीं है, बल्कि यह किन्हीं मनुष्यों द्बारा बनाया गया है. और यह सुरंग भी प्राकृतिक नहीं है. इस कमरे और सुरंग के चारों ओर के पत्थर एकदम बराबर से कटे हैं. और यह कार्य प्राकृतिक नहीं हो सकता." प्रोफ़ेसर ने चारों ओर देखते हुए कहा.

"यह तो तुम सही कह रहे हो. किंतु इस सुनसान स्थान पर पहाड़ियों को काटकर यह सुरंग किसने बनाई होगी?" शमशेर सिंह ने पूछा.
"यही बात मेरे विचारों की पुष्टि कर रही है. अर्थात यहाँ पर प्राचीन समय में कोई सभ्यता ज़रूर आबाद थी.

जिसने अपना खजाना छुपाने के लिए इस सुरंग का निर्माण किया. वह खजाना ज़रूर यहीं इसी प्रकार की किसी सुरंग या किसी कमरे में होगा."

"इसका मतलब नक्शे ने हम लोगों का सही मार्गदर्शन किया है. " रामसिंह ने कहा.

"मेरा तो यही विचार है. इसलिए सबसे पहले हम लोग इसी कमरे की अच्छी तरह तलाशी लेंगे फिर आगे बढ़ेंगे." प्रोफ़ेसर ने दोबारा अपना सामान नीचे रखते हुए कहा. फिर उन लोगों ने उस कमरे का एक एक कोना देखना शुरू कर दिया मानो गिरी हुई सुई ढूँढ रहे हों. हालाँकि उस कमरे में कोई ऐसी जगह नहीं थी जहाँ खजाना छुपाया जा सकता था. किंतु फिर भी चोर दरवाज़े की आशा में उन्होंने अपनी जगह पर जमे कई पत्थरों को हिलाने का प्रयत्न किया जो असफल रहा.

"मेरा ख्याल है प्रोफ़ेसर, यहाँ पर कोई खजाना नहीं छुपा है. इसलिए हम लोगों को आगे बढ़ना चाहिए." शमशेर सिंह ने अपना पसीना पोंछते हुए कहा.
"ठीक कहते हो चलो आगे बढ़ते हैं."

एक बार फिर सुरंग शुरू हो गई थी. सुरंग में इतना अँधेरा था कि हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था. अतः प्रोफ़ेसर ने टॉर्च जला रखी थी.

"मुझे इस समय पता नहीं क्यों मिस्र के पिरामिडों की याद आ रही है." प्रोफ़ेसर ने कहा.

"यहाँ पर भला मिस्र के पिरामिडों को याद करने की क्या तुक है?" रामसिंह बोला.

"तुक तो है. अब देखो पहाडियाँ भी नीचे से चौडी होती हैं और ऊपर जाते जाते पतली होती जाती हैं. इसी तरह मिस्र के पिरामिड भी नीचे से चौडे हैं और ऊपर जाते जाते पतले होते गए हैं. मिस्र के पिरामिडों के अन्दर कई कक्ष बने हैं. और वे आपस में सुरंगों द्बारा जुड़े हैं. यहाँ भी हम लोगों ने एक कक्ष देखा था और वहां जाने का रास्ता भी सुरंग है. हो सकता है इस पहाड़ी में और भी इस प्रकार के कक्ष हों और वे आपस में इसी प्रकार की सुरंगों द्बारा जुड़े हों." प्रोफ़ेसर ने खड़े होकर पूरा लेक्चर दे डाला था.

"तुम्हारा मतलब ये पहाडियाँ नहीं बल्कि पिरामिड हैं." शमशेर सिंह ने उसकी ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा.

"यस्."

"फ़िर तो यहाँ ममियां भी मौजूद होनी चाहिए."

"किसकी मम्मियां? हम लोगों की मम्मियां तो स्वर्गवासी हो चुकी हैं. क्या स्वर्ग जाने वाला व्यक्ति यहीं आता है?" रामसिंह ने हैरत से पूछा.

"मम्मियां नहीं उल्लू की दम, ममियां. पुराने समय में लोग मरने वालों के मसाला लगाकर उन्हें ताबूत में सुरक्षित कर देते थे. वे लाशें ही ममियां कहलाती हैं." शमशेर सिंह ने स्पष्टीकरण किया.

"मैं भी यही समझता हूँ कि यहाँ ममियां ज़रूर होंगी." प्रोफ़ेसर ने कहा, "और उनके साथ खजाना भी होगा. क्योंकि मिस्र के पिरामिडों में जहाँ जहाँ ममियां मिली थीं वहां वहां उनके साथ विशाल खजाने भी मिले थे." खजाने के ख्याल ने एक बार फिर उन्हें रोमांचित कर दिया.आगे सुरंग पर एक मोड़ था. जैसे ही वे लोग मोड़ पर पहुंचे, उन्हें सुरंग का मुंह दिखाई पड़ने लगा. वहां से हलकी रोशनी अन्दर आ रही थी जिससे पता चल रहा था कि शाम होने वाली है.

"लो हम लोग सुरंग के मुंह तक तो पहुँच गए, यानी पहाडियों को पार कर गए." रामसिंह ने प्रसन्नता से कहा.

"इसमें दांत निकालने कि क्या बात है. हम लोग पहाडियां पार करने नहीं बल्कि खजाने की तलाश में आये है." शमशेर सिंह ने रामसिंह को घूरा.

"वह भी मिल जाएगा. वह ज़रूर सुरंग के मुंह पर नीचे बिखरा होगा. क्योंकि मुझे नीचे काफी गहराई मालूम हो रही है." रामसिंह ने कहा.

वे लोग सुरंग के मुंह तक पहुँच गए. और वहां से नीचे देख उनकी आशा निराशा में बदल गई. क्योंकि एक तो सुरंग का मुंह भूमि से काफ़ी ऊँचाई पर था और दूसरे वहां भूमि होने की बजाये एक बड़ा सा तालाब था, और यह तालाब पहाडी से एकदम लगा हुआ था. अतः नीचे उतरने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता था.

वे लोग कुछ देर तक एक दूसरे की शक्लें देखते रहे, फिर प्रोफ़ेसर ने नीचे पैर लटकाकर बैठते हुए कहा, "क्या ख्याल है, नीचे तालाब में उतरा जाए?"
"अरे नहीं. ऐसा विचार भी अपने मन में मत लाना. अगर तुम तालाब में उतर गए तो कहीं सहारा भी नहीं ले पाओगे. क्योंकि तालाब के चारों ओर चिकनी पहाडियाँ हैं. और उनपर हाथ जम ही नहीं सकता." शमशेर सिंह ने प्रोफ़ेसर के बाजू पूरे जकड़ लिए.

"मुझे तो अब झल्लाहट होने लगी है. अगर अब भी खजाना नहीं मिला तो मैं वापस लौट जाऊंगा. तुम लोग आराम से फिर खजाना खोजते रहना." रामसिंह बोला.

"वापस तो अब लौटना ही पड़ेगा. क्योंकि आगे का रास्ता पूरी तरह बंद है." शमशेर सिंह बोला.

"खैर छोड़ो इन बातों को. यह देखो, सामने का दृश्य कितना सुंदर है." प्रोफ़ेसर ने सामने देखते हुए कहा.

"तुम्हें यह ऊबड़ खाबड़ पहाडियां सुंदर दिखाई पड़ रही हैं और यहाँ हम लोगों को इतना क्रोध आ रहा है कि यदि ताजमहल भी सामने आ जाए तो हम लोगों को कुरूप महल दिखाई देगा." रामसिंह पूरी तरह झल्लाया हुआ था.

"खैर झल्लाहट तो मुझे भी महसूस हो रही है. लेकिन मैंने किताबों में पढ़ा था कि यदि पहाडियों के नीचे कोई नदी तालाब इत्यादि दिखाई दे रहा हो और उसमें डूबते सूरज का प्रतिबिम्ब दिख रहा हो , आकाश अपनी लालिमा बिखेर रहा हो तो वह दृश्य बहुत सुंदर माना जाता है."

"मुझे तो सबसे अच्छा दृश्य वह लगेगा जब खजाना मेरे सामने होगा." रामसिंह ने कहा.

"मुझे तो अब ऐसा लग रहा है कि या तो हम रास्ता भूल गए हैं या प्रोफ़ेसर ने कहीं से ग़लत नक्शा निकाल लिया है." शमशेर सिंह बोला.

"नक्शा तो ग़लत होने का सवाल ही नहीं. हाँ यह हो सकता है कि हम लोग रास्ता भूल गए हों. मैं एक बार फिर नक्शा देखे लेता हूँ." प्रोफ़ेसर ने जेब से नक्शा निकाला और देखने लगा.

"मेरी तो अब इसमें कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है. यह नक्शा तो लग रहा है कि यहाँ का है ही नहीं."

"मरवा दिया प्रोफ़ेसर तूने हमें. मुझे पहले ही डर था कि यह नक्शा खजाने का नहीं है. अब इन पहाडियों से सर टकरायें या तालाब में कूद पड़ें." रामसिंह ने परेशान होकर कहा.

"अरे तो हिम्मत क्यों हार रहे हो." प्रोफ़ेसर ने ढाढस बंधाई, "अभी खजाना मिलने कि हमारी आशाएं जीवित हैं. मैंने थोडी देर पहले कहा था कि ये पहाडियां मिस्र के पिरामिडों से मिलती हैं. अतः उन पिरामिडों की तरह यहाँ भी हमें प्राचीन सभ्यता द्बारा छुपाया गया खजाना मिलना चाहिए."

"तो फिर यहाँ बैठकर अपनी किस्मत को रोने से क्या फायेदा. हमेंदोबारा अन्दर चलकर कोशिश करनी चाहिए." शमशेर सिंह ने कहा.

वे तीनों उठ खड़े हुए और दोबारा सुरंग में घुसने लगे. जल्दी ही वे लोग फिर उसी कमरे में पहुँच गए. इस बार वहां रुकने की बजाये वे और आगे बढ़ने लगे. उनका विचार था कि पहाडियों से निकलकर फिर से कोई और रास्ता ढूँढा जाएगा. हो सकता है उस रास्ते से जाने पर खजाना मिल जाए.

कुछ दूर जाने के बाद अचानक उनके सामने एक दोराहा आ गया.

"यह दोराहा कहाँ से आ गया? जब हम लोग आ रहे थे तब तो यह था नहीं." रामसिंह ने कहा.

"यह कैसे हो सकता है कि आने में दोराहा न रहा हो. दोराहा तब भी था लेकिन हम लोग केवल आगे देखते हुए चल रहे थे अतः यह हमें दिखाई न दिया." प्रोफ़ेसर ने कहा.

"किंतु समस्या ये है कि यह कैसे पता चले कि हम लोग किस रास्ते से आये थे?" शमशेर सिंह ने असमंजस के भाव में कहा.

"हाँ. यह तो वास्तव में समस्या है. अगर हम लोगों ने ग़लत रास्ता पकड़ लिया तो शायद यहीं पहाडियों की सुरंगों में भटकते रह जायेंगे." प्रोफ़ेसर ने कहा.

"फ़िर क्या किया जाए? कैसे पता लगाया जाए कि कौन सा सही रास्ता है?" रामसिंह ने परेशान होकर कहा.

"ऐसा करते हैं. टॉस कर लेते हैं. यदि हेड आया तो दाएँ ओर और यदि टेल आया तो बाएँ ओर चलेंगे. तुममें से किसी के पास रूपया होगा?" प्रोफ़ेसर ने पूछा.

"मेरे पास है. यह लो." कहते हुए रामसिंह ने रूपया दिया.

"यह तो कागज़ का रूपया है उल्लू. टॉस करने के लिए सिक्का चाहिए."

"फ़िर तो सॉरी. हममें से किसी के पास रूपया नहीं है." दोनों ने एक साथ कहा.

"कोई तो सिक्का होगा तुम्हारे पास?"

"वास्तव में हम लोगों के पास कुछ नहीं है. हम लोग यह सोचकर खली हाथ आये थे कि खजाना मिलने पर अपने आप हाथ भर जायेंगे." शमशेर सिंह बोला.

"मेरी जेब में एक चवन्नी पड़ी थी. देखते हैं." कहते हुए रामसिंह ने अपनी जेब टटोली फिर निराशा से सर हिलाया, "लगता है यह वहां पर गिर गई जहाँ मैं कीचड़ में गिरा था."

"तुम लोगों के पास कुछ अक्ल नहीं है." प्रोफ़ेसर ने दोनों को घूरा, "ऐसा करते हैं कि मेरे पास जो किताब है, उससे टॉस कर लेते हैं."

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Update 11


"भला किताब से किस तरह टॉस होगा? उछालने पर वह फट नहीं जायेगी?" रामसिंह ने आश्चर्य से कहा.

"किताब उछलकर टॉस नहीं होता उल्लुओं. मैं बीच से इसे खोलूँगा. अगर इसपर लिखा पेज नंबर सम आया तो हम लोग दाएँ ओर जायेंगे और अगर विषम आया तो बाएँ ओर जायेंगे."

फ़िर प्रोफ़ेसर ने किताब खोली, साथ ही उसके मुंह से निकला, "ओह, ये क्या!"

"क्या हुआ?" दोनों उसकी ओर झुक पड़े.

"इसके दायें पेज पर तो विषम नंबर छपा है और बाएं पर सम."

"ऐसा है, तुम हर जगह पर किताब से काम लेने की कोशिश न किया करो." कहते हुए शमशेर सिंह ने झुककर एक चपटा पत्थर का टुकडा उठाया

और उसकी एक सतह पर थूकते हुए कहा, "मैं इस पत्थर को उछाल रहा हूँ. अगर गीला आया तो दाएँ और चलेंगे वरना बाएं ओर."

पत्थर का टुकडा नीचे गिरा और उसपर गीला वाला भाग ऊपर था. अतः उन लोगों ने दायें ओर चलना तय किया. सुरंग में काफ़ी अँधेरा था. इतना कि प्रोफ़ेसर को हर समय टॉर्च जलाए रखनी पड़ रही थी. साथ ही उन लोगों को ज़रा भी आभास न हो सका कि सुरंग सीधी जाने की बजाये गोलाई में घूम रही है.

जब उन लोगों को चलते चलते काफी देर हो गई और सुरंग के उस सिरे का चिन्ह भी न दिखाई दिया जिससे वे लोग चले थे तो वे लोग चौंके.

"यार, यह सुरंग क्या किसी ने खींच कर लम्बी कर दी है? मैंने आते में सामान उठाने में जितनी बार कंधे बदले थे उससे तीन गुनी बार अब तक बदल चुका हूँ. किंतु सुरंग का मुंह तो क्या, अब तक हलक भी नहीं दिखा." रामसिंह ने एक बार फ़िर एक कंधे का सामान दूसरे पर ट्रांसफर किया.

"हाँ, यह तो तुम सही कह रहे हो." प्रोफ़ेसर और शमशेर सिंह चौंक कर ठिठक गए.

, "लगता है हम लोग ग़लत रास्ते पर चले आये हैं."

"लगता नहीं पूरा विश्वास है कि हम लोगों ने ग़लत रास्ता चुना." शमशेर सिंह ने कहा.

"फिर क्या किया जाए? क्या वापस लौट चलें?" रामसिंह ने पूछा.

"लौटने को तो हम बाद में लौट सकते हैं. मेरा विचार हैं कि आगे देख लिया जाए. हो सकता हैं किस्मत हम पर मेहरबान हो जाए और खजाना हमारे
हाथ लग जाए." प्रोफ़ेसर ने कहा.

"तो ऐसा करते हैं कि अब निशान लगाते हुए आगे बढ़ते हैं. वरना इस भूलभुलैया में फंसकर हमारी हड्डियों का भी पता नहीं चलेगा." शमशेर सिंह बोला.

प्रोफ़ेसर ने अपना सूटकेस खोलकर एक चाक निकाली. फिर वे लोग चाक द्वारा दीवार पर निशान लगाते हुए आगे बढ़ने लगे. प्रत्येक व्यक्ति के दिल की धड़कने इस शंका से तेज़ हो गई थीं कि न जाने आगे क्या निकलता हैं. वैसे तो पूरी सुरंग में सीलन, चमगादडों की बीट इत्यादि की हलकी बदबू फैली हुई थी, किंतु यहाँ पहुंचकर यह बू और तेज़ हो गई थी. और जैसे जैसे वे लोग आगे बढ़ रहे थे, इस फैली हुई गंध में कुछ और गंध मिश्रित होकर अजीब प्रकार की गंध फैला रही थी.

"यार, यह गंध कैसी हैं?" रामसिंह ने नाक सिकोड़ते हुए कहा.

"सीलन वगैरह की बदबू हैं. यह कोई साफ़ सुथरा एयर कंडीशंड कमरा तो हैं नहीं कि हर ओर सुगंध फैली रहे. अगर खजाने को पाना हैं तो इतनी बदबू तो बर्दाश्त करनी ही पड़ेगी." प्रोफ़ेसर ने कहा.

अब सुरंग में कई मोड़ एक साथ मिले. और एक मोड़ से जैसे ही वे लोग घूमे, उन्होंने स्वयं को एक विशाल कमरे में पाया.
विचित्र गंध अब कुछ और तेज़ हो गई थी.

"यह कैसी भूलभुलैया हैं? यह पहाडियों को खोदकर कमरे किसने निकाले हैं?" रामसिंह ने आश्चर्य से कहा.

"वह जो भी सभ्यता रही होगी, कोई बहुत विकसित सभ्यता थी. और मेरे विचार से वह सभ्यता पहाड़ों के अन्दर निवास करती थी." प्रोफ़ेसर ने कहा.

"मेरा विचार हैं कि यहाँ खजाना ज़रूर मिलना चाहिए. क्योंकि एक विकसित सभ्यता का धन तो असीम होना चाहिए." शमशेर सिंह बोला.

"ठीक हैं. आओ ढूंढते हैं." प्रोफ़ेसर ने कहा.

फ़िर वे लोग एक एक कोने में अपनी नज़रें गड़ाने लगे.

उन्होंने जमे हुए एक एक पत्थर को हिलाने का प्रयत्न किया. अंत में चार पाँच पत्थरों को इस प्रकार देखने के बाद एक पत्थर वास्तव में हिलने लगा. इस पत्थर को शमशेर सिंह हिला रहा था.

"प्रोफ़ेसर, रामसिंह.." उसने पुकारा, "ज़रा इस पत्थर को अपने स्थान से हटाने में मेरी मदद करो."

फ़िर उन तीनों ने मिलकर ज़ोर लगाया और पत्थर अपने स्थान से हट गया. उसके पीछे वास्तव में एक छोटा सा दरवाजा था. वे लोग उसमें प्रविष्ट हो गए. यह एक और कमरा था. प्रोफ़ेसर ने टॉर्च जलाई और फ़िर वे लोग उन वस्तुओं को आश्चर्य से देखने लगे जो कमरे के बीचोंबीच रखी थीं.

ये लोहे के चार ताबूतनुमा बक्से थे जिनकी लम्बाई कम से कम दस फीट और चौडाई चार फीट थी. ऊँचाई भी अच्छी खासी थी.


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Update 12



"आखिरकार हम लोग खजाने तक पहुँच ही गए." शमशेर सिंह ने एक गहरी साँस ली.

"इतने खजाने में तो हम लोग पूरी दुनिया खरीद सकते हैं." रामसिंह ने कहा.

"मैं तो सबसे पहले ताजमहल खरीदूंगा. मुझे वह बहुत पसंद है." शमशेर सिंह ने अपनी भारी भरकम तोंद के साथ उछलने की कोशिश की.

"अब हमें देर न करते हुए इन बक्सों को खोलना चाहिए. पता तो चले कि इनमें हीरे भरे हैं या मोती."

फ़िर तीनों ने बक्सों को खोलने की तरकीबें करनी शुरू कर दीं. अजीब प्रकार के बक्से थे, जिनमें कोई कुंडा नहीं दिखाई दे रहा था. काफ़ी देर की कोशिशों के बाद भी तीनों उन्हें खोलने में नाकाम रहे और पसीना पोंछते हुए दूर खड़े हो गए.

"यार प्रोफ़ेसर, क्या हम लोगों को खजाने की झलक देखने को नहीं मिलेगी?" शमशेर सिंह ने मायूसी से पूछा.
"मैं तो कब से अपने डाउन सेल वाली टॉर्च लिए खड़ा हूँ कि कब बक्सा खुले और मैं अपनी टॉर्च की रौशनी में उसका दीदार करुँ." रामसिंह ने हाथ में पकड़ी टॉर्च झुलाते हुए कहा.

"अब तो मुझे भी गुस्सा आने लगा है. जी चाहता है कि पत्थर मार मार कर इन बक्सों का हुलिया बिगाड़ दूँ." कहते हुए प्रोफ़ेसर ने एक बड़ा पत्थर उठाया और निशाना लगाकर जोरों से एक बक्से के ऊपर फेंका. पत्थर बक्से से टकराकर वहीँ ज़मीन में गडे एक कीलनुमा पत्थर से टकरा गया.

दूसरे ही पल कीलनुमा पत्थर ज़मीन में धँसने लगा. फ़िर प्रोफ़ेसर वगैरा ने हैरत से उन बक्सों को देखना शुरू कर दिया जो आटोमैटिक ढंग से अपने आप खुलने लगे थे.

"शानदार. यानी यह पत्थर उन बक्सों को खोलने का स्विच था. " प्रोफ़ेसर ने प्रशंसात्मक भाव से उस कीलनुमा पत्थर को देखा.

"चलो रामसिंह. अब हम भगवान् का नाम लेकर अपने खजाने का दीदार करते है." शमशेर सिंह आगे बढ़ा और उसके पीछे पीछे दोनों दोस्त भी बक्से के करीब पहुँच गए. और बेताबी के साथ अन्दर मौजूद सामान के दीदार को झुक गए.

लेकिन वहां खजाने जैसी कोई चीज़ नहीं थी.

चारों बक्सों में चार आदमकद लाशें मौजूद थीं. जिनके चेहरे बर्फ की तरह सफ़ेद पड़ चुके थे. उनके शरीर पूरी तरह सही सलामत थे और उनपर गर्दन से पैर तक सफ़ेद लिबास मौजूद था.

"ल..लाश!" रामसिंह ने घबरा कर कहा.

"प..प्रोफ़ेसर, किसी ने इन्हें कत्ल करके यहाँ डाल दिया है." शमशेर सिंह कांपते हुए बोला, "यहाँ से जल्दी निकल चलो वरना पुलिस इनके कत्ल के इल्जाम में हमें ही गिरफ्तार कर लेगी."

"रुको बेवकूफों." प्रोफ़ेसर ने दोनों को भागने से रोका, "मेरा ख्याल हंड्रेड परसेंट सही निकला. मैंने तुम लोगों से कहा था कि ये पहाड़ी मिस्र के
पिरामिड जैसी है. ये वाकई में पिरामिड निकला. और ये चारों इस पिरामिड की ममियां हैं."

"ओह!" दोनों ने गहरी साँस ली. और ताबूतों में रखी लाशों को देखने लगे जो टॉर्च की रौशनी में चमकती हुई कुछ अजीब सी लग रही थीं.

"कितना खूबसूरत मौका मिला है मुझे." प्रोफ़ेसर ने खुश होकर कहा, "अब मैं इन ममियों पर अपनी साइंटिफिक रिसर्च करूंगा. और यह साबित कर दूँगा कि ये ममियां मिस्र के बादशाहों की नहीं थीं बल्कि उनकी बेगमों के आशिकों की थीं. जिन्हें उन बादशाहों ने जिंदा ताबूत में गड़वा दिया था."

"और खजाने की तलाश का क्या होगा?" रामसिंह ने मरी हुई आवाज़ में पूछा.

"खजाने को कुछ देर के लिए चूल्हे भाड़ में झोंको और मेरी रिसर्च में मदद करो." प्रोफ़ेसर एक ताबूत पर झुककर पास से उसका निरीक्षण करने लगा. इसी बीच उसके शरीर के दबाव से अन्दर मैजूद कोई खटका दब गया. दूसरे ही पल चारों ताबूतों से ऐसी आवाजें आने लगीं मानो किसी ने वहां ए.सी. चालू कर दिया हो. साथ ही ताबूत की दीवारों से निकलने वाली रंग बिरंगी किरणों ने चारों लाशों को अपने घेरे में ले लिया. प्रोफ़ेसर झिझक कर सीधा हो गया. फ़िर उन लोगों ने हैरत से देखा कि किरणों के प्रभाव से चारों लाशों के चेहरे पर धीरे धीरे सुर्खी लौट रही थी. मालूम होता था जैसे वे लोग जिंदा हो रहे हों.

और फ़िर वाकई चारों ने एक साथ ऑंखें खोल दीं. एक अंगड़ाई ली और उठकर बैठ गए.

"भ..भूत!" शमशेर सिंह की घिघियाती आवाज़ निकली.

"म..मेरा ख्याल है कि हमें यहाँ से भाग निकलना चाहिए." इस हालत में भी प्रोफ़ेसर अपना ख्याल जताने से बाज़ नहीं आया था.

"ल..लेकिन भागने का रास्ता किधर है?" रामसिंह लगभग रो देने वाली आवाज़ में बोला.

"इन भूतों ने भागने का रास्ता भी गायब कर दिया." शमशेर सिंह के चेहरे की हवाइयां दूर से देखी जा सकती थीं.

जबकि हकीकत ये थी कि भागने का रास्ता उनके ठीक पीछे मौजूद था. घबराहट और दहशत ने उनके दिमाग को ऐसा जड़ कर दिया था कि वे पीछे घूमने की सोच भी नही पा रहे थे.

उधर ताबूतों में मौजूद चारों मनुष्यों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा. फ़िर उनमें से एक ने अपना मुंह खोला, "आह! आज पता नहीं कितने बरसों के बाद हम जागे हैं." पाटदार आवाज़ में वह व्यक्ति कोई अनजान भाषाबोल रहा था.

"हाँ सियाकरण. और इसके लिए हमें इन मनुष्यों का कृतज्ञ होना चाहिए." दूसरे व्यक्ति ने तीनों दोस्तों की तरफ़ देखा, जो अपनी जगह पर खड़े वाइब्रेटर पर लगे मोबाइल की तरह काँप रहे थे.

"तुम ठीक कहते हो मारभट, चलो हम उनके पास चलकर उन्हें धन्यवाद देते हैं." सियाकरण ने कहा और चारों अपने अपने ताबूतों से निकलकर बाहर आ गए. चारों का कद किसी भी प्रकार सात फिट से कम नहीं था.

"प...प्रोफ़ेसर, वो लोग हमारी तरफ़ आ रहे हैं." रामसिंह ने शमशेर सिंह को प्रोफ़ेसर समझकर उसका बाजू थाम लिया. जबकि शमशेर सिंह ऑंखें बंद करके जल्दी जल्दी आरती को हनुमान चालीसा की तरह पढने लगा. हनुमान चालीसा तो इस समय लाख कोशिश करने के बाद भी याद नहीं आ रही थी.

चारों उनके सामने पहुंचकर रुक गए.

"हम तुम्हारा शुक्रिया अदा करते हैं कि तुमने बरसों बाद हमें इन ताबूतों से बाहर निकाला." वह व्यक्ति बोला जिसे दूसरों ने सियाकरण कह कर संबोधित किया था.

"प...प्रोफ़ेसर, यह क्या कह रहा है?" रामसिंह ने पूछा.

"शायद यह हमें खाने की बात कर रहा है." प्रोफ़ेसर की बात सुनकर दोनों की हालत और ख़राब हो गई.

उसी समय तीन ताबूतवाले आगे बढे और तीनों को गले से लगा लिया. जबकि चौथा व्यक्ति बारी बारी से तीनों के सर सहलाने लगा.

"य..ये लोग क्या कर रहे हैं?" बड़ी मुश्किल से शमशेर सिंह के मुंह से आवाज़ निकली.

"ये लोग हमें पकाने से पहले हमारी हड्डियों का कचूमर बनाना चाहते हैं." प्रोफ़ेसर कराहकर बोला. ताबूतवाले ने उसे कुछ ज़्यादा ज़ोर से भींच लिया था.

फ़िर वे लोग उनके हाथ चूमने लगे.

"मेरा ख्याल है ये लोग हमसे दोस्ती करना चाहते हैं." प्रोफ़ेसर ने कहा.

"भ..भूतों की न दोस्ती अच्छी होती है न दुश्मनी. प्रोफ़ेसर जल्दी से यहाँ से भाग चलो." रामसिंह ने प्रोफ़ेसर का हाथ पकड़कर खींचा.

लेकिन चारों ने उन्हें ऐसा जकड़ रखा था कि भागने का सवाल ही नहीं पैदा होता था.



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Update 13


फ़िर काफी मुश्किलों के बाद प्रोफ़ेसर वगैरह की समझ में आया की चारों ताबूतवासी इनके दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त हैं. अब सात लोगों का ये काफिला उस पहाडीनुमा पिरामिड से बाहर आकर जंगल में धमाचौकडी मचा रहा था. धीरे धीरे प्रोफ़ेसर वगैरह को उन चारों के नाम भी मालूम हो गए. सबसे ज़्यादा तेज़ तर्रार लीडर टाइप का सियाकरण था. उसके साथ सहयोगी रूप में लगा रहने वाला मारभट था. बाकी दोनों जो थोड़ा कम सक्रिय दिखाई देते थे क्रमशः चोटीराज और चिन्तिलाल थे. अब तीनों का डर उन ताबूतवासियों के प्रति काफी कम हो गया था. ख़ास तौर से प्रोफ़ेसर तो पूरी तरह निश्चिंत हो गया था, और उनकी भाषा समझने की कोशिश का रहा था. जबकि रामसिंह और शमशेर सिंह अब भी उन ताबूतवासियों से दूर दूर और कटे कटे रहते थे.

यह ताबूतवासी कौन थे और कहाँ से आये थे, यह अभी भी एक रहस्य था.

और इस रहस्य से परदा उठा एक महीने बाद. जब प्रोफ़ेसर और सियाकरण लगभग पूरी तरह एक दूसरे की भाषा समझने लगे थे. उस वक्त सियाकरण ने जो बताया वह प्रोफ़ेसर और उनके दोस्तों को भौंचक्का करने के लिए काफी था.

"आज से हजारों वर्ष पहले यहाँ एक बहुत बड़ी सभ्यता आबाद थी. विज्ञान की दृष्टि से भी बहुत उन्नत थी. सैंकडों वैज्ञानिक उस समय अनेक विकास कार्यों पर जुटे हुए थे. उनमें महर्षि प्रयोगाचार्य का नाम सबसे ऊपर था."

"एक मिनट!" प्रोफ़ेसर ने उसे टोका, "जब आपके प्रयोगाचार्य वैज्ञानिक थे तो वह ऋषि कहाँ से हो गए?"

"हमारे समय में वैज्ञानिकों को ऋषि कहा जाता था. और उच्च कोटि के वैज्ञानिक महर्षि कहलाते थे. और प्रयोगाचार्य जी तो महानतम ऋषि थे. जिनका आदर रजा भी करता था. हम चारों महर्षि के शिष्यों में शामिल थे. हमारे अलावा उनके सैंकडों शिष्य और थे. एक दिन प्रयोगाचार्य जी ने हम चारों को अलग बुलाया, शायद वह कोई खास बात करना चाहते थे.

"क्या बात है गुरूजी? आपने हम लोगों को क्यों बुलाया है?" मैंने पूछा.

"आज मैंने एक बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है." महर्षि के चेहरे के रोम रोम से इस समय खुशी फूट रही थी. सदेव विद्यमान रहने वाली गंभीरता उनके मस्तक से गायब थी

"क्या कोई नया सूत्र हाथ लगा है?" मारभट ने पूछा.

"मैंने ऐसा आविष्कार किया है कि हजारों साल बाद भी लोग मुझे याद रखेंगे. मैंने मनुष्यों को हजारों साल जीवित रहने का सूत्र खोज निकाला है." महान वैज्ञानिक महर्षि प्रयोगाचार्य जी ने रहस्योदघाटन किया.

"क्या? यह कैसे सम्भव है?" मैंने आश्चर्य से कहा.

"मैं विस्तार से समझाता हूँ." प्रयोगाचार्य जी ने कहना शुरू किया, "मानव को मृत्यु प्राप्ति कैसे होती है? पहले मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो."

"गुरूजी, आप ही ने हमें बताया है कि मानव शरीर छोटी छोटी कोशिकाओं से मिलकर बना होता है जो लगातार कार्यरत रहती हैं. कार्य करते करते इनकी क्षमता धीरे धीरे कम होती जाती है. और अंततः ये नष्ट हो जाती हैं. इनका स्थान नई कोशिकाएं लेती हैं और उनके साथ भी यही प्रक्रिया होती है. धीरे धीरे नष्ट होने वाली कोशिकाओं की संख्या बढ़ने लगती है और नई कोशिकाओं की उत्पत्ति कम होने लगती है. यही बुढापे की शुरुआत होती है जिसका अंत मनुष्य की मृत्यु पर होता है." मैंने बताया.

"बिल्कुल ठीक. इसी पर मैंने विचार किया कि यदि मानव शरीर में होने वाली समस्त क्रियाओं को रोक दिया जाए तो उसकी कोशिकाओं की क्षमता सदेव बनी रहेगी और वे कभी नष्ट न होंगी."

"किंतु मानव शरीर की क्रियाएँ रोक देने पर वह जीवित कहाँ रहेगा?" मारभट ने पूछा.

"क्रियाएँ रोक देने पर वह मृत ज़रूर होगा, किंतु उसकी यह मृत्यु अस्थाई होगी. क्योंकि उसकी कोशिकाएं पहले की तरह शक्तिशाली बनी रहेंगी. मेरी एक विशेष प्रक्रिया उन कोशिकाओं को दोबारा सक्रिय कर देगी. मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि यह सब कैसे होगा."

'महर्षि प्रयोगाचार्य ने हम चारों को साथ लिया और एक यटिकम पर बैठकर जंगल की तरफ़ बढ़ने लगे.' सियाकरण हजारों साल पुरानी दास्तान सुना रहा था जिसे प्रोफ़ेसर मुंह खोलकर ऑंखें फाड़े हुए सुन रहा था.

"एक मिनट!" प्रोफ़ेसर ने टोका, "यह यटिकम क्या बला है? "

"यटिकम एक विशेष डिब्बानुमा रचना थी जिसके नीचे गोल गोल चक्के लगे होते थे. इसे दो यल मिलकर खींचते थे. उसपर बैठकर हम एक जगह से दूसरी जगह प्रस्थान करते थे."

"समझा!" प्रोफ़ेसर ने गहरी साँस लेकर सर हिलाया, "हमारी भाषा में तुम्हारे यटिकम को बैलगाडी कहते है. और यल को बैल कहते हैं."

"हो सकता है." सियाकरण ने आगे कहना शुरू किया, "महर्षि प्रयोगाचार्य जी हम चारों को लेकर जंगल पहुंचे और एक पहाडी में बनी सुरंग में प्रवेश कर गए. हमने देखा, गुरूजी ने पहाडी के अन्दर बहुत बड़ी प्रयोगशाला बना रखी थी, जिसमें बहुत सारे कमरे थे. यह सभी कमरे एक दूसरे से सुरंगों द्वारा जुड़े थे. वो हमें लेकर एक कमरे में पहुंचे जहा

लोहे के चार दैत्याकार संदूक रखे थे."

"ये संदूक, जो तुम लोग देख रहे हो, यही मेरा आविष्कार है." कहते हुए महर्षि ने दूर ज़मीन में गडा एक कीलनुमा पत्थर दबाया और चारों संदूक अपने आप खुलते चले गए.

महर्षि ने आगे बताना शुरू किया, "इन संदूकों में जब मानव को लिटाकर बंद किया जाएगा तो इनमें उपस्थित यंत्र एक विशेष प्रक्रिया द्वारा उस मानव को ताप प्रशीतन की अवस्था में पहुँचा देंगे, और वह अत्यधिक निम्न ताप पर शीत निद्रा की अवस्था में पहुँच जाएगा. इस अवस्था में उसके शरीर की समस्त क्रियायें रूक जाएँगी. उसका मस्तिष्क असंवेदनशील हो जाएगा और वहीँ से उसकी आयु स्थिर हो जायेगी. जब तक वह संदूक में बंद रहेगा, वाहय दुनिया से और स्वयं उसके भौतिक शरीर से उसका संपर्क पूरी तरह टूट जाएगा."

"और उसकी यह अवस्था कब तक रहेगी गुरूजी?" मारभट ने पूछा.

"जब तक कोई बहरी मनुष्य आकर उन संदूकों को खोलता नहीं. इसके लिए वह यह आलम्ब दबाएगा." महर्षि ने कीलनुमा पत्थर की ओर संकेत किया, "जब उस मनुष्य के शरीर का ताप किसी संदूक के अन्दर पहुंचेगा तो संदूक में उपस्थित ताप प्रशीतन की अवस्था समाप्त करने का यंत्र क्रियाशील हो जाएगा. फ़िर चारों संदूकों के यंत्र एक विशेष प्रकार की ताप किरणें छोड़कर उन मानवों को पुनर्जीवित कर देंगे."

हम चारों आश्चर्य के साथ उनके इस अदभुत आविष्कार को देख रहे थे.

"अब तुम लोग सोच रहे होगे कि वह लोग कौन हैं जिन्हें इन संदूकों में लिटाया जाएगा. जो कई बरसों या शायद सैंकडों बरसों तक अस्थाई मृत्यु की अवस्था में इस कमरे में पड़े रहेंगे.......इन संदूकों की संख्या से शायद तुम कुछ अनुमान लगा सकते हो." महर्षि ने हमारी आँखों में झाँका.

संदूकों की संख्या चार थी और हम भी कुल चार थे. मामले को समझते ही हमारे शरीरों में एक सिहरन सी दौड़ गई. महर्षि का इरादा स्पष्ट था.

"तुम चारों मेरे सबसे होनहार शिष्यों में से हो. इसलिए यह अनुभव तुम्हारे ही शरीरों को प्राप्त होगा. यह अनुभव बहुत बड़ा जोखिम भी है. हो सकता है सैंकडों वर्षों में लोग यहाँ का रास्ता भूल जायें. यहाँ ये चारों संदूक हमेशा के लिए दुनिया की दृष्टि से दूर हो जायें. इसके बाद भी मुझे आशा है कि तुम लोग इसके लिए तैयार हो जाओगे." महर्षि ने आशा भरी दृष्टि से हमारी ओर देखा.

गुरूजी की आज्ञा हमारे लिए ईश्वर का आदेश थी. हम तैयार हो गए. जिस दिन हम जीवित ही अपने ताबूतों में जा रहे थे, स्वयं महाराजा हमें विदाई देने के लिए वहां तक आये. और उसके बाद हम एक लम्बी निद्रा में लीन हो गए.

और जब दोबारा हमारी आंख खुली तो तुम लोग हमारे सामने थे. और शायद हजारों वर्ष बीत चुके हैं अबतक." सियाकरण ने अपनी दास्तान ख़त्म करके जब प्रोफ़ेसर की तरफ़ देखा तो उसे सकते की हालत में पाया. ठहोका देकर जब उसे सामान्य हालत में लाया गया तो उसने सिर्फ़ इतना कहा, "मुझे मालूम न था कि पुराने समय में भी इतने महान वैज्ञानिक होते थे. हम लोग बेकार में आजकल के वैज्ञानिकों की बदाई किया करते हैं. मैं तो योगाचार्य जी के सामने धूल का फूल भी नहीं हूँ."


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Update 14


अब तक की कहानी

तीन दोस्त देवीसिंह (प्रोफ़ेसर), रामसिंह और शमशेर सिंह खजाने की तलाश में मिकिर पहाडियों में जा पहुंचते हैं. वहां पहुंचकर पता चलता है कि वे रास्ता भटक चुके है. पहाडियों के अन्दर बनी सुरंगों में चकराते हुए उन्हें एक जगह चार ताबूत दिखाई देते हैं. वे उन्हें खोलते हैं तो वहां चार लाशें दिखाई देती हैं. फ़िर वे लाशें जिंदा भी हो जाती हैं. पता चलता है कि प्राचीन समय के एक वैज्ञानिक महर्षि प्रयोगाचार्य ने उन्हें शीत निद्रा में सुलाकर उनकी आयु सैंकडों वर्ष बढ़ा दी थी. तीनों उनकी दास्ताँ सुनकर दंग रह जाते हैं.

अब आगे पढिये.....

जब प्रोफ़ेसर ने यह कहानी रामसिंह और शमशेर सिंह को सुनाई तो छूटते ही रामसिंह कहने लगा, "मैं तो पहले ही कह रहा था कि ये लोग भूत प्रेत हैं. भला कोई मनुष्य हजारों साल कैसे जिंदा रह सकता है. अब अच्छा यही होगा कि इन्हें यहीं छोड़कर किसी तरह भाग चलो. भाड़ में गया खजाना. घर चलकर आलू बेचने का धंधा कर लेंगे. थोड़ा बहुत पैसा तो मिल ही जायेगा."

"तुम लोग हमेशा गिरा हुआ ही सोचोगे." प्रोफ़ेसर ने उन्हें घूरा, "किस्मत ने कितना अच्छा मौका दिया है हमें. ये प्राचीन युगवासी अब हमारे दोस्त बन चुके हैं. हम अब इन्हें थोड़ा मक्खन और लगाते हैं तो ये हमें प्राचीन खजाने का पता ज़रूर बता देंगे."

एक बार फिर तीनों लालच में आकर प्राचीन युगवासियों के साथ रहने पर तैयार हो गए.

एक दिन बातों ही बातों में प्रोफ़ेसर ने सियाकरण से पूछा, "तुम लोगों के पास खजाना तो अवश्य होगा."
"खजाना किसको कहते हैं?" सियाकरण ने पूछा.

"खजाना मतलब ऐसी चीज़ें जिससे लोग अपनी ज़रूरत का सामान खरीदते हैं."

"ओह! खजाना तो है मेरे पास." कहते हुए सियाकरण ने अपने सफ़ेद लबादे के अन्दर हाथ डाला. प्रोफ़ेसर के साथ मौजूद रामसिंह और शमशेर सिंह उत्सुकता के साथ उसके करीब आ गए.

सियाकरण ने जेब से कुछ सिक्के निकालकर प्रोफ़ेसर के हाथ पर रख दिए.

"ये सिक्के तो तांबे के हैं." प्रोफ़ेसर ने उलट पलट कर देखते हुए कहा.

"हमारे पास तो यही खजाना है." सियाकरण ने कहा.

"ओह!" तीनों ने मायूसी से सर हिलाया.

"ये लोग तो हमारी तरह फक्कड़ निकले. भला तांबे के सिक्कों में आजकल क्या मिलेगा." रामसिंह ने मायूसी से कहा. इस समय वे एक पगडण्डी पर चल रहे थे. प्राचीन युगवासी उनके पीछे काफी फासले पर चले आ रहे थे.

"अब तो अच्छा यही होगा कि हम लोग इन्हें यहीं छोड़कर निकल लें." शमशेर सिंह ने राय दी.

"अरे वो देखो!" प्रोफ़ेसर ने सामने इशारा किया. दोनों ने चौंक कर देखा, सामने एक रेलवे लाइन दिखाई दे रही थी.

"इसका मतलब कि हम लोग जंगल से बाहर आ चुके हैं." शमशेर सिंह ने कहा.

"यह क्या है?" पीछे मौजूद सियाकरण ने पूछा. अब तक प्राचीन युगवासी भी उनके पास आ चुके थे.

"यह पटरी है. जिसपर रेलगाडी चलती है." प्रोफ़ेसर ने बताया.

"रेलगाडी क्या होती है?" मारभट ने पूछा.

"रेलगाडी...यानी तुम्हारे ज़माने की यटिकम." प्रोफ़ेसर ने समझाया. चारों युगवासियों ने इस प्रकार अपना सर हिलाया मानो प्रोफ़ेसर की बात समझ गए हों.

"अगर हम लोग इस लाइन के साथ चलें तो किसी छोटे मोटे स्टेशन तक पहुँच सकते हैं." प्रोफ़ेसर ने राय दी और फ़िर सभी उसके पीछे पीछे रेलवे लाइन की बराबर में चलने लगे.

जब ये लोग करीबी स्टेशन पर पहुंचे तो अच्छी खासी रात हो चुकी थी. कोई छोटा सा स्टेशन था ये जहाँ इक्का दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे. स्टेशन मास्टर से पूछने पर मालूम हुआ कि यहाँ दो रेलगाडियाँ रूकती हैं. उनमें से एक आधे घंटे के बाद आएगी और दूसरी सुबह चार बजे आती है. ये लोग प्लेटफार्म पर आ गए.

"हम लोग यहाँ क्यों आए हैं?" सियाकरण ने पूछा.

"अभी यहाँ यटिकम आकर रुकेगी. जिसमें सवार होकर हम लोग शहर जायेंगे." प्रोफ़ेसर ने बताया.

"अच्छा." सियाकरण ने सर हिलाया.

"जब तक यटिकम नहीं आती, हम लोग सो जाते है. बड़ी जोरों की नींद आ रही है." मारभट ने जम्हाई लेकर कहा. प्राचीन युगवासी होने के कारण उन्हें जल्दी सोने की आदत थी.

"ठीक है. तुम लोग सो जाओ. जब यटिकम आएगी तो हम तुम्हें जगा देंगे." जल्दी ही चारों प्राचीन युगवासियों के खर्राटे वहां गूंजने लगे.
"हमें एक बहुत सुनहरा मौका हाथ लगा है." रामसिंह ने कहा.

"कैसा मौका?" प्रोफ़ेसर ने पूछा.

"इनसे पीछा छुड़ाने का मौका. जैसे ही ट्रेन आएगी, हम इन्हें यहीं सोता छोड़कर निकल लेंगे."

"लेकिन!" प्रोफ़ेसर ने कुछ कहना चाहा लेकिन शमशेर सिंह ने फ़ौरन उसका मुंह दबा दिया, "बस, अब हम तुम्हारी कुछ न सुनेंगे. इन फक्कडों के पास खजाना होता, तब भी कुछ सोचा जा सकता था. लेकिन ये तो ज़बरदस्ती के पुछ्लग्गे चिपक गए हैं."

"ठीक है. जैसी तुम लोगों की मर्ज़ी." प्रोफ़ेसर ने ठंडी साँस ली और रेलवे लाइन पर लगे सिग्नल को देखने लगा जो फिलहाल लाल था.

लगभग आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद गाड़ी आ गई और तीनों दोस्त उसमें सवार हो गए. दो मिनट स्टेशन पर रूकने के बाद गाड़ी चल दी और ये लोग प्राचीन युगवासियों से दूर होने लगे.

"खुश रहो ताबूत के जिन्नों, हम तो सफर करते हैं." रामसिंह ने किसी पुराने शेर की टांग खींची. प्लेटफोर्म पर चारों प्राचीन युगवासी नींद में डूबे पड़े थे इस बात से बेखबर की उनके कलयुगी दोस्त उनका साथ छोड़ रहे हैं.

"आज से हम कसम खाते हैं कि फ़िर कभी प्रोफ़ेसर देव के साथ खजाना खोजने के चक्कर में नहीं पड़ेंगे." शमशेर सिंह और रामसिंह ने एक आवाज़ होकर कहा.

"मैं ख़ुद ही अब कभी खजाना खोजने नहीं निकलूंगा. ये काम तो मैं तुम दोनों की भलाई के लिए कर रहा था. ये दूसरी बात है की खजाने के नाम पर कुछ तांबे के सिक्के मिले जो उन ताबूतवासियों ने दिए. वैसे अब भी मेरा विचार है की यदि हम उन ताबूतों की ठीक तरह से तलाशी लेते तो कुछ न कुछ अवश्य मिलता."

शमशेर सिंह ने झपट कर प्रोफ़ेसर का गरेबान पकड़ लिया और गुर्राते हुए बोला, "अब अगर तुमने खजाने का नाम भी लिया तो मैं तुमको इसी चलती गाड़ी से बाहर फेंक दूँगा."

"अच्छा नही लूँगा. मैं तो अब अपने नए एक्सपेरिमेंट के बारे में सोचने जा रहा हूँ."

"कैसा एक्सपेरिमेंट?


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Update 15

मैं सोच रहा हूँ की क्यों न मैं भी ऐसी मशीन बनाऊं जैसी उस युग के वैज्ञानिक महर्षि प्रयोगाचार्य ने बनाई थी. और इस प्रकार हम अपने भविष्य में पहुंचकर वहां की दुनिया देखेंगे. ऐसी दुनिया जहाँ हर व्यक्ति के पास एक कंप्यूटर होगा जो उसका सारा कार्य करेगा. लोग अपनी छोटी यात्राएँ भी वायुयान से करेंगे. रेलगाडियां ध्वनि से भी तेज़ चलेंगी. हर लड़का टी.वी. द्वारा अपने स्कूल के संपर्क में रहेगा. और इस तरह घर बैठे शिक्षा प्राप्त करेगा. लोगों के घर आसमान से बातें करेंगे और उन घरों के ऊपर लगा एंटीना पूरे विश्व के प्रोग्राम रिकॉर्ड करके उन्हें दिखायेगा."

प्रोफ़ेसर पूरी तरह भविष्य की कल्पना में खो गया था.

"और अगर इसका उल्टा हो गया?" रामसिंह बोला, "यानी हर कंप्यूटर के पास एक नौकर व्यक्ति होगा, वायुयान छोटी यात्रायें करने के काबिल भी न रहेंगे - पेट्रोल की कमी के कारण. रेलगाडियां ध्वनि से तेज़ चलकर प्रकाश की गति से एक्सीडेंट करेंगी. हर लड़का टी. वी. द्वारा शहर के समस्त सिनेमाघरों के संपर्क में रहेगा और इस तरह घर बैठे फिल्मी हीरो बन सकेगा. आबादी इतनी ज़्यादा होगी की आसमान से बातें करते घर ज़मीन में भी मीलों धंसे रहेंगे लेकिन फ़िर भी लोग घरों की कमी के कारण बेकार पड़े हवाई जहाजों में निवास करेंगे." रामसिंह ने उतनी ही तेज़ी से प्रोफ़ेसर की बातों की काट की जिस तरह छुरी मक्खन को काटती है.

"कुछ भी हो. मैं तो वह मशीन अवश्य बनाऊंगा. और उसमें तुम लोगों को बिठाकर भविष्य में भेजूंगा."

"बाप रे. तुम्हारे तो बहुत खतरनाक विचार हैं. हमें तो बख्श ही दो. वरना हम तो तुम्हारी मशीन में बैठकर भविष्य में जाने की बजाये भूत बनकर भविष्य से भी आगे भटकते फिरेंगे." शमशेर सिंह बोला.

"ठीक है. न जाओ तुम लोग भविष्य में. मैं स्वयं अपनी मशीन में बैठकर भविष्य की यात्रा करूंगा."

तो चले जाना. क्या हम लोग रोक रहे हैं. लेकिन पहले अपनी मशीन बनाओ तो." रामसिंह ने प्रोफ़ेसर को याद दिलाया की अभी उसकी मशीन केवल कल्पना के हवामहल पर है.

उसके बाद बाकी रास्ता खामोशी से तय हुआ. लगभग पाँच घंटे के बाद गाड़ी गौहाटी के प्लेटफार्म पर रुक चुकी थी. यहाँ ये लोग उतर पड़े. यहाँ से उनहोंने अपने शहर का टिकट लिया और शहर जाने वाली गाड़ी पर सवार हो गए. आधे घंटे के बाद वे लोग अपने शहर की ओर अग्रसर थे. उन लोगों ने तय तो कर लिया था की अब कभी खजाने की खोज में नहीं निकलेंगे किंतु कब उनके दिमाग पलट जाते इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता था.


गाड़ी की सीटी की आवाज़ सुनकर सबसे पहले चोटीराज की आँख खुली. यह सुबह चार बजे वाली गाड़ी थी. चोटीराज अपने बाकी साथियों को जगाने लगा. कुछ ही देर में सब ऑंखें मलते हुए उठ बैठे.

"वह देखो यटिकम. इस युग का हमारा मित्र कह रहा था कि इसी में हम लोगों को बैठना है." चोटीराज ने उन्हें याद दिलाया.

"हाँ कहा तो था. किंतु वे लोग गए कहाँ?" मारभट ने चौंक कर कहा.

"मेरा विचार है कि वे लोग यटिकम में होंगे. चलो हम भी उसके अन्दर चलते हैं. किंतु यह यटिकम बड़ी विचित्र है. कितनी बड़ी है. कितने सारे लोग इसमें बैठे हैं. इसे कितने यल मिलकर खींचते होंगे." चीन्तिलाल ने आश्चर्य से कहा.

गाड़ी अब तक खड़ी थी. वे लोग उसकी तरफ़ बढ़ने लगे. फ़िर एक डिब्बे में जाकर बैठ गए. यह कोई धीमी पैसेंजर गाड़ी थी. क्योंकि इसमें यात्री बहुत कम थे और जिस डिब्बे में ये लोग बैठे थे वह पूरी तरह सुनसान पड़ा था. वैसे अगर इस डिब्बे में कोई अन्य यात्री होता तो वह एक बार अवश्य इन लोगों को आश्चर्य से देखता. और इसका कारण होता इनका लबादा और सात फुट की ऊँचाई.

गाड़ी अब रेंगने लगी थी. फ़िर उसने धीरे धीरे स्पीड पकड़नी शुरू कर दी. इस चक्कर में उसके डिब्बे कुछ हिलने लगे.

"अरे यहाँ तो भूकंप आ रहा है. जल्दी से बाहर निकलो." चीन्तिलाल ने घबरा कर कहा.

"यह भूकंप नहीं है, बल्कि यटिकम चलने लगी है. क्या तुम्हें याद नहीं की हमारे युग की यटिकम जब चलती थी तो हिलती थी." मारभट ने समझाया.
"सही कह रहे हो. वास्तव में यटिकम ही चल रही है. बात यह है की हमारे युग के मकान इसी प्रकार बने थे अतः मैं समझा की अपने मकान में बैठा हूँ." चीन्तिलाल ने कहा.

इनकी इन्हीं बातों के बीच आधा घंटा बीत गया. फ़िर ट्रेन धीमी होने लगी. शायद कोई स्टेशन आ रहा था. फ़िर वह रूक गई. इस स्टेशन से कुछ यात्री इनके डिब्बे में भी चढ़े और साथ में टी.टी. भी.

"आप लोग अपना टिकट दिखाइये." टी.टी. ने इन लोगों से कहा. टी.टी. की पूरी बात ये लोग समझ ही नहीं पाये. क्योंकि प्रोफ़ेसर इत्यादि जब इनसे बोलते थे तो आधी अपनी भाषा और आधी इनकी भाषा मिलकर बोलते थे. जबकि टी.टी. ने शुद्ध हिन्दी में इनसे टिकट माँगा था.ये क्या कह रहा है?" सियाकरण ने मारभट की ओर देखकर पूछा.

"शायद यह कुछ मांग रहा है." मारभट ने टी.टी. का फैला हाथ देखकर अनुमान लगाया. टी.टी. ने एक बार फ़िर इनसे टिकट माँगा.

"ये टिकट क्या होता है?" मारभट ने टूटी फूटी हिन्दी में उससे पूछा.

टी.टी. को शायद इनसे ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी. अतः वह इनका मुंह देखने लगा. फ़िर बोला, "गाड़ी में बैठ गए और यही नहीं पता की टिकट क्या होता है. क्या दूसरी दुनिया में रहते हो? मैं कहता हूँ चुपचाप टिकट निकालो वरना अन्दर करवा दूँगा." इसी के साथ ही उसने संकेत किया और दो रेलवे कांस्टेबिल उनके पास आकर खड़े हो गए.

"ये तो क्रोध में मालुम हो रहा है. आख़िर ये क्या मांग रहा है?" चोटीराज ने कहा.

"मेरा विचार है की यह याटिकम का मालिक है, और हमसे मुद्राएँ मांग रहा है. अपने यल को चारा खिलाने के लिए."

सियाकरण ने अपना थैला उठाया और उसे खोलने लगा. टी.टी. ने यह समझ कर कि वह टिकट निकाल रहा है बोला, "जब पुलिस देखी तो होश ठिकाने आ गए. आगे से किसी सरकारी आदमी के साथ मज़ाक मत करना." उसे क्या पता था कि इन प्राचीन युग्वासियों को मज़ाक का अर्थ भी नहीं मालूम. सियाकरण ने अपने थैले से दो तीन मुद्राएँ निकालीं और टी.टी. की ओर बढ़ा दीं.

तांबें की मुद्राएँ देखकर टी.टी. का पारा फ़िर चढ़ गया. वह बोला, "बहुत हो चुका. अब अगर तुम लोगों को सबक न सिखाया तो मेरा नाम भी राम खिलावन नहीं. सिपाहियों, इन पर निगरानी रखो. अगले स्टेशन पर इन्हें उतार कर जेल भिजवा देना." वह सिपाहियों से बोला.

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Update 16

यह तो क्रोध में मालूम हो रहा है. क्या बात हो गई?" सियाकरण टी.टी. की ज्वालामय मुख मुद्रा देखकर मारभट से चुपके से बोला.

"मेरा विचार है कि तुमने उसे मुद्राएँ कम दी हैं. थोडी और दे दो." मारभट ने सुझाया.

"ठीक है. मैं और दे देता हूँ." सियाकरण थैले से और मुद्राएँ निकलने लगा किंतु इतनी देर में टी.टी. इन लोगों को सिपाहियों की निगरानी में देकर दूसरी तरफ़ चला गया था.

अतः सियाकरण को दुबारा मुद्राएँ थैले में रख देनी पड़ीं.

उधर एक सिपाही उनके लबादे को देखकर बोला, "क्यों बे, कपड़े तो सन्यासियों वाले पहन रखे हैं और यात्रा बिना टिकट करता है!"

इन लोगों की समझ में उसका एक भी शब्द नहीं आया और ये उसका मुंह देखने लगे.

"क्यों बे, ये भोले लोगों की तरह मुंह क्या देख रहा है. क्या किसी दूसरी दुनिया से आया है!" दूसरे सिपाही ने डपट कर कहा.

ये लोग अब भी उसकी बात नहीं समझे. अंत में मारभट ने टूटी फूटी हिन्दी में कहा, "हम लोग प्राचीन युग से आये हैं अतः आपकी बात नहीं समझ पा रहे है."

"क्या? कौन से शहर से? यह चीनुग कौन सा शहर है? इस रूट पर तो नहीं है."

"कहीं ये चीन तो नहीं कह रहे हैं?" दूसरे ने अनुमान लगाया.

"हे ईश्वर! तुम लोग चीन से बिना टिकट यात्रा करते हुए यहाँ आ रहे हो. तब तो बहुत खतरनाक मुजरिम हो तुम लोग." वह एकदम सीधा सावधान होकर बैठ गया. हाथ अपने होलेस्टर पर रख लिया मानो उन चारों के हिलते ही उनपर गोली चला देगा.


गाड़ी एक बार फ़िर रूक गई. क्योंकि फ़िर से कोई स्टेशन आ गया था. सिपाहियों ने इनसे कहा, "उतरो तुम लोग."

सिपाहियों का हुक्म इनकी समझ में आ गया. वे लोग वहीँ ट्रेन से उतर गए. दोनों सिपाही इनकी बगल में चल रहे थे और साथ ही उन्हें रास्ता भी बताते जा रहे थे.

"इस युग के लोग कितने अच्छे हैं. हम लोगों को रास्ता बता रहे हैं ताकि कहीं हम लोग रास्ता न भूल जाएँ." चीन्तिलाल ने खुश होकर कहा.
"सही कहा तुमने. हम लोग घूमने फिरने के बाद इन्हें अवश्य धन्यवाद देंगे." मारभट ने कहा.

कुछ देर बाद ये लोग पुलिस स्टेशन में थे. यहाँ के लोगों को एक ही प्रकार की वर्दियां पहने देखकर इन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ.

"ये लोग एक ही प्रकार के कपड़े क्यों पहने हुए हैं?" चीन्तिलाल ने आश्चर्य से पूछा.

"हाँ यह बात तो है. हो सकता है इस युग में रास्ता बताने वाले इसी प्रकार के कपड़े पहनते हों. हमारे युग में भी तो बच्चे खिलाने वाले एक ही प्रकार के कपड़े पहनते थे." चोटीराज ने कहा.

उधर सिपाहियों ने जब थानेदार को बताया की ये लोग बिना टिकट यात्रा कर रहे थे तो उसने इनको हवालात में बंद करने का हुक्म दिया. फ़िर ये लोग लाकअप में पहुँचा दिए गए जहाँ पहले से एक मोटा तगड़ा व्यक्ति बैठा हुआ था.

"मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है. अभी तक तो ये हमें घुमा रहे थे और अब कोठरी में बंद कर दिया." चोटीराज बोला.
"इस कोठरी को शायद हवालात कहते है." मारभट ने कहा.

उधर जब थानेदार को पता चला कि ये लोग चीन की सीमा पार करके आ रहे हैं तो वह एकदम से हडबडा कर उठ खड़ा हुआ और बोला, "ये तो बहुत खतरनाक हैं. इन्हें तो फ़ौरन जेल में शिफ्ट कर दो. मुकदमा बाद में चलता रहेगा."

एक बार फ़िर कुछ सिपाही हवालात पहुंचे और उन्हें निकालने के लिए ताला खोलने लगे. अभी वे ताला खोल ही रहे थे कि बाहर गोलियां चलने कि आवाज़ सुनाई दी. वे सिपाही बाहर भागे. जैसे ही वे थानेदार के कमरे में पहुंचे, पाँच छः नकाबधारी व्यक्तियों के हाथों में दिख रही पिस्तौलों ने उन्हें हाथ ऊपर करने पर मजबूर कर दिया. उन व्यक्तियों ने थाने के सभी लोगों को अपनी पिस्तौलों से कवर कर लिया था.क्या बात है? तुम लोग हमसे क्या चाहते हो?" थानेदार ने उनसे पूछा.

"तुम्हारे लाकअप में हमारा साथी बंद है. हम उसे छुड़ाने आए हैं." उनमें से के व्यक्ति बोला.

"ओह! तो तुम लोग बैंक डकैती वाले गिरोह के आदमी हो."

"तुमने सही पहचाना." फ़िर उस व्यक्ति ने अपने साथी को लाकअप खोलकर बंद साथी को लाने के लिए कहा. उसने सिपाहियों से कुंजी ली और लाकअप की ओर चला गया. फ़िर जब कुछ देर के बाद वह वापस आया तो उसके साथ उसके साथी के साथ चारों प्राचीन युगवासी भी थे.

"ये किन कार्टूनों को पकड़ लाये?" वह व्यक्ति जो थानेदार से बात कर रहा था और शायद उनका सरदार भी था, बोला.

"बॉस, ये हमें लाकअप में बंद मिले थे." उस व्यक्ति ने जवाब दिया.

"ठीक है. फ़िर आज हम भी थोड़ा पुण्य कम लेते हैं." कहते हुए वह व्यक्ति चारों प्राचीन युगवासियों से बोला, "तुम लोग यहाँ से भाग जाओ."
मारभट इत्यादि उसकी बात सुनकर बाहर जाने लगे.

"ये तुम लोग क्या कर रहे हो? ये बहुत खतरनाक मुजरिम हैं." थानेदार ने अपनी कुर्सी से उठने की कोशिश की.

"चुपचाप बैठे रहो. वरना गोली अन्दर और भेजा बाहर होगा." सरदार ने फ़िर थानेदार को बिठा दिया. कुछ देर बाद जब मारभट इत्यादि उनकी नज़रों से गायब हो गए तो वे लोग भी अपने साथी को लेकर बाहर निकल गए.

"अगर मैंने उस बैंक डकैत और चारों मुजरिमों को दुबारा न बंद कराया तो मेरा नाम भी थानेदार शेरखान नहीं. तुम लोग मेरा मुंह क्या देख रहे हो. जाओ ढूँढो उन लोगों को." वह अपने सिपाहियों पर दहाड़ा और सिपाही जल्दी जल्दी बाहर निकल गए. उसके बाद थानेदार स्वयं अपनी कैप उठाकर बाहर निकल गया.

"अरे मेरा पर्स." एक महिला चिल्लाई क्योंकि उसका पर्स एक उचक्का लपककर भागने लगा था. फ़िर कई लोग उस उचक्के के पीछे दौड़ पड़े. इन लोगों में एक व्यक्ति भी था जिसने अपनी कार अभी अभी वहां खड़ी की थी. और इस हड़बड़ी में वह कार की कुंजी इग्निशन में ही लगी छोड़ गया था

चारों प्राचीन युगवासी अब थाने से काफी दूर सड़क पर निकल आए थे. फ़िर उनकी दृष्टि बिना छत की एक स्पोर्ट्स कार पर पड़ी जो वहीँ खड़ी थी. यह वही कार थी जिसको उचक्के के पीछे भागने वाले व्यक्ति ने छोड़ा था.

"यह क्या है?" चोतिराज ने आश्चर्य से पूछा.

"मैं बताता हूँ. यह यटिकम है." सियाकरण ने कहा.

"यह तुम कैसे कह सकते हो? क्योंकि इसमें यल तो हैं नहीं." मारभट ने अपनी शंका प्रकट की.

"क्या तुमने सामने नहीं देखा. वहां कई लोग यटिकम में बैठकर यात्रा कर रहे हैं. सियाकरण ने सड़क की और संकेत किया. जहाँ समय समय पर कोई कार निकल जाती थी.

"तुम सही कह रहे हो. किंतु यह चलेगी कैसे?" मारभट एक बार फ़िर दुविधा में फंस गया.

"आओ हम लोग इसमें बैठते हैं. तभी कुछ पता चल पायेगा." सियाकरण ने कहा. फ़िर वे कार के अन्दर बैठ गए और उसका तियापांचा करने लगे.

कभी वे लोग स्टीयरिंग घुमा रहे थे तो कभी डैश बोर्ड के साथ छेड़खानी कर रहे थे. काफ़ी देर प्रयत्न करने के बाद जब ये लोग थक हार कर उतरने की सोच रहे थे तभी चीन्तिलाल बोल उठा,

"तुम लोग अपनी बुद्धि मत गंवाओ . मुझे यटिकम चलाने की तरकीब समझ में आ गई है."

"तो फ़िर जल्दी बताओ." सियाकरण ने कहा.

"वो सामने देखो. वे लोग किस प्रकार यटिकम चला रहे हैं." चीन्तिलाल ने एक ओर संकेत किया और वे सभी उस दिशा में देखने लगे.

"कमबख्त स्टार्ट ही नहीं हो रही है. कितनी बार मैंने मालिक से बैट्री चार्ज करवाने के लिए कहा. किंतु वे ध्यान ही नहीं देते." कार में बैठा व्यक्ति जो की उसका ड्राइवर था बडबडाया. एक बार फ़िर उसने कार स्टार्ट करने की कोशिश की किंतु कोई फायदा नहीं हुआ. आख़िर में उसने खिड़की से सर निकाल कर पुकारा, "भाइयों, ज़रा इसमें धक्का लगा दो, बड़ी मेहरबानी होगी."

फ़िर चार पाँच लोकसेवक वहां आ गए ओर कार में धक्का लगाने लगे. धक्का लगाते लगाते वे लोग दूसरी सड़क पर पहुंचकर उन प्राचीन युगवासियों की नज़रों से ओझल हो गए.

और फ़िर दूर कहीं जाकर कार स्टार्ट हो गई.

"ओह! तो यह तरकीब थी यटिकम चलाने की. चीन्तिलाल तुम और चोटीराज पीछे से इसे धक्का दो. मैं पहले ही कह रहा था की यदि इस यटिकम को यल नहीं खींचते तो इसी विधि से यह चलनी चाहिए." सियाकरण ने कहा.

फ़िर सियाकरण और मारभट कार की अगली सीट पर बैठ गए और चीन्तिलाल और चोटीराज उसे धक्का लगाने लगे.

"बहुत अच्छी यटिकम है. कितने आराम से चल रही है." मारभट ने सीट से पीठ टिकाते हुए कहा.

किंतु इसमें एक कमी है की यह मनुष्य द्बारा चलाई जाती है. यदि इसे यल चलाते तो बहुत अच्छा होता." सियाकरण ने कहा. तभी कार का स्टार्टिंग लीवर दब गया और वह स्टार्ट हो गई.

"यह तो बोल रही है." सियाकरण ने आश्चर्य से कहा. चोटीराज और चीन्तिलाल अभी तक कार को धक्का दिए जा रहे थे. मारभट जो कि स्टीयरिंग पर बैठा था अचानक उसका पैर एक्सीलरेटर पर पड़ गया और कर एक झटके के साथ आगे बढ़ गई.

चोटीराज और चीन्तिलाल धडाम से मुंह के बल आगे की ओर गिरे.

"क्या हम लोगों ने ज्यादा ज़ोर से धक्का लगा दिया?" चोटीराज उठकर अपना सर सहलाते हुए बोला.

"ऐसी कोई बात नहीं है. बल्कि वह अपने आप चलने लगी लगी." चीन्तिलाल इत्मीनान से बोला.

"अरे तो उसे पकडो. वरना हम बिछड़ जायेंगे." चोटीराज कार के पीछे दौड़ा. चीन्तिलाल ने उसका अनुसरण किया. किंतु वे कार का मुकाबला कहा कर पाते. कुछ ही देर में कार उनकी नज़रों से ओझल हो गई और वे हाथ मलते रह गए.

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Update 17

"ओ चीन्तिलाल, तुम लोग तो इस यातिकम को बहुत तेज़ चलाने लगे. कहीं यह किसी से टकरा न जाए." मारभट ने पीछे देखे बिना कहा. जब पीछे से कोई जवाब न आया तो उसने मुड़कर देखा, "अरे वे लोग कहाँ चले गए?"

सियाकरण ने भी पीछे मुड़कर देखा. फ़िर किसी को न पाकर उनके मुंह खुले रह गए.

"वे लोग कहाँ गए? और यह यटिकम कैसे चल रही है?" सियाकरण ने हैरत से कहा.

"यह तो बाद में सोचना कि यह कैसे चल रही है. पहले इसे रोको वरना सामने जो बड़ी यटिकम है उससे यह टकरा जायेगी." सामने से आ रही एक मिनी बस को देखकर मारभट ने कहा.

"किंतु जब तक यह न मालुम हो जाए कि यह कैसे चल रही है, हम इसको कैसे रोक सकते हैं?"

"कंडक्टर जी, ज़रा माचिस देना बीड़ी सुलगानी है." बस के ड्राइवर ने पीछे सर घुमाकर कहा.

"दे रहा हूँ. किंतु तुम सामने देखो वरना कोई एक्सीडेंट कर बैठोगे." कंडक्टर ने जेब से माचिस निकालते हुए कहा.

"अरे मैं पिछले बीस सालों से बस चला रहा हूँ. अब तो आँख बंद करके भी बस चला दूँ तो यह सरपट अपने रास्ते पर दौड़ पड़ेगी...........!" ड्राइवर अकड़ कर बोला. उसी समय उसकी दृष्टि सामने पड़ी.

"अरे बाप रे. .....यह कौन पागल कार चला रहा है." उसने जल्दी से बस किनारे की और प्राचीन युगवासियों की कार बस से रगड़ खाती हुई निकल गई.
बचते बचते भी बस एक पेड़ से हलकी सी टकरा गई थी. और अब पेड़ पर निवास करने वाले कौवे चीख चीख कर बस के ड्राइवर को कोस रहे थे.

ये लोग जितना कार को रोकने का प्रयत्न कर रहे थे उतनी ही कार की गति बढती जा रही थी. क्योंकि मारभट का पैर एक्सीलरेटर पर से हट ही नहीं रहा था.

"जब तक हमें यह न मालूम हो जाए की इस यटिकम के यल कहाँ हैं, हम इसको नहीं रोक सकते." सियाकरण ने कहा.

"इसके यल लगता है आगे अन्दर छुपे बैठे हैं." मारभट ने कार के बोनट की ओर संकेत किया.

फ़िर इन्होंने बोनट के अन्दर छुपे बैलों को पुचकारना शुरू कर दिया, किंतु वे उसी तरह अड़ियल रूख अपनाए रहे और कार अपनी गति से भागती रही. इस सड़क पर अधिकतर सन्नाटा रहता था वरना अब तक कई एक्सीडेंट हो चुके होते.

इंसपेक्टर शेरखान अपनी मोटरसाइकिल पर 'चीनी भगोड़ों' को ढूंढते ढूंढते बहुत दूर निकल आया था. फ़िर अचानक उसकी मोटरसाइकिल बंद हो गई. उसने पेट्रोल बताने वाली सुई पर नज़र डाली तो वह शून्य पर रुकी थी.

"ओह, न जाने मेरी भूलने वाली आदत कब जायेगी. मुझे आज पेट्रोल डलवाना था. अब क्या करुँ." तभी उसे सामने से एक कार तेज़ गति से आती दिखाई दी.

"ओह! वह कार तो बहुत तेज़ आ रही है. मैं अपनी मोटरसाइकिल किनारे कर लूँ." वह नीचे उतर कर मोटरसाइकिल किनारे करने लगा. लेकिन उससे पहले ही कार पूरी स्पीड के साथ मोटरसाइकिल से आकर टकरा गई. वह तो छिटक कर दूर जा गिरा और मोटरसाइकिल हवा में कलाबाजियां खाती हुई कार की पिछली सीट पर जाकर विराजमान हो गई.

"अरे मेरी मोटरसाइकिल लेकर चोर भाग रहे हैं. कोई पकडो उन्हें." वह चीखता हुआ कार के पीछे भागा. फ़िर चौंक पड़ा, "मैंने शायद इन लोगों को कहीं देखा है. याद आया, ये तो वही चीनी भगोडे हैं. उन्हें तो तुंरत पकड़ना चाहिए. मेरी मोटरसाइकिल कहाँ गई." वह इधर उधर अपनी मोटरसाइकिल देखने लगा और जब उसे याद आया की मोटरसाइकिल भी उन लोगों के साथ चली गई तो वह अपना सर पकड़कर वहीँ बैठ गया.

"मारभट, अभी हमारे पीछे कोई आवाज़ आई थी."

"पीछे देखो, क्या है?" मारभट ने कहा. सियाकरण ने घूमकर देखा तो वहां एक मोटरसाइकिल खड़ी थी.

"अरे यह क्या है? और कहाँ से आ गया?" उसने आश्चर्य से कहा.

मारभट ने भी पीछे मुड़कर देखा और बोला, "यह कैसा युग है? अभी वहां कुछ नहीं था अब कुछ आ गया. क्या यहाँ वस्तुएं आसमान से टपकती हैं? सियाकरण तुम पीछे जाकर देखो की वह क्या चीज़ है."

सियाकरण कूदकर पीछे चला गया. कुछ देर तक ध्यान से उसको देखता रहा फ़िर बोला, "मेरा विचार है की यह इस यटिकम का यल है.

इसके सर पर दो सींगें भी हैं. किंतु यह तो बिल्कुल हिलडुल नहीं रहा है."

"बेचारे ने इतनी तेज़ यटिकम चलाई कि थक कर मर गया." मारभट ने दुःख प्रकट किया.

"किंतु यटिकम तो अभी भी चल रही है."

"हो सकता है कोई और भी यल हो. हमारे युग में भी तो दो यल एक यटिकम को खींचते थे."

कार की गति अब धीमी होने लगी थी क्योंकि मारभट का पैर एक्सीलरेटर पर से हट गया था.

"वे लोग तो पता नहीं कहाँ निकल गए. अब हम लोग क्या करें?" चोटीराज ने कहा. वे लोग बहुत देर से अपने दोनों साथियों को ढूंढ रहे थे जो कार में बैठकर निकल गए थे.

"आओ फ़िर हम दोनों अकेले ही यह युग घूमते हैं. हम लोगों को यटिकम में जो मनुष्य मिले थे वह बहुत दुष्ट थे. हमें कोठरी में बंद कर दिया था. अब हम उनके सामने नही जायेंगे." चीन्तिलाल बोला.

फ़िर वे आगे बढे. यह कोई बाज़ार था और वहां काफ़ी चहल पहल थी. फ़िर वे चलते चलते एक दूकान के सामने
रूक गए जहाँ एक रेडियो रखा हुआ पूरे वोल्यूम में गला फाड़ रहा था.

"घोर आश्चर्य." चीन्तिलाल बोला, "इतने छोटे डिब्बे में एक मनुष्य बंद हो गया."

"इतना छोटा मनुष्य तो न हमने अपने युग में देखा न इस युग में." चोटीराज ने हैरत से कहा.

"किंतु उसे डिब्बे में क्यों बंद कर दिया गया? वह तो चिल्ला रहा है."

"आओ, उन लोगों से पूछते हैं जो वहां बैठे हैं." फ़िर वे लोग दुकान में पहुंचे. चीन्तिलाल ने पूछा, "तुम लोगों ने उसे बंद क्यों कर दिया?" यह शब्द उसने अपनी भाषा में कहे थे.

"ये कोई अजीब भाषा बोल रहे हैं. अभी हमने जिस चोर को दुकान के अन्दर बंद किया है वह भी अजीब भाषा बोल रहा था. लगता है ये लोग उसके साथी हैं." दूकानदार बोला, फ़िर अपने साथियों को संबोधित किया, "इन्हें पकड़कर खूब मारो और फ़िर इन्हें भी उस चोर के साथ बंद कर दो."

दूकानदार के साथी आगे बढे और इनपर पिल पड़े.

"अच्छा, एक तो बेचारे को डिब्बे में बंद कर दिया, फ़िर कुछ बोलने पर मारते हो. अभी बताता हूँ." चोटीराज और चीन्तिलाल भी हाथ पैर चलाने लगे.

फ़िर इन लोगों के सामने कलयुगी मानवों की एक न चली और कुछ ही देर में वे सब लंबे लेटे नज़र आए. चोटीराज ने रेडियो उठाया और दोनों दूकान के बाहर आ गए.

"अरे मेरा रेडियो!" दूकानदार चिल्लाते हुए उनके पीछे दौड़ा किंतु दूकान से बाहर निकलने की उसकी हिम्मत नहीं हुई. और बडबडाते हुए वापस लौट गया.

उधर चीन्तिलाल चोटीराज से बोला, "डिब्बा खोलकर उस व्यक्ति को जल्दी से आजाद करो. वह बहुत देर से चिल्ला रहा है."

"किंतु यह खुलेगा किस प्रकार? यह तो हर ओर से बंद है." चोटीराज ने डिब्बे को उलट पलट कर देखते हुए कहा.

"मैं बताता हूँ की किस प्रकार खुलेगा." चीन्तिलाल ने रेडियो पर एक हाथ जमाया और वह दो टुकडों में बँट गया

"इसमें तो कोई भी नहीं है." चोटीराज ने अन्दर का अंजर पंजर देखते हुए कहा.

"हाँ, वह मनुष्य कहाँ गया?"

"शायद वह स्वर्गवासी हो गया. तुम्हें डब्बा धीरे से खोलना चाहिए था." चोटीराज ने चीन्तिलाल को घूरा.

"बेचारा." दोनों ने एक ठंडी साँस ली और रेडियो का कबाड़ वहीँ छोड़कर आगे बढ़ गए.

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Update 18

कार अब पूरी तरह रूक गई थी.

"यटिकम तो रूक गई. क्या कारण है?" मारभट ने पूछा.

"शायद दूसरा यल भी थक गया है." सियाकरण ने कहा. फ़िर वे कार से उतर गए और इधर उधर देखने लगे. यह एक सुनसान स्थान था, किंतु पूरी तरह नहीं. क्योंकि यहाँ एक बड़ी इमारत दिख रही थी. जो शायद कोई फैक्ट्री थी. उसकी बाहरी बनावट से ऐसा ही लग रहा था.

"वो देखो, सामने कोई मकान है. आओ हम लोग वहां चलते हैं." सियाकरण ने कहा. फ़िर वे दोनों फैक्ट्री की ओर जाने लगे.

"मेरे तो अब भूख लग रही है. वहां भोजन तो मिलना ही चाहिए." मारभट ने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा.

"आओ चल कर देखते हैं."

फ़िर जैसे ही वे फैक्ट्री के पास पहुंचे, दो पहरेदारों ने उन्हें रोक लिया. तभी अन्दर से दो व्यक्ति निकले और उनमें से एक कहने लगा, "आइये सर, आपका यहाँ स्वागत है. मैं यहाँ का प्रबंधक गुप्ता हूँ. और ये मेरा सहायक रामप्रकाश है." वह इन दोनों को अन्दर ले जाने लगा और उसके सहायक ने पहरेदारों से कहा, "मी.गुप्ता को आज एक फोन काल से मालुम हुआ था की आज कुछ सरकारी अफसर इस फैक्ट्री का निरीक्षण करने आ रहे हैं. उनका विचार है कि ये वही अफसर हैं."

उधर गुप्ता दोनों से कह रहा था, "आइये सर, आपको हमारी फैक्ट्री में कोई अनिमियतता नहीं दिखेगी. यहाँ हम साबुन के अलावा डिटर्जेंट पाउडर और शेविंग क्रीम भी बनाते हैं. हमारी फैक्ट्री अच्छी चल रही है. बस केवल आप अच्छी सी रिपोर्ट तैयार कर दीजिये. आपके मालपानी की हमारी पूरी ज़िम्मेदारी है." अन्तिम वाक्य गुप्ता ने धीरे से कहा था.

"क्या यहाँ कुछ खाने को मिल सकता है?" सियाकरण को बहुत जोरों की भूख लग रही थी.

"अरे क्यों नहीं, क्यों नहीं. सब कुछ आप ही का तो है. बस आप हमारे फेवर में एक अच्छी सी रिपोर्ट तैयार कर दीजिये. फ़िर आप जो कुछ कहेंगे, हम हाज़िर कर देंगे." गुप्ता सियाकरण की बात का कुछ और ही मतलब समझा.

वे तीनों कुछ देर मौन खड़े रहे फ़िर मैनेजर ही दुबारा बोला, "आइये सर, पहले आप फैक्ट्री का निरीक्षण कर लीजिये." उसने उनको अपने पीछे आने का इशारा किया और वे बिना कुछ समझे उसके पीछे चल पड़े.

फ़िर वह फैक्ट्री दिखाने लगा जहाँ विभिन्न प्रकार के कार्य हो रहे थे. कहीं साबुन बनाया जा रहा था, कहीं मशीन से ठोस साबुन की टिकियाँ काटी जा रही थीं तो कहीं डिटर्जेंट पाउडर बन रहा था. वे लोग घुमते हुए वहां भी पहुंचे जहाँ साबुन की पैकिंग हो रही थी.

"आप स्वयें देख लीजिये, की यहाँ केवल साबुन पैक हो रहा है. हम लोग अफीम इत्यादि का व्यापार

बिल्कुल नहीं करते." उसने इन्हें पैकिंग दिखाई.

सियाकरण और मारभट ने एक दूसरे की तरफ़ देखा. उनकी समझ में मैनेजर की बात बिल्कुल नहीं आई.

"देख क्या रहे हो, एक तुम लो और एक मैं लेता हूँ." सियाकरण ने कहा. और एक टिकिया मुंह में उठाकर रख ली. मारभट ने भी उसकी देखा देखी एक टिकिया मुंह में रख ली.

"यह कैसा भोजन है. इस युग में तो लोग अजीब भोजन करते हैं." सियाकरण ने बुरा सा मुंह बनाया.

"हाँ, यह तो बहुत बेकार है. किंतु पेट तो भरना ही पड़ेगा. यह टुकड़ा तो पूरा खा ही जाओ." फ़िर दोनों ने मुंह बना बना कर साबुन की टिकियाँ गटक लीं. गुप्ता हवन्नक होकर दोनों की शक्लें देख रहा था.

"अजीब अधिकारी हैं ये लोग. आज तक किसी ने मेरी फैक्ट्री का इस तरह निरीक्षण नहीं किया." वह सर खुजलाते हुए बडबडाया.

"आओ, हम लोग यहाँ से चलते हैं. यहाँ के भोजन से तो अच्छा है की हम पेड़ों के फल तोड़कर खा लें." मारभट ने कहा और दोनों वापस मुड़ लिए. "अरे सर, आप लोग कहाँ जा रहे हैं? ये तो बताते जाइए की आप अपनी रिपोर्ट कैसी बनायेंगे? मैं आपकी हर प्रकार की सेवा करने के लिए तैयार हूँ. अरे सुनिए तो." मैनेजर पुकारते हुए इनके पीछे भागा किंतु इन्होने उसकी एक न सुनी और फैक्ट्री से बाहर आ गए.

"मूड ख़राब कर दिया कमबख्तों ने." उन लोगों के जाने के बाद गुप्ता बडबडाया फ़िर पहरेदारों से बोला, "अब कोई भी आए उसे फैक्ट्री के अन्दर मत घुसने देना." कहकर वह तेज़ क़दमों से चलता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर बाद दो व्यक्ति वहां पहुंचे और अन्दर जाने लगे.

"आप अन्दर नहीं जा सकते." पहरेदारों ने उन्हें रोका.

"क्यों? हमारे पास इस बात का आज्ञापत्र है कि हमें फैक्ट्री के अन्दर जाने दिया जायेगा. हम लोग इसका निरीक्षण करने आए हैं."

"हमारे मैनेजर कि सख्त आज्ञा है कि किसी को अन्दर न आने दिया जाए. अतः आप लोग बिल्कुल अन्दर नहीं जा सकते." पहरेदार अपनी बात पर अडे रहे.

फ़िर उनमें बहस होने लगी. और यह बहस तब तक चली जब तक उन अफसरों का पारा सौ डिग्री सेंटीग्रेड तक न पहुँच गया. उसी समय गुप्ता किसी काम से बाहर आया और उन लोगों को लड़ता देखकर उसने मामला समझना चाहा. फ़िर जब उसे यह मालूम हुआ कि ये लोग सरकारी अफसर हैं और फैक्ट्री का निरीक्षण करने आए हैंतो वह एक बार फ़िर चकरा कर रह गया.

उसने अपने को संभाला और बोला, "आइये सर! इन पहरेदारों से भूल हो गई है. आप लोग फैक्ट्री का निरीक्षण करिए."

"हम लोग फैक्ट्री का निरीक्षण कर चुके. और अब जो रिपोर्ट हम सरकार को देंगे उसे तुम लोग सदेव याद रखोगे." उन अफसरों ने क्रोधित होकर कहा और वापस मुड़ गए.

"अरे सर सुनिए तो..." मैनेजर उनके पीछे दौड़ा किंतु उन अफसरों ने सुनी अनसुनी कर दी. फ़िर गुप्ता सर पकड़कर वहीँ बैठ गया.

इस समय चीन्तिलाल और चोटीराज एक भरे बाज़ार से गुज़र रहे थे. अचानक गोली चलने की आवाज़ हुई और एक शोर सुनाई दिया. तीन चार लुटेरे एक बैंक लूटकर भाग रहे थे जिनके चेहरे नकाबों में छुपे हुए थे. उनमें से एक के हाथ में रिवाल्वर था.

"ये लोग कहाँ जा रहे हैं?" चोटीराज ने पूछा.

"लगता है इतने दिन सोये रहने से तुम्हारी स्मृति चौपट हो गई है. तुम्हें अपने युग के बारे में कुछ भी याद नहीं रह गया है. अरे ये लोग विवाह करने जा रहे हैं. देख नहीं रहे हो, इन्होंने अपने चेहरे कपड़े द्बारा छुपा रखे हैं." चीन्तिलाल बोला.

"किंतु ये लोग इस प्रकार भाग क्यों रहे हैं?"

"आओ उन्हीं से पूछ लेते हैं." चीन्तिलाल और चोटीराज लुटेरों की ओर बढ़ने लगे जो एक वैगन के पास पहुँच चुके थे.

"आप लोग विवाह के लिए दौड़ क्यों रहे हैं? क्या कोई स्वयेंवर होगा?" चीन्तिलाल ने पूछा. ये शब्द उसने अपनी भाषा में कहे थे. यहाँ ये बता देना आवश्यक है की इस युग की भाषा केवल केवल मारभट और सियाकरण ही थोडी बहुत सीख पाये थे. चीन्तिलाल और चोटीराज इस युग की भाषा बिल्कुल नहीं बोलते समझते थे. किंतु वे यही समझते थे कि इस युग के लोग उनकी भाषा समझ रहे हैं. और इसका कारण था कि राम्सिंघ इत्यादि उनसे उन्हीं कि भाषा में बात कर लेते थे. लुटेरे अपनी वैगन में बैठ चुके थे.

"ये स्पीड ब्रेकर बीच में कहाँ से टपक पड़े." लुटेरों ने कहा और उनसे बोले, "तुम लोग सामने से हट जाओ वरना गोली से उड़ा दिए जाओगे." कहते हुए रिवाल्वर वाले ने उनपर रिवाल्वर तान दिया.

"चीन्तिलाल, ये हमें कुछ दे रहे हैं." चोटीराज ने रिवाल्वर लेने के लिए हाथ बढ़ा दिया. लुटेरे ने ट्रेगर दबा दिया. पिट की आवाज़ हुई और कोई गोली नहीं चली.

"ओह! मैंने अपना रिवाल्वर तो बैंक में ही खाली कर दिया था." लुटेरा बोला.

"तो फिर देखते क्या हो. चाकू से इनका काम तमाम कर दो." दूसरे लुटेरे ने कहा.

पहला लुटेरा चाकू निकालकर उनकी ओर बढ़ने लगा. पास पहुंचकर उसने चोटीराज पर वार किया. चोटीराज उसकी मंशा भाँपकर किनारे हो गया और लुटेरे का वार खाली हो गया.

"ये तो हमें मार रहा है. अर्थात ये हमारा दुश्मन है." चोटीराज ने कहा.

"फिर देख क्या रहे हो. इसे बता दो की हम दुश्मनों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं." चीन्तिलाल बोला और चोटीराज ने लुटेरे के गाल पर एक थप्पड़ जमा दिया. लुटेरा भला उन सातफुटे प्राचीन युग्वासियों का थप्पड़ कहाँ झेल पाता. उसे वहीँ तारों के साथ साथ ब्लैक होलों के भी दर्शन हो गए ओर वह सपनों की दुनिया में पहुँच गया.

फ़िर चोटीराज कर के आगे पहुँचा ओर चीन्तिलाल पीछे, ओर उन्होंने उसे अपने हाथों पर उठा लिया. कार में बैठे लुटेरों का शायद इस तरह की परिस्थिति से पहली बार पाला पड़ा था. वे हवा में तंगी कार में बैठे बैठे चिल्लाने लगे. उनकी चीख सुनकर काफ़ी लोग अपने घरों से निकल आए और उनकी हालत देखकर हंसने लगे. कुछ ही देर में पुलिस भी आ गई ओर उसने उन लुटेरों को गिरफ्तार कर लिया. फ़िर जब उसे मालूम हुआ की लुटेरों को पकड़ने वाले चोटीराज और चीन्तिलाल हैं तो वह इनको भी अपने साथ लेती गई. पुलिस स्टेशन देखकर ये दोनों एक दूसरे का मुंह ताकने लगे.

"लगता है हमें फ़िर कोठरी में बंद कर दिया जायेगा." चीन्तिलाल बोला.
 
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Update 19


अब पुलिस इंस्पेक्टर इनसे कह रहा था, "इन लुटेरों पर पाँच हज़ार का इनाम था. वह आप लोग ले लीजिये." उसने इन्हें रुपये दे दिए. ये दोनों कुछ देर उन नोटों को आश्चर्य से देखते रहे फ़िर बाहर आ गए.

"उस मनुष्य ने हमें ये क्या दिया है?" चीन्तिलाल अपने हाथ में दबे नोटों को देखता हुआ बोला.

"इसपर कुछ लिखा हुआ है. मेरा विचार है कि यह लिखने के लिए आधार है. जिस प्रकार हमारे युग में ताड़पत्र होता था."

"अच्छा छोड़ो इसे. मुझे तो अब बहुत जोरों की भूख लग रही है."

"वह देखो, सामने कोई घर है. वहां अवश्य कुछ न कुछ मिल जायेगा." चोटीराज ने सामने देखते हुए कहा.

फ़िर वह दोनों उस घर की ओर बढ़ गए जो वास्तव में एक सिनेमाहाल था. जिस समय वह लोग वहां पहुंचे, भीड़ का एक रेला अन्दर से आया. शायद कोई शो समाप्त हुआ था. ये लोग उस भीड़ को आश्चर्य से देखने लगे. भीड़ भी उनके कद और डील डौल के कारण उन्हें देखने लगी. अधिकतर लोगों ने इन्हें विदेशी समझा.

ये लोग भीड़ से बचते बचाते एक कोने में पहुंचे और वहां खड़े एक व्यक्ति से प्रश्न किया, "क्या यहाँ खाने को कुछ मिल सकता है?"

सामने वाला ब्लैक में टिकट बेचने वाला था. उसने यही समझा कि ये लोग विदेशी हैं और शायद फ्रेंच बोल रहे हैं. साथ ही इनके हाथों में नोट देखकर उसकी ऑंखें फ़ैल गईं.

"इन लोगों को ठगना चाहिए," उसने अपने मन में कहा और बोला, "आप लोग ब्लैक में टिकट खरीदने के लिए एकदम सही व्यक्ति के पास आये है. मैं आपको बहुत सस्ते में टिकट दूँगा. एक टिकट के केवल पाँच सौ रुपये." उसने दो टिकट इनकी ओर बढ़ा दिए और एक हज़ार रुपये इनके हाथ से झटक लिए. उसके बाद उसने ऊँगली से हाल की ओर संकेत किया और रुपये लेकर चंपत हो गया."

चीन्तिलाल और चोटीराज हाल की ओर बढ़ने लागे.

"अजीब बातें हैं इस युग की. हमने जब भोजन के बारे में पूछा तो उसने हमें पत्ती पकड़ा दी. इसका हम लोग क्या करें?" चोटीराज ने पूछा.

"हाथ में लिए रहो. शायद इस युग में भोजन पत्तियों के साथ करते हैं. आओ अन्दर चलते हैं."

वे लोग गेट पर पहुँच गए जहाँ गेटकीपर लोगों के टिकट देख देखकर उन्हें उनके स्थान बता रहा था. लोगों की देखा देखी ये भी अपनी कुर्सियों के पास पहुंचे और उनपर बैठ गए. कुछ देर बाद हाल में अँधेरा छा गया.

"कमाल है, अभी तो यहाँ दिन था. अब एकदम से रात कैसे हो गई?" चीन्तिलाल ने आश्चर्य से कहा.
"रात नही हुई है. बल्कि यह चिराग जल रहे थे जो अब बुझा दिए गए हैं." चोटीराज ने स्पष्टीकरण किया.

"तो क्या इस युग के लोग अंधेरे में भोजन करते हैं?"

"वो अवश्य कोई अनोखा भोजन होगा."

लगभग दो तीन मिनट बाद परदे पर बैक्ग्राउन्ड म्यूजिक गूंजा और ये लोग उछल पड़े. उसके बाद उन्हें एक बार फ़िर उछलना पड़ा जब परदे पर चित्र आने लगे.

"इतने बड़े बड़े मनुष्य. ऐसे तो हमारे युग में भी नहीं थे."

"और ये लोग कितने जोरों से चिल्ला रहे हैं. मेरा तो इतने ज़ोर से बोलने पर गला ही ख़राब हो जायेगा."

कुछ देर बाद जब परदे पर भोजन करने का दृश्य आया तो ये लोग एक बार फ़िर बेचैन हो गए.

"अरे वे लोग तो भोजन करने लगे. हम लोग इतनी देर से बैठे हैं हमें कुछ मिल ही नहीं रहा है."

"शायद वे लोग स्वयें खाने के बाद हमारे लिए ले आयें." चोटीराज ने दिलासा दिया.

फ़िर उसके बाद परदे पर विभिन्न प्रकार के सीन आते रहे और उसके उत्तर में इनकी विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती रहीं. उनके आसपास बैठने वाले काफ़ी शरीफ मालुम हो रहे थे वरना अब तक इनका गरेबान पकड़ा जा चुका होता. दो तीन लोगों ने इन्हें घूरकर देखा किंतु कोई कुछ बोला नहीं.

उसके बाद वह दृश्य भी आया जहाँ कई गुंडे मिलकर हीरो से फाइटिंग कर रहे थे.

"अरे चोटीराज, देखो कैसा अत्याचार हो रहा है. उस बेचारे को कई लोग मिलकर मार रहे हैं और कोई बोल भी नहीं रहा है." चीन्तिलाल ने दांत पीसकर कहा.

चोटीराज कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया और चीखकर बोला, "उसे छोड़ दो वरना यदि मैं आ गया तो मार मारकर उल्टा लटका दूँगा." "अबे ओये, बैठ जा अपनी कुर्सी पर. क्या चिल्ला रहा है." चारों ओर से आवाजें आने लगीं. चोटीराज पर लोगों की बोलियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह उसी प्रकार परदे के बदमाशों को वार्निंग देता रहा. अब चीन्तिलाल भी अपनी कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया था. भीड़ का शोर अब और अधिक हो गया था. फ़िर जब हीरो को कई बदमाशों ने गिराकर पीटना शुरू कर दिया तो चोटीराज ने आव देखा न ताव और बगल में रखी किन्हीं सज्जन की गठरी उठाकर परदे की ओर उछाल दी. किंतु परदा काफ़ी दूर था अतः वह गठरी हवा में तैरती हुई एक सज्जन की पत्नी के सर पर जाकर ठहर गई.

"अरे मर गई." उनकी पत्नी की जब सुरीली चीख गूंजी तो वह बौखला कर खड़े हो गए. उन्होंने देख लिया था की वह गठरी किधर से आई है.

उन्होंने बदला लेने के लिए किसी हथियार की तलाशशुरू कर दी और जल्द ही उनका स्वयें का त्फिन बॉक्स उनके हाथ में आ गया और वह उन्होंने चोटीराज की ओर उछाल दिया. किंतु उन्होंने शायद क्रिकेट कभी नहीं खेला था अतः वह टिफिन बॉक्स अपनी मंजिल पर पहुँचने की बजाये बीच ही में बर्स्ट होकर एक पहलवान नुमा सज्जन की तोंद पर जाकर ठहर गया.

"ये कौन बदतमीज़ है." फ़िर पहलवान जी को वह बदतमीज़ दिखाई पड़ गया और वे गिरते पड़ते वहां पहुँच गए और फ़िर वहां पूरा हंगामा खड़ा हो गया. अब लोग दो दो फाइटिंग एक साथ देख रहे थे. जिसमें से एक असली थी और दूसरी नकली.

फ़िर कोई चीखा, "भागो यहाँ बम ब्लास्ट होने वाला है." और फ़िर वहां भगदड़ मच गई. लोग एक दूसरे पर गिरते पड़ते गेटों की ओर भाग रहे थे. फ़िर हाल खाली होने में एक मिनट भी पूरा नहीं लगा.

चोटीराज और चीन्तिलाल भी सबके साथ हाल से बाहर आ गए.

फ़िर मारभट की दृष्टि फलों के एक ठेले पर पड़ी और उसकी ऑंखें चमक उठीं.

"वह देखो, फल मिल गए. आओ खाते हैं." उसने कहा और दोनों ठेले की ओर बढ़ गए.

'क्या हम फल खा सकते हैं?" मारभट ने फलवाले से पूछा.

"अवश्य खाइए." फलवाले ने कहा और मन ही मन कहने लगा, "ये लोग अवश्य कहीं बाहर से आए हैं. दाम भी नहीं पूछे. आज लगता है काफ़ी अच्छी आमदनी होगी.

कहानी जारी रहेगी
 

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