Thriller पिनाक (completed)

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पल भर में दोनों महाश्मशान में मंगला के सामने बेहोशी की अवस्था में पड़े हुए थे। कमारु मंगला की इजाजत से वहां से गायब हो चुका था।

मंगला के दाएं हाथ की तर्जनी उंगली से एक हरी किरण निकली तथा विशाखा गिरी और धनराज के बेहोश जिस्मों पर पड़ने लगी। उन किरणों के प्रभाव से दोनों होश में आकर बैठ गए।

मंगला की आंखे क्रोध से जैसे अंगारे उगल रही थी। उसने जोर से एक पदाघात धनराज के वक्ष पर किया। उस एकमात्र प्रहार से ही धनराज की आत्मा उसके निकृष्ट शरीर से निकलकर नरक के लिए कूंच कर गयी।

विशाखा गिरी धनराज की मौत को देखकर अत्यंत भयभीत हो गया।

वैसे तो वह अनेक सिद्धियों का स्वामी था और एक अदृश्य सुरक्षा कवच २४ घंटे उसके शरीर की रक्षा करता था। उस सुरक्षा कवच को भेद कर कोई भी शक्ति उसको इस तरह उठा कर ले जा सकती थी, विशाखा गिरी यह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। इसीलिए शक्तिशाली होते हुए भी वह भयभीत हो उठा था।

धनराज को मृत्यु के घाट उतारने के बाद मंगला ने विशाखा गिरी को संबोधित करके कहा, "तुम्हारी मौत इतनी आसान नहीं होगी दुष्ट, तुम्हें ऐसी सजा प्राप्त होगी जिससे तुम जीवनपर्यंत नरक की अग्नि में जलोगे।"

"तुम स्वयं को बहुत शक्तिशाली समझते हो, अगर साहस हो तो उठकर मुकाबला करो।"

विशाखा गिरी भयभीत तो बहुत था, फिर भी उसने साहस जुटाकर मुकाबले का प्रयत्न किया, लेकिन उसकी समस्त शक्तियां मंगला के सामने कुंद हो चुकी थी।

अब महाभैरवी मंगला ने चिता से अंगारों की एक मुट्ठी भरकर उठाई तथा उनको विशाखा गिरी के ऊपर फेंक दिया।

अंगारों के पड़ते ही विशाखा गिरी के शरीर पर अनेकों जख्म हो गए। कुछ जख्म तो इतने गहरे थे कि उनमें से हड्डियां भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी।

वह पीड़ा से आर्तनाद करते हुए अपने गुरु अशोक गिरी को पुकारने लगा।

अशोक गिरी अपने शिष्य विशाखा गिरी से बहुत स्नेह करते थे लेकिन उसके दुष्कर्मों को देखकर उन्होंने उससे दूरी बना ली थी।

फिर भी वह अपने शिष्य की पीड़ा भरी पुकार को नजरंदाज नहीं कर सके तथा पुकारते ही उसके सामने उपस्थित हो गए।

उन्होंने महाभैरवी मंगला को प्रणाम किया तथा अपने शिष्य को क्षमा करने का आग्रह करते हुए कहा, "माते, आप तो साक्षात जगदम्बा है, मैं जानता हूं कि इसके अपराध क्षमा के योग्य नहीं है, लेकिन एक माता अपने पुत्र के सहस्त्रों अपराध क्षमा करती है, इसको भी आप क्षमा कर अनुग्रहित करे।

महाभैरवी मंगला अशोक गिरी के शिष्य के प्रति अनुग्रह से द्रवित हो गई तथा कहा, "तुम्हारे अपने शिष्य के प्रति स्नेह को देखकर मैं प्रसन्न हुई अशोक गिरी, इसीलिए इसके अपराधों को क्षमा कर इसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करती हूं, वरना यह जीवन भर नरक की अग्नि में जलता रहता।"इसको मानव कल्याण के मार्ग पर चलने का एक अवसर और देती हूं इसीलिए इसकी सिद्धियां जो मैंने इससे छीन ली थी, उन्हें लौटा रही हूं।"

"लेकिन इसको कानून के समक्ष अपने अपराधों को स्वीकार करना होगा तथा जो भी सजा इसे प्राप्त हो उसे भोगना होगा"

फिर मंगला ने अशोक गिरी को एकांत में लेे जाकर कहा, "तुमने इसे बचा तो लिया लेकिन भविष्य में मानवता विरोधी कृत्य में यह एक दुष्ट का साथ देगा तब अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होगा।"

यह भविष्यवाणी सुनकर अशोक गिरी को दुख तो बहुत हुआ लेकिन वह कर भी क्या सकता था सिवाय दुखी होने के।

उसने भावी को अटल समझ इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और महाभैरवी मंगला को प्रणाम कर वहां से प्रस्थान कर गया।

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हिमालय पर्वत की किसी गुप्त कंदरा में एक अत्यंत वृद्ध और कृशकाय तपस्वी सैकड़ों वर्षो से केवल वायु का सेवन करते हुए तपस्या में लीन थे।

उनके शरीर के समस्त बाल सफेद हो चुके थे तथा सिर पर जटाओं का जंगल उगा हुआ था।

वे थे महान तपस्वी लोटन नाथ। निरंतर आत्म साधना में लीन।

सैकड़ों साल से वे महादेव की प्रेरणा से हिमालय की गुप्त कंदरा में तपस्या कर रहे थे और मोक्ष प्राप्ति का इंतजार कर रहे थे।

अनायास ही उनके हृदय में स्थापित महादेव की छवि गायब हो गई और उन्होंने विकल होकर अपनी आंखें खोल दी।

लोटन नाथ ने आंखे खोलकर देखा तो साक्षात महादेव उनके सम्मुख खड़े मुस्करा रहे थे।

लोटन नाथ भावावेशित होकर महादेव के चरणों में गिर पड़े और भांति-भांति के शब्दों द्वारा उनका गुणगान करने लगे।

उन्होंने कहा, "आपके दर्शन कर मैं कृत-कृत हुआ भगवन्, मैं जानता हूं कि आप मुझे अपने धाम कैलाश पर्वत पर ले जाने के लिए आये हो।"

"वह तो अवश्य लेकर जाऊंगा, लेकिन समय आने पर।"

"अब तुम्हें एक कार्य करना होगा।"

"शैतान अब अपने पैर पसार रहा है, वह अपने दस प्रमुख पुजारियों और अन्य मानवता विरोधी शक्तियों को इकठ्ठा कर अच्छाई को समाप्त कर बुराई का साम्राज्य स्थापित करना चाहता है।"

"लेकिन भगवन् शैतान का तो कोई अस्तित्व ही नहीं था, मानव के अंदर छिपी हुई बुराइयों को ही शैतान का प्रतीक माना जाता था।"

"किंतु अब उसका अस्तित्व है, इस युग में मानव के अंदर इतनी ज्यादा बुराइयों ने घर कर लिया कि उसका अस्तित्व साकार हो उठा।"

"अब मानवता का हित करने वाली शक्तियों को एकजुट होकर उसका मुकाबला करना होगा।"

"देवताओं ने उसको समाप्त करना चाहा, तो उसने कहा वह स्वयं युद्ध में भाग नहीं लेगा तथा इसके बदले में देवता भी किसी युद्ध में सीधे भाग नहीं ले सकेंगे।"

"शैतान ने भगवती दक्षिण काली का तेज धारण करने वाले राजकुमार शक्ति देव को अपना प्रमुख मोहरा बनाया है।"

"तुम्हे यह युद्ध मेरे और भगवती के संयुक्त तेज को धारण करने वाले पिनाक के नेतृत्व में लड़ना होगा।"

इसके अतरिक्त महादेव ने लोटन नाथ को कुछ अन्य जानकारियां दी और वहां से प्रस्थान कर गए।

महादेव के प्रस्थान करने के बाद लोटन नाथ अपने स्थान पर खड़े हो गए और जोर से कुंभक क्रिया की।

देखते-देखते उनके शरीर की कांति बढ़ने लगी, शरीर पर मौजूद समस्त बाल काले हो गए, सभी झुर्रियां समाप्त हो गई तथा चेहरे पर यौवन का तेज चमकने लगा।

कुछ ही क्षणों उपरांत उस स्थान पर उन वृद्ध तपस्वी की जगह एक युवा खड़ा था, जिसके समस्त अंग दृढ़ थे और चेहरे पर अभूतपूर्व कांति थी।

उसके सिर की उलझी हुए जटाओं के स्थान पर शानदार तरीके से कंघी किए हुए बाल थे, चेहरा दाढ़ी-मूंछ के झाड़-झंझाड़ से पूर्णतया मुक्त था, शरीर के अनावश्यक बाल बिल्कुल साफ थे तथा शरीर पर आधुनिक युग के वस्त्र थे।

उन्होने अपने सामने की ओर देखा जैसे दर्पण में मुख देख रहे हो तथा संतुष्टि से अपना सिर हिलाया।
शैतान इस समय पिशाचों की घाटी में राजकुमार शक्ति देव के समक्ष उपस्थित था। उसने राजकुमार को अपने बारे में बताकर, उससे कहा,

"पिनाक ने तुम्हारे ऊपर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली है।"

"लेकिन पिनाक का तो मैं वध कर चुका हूं।"

"वह मरा नहीं, उसको भैरवानंद ने बचा लिया।"

"किंतु मुझे उसका क्या डर, वह आक्रमण करेगा तो अब की बार उसे मैं अवश्य ही मौत के घाट उतार दूंगा।"

"अब वह पहले वाला पिनाक नहीं रहा, महाकाल और दक्षिण काली का संयुक्त वरदान प्राप्त कर वह अजेय हो चुका है।"

"लेकिन न ही वह मेरा वध कर सकता है और न ही मुझे पराजित कर सकता है।"

"बात को समझो राजकुमार, उसको प्राप्त वरदान के अनुसार वह तुम्हारी शक्तियों को सुप्तावस्था में पहुंचा सकता है। इससे तुम एक साधारण मानव बन कर रह जाओगे।"

"फिर क्या किया जाए?", राजकुमार ने थोड़ा चिंतित होकर पूछा।

"मैं तुम्हे बताता हूं, यह पिशाचों की घाटी मेरे ही इलाके कि सीमांत चौकी है तथा इस घाटी के बाद मेरा राज्य शुरू हो जाता है।"

"मैंने ही पिशाचों को अपने इलाके की सीमा की रक्षा के लिये यहां पर स्थापित कर रखा था, कोई भी दुश्मन बिना इनसे उलझे वहां घुसपैठ नहीं कर सकता था।"

"मैं तुम्हे अपने महल में लेजाने आया हूं।"

"वहां तक जाने का मार्ग बहुत ही भयानक और दुर्गम है। मार्ग में अनेकों भौगोलिक और मायावी खतरे मौजूद है, जिनको पारकर वहां तक पहुंचना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है।"

"आकाश मार्ग को भी पूरी तरह सुरक्षित किया गया है जिससे आसमान से भी वहां घुसपैठ असम्भव है।"

"इसके अतिरिक्त मेरी देवताओं के साथ एक संधि हुई है जिसके अनुसार कोई भी प्राणी इस इलाके में अपनी स्वभाविक गति का ही उपयोग कर सकता है।"

सम्पूर्ण बातों का निष्कर्ष यह निकला कि राजकुमार शैतान के महल में पहुंच गया।

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विशाखा गिरी ने कानून के समक्ष आत्मसमर्पण कर अपने अपराधों को स्वीकार कर लिया था और इस समय वह जेल में बंद था।

रात का समय था, विशाखा गिरी को नींद नहीं आ रही थी। दरअसल वह मुलायम बिस्तरों पर सोने का आदि हो चुका था, इसीलिए जेल के फर्श पर उसे नींद कहां आनी थी।

वह पड़ा-पड़ा अपनी विगत जिंदगी के बारे में सोच रहा था कि शैतान के पुजारी सैरात का आगमन हुआ। वह उसके पास शैतान का संदेश लेकर आया था।

उसने विशाखा गिरी को जेल से भागकर शैतान की पनाह में जाने का प्रस्ताव रखा।

लेकिन विशाखा गिरी महाभैरवी मंगला से बहुत भयभीत था, उसने शैतान के प्रस्ताव से इंकार करके कहा,

"क्या तुम समझते हो कि ये जेल की दीवारें मुझे कैद करके रख सकती है?"

"मैं कभी भी आजाद पंछी कि भांति यहां से उड़ सकता हूं, लेकिन मंगला का क्या करूं, वह मुझे पाताल से भी खोज निकालेगी तथा एकबार उसके हाथों में पड़ने का अर्थ है, नरक की आग में जलना।"

लेकिन शैतान ने सैरात को इसलिए तो विशाखा गिरी के पास नहीं भेजा था कि वह उसका इंकार सुनकर वापिस चला आए।

उसने भांति-भांति के तर्कों द्वारा विशाखा गिरी को कायल कर दिया, जिससे वह वहां से भागने पर सहमत हो गया।

कुछ ही समय उपरांत वे दोनों शैतान के महल में उपस्थित थे। स्वयं शैतान ने राजकुमार शक्ति देव सहित उसका स्वागत किया और अपनी लच्छेदार बातों द्वारा उसका भय पूरी तरह से दूर कर दिया।

शैतान राजकुमार तथा विशाखा गिरी जैसे दुष्ट मनुष्यों को इसलिए अपने महल में इकट्ठा नहीं कर रहा था कि वह उनको सुरक्षित करना चाहता था, वरन् वह तो यह कार्य इस हेतु करना चाहता था कि किसी तरह से पिनाक को समाप्त किया जा सके।

जब उसे पता चला कि पिनाक ने भगवान महाकाल और भगवती दक्षिण काली के संयुक्त वरदान को प्राप्त कर लिया तो वह समझ गया कि उस मानव हित अभिलाषी व्यक्ति का किसी न किसी प्रकार से विनाश करना ही होगा, वरना वह उस जैसे प्राणियों की नाक में दम करता रहेगा।
इससे पहले उसे राजकुमार के बारे में भी मालूम हो चुका था, लेकिन वह यह सोचकर प्रसन्न था कि दैवीय शक्ति एक दुष्ट व्यक्ति को प्राप्त हुई है, जिससे मानवता का अहित ही होगा।

पिनाक का तोड़ उसे राजकुमार शक्ति देव में नजर आया।

इसीलिए उसने राजकुमार को अपने महल में पहुंचा दिया ताकि पिनाक उसे खोजता हुआ वहां पहुंचे तथा राजकुमार शक्ति देव से उसका टकराव करवाया जा सके।

इस टकराव के लिए उसने अपनी रणनीति तय कर ली थी। राजकुमार के चारों तरफ उसने एक सुरक्षा व्यूह बना दिया था जिसमें उसके दसो पुजारी व विशाखा गिरी जैसे सैकड़ों समाज के दुश्मन थे।

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पिनाक आश्रम के अपने कक्ष में उपस्थित थे।

वे ध्यान लगाकर यह देखने का प्रयत्न कर रहे थे कि राजकुमार शक्ति देव इस समय कहां था। तभी उनके कक्ष में लोटन नाथ प्रगट हुए।

हालांकि लोटन नाथ एक आधुनिक नौजवान कि भांति लग रहे थे परन्तु पिनाक की तीक्ष्ण नजरों ने उनकी वास्तविकता को तुरंत पहचान लिया और अपने स्थान से उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया।

"तुम्हारी जय हो वत्स।"

पिनाक ने लोटन नाथ को अपने आसन पर बैठाया और स्वयं नीचे उनके चरणों के समीप बैठ गए और आग्रहपूर्वक उनसे पूछा, "क्या आज्ञा है प्रभु?"

पिनाक जानते थे कि लोटन नाथ जैसे महात्मा का आगमन निरुद्देश्य नहीं हो सकता, इसीलिए उन्होंने उनके सामने यह प्रश्न प्रस्तुत किया।

"आज्ञा नहीं, महादेव का संदेश लेकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हुआ हूं।"

"कुछ समय उपरांत महाभैरवी मंगला और भैरवानंद का आगमन होने वाला है, उनकी उपस्थिति में तुम्हे महादेव के संदेश से अवगत करवाऊंगा।"

जैसा लोटन नाथ ने कहा था, दोनों महान विभूतियां उसी अनुसार कुछ ही समय में वहां उपस्थित हो गई।

लोटन नाथ ने तीनों को महादेव के संदेश का वर्णन किया।

उन्होंने कहा, "राजकुमार शक्ति देव इस समय शैतान के संरक्षण में उसके महल में उपस्थित है।"

इसके उपरांत उन्होंने शैतान तक पहुंचने के मार्ग व इसमें मौजूद बाधाओं तथा खतरों के बारे में बताया।

उन्होंने यह भी बताया कि देवताओं की शैतान से हुई संधि के अनुसार वे केवल पिशाचों की घाटी तक अपने योगबल से पहुंच सकते है तथा शक्ति देव तक पहुंचने के लिए आगे का रास्ता उन्हें मानवीय प्रयासों द्वारा तय करना होगा।

उन तीनों के समक्ष उन्होंने शैतान की युद्धनीति का भी वर्णन किया और यह भी बताया कि यह युद्ध पिनाक के नेतृत्व में लड़ा जाएगा।

हालांकि पिनाक आश्रम में अपनी स्थायी उपस्थिति के कारण ब्लैक हॉक संस्था से त्याग पत्र दे चुके थे, परंतु वह इस संस्था की क्षमताओं को भली-भांति जानते थे इसीलिए उन्होंने इस संस्था को भी इस मामले में शामिल करने का आग्रह किया।

उन तीनों की स्वीकृति प्राप्त होने के बाद पिनाक ने अजय गुप्ता से संपर्क कर उसे सम्पूर्ण परिस्थितियों से अवगत करवाया।

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नई दिल्ली स्थित ब्लैक हॉक संस्था के एक विशेष कक्ष में इस समय इस संस्था के प्रमुख अजय गुप्ता, पिनाक, लोटन नाथ, महाभैरवी मंगला, तांत्रिक भैरवानंद, श्रीपत (जिसने शैतान के पुजारी सैरात से मुकाबला किया था), तांत्रिक जटा नंद (जिसने सैरात के साथ युद्ध में श्रीपत का साथ दिया था, उसे श्रीपत के आग्रह पर बुलाया गया था) व देवदत्त शास्त्री, ब्लैक हॉक संगठन के आयुधों की निर्माण शाखा के प्रमुख उपस्थित थे।

इसी कक्ष में बैठकर युद्ध की समस्त रणनीति तय की गई।

इसी रणनीति के तहत पिशाचों की घाटी में इस समय अजय गुप्ता व देवदत्त शास्त्री के अतिरिक्त सभी व्यक्ति उपस्थित थे जिन्होने ब्लैक हॉक संस्था के मुख्यालय में हुई बैठक में भाग लिया थाउन्होंने इस अभियान के लिए सेना की कोई सहायता नहीं ली। पिशाचों की घाटी से आगे तिब्बत का क्षेत्र था, जिस पर चीन का आधिपत्य था।

वैसे तो शैतान के कहे अनुसार वह अत्यंत दुर्गम क्षेत्र था और वहां चीनी सेनाओं की उपस्थिति संभव नहीं थी, फिर भी उन्होंने इस अंदेशे के तहत अपना रूप बदल कर तिब्बतन लामाओं का वेश धारण कर लिया था, जिससे अगर वहां चीनी सेना की कोई टुकड़ी हो तो उनकी उपस्थिति को न्यायसंगत ठहराया जा सके।

वैसे भी उस टीम में जटा नंद और श्रीपत को छोड़कर ऐसे महान व्यक्ति थे, जिनको न तो किसी हथियार की जरूरत थी और न ही चीन या किसी अन्य देश की सेना से कोई डर हो सकता था, लेकिन व्यर्थ की उलझनों से बचने के लिये उन्होंने अपना वेश तिब्बतन लमाओं का बना लिया था।

छह: व्यक्तियों की यह टीम तिब्बत में इस्तेमाल होने वाले घोड़ों पर सवार होकर पिशाचों की घाटी से निकलकर शैतान के क्षेत्र में प्रवेश कर गई।

लोटन नाथ ने अपने योगबल से श्रीपत और जटा नंद को ऐसी शक्तियां उपलब्ध करवा दी जिनका वे दोनों किसी भी संकट के समय उपयोग कर सकते थे।

चलते-चलते दो दिन बीत चुके थे किन्तु कोई उल्लेखनीय घटनाक्रम घटित नहीं हुआ।

वे दिन में यात्रा करते थे व रात्रि को विश्राम करते थे। सोने के व्यवस्था इस प्रकार थी- जटा नंद और श्रीपत को बीच में सुलाया जाता था तथा वे चारों उन दोनों के इर्द-गिर्द सोते थे।

विश्राम करते समय एक सुरक्षा घेरा उन्हें घेरे रहता था जिससे कोई अपार्थिव सत्ता उस घेरे को पार कर उनको हानि नहीं पहुंचा सकती थी। इसीलिए सभी बेखौफ होकर सोते थे।

उस रात्रि को भी वे ऐसे ही सोए हुए थे। अंधेरी रात में छोटे-छोटे काले रंग के कुछ जीव पहाड़ी चट्टानों से नीचे की ओर फिसले।

इन जीवों का रूप अत्यंत घिनौना था, उनके छोटे छोटे पांव भी थे लेकिन वे पैरों के सहारे नहीं बल्कि फिसल कर आगे बढ़ते थे।

उन्होंने आगे बढकर निद्रा में मग्न पिनाक और उसके दल को चारों ओर से घेर लिया तथा उनको सूंघने लगे।

न जाने उन्होंने क्या सुगंध अनुभव की, वे मस्त होकर उछल-कूद करने लगे जैसे नाच रहे हो, फिर एकाएक कुछ सजग होकर चट्टानों की तरफ संकेत करने लगे।

उस संकेत को प्राप्त करते ही, प्रत्येक दिशा से लाखों-करोड़ों वैसे ही घिनौने जीव प्रगट होने लगे। कोई चट्टान से फिसल रहा था, कोई किसी कंदरा से निकल रहा था तथा कोई किसी छेद से नुमाया हो रहा था।

सभी जीव उन सोते हुए मनुष्यों पर आक्रमण करना चाहते थे इसीलिए उनमें आगे बढ़ने की होड़ लग गई, लेकिन उस बढ़त में भी इतना अनुशासन था कि जरा सी भी आहट पैदा नहीं हो रही थी।

उन जीवों ने अपनी-अपनी जिव्हा मुंह से बाहर निकाल रखी थी, जोकि उनके छोटे शरीर के अनुपात में बहुत ज्यादा लंबी थी।

उनके अगाऊ दस्ते ने जो सबसे पहले वहां पहुंचा था, उन छ: मनुष्यों को अपनी जीभ से उनके वस्त्रों के उपर से ही चाटना शुरू कर दिया।

उनके मुख से कोई मादक पदार्थ विसर्जित हो रहा था, जिसके कारण पिनाक व उसके दल के सदस्य मदहोश हो गए तथा उनको पता भी नहीं चला कि उनके साथ क्या हो रहा था।

उसके उपरांत तो वे करोड़ों जीव उनके उपर छा गए तथा उन्हें चाटने लगे।

कुछ ही क्षणों के बाद उनके वस्त्र चीर-चीर हो चुके थे।

वस्त्रों के बाद उनके शरीर की बारी थी, उन जीवों के चाटने से उन्हें कोई दर्द नहीं हो रहा था, बल्कि वे तो सुंदर स्वप्नों में खो गए थे।

पिनाक भी स्वप्नों की दुनिया में खोया हुआ था, स्वप्न में वह महसूस कर रहा था कि आंनद का दरिया उसके चारों तरफ बह रहा है तथा वह उसमे डुबकी लगा रहा है, तभी उसे उसके गुरु अवधेशानंद समीप खड़े दिखाई देते है।

वे जोर-जोर से उसे झिंझोड़ कर जैसे जागृत करने का प्रयास कर रहे थे।

पिनाक को लगा जैसे वह कह रहे हो, "जागो बेटे जागो, जो आनंद तुम महसूस कर रहे हो वह मिथ्या है, तुम्हारे साथियों की जान खतरे में है, उन्हें केवल तुम्हीं बचा सकते हो।
।गुरु के शब्दों ने पिनाक की चेतना जागृत करदी। उनकी आंखे खुल गई और वे मदहोशी की अवस्था से बाहर आ गए।

जब वे होश में आए तब उन्होने महसूस किया कि उनके शरीर को लाखों जीव चाट रहे थे।

उन्होंने हाथ उठाकर उन्हें भगाना चाहा तो वे हाथों को हिला भी नहीं पाए जैसे उन्होंने हिलने से इंकार कर दिया हो।

तभी पिनाक को अपने साथियों का ध्यान आया, वे उनकी स्थिति के बारे में सोचकर क्रोधित हो उठे और एक जोर की हुंकार भरी।

उनके हुंकारने मात्र से वे समस्त जीव उड़कर दूर जा गिरे। पिनाक की हुंकार ने उनके साथियों को भी सपनों की दुनिया से बाहर निकाल दिया और वे सजग हो गए।

एक बार तो वे जीव उनके जिस्म से हट कर दूर जा गिरे, लेकिन तुरंत ही दोबारा आक्रमण करने के लिए लौटने लगे।

पिनाक ने सम्पूर्ण परिस्थिति को तुरंत भाप कर अपने दोनों हाथों को आगे की तरफ बढ़ा दिया।

उनके हाथों से लाखों के संख्या में छिपकली जैसे जीव निकलने लगे और इन जीवों ने पहले वाले समस्त जीवों का उस तरह भक्षण कर लिया जिस तरह दावनाल लकड़ी का भक्षण करता है।

इस विपत्ति से निबटने के बाद पिनाक ने अपने साथियों की ओर ध्यान दिया। सभी घायलावस्था में थे, लेकिन जटा नंद और श्रीपत की स्थिति चिंताजनक थी।

पिनाक ने फिर अपने हाथ आगे की ओर बढ़ा दिए, उनके हाथों से इस बार सफेद रंग की, चंद्रमा की किरणों के समान शीतल, किरण निकलकर उनके साथियों के उपर पड़ने लगी।

उन किरणों के प्रभाव से वे पहले से भी ज्यादा स्वस्थ हो गए और अपने अंदर एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह महसूस करने लगे।

इस घटना या दुर्घटना ने उस दल को अपनी शयन संबंधी नीति पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया।

सभी से विचार-विमर्श करने के बाद लोटन नाथ ने अपने गले में पड़ी हुई रुद्राक्ष की माला से एक मनका तोड़कर पृथ्वी पर फेंक दिया।

पृथ्वी पर गिरते ही उस मनके के दो टुकड़े हो गए और उसमे से एक विशाल मानव आकृति उत्पन्न हुई, जिसका चेहरा अति सुंदर था तथा सभी अंग सुडौल थे।

उत्पन्न होते ही उस मानव ने भूमि पर गिरकर लोटन नाथ को प्रणाम कर कहा, "क्या आज्ञा है देव?"

"सोम, मैं और मेरे साथी शैतान के महल में उसके साथियों से युद्ध करने जा रहे है, तुम्हें इस दौरान हर-पल मेरे और मेरे साथियों की सुरक्षा में नियुक्त रहना होगा।"

"जो आज्ञा देव", सोम यह कहकर अन्तर्ध्यान हो गया।

इस घटना से अगले दिन उन्होंने तीन घंटे का ही सफर तय किया था कि एक यति ने उनका मार्ग रोक लिया।

वह कम से कम ३० फीट लंबा था तथा उसके विशालकाय हाथों की हथेलियां बड़े-बड़े बेलचों के समान दिखाई देती थी।

"मानव, कौन हों तुम, और इस अगम्य क्षेत्र में क्यों विचरण कर रहे हो?"

"यति सवाल करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया?" पिनाक ने पूछा।

"अधिकार तो शक्ति द्वारा उत्पन्न होते है, मानव।"

"तुम्हें हमारी शक्ति के बारे में क्या मालूम?"

"तुम तुच्छ मानव, अगर कुछ शक्ति रखते भी हो तो वह मेरे सामने व्यर्थ है।"

"अब अगर तुमने इस रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयत्न किया तो तुम सबको मृत्यु की गहरी नींद में सोना पड़ेगा।"
 
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यति एक जड़ बुद्धि प्राणी था, उसने यह सोचे-समझे बगैर कि जो मनुष्य इतने दुर्गम क्षेत्र को पार कर यहां तक आ सकते है, अवश्य ही कोई न कोई शक्ति रखते होंगे, उनसे उलझने लगा।

यति ने एक विशालाकाय शिला उठाकर उनके उपर फेंक दी।

पिनाक ने पहले ही उन सभी की सुरक्षा का प्रबंध कर लिया था, इसीलिए वह शिला उनके छूने से पहले ही टूट कर चूर-चूर हो गई।

यति यह देखकर बहुत आश्चर्यचकित हुआ, और उन्हें पकड़ने के लिए अपनी हथेली उनकी ओर बढ़ाई लेकिन उनको छूने से पहले ही उसको एक जबरदस्त झटका लगा और वह दूर जा गिरा।

पिनाक चाहते तो यति को पल भर में समाप्त कर सकते थे लेकिन उस दुर्लभ नस्ल के प्राणी को वे व्यर्थ ही नहीं मारना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने उस पर कोई आक्रमण नहीं किया केवल अपनी सुरक्षा की व्यवस्था में ही लगे रहे।

परंतु मूर्ख यति उन पर बार-बार आक्रमण करने लगा, जिससे तंग आकर पिनाक ने उसको बंदी बनाकर एक ओर डाल दिया तथा अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए।

दरअसल वहां पर दस यति निवास करते थे तथा वे सभी परम बलशाली थे।

वे एक यतिंद्र नामक यति के नेतृत्व में वहां से गुजरने वाले प्रत्येक मनुष्य का वध कर डालते थे इसीलिए इस क्षेत्र को पार कर कोई भी मानव शैतान के महल तक नहीं पहुंच पाता था।

जब शैतान ने इस क्षेत्र को अपने निवास-स्थान के लिए चुना तो उसने वहां रहने वाले उन सभी प्राणियों का वध कर दिया था जो उसके उद्देश्य में बाधक हो सकते थे।

उसने यतियों पर भी आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया था, किंतु इस शर्त पर उनको छोड़ दिया था कि वे इस मार्ग से किसी भी मनुष्य को आगे नहीं जाने देंगे तथा उसका वध कर देंगे।

जब पिनाक और उसके दल के सदस्य यति को बांधकर आगे बढ़े तो यतिंद्र अपने साथियों सहित उनके सामने आ पहुंचा।

उसने पिनाक द्वारा उस यति को पराजित होता देख लिया था। वह उन यतियों में सबसे बुद्धिमान था, इससे उसने सहज ही अनुमान लगा लिया कि कोई विकट शक्ति उस क्षेत्र में घुस आई है।

वह इन मानवों के मार्ग में रुकावट नहीं बनना चाहता था लेकिन वह शैतान से डरता भी था, इसीलिए वह शैतान की शक्तियों को उन मानवों की शक्ति के साथ तुलना करना चाहता था ताकि भविष्य में वह शैतान के सामने किसी भी जवाबदेही से मुक्त हो सके।

वह यह भी सोच रहा था कि अगर ये मानव शैतान को इस क्षेत्र से भगा दे तो कितना अच्छा हो।

यह सब विचार करने के बाद उसने बहुत ही विनम्रतापूर्वक उनसे पूछा, "हे महाभाग, आप मुझ यतियों में प्रमुख यतिंद्र को अपना परिचय देकर कृतार्थ करे।"

"मेरे यति को पराजित करने वाले आप साधारण मनुष्य नहीं हो सकते।"

पिनाक ने यतिंद्र को अपना और अपने साथियों का परिचय दिया तथा उसे बताया कि वे शैतान के महल तक, उसके बुराई के साम्राज्य को समाप्त करने के लिए जा रहे थे।

"मैं आपकी महान शक्ति को अपने अंतर्मन की आंखों से स्पष्ट देख पा रहा हूं और आपकी राह में बाधा नहीं बनना चाहता।"किंतु शैतान ने हम यतियों को पराजित कर इस कार्य पर नियुक्त किया है कि इस राह से गुजरने वाले प्रत्येक मनुष्य को मौत के घाट उतार दे।"

"सो हे देव, आप हमें पराजित करके ही आगे बढ़ सकते हैं।"

सभी यति शारीरिक रूप से परम बलशाली थे, किंतु उनके पास कोई दैवीय शक्ति नहीं थी, इसीलिए दैवीय शक्तियों के धारक पिनाक और उसके साथियों ने कुछ ही समय में सभी यतियों को पराजित कर दिया।

इस पर यतिंद्र ने कहा, "हे महानुभावों, हम यति स्वेच्छा से शैतान की गुलामी नहीं कर रहे थे, अगर आप उसको इस क्षेत्र से पलायन पर विवश कर देंगे तो हमें अत्यंत प्रसन्नता होगी।"

"हम सब हृदय से कामना करते है कि आप सफल हो।"

यतिंद्र के यह कहने पर सभी यतियों ने पिनाक को प्रणाम किया तथा आगे बढ़ने के मार्ग को रिक्त कर दिया।

मार्ग की छोटी-छोटी बाधाओं का सामना करते हुए
वह दल वहां तक पहुंच गया जहां से शैतान का महल ज्यादा दूर नहीं था।

अचानक वह घटना घटित हो गई जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। जिस मार्ग पर वह चल रहे थे उसमें उनके चारों ओर लगभग ६ मीटर व्यास का एक वातायन खुल गया।

वह घटना इतनी अचानक घटित हुई कि उनको संभलने का कोई भी अवसर प्राप्त नहीं हुआ और सभी तीव्र गति से उस वातायन में गिरने लगे तथा अपने होश खो बैठे।

पिनाक को जब होश आया तो उन्होने स्वयं को एक भव्य कक्ष में एक पर्यंक पर पाया। कक्ष की सजावट पुरातन तरीके की थी तथा वह इतना ज्यादा विशाल था कि उसकी तुलना किसी खेल के मैदान से की जा सकती थी। उनके कानों में राग भैरव की मधुर ध्वनि मिठास घोल रही थी।

पिनाक की आंखे खुलती देख, अनेकों नवयुवतियां उनकी ओर आदर के साथ बढ़ी।

सभी नवयुवतियां गौर वर्ण की थी। उनका कद लंबा और वक्ष स्थल उन्नत था।

सभी ने सिर झुकाकर पिनाक को प्रणाम किया और उनको उठने में सहायता करने लगी।

पिनाक को अपने साथ घटित हुआ घटनाक्रम याद नहीं आ रहा था इसीलिए उन्होंने उन युवतियों से पूछा-

"मैं कहा हूं?"

"तुम सब कौन हो?"

पिनाक के प्रश्न सुनकर नवयुवतियों के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उजागर हुए, किंतु उन्होंने स्वयं को संभालते हुए मधुर स्वर में उत्तर दिया, "आप पाताल देश के महाराज सुकीर्ति सेन है, आप राजमहल के निजी कक्ष में है और हम आप की दासियां है।"

पिनाक को यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ परंतु उन्होंने अपने भाव चेहरे पर परिलक्षित नहीं होने दिए। वे केवल खामोशी से दासियों की ओर देखते रहे।

इससे दासियों को कुछ हिम्मत प्राप्त हुई तथा उन्होंने बहुत ही विनम्र व मीठे वचनों के साथ पिनाक से कहा, "आज्ञा हो तो महाराज, आपके नित्य-कर्म का प्रबंध किया जाए।"

यह सुनकर पिनाक ने मौन स्वीकृति दे दी।

कुछ ही समय बाद पिनाक स्नानागार में थे।

स्नान करवाने वाली दासियां भी अत्याधिक सुंदर थी। उन्होंने वस्त्र के नाम पर एक लघु केंचुकी ओर छोटा सा अधो-वस्त्र धारण किये हुए था। उनके कठोर कुच उनकी केंचुकियों से बाहर निकलने को बेताब हो रहे थे।

उन्होंने सुगन्धित जल से मल-मल कर पिनाक को स्नान करवाया। स्नान के दौरान उनकी क्रीड़ाओं तथा अठखेलियों से पिनाक के शरीर में खून जैसे खोलने लगा, लेकिन उन्होंने अपनी अभी तक की आयु में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था और अपने गुरु से संयम के महत्त्व का पाठ पढ़ा था इसीलिए उन्होंने चंद गहरी सांसे लेकर स्वयं को स्वस्थ कर लिया।स्नान के बाद अन्य दासियों ने पिनाक को वस्त्र धारण करवाए, उनके शरीर पर आभूषण सजाए, जो किसी महाराजा की शान के ही अनुरूप थे।

एक दासी ने पिनाक के मुख की ओर दर्पण किया तो वे कामदेव को भी लज्जित कर देने वाली अपनी छवि को देखकर स्वयं पर ही मोहित
हो गए।

पिनाक इस समय पाताल देश के राज सिंहासन पर विराजमान थे। उनके वामे राजमहिषी सुषमा देवी अपनी अभूतपूर्व शोभा के साथ उपस्थित थी।

इस समय तक पिनाक को अपनी वास्तविकता का भान हो चुका था, किंतु सम्पूर्ण षड़यंत्र को समझने के लिए वे खामोशी से अभिनय कर रहे थे।

पिनाक ने गहरी नजरों से राज दरबार की ओर देखा। उन्हें यह इंद्र के राज दरबार से प्रतिस्पर्धा करता हुआ महसूस हुआ। विशाल भवन, ऊंची अट्टालिकाएं, काले संगमरमर का फर्श, दीवारों पर अद्भुत चित्रकारी, राजदरबार को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थी।

महामंत्री चतुर सेन अपने भव्य व्यक्तित्व, तीक्ष्ण और गूढ़ दृष्टि; सुदृढ़ शरीर वाले महासेनापति कीर्ति सेन अन्य दरबारियों सहित राजदरबार की शोभा में वृद्धि कर रहे थे।

राजदरबार में नृत्य कर रही नृत्यकियों में कला और सुंदरता का अद्भुत संगम था।

महामंत्री चतुर सेन अपने स्थान से खड़े हुए और महाराज से राज दरबार की कार्यवाही आरंभ करने की आज्ञा चाही।

पिनाक ने हल्के से सिर को हिलाकर इजाजत दे दी।

महामंत्री ने महाराज को संबोधित करके कहा, "महाराज को ज्ञात होगा कि बहुत समय से पड़ोसी देश के गुप्तचर हमारे पाताल देश में सक्रिय है।"

"उनकी सक्रियता का पता चलने पर राजसभा में उन्हें पकड़ने का दायित्व हमारे गुप्तचर विभाग के प्रमुख नंदी कुमार को सौंपा गया था।"

"नंदी कुमार ने अपने दायित्व का बड़ी तेजी तथा कुशलता से निर्वाह किया और पड़ोसी देश के पांच गुप्तचरों को बंदी बनाने में सफल हो गए।"

"अगर महाराज आज्ञा प्रदान करें तो उन सभी को राजदरबार में प्रस्तुत किया जाए ताकि उनको पाताल देश के कानून के अनुसार मृत्यु-दंड की सजा दी जा सके।"

यह कहकर महामंत्री चतुर सेन अपने आसन पर विराजमान हो गए।

पिनाक को राजदरबार की किसी भी कार्यवाही में कोई रुचि नहीं थी, किंतु वास्तविक अभिनय करने और किन अभागों को गुप्तचर कहकर मृत्यु दंड दिया जा रहा है, यह देखने के लिए उन्होने उनको प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान कर दी।

पिनाक को यह देखकर आश्चर्य का जोरदार झटका लगा कि बंदी गुप्तचर ओर कोई नहीं वरन् उनके ही साथी थे।

पिनाक ने अत्यंत कठिनाई से अपने चेहरे पर आते हुए भावों को दबाया तथा उनका मस्तिष्क अपने साथियों को बचाने की योजना में तल्लीन हो गया।

उन्होंने महामंत्री चतुर सेन को संबोधित कर कहा, "गुप्तचर विभाग के प्रमुख नंदी कुमार के साथ इन गुप्तचरों के विरुद्ध जो भी साक्ष्य हो प्रस्तुत किए जाए।"

नंदी कुमार का ब्यान और उन पांचों के विरूद्ध प्रस्तुत किए गए साक्ष्य इतने मजबूत थे कि कोई भी उनको गुप्तचर होने में संदेह नहीं कर सकता था। उसके साथी भी अपनी वास्तविकता से अंजान प्रतीत होते थे और अपने गुप्तचर होने के आक्षेप पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे।

किंतु पिनाक तो वास्तविकता जानते थे तथा समझते थे कि उनके साथियों को उनके ही हाथों मृत्यु-दंड दिलवाने के षड़यंत्र के अतिरिक्त वह कार्यवाही कुछ भी नहीं थी।

पिनाक ने पल भर में अपनी योजना स्थिर करली और आदेश दिया, "बंदियों को अगली राजसभा तक बंदीगृह में रखा जाए।"

यह सुनकर महामंत्री के चेहरे पर कुछ विरोध के भाव प्रगट हुए किंतु वह कर भी क्या सकता था इसीलिए मौन धारण कर खड़ा हो गया।पिनाक भी सिंहासन से उतर कर राज दरबार से बाहर की ओर चल दिए। दरबार में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने अपनी नजरें तब तक झुकाएं रखी जब तक महाराज दरबार से बाहर नहीं हो गए।

राजदरबार से बाहर आकर उन्होंने रथवान को रथ लाने को कहा तथा रथ आने पर उस पर सवार होकर राज्य को देखने के लिए चल दिए।

सायं-काल तक भ्रमण करते रहने पर भी पिनाक का मस्तिष्क इसी उहा-पोह में रहा कि इस राज्य को वास्तविक समझे या शैतान का मायालोक। जब उनका दिमाग सोच-सोच कर थक गया तो उन्होंने यह सोचकर उसको शांत किया कि वह प्रत्येक स्थिति से निबटने में पूर्णतया सक्षम है और समय आने पर अपने साथियों सहित इस राज्य या मायालोक जो भी हो, से बाहर निकल जाएंगे तथा राजमहल को वापिस लौट गए।

पिनाक अपने शयनकक्ष में मौजूद थे कि दासी ने महारानी सुषमा देवी के आगमन की सूचना दी।

महारानी ने अंदर प्रवेश करते ही दासियों को कक्ष से बाहर जाने का संकेत किया।

दासियों से कक्ष के रिक्त हो जाने पर महारानी सुषमा देवी पिनाक की शैय्या पर उनके नजदीक बैठ गई।

सुषमा देवी उस समय सोलह श्रृंगार किए हुए थी। सौंदर्य में वह रति से प्रतिस्पर्धा करती प्रतीत होती थी। उसका लम्बा कद, घुटने तक लहराती जुल्फें, मदमाते नयन, सुतवा नासिका, अनार के दानों के समान लाल होंठ, चमकते हुए सफेद दांत, उभरी हुई चिबुक, पतली ग्रीवा, कठोर और उन्नत पयोधर, जो केंचुकि से बाहर आने को बेताब प्रतीत होते थे, क्षीण कटि प्रदेश और कदली स्तंभ के समान पग किसी भी विश्वामित्र की तपस्या भंग करने में सक्षम थे।

महारानी ने आंचल को अपने वक्ष-स्थल से हट जाने दिया तथा शैय्या के समीप रखी हुई तिपाई से सुगन्धित मदिरा से भरी हुई एक सुराही उठाई व चिताकर्षक अदा के साथ उस सुराही से एक प्याला ढालकर पिनाक को प्रस्तुत किया।

पिनाक अब धर्म-संकट में पड़ गए, सुरा का सेवन उन्होंने तब तक तक नहीं किया था और न ही करना चाहते थे।

किंतु वे जानते थे कि परिस्थितियों के अनुसार उनको उसका सेवन अवश्य करना पड़ेगा।

पिनाक को अपने महान गुरु अवधेशानंद का एक उपदेश स्मरण हो आया जिसमें उन्होंने कहा था, "वत्स, जिस क्षेत्र से तुम संबंध रखते हो, उसमे कोई भी कार्य, जिसे तुम अनुचित समझते हो, को करना जिसमें तुम्हारा हित साधन और मानव कल्याण दोनों निहित हो, वर्जित नहीं है।"

वैसे भी पिनाक परम सिद्धि को प्राप्त कर चुके थे, और इस स्थिति में पहुंचने के बाद मनुष्य में एक निरपेक्ष भाव उत्पन्न हो जाता है जिससे वह जो भी कार्य करता है उसमे केवल दृष्टा भाव रहता है तथा वह मन व आत्मा से उसमे सम्मिलित नहीं होता।

फिर भी पिनाक ने यह कहकर मदिरापान से बचने का प्रयत्न किया, "महारानी, तुम्हारे नयनों में जो नशा है वो इस मदिरा में कहा?"

लेकिन सुषमा देवी ने आग्रहपूर्वक वह जाम पिनाक के ओंठों से लगा दिया।

इसके उपरांत मय के दौर पर दौर चलने लगे।

महारानी ने भी छककर पी और मदहोश होकर पिनाक की गोद में गिर पड़ी।

पिनाक ने उसे एक तरफ करने का प्रयत्न किया लेकिन महारानी लता की तरह पिनाक से लिपट गई और अपने जलते हुए अधर उनके अधरों पर रखकर बेसब्री के साथ उनका रसपान करने लगी।

पिनाक भी समय की जरूरत को जानकर महारानी का साथ देने लगे।

उन्होंने सुषमा देवी ने पहनी हुई केंचुकी की लड़ी खोल दी, जिससे उसके उन्नत कुच आजाद होकर हाहाकारी दृश्य का सृजन करने लगे।

पिनाक ने ज्योंही उसके स्तनों के अग्रिम भाग को हल्के से अपनी दंत पंक्तियों द्वारा दबाया त्योंही महारानी के ओंठो से एक आनंद भरी चित्कार निकली और वह बेकली से पिनाक में समाने का प्रयत्न करने लगी।

वह पिनाक के उपर सवार होकर उस खेल को खेलने में तल्लीन हो गई जिसका निर्माण विधाता ने मुख्यत: सृजन के लिए किया था।

पिनाक ने इससे पहले इस तरह के खेल में भाग नहीं लिया था इसीलिए उन्होंने स्वयं को महारानी के हवाले कर दिया। महारानी अपने सम्पूर्ण कौशल के साथ इस प्राकृतिक क्रीड़ा में भाग ले रही थी। उसका प्रयत्न था कि पिनाक को शीघ्र स्खलित कर अपनी विजय का परचम लहरा सके।

दरअसल महारानी सुषमा देवी का पिनाक के प्रयंक पर आने का प्रमुख उद्देश्य काम पिपासा मिटाना नहीं वरन् उसके साथियों को मृत्यु-दण्ड घोषित करवाना था जिन्हें पिनाक ने बंदीगृह में बंद करने के आदेश जारी किए थे। वह यह कार्य महामंत्री चतुर सेन के आदेश पर कर रही थी।

इसलिए वह अपनी काम क्रीड़ाओं द्वारा पिनाक पर विजय प्राप्त कर उनसे वह कार्य करवाना चाहती थी।

लेकिन पिनाक तो स्वयं में स्थित थे। महारानी अपने पूरे प्रयत्न करके हार गई और निढाल होकर उनके वक्ष पर गिर पड़ी।

सुबह होने तक महारानी सुषमा देवी ने अनेक प्रयत्न किए किंतु वह पिनाक पर विजय प्राप्त नहीं कर सकी।

चतुर सेन जब महारानी से उनके कक्ष में कार्य प्रगति के विषय में जानने के लिए मिला तो सुषमा देवी के चेहरे पर हार के भाव स्पष्ट पढ़े जा सकते थे।

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अगले दिन पिनाक शिकार का बहाना बनाकर पाताल देश के जंगलों की ओर रवाना हो गए। चंद दिनों में उन्होंने पूरे पाताल देश को छान मारा किंतु बाहर जाने का कोई मार्ग उन्हें नहीं सूझा।

जंगल में एक जगह बहुत ही शांत वातावरण था, पक्षियों का मधुर कलरव चारों ओर फैला हुआ था। पिनाक ने एक उचित जगह देखकर अपना आसन लगा लिया और समाधि में लीन हो गए।

उनकी समस्त इन्द्रियां शांत हो गई, बाह्य वातावरण से उनका कोई संबंध नहीं रहा और वे अपने अंतर्मन में खो गए।

समाधि के दौरान पिनाक ने स्वयं को उस स्थान पर खड़े देखा, जहां से वह अपने साथियों सहित खड्डे में गिरे थे।

परंतु जब उन्होंने अपनी आंखे खोली तो अपने आप को उसी जंगल में पाया।

इस तरह वे आंखें बंद करके समाधि लगाते तो स्वयं को पर्वतों के बीच पाते और आंख खोलने पर जंगल में।

पिनाक समझने का प्रयास कर रहे थे कि वास्तविकता क्या है? यह पाताल देश या शैतान के महल तक जाने का मार्ग।

अंत में पिनाक इस निश्चय पर पहुंचे कि वास्तविकता तो वे पर्वत है जिनसे होकर वे यात्रा कर रहे थे और यह पाताल देश महज एक मायाजाल है जिसमें शैतान ने उनको फंसाया है।

इस निश्चय पर पहुंचने के बाद उन्होने अपने साथियों से मानसिक संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया।

चूंकि उनके साथी अपनी वास्तविकता को भुला चुके थे इसीलिए संपर्क स्थापित होने पर भी पिनाक को कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि पिनाक के साथियों का अंतर्मन उनको पहचान नहीं पा रहा था।

यकायक उन्हें जिन्नों के शहजादे आलम की याद आई तो उन्होंने आलम से संपर्क किया जो तुरंत स्थापित हो गया।

"क्या आदेश है, देव?, आलम की बिल्कुल स्पष्ट आवाज सुनाई दी।

"मेरे समीप आओ, मित्र आलम, मुझे तुम्हारी आवश्यकता है।"

"आपके सामने ही मौजूद हूं।"

"क्या आप मुझे देख नहीं पा रहे?"

पिनाक ने आलम के प्रश्न को नजरंदाज कर प्रतिप्रश्न किया, "मैं कहां हूं आलम?"

"आप मेरे सामने तिब्बत के पहाड़ों में है देव।"

यह सुनकर पिनाक का दिमाग चक्कर खा गया। उन्होंने आलम को सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराकर अपने स्तर पर जो भी बन सके करने को कहा।

पिनाक यह सोचकर राज्य में वापिस लौट गया कि सबसे पहले उनके साथियों को अपनी वास्तविकता से अवगत करवाया जाए ताकि कोई अन्य कार्यवाही करने का मार्ग खुल सके।
वापिस आकर वह सीधे बंदीगृह पहुंचे और अपने साथियों को साथ लेकर राजमहल में प्रवेश कर गए।

उन्होंने निजी कक्ष में उनके बिस्तर लगवा दिए और अपनी निगरानी में उनके भोजन इत्यादि का प्रबंध किया।

महामंत्री चतुर सेन को पिनाक की इस कार्यवाही का पता चला तो वह बहुत तिलमिलाया।

उसने सेनापति कीर्ति सेन को अपने साथ लिया और पिनाक के पास पहुंचकर प्रश्न करने लगा, "मृत्यु दण्ड के अधिकारी, उन विदेशी गुप्तचरों को आपने क्यों मुक्ति प्रदान की है, महाराज?"

पिनाक ने बगल में बंधे हुए अपने विशाल खड्ग को म्यान से बाहर निकालकर चतुर सेन कि गर्दन पर वार करते हुए कहा, "इसका उत्तर तुम्हे मेरी तलवार देगी।"

खड्ग के एक ही वार से चतुर सेन की गर्दन कट कर दूर जा गिरी।

चतुर सेन का वध करने के पश्चात पिनाक ने सेनापति कीर्ति सेन से पूछा, "तुम्हारा क्या इरादा है, सेनापति?"

कीर्ति सेन तुरंत पिनाक के चरणों में गिर पड़ा और पिनाक के प्रति वफादारी की शपथ ली।

चतुर सेन की कटी हुई गर्दन और उसके धड़ को पिनाक ने राजपथ पर डलवा दिया।

इसके उपरांत उन्होंने राजमहल के रसोइयों और भोजन परोसने वाली दासियों को अपने कक्ष में प्रस्तुत करने का आदेश दिया।

उन सभी के प्रस्तुत होने पर पिनाक ने खून से रंगी हुई अपनी तलवार उन्हें दिखाते हुए कहा, "अगर किसी भी व्यक्ति ने खाद्य-सामग्री में कोई आपत्तिजनक वस्तु मिलाई तो उसकी गर्दन तथा मेरी तलवार होगी।"

पिनाक का तीर सटीक निशाने पर लगा और तीन दिन के निर्दोष खान-पान से ही पिनाक के साथी अपनी असलियत से वाकिफ हो गए।

इसके उपरांत उन छ: व्यक्तियों में एक गुप्त वार्तालाप हुआ।

इस वार्तालाप के परिणामस्वरूप लोटन नाथ ने महादेव का ध्यान किया और उनसे प्रार्थना की, "हे महादेव, हमें इस जंजाल से मुक्त कराएं।"

तुरंत महादेव की धीर-गंभीर वाणी वातावरण में गूंजी, "ये जंजाल कुछ भी नहीं केवल शैतान द्वारा फैलाया हुआ एक भ्रमजाल है।"

"आश्चर्य है कि तुम और पिनाक जैसे ज्ञानी पुरुष भी इस भ्रमजाल में फंस गए।"

"इसमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है, अस्तु मै तुम सबको इस जाल से मुक्त करता हूं तथा तुम्हे इस तरह के जाल में कभी न फंसने का वरदान देता हूं।"

महादेव के इतना कहते ही उन सभी ने स्वयं को उसी स्थान पर पाया जहां से वह वातायन खुला था और वे उसमे गिर गए थे।

इस समय वहां न तो कोई पाताल देश था तथा न ही उसका राजमहल और महारानी सुषमा देवी।

शहजादा आलम इस समय भी वहां उपस्थित था और पिनाक के विषय में सोच-सोच कर परेशान हो रहा था।

पिनाक को देखते ही वह उनकी ओर दौड़ा तथा उनसे गले लगकर रोने लगा।

पिनाक ने भी आलम को कसकर गले लगाया और बुलाने पर तुरंत पहुंचने के लिए उसका धन्यवाद किया।

पिनाक ने आलम को अपने स्थान पर वापिस जाने के लिए कहा लेकिन वह तैयार नहीं हुआ बल्कि उसने शिकवा भी किया कि शैतान के खिलाफ युद्ध में उसे याद नहीं किया गया।

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एक सुबह वे नींद से जागे तो जटा नंद और श्रीपत को उन्होनें अपने बीच में नहीं पाया।

लोटन नाथ ने तुरंत सोम को पुकारा, किंतु वह भी उपस्थित नहीं हुआ।

वे इस बारे मे विचार कर ही रहे थे कि दोनों कहां गायब हो गए और सोम भी उपस्थित नहीं हो रहा।

तभी राजकुमार शक्ति देव की आवाज वातावरण में गूंजी, "तुम्हारे दोनों साथी सोम सहित मेरी कैद में है, अगर तुममें शक्ति है तो उनको मुक्त करवा लो।"

"हां, अगर तुम वापिस लौटने को सहमत हो जाओ तो उनकी मुक्ति का मार्ग बन सकता है वरना उनके शव ही तुम्हें प्राप्त होंगे।"

किंतु पिनाक ने राजकुमार के प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि वह एक युद्ध लड़ रहे थे और युद्ध को किसी के जीवन या मृत्यु के भय से अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता, वह जो करना चाहे कर सकता था।

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जब राजकुमार द्वारा जटा नंद और श्रीपत का अपहरण किया जा रहा था तब सोम पूरी तरह से सतर्क था।

सोम कोई साधारण प्राणी नहीं था। वह मानव से इतर एक अलग योनि का प्राणी था और उसकी एक परालौकिक सत्ता थी।

वह उन दोनों के अपहरण में बाधा डाल सकता था किंतु राजकुमार की दैवीय शक्तियों को महसूस कर उसने शक्ति देव से मुकाबला करना उचित नहीं समझा।

सोम को कोई कैद भी नहीं कर सकता था, किंतु यह सोचकर उसने बंदी बनना स्वीकार कर लिया कि शैतान के महल में पहुंचकर उसकी शक्ति को जाना जा सके तथा हो सके तो कुछ दुष्टों को समाप्त कर उन दोनों को मुक्त कराया जा सके।

इस समय वे तीनों शैतान के महल के बंदीगृह में बंदी अवस्था में थे।

रात्रि का समय था, सोम की देह से रीछ जैसा एक भयावह प्राणी निकला। उसके चौड़े मुंह में बड़े-बड़े दांत थे, उसके हाथों के नाखून तलवार के समान लंबे व पैने थे तथा शरीर पर बालों की जटायें झुल रही थी।

वह प्राणी कैदखाने की दीवारों से यूं आर-पार निकल गया जैसे उनका कोई अस्तित्व ही नहीं हो।

वह प्राणी बेखटके पूरे महल में घूम-घूम कर शैतान की शक्तियों की टोह लेने लगा।

उस समय महल में शैतान, राजकुमार शक्ति देव, शैतान के दस प्रमुख पुजारी, विशाखा गिरी और पूरे विश्व से सैकड़ो की संख्या में बुराई का समर्थन करने वाले दुष्ट व्यक्ति उपस्थित थे। इन दुष्ट व्यक्तियों में ज्यादातर काली शक्तियों के उपासक थे।

तभी एक पहरेदार ने उसको देख लिया और शोर मचा दिया। उसका शोर सुनकर महल में जाग हो गई और सभी व्यक्ति अपने-अपने कक्षों से बाहर निकलने लगे।

जब तक वे उस भयानक प्राणी को देखकर कुछ कार्यवाही करते तब तक उसने अपने दांतो और नाखूनों के द्वारा उनमें से बहुतों को समाप्त कर दिया तथा अपने स्थान से गायब होकर सोम के शरीर में समा गया।

सोम भी उसके उस कार्य से अति प्रसन्न हो गया तथा उसने सोचा कि आगे की कार्यवाही उसके स्वामी (लोटन नाथ) के वहां पहुंचने पर ही करनी उचित होगी।

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शैतान चिंतित अवस्था में अपने कक्ष में टहल रहा था।

कभी उसकी सोच उस रीछ जैसे प्राणी की ओर जाती जो उसके आदमियों को मारकर गायब हो गया।

कभी वह उस दल के बारे में सोचता जो मार्ग की समस्त बाधाओं को समाप्त करते हुए उसके साम्राज्य का विध्वंस करने के लिए आ रहे थे।

फिर वह राजकुमार शक्ति देव के बारे में सोचने लगा कि उसका महल में लाना उचित था या नहीं।

बहुत सोच-विचार के बाद उसने निष्कर्ष निकाला कि युद्ध अवश्यंभावी है तो उसने राजकुमार शक्ति देव सहित महल में उपस्थित सभी व्यक्तियों को उसके कक्ष में उपस्थित होने का संदेश भिजवाया।

जब सभी व्यक्ति उसके कक्ष में पहुंच गए तो अपने अनुयायियों में उत्साह पैदा करने के लिए उनको संबोधित किया।उसने कहा, "साथियों वह क्षण आ चुका है, जिसका हमें इंतजार था। हजारों सालों से देवता हमारे साथ छल करते आ रहे है। इस काल में जब हम उत्थान के मार्ग पर है और हमारे अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है तथा हमारे पंथ के समर्थक राजकुमार शक्ति देव को महान सिद्धि की प्राप्ति हुई तो देवताओं ने उसका प्रतिरोध करने के लिए पिनाक को उससे दोगुनी शक्तियां प्रदान कर दी तथा उसकी सहायता के लिए लोटन नाथ को भी साथ कर दिया ताकि हमारा विनाश कर सके। लेकिन हम भी देवताओं कि दिखा देंगे कि हमारे मार्ग में जो भी रुकावट बनकर खड़ा होगा, हम उसे नेस्तनाबूद कर देंगे। अब युद्ध हमारे द्वार तक पहुंच गया है। इस युद्ध में हमें प्रत्येक परिस्थिति में विजय प्राप्त करनी है नहीं तो हजारों वर्ष तक हमारे पंथ की उन्नति रुक जाएगी।

इस संबोधन के पश्चात शैतान ने युद्ध विषयक नीति की चर्चा की और सभा बर्खास्त कर दी।

सोम ने भी बंदीगृह में इस समस्त वार्तालाप को सुनकर कहा, "मैंने भी अपनी रणनीति तैयार कर ली है।"

ज्योंही पिनाक का दल शैतान के महल के समीप पहुंचा, उनपर आक्रमण शुरू होगया।

पिनाक ने अपने साथियों का नेतृत्व किया और वे आक्रमण का प्रतिउत्तर देने में तल्लीन हो गए।

उनके हाथों में भांति-भांति के आयुध प्रगट हो रहे थे जिनके द्वारा वे शैतान के अनुचरों का खात्मा कर रहे थे।

इधर महल से बाहर यह युद्ध चल रहा था, अंदर सोम ने बंदीगृह का दरवाजा उखाड़ फेंका और बंदीगृह से बाहर आ गया।

उसके दोनों हाथों में आयुध प्रगट हो गए। उसने जटा नंद और श्रीपत को भी हथियार उपलब्ध करवाए और वे तीनों मिलकर महल के अंदर भी विनाश लीला करने में प्रवृत्त हो गए।

दोनों तरफ से मार पड़ने पर काली शक्तियों के उपासकों की संख्या तेजी से समाप्त होने लगी।

कुछ ही समय उपरांत शैतान के गुट में स्वयं शैतान (जो देवताओं से हुई संधि के अनुसार खुद युद्ध में भाग नहीं ले सकता था), राजकुमार शक्ति देव और शैतान के दस पुजारी बचे थे, बाकि सबका विनाश हो चुका था।

पिनाक की युद्ध के दौरान शक्ति देव पर नजर पड़ी।

उसने अपने साथियों को शैतान के पुजारियों से निबटने का संकेत किया और स्वयं राजकुमार की ओर बढ़ गया।

शैतान के पुजारी भी कुछ कम शक्तिवान नहीं थे। शैतान ने अपनी समस्त शक्तियों का वितरण उनमें कर दिया था। इससे वे परम शक्तिशाली होकर लोटन नाथ इत्यादि से मुकाबला कर रहे थे।

उन्होंने लोटन नाथ इत्यादि पर क्षारीय पदार्थों की बौछार कर दी जिसे महाभैरवी मंगला ने अपने खप्पर में लेे लिया जिससे उनका कोई नुक्सान नहीं हुआ।

इसके उपरांत पुजारियों के शरीर से लाखों की संख्या में विषैले जीव निकल-निकल कर उन पर आक्रमण करने लगे किंतु महातांत्रिक भैरवानंद ने भी अपने शरीर से वैसे ही जीव उत्पन्न किए जो शैतान के पुजारियों द्वारा उत्पन्न किए हुए जीवों को चट कर गए।

पुजारियों ने अनेक आक्रमण पिनाक के साथियों पर किए लेकिन उन्होंने सभी हमलों को निष्फल कर दिया।

जब पुजारियों के समस्त हमलें नाकाम हो गए तो उन्होंने एक अलग माया का सृजन किया जिससे उनके शरीर से उनके ही प्रतिरूप निकलने लगे और उनकी संख्या लाखों में पहुंच गई।

लोटन नाथ और महाभैरवी मंगला ने भी अपने लाखों प्रतिरूप उत्पन्न किए जो शैतान के पुजारियों का बेदर्दी से संहार करने लगे और पुजारियों के समस्त प्रतिरूपों को समाप्त कर वापिस उनके शरीर में समा गए।

अब लोटन नाथ के हाथों में महादेव का त्रिशूल प्रगट हुआ, जिसको उसने शैतान के पुजारियों के ऊपर छोड़ दिया।

वह त्रिशूल शैतान के सभी दस पुजारियों वध करते हुए वायु में विलीन हो गया।

पिनाक जब राजकुमार शक्ति देव के समीप पहुंचे तो पिनाक को अपने सम्मुख देखकर राजकुमार अत्यंत क्रोधित हो उठा।

उसने कहा, पहले तो यह नीच भैरवानंद तुम्हें बचाकर ले गया था, किंतु अब तुम स्वयं ही मृत्यु के द्वार पर चले आए हो।"

"मृत्यु का देवता यमराज भी अब मेरे हाथों तुम्हारे जीवन को नहीं बचा सकता।"

यह कहकर राजकुमार ने अपने हाथ में पकड़े हुए खड्ग को पिनाक के ऊपर दे मारा, किंतु पिनाक ने बड़ी आसानी उसके वार को अपने एक हाथ में पकड़ी हुई तलवार पर रोक लिया तथा दूसरे हाथ में मौजूद सर्पदंश को राजकुमार के ऊपर छोड़ दिया। सर्पदंश का वार राजकुमार के गले पर हुआ लेकिन उसका उसका कुछ अहित नहीं हुआ।राजकुमार और पिनाक युद्ध के किसी परिणाम की अपेक्षा से भांति-भांति के आयुधों द्वारा एक-दूसरे पर आक्रमण करने लगे लेकिन कुछ प्राप्ति नहीं हुई।

वैसे दोनों ही योद्धा जानते थे कि वे प्रतिद्वंदी का वध नहीं कर सकते फिर भी वे जी-जान से युद्ध करने में सलंग्न थे।

सहसा राजकुमार ने पिनाक को चमकीली किरणों से बुने एक जाल में फांस लिया लेकिन पिनाक के हाथ एक विशेष प्रकार का चाकू प्रगट हुआ जिसके द्वारा उन्होंने उस जाल को आसानी से काट डाला।

पिनाक ने राजकुमार के ऊपर सहस्त्रों नुकीले अस्त्रों का प्रहार एक साथ किया लेकिन सभी अस्त्र राजकुमार से टकराकर भूमि पर गिर पड़े।

घात-प्रतिघात के दौर चलने लगे, कोई भी योद्धा एक-दूसरे से उन्नीस नहीं था।

दोनों के मध्य ऐसा घनघोर युद्ध हुआ जिसकी मिसाल वही युद्ध हो सकता था।

नजर नहीं आने वाली आकाशचारी योनियों के प्राणी भी आकाश में ठहरकर उस युद्ध को देखने लगे।

युद्ध के दौरान एक उचित अवसर देखकर पिनाक ने रंग-बिरंगे प्रकाश के कणों की एक बौछार राजकुमार शक्ति देव की भृकुटी पर की।

यह रंग-बिरंगे प्रकाश के कण राजकुमार के मस्तिष्क में जाकर पैवस्त हो गए जिसके कारण वह बेहोश होकर गिर पड़ा।

पिनाक जानते थे कि होश में आने पर राजकुमार अपनी शक्तियों के बारे भूल चुका होगा।

उसे केवल इतना याद रहेगा कि वह विजयगढ़ का राजकुमार शक्ति देव है।

यहां तक कि वह अपने भ्रष्ट चरित्र के बारे में भी भूल चुका होगा।

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राजकुमार शक्ति देव के बेहोश होते ही शैतान वहां से पलायन कर चुका था।

पिनाक के सभी साथियों ने आपस में गले मिलकर एक-दूसरे को विजय की शुभकामनाएं दी।

मोना को शैतान के महल से सुरक्षित खोज निकाला गया।

पिनाक अपने साथियों सहित महल के सामने खड़े हो गए।

उन्होंने कोई मंत्र पढ़कर अपना एक हाथ शैतान के महल की ओर कर दिया। जिससे महल कण-कण होकर वायु में विलीन हो गया और कुछ ही क्षणों के पश्चात उस स्थान पर एक खाली मैदान था जिसमें शैतान के अनुयायियों के शव बिखरे हुए थे।

पिनाक ने उस मैदान में एक स्थान को चिन्हित कर, वहां पर एक वातायन उत्पन्न किया तथा उसमें पवित्र अग्नि प्रगट की।

उनके एक संकेत पर वहां पड़े समस्त शव उड़-उड़कर उस पवित्र अग्नि में गिरने लगे।

इस प्रकार शैतान के अनुचर जो मृत्यु के पश्चात प्रेत-योनि में चले गए थे उनका भी खात्मा होने लगा। यहां तक उस महल के आस-पास रहने वाले अन्य प्रेत भी उस पवित्र अग्नि में जलकर मुक्ति को प्राप्त हो गए।

अब पिनाक ने उस स्थान के समीप पर्वत की ओर इशारा किया। जिससे पानी की एक धार वहां से निकलकर उस खड्डे में गिरने लगी। कुछ ही समय में उस खड्डे में जलती हुई अग्नि शांत हो गई तथा वह स्वच्छ पानी से किनारे तक लबालब भर गया जिसमें से भाप उठ रही थी।

-----

पिनाक इस अभियान में शामिल अपने समस्त साथियों सहित उनके आश्रम में उपस्थित थे। उन्होंने सभी का बुराई के अंत में सहयोग करने के लिए धन्यवाद दिया।

उन्होंने राजकुमार शक्ति देव को तांत्रिक भैरवानंद के हवाले कर दिया ताकि वह उसे उसके पिता तक पहुँचा सके।
फिर पिनाक ने लोटन नाथ, स्वामी भैरवानंद और महाभैरवी मंगला के चरणों में प्रणाम करके कहा, "आप की कृपा से समस्त कार्य कुशलता से संपन्न हो गया।"

इसके उत्तर में उन महान हस्तियों ने पिनाक से कहा, "पुत्र, तुम्हे वरदान स्वरूप हजारों वर्ष लंबा जीवन और अक्षय यौवन की प्राप्ति हुई है।"

"इतने लंबे जीवन में तुम्हें न जाने कितने शक्ति देव मिलेंगे तथा तुम्हे उनसे मुकाबला करना होगा।"

"इसके अतिरिक्त तुम्हे ऐसी सिद्धियां प्राप्त हुई है जो किसी भी मानव के लिए दुर्लभ है।"

"इन सिद्धियों का प्रयोग तुम जनकल्याण के लिए करना।"

"इन बातों का मुझे सदैव ध्यान रहेगा, आप मुझे आशीर्वाद दीजिए ताकि मैं कभी भी अपने मार्ग से विचलित नहीं होऊं", पिनाक ने कहा।

लोटन नाथ, तांत्रिक भैरवानंद और महाभैरवी मंगला ने पिनाक को आशीर्वाद देकर समवेत स्वर में कहा-

"तथास्तु।"

समाप्त

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पल भर में दोनों महाश्मशान में मंगला के सामने बेहोशी की अवस्था में पड़े हुए थे। कमारु मंगला की इजाजत से वहां से गायब हो चुका था।

मंगला के दाएं हाथ की तर्जनी उंगली से एक हरी किरण निकली तथा विशाखा गिरी और धनराज के बेहोश जिस्मों पर पड़ने लगी। उन किरणों के प्रभाव से दोनों होश में आकर बैठ गए।

मंगला की आंखे क्रोध से जैसे अंगारे उगल रही थी। उसने जोर से एक पदाघात धनराज के वक्ष पर किया। उस एकमात्र प्रहार से ही धनराज की आत्मा उसके निकृष्ट शरीर से निकलकर नरक के लिए कूंच कर गयी।

विशाखा गिरी धनराज की मौत को देखकर अत्यंत भयभीत हो गया।

वैसे तो वह अनेक सिद्धियों का स्वामी था और एक अदृश्य सुरक्षा कवच २४ घंटे उसके शरीर की रक्षा करता था। उस सुरक्षा कवच को भेद कर कोई भी शक्ति उसको इस तरह उठा कर ले जा सकती थी, विशाखा गिरी यह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। इसीलिए शक्तिशाली होते हुए भी वह भयभीत हो उठा था।

धनराज को मृत्यु के घाट उतारने के बाद मंगला ने विशाखा गिरी को संबोधित करके कहा, "तुम्हारी मौत इतनी आसान नहीं होगी दुष्ट, तुम्हें ऐसी सजा प्राप्त होगी जिससे तुम जीवनपर्यंत नरक की अग्नि में जलोगे।"

"तुम स्वयं को बहुत शक्तिशाली समझते हो, अगर साहस हो तो उठकर मुकाबला करो।"

विशाखा गिरी भयभीत तो बहुत था, फिर भी उसने साहस जुटाकर मुकाबले का प्रयत्न किया, लेकिन उसकी समस्त शक्तियां मंगला के सामने कुंद हो चुकी थी।

अब महाभैरवी मंगला ने चिता से अंगारों की एक मुट्ठी भरकर उठाई तथा उनको विशाखा गिरी के ऊपर फेंक दिया।

अंगारों के पड़ते ही विशाखा गिरी के शरीर पर अनेकों जख्म हो गए। कुछ जख्म तो इतने गहरे थे कि उनमें से हड्डियां भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी।

वह पीड़ा से आर्तनाद करते हुए अपने गुरु अशोक गिरी को पुकारने लगा।

अशोक गिरी अपने शिष्य विशाखा गिरी से बहुत स्नेह करते थे लेकिन उसके दुष्कर्मों को देखकर उन्होंने उससे दूरी बना ली थी।फिर भी वह अपने शिष्य की पीड़ा भरी पुकार को नजरंदाज नहीं कर सके तथा पुकारते ही उसके सामने उपस्थित हो गए।

उन्होंने महाभैरवी मंगला को प्रणाम किया तथा अपने शिष्य को क्षमा करने का आग्रह करते हुए कहा, "माते, आप तो साक्षात जगदम्बा है, मैं जानता हूं कि इसके अपराध क्षमा के योग्य नहीं है, लेकिन एक माता अपने पुत्र के सहस्त्रों अपराध क्षमा करती है, इसको भी आप क्षमा कर अनुग्रहित करे।

महाभैरवी मंगला अशोक गिरी के शिष्य के प्रति अनुग्रह से द्रवित हो गई तथा कहा, "तुम्हारे अपने शिष्य के प्रति स्नेह को देखकर मैं प्रसन्न हुई अशोक गिरी, इसीलिए इसके अपराधों को क्षमा कर इसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करती हूं, वरना यह जीवन भर नरक की अग्नि में जलता रहता।"इसको मानव कल्याण के मार्ग पर चलने का एक अवसर और देती हूं इसीलिए इसकी सिद्धियां जो मैंने इससे छीन ली थी, उन्हें लौटा रही हूं।"

"लेकिन इसको कानून के समक्ष अपने अपराधों को स्वीकार करना होगा तथा जो भी सजा इसे प्राप्त हो उसे भोगना होगा"

फिर मंगला ने अशोक गिरी को एकांत में लेे जाकर कहा, "तुमने इसे बचा तो लिया लेकिन भविष्य में मानवता विरोधी कृत्य में यह एक दुष्ट का साथ देगा तब अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होगा।"

यह भविष्यवाणी सुनकर अशोक गिरी को दुख तो बहुत हुआ लेकिन वह कर भी क्या सकता था सिवाय दुखी होने के।

उसने भावी को अटल समझ इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और महाभैरवी मंगला को प्रणाम कर वहां से प्रस्थान कर गया।

----

हिमालय पर्वत की किसी गुप्त कंदरा में एक अत्यंत वृद्ध और कृशकाय तपस्वी सैकड़ों वर्षो से केवल वायु का सेवन करते हुए तपस्या में लीन थे।

उनके शरीर के समस्त बाल सफेद हो चुके थे तथा सिर पर जटाओं का जंगल उगा हुआ था।

वे थे महान तपस्वी लोटन नाथ। निरंतर आत्म साधना में लीन।

सैकड़ों साल से वे महादेव की प्रेरणा से हिमालय की गुप्त कंदरा में तपस्या कर रहे थे और मोक्ष प्राप्ति का इंतजार कर रहे थे।

अनायास ही उनके हृदय में स्थापित महादेव की छवि गायब हो गई और उन्होंने विकल होकर अपनी आंखें खोल दी।

लोटन नाथ ने आंखे खोलकर देखा तो साक्षात महादेव उनके सम्मुख खड़े मुस्करा रहे थे।

लोटन नाथ भावावेशित होकर महादेव के चरणों में गिर पड़े और भांति-भांति के शब्दों द्वारा उनका गुणगान करने लगे।

उन्होंने कहा, "आपके दर्शन कर मैं कृत-कृत हुआ भगवन्, मैं जानता हूं कि आप मुझे अपने धाम कैलाश पर्वत पर ले जाने के लिए आये हो।"

"वह तो अवश्य लेकर जाऊंगा, लेकिन समय आने पर।"

"अब तुम्हें एक कार्य करना होगा।"शैतान अब अपने पैर पसार रहा है, वह अपने दस प्रमुख पुजारियों और अन्य मानवता विरोधी शक्तियों को इकठ्ठा कर अच्छाई को समाप्त कर बुराई का साम्राज्य स्थापित करना चाहता है।"

"लेकिन भगवन् शैतान का तो कोई अस्तित्व ही नहीं था, मानव के अंदर छिपी हुई बुराइयों को ही शैतान का प्रतीक माना जाता था।"

"किंतु अब उसका अस्तित्व है, इस युग में मानव के अंदर इतनी ज्यादा बुराइयों ने घर कर लिया कि उसका अस्तित्व साकार हो उठा।"

"अब मानवता का हित करने वाली शक्तियों को एकजुट होकर उसका मुकाबला करना होगा।"

"देवताओं ने उसको समाप्त करना चाहा, तो उसने कहा वह स्वयं युद्ध में भाग नहीं लेगा तथा इसके बदले में देवता भी किसी युद्ध में सीधे भाग नहीं ले सकेंगे।"

"शैतान ने भगवती दक्षिण काली का तेज धारण करने वाले राजकुमार शक्ति देव को अपना प्रमुख मोहरा बनाया है।"

"तुम्हे यह युद्ध मेरे और भगवती के संयुक्त तेज को धारण करने वाले पिनाक के नेतृत्व में लड़ना होगा।"

इसके अतरिक्त महादेव ने लोटन नाथ को कुछ अन्य जानकारियां दी और वहां से प्रस्थान कर गए।

महादेव के प्रस्थान करने के बाद लोटन नाथ अपने स्थान पर खड़े हो गए और जोर से कुंभक क्रिया की।

देखते-देखते उनके शरीर की कांति बढ़ने लगी, शरीर पर मौजूद समस्त बाल काले हो गए, सभी झुर्रियां समाप्त हो गई तथा चेहरे पर यौवन का तेज चमकने लगा।

कुछ ही क्षणों उपरांत उस स्थान पर उन वृद्ध तपस्वी की जगह एक युवा खड़ा था, जिसके समस्त अंग दृढ़ थे और चेहरे पर अभूतपूर्व कांति थी।

उसके सिर की उलझी हुए जटाओं के स्थान पर शानदार तरीके से कंघी किए हुए बाल थे, चेहरा दाढ़ी-मूंछ के झाड़-झंझाड़ से पूर्णतया मुक्त था, शरीर के अनावश्यक बाल बिल्कुल साफ थे तथा शरीर पर आधुनिक युग के वस्त्र थे।

उन्होने अपने सामने की ओर देखा जैसे दर्पण में मुख देख रहे हो तथा संतुष्टि से अपना सिर हिलाया।
शैतान इस समय पिशाचों की घाटी में राजकुमार शक्ति देव के समक्ष उपस्थित था। उसने राजकुमार को अपने बारे में बताकर, उससे कहा,

"पिनाक ने तुम्हारे ऊपर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली है।"

"लेकिन पिनाक का तो मैं वध कर चुका हूं।"

"वह मरा नहीं, उसको भैरवानंद ने बचा लिया।"

"किंतु मुझे उसका क्या डर, वह आक्रमण करेगा तो अब की बार उसे मैं अवश्य ही मौत के घाट उतार दूंगा।"

"अब वह पहले वाला पिनाक नहीं रहा, महाकाल और दक्षिण काली का संयुक्त वरदान प्राप्त कर वह अजेय हो चुका है।"

"लेकिन न ही वह मेरा वध कर सकता है और न ही मुझे पराजित कर सकता है।"

"बात को समझो राजकुमार, उसको प्राप्त वरदान के अनुसार वह तुम्हारी शक्तियों को सुप्तावस्था में पहुंचा सकता है। इससे तुम एक साधारण मानव बन कर रह जाओगे।"

"फिर क्या किया जाए?", राजकुमार ने थोड़ा चिंतित होकर पूछा।

"मैं तुम्हे बताता हूं, यह पिशाचों की घाटी मेरे ही इलाके कि सीमांत चौकी है तथा इस घाटी के बाद मेरा राज्य शुरू हो जाता है।"मैंने ही पिशाचों को अपने इलाके की सीमा की रक्षा के लिये यहां पर स्थापित कर रखा था, कोई भी दुश्मन बिना इनसे उलझे वहां घुसपैठ नहीं कर सकता था।"

"मैं तुम्हे अपने महल में लेजाने आया हूं।"

"वहां तक जाने का मार्ग बहुत ही भयानक और दुर्गम है। मार्ग में अनेकों भौगोलिक और मायावी खतरे मौजूद है, जिनको पारकर वहां तक पहुंचना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है।"

"आकाश मार्ग को भी पूरी तरह सुरक्षित किया गया है जिससे आसमान से भी वहां घुसपैठ असम्भव है।"

"इसके अतिरिक्त मेरी देवताओं के साथ एक संधि हुई है जिसके अनुसार कोई भी प्राणी इस इलाके में अपनी स्वभाविक गति का ही उपयोग कर सकता है।"

सम्पूर्ण बातों का निष्कर्ष यह निकला कि राजकुमार शैतान के महल में पहुंच गया।
 
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विशाखा गिरी ने कानून के समक्ष आत्मसमर्पण कर अपने अपराधों को स्वीकार कर लिया था और इस समय वह जेल में बंद था।

रात का समय था, विशाखा गिरी को नींद नहीं आ रही थी। दरअसल वह मुलायम बिस्तरों पर सोने का आदि हो चुका था, इसीलिए जेल के फर्श पर उसे नींद कहां आनी थी।

वह पड़ा-पड़ा अपनी विगत जिंदगी के बारे में सोच रहा था कि शैतान के पुजारी सैरात का आगमन हुआ। वह उसके पास शैतान का संदेश लेकर आया था।

उसने विशाखा गिरी को जेल से भागकर शैतान की पनाह में जाने का प्रस्ताव रखा।

लेकिन विशाखा गिरी महाभैरवी मंगला से बहुत भयभीत था, उसने शैतान के प्रस्ताव से इंकार करके कहा,

"क्या तुम समझते हो कि ये जेल की दीवारें मुझे कैद करके रख सकती है?"

"मैं कभी भी आजाद पंछी कि भांति यहां से उड़ सकता हूं, लेकिन मंगला का क्या करूं, वह मुझे पाताल से भी खोज निकालेगी तथा एकबार उसके हाथों में पड़ने का अर्थ है, नरक की आग में जलना।"

लेकिन शैतान ने सैरात को इसलिए तो विशाखा गिरी के पास नहीं भेजा था कि वह उसका इंकार सुनकर वापिस चला आए।

उसने भांति-भांति के तर्कों द्वारा विशाखा गिरी को कायल कर दिया, जिससे वह वहां से भागने पर सहमत हो गया।

कुछ ही समय उपरांत वे दोनों शैतान के महल में उपस्थित थे। स्वयं शैतान ने राजकुमार शक्ति देव सहित उसका स्वागत किया और अपनी लच्छेदार बातों द्वारा उसका भय पूरी तरह से दूर कर दिया।

शैतान राजकुमार तथा विशाखा गिरी जैसे दुष्ट मनुष्यों को इसलिए अपने महल में इकट्ठा नहीं कर रहा था कि वह उनको सुरक्षित करना चाहता था, वरन् वह तो यह कार्य इस हेतु करना चाहता था कि किसी तरह से पिनाक को समाप्त किया जा सके।

जब उसे पता चला कि पिनाक ने भगवान महाकाल और भगवती दक्षिण काली के संयुक्त वरदान को प्राप्त कर लिया तो वह समझ गया कि उस मानव हित अभिलाषी व्यक्ति का किसी न किसी प्रकार से विनाश करना ही होगा, वरना वह उस जैसे प्राणियों की नाक में दम करता रहेगा।
इससे पहले उसे राजकुमार के बारे में भी मालूम हो चुका था, लेकिन वह यह सोचकर प्रसन्न था कि दैवीय शक्ति एक दुष्ट व्यक्ति को प्राप्त हुई है, जिससे मानवता का अहित ही होगा।

पिनाक का तोड़ उसे राजकुमार शक्ति देव में नजर आया।

इसीलिए उसने राजकुमार को अपने महल में पहुंचा दिया ताकि पिनाक उसे खोजता हुआ वहां पहुंचे तथा राजकुमार शक्ति देव से उसका टकराव करवाया जा सके।

इस टकराव के लिए उसने अपनी रणनीति तय कर ली थी। राजकुमार के चारों तरफ उसने एक सुरक्षा व्यूह बना दिया था जिसमें उसके दसो पुजारी व विशाखा गिरी जैसे सैकड़ों समाज के दुश्मन थे।

----

पिनाक आश्रम के अपने कक्ष में उपस्थित थे।

वे ध्यान लगाकर यह देखने का प्रयत्न कर रहे थे कि राजकुमार शक्ति देव इस समय कहां था। तभी उनके कक्ष में लोटन नाथ प्रगट हुए।

हालांकि लोटन नाथ एक आधुनिक नौजवान कि भांति लग रहे थे परन्तु पिनाक की तीक्ष्ण नजरों ने उनकी वास्तविकता को तुरंत पहचान लिया और अपने स्थान से उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया।

"तुम्हारी जय हो वत्स।"

पिनाक ने लोटन नाथ को अपने आसन पर बैठाया और स्वयं नीचे उनके चरणों के समीप बैठ गए और आग्रहपूर्वक उनसे पूछा, "क्या आज्ञा है प्रभु?"

पिनाक जानते थे कि लोटन नाथ जैसे महात्मा का आगमन निरुद्देश्य नहीं हो सकता, इसीलिए उन्होंने उनके सामने यह प्रश्न प्रस्तुत किया।

"आज्ञा नहीं, महादेव का संदेश लेकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हुआ हूं।"

"कुछ समय उपरांत महाभैरवी मंगला और भैरवानंद का आगमन होने वाला है, उनकी उपस्थिति में तुम्हे महादेव के संदेश से अवगत करवाऊंगा।"

जैसा लोटन नाथ ने कहा था, दोनों महान विभूतियां उसी अनुसार कुछ ही समय में वहां उपस्थित हो गई।

लोटन नाथ ने तीनों को महादेव के संदेश का वर्णन किया।

उन्होंने कहा, "राजकुमार शक्ति देव इस समय शैतान के संरक्षण में उसके महल में उपस्थित है।"इसके उपरांत उन्होंने शैतान तक पहुंचने के मार्ग व इसमें मौजूद बाधाओं तथा खतरों के बारे में बताया।

उन्होंने यह भी बताया कि देवताओं की शैतान से हुई संधि के अनुसार वे केवल पिशाचों की घाटी तक अपने योगबल से पहुंच सकते है तथा शक्ति देव तक पहुंचने के लिए आगे का रास्ता उन्हें मानवीय प्रयासों द्वारा तय करना होगा।

उन तीनों के समक्ष उन्होंने शैतान की युद्धनीति का भी वर्णन किया और यह भी बताया कि यह युद्ध पिनाक के नेतृत्व में लड़ा जाएगा।

हालांकि पिनाक आश्रम में अपनी स्थायी उपस्थिति के कारण ब्लैक हॉक संस्था से त्याग पत्र दे चुके थे, परंतु वह इस संस्था की क्षमताओं को भली-भांति जानते थे इसीलिए उन्होंने इस संस्था को भी इस मामले में शामिल करने का आग्रह किया।

उन तीनों की स्वीकृति प्राप्त होने के बाद पिनाक ने अजय गुप्ता से संपर्क कर उसे सम्पूर्ण परिस्थितियों से अवगत करवाया।

----

नई दिल्ली स्थित ब्लैक हॉक संस्था के एक विशेष कक्ष में इस समय इस संस्था के प्रमुख अजय गुप्ता, पिनाक, लोटन नाथ, महाभैरवी मंगला, तांत्रिक भैरवानंद, श्रीपत (जिसने शैतान के पुजारी सैरात से मुकाबला किया था), तांत्रिक जटा नंद (जिसने सैरात के साथ युद्ध में श्रीपत का साथ दिया था, उसे श्रीपत के आग्रह पर बुलाया गया था) व देवदत्त शास्त्री, ब्लैक हॉक संगठन के आयुधों की निर्माण शाखा के प्रमुख उपस्थित थे।

इसी कक्ष में बैठकर युद्ध की समस्त रणनीति तय की गई।

इसी रणनीति के तहत पिशाचों की घाटी में इस समय अजय गुप्ता व देवदत्त शास्त्री के अतिरिक्त सभी व्यक्ति उपस्थित थे जिन्होने ब्लैक हॉक संस्था के मुख्यालय में हुई बैठक में भाग लिया थाउन्होंने इस अभियान के लिए सेना की कोई सहायता नहीं ली। पिशाचों की घाटी से आगे तिब्बत का क्षेत्र था, जिस पर चीन का आधिपत्य था।

वैसे तो शैतान के कहे अनुसार वह अत्यंत दुर्गम क्षेत्र था और वहां चीनी सेनाओं की उपस्थिति संभव नहीं थी, फिर भी उन्होंने इस अंदेशे के तहत अपना रूप बदल कर तिब्बतन लामाओं का वेश धारण कर लिया था, जिससे अगर वहां चीनी सेना की कोई टुकड़ी हो तो उनकी उपस्थिति को न्यायसंगत ठहराया जा सके।

वैसे भी उस टीम में जटा नंद और श्रीपत को छोड़कर ऐसे महान व्यक्ति थे, जिनको न तो किसी हथियार की जरूरत थी और न ही चीन या किसी अन्य देश की सेना से कोई डर हो सकता था, लेकिन व्यर्थ की उलझनों से बचने के लिये उन्होंने अपना वेश तिब्बतन लमाओं का बना लिया था।

छह: व्यक्तियों की यह टीम तिब्बत में इस्तेमाल होने वाले घोड़ों पर सवार होकर पिशाचों की घाटी से निकलकर शैतान के क्षेत्र में प्रवेश कर गई।
 
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लोटन नाथ ने अपने योगबल से श्रीपत और जटा नंद को ऐसी शक्तियां उपलब्ध करवा दी जिनका वे दोनों किसी भी संकट के समय उपयोग कर सकते थे।

चलते-चलते दो दिन बीत चुके थे किन्तु कोई उल्लेखनीय घटनाक्रम घटित नहीं हुआ।

वे दिन में यात्रा करते थे व रात्रि को विश्राम करते थे। सोने के व्यवस्था इस प्रकार थी- जटा नंद और श्रीपत को बीच में सुलाया जाता था तथा वे चारों उन दोनों के इर्द-गिर्द सोते थे।

विश्राम करते समय एक सुरक्षा घेरा उन्हें घेरे रहता था जिससे कोई अपार्थिव सत्ता उस घेरे को पार कर उनको हानि नहीं पहुंचा सकती थी। इसीलिए सभी बेखौफ होकर सोते थे।

उस रात्रि को भी वे ऐसे ही सोए हुए थे। अंधेरी रात में छोटे-छोटे काले रंग के कुछ जीव पहाड़ी चट्टानों से नीचे की ओर फिसले।

इन जीवों का रूप अत्यंत घिनौना था, उनके छोटे छोटे पांव भी थे लेकिन वे पैरों के सहारे नहीं बल्कि फिसल कर आगे बढ़ते थे।

उन्होंने आगे बढकर निद्रा में मग्न पिनाक और उसके दल को चारों ओर से घेर लिया तथा उनको सूंघने लगे।

न जाने उन्होंने क्या सुगंध अनुभव की, वे मस्त होकर उछल-कूद करने लगे जैसे नाच रहे हो, फिर एकाएक कुछ सजग होकर चट्टानों की तरफ संकेत करने लगे।

उस संकेत को प्राप्त करते ही, प्रत्येक दिशा से लाखों-करोड़ों वैसे ही घिनौने जीव प्रगट होने लगे। कोई चट्टान से फिसल रहा था, कोई किसी कंदरा से निकल रहा था तथा कोई किसी छेद से नुमाया हो रहा था।

सभी जीव उन सोते हुए मनुष्यों पर आक्रमण करना चाहते थे इसीलिए उनमें आगे बढ़ने की होड़ लग गई, लेकिन उस बढ़त में भी इतना अनुशासन था कि जरा सी भी आहट पैदा नहीं हो रही थी।

उन जीवों ने अपनी-अपनी जिव्हा मुंह से बाहर निकाल रखी थी, जोकि उनके छोटे शरीर के अनुपात में बहुत ज्यादा लंबी थी।

उनके अगाऊ दस्ते ने जो सबसे पहले वहां पहुंचा था, उन छ: मनुष्यों को अपनी जीभ से उनके वस्त्रों के उपर से ही चाटना शुरू कर दिया।

उनके मुख से कोई मादक पदार्थ विसर्जित हो रहा था, जिसके कारण पिनाक व उसके दल के सदस्य मदहोश हो गए तथा उनको पता भी नहीं चला कि उनके साथ क्या हो रहा था।

उसके उपरांत तो वे करोड़ों जीव उनके उपर छा गए तथा उन्हें चाटने लगे।

कुछ ही क्षणों के बाद उनके वस्त्र चीर-चीर हो चुके थे।

वस्त्रों के बाद उनके शरीर की बारी थी, उन जीवों के चाटने से उन्हें कोई दर्द नहीं हो रहा था, बल्कि वे तो सुंदर स्वप्नों में खो गए थे।

पिनाक भी स्वप्नों की दुनिया में खोया हुआ था, स्वप्न में वह महसूस कर रहा था कि आंनद का दरिया उसके चारों तरफ बह रहा है तथा वह उसमे डुबकी लगा रहा है, तभी उसे उसके गुरु अवधेशानंद समीप खड़े दिखाई देते है।

वे जोर-जोर से उसे झिंझोड़ कर जैसे जागृत करने का प्रयास कर रहे थे।

पिनाक को लगा जैसे वह कह रहे हो, "जागो बेटे जागो, जो आनंद तुम महसूस कर रहे हो वह मिथ्या है, तुम्हारे साथियों की जान खतरे में है, उन्हें केवल तुम्हीं बचा सकते हो।
।गुरु के शब्दों ने पिनाक की चेतना जागृत करदी। उनकी आंखे खुल गई और वे मदहोशी की अवस्था से बाहर आ गए।
जब वे होश में आए तब उन्होने महसूस किया कि उनके शरीर को लाखों जीव चाट रहे थे।

उन्होंने हाथ उठाकर उन्हें भगाना चाहा तो वे हाथों को हिला भी नहीं पाए जैसे उन्होंने हिलने से इंकार कर दिया हो।

तभी पिनाक को अपने साथियों का ध्यान आया, वे उनकी स्थिति के बारे में सोचकर क्रोधित हो उठे और एक जोर की हुंकार भरी।

उनके हुंकारने मात्र से वे समस्त जीव उड़कर दूर जा गिरे। पिनाक की हुंकार ने उनके साथियों को भी सपनों की दुनिया से बाहर निकाल दिया और वे सजग हो गए।

एक बार तो वे जीव उनके जिस्म से हट कर दूर जा गिरे, लेकिन तुरंत ही दोबारा आक्रमण करने के लिए लौटने लगे।

पिनाक ने सम्पूर्ण परिस्थिति को तुरंत भाप कर अपने दोनों हाथों को आगे की तरफ बढ़ा दिया।

उनके हाथों से लाखों के संख्या में छिपकली जैसे जीव निकलने लगे और इन जीवों ने पहले वाले समस्त जीवों का उस तरह भक्षण कर लिया जिस तरह दावनाल लकड़ी का भक्षण करता है।

इस विपत्ति से निबटने के बाद पिनाक ने अपने साथियों की ओर ध्यान दिया। सभी घायलावस्था में थे, लेकिन जटा नंद और श्रीपत की स्थिति चिंताजनक थी।

पिनाक ने फिर अपने हाथ आगे की ओर बढ़ा दिए, उनके हाथों से इस बार सफेद रंग की, चंद्रमा की किरणों के समान शीतल, किरण निकलकर उनके साथियों के उपर पड़ने लगी।

उन किरणों के प्रभाव से वे पहले से भी ज्यादा स्वस्थ हो गए और अपने अंदर एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह महसूस करने लगे।

इस घटना या दुर्घटना ने उस दल को अपनी शयन संबंधी नीति पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया।

सभी से विचार-विमर्श करने के बाद लोटन नाथ ने अपने गले में पड़ी हुई रुद्राक्ष की माला से एक मनका तोड़कर पृथ्वी पर फेंक दिया।

पृथ्वी पर गिरते ही उस मनके के दो टुकड़े हो गए और उसमे से एक विशाल मानव आकृति उत्पन्न हुई, जिसका चेहरा अति सुंदर था तथा सभी अंग सुडौल थे।

उत्पन्न होते ही उस मानव ने भूमि पर गिरकर लोटन नाथ को प्रणाम कर कहा, "क्या आज्ञा है देव?"

"सोम, मैं और मेरे साथी शैतान के महल में उसके साथियों से युद्ध करने जा रहे है, तुम्हें इस दौरान हर-पल मेरे और मेरे साथियों की सुरक्षा में नियुक्त रहना होगा।"

"जो आज्ञा देव", सोम यह कहकर अन्तर्ध्यान हो गया।

इस घटना से अगले दिन उन्होंने तीन घंटे का ही सफर तय किया था कि एक यति ने उनका मार्ग रोक लिया।

वह कम से कम ३० फीट लंबा था तथा उसके विशालकाय हाथों की हथेलियां बड़े-बड़े बेलचों के समान दिखाई देती थी।

"मानव, कौन हों तुम, और इस अगम्य क्षेत्र में क्यों विचरण कर रहे हो?"

"यति सवाल करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया?" पिनाक ने पूछा।

"अधिकार तो शक्ति द्वारा उत्पन्न होते है, मानव।"

"तुम्हें हमारी शक्ति के बारे में क्या मालूम?"

"तुम तुच्छ मानव, अगर कुछ शक्ति रखते भी हो तो वह मेरे सामने व्यर्थ है।"

"अब अगर तुमने इस रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयत्न किया तो तुम सबको मृत्यु की गहरी नींद में सोना पड़ेगा।"यति एक जड़ बुद्धि प्राणी था, उसने यह सोचे-समझे बगैर कि जो मनुष्य इतने दुर्गम क्षेत्र को पार कर यहां तक आ सकते है, अवश्य ही कोई न कोई शक्ति रखते होंगे, उनसे उलझने लगा।

यति ने एक विशालाकाय शिला उठाकर उनके उपर फेंक दी।

पिनाक ने पहले ही उन सभी की सुरक्षा का प्रबंध कर लिया था, इसीलिए वह शिला उनके छूने से पहले ही टूट कर चूर-चूर हो गई।

यति यह देखकर बहुत आश्चर्यचकित हुआ, और उन्हें पकड़ने के लिए अपनी हथेली उनकी ओर बढ़ाई लेकिन उनको छूने से पहले ही उसको एक जबरदस्त झटका लगा और वह दूर जा गिरा।

पिनाक चाहते तो यति को पल भर में समाप्त कर सकते थे लेकिन उस दुर्लभ नस्ल के प्राणी को वे व्यर्थ ही नहीं मारना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने उस पर कोई आक्रमण नहीं किया केवल अपनी सुरक्षा की व्यवस्था में ही लगे रहे।

परंतु मूर्ख यति उन पर बार-बार आक्रमण करने लगा, जिससे तंग आकर पिनाक ने उसको बंदी बनाकर एक ओर डाल दिया तथा अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए।

दरअसल वहां पर दस यति निवास करते थे तथा वे सभी परम बलशाली थे।

वे एक यतिंद्र नामक यति के नेतृत्व में वहां से गुजरने वाले प्रत्येक मनुष्य का वध कर डालते थे इसीलिए इस क्षेत्र को पार कर कोई भी मानव शैतान के महल तक नहीं पहुंच पाता था।

जब शैतान ने इस क्षेत्र को अपने निवास-स्थान के लिए चुना तो उसने वहां रहने वाले उन सभी प्राणियों का वध कर दिया था जो उसके उद्देश्य में बाधक हो सकते थे।

उसने यतियों पर भी आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया था, किंतु इस शर्त पर उनको छोड़ दिया था कि वे इस मार्ग से किसी भी मनुष्य को आगे नहीं जाने देंगे तथा उसका वध कर देंगे।

जब पिनाक और उसके दल के सदस्य यति को बांधकर आगे बढ़े तो यतिंद्र अपने साथियों सहित उनके सामने आ पहुंचा।

उसने पिनाक द्वारा उस यति को पराजित होता देख लिया था। वह उन यतियों में सबसे बुद्धिमान था, इससे उसने सहज ही अनुमान लगा लिया कि कोई विकट शक्ति उस क्षेत्र में घुस आई है।

वह इन मानवों के मार्ग में रुकावट नहीं बनना चाहता था लेकिन वह शैतान से डरता भी था, इसीलिए वह शैतान की शक्तियों को उन मानवों की शक्ति के साथ तुलना करना चाहता था ताकि भविष्य में वह शैतान के सामने किसी भी जवाबदेही से मुक्त हो सके।

वह यह भी सोच रहा था कि अगर ये मानव शैतान को इस क्षेत्र से भगा दे तो कितना अच्छा हो।

यह सब विचार करने के बाद उसने बहुत ही विनम्रतापूर्वक उनसे पूछा, "हे महाभाग, आप मुझ यतियों में प्रमुख यतिंद्र को अपना परिचय देकर कृतार्थ करे।"

"मेरे यति को पराजित करने वाले आप साधारण मनुष्य नहीं हो सकते।"

पिनाक ने यतिंद्र को अपना और अपने साथियों का परिचय दिया तथा उसे बताया कि वे शैतान के महल तक, उसके बुराई के साम्राज्य को समाप्त करने के लिए जा रहे थे।

"मैं आपकी महान शक्ति को अपने अंतर्मन की आंखों से स्पष्ट देख पा रहा हूं और आपकी राह में बाधा नहीं बनना चाहता।"किंतु शैतान ने हम यतियों को पराजित कर इस कार्य पर नियुक्त किया है कि इस राह से गुजरने वाले प्रत्येक मनुष्य को मौत के घाट उतार दे।"

"सो हे देव, आप हमें पराजित करके ही आगे बढ़ सकते हैं।"

सभी यति शारीरिक रूप से परम बलशाली थे, किंतु उनके पास कोई दैवीय शक्ति नहीं थी, इसीलिए दैवीय शक्तियों के धारक पिनाक और उसके साथियों ने कुछ ही समय में सभी यतियों को पराजित कर दिया।

इस पर यतिंद्र ने कहा, "हे महानुभावों, हम यति स्वेच्छा से शैतान की गुलामी नहीं कर रहे थे, अगर आप उसको इस क्षेत्र से पलायन पर विवश कर देंगे तो हमें अत्यंत प्रसन्नता होगी।"

"हम सब हृदय से कामना करते है कि आप सफल हो।"

यतिंद्र के यह कहने पर सभी यतियों ने पिनाक को प्रणाम किया तथा आगे बढ़ने के मार्ग को रिक्त कर दिया।

मार्ग की छोटी-छोटी बाधाओं का सामना करते हुए
वह दल वहां तक पहुंच गया जहां से शैतान का महल ज्यादा दूर नहीं था।

अचानक वह घटना घटित हो गई जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। जिस मार्ग पर वह चल रहे थे उसमें उनके चारों ओर लगभग ६ मीटर व्यास का एक वातायन खुल गया।

वह घटना इतनी अचानक घटित हुई कि उनको संभलने का कोई भी अवसर प्राप्त नहीं हुआ और सभी तीव्र गति से उस वातायन में गिरने लगे तथा अपने होश खो बैठे।

पिनाक को जब होश आया तो उन्होने स्वयं को एक भव्य कक्ष में एक पर्यंक पर पाया। कक्ष की सजावट पुरातन तरीके की थी तथा वह इतना ज्यादा विशाल था कि उसकी तुलना किसी खेल के मैदान से की जा सकती थी। उनके कानों में राग भैरव की मधुर ध्वनि मिठास घोल रही थी।पिनाक की आंखे खुलती देख, अनेकों नवयुवतियां उनकी ओर आदर के साथ बढ़ी।

सभी नवयुवतियां गौर वर्ण की थी। उनका कद लंबा और वक्ष स्थल उन्नत था।

सभी ने सिर झुकाकर पिनाक को प्रणाम किया और उनको उठने में सहायता करने लगी।

पिनाक को अपने साथ घटित हुआ घटनाक्रम याद नहीं आ रहा था इसीलिए उन्होंने उन युवतियों से पूछा-

"मैं कहा हूं?"

"तुम सब कौन हो?"

पिनाक के प्रश्न सुनकर नवयुवतियों के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उजागर हुए, किंतु उन्होंने स्वयं को संभालते हुए मधुर स्वर में उत्तर दिया, "आप पाताल देश के महाराज सुकीर्ति सेन है, आप राजमहल के निजी कक्ष में है और हम आप की दासियां है।"

पिनाक को यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ परंतु उन्होंने अपने भाव चेहरे पर परिलक्षित नहीं होने दिए। वे केवल खामोशी से दासियों की ओर देखते रहे।

इससे दासियों को कुछ हिम्मत प्राप्त हुई तथा उन्होंने बहुत ही विनम्र व मीठे वचनों के साथ पिनाक से कहा, "आज्ञा हो तो महाराज, आपके नित्य-कर्म का प्रबंध किया जाए।"

यह सुनकर पिनाक ने मौन स्वीकृति दे दी।

कुछ ही समय बाद पिनाक स्नानागार में थे।

स्नान करवाने वाली दासियां भी अत्याधिक सुंदर थी। उन्होंने वस्त्र के नाम पर एक लघु केंचुकी ओर छोटा सा अधो-वस्त्र धारण किये हुए था। उनके कठोर कुच उनकी केंचुकियों से बाहर निकलने को बेताब हो रहे थे।

उन्होंने सुगन्धित जल से मल-मल कर पिनाक को स्नान करवाया। स्नान के दौरान उनकी क्रीड़ाओं तथा अठखेलियों से पिनाक के शरीर में खून जैसे खोलने लगा, लेकिन उन्होंने अपनी अभी तक की आयु में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था और अपने गुरु से संयम के महत्त्व का पाठ पढ़ा था इसीलिए उन्होंने चंद गहरी सांसे लेकर स्वयं को स्वस्थ कर लिया।स्नान के बाद अन्य दासियों ने पिनाक को वस्त्र धारण करवाए, उनके शरीर पर आभूषण सजाए, जो किसी महाराजा की शान के ही अनुरूप थे।

एक दासी ने पिनाक के मुख की ओर दर्पण किया तो वे कामदेव को भी लज्जित कर देने वाली अपनी छवि को देखकर स्वयं पर ही मोहित
हो गए।

पिनाक इस समय पाताल देश के राज सिंहासन पर विराजमान थे। उनके वामे राजमहिषी सुषमा देवी अपनी अभूतपूर्व शोभा के साथ उपस्थित थी।

इस समय तक पिनाक को अपनी वास्तविकता का भान हो चुका था, किंतु सम्पूर्ण षड़यंत्र को समझने के लिए वे खामोशी से अभिनय कर रहे थे।

पिनाक ने गहरी नजरों से राज दरबार की ओर देखा। उन्हें यह इंद्र के राज दरबार से प्रतिस्पर्धा करता हुआ महसूस हुआ। विशाल भवन, ऊंची अट्टालिकाएं, काले संगमरमर का फर्श, दीवारों पर अद्भुत चित्रकारी, राजदरबार को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थी।

महामंत्री चतुर सेन अपने भव्य व्यक्तित्व, तीक्ष्ण और गूढ़ दृष्टि; सुदृढ़ शरीर वाले महासेनापति कीर्ति सेन अन्य दरबारियों सहित राजदरबार की शोभा में वृद्धि कर रहे थे।

राजदरबार में नृत्य कर रही नृत्यकियों में कला और सुंदरता का अद्भुत संगम था।

महामंत्री चतुर सेन अपने स्थान से खड़े हुए और महाराज से राज दरबार की कार्यवाही आरंभ करने की आज्ञा चाही।

पिनाक ने हल्के से सिर को हिलाकर इजाजत दे दी।

महामंत्री ने महाराज को संबोधित करके कहा, "महाराज को ज्ञात होगा कि बहुत समय से पड़ोसी देश के गुप्तचर हमारे पाताल देश में सक्रिय है।"

"उनकी सक्रियता का पता चलने पर राजसभा में उन्हें पकड़ने का दायित्व हमारे गुप्तचर विभाग के प्रमुख नंदी कुमार को सौंपा गया था।"

"नंदी कुमार ने अपने दायित्व का बड़ी तेजी तथा कुशलता से निर्वाह किया और पड़ोसी देश के पांच गुप्तचरों को बंदी बनाने में सफल हो गए।"

"अगर महाराज आज्ञा प्रदान करें तो उन सभी को राजदरबार में प्रस्तुत किया जाए ताकि उनको पाताल देश के कानून के अनुसार मृत्यु-दंड की सजा दी जा सके।"

यह कहकर महामंत्री चतुर सेन अपने आसन पर विराजमान हो गए।

पिनाक को राजदरबार की किसी भी कार्यवाही में कोई रुचि नहीं थी, किंतु वास्तविक अभिनय करने और किन अभागों को गुप्तचर कहकर मृत्यु दंड दिया जा रहा है, यह देखने के लिए उन्होने उनको प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान कर दी।

पिनाक को यह देखकर आश्चर्य का जोरदार झटका लगा कि बंदी गुप्तचर ओर कोई नहीं वरन् उनके ही साथी थे।

पिनाक ने अत्यंत कठिनाई से अपने चेहरे पर आते हुए भावों को दबाया तथा उनका मस्तिष्क अपने साथियों को बचाने की योजना में तल्लीन हो गया।

उन्होंने महामंत्री चतुर सेन को संबोधित कर कहा, "गुप्तचर विभाग के प्रमुख नंदी कुमार के साथ इन गुप्तचरों के विरुद्ध जो भी साक्ष्य हो प्रस्तुत किए जाए।"

नंदी कुमार का ब्यान और उन पांचों के विरूद्ध प्रस्तुत किए गए साक्ष्य इतने मजबूत थे कि कोई भी उनको गुप्तचर होने में संदेह नहीं कर सकता था। उसके साथी भी अपनी वास्तविकता से अंजान प्रतीत होते थे और अपने गुप्तचर होने के आक्षेप पर कोई प्रतिक्रिया नहींदे रहे थे।

किंतु पिनाक तो वास्तविकता जानते थे तथा समझते थे कि उनके साथियों को उनके ही हाथों मृत्यु-दंड दिलवाने के षड़यंत्र के अतिरिक्त वह कार्यवाही कुछ भी नहीं थी।

पिनाक ने पल भर में अपनी योजना स्थिर करली और आदेश दिया, "बंदियों को अगली राजसभा तक बंदीगृह में रखा जाए।"

यह सुनकर महामंत्री के चेहरे पर कुछ विरोध के भाव प्रगट हुए किंतु वह कर भी क्या सकता था इसीलिए मौन धारण कर खड़ा हो गया।पिनाक भी सिंहासन से उतर कर राज दरबार से बाहर की ओर चल दिए। दरबार में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने अपनी नजरें तब तक झुकाएं रखी जब तक महाराज दरबार से बाहर नहीं हो गए।

राजदरबार से बाहर आकर उन्होंने रथवान को रथ लाने को कहा तथा रथ आने पर उस पर सवार होकर राज्य को देखने के लिए चल दिए।

सायं-काल तक भ्रमण करते रहने पर भी पिनाक का मस्तिष्क इसी उहा-पोह में रहा कि इस राज्य को वास्तविक समझे या शैतान का मायालोक। जब उनका दिमाग सोच-सोच कर थक गया तो उन्होंने यह सोचकर उसको शांत किया कि वह प्रत्येक स्थिति से निबटने में पूर्णतया सक्षम है और समय आने पर अपने साथियों सहित इस राज्य या मायालोक जो भी हो, से बाहर निकल जाएंगे तथा राजमहल को वापिस लौट गए।

पिनाक अपने शयनकक्ष में मौजूद थे कि दासी ने महारानी सुषमा देवी के आगमन की सूचना दी।

महारानी ने अंदर प्रवेश करते ही दासियों को कक्ष से बाहर जाने का संकेत किया।

दासियों से कक्ष के रिक्त हो जाने पर महारानी सुषमा देवी पिनाक की शैय्या पर उनके नजदीक बैठ गई।

सुषमा देवी उस समय सोलह श्रृंगार किए हुए थी। सौंदर्य में वह रति से प्रतिस्पर्धा करती प्रतीत होती थी। उसका लम्बा कद, घुटने तक लहराती जुल्फें, मदमाते नयन, सुतवा नासिका, अनार के दानों के समान लाल होंठ, चमकते हुए सफेद दांत, उभरी हुई चिबुक, पतली ग्रीवा, कठोर और उन्नत पयोधर, जो केंचुकि से बाहर आने को बेताब प्रतीत होते थे, क्षीण कटि प्रदेश और कदली स्तंभ के समान पग किसी भी विश्वामित्र की तपस्या भंग करने में सक्षम थे।

महारानी ने आंचल को अपने वक्ष-स्थल से हट जाने दिया तथा शैय्या के समीप रखी हुई तिपाई से सुगन्धित मदिरा से भरी हुई एक सुराही उठाई व चिताकर्षक अदा के साथ उस सुराही से एक प्याला ढालकर पिनाक को प्रस्तुत किया।

पिनाक अब धर्म-संकट में पड़ गए, सुरा का सेवन उन्होंने तब तक तक नहीं किया था और न ही करना चाहते थे।

किंतु वे जानते थे कि परिस्थितियों के अनुसार उनको उसका सेवन अवश्य करना पड़ेगा।

पिनाक को अपने महान गुरु अवधेशानंद का एक उपदेश स्मरण हो आया जिसमें उन्होंने कहा था, "वत्स, जिस क्षेत्र से तुम संबंध रखते हो, उसमे कोई भी कार्य, जिसे तुम अनुचित समझते हो, को करना जिसमें तुम्हारा हित साधन और मानव कल्याण दोनों निहित हो, वर्जित नहीं है।"

वैसे भी पिनाक परम सिद्धि को प्राप्त कर चुके थे, और इस स्थिति में पहुंचने के बाद मनुष्य में एक निरपेक्ष भाव उत्पन्न हो जाता है जिससे वह जो भी कार्य करता है उसमे केवल दृष्टा भाव रहता है तथा वह मन व आत्मा से उसमे सम्मिलित नहीं होता।

फिर भी पिनाक ने यह कहकर मदिरापान से बचने का प्रयत्न किया, "महारानी, तुम्हारे नयनों में जो नशा है वो इस मदिरा में कहा?"

लेकिन सुषमा देवी ने आग्रहपूर्वक वह जाम पिनाक के ओंठों से लगा दिया।

इसके उपरांत मय के दौर पर दौर चलने लगे।

महारानी ने भी छककर पी और मदहोश होकर पिनाक की गोद में गिर पड़ी।

पिनाक ने उसे एक तरफ करने का प्रयत्न किया लेकिन महारानी लता की तरह पिनाक से लिपट गई और अपने जलते हुए अधर उनके अधरों पर रखकर बेसब्री के साथ उनका रसपान करने लगी।

पिनाक भी समय की जरूरत को जानकर महारानी का साथ देने लगे।

उन्होंने सुषमा देवी ने पहनी हुई केंचुकी की लड़ी खोल दी, जिससे उसके उन्नत कुच आजाद होकर हाहाकारी दृश्य का सृजन करने लगे।

पिनाक ने ज्योंही उसके स्तनों के अग्रिम भाग को हल्के से अपनी दंत पंक्तियों द्वारा दबाया त्योंही महारानी के ओंठो से एक आनंद भरी चित्कार निकली और वह बेकली से पिनाक में समाने का प्रयत्न करने लगी।

वह पिनाक के उपर सवार होकर उस खेल को खेलने में तल्लीन हो गई जिसका निर्माण विधाता ने मुख्यत: सृजन के लिए किया था।

पिनाक ने इससे पहले इस तरह के खेल में भाग नहीं लिया था इसीलिए उन्होंने स्वयं को महारानी के हवाले कर दिया। महारानी अपने सम्पूर्ण कौशल के साथ इस प्राकृतिक क्रीड़ा में भाग ले रही थी। उसका प्रयत्न था कि पिनाक को शीघ्र स्खलित कर अपनी विजय का परचम लहरा सके।

दरअसल महारानी सुषमा देवी का पिनाक के प्रयंक पर आने का प्रमुख उद्देश्य काम पिपासा मिटाना नहीं वरन् उसके साथियों को मृत्यु-दण्ड घोषित करवाना था जिन्हें पिनाक ने बंदीगृह में बंद करने के आदेश जारी किए थे। वह यह कार्य महामंत्री चतुर सेन के आदेश पर कर रही थी।

इसलिएवह अपनी काम क्रीड़ाओं द्वारा पिनाक पर विजय प्राप्त कर उनसे वह कार्य करवाना चाहती थी।

लेकिन पिनाक तो स्वयं में स्थित थे। महारानी अपने पूरे प्रयत्न करके हार गई और निढाल होकर उनके वक्ष पर गिर पड़ी।

सुबह होने तक महारानी सुषमा देवी ने अनेक प्रयत्न किए किंतु वह पिनाक पर विजय प्राप्त नहीं कर सकी।

चतुर सेन जब महारानी से उनके कक्ष में कार्य प्रगति के विषय में जानने के लिए मिला तो सुषमा देवी के चेहरे पर हार के भाव स्पष्ट पढ़े जा सकते थे।
अगले दिन पिनाक शिकार का बहाना बनाकर पाताल देश के जंगलों की ओर रवाना हो गए। चंद दिनों में उन्होंने पूरे पाताल देश को छान मारा किंतु बाहर जाने का कोई मार्ग उन्हें नहीं सूझा।

जंगल में एक जगह बहुत ही शांत वातावरण था, पक्षियों का मधुर कलरव चारों ओर फैला हुआ था। पिनाक ने एक उचित जगह देखकर अपना आसन लगा लिया और समाधि में लीन हो गए।

उनकी समस्त इन्द्रियां शांत हो गई, बाह्य वातावरण से उनका कोई संबंध नहीं रहा और वे अपने अंतर्मन में खो गए।

समाधि के दौरान पिनाक ने स्वयं को उस स्थान पर खड़े देखा, जहां से वह अपने साथियों सहित खड्डे में गिरे थे।

परंतु जब उन्होंने अपनी आंखे खोली तो अपने आप को उसी जंगल में पाया।

इस तरह वे आंखें बंद करके समाधि लगाते तो स्वयं को पर्वतों के बीच पाते और आंख खोलने पर जंगल में।

पिनाक समझने का प्रयास कर रहे थे कि वास्तविकता क्या है? यह पाताल देश या शैतान के महल तक जाने का मार्ग।

अंत में पिनाक इस निश्चय पर पहुंचे कि वास्तविकता तो वे पर्वत है जिनसे होकर वे यात्रा कर रहे थे और यह पाताल देश महज एक मायाजाल है जिसमें शैतान ने उनको फंसाया है।

इस निश्चय पर पहुंचने के बाद उन्होने अपने साथियों से मानसिक संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया।

चूंकि उनके साथी अपनी वास्तविकता को भुला चुके थे इसीलिए संपर्क स्थापित होने पर भी पिनाक को कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि पिनाक के साथियों का अंतर्मन उनको पहचान नहीं पा रहा था।

यकायक उन्हें जिन्नों के शहजादे आलम की याद आई तो उन्होंने आलम से संपर्क किया जो तुरंत स्थापित हो गया।

"क्या आदेश है, देव?, आलम की बिल्कुल स्पष्ट आवाज सुनाई दी।

"मेरे समीप आओ, मित्र आलम, मुझे तुम्हारी आवश्यकता है।"

"आपके सामने ही मौजूद हूं।"

"क्या आप मुझे देख नहीं पा रहे?"

पिनाक ने आलम के प्रश्न को नजरंदाज कर प्रतिप्रश्न किया, "मैं कहां हूं आलम?"

"आप मेरे सामने तिब्बत के पहाड़ों में है देव।"

यह सुनकर पिनाक का दिमाग चक्कर खा गया। उन्होंने आलम को सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराकर अपने स्तर पर जो भी बन सके करने को कहा।

पिनाक यह सोचकर राज्य में वापिस लौट गया कि सबसे पहले उनके साथियों को अपनी वास्तविकता से अवगत करवाया जाए ताकि कोई अन्य कार्यवाही करने का मार्ग खुल सके।
वापिस आकर वह सीधे बंदीगृह पहुंचे और अपने साथियों को साथ लेकर राजमहल में प्रवेश कर गए।

उन्होंने निजी कक्ष में उनके बिस्तर लगवा दिए और अपनी निगरानी में उनके भोजन इत्यादि का प्रबंध किया।

महामंत्री चतुर सेन को पिनाक की इस कार्यवाही का पता चला तो वह बहुत तिलमिलाया।

उसने सेनापति कीर्ति सेन को अपने साथ लिया और पिनाक के पास पहुंचकर प्रश्न करने लगा, "मृत्यु दण्ड के अधिकारी, उन विदेशी गुप्तचरों को आपने क्यों मुक्ति प्रदान की है, महाराज?"

पिनाक ने बगल में बंधे हुए अपने विशाल खड्ग को म्यान से बाहर निकालकर चतुर सेन कि गर्दन पर वार करते हुए कहा, "इसका उत्तर तुम्हे मेरी तलवार देगी।"

खड्ग के एक ही वार से चतुर सेन की गर्दन कट कर दूर जा गिरी।

चतुर सेन का वध करने के पश्चात पिनाक ने सेनापति कीर्ति सेन से पूछा, "तुम्हारा क्या इरादा है, सेनापति?"

कीर्ति सेन तुरंत पिनाक के चरणों में गिर पड़ा और पिनाक के प्रति वफादारी की शपथ ली।

चतुर सेन की कटी हुई गर्दन और उसके धड़ को पिनाक ने राजपथ पर डलवा दिया।

इसके उपरांत उन्होंने राजमहल के रसोइयों और भोजन परोसने वाली दासियों को अपने कक्ष में प्रस्तुत करने का आदेश दिया।

उन सभी के प्रस्तुत होने पर पिनाक ने खून से रंगी हुई अपनी तलवार उन्हें दिखाते हुए कहा, "अगर किसी भी व्यक्ति ने खाद्य-सामग्री में कोई आपत्तिजनक वस्तु मिलाई तो उसकी गर्दन तथा मेरी तलवार होगी।"

पिनाक का तीर सटीक निशाने पर लगा और तीन दिन के निर्दोष खान-पान से ही पिनाक के साथी अपनी असलियत से वाकिफ हो गए।

इसके उपरांत उन छ: व्यक्तियों में एक गुप्त वार्तालाप हुआ।

इस वार्तालाप के परिणामस्वरूप लोटन नाथ ने महादेव का ध्यान किया और उनसे प्रार्थना की, "हे महादेव, हमें इस जंजाल से मुक्त कराएं।"

तुरंत महादेव की धीर-गंभीर वाणी वातावरण में गूंजी, "ये जंजाल कुछ भी नहीं केवल शैतान द्वारा फैलाया हुआ एक भ्रमजाल है।"

"आश्चर्य है कि तुम और पिनाक जैसे ज्ञानी पुरुष भी इस भ्रमजाल में फंस गए।"

"इसमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है, अस्तु मै तुम सबको इस जाल से मुक्त करता हूं तथा तुम्हे इस तरह के जाल में कभी न फंसने का वरदान देता हूं।"

महादेव के इतना कहते ही उन सभी ने स्वयं को उसी स्थान पर पाया जहां से वह वातायन खुला था और वे उसमे गिर गए थे।

इस समय वहां न तो कोई पाताल देश था तथा न ही उसका राजमहल और महारानी सुषमा देवी।

शहजादा आलम इस समय भी वहां उपस्थित था और पिनाक के विषय में सोच-सोच कर परेशान हो रहा था।

पिनाक को देखते ही वह उनकी ओर दौड़ा तथा उनसे गले लगकर रोने लगा।

पिनाक ने भी आलम को कसकर गले लगाया और बुलाने पर तुरंत पहुंचने के लिए उसका धन्यवाद किया।

पिनाक ने आलम को अपने स्थान पर वापिस जाने के लिए कहा लेकिन वह तैयार नहीं हुआ बल्कि उसने शिकवा भी किया कि शैतान के खिलाफ युद्ध में उसे याद नहीं किया गया।
 
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एक सुबह वे नींद से जागे तो जटा नंद और श्रीपत को उन्होनें अपने बीच में नहीं पाया।

लोटन नाथ ने तुरंत सोम को पुकारा, किंतु वह भी उपस्थित नहीं हुआ।

वे इस बारे मे विचार कर ही रहे थे कि दोनों कहां गायब हो गए और सोम भी उपस्थित नहीं हो रहा।

तभी राजकुमार शक्ति देव की आवाज वातावरण में गूंजी, "तुम्हारे दोनों साथी सोम सहित मेरी कैद में है, अगर तुममें शक्ति है तो उनको मुक्त करवा लो।"

"हां, अगर तुम वापिस लौटने को सहमत हो जाओ तो उनकी मुक्ति का मार्ग बन सकता है वरना उनके शव ही तुम्हें प्राप्त होंगे।"

किंतु पिनाक ने राजकुमार के प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि वह एक युद्ध लड़ रहे थे और युद्ध को किसी के जीवन या मृत्यु के भय से अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता, वह जो करना चाहे कर सकता था।
जब राजकुमार द्वारा जटा नंद और श्रीपत का अपहरण किया जा रहा था तब सोम पूरी तरह से सतर्क था।

सोम कोई साधारण प्राणी नहीं था। वह मानव से इतर एक अलग योनि का प्राणी था और उसकी एक परालौकिक सत्ता थी।

वह उन दोनों के अपहरण में बाधा डाल सकता था किंतु राजकुमार की दैवीय शक्तियों को महसूस कर उसने शक्ति देव से मुकाबला करना उचित नहीं समझा।

सोम को कोई कैद भी नहीं कर सकता था, किंतु यह सोचकर उसने बंदी बनना स्वीकार कर लिया कि शैतान के महल में पहुंचकर उसकी शक्ति को जाना जा सके तथा हो सके तो कुछ दुष्टों को समाप्त कर उन दोनों को मुक्त कराया जा सके।

इस समय वे तीनों शैतान के महल के बंदीगृह में बंदी अवस्था में थे।

रात्रि का समय था, सोम की देह से रीछ जैसा एक भयावह प्राणी निकला। उसके चौड़े मुंह में बड़े-बड़े दांत थे, उसके हाथों के नाखून तलवार के समान लंबे व पैने थे तथा शरीर पर बालों की जटायें झुल रही थी।

वह प्राणी कैदखाने की दीवारों से यूं आर-पार निकल गया जैसे उनका कोई अस्तित्व ही नहीं हो।

वह प्राणी बेखटके पूरे महल में घूम-घूम कर शैतान की शक्तियों की टोह लेने लगा।

उस समय महल में शैतान, राजकुमार शक्ति देव, शैतान के दस प्रमुख पुजारी, विशाखा गिरी और पूरे विश्व से सैकड़ो की संख्या में बुराई का समर्थन करने वाले दुष्ट व्यक्ति उपस्थित थे। इन दुष्ट व्यक्तियों में ज्यादातर काली शक्तियों के उपासक थे।

तभी एक पहरेदार ने उसको देख लिया और शोर मचा दिया। उसका शोर सुनकर महल में जाग हो गई और सभी व्यक्ति अपने-अपने कक्षों से बाहर निकलने लगे।

जब तक वे उस भयानक प्राणी को देखकर कुछ कार्यवाही करते तब तक उसने अपने दांतो और नाखूनों के द्वारा उनमें से बहुतों को समाप्त कर दिया तथा अपने स्थान से गायब होकर सोम के शरीर में समा गया।

सोम भी उसके उस कार्य से अति प्रसन्न हो गया तथा उसने सोचा कि आगे की कार्यवाही उसके स्वामी (लोटन नाथ) के वहां पहुंचने पर ही करनी उचित होगी।

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शैतान चिंतित अवस्था में अपने कक्ष में टहल रहा था।

कभी उसकी सोच उस रीछ जैसे प्राणी की ओर जाती जो उसके आदमियों को मारकर गायब हो गया।

कभी वह उस दल के बारे में सोचता जो मार्ग की समस्त बाधाओं को समाप्त करते हुए उसके साम्राज्य का विध्वंस करने के लिए आ रहे थे।

फिर वह राजकुमार शक्ति देव के बारे में सोचने लगा कि उसका महल में लाना उचित था या नहीं।

बहुत सोच-विचार के बाद उसने निष्कर्ष निकाला कि युद्ध अवश्यंभावी है तो उसने राजकुमार शक्ति देव सहित महल में उपस्थित सभी व्यक्तियों को उसके कक्ष में उपस्थित होने का संदेश भिजवाया।

जब सभी व्यक्ति उसके कक्ष में पहुंच गए तो अपने अनुयायियों में उत्साह पैदा करने के लिए उनको संबोधित किया।उसने कहा, "साथियों वह क्षण आ चुका है, जिसका हमें इंतजार था। हजारों सालों से देवता हमारे साथ छल करते आ रहे है। इस काल में जब हम उत्थान के मार्ग पर है और हमारे अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है तथा हमारे पंथ के समर्थक राजकुमार शक्ति देव को महान सिद्धि की प्राप्ति हुई तो देवताओं ने उसका प्रतिरोध करने के लिए पिनाक को उससे दोगुनी शक्तियां प्रदान कर दी तथा उसकी सहायता के लिए लोटन नाथ को भी साथ कर दिया ताकि हमारा विनाश कर सके। लेकिन हम भी देवताओं कि दिखा देंगे कि हमारे मार्ग में जो भी रुकावट बनकर खड़ा होगा, हम उसे नेस्तनाबूद कर देंगे। अब युद्ध हमारे द्वार तक पहुंच गया है। इस युद्ध में हमें प्रत्येक परिस्थिति में विजय प्राप्त करनी है नहीं तो हजारों वर्ष तक हमारे पंथ की उन्नति रुक जाएगी।

इस संबोधन के पश्चात शैतान ने युद्ध विषयक नीति की चर्चा की और सभा बर्खास्त कर दी।

सोम ने भी बंदीगृह में इस समस्त वार्तालाप को सुनकर कहा, "मैंने भी अपनी रणनीति तैयार कर ली है।"

ज्योंही पिनाक का दल शैतान के महल के समीप पहुंचा, उनपर आक्रमण शुरू होगया।

पिनाक ने अपने साथियों का नेतृत्व किया और वे आक्रमण का प्रतिउत्तर देने में तल्लीन हो गए।

उनके हाथों में भांति-भांति के आयुध प्रगट हो रहे थे जिनके द्वारा वे शैतान के अनुचरों का खात्मा कर रहे थे।

इधर महल से बाहर यह युद्ध चल रहा था, अंदर सोम ने बंदीगृह का दरवाजा उखाड़ फेंका और बंदीगृह से बाहर आ गया।

उसके दोनों हाथों में आयुध प्रगट हो गए। उसने जटा नंद और श्रीपत को भी हथियार उपलब्ध करवाए और वे तीनों मिलकर महल के अंदर भी विनाश लीला करने में प्रवृत्त हो गए।दोनों तरफ से मार पड़ने पर काली शक्तियों के उपासकों की संख्या तेजी से समाप्त होने लगी।

कुछ ही समय उपरांत शैतान के गुट में स्वयं शैतान (जो देवताओं से हुई संधि के अनुसार खुद युद्ध में भाग नहीं ले सकता था), राजकुमार शक्ति देव और शैतान के दस पुजारी बचे थे, बाकि सबका विनाश हो चुका था।

पिनाक की युद्ध के दौरान शक्ति देव पर नजर पड़ी।

उसने अपने साथियों को शैतान के पुजारियों से निबटने का संकेत किया और स्वयं राजकुमार की ओर बढ़ गया।

शैतान के पुजारी भी कुछ कम शक्तिवान नहीं थे। शैतान ने अपनी समस्त शक्तियों का वितरण उनमें कर दिया था। इससे वे परम शक्तिशाली होकर लोटन नाथ इत्यादि से मुकाबला कर रहे थे।

उन्होंने लोटन नाथ इत्यादि पर क्षारीय पदार्थों की बौछार कर दी जिसे महाभैरवी मंगला ने अपने खप्पर में लेे लिया जिससे उनका कोई नुक्सान नहीं हुआ।

इसके उपरांत पुजारियों के शरीर से लाखों की संख्या में विषैले जीव निकल-निकल कर उन पर आक्रमण करने लगे किंतु महातांत्रिक भैरवानंद ने भी अपने शरीर से वैसे ही जीव उत्पन्न किए जो शैतान के पुजारियों द्वारा उत्पन्न किए हुए जीवों को चट कर गए।पुजारियों ने अनेक आक्रमण पिनाक के साथियों पर किए लेकिन उन्होंने सभी हमलों को निष्फल कर दिया।

जब पुजारियों के समस्त हमलें नाकाम हो गए तो उन्होंने एक अलग माया का सृजन किया जिससे उनके शरीर से उनके ही प्रतिरूप निकलने लगे और उनकी संख्या लाखों में पहुंच गई।

लोटन नाथ और महाभैरवी मंगला ने भी अपने लाखों प्रतिरूप उत्पन्न किए जो शैतान के पुजारियों का बेदर्दी से संहार करने लगे और पुजारियों के समस्त प्रतिरूपों को समाप्त कर वापिस उनके शरीर में समा गए।

अब लोटन नाथ के हाथों में महादेव का त्रिशूल प्रगट हुआ, जिसको उसने शैतान के पुजारियों के ऊपर छोड़ दिया।

वह त्रिशूल शैतान के सभी दस पुजारियों वध करते हुए वायु में विलीन हो गया।

पिनाक जब राजकुमार शक्ति देव के समीप पहुंचे तो पिनाक को अपने सम्मुख देखकर राजकुमार अत्यंत क्रोधित हो उठा।

उसने कहा, पहले तो यह नीच भैरवानंद तुम्हें बचाकर ले गया था, किंतु अब तुम स्वयं ही मृत्यु के द्वार पर चले आए हो।"

"मृत्यु का देवता यमराज भी अब मेरे हाथों तुम्हारे जीवन को नहीं बचा सकता।"यह कहकर राजकुमार ने अपने हाथ में पकड़े हुए खड्ग को पिनाक के ऊपर दे मारा, किंतु पिनाक ने बड़ी आसानी उसके वार को अपने एक हाथ में पकड़ी हुई तलवार पर रोक लिया तथा दूसरे हाथ में मौजूद सर्पदंश को राजकुमार के ऊपर छोड़ दिया। सर्पदंश का वार राजकुमार के गले पर हुआ लेकिन उसका उसका कुछ अहित नहीं हुआ।राजकुमार और पिनाक युद्ध के किसी परिणाम की अपेक्षा से भांति-भांति के आयुधों द्वारा एक-दूसरे पर आक्रमण करने लगे लेकिन कुछ प्राप्ति नहीं हुई।

वैसे दोनों ही योद्धा जानते थे कि वे प्रतिद्वंदी का वध नहीं कर सकते फिर भी वे जी-जान से युद्ध करने में सलंग्न थे।

सहसा राजकुमार ने पिनाक को चमकीली किरणों से बुने एक जाल में फांस लिया लेकिन पिनाक के हाथ एक विशेष प्रकार का चाकू प्रगट हुआ जिसके द्वारा उन्होंने उस जाल को आसानी से काट डाला।

पिनाक ने राजकुमार के ऊपर सहस्त्रों नुकीले अस्त्रों का प्रहार एक साथ किया लेकिन सभी अस्त्र राजकुमार से टकराकर भूमि पर गिर पड़े।

घात-प्रतिघात के दौर चलने लगे, कोई भी योद्धा एक-दूसरे से उन्नीस नहीं था।

दोनों के मध्य ऐसा घनघोर युद्ध हुआ जिसकी मिसाल वही युद्ध हो सकता था।

नजर नहीं आने वाली आकाशचारी योनियों के प्राणी भी आकाश में ठहरकर उस युद्ध को देखने लगे।

युद्ध के दौरान एक उचित अवसर देखकर पिनाक ने रंग-बिरंगे प्रकाश के कणों की एक बौछार राजकुमार शक्ति देव की भृकुटी पर की।

यह रंग-बिरंगे प्रकाश के कण राजकुमार के मस्तिष्क में जाकर पैवस्त हो गए जिसके कारण वह बेहोश होकर गिर पड़ा।

पिनाक जानते थे कि होश में आने पर राजकुमार अपनी शक्तियों के बारे भूल चुका होगा।

उसे केवल इतना याद रहेगा कि वह विजयगढ़ का राजकुमार शक्ति देव है।

यहां तक कि वह अपने भ्रष्ट चरित्र के बारे में भी भूल चुका होगा।

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राजकुमार शक्ति देव के बेहोश होते ही शैतान वहां से पलायन कर चुका था।

पिनाक के सभी साथियों ने आपस में गले मिलकर एक-दूसरे को विजय की शुभकामनाएं दी।

मोना को शैतान के महल से सुरक्षित खोज निकाला गया।

पिनाक अपने साथियों सहित महल के सामने खड़े हो गए।

उन्होंने कोई मंत्र पढ़कर अपना एक हाथ शैतान के महल की ओर कर दिया। जिससे महल कण-कण होकर वायु में विलीन हो गया और कुछ ही क्षणों के पश्चात उस स्थान पर एक खाली मैदान था जिसमें शैतान के अनुयायियों के शव बिखरे हुए थे।

पिनाक ने उस मैदान में एक स्थान को चिन्हित कर, वहां पर एक वातायन उत्पन्न किया तथा उसमें पवित्र अग्नि प्रगट की।

उनके एक संकेत पर वहां पड़े समस्त शव उड़-उड़कर उस पवित्र अग्नि में गिरने लगे।

इस प्रकार शैतान के अनुचर जो मृत्यु के पश्चात प्रेत-योनि में चले गए थे उनका भी खात्मा होने लगा। यहां तक उस महल के आस-पास रहने वाले अन्य प्रेत भी उस पवित्र अग्नि में जलकर मुक्ति को प्राप्त हो गए।

अब पिनाक ने उस स्थान के समीप पर्वत की ओर इशारा किया। जिससे पानी की एक धार वहां से निकलकर उस खड्डे में गिरने लगी। कुछ ही समय में उस खड्डे में जलती हुई अग्नि शांत हो गई तथा वह स्वच्छ पानी से किनारे तक लबालब भर गया जिसमें से भाप उठ रही थी।

----पिनाक इस अभियान में शामिल अपने समस्त साथियों सहित उनके आश्रम में उपस्थित थे। उन्होंने सभी का बुराई के अंत में सहयोग करने के लिए धन्यवाद दिया।

उन्होंने राजकुमार शक्ति देव को तांत्रिक भैरवानंद के हवाले कर दिया ताकि वह उसे उसके पिता तक पहुँचा सके।
फिर पिनाक ने लोटन नाथ, स्वामी भैरवानंद और महाभैरवी मंगला के चरणों में प्रणाम करके कहा, "आप की कृपा से समस्त कार्य कुशलता से संपन्न हो गया।"

इसके उत्तर में उन महान हस्तियों ने पिनाक से कहा, "पुत्र, तुम्हे वरदान स्वरूप हजारों वर्ष लंबा जीवन और अक्षय यौवन की प्राप्ति हुई है।"

"इतने लंबे जीवन में तुम्हें न जाने कितने शक्ति देव मिलेंगे तथा तुम्हे उनसे मुकाबला करना होगा।"

"इसके अतिरिक्त तुम्हे ऐसी सिद्धियां प्राप्त हुई है जो किसी भी मानव के लिए दुर्लभ है।"

"इन सिद्धियों का प्रयोग तुम जनकल्याण के लिए करना।"

"इन बातों का मुझे सदैव ध्यान रहेगा, आप मुझे आशीर्वाद दीजिए ताकि मैं कभी भी अपने मार्ग से विचलित नहीं होऊं", पिनाक ने कहा।

लोटन नाथ, तांत्रिक भैरवानंद और महाभैरवी मंगला ने पिनाक को आशीर्वाद देकर समवेत स्वर में कहा-

"तथास्तु।"


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