Fantasy रहस्यमयी टापू MAGIC Adventure (Completed)

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(१५)
सब आगे बढ़ चले उस जंगल की ओर शाकंभरी की सहायता करने,आगे बढ़ने पर रानी सारन्धा किसी पत्थर की ठोकर से गिर पडी़, उनके पैर में चोट लग गई थीं और वो अब चलने में असमर्थ थीं, रानी सारन्धा की स्थिति देखकर अघोरनाथ बोले___


जब तक रानी सारन्धा की स्थिति में सुधार नहीं होता ,तब तक हम इसी स्थान पर विश्राम करेगें, वैसे तो हम उड़ने वाले घोड़े के द्वारा रानी सारन्धा को उस वन मे भेज सकते हैं परन्तु उड़ने वाले घोड़े का ऐसा उपयोग उचित नहीं हैं क्योंकि सारन्धा जंगल में पहले पहुंच गई तो उसकी सुरक्षा का प्रश्न हैं और अगर हम एक एक करके गए भी तो कुछ इधर कुछ उधर,हमें बंटा हुआ देखकर शंखनाद इसका पूर्णतः उपयोग कर हमें हानि पहुंचा सकता हैं, इसलिए यही उचित होगा कि हम सब एकसाथ रहें।।


और अघोरनाथ जी का निर्णय सभी को उचित लगा,सब उस जगह ठहरकर रानी सारन्धा के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा करने लगें, वहां एक बरगद के बडे़ से वृक्ष के तले सबने शरण ली,इस घटना में सबसे अच्छा ये रहा कि राजा विक्रम,रानी सारन्धा की देखभाल करने लगें, परन्तु इस बात से रानी सारन्धा को बहुत संकोच हो रहा था,वो ये नहीं चाहतीं थीं राजा विक्रम उनकी इतनी चिंता करें।।


रात्रि का समय सब सो चुके थे और राजा विक्रम पहरा दे रहे थे,गगन में तारें टिमटिमा रहें थें और चन्द्र का श्वेत प्रकाश संसार के कोने-कोने से अंधकार मिटाने का प्रयास कर रहा था,सारी धरती पर चन्द्र की रोशनी चांदी सी प्रतीत हो रही थीं,बस बीच बीच में किसी पक्षी या किसी झींगुर का स्वर सुनाई दे जाता,रानी सारन्धा भी अपनी बांह का तकिया बना कर वृक्ष के तले लेटी थीं,उनके मुख पर चन्द्र का प्रकाश पड़ने से उनके मुख की आभा बढ़ गई थी,ऐसी सुंदरता को देखकर कोई भी मोहित हो जाए, लेकिन मुझे देखकर रानी सारन्धा के मुख पर कोई भाव क्यो नही आते, उन्होंने आज तक कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी,कदाचित् ऐसा तो नहीं वो किसी और से प्रेम करतीं हो,आखिर क्या कारण हो सकता है उनकी शुष्कता का,ये ही सब सोचते-सोचते विक्रम को नींद आने लगी तब उसने सुवर्ण को जगा दिया, वैसे भी तीसरा पहर खत्म होने को था और सुवर्ण के पहरा देने का समय था।।


सुबह हुई,सब जागें,तभी अघोरनाथ जी रानी सारन्धा की स्थिति पूछने आए___


अब कैसा अनुभव हो रहा है,सारन्धा बेटी, अघोरनाथ जी ने सारन्धा से पूछा।।


अब पहले से अधिक अच्छा अनुभव कर रही हूं बाबा!,आज तो चल भी सकतीं हूं, संभवतः आज हम आगे बढ़ सकते हैं,रानी सारन्धा बोली।।


बहुत ही अच्छा हुआ, बेटी! मैं सबसे कहता हूँ कि आगें चलने की तैयारी करें और अघोरनाथ जी इतना कहकर चले गए।।सब तैयारी कर आगें बढ़ चलें, रास्ते में सारन्धा ने अपने पैर में दोबारा पीड़ा का अनुभव किया और वो एक पत्थर पर बैठकर बोली, मैं अब असमर्थ हूँ आगें नहीं बढ़ सकतीं।।


तभी, राजा विक्रम,सारन्धा के निकट आकर बोले, आपको कोई आपत्ति ना हो तो मैं कुछ आपकी सहायता कर सकता हूँ।।


मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, क्यों आप मुझे प्रतिपल सताने आ जाते हैं, आपने जो पहले भी मेरी सहायता की हैं उसके लिए मैं सदा आपकी आभारी रहूंगी, परन्तु इस पल मुझे क्षमा करें, मैं वैसे भी बहुत ही कष्टनीय स्थिति में हूँ,मैंने अभी अपने परिवार को गँवाया हैं,जो मेरे लिए असहनीय हैं, आप मेरी अन्तर्वेदना को समझने का प्रयास करें,मुझे सब ज्ञात हैं कि इस समय आपके मन के भाव क्या हैं मेरे लिए, जैसे आप मुझसे प्रेम करने लगें उसी प्रकार मैं भी किसी से प्रेम करती थीं, रानी सारन्धा क्रोध से बोली।।


रानी सारन्धा! कृपया आप क्रोधित ना हो,आप मेरी बातों का आशय उचित नहीं समझ रहीं,राजा विक्रम बोले।।


मैं बिल्कुल उचित समझ रही हूँ, चलिए आज मैं आपको अपने विषय मे सब बता ही देतीं, सब जानकर ही आप मेरे विषय में उचित निर्णय ले कि मैं आपके प्रेम के योग्य हूँ कि नहीं और रानी सारन्धा ने अपने अतीत के विषय मे बोलना शुरू किया।।


पहाड़ो के पार,घने वन जहाँ पंक्षियों के कलरव से वहाँ का वातावरण सदैव गूँजता रहता,घनें वनों के बीच एक नदी बहती थीं, जिसका नाम सारन्धा था,उसके समीप एक राज्य बसता था जिसका नाम रूद्रनगर था,जहाँ के हरे भर खेत इस बात को प्रमाणित करते थे कि इस राज्य के वासी अत्यंत खुशहाल स्थिति में हैं, किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं हैं,सबके घर धन धान्य से भरे हुए हैं और वहाँ के राजा अत्यंत दयालु प्रवृत्ति के थे,उनका नाम दर्शशील था,वे अपने राज्य के लोगों को कभी भी कोई कष्ट ना होने देते,उनकी रानी का नाम शैलजा था,परन्तु बहुत साल व्यतीत हुए राजा के कोई सन्तान ना हो हुई, इस दुख से दुखी होकर रानी शैलजा ने राजा से कहा कि वे अपना दूसरा विवाह कर लें किन्तु राजा दर्शशील दूसरे विवाह के लिए कदाचित् सहमत ना थे उन्होंने इस विषय पर अपने गुरुदेव से मिलने का विचार बनाया और वो और वो अपने गुरू शाक्य ऋषि से मिलने रानी शैलजा के साथ शाक्य वन जा पहुंचे।।


उन दोनों से मिलने के पश्चात गुरदेव बोले___


इतने ब्याकुल ना हो राजन!तनिक धैर्य रखें,कुछ समय पश्चात आपको अवश्य संतान की प्राप्ति होगी और सारे जगत मे आपका मान-अभिमान बढ़ाएगी।।


इस बात से राजा दर्शशील बहुत प्रसन्न हुए और शाक्य वन में एक दो दिन ठहर कर अपने गुरदेव से आज्ञा लेकर लौट ही रहे थे कि मार्ग में बालकों के रोने का स्वर सुनाई दिया जिससे उनका मन द्रवित हो गया और रानी शैलजा भी ब्याकुल हो उठीं।।


राजा दर्शशील ने सारथी से अपना रथ रोकने को कहा और अपने रथ से उतरकर उन्होंने देखा कि कहीं दूर से झाड़ियों से वो स्वर आ रहा हैं,वो दोनों उस झाड़ी के समीप पहुंचे, देखा तो वस्त्र की तहों में एक डलिया में दो जुड़वां बालक रखें हैं,शैलजा से उन बालकों का रोना देखा ना गया और शीघ्रता से उन्होंने दोनो बालकों को अपनी गोद मे उठा लिया।।उन्होंने आसपास बहुत ढ़ूढ़ा,परन्तु कोई भी दिखाई ना दिया, तब दोनों ये निर्णय लिया कि दोनों बालकों को वो अपने राज्य ले जाएंगे, उनमें से एक बालक था और एक बालिका, दोनों पति पत्नी की जो इच्छा थी वो अब पूर्ण हो चुकी थीं,दोनों खुशी खुशी अब उनका लालनपालन करने लगें,उन्होंने बालिका नाम उस राज्य की नदी के नाम पर सारन्धा रखा जोकि मैं हूं और बालक का नाम चन्द्रभान रखा, धीरे धीरे दोनों बड़े होने लगें और कुछ सालों बाद दोनों अपने यौवनकाल में पहुंच गए, इसी प्रकार सबका जीवन ब्यतीत हो रहा था।।


इसी बीच एक दिन सारन्धा नौका विहार करने नदी पर गई, वहां उसने अपनी सखियों और दासियों से हठ की कि वो नाव खेकर अकेले ही नौका विहार करना चाहती हैं,सखियों ने बहुत समझाया,पर उसनें किसी की एक ना सुनी और अकेले ही नाव पर जा बैठी,नाव खेने लगी,कुछ समय उपरांत नदी में एक भँवर पड़ी जिसे दूर से ही देखकर,सारन्धा बचाओ...बचाओ... चिल्लाने लगी क्योंकि उसे नाव की दिशा बदलना नहीं आता था,उसका स्वर वहां उपस्थित एक नवयुवक ने सुना और वो नदी मे कूद पड़ा और तीव्र गति से तैरता हुआ सारन्धा की नाव तक पहुंच कर शीघ्रता से नाव पर चढ़ा और नाव को दूसरी दिशा में मोड़ दिया।।


सारन्धा ने नीचे की ओर मुख करके लजाते हुए उस नवयुवक को धन्यवाद दिया, उसने सारन्धा से उसका परिचय पूछा___


मैं रूद्रनगर के राजा दर्शशील की पुत्री हूँ,यहाँ नौका विहार के लिए अकेले ही निकल पड़ी,मार्ग में भँवर देखकर सहायता हेतु चिल्लाने लगी,सारन्धा ने उत्तर दिया।।


और महाशय आपका परिचय,सारन्धा ने उस नवयुवक से उसका परिचय पूछा।।


जी,मैं अमरेंद्र नगर का राजकुमार सूर्यदर्शन, यहाँ तक आखेट के लिए आ पहुंचा, आपका स्वर सुनकर विचलित होकर देखा तो आप बचाओ...बचाओ चिल्ला रहीं थीं तो शीघ्रता से नदी में कूद पड़ा,सूर्यदर्शन ने सारन्धा के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा।।


आपने आज मेरे प्राणों की रक्षा की हैं इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सारन्धा बोली।।


धन्यवाद किस बात का प्रिये!ये तो मेरा धर्म था,सूर्यदर्शन बोला।।


वो सब तो ठीक हैं, महाशय! परन्तु मैं आपकी प्रिये नहीं हूं, सारन्धा बोली।।


नहीं हैं तो हो जाएगीं,आप जैसी सुन्दर राजकुमारी को कौन अपनी प्रिये नही बनाना चाहेगा, सूर्यदर्शन बोला।।


आप भी राजकुमार! कैसा परिहास कर रहें हैं मुझसे, सारन्धा बोली।।


ये परिहास नहीं है राजकुमारी, ये सत्य हैं, लगता हैं आपकी सुन्दरता पर मैं अपना हृदय हार बैठा हूँ, परन्तु आप मेरी बात पर विश्वास नहीं करेंगीं,सूर्य दर्शन ने सारन्धा से कहा।।


अब रहने भी दीजिए राजकुमार, अत्यधिक बातें बना लीं आपने,कृपया कर अब मुझे मेरे राज्य तक पहुंचा आइए,सारन्धा ने राजकुमार से कहा।।


और नदी किनारे आते ही राजकुमार ने राजकुमारी को अपने अपने घोड़े द्वारा उनके राज्य तक पहुंचा दिया, रात्रि के समय सारन्धा की आँखों से निद्रा कोसों दूर थीं, वो केवल सूर्यदर्शन के विषय मे ही सोंच रही थी, कदाचित् सारन्धा को भी राजकुमार प्रिय लगने लगा था।।


धीरे धीरे सारन्धा और सूर्यदर्शन एक दूसरे के अत्यधिक निकट आ चुके थे औंर एकदूसरे से प्रेम करने लगे थे,जब ये बात राजा दर्शशील ने सुनी तो वे अत्यंत ही प्रसन्न हुए और राजकुमारी का विवाह सूर्यदर्शन से करने को सहमत हो गए, बडी़ धूमधाम से विवाह सामारोह की तैयारियां होने लगी और विवाह वाला दिन भी आ गया, परन्तु उस दिन जो हुआ उसकी आशा किसी को नहीं थीं।।


राजकुमार सूर्यदर्शन ने सारन्धा के साथ क्षल किया था,वो विवाह के सामारोह में जादूगर शंखनाद के साथ आया और महाराज दर्शशील, महारानी सारन्धा और राजकुमार चन्द्रभान की हत्या कर दी और रानी सारन्धा को राक्षस के निरीक्षण में तलघर मे बंदी बना दिया।।


ये थी मेरे जीवन की कथा,इसलिए पुनः किसी से प्रेम करके उस कथा को मैं नहीं दोहराना चाहतीं, बहुत बड़ा आघातपहुंचा हैं मुझे प्रेम में और इसका प्रतिशोध जब तक मैं उन दोनों से नहीं ले लेतीं, मैं कैसे किसी से प्रेम करने का सोच सकतीं हूं, इसलिए तो मैं आपलोगों के साथ यहां तक आईं हूं,रानी सारन्धा क्रोधित होकर बोली।।
 
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भाग(१६)

राजकुमारी सारन्धा की आंखें क्रोध से लाल थीं और उनसे अश्रुओं की धारा बह रहीं थीं, उनकी अन्त: पीड़ा को भलीभाँति समझकर नीलकमल आगें आई और सारन्धा को अपने गले लिया___
क्षमा करना बहन!आप कब से अपने भीतर अपार कष्ट को छिपाएँ बैठीं थीं और हम सब इसे ना समझ सकें, आपकी सहायता करने मे हम सब को अत्यंत खुशी मिलेगी, आप ये ना समझें की आपका कुटुम्ब आपके निकट नहीं हैं, हम सब भी तो आपका कुटुम्ब ही हैं,अब आप अपने अश्रु पोछ लिजिए और मुझे ही अपनी बहन समझिए,यहां हम सब भी शंखनाद के अत्याचारों से पीड़ित हैं,हम सब का पूर्ण सहयोग रहेगा आपके प्रतिशोध मे,आप स्वयं को असहाय मत समझिए,नीलकमल ने सारन्धा से कहा।।
धन्यवाद, बहन! और सबसे क्षमा चाहती हूँ जो अपने क्रोध को मैं वश मे ना रख सकीं,क्या करती? कोई मिला ही नहीं जिससे अपनी ब्यथा कहती,परन्तु आप सब जबसे मिले थे तो एक आशा की किरण दिखाई पड़ी कि आप लोग ही मुझे मेरे प्रतिशोध को पूर्ण करने मे सहयोग कर सकते हैं, सारन्धा ने सभी से कहा।।
तभी अघोरनाथ जी ने आगें आकर सारन्धा के सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा___
इतनी ब्यथित ना हो बेटी! तुम्हारे कष्ट को मैं भलीभाँति समझ रहा हूँ, जो ब्यतीत हो चुका उसे भूलने मे ही भलाई हैं, आज से तुम मुझे ही अपना पिता समझों।।
इतना सुनकर सारन्धा ने अघोरनाथ जी के चरण स्पर्श कर लिए और अघोरनाथ जी ने सारन्धा को गले से लगा लिया।।
तब राजा विक्रम,सारन्धा के सामने आकर बोले__
क्षमा करें राजकुमारी, बहुत बड़ी भूल हुई मुझसे और आपसे एक बात और ज्ञात करना चाहूँगा कि अमरेन्द्र नगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के माता-पिता से आप कभी मिलीं हैं, राजा विक्रम ने सारन्धा से प्रश्न किया।।
नहीं, उन्होंने कहा कि उनके माता पिता का स्वर्गवास हो चुका हैं, राजकुमारी सारन्धा ने उत्तर दिया।।
तात्पर्य यह हैं कि आपसे भी उन्होंने ये राज छुपाया, राजा विक्रम बोले।।
तभी राजकुमार सुवर्ण बोले, क्या बात हैं मित्र! इतने समय से पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हैं, हम सबको भी तो ज्ञात हो कदाचित् बात क्या है?
तब राजा विक्रम बोले___
मित्र! सुवर्ण, जिस राजकुमार सूर्यदर्शन की बात राजकुमारी सारन्धा कर रहीं हैं, वो सच मे बहुत धूर्त और पाखंडी हैं, राजा विक्रम बोले।।
तो,मित्र ! क्या आप भी सूर्यदर्शन से भलीभाँति परिचित हैं, सुवर्ण ने विक्रम से पूछा।।
जी,हां! राजकुमार सुवर्ण,वो सूर्यदर्शन नहीं,क्षल-कपट की मूर्ति हैं, उसने ना जाने कितने लोगों के साथ क्षल किया हैं___
आप विस्तार से बताएं, सूर्यदर्शन के विषय मे,सुवर्ण ने कहा।।
हां,तो आप सभी सुने,सूर्यदर्शन के विषय मे और राजा विक्रम ने कहना प्रारम्भ किया___
मानसरोवर नदी के तट पर एक सुंदर राज्य था जिसका नाम बांधवगढ़ था,उस राज्य के वनों में वन्यजीवों की कोई भी अल्पता नहीं थीं, राज्य के वासियों को उन वन्यजीवों का आखेट निषेध था,नागरिक अपना भरण पोषण उचित प्रकार से कर सकें इसके लिए वहां के राजा मानसिंह ने उचित प्रबन्ध कर रखें थे,वैसे भी राज्य मे किसी भी प्रकार की कोई भी अल्पता नहीं थी,मानसरोवर नदी ही वहाँ की जीविका की मुख्य स्श्रोत थी,चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली थी।।
राजा सदैव नागरिकों की सहायता हेतु कुछ ना कुछ प्रयास करते रहते,उन्हें सदैव अपनी प्रजा अपनों प्राणों से भी प्रिय थीं,उनकी रानी विद्योत्तमा सदैव उनसे कहती की कि प्रजा के हित में उनका इतना चिंतन करना उचित नहीं हैं, इससें आपके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता हैं परन्तु महाराज कहते कि ये प्रजा तो मेरे पुत्र पुत्री समान हैं, भला इनके विषय मे चिंतन करने से मुझे क्या हो सकता हैं।।
ऐसे ही दिन ब्यतीत हो रहे थे,राजा के अब दो संतानें हो चुकी थीं,उन्होंने पुत्र का नाम विक्रम और पुत्री का ना संयोगिता रखा,उनकी दोनों संतानें अब यौवनावस्था मे पहुंच चुकीं थीं ।।
तभी राज्य में चारों ओर से वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं आने लगीं,राजा मानसिंह इन सूचनाओं से अत्यधिक ब्याकुल रहने लगे और उन्होंने इन सबके कारणों के विषय में अपनी प्रजा और राज्य के मंत्रियों से विचार विमर्श किया, परन्तु कोई भी मार्ग ना सूझ सका और ना ही किसी को कोई कारण समझ मे आया,ना गुप्तचर ही कोई कारण सामने ला पाए।।
तब राजा मानसिंह ने निर्णय लिया कि वो ही वन में वेष बदलकर रहेंगे और कारणों को जानने का प्रयास करेंगे,राजा मानसिंह ने कुछ सैनिको के साथ वन की ओर प्रस्थान किया और आदिवासियों का रूप धरकर वन मे रहने लगें,इसी तरह कुछ दिन ब्यतीत हो गए परन्तु कोई भी कारण सामने ना आ सका,अब राजा और भी गहरी सोंच मे डूबे रहते।।अन्ततः एक रात्रि उन्होंने कुछ अनुभव किया कि कोई आकृति वायु में उड़ते हुए आई और एक वन्यजीव पर कुल्हाड़ी से प्रहार किया,मृत पशु की त्वचा को शरीर से निकाला और पुनः वायु मे उड़ चला,मानसिंह ने अपने भाले से उस पर प्रहार किया, जिससे वो भयभीत हो गया और उसनें अपनी गति बढ़ा थी और वायु में अदृश्य हो गया, राजा उसके पीछे पीछे भागने लगे क्योंकि उस मृत पशु की त्वचा अदृश्य नहीं हुई थी और इस बार मानसिंह ने अपने बाण का उपयोग किया जिससे वो अदृश्य आकृति मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी,मानसिंह भागकर उस स्थान पर गए,तब तक वो आकृति अपना रूप ले चुकी थी, राजा ने शीघ्र अपने सैनिकों को पुकारा और उसे बंदी बनाने को कहा___
उसे बंदी बनाने के उपरांत मानसिंह ने उससे उसका परिचय पूछा___
कौन हो तुम? और यहां क्या करने आए थे,ऊंचे स्वर मे मानसिंह ने पूछा।।
मैं हूं दृष्टिबंधक (जादूगर)शंखनाद, मैं यहाँ वन्यजीवों का आखेट करने आया था और राजन तुम मुझे अधिक समय तक बंदी बनाकर नहीं रख पाओगे, अभी मेरी शक्तियों से तुम परिचित नहीं हो,एक बार मेरी दृष्टि जिस पर पड़ गई,इसके उपरांत उस पर किसी का भी अधिकार नहीं रहता और अब ये वन मेरा हैं इस पर मेरा अधिकार हैं,शंखनाद बोला।।
और कुछ समय उपरांत शंखनाद पुनः अदृश्य आकृति मे परिवर्तित होकर वायु में अदृश्य हो गया,मानसिह और उनके सैनिकों ने चहुँ ओर अपनी दृष्टि डाली परन्तु वो कहीं भी नहीं दिखा।।
परन्तु उस रात्रि के उपरांत वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं नहीं आईं,अब राजा मानसिंह भी निश्चिन्त हो गए थे कि कदाचित् शंखनाद के भीतर भय ब्याप्त हो गया हैं,इसलिए वन्यजीवों का आखेट करना उसने छोड़ दिया हैं।।
परन्तु यहीं राजा मानसिंह से भूल हो गई और वे पुनः राजपाट मे ब्यस्त हो गए,इसी बीच एक दिन राजकुमारी संयोगिता के लिए अमरेन्द्रनगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के विवाह सम्बन्ध का प्रस्ताव आया,राजा मानसिंह सहमत भी हो गए, परन्तु राजकुमार विक्रम बोले___
पिता श्री,मैं पहले अपने संदेह दूर कर लूं, इसके उपरांत आप विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करें,मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी और राजा मानसिंह ने अपनी सहमति विक्रम को दे दी।।
विक्रम वेष बदलकर अमरेंद्र नगर पहुंचा,वहां वो कुछ दिनों तक अपनी पहचान छिपाकर रहा,उसने पता किया कि सूर्य दर्शन एक कपटी व्यक्ति हैं, वो अपने पिता सत्यजीत को बंदी बनाकर स्वयं राजा बन बैठा और अब कुछ समय से शंखनाद से मित्रता कर ली हैं और उसने धूर्तता की सारी सीमाएं लांघ लीं हैं,उसका चरित्र भी गिरा हुआ हैं, दिन रात्रि मद मे डूबा रहता हैं, विक्रम समय रहते जानकारी ज्ञात कर सारी सूचनाएं लेकर महाराज मानसिंह के समीप पहुंचे।।
ये सब सुनकर मानसिंह अत्यधिक क्रोधित हुए,उन्होंने सूर्यदर्शन के विवाह प्रस्ताव को सहमति नहीं दी और इस कारण सूर्यदर्शन को अपने अपमान का अनुभव किया और उसने राजा मानसिंह से प्रतिशोध लेने की सोचीं।।
और एक रात्रि सूर्यदर्शन, शंखनाद के संग महाराज मानसिंह के राज्य बांधवगढ़ पहुंचा,शंखनाद ने बांधवगढ़ की प्रजा के घरों में अग्नि लगाना प्रारम्भ कर दिया, सारा राज्य अग्नि के काल में समाने लगा, प्रजा त्राहि त्राहि कर उठीं, अपने महल के छज्जे से प्रजा की ऐसी दशा देखकर राजा मानसिंह बिलख पड़े।।
उसी समय महल से बाहर आए,परन्तु उसी समय शंखनाद ने अपने अदृश्य रूप में उनका वध कर दिया,रानी बिलखती हुई राजन..राजन करते हुए उनके समीप आईं तब रानी पर प्रहार कर राजकुमारी संयोगिता को अपने साथ उठा ले गया।।
तब मैं राजकुमार विक्रम अपनी बहन संयोगिता की खोज में ना जाने कितने दिनों तक भटकता रहा, मुझे ये ज्ञात हुआ कि शंखनाद और सूर्यदर्शन ने ये षणयंत्र रचा था और शंखनाद ने संयोगिता को ले जाकर बांधवगढ़ की सीमा पर छोड़ दिया था और उसे वहां से शंखनाद के जादू से बने राक्षस ने तलघर में बंदी बना लिया हैं, मैं उस तलघर के अत्यंत समीप पहुंच गया तभी उसी समय मुझ पर किसी ने प्रहार किया और मैं मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा,इसके उपरांत आप सब मिले,उसके आगें की कथा तो आप सबको ज्ञात हैं।।
 
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भाग(१७)

इसका तात्पर्य है कि शंखनाद ने सबके जीवन को हानि पहुंचाई हैं,अब हम सबके प्रतिशोध लेने का समय आ गया है, शंखनाद और चित्रलेखा ने बहुत पाप कर लिए,अब उनके जीवन से मुक्ति लेने का समय आ गया है, अघोरनाथ जी क्रोधित होकर बोले।।
हां, बाबा! इतना पाप करके,इतने लोगों की हत्या करके अब तक कैसे जीवित है वो,बकबक ने कहा।।,
हां..बकबक,मैं भी यही सोच रहा था,सुवर्ण बोला।।
परन्तु, क्या हो सकता हैं अब,किसी के मस्तिष्क मे कोई विचार या कोई उपाय हैं,हम केवल सात लोंग हैं और शंखनाद इतना शक्तिशाली, हम किस प्रकार उसे पराजित कर सकते हैं, उसके साथ चित्रलेखा और सूर्यदर्शन भी हैं,हमें तो ये भी अभी ज्ञात नहीं कि सच मे चित्रलेखा के प्राण उस गिरगिट में हैं जो उसने अपने उस घर में छिपा रखा हैं, मानिक चंद बहुत ही अधीर होकर बोला ।।
आप!सत्य कह रहे हैं,मानिक चंद! इस समस्या का कोई भी समाधान नहीं सूझ रहा हैं, सुवर्ण ने कहा।।
अब जो भी हो परन्तु अभी तो सूर्य अस्त हो चुका हैं और रात्रि होने वाली हैं, रात्रि भर के विश्राम के लिए कोई उचित स्थान खोजकर विश्राम करते हैं, प्रातःकाल उठकर विचार करेंगे कि आगें क्या करना हैं?राजकुमार विक्रम बोले।।
सब उचित स्थान खोजकर विश्राम करने लगे,आज अमावस्या की रात्रि थी इसलिए चन्द्र का प्रकाश मद्धम था,घना वन जहाँ केवल साँय साँय का स्वर ही सुनाई दे रहा था,यदाकदा किसी पंक्षी,झींगुर का स्वर सुनाई दे जाता और झरने के गिरते हुए जल का स्वर कुछ उच्च स्वर से गिर रहा था,रात्रि का दूसरा पहर ब्यतीत हो चुका था,बकबक पहरा दे रहा था।।
एकाएक उसे पत्तों की सरसराहट का स्वर सुनाई दिया, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे कोई रेंग रहा हैं, बकबक को भय का अनुभव हुआ, परन्तु कुछ समय पश्चात वो स्वर सुनाई देना बंद हो गया,बकबक ने सोचा होगा कोई वनीय जीव और वो पुनः निश्चिंत होकर पहरा देने लगा।।
तभी बकबक को अपने पैरों पर किसी वस्तु का अनुभव हुआ, वो कुछ सोंच पाता उससे पहले ही वो वृक्ष से उल्टा लटक चुका था और अब उसने बचाओं... बचाओ... का स्वर लगाना शुरू किया, उसका स्वर सुनकर सभी जागे और बकबक को छुड़ाने का प्रयास करने लगे,परन्तु तब तक वो सब भी वृक्षों के तनों से बांधे जा चुके थे, अंधकार होने से कुछ ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा था,सब दुविधा मे थे कि ये सब क्या हो रहा हैं।।
तभी मानिक चंद क्रोधित होकर बोला__
मैंने कहा था ना बाबा ! कि शंखनाद अवश्य कुछ ऐसा करेगा कि हम सब विवश हो जाए और हमसे जीतने के लिए फिर उसने अपनी शक्तियां भेंजी हैं, जिससे हम अपने उद्देश्य मे सफल ना हो सकें, जिससे वो हमारी विवशता का लाभ उठाकर हमारी हत्या कर सकें।।
हो सकता हैं कि ये शंखनाद का नहीं ,किसी और का कार्य हो,अघोरनाथ जी बोले।।एक संकट समाप्त नही होता कि दूसरा संकट आकर खड़ा हो जाता हैं, पता नहीं कौन सी अशुभ घड़ी थी जो मै इस द्वीप पर आया, मानिक चंद पुनः क्रोध से बोला।।
तभी एक प्रकाश सा हुआ और एक छोटा नर पिशाच प्रकट हुआ और सबके समक्ष आ खड़ा हुआ, जिसकी त्वचा लसलसी थी,जिसके कान का आकार बहुत बड़ा था ,नाक चपटी,हाथ पैर छोटे छोटे और पेट मटके के समान था,सबके समक्ष आकर उसने पूछा।।आप सब अभी किसके विषय में कह रहें थे___
तुम हो कौन?ये पूछने वाले,मानिकचंद गुस्से से बोला।।
कृपया,आप बताएं, कहीं आप दृष्टि बंधक(जादूगर) शंखनाद के विषय मे वार्तालाप तो नहीं कर रहें थे।।
परन्तु तुम कैसे जानते हो?शंखनाद को,सुवर्ण ने पूछा॥
क्योंकि शंखनाद हमारा भी शत्रु हैं, उस नर पिशाच ने कहा।।
परन्तु ,पहले ये बताओं कि तुम हो कौन?राजकुमार विक्रम ने पूछा।।
मैं इस स्थान के नरपिशाचों का राजा घगअनंग हूँ, मैं तो केवल अपना कर्तव्य कर रहा था,अपनी प्रजा की रक्षा करना मेरा धर्म हैं और मै तो केवल अपना धर्म निभा रहा था,आप सब को मेरे कारण इतना कष्ट उठाना पड़ा,उसके लिए मैं आप सबका क्षमाप्रार्थी हूं, घगअनंग बोला।।
यद्पि आपका परिचय पूर्ण हो गया हो महाशय तो कृपया, मुझ बंधक पर भी अपनी कृपादृष्टि डालें, कब तक ऐसे उल्टा लटका कर रखेगें मुझे, बकबक बोला।।
बकबक की बात सुनकर सब हंसने लगे।।
क्षमा करें, मान्यवर,मै तो भूल ही गया लीजिए अभी आप मुक्त हुए जाते। है, राजा घगअनंग बोले।।और घगअनंग ने अपनी ताली बजाई और बहुत सी नर पिशाच सेना उपस्थित हो गई, राजा घगअनंग ने आदेश दिया कि सभी को मुक्त कर दिया जाए और सभी सैनिकों ने राजा घगअनंग के आदेश का पालन किया।।
सबके मुक्त हो जाने पर राजा घगअनंग ने अघोरनाथ जी से कहा___
कहिए, महाशय मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूं?
बस,इतनी सी कि अगर शंखनाद के विषय में अगर आपको कोई जानकारी हो तो हमें दीजिए, जिससे हम सब का प्रतिशोध सरल हो जाए,अघोरनाथ जी ने घगअनंग से कहा।।
जी,अवश्य, किन्तु पहले आप सब हमारें निवास स्थान चलकर कुछ स्वल्पाहार करें, आप सबका स्वागत करने मे मुझे अत्यंत खुश मिलेंगी,घनअनंग बोले।।
आप इतना आग्रह कर ही रहें तो चलिए, आपके निवास स्थान चलते हैं, अघोरनाथ जी बोले।।
ये सब देखकर मानिक चंद बोला।।
ये क्या बाबा, इन सब पर आपने विश्वास भी कर लिया, इन्होंने हमसे छल किया तो ,पुनः बंदी बना लिया तो,मानिक चंद मन मे संदेह लाते हुए बोला।।
सालों हो गए, मानवों को देखते हुए, कपटी और सज्जन मे अन्तर कर सकता हूँ, मानिक बेटा,ये केश सूर्य के प्रकाश में श्वेत नहीं हुए हैं,अघोर नाथ जी ने मानिक चंद से कहा।।
और अघोरनाथ जी सभी के साथ घगअनंग के निवास स्थान की ओर चल दिएअभी रात्रि बीती नहीं थीं,मार्ग बहुत ही अंधकारमय था,तभी बकबक ने अपना प्रकाश वाला पत्थर निकाला, जिससे मार्ग मे प्रकाश फैल गया, सभी घगअनंग के निवास स्थान पहुंचे।।
बहुत ही सुंदर स्थान था,विशाल विशाल वृक्षों के तनों में छोटे छोटे घर स्थित थे,जो प्रकाश से जगमगा रहें थें, उनकी छटा ही निराली थी,उनकी शोभा देखते ही बन रही थी,जो एक बार देखें मोहित हो जाए।।सभी उस स्थान की निराली छटा देखकर मोहित हो उठे,बारी बारी से महिला नर पिशाचिनी आईं और सबका स्वागत किया, जो भी उनके पास खाने योग्य आहार था,उन्होंने उपस्थित किया, घगअनंग की प्रजा बहुत प्रसन्न थी,बहुत समय पश्चात उनके निवास स्थान पर अतिथि आएं थे,कुछ संगीत और नृत्य के भी कार्यक्रम भी किए गए, बहुत दिनों पश्चात् सारन्धा के मुख पर हंसी देखकर विक्रम भी प्रसन्न था।।
विक्रम बस सारन्धा को ही निहारे जा रहा था,उसकी दृष्टि केवल सारन्धा की ओर थी,उसकी ऐसी अवस्था देखकर, सुवर्ण ने विक्रम को छेड़ते हुए कहा___
और मित्र!आनंद आ रहा ना।।
और विक्रम ने हल्की हंसते हुए, दूसरी ओर मुख फेरते हुए सुवर्ण से कहा___
मित्र! आप भी,कैसी बातें कर रहें हैं?
हां...हांं..मित्र, ये प्रेम होता ही कुछ ऐसा हैं,आप कितना भी छुपाएं, सबको आपकी दृष्टि से ज्ञात हो ही जाता हैं, सुवर्ण ने विक्रम से कहा।।
सच,मित्र! मै सारन्धा से प्रेम करने लगा हूँ किन्तु उनकी ऐसी अवस्था देखकर अपने हृदय की बात कहना अच्छा नहीं लगा,विक्रम ने अपने हृदय की बात सुवर्ण को सुनाते हुए कहा।।
कोई बात नहीं मित्र! अभी राजकुमारी सारन्धा की मनोदशा स्थिर नहीं हैं, बहुत बड़ा आघात पहुंचा हैं उन्हें, समय रहतें, वो अवश्य ही आपके निश्छल प्रेम को समझने का प्रयास करेंगी, आप अकारण ही चिंतित ना हो,सुवर्ण ने विक्रम को सांत्वना देते हुए कहा।।
हांं,अवश्य ही ऐसा होगा, मुझे अपने प्रेम पर विश्वास हैं, विक्रम ने सुवर्ण से कहा।।
 
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भाग(१८)

घगअनंग जी के निवास स्थान पर सभी रात्रि को विश्राम करने लगें, तब घग अनंग जी बोले_____
मैं अब आप सब को शंखनाद के सभी रहस्यों से अवगत करवाता हूँ!!
जी,हम सब यही ज्ञात करना चाहते थे,आपका बहुत बहुत आभार रहेगा हम सब पर क्योंकि वनदेवी शाकंभरी की स्थिति बहुत ही दयनीय थी,जितने शीघ्र हमें शंखनाद के रहस्य ज्ञात होगें, उतने ही शीघ्रता से हम उनकी सहायता कर पाएंगे एवं हम जितने भी सदस्य हैं उनमें से सभी को शंखनाद ने कष्ट पहुँचाया हैं,अघोरनाथ जी बोले।।
जी,अब उस शंखनाद की मृत्यु निश्चित हैं, जो रहस्य मुझे ज्ञात हैं,मैं आपको बता देता हूँ और कुछ रहस्य आपको हमारा गुप्तचर उड़नछू बताएगा, तभी ज्ञात हो सकेगा कि उसे शंखनाद के किन किन रहस्यों के विषय में ज्ञात हैं,घगअनंग जी बोले।।
जी,कुछ तो मुझे भी ज्ञात हैं क्योंकि मै चित्रलेखा के निवास स्थान पर रह चुका हूँ, परन्तु आश्चर्य की बात है कि उसने मुझे कोई भी हानि नहीं पहुँचाई,मानिक चंद बोला।।
किन्तु, आप वहां रहकर क्या क्या ज्ञात कर पाएं, घगअनंग जी ने पूछा।।
यहीं कि चित्रलेखा के प्राण किसी बक्से मे गिरगिट के रूप में बंद हैं और वो बक्सा उसने तलघर मे कहीं छिपा रखा हैं और ये तो सबको ज्ञात हैं कि शंखनाद मानवों के हृदय से बना एक तरल पदार्थ बनाता हैं जिसे पीकर मृत्यु उसके निकट नहीं आती और सुंदर कन्याओं की त्वचा से बना एक प्रकार का पदार्थ बनाता हैं जो वो अपनी त्वचा पर लगाता हैं जिससे वो वृद्धावस्था मे नहीं पहुंच रहा हैं,मानिक चंद बोला।।
परन्तु ये अभी तक किसी को ज्ञात नहीं है कि शंखनाद के प्राणों को उसने किस स्थान और किसके भीतर सुरक्षित कर रखा हैं? घगअनंग जी बोले।।
ये तो सत्य हैं, परन्तु ज्ञात कैसे किया जाए? अघोरनाथ जी बोले।।
मै अभी अपने गुप्तचर उड़नछू को किसी सैनिक द्वारा बुलवाता हूँ, वो सच्चाई बता सकता हैं, अपने निवास स्थान मे विश्राम कर रहा होगा, घगअनंग जी बोले।।
और घगअनंग जी ने अपने एक सैनिक को भेजकर उड़नछू को बुलवा भेजा, उड़नछू बहुत ही गहरी निद्रा मे था और उसे अभी भी निद्रा ने घेर रखा था,घगअनंग जी के आदेश पर उसे विवशता वश आना पड़ा,उसनें सर्वप्रथम घगअनंग जी को प्रणाम किया और शीघ्र बुलवाने का कारण पूछा___
लगता हैं, उड़नछू,अभी निद्रा रानी ने तुम्हें घेर रखा हैं, घगअनंग जी ने पूछा।।
हां,महाराज! अभी मेरा विश्राम पूर्ण ही कहाँ हुआ हैं, इतने दिनों के उपरांत लौटा था कि कुछ क्षण विश्राम करूँगा, परन्तु आपने विश्राम ही कहाँ करने दिया,उड़नछू ने घगअनंग जी से कहा।।
इन सबके के लिए अब एक पल का भी बिलम्ब करना उचित नहीं हैं,उधर वनदेवी शाकंभरी संकट में हैं, कदाचित् तुम इन्हें शंखनाद के सभी रहस्य बता दो तो प्रातःकाल ही शाकंभरी की सहायता हेतु निकल पड़ेगे, घगअनंग जी ने उड़नछू से कहा।।
जी महाराज, शंखनाद बहुत ही धूर्त और पाखंडी हैं,ये तो मुझे भी ज्ञात हो चुका हैं कि वनदेवी शाकंभरी के जादुई पंखो को शंखनाद ने एक विशाल बरगद के वृक्ष के तने मे एक बक्से के भीतर छुपा रखा हैं और उस वृक्ष को जादुई बाधाओं द्वारा बांध रखा हैं,उस बांधा को तो कोई जादूगर ही तोड़ सकता हैं, उड़नछू बोला।।
थोड़ा बहुत जादू तो मुझे भी आता हैं, मैं भी कुछ दिन रहा था शंखनाद के साथ,तभी सीखा हैं लेकिन शंखनाद जितना श्रेष्ठ नहीं हूँ, राजकुमार सुवर्ण बोला।।
परन्तु उसने अपने प्राणों को किस स्थान और किसके अंदर छुपा रखा हैं, बकबक ने पूछा।।
तो सुनिए, जहाँ उसका निवास स्थान हैं, वहाँ एक जलाशय हैं, उस जलाशय के बीचोंबीच एक स्त्री की मूर्ति हैं और उस स्त्री के हाथों में एक पत्थर का उल्लू हैं उस उल्लू के भीतर ही शंखनाद के प्राण हैं, उड़नछू बोला।।
तो ये तो बहुत ही सरल हुआ,जो अच्छा तैराक होगा वो इस कार्य मे सफल होगा, राजकुमार विक्रम बोला।।
इतना भी सरल नहीं हैं, उस जलाशय में ना जाने कितने प्रकार की बाधाएं डाल रखीं हैं शंखनाद, जादू और तंत्र विद्या दोनों प्रयोग किया गया हैं इस कार्य में,उड़नछू बोला।।
तंत्र विद्या मे तो बाबा जैसा कोई नहीं और थोड़ा बहुत जादू तो मैं कर ही लूँगा परन्तु फिर भी शंखनाद से जीतने के लिए, इतनी शक्तियां और कहाँ से आएंगी,राजकुमार सुवर्ण बोला।।
एक उपाय और हैं,उड़नछू बोला।।
वो क्या? बकबक ने पूछा।।वो ये कि जलाशय के निकट ही शंखनाद के माता पिता की समाधियां बनी हैं और शंखनाद कभी भी उन्हें नहीं छूता, क्योंकि शंखनाद के माता पिता बहुत ही सात्विक विचारों के थे,उन्हें शंखनाद के ये सब कार्य पसंद नहीं थे इसलिए,वो उन समाधियों को नहीं छू सकता और अगर कभी भूलवश छू लिया तो भस्म हो जाएगा, उड़नछू बोला।।
ये तो बहुत अच्छी बात बताई,अघोरनाथ जी बोले।।
हां,बस मुझे इतना ही ज्ञात है महाराज, अब मैं विश्राम करने जाऊँ और मैं सोच रहा था कि मैं भी इनके साथ चला ही जाता हूँ, मेरे इन सब के साथ जाने से इनका कार्य थोड़ा सरल हो जाएगा, उड़नछू बोला।।
हां..हां. क्यों नहीं, उड़नछू, तुमने तो मेरे मन की बात कह दी,घगअनंग जी बोले।।
तो फिर सब अब विश्राम करते हैं,कल बहुत मेहनत करनीं हैं,मानिक चंद बोला।।
और सब विश्राम करने लगें, प्रातःकाल पंक्षियों के कलरव से सब जाग उठे और स्नान ध्यान करके गंन्तव्य की ओर निकल पड़े।।
उड़नछू बोला, बाबा! क्या हम छोटे मार्ग से चलें जिससे हम शीघ्रता से शाकंभरी वनदेवी के पास पहुंच सकते हैं।।
जैसा तुम्हें उचित लगें, उड़नछू, हम सब को तो वहीं बड़ा मार्ग ज्ञात हैं जहां से हम आए थें।।
परन्तु उस मार्ग में दो बाधाएँ हैं, उड़नछू बोला।।
वो क्या हैं?बकबक ने पूछा।।
रास्ते में एक जादुई बोलने वाला वृक्ष मिलेगा जिसके आंखें भी हैं और मुंह भी और वो हमसे पूछेगा कि कहाँ जाना हैं? तो हम सब को एक साथ उत्तर देना हैं कि शाकंभरी के पास नहीं जाना और कहीं भी चले जाएंगें, उड़नछू बोला।।
ये कैसा उत्तर हुआ भला! नीलकमल ने पूछा।।
क्योंकि वो वृक्ष हम से कहेगा, नहीं तुम्हें तो शाकंभरी के पास ही जाना होगा और अपनी शाखा से एक एक पत्ते हम सब को देंगा जिसे हमें आगें मिलने वाली चुडै़ल को देने हैं, वो उन जादुई पत्तो का उपयोग अपना जादुई काढ़ा बनाने में करती है, जिससे वो खुश हो जाएगी और हमेँ आगे जाने देगीं, उड़न छू बोला।।
अच्छा तो ये बात हैं, बकबक बोला।।
और सब आगे बढ़ चलें,चलते चलते उन्हें वहीं चेहरे वाला वृक्ष मिला।।
उस पेड़ ने कहा,ठहरो!!
तब उड़नछू ने अभिनय करते हुए कहा,कौन..कौन हैं वहाँ?
मैं...मैं हूँ यहाँ.. उस वृक्ष ने उत्तर दिया।।
मैं कौन? उड़नछू ने पुनः पूछा।।
मै जादुई वृक्ष,कहाँ जा रहे हो तुम लोग,?उस वृक्ष ने पूछा।।
हम लोग शाकंभरी वनदेवी से मिलने नहीं जाना चाहते,सबने एक साथ उत्तर दिया।।
लेकिन तुम लोगों को जाना पड़ेगा,ये मेरी आज्ञा हैं और ये रहेंं, मेरी शाखाओं के पत्ते,उस मार्ग पर तुम्हें एक चुडै़ल मिलेगी, ये पत्ते उसी को दे देना,उस वृक्ष ने कहा।।
सबने एक एक पत्ता उठा लिया और जादुई वृक्ष को धन्यवाद देकर आगें बढ़ चले।।
आगे जाकर मार्ग में उन्हें वहीं चुड़ैल काढ़ा बनाते हुए दिखी।।
उसने भी पूछा, तुम सब कहाँ जा रहे हो।।
उड़नछू ने कहा,हम वनदेवी शाकंभरी के पास जा रहे हैं,हमें कृपया जाने दे।।
ठीक है जाओ,मैने कब रोका हैं, बस तुम लोग मुझे वो पत्ते देदो,जो तुम्हें जादुई वृक्ष ने दिए हैं।।
सबने अपने अपने पत्ते उस चुडै़ल को दे दिए,चुडै़ल बहुत प्रसन्न हुई और सबको जाने दिया।।
कुछ समय तक उस मार्ग पर चलने के पश्चात् वो सब शाकंभरी वनदेवी के समीप पहुंच गए, शाकंभरी ने जैसे ही बकबक को देखा अत्यधिक प्रसन्न हुई।।
अच्छा नहीं किया आपने,शाकंभरी, आप इतने कष्ट में थीं और मुझे सूचित भी नहीं किया, बकबक ने शाकंभरी से शिकायत करते हुए कहा।।
मेरे निकट कोई भी नहीं था जिससे मैं तुम तक सूचना पहुंचा कर सहायता मांग लेतीं, ये सब आए इन्होंने मेरी ब्यथा सुनी,तब मैने इन्हें सब बताया।।
तो ये लो उड़ने वाले घोड़े का ताबीज इसे इसी क्षण पहन लो और तुम कहो तो आज रात्रि मे ही शंखनाद पर आक्रमण कर देते हैं, बकबक ने कहा।।
परन्तु क्या रात्रि का समय आक्रमण के लिए उचित रहेगा? राजकुमार विक्रम ने पूछा।।
हां..हां क्यों नहीं, अघोरनाथ जी बोल।।
परन्तु, अभी आप लोग बहुत थक चुके हैं, कुछ क्षण विश्राम करें,अर्धरात्रि के समय हम ये कार्य प्रारम्भ करेगें, शाकंभरी वनदेवी बोली।।
 
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भाग(१९)

शाकंभरी की बात सुनकर सब विश्राम करने लगें और अर्धरात्रि के समय सब जाग उठे,जिससे जो बन पड़ा वैसे अस्त्र शस्त्र लेकर शंखनाद से प्रतिशोध लेने निकल पड़े,वनदेवी शाकंभरी उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो गई अब उसने अपने लबादे को हटा दिया था,लबादा हटाते ही उसके शरीर से आते हुए प्रकाश ने सारे वन को जगमगा दिया।।
तभी अघोरनाथ जी बोले,पहले हम ये तो तय करें कि कौन कौन कहाँ कहाँ प्रवेश करेगा, इसके लिए हमे एक रणनीति बनानी होगी,मैं सोच रहा हूँ कि सर्वप्रथम हमें चित्रलेखा के निवास स्थान जाकर चित्र लेखा को समाप्त करना चाहिए, इसके लिए वहाँ राजकुमार सुवर्ण, वो इसलिए कि उन्हें जादू आता है, उनके साथ राजकुमार विक्रम क्योंकि वे बहादुर हैं और राजकुमारी सारन्धा जाएंगी।।
परन्तु ये सब वहाँ पहुंचेगे कैसे, बकबक ने पूछा।।
तभी शाकंभरी वनदेवी बोली, ये सब जाएंगें इस उड़ने वाले घोड़े से।।
हां! यही उचित रहेगा,बाबा अघोरनाथ जी बोले।।
तभी नीलकमल बोली,बाबा! मुझे भी जाने दीजिए।।
नहीं, पुत्री! नीलकमल, चित्रलेखा तुमसे भलीभाँति परिचित है और सुवर्ण का जाना इसलिए आवश्यक हैं कि उसे जादू आता हैं,अघोरनाथ जी बोले।।
और मै बाबा, मानिक चंद बोला।।
सब का अपना अपना कार्य होगा,तनिक सब धैर्य रखें, बाबा अघोरनाथ बोले।।
सुवर्ण, विक्रम और सारन्धा, अर्धरात्रि को ही उसी समय चित्रलेखा के निवास स्थान की ओर चल पड़े।।
घोड़ा तेज रफ्तार मे बादलों में उड़ता चला जा रहा था,सुवर्ण सबसे आगे,विक्रम और सारन्धा प्रतिशोध की ज्वाला आंखों मे भरे आगे बढ़ रहेंं थे,कुछ समय पश्चात् वो सब चित्रलेखा के निवास स्थान पहुँच गए, वो चित्रलेखा के निवास स्थान से उचित दूरी पर उड़ने वाले घोड़े के साथ उतरे।।





छिपते छिपाते वे सब वृक्षों की ओट और झाड़ियों से होते हुए,चुपके चुपके उसके निवास पर पहुंच गए, सुवर्ण ने अपने जादू से द्वार खोले,वे सब भीतर घुसे,अंदर बहुत ही अंधेरा था और चित्रलेखा कहीं भी नजर नहीं आ रही थीं, सबने चित्रलेखा को ढ़ूढ़ना शुरु किया।।

उन्होंने हर स्थान पर खोजने का प्रयास किया,किन्तु चित्रलेखा कहीं पर नहीं मिली,तभी उन्हें एक गुप्त द्वार दिखा,उन्होंने देखा कि वहाँ से नीचे जाने के लिए सीढियां हैं ,वे सब सावधानी के साथ नीचे उतरने लगे,उन्होंने जाकर देखा कि चित्रलेखा कुछ जादू करके तरल पदार्थ बना रही हैं और उसने उस बड़े से गिरगिट को अपने कंधे पर बैठा रखा था जिसमें उसके प्राण सुरक्षित थे,वो अपने कार्य मे इतनी बेसुध थी कि उसे उन सब के आने का क्षण भर भी संदेह ना हुआ और इसी समय का उन सबने लाभ उठाया।।सबसे पहले सारन्धा ने चित्र लेखा पर जोर का वार किया, जिससें चित्रलेखा भूमि पर जा गिरी,विक्रम ने शीघ्रता से चित्रलेखा की जादुई किताब को अग्नि के सुपुर्द कर दिया, जिसे देखकर चित्रलेखा क्रोध से जल उठी,उसने नहीं.... के स्वर के साथ अपना एक जादुई वार किया, तब तक सारन्धा विक्रम और चित्रलेखा के मध्य आ चुकी थी,चित्रलेखा के इस वार से सारन्धा घायल हो कर धरती पर गिर पड़ी,तब तक सुवर्ण ने चित्रलेखा के जादुई पदार्थ से भरे हुए मटके को धरती पर उड़ेलकर मटके को फोड़ दिया, ये सब देखकर चित्रलेखा का क्रोध साँतवें आसमान पर पहुंच गया,अब वो ये सब सहन नहीं कर सकती थी,उसनें अपने जादुई शक्तियों का सहारा लेकर सुवर्ण पर वार किया, परन्तु सुवर्ण ने अपने जादू को इस कार्य में लाना प्रारम्भ कर दिया और विक्रम ने अपनी तलवार सम्भाल ली,चित्रलेखा ने अपने गिरगिट को (वातायन) खिड़की से बाहर भेजने का प्रयास किया परन्तु विक्रम ने अपनी तलवार से गिरगिट के दो टुकड़े कर डाले और तब तक टुकड़े करता रहा,जब तक की गिरगिट सूक्ष्म टुकड़ों मे ना विभाजित हो गया।।अब चित्रलेखा क्रोध से अपना संतुलन खो बैठी,उसने फिर जादुई शक्ति का वार किया, किन्तु इस बार सुवर्ण ने अपनी सारी शक्ति लगाकर ऐसा वार किया कि चित्रलेखा भस्म हो गई,सुवर्ण ने शीघ्रता से वहीं उपस्थिति अग्नि मे जिसमे चित्रलेखा अपना जादुई पदार्थ बना रही थीं,उसी अग्नि मे गिरगिट के रक्त से लथपथ टुकड़ों को डाल दिया, अब चित्रलेखा की जीवनलीला समाप्त हो चुकी थीं, परन्तु इन सब मे सारन्धा मूर्छित हो चुकी थीं।।
विक्रम ने सारन्धा को उठाने की कोशिश की परन्तु वह नहीं उठी,तब विक्रम ने अपनी तलवार सम्भाली और सुवर्ण से कहा___
मित्र! लगता हैं राजकुमारी सारन्धा की अवस्था अच्छी नहीं हैं, लगता हैं इन्हें गम्भीर क्षति पहुंची हैं, इन्हें तो बाबा ही स्वस्थ कर पाएंगे और चित्रलेखा तो इस संसार से जा चुकी हैं, अब ये शुभ सूचना हमें उन सबको भी देनी चाहिए,कदाचित् यहाँ अब अत्यधिक ठहरना हमारे प्राणों के लिए उचित ना होगा।।
हां ,मित्र! यही उचित रहेगा, आप राजकुमारी सारन्धा को गोद मे उठाइए,हम शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान करते हैं, राजकुमारी सारन्धा भी मूर्छित हैं, इनका उपचार बाबा ही कर पाएंगे, राजकुमार सुवर्ण बोला।।
और सब बाहर आकर उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो कर चल दिए,कुछ समय पश्चात् वो सब शाकंभरी के पास पहुंचे और ये शुभ सूचना सुनाई।।
ये सूचना सुनकर, अघोरनाथ जी को बहुत कष्ट हुआ और कष्ट क्यों ना होगा, चित्रलेखा उनकी बेटी जो थीं, उनकी आंखों से दो बूंद आंसू भी ढ़ुलक पड़े,उनकी ऐसी अवस्था देखकर नीलकमल उनके निकट आकर बोली___
दुखी मत हों बाबा!आपने कहा था ना कि मैं भी आपकी ही पुत्री हूँ, बहुत विशाल हृदय हैं आपका जो आपने इतना बड़ा त्याग किया।।
हां,पुत्री! तुम और सारन्धा भी तो मेरी पुत्री हो,बाबा अघोरनाथ बोले।।
परन्तु बाबा! सारन्धा के प्राण इस समय संकट मे हैं, चित्रलेखा का जादुई वार उसने मेरे प्राण बचाने के लिए अपने ऊपर ले लिया, विक्रम ये कहते कहते रो पड़ा।।
तब सुवर्ण ने विक्रम को दिलासा देते हुए कहा,धैर्य रखो मित्र! राजकुमारी सारन्धा को कुछ नहीं होगा,
आशा तो यहीं हैं कि राजकुमारी को कुछ ना हो,राजकुमार विक्रम बोले।।
 
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अंतिम भाग)

राजकुमारी सारन्धा की अवस्था बहुत ही गम्भीर थी और सारन्धा की अवस्था देखकर राजकुमार विक्रम बहुत ही विचलित थे,अघोरनाथ जी ने शीघ्रता से अपने अश्रु पोछे और विक्रम से बोले,राजकुमारी सारन्धा को शीघ्र ही धरती पर लिटा दो,विक्रम ने ऐसा ही किया,बाबा अघोरनाथ ने एक घेरा सा बनाकर उसमे अग्नि प्रज्वलित की और मंत्रों का जाप करने लगें, कुछ क्षण पश्चात् उनके मंत्रो का उच्चारण सारे वन में गूँजने लगा,
परन्तु तभी वहाँ सूर्यदर्शन आ पहुंचा, वो एक साधारण से घोड़े पर कुछ सैनिकों के साथ आया था,सूर्यदर्शन को देखकर विक्रम की आंखो में क्रोध की ज्वाला जलने लगी,उसे देखकर उसने कहा___

तू! कपटी,यहां क्यों आया हैं, विक्रम बोला।।
मुझे सूचना मिली की तुम लोगों ने चित्रलेखा की हत्या कर दी,वहीं संदेह दूर करने आया हूँ कि कौन हैं वो वीर जिन्होंने ये काम किया,इसकी सूचना मुझे शंखनाद ने दी,उसके गुप्तचर ने तुमलोगों को चित्रलेखा के निवास स्थान से निकलते हुए देख लिया था,सूर्यदर्शन मुस्कुराते हुए बोला।
दुष्ट, कपटी, पापी,तुझ जैसा मानव धरती पर भार हैं,विक्रम क्रोधित होकर बोला।।
मै ने सुना हैं कि राजकुमारी सारन्धा को चित्रलेखा के प्रहार ने अचेत कर दिया हैं,कदाचित् मुझे तनिक कष्ट हुआ,क्योंकि वो मेरी भूतपूर्व प्रेयसी रह चुकी, तनिक पीड़ा तो मेरे हृदय को भी पहुंची है,सूर्यदर्शन कुटिल हंसी हंसते हुए बोला।।
चुप रह धूर्त! तुझ जैसा पाषाण हृदय तो संसार मे भी ना होगा,जिसने अपने स्वार्थ के लिए अपने पिता को ही बंदी बना लिया,विक्रम क्रोधित होकर बोला।।
अरे,राजकुमार विक्रम इतना क्रोध मत कीजिए, कहीं आपके हृदय ने राजकुमारी सारन्धा को स्थान तो नहीं दे दिया,कदाचित् तुम भी उनसें प्रेम तो नहीं करने लगे,सूर्यदर्शन ने विक्रम से कहा।।
हे!मानवरूपी राक्षस,तनिक ईश्वर से डर,क्यों अपना सर्वनाश करने पर तुला हुआ हैं, विक्रम ने कहा।।
मै तो यहाँ केवल राजकुमारी सारन्धा के उपचार मे विघ्न डालने आया था,मैं नहीं चाहता कि वह पुनः जीवित हो,सूर्यदर्शन बोला।।
मेरे रहते हुए तो राजकुमारी का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा, इतना कहते ही राजकुमार विक्रम ने सूर्यदर्शन पर अपनी तलवार से प्रहार प्रारम्भ कर दिया और सूर्यदर्शन भी कहाँ पीछे हटने वाला था उसने भी अपनी तलवार से विक्रम पर प्रहार प्रारम्भ कर दिया था,विक्रम ने सारे सैनिकों को मृत्यु के घाट उतार दिया।।
अंधेरी भयावह रात्रि मे तलवारों का भययुक्त स्वर गूंज रहा था और उनसें निकलने वाली चिंगारियों से वातारण का अंधकार मिट जाता, दोनों अपनी तलवारें से प्रहार पर प्रहार किए जा रहे थें और उधर अघोरनाथ जी का मंत्रोच्चारण बिना किसी बांधा के निरन्तर होता रहा और सूर्यदर्शन अपने उद्देश्य मे सफल ना हो सका,कुछ समय उपरांत राजकुमारी सारन्धा सचेत हो उठी और सूर्यदर्शन को देखकर उसके हृदय की अग्नि प्रज्वलित हो उठी,वो शीघ्रता से उठी और बिजली की भांति उसने सुवर्ण की तलवार को उसके म्यान से खींचा और एक भी क्षण की प्रतीक्षा किए बिना ही उसने सूर्यदर्शन के सिर को उसके धड़ से अलग कर दिया और धरती पर घुटनों के बल बैठकर विलाप करने लगी।।तभी अघोरनाथ जी सारन्धा के निकट आकर बोले__
अब विलाप किस बात का पुत्री! तुम तो यही चाहती थीं और आज तुम्हारा प्रतिशोध पूर्ण हुआ।।
जी,बाबा!आज विलाप तो मैं अपने परिवार के लिए कर रहीं हूँ,मेरे पिताश्री की आत्मा को आज शांति मिली होगी,विलाप और इस पापी का,कतई नहीं, ये तो धूर्त कपटी था,संसार इसके भार से दबा जा रहा था और इसे मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ हैं इसलिए आज मैं प्रसन्न हूँ, राजकुमारी सारन्धा बोली।।
कदाचित् अब बिलंब किस बात का,अब हमे क्षण भर भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दो दुष्टो का नाश करने में ही अर्धरात्रि ब्यतीत हो चुकी हैं, बाबा अघोरनाथ बोले।।
हां,बाबा आपना कथन उचित हैं, शाकंभरी बोली।।
ऐसे करें वनदेवी आप,सारन्धा और नीलकमल घोड़े पर सवार हो जाएं, सुवर्ण बोला।।
नहीं, सुवर्ण, ये घोड़ा वनदेवी के लिए लाया गया हैं, वो ही इस पर सवार होगीं, क्या तुम अपने जादू से हम सबको वहाँ नहीं ले सकते,नीलकमल बोली।।
हां..हां अवश्य, ये तो मै कर सकता हूँ, सुवर्ण बोला।।
शाकंभरी घोड़े पर सवार हुई और सब वहां से अन्तर्ध्यान हो गए।।
सब शंखनाद के निवास जा पहुंचे और सबने अपना अपना स्थान ग्रहण कर लिया, जैसी रणनीति बनी थी उसी के अनुसार सबने अपना अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया।।
सर्प्रथम सभी विशाल से वृक्ष के निकट पहुंचे जहां शाकंभरी के पंख एक बक्से मे उसी विशाल वृक्ष के तने मे रखे थे,परन्तु जो उसके चारों बाधाएँ थी,उसे दूर किए बिना उस वृक्ष को कोई भी हाथ नहीं लगा सकता था।।
तब बाबा अघोरनाथ ने अपनी कमर मे बंधी हुई छोटी सी पोटली निकाली और उसमे से विभूति निकाली और उन्होंने उस विशाल वृक्ष के चारो ओर बिखेर दी,तब बकबक ने पूछा बाबा ये क्या हैं?
अघोरनाथ जी बोले,मैं एक तांत्रिक हूँ और ये विभूति उन सिद्ध मानवों की चिता की जो अब इस संसार में नहीं हैं, हम तांत्रिक ऐसे महान पुरुषों की विभूति को इस पोटली मे इकट्ठा करते हैं कि हम इसे किसी की भलाई करने मे उपयोग कर सकें,इस विभूति मे उपस्थित अच्छी महान आत्माएं हमारी सहायता के लिए उपस्थित हो जातीं हैं, ये आत्माएं सदैव सत्य का साथ देतीं हैं।
तो क्या बाबा,अब हम सरलता वनदेवी के पंखो को प्राप्त कर सकेंगे, उड़नछू ने पूछा।।
नहीं उड़नछू, ये आत्माएं केवल तंत्र शक्तियों को ही नष्ट कर सकतीं हैं, जादुई शक्तियों को नष्ट करने के लिए तो जादू का ही उपयोग करना होगा,बाबा अघोरनाथ बोले।।
आप उसकी चिंता ना करें बाबा,मुझे जितना भी जादू आता हैं, मैं उसे उपयोग में लाने का पूर्ण प्रयास करूंगा, राजकुमार सुवर्ण बोला।।
और तभी उस विभूति ने अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया,उस विशाल वृक्ष के चारो ओर एक प्रकाश उभरा,जिसने उस अंधकार रात्रि को प्रकाशमय बना दिया, सबकी आंखे खुली की खुली रह गई और कुछ समय पश्चात् वो विभूति सारी तांत्रिक बांधाएं तोड़कर वायु मे अन्तर्ध्यान हो गई।।
अब सब वृक्ष के निकट जा सकते थे, अब सुवर्ण ने अपने जादू का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया, वो वहीं धरती पर बैठकर जादुई शक्तियों का मनन करने लगा और उसने उस वृक्ष के तने को अपनी जादुई शक्तियों द्वारा तोड़ दिया, इसी मध्य बकबक और उड़नछू उस बक्से को बाहर लेकर आए जिसमें शाकंभरी के पंख रखे हुए थे,अब उस जादुई बक्से के जादू को तोड़ने की बारी थीं, तब सुवर्ण ने एक बार पुनः अपने जादू का मनन किया और जादू के एक ही प्रहार से वो बक्सा टूट गया।।
तब बाबा अघोरनाथ ने उस बक्से वो जादुई पंख निकाले और शाकंभरी के पीछे जाकर लगा दिए,शाकंभरी खुशी से रो पड़ी और शीघ्र ही बाबा के चरण स्पर्श किए।।
और उसने सुवर्ण को भी धन्यवाद देते हुए कहा,
धन्यवाद! राजकुमार सुवर्ण और सब की भी मैं कृपापात्र और आभारी हूँ, नीलकमल और सारन्धा भी शाकंभरी के गले लग पड़ीपंख लगते ही शाकंभरी के भीतर एक नई ऊर्जा का प्रवाह होने लगा,वो अत्यधिक प्रसन्न थी कि अब उसे अपनी सारी शक्तियां पुनः प्राप्त हो चुकीं थीं,व़ह इतनी प्रसन्न थी कि अपनी भावनाएं उसने अपने अश्रुओं के साथ सबका आभार प्रकट करते हुए की परन्तु तभी शंखनाद वहाँ आ पहुंचा।।
शाकंभरी को ऐसे रूप मे देखकर क्रोध से पागल हो उठा और उसने अपने जादूई शक्तियों का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया।।
तब अघ़ोरनाध जी बोले,सुवर्ण और विक्रम तुम दोनों इसके निवास पर उड़ने वाले घोड़े से पहुंचो हम सब भी वहाँ शीघ्रता से पहुँचते हैं, आज रात्रि इसकी मृत्यु निश्चित हैं, वहाँ जाओ जहाँ इसके प्राण सुरक्षित हैं, तभी विक्रम और सुवर्ण शीघ्रता से घोड़े पर सवार हो चलें, इधर शंखनाद को अपने प्राण संकट मे पड़े हुए दिखे तो वो शीघ्रता से अपने निवास स्थान पहुँचने का प्रयास करने लगा किन्तु शाकंभरी ने इतना कड़ा प्रहार किया कि वो धरती पर जा गिरा,जैसे तैसे वो उठा हुआ और वायु में अन्तर्धान हो गया।।
सुवर्ण और विक्रम ,शंखनाद के पूर्व ही शंखनाद के निवास स्थान पहुंच गए,शंखनाद ये देखकर क्रोध से अपने मस्तिष्क का संतुलन खो बैठा और अंधाधुंध अपने जादुई प्रहार से विक्रम और सुवर्ण को क्षति पहुंचाने का प्रयास करने लगा।।
परन्तु दोनों उड़ने वाले घोड़े पर सवार थे,इस प्रकार हर प्रहार रिक्त ही चला जाता,तब तक शाकंभरी भी उड़ते हुए,वहाँ आ पहुंची और उसने सुवर्ण और विक्रम से कहा ,तुम लोग जलाशय की ओर जाओ,मैं इसे सम्भालती हूँ, बहुत बड़े बड़े अपराध किए हैं इसने,उन सब का उत्तर आज माँगूँगी।।
तब तक सभी आ पहुंचे और सभी ने शंखनाद के प्रहरियों पर प्रहार प्रारम्भ कर दिया,उड़नछू और बकबक,नीलकमल और सारन्धा, मानिकचंद और अघोरनाथ,विक्रम और सुवर्ण, सब अपनी अपनी जोड़ी के साथ थे,जैसी रणनीति बनी थीं, सब उसके अनुरूप ही अपना अपना कार्य कर रहे थे,एक एक करके सारे प्रहरियों की हत्या हो चुकी थी,सबकी तलवारें खून से लथपथ थी।।
तभी शंखनाद ने उड़ने वाले घोड़े पर अपना ऐसा जादुई प्रहार किया कि घोड़ा धरती पर जा गिरा,विक्रम और सुवर्ण मूर्छित होकर गिर पड़े।।
अब शंखनाद कुटिल हंसी हंसते हुए बोला___
तुम जैसे तुच्छ प्राणी मुझे कोई भी हानि नहीं पहुंचा सकते,मैं पहले भी विजयी था और सदैव विजयी रहूँगा।।
अब शाकंभरी ने बकबक से कहा___
बकबक! बाबा को घोड़े पर बैठाओ,हम शीघ्र ही जलाशय की ओर प्रस्थान करेंगे, आज शंखनाद का अंत निश्चित हैं, वो अनंतकाल के लिए आज निद्राअवस्था को प्राप्तहोगा,आज इस पापी का मेरे हाथों ही अंत होगा।।
और शाकंभरी उड़ कर जलाशय के निकट पहुंची और अघोरनाथ और बकबक भी वहाँ शीघ्र ही पहुंच गए, अघोरनाथ जी ने शीघ्र ही अपने तंत्र विद्या से सारी बाधाएँ तोड़ दी,उधर सारन्धा और नीलकमल अपनी तलवार से शंखनाद पर निरन्तर प्रहार करती रही जिससे शाकंभरी और अघोरनाथ अपने अपने कार्य मे सफल हो सकें।।
और हुआ भी यही शाकंभरी अपने जादू से शंखनाद के जादू को विफल कर उस मूर्ति तक पहुंच गई और उस पत्थर के उल्लू को पूरे बल के साथ धरती पर पटक दिया जिससे उस उल्लू के टुकड़े टुकड़े हो गए, परन्तु शंखनाद को कुछ भी नहीं हुआ।।
तब शंखनाद हंसते हुए बोला,वनदेवी तुम्हारे पास अधूरी जानकारी थी,मेरी मृत्यु ऐसे नही होगी।।
तब बाबा अघोरनाथ और बकबक ने शीघ्रता से शंखनाद को उड़ने वाले घोड़े पर बैठाया और वहाँ ले जाकर पटक दिया, जहाँ शंखनाद के माता पिता की समाधियां बनी थीं,उन पर गिरते ही शंखनाद भस्म मे परिवर्तित हो गया और इस प्रकार आज शंखनाद का अंत हो गया, बुराई चाहे कितनी भी बड़ी क्यों ना हो सच्चाई से कभी नहीं जीत सकती।।
शीघ्रता से शाकंभरी ने अपने जादू से सुवर्ण और विक्रम को स्वस्थ कर दिया,विक्रम को स्वस्थ देखकर सारन्धा,विक्रम के गले लग गई, ये देखकर सब हंसने लगें और सारन्धा पलकें नीची करके शरमाते हुए विक्रम से दूर हट गई।।आज सब खुश थे,सबका प्रतिशोध पूर्ण हो चुका था,उड़नछू और बकबक अपने घोड़े के साथ अपने अपने राज्य लौट गए, नीलकमल और सुवर्ण ने विवाह कर लिया,सारन्धा और विक्रम का भी विवाह हो गया और मानिकचंद भी एक नाव मे सवार होकर अपने देश लौट गया,बाबा अघोरनाथ पुनः अपनी तपस्या मे लीन हो गए और शाकंभरी वनदेवी पुनः अपने वन की सुरक्षा में लग गई।।

THE END__
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