श्रृष्टि की गजब रित

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ये कहानी मैंने नहीं लिखी है पर किसी और ने लिखी है जो मुझे पसंद आई और मै मानती हु की आप लोगो को भि शायद पसंद आये

ये कहानी नि पूरी क्रेडिट ओरिजिनल लेखक को जाती है पर उनका नाम मै कहानी के अंत में बताउंगी ..............
ये कहानी में sex नहीं है !!!!!

आप का पूरा साथ रहेगा ये उम्मीद रखती हु


और लिखने की कोशिश करती हु ...............

प्लीज़ बने रहिये ....................
 
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श्रृष्टि की गजब रित


भाग -1


श्रृष्टि कितना खूबसूरत नाम हैं। जितनी खूबसूरत नाम हैं उतना ही खूबसूरत इसकी आभा हैं। जिसमें पूरा जग समाहित हैं। न जानें कितने अजीबों गरीब प्राणिया इसमें अपना डेरा जमाए हुए हैं। उन्हीं अजीबो गरीब प्राणियों में इंसान ही एक मात्र ऐसा प्राणी हैं। जिसकी प्रवृति को समझ पाना बड़ा ही दुष्कर हैं। कब किसके साथ कैसा व्यवहार कर दे यह भी कह पाना दुष्कर हैं। कोई तरक्की की सीढ़ी चढ़ने के लिए रिश्तों को ताक पर रख देता है। तो कोई विपरीत परिस्थिति में भी रिश्तों की नाजुक डोर टूटने नहीं देता हैं। वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं कोई रिश्ता न होते हुए भी ऐसा कुछ कर जाता हैं जिसके लिए लोग उन्हे उम्र भार याद रखते हैं। हैं न बड़ा अजीब श्रृष्टि हमारी।

बहुत हुई बाते अब मुद्दे पर आती हूं और कहानी की सफर शुरू करती हूं….

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श्रृष्टि, ओ श्रृष्टि! सुन रहीं हैं कि नहीं, बेटा जल्दी से बाहर आ।

एक व्यस्क महिला रसोई की द्वार पर खड़ी होकर श्रृष्टि नाम की एक शख़्स को आवाज दे रहीं हैं। बुलाने के अंदाज और संबोधन के तरीके से जान पड़ता हैं। व्यस्क महिला का श्रृष्टि से कोई खास रिश्ता हैं।

आवाजे अत्यधिक उच्च स्वर में दिया गया था किन्तु इसका नतीजा ये रहा कि श्रृष्टि ने न कोई आहट किया और न ही बाहर निकलकर आई, इसलिए महिला खुद से बोलीं... इस लडकी का मै क्या करू, एक बार बुलाने से सुनती ही नहीं!

इतना बोलकर कुछ कदम आगे बढ गई और कमरे का दरवाजा खटखटाते हुए बोलीं... श्रृष्टि, ओ श्रृष्टि सो रहीं है क्या?

"नहीं मां" की एक आवाज़ अंदर से आई, तब महिला फ़िर से बोलीं...बहार आ बेटा कुछ काम हैं।

एक या दो मिनट का वक्त बीता ही होगा कि कमरे का दरवाजा खुला, दुनिया भर की मसूमिया और भोलापन चहरे पर लिए, मंद मंद मुस्कान लवों पर सजाएं श्रृष्टि बोली... बोलों मां, क्या काम हैं?

"पहले तू ये बता, कर क्या रहीं थीं? कितनी आवाजे दिया मगर तू है कि सुन ही नहीं रहीं थी" इतना बोलकर महिला ने एक हल्का सा चपत श्रृष्टि के सिर पर मार दिया।

"ओ मेरी भोली मां (प्यार का भाव शब्दों में मिश्रित कर श्रृष्टि आगे बोलीं) कल मुझे साक्षात्कार (इन्टरव्यू) के लिए जाना है उसकी तैयारी कर रही थीं। आप ये अच्छे से जानती हों जब मैं काम में ध्यान लगाती हूं फ़िर मुझे कुछ सुनाई नहीं देता हैं।"

"अब उन कामों को अल्प विराम दे और बाजार से रसोई की कुछ जरूरी सामान लेकर आ।"

"ठीक है मैं तैयार होकर आती हूं।"

इतना बोलकर श्रृष्टि पलटकर अंदर को चल दिया और महिला किचन की और चल पड़ी। श्रृष्टि बाजार जानें की तैयारी कर ही रहीं थी कि उसके मोबाइल ने बजकर श्रृष्टि का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, "कौन है" बस इतना ही बोलकर श्रृष्टि ने मोबाइल उठा लिया और स्क्रीन पर दिख रहीं नाम को देखकर हल्का सा मुस्कुराई फिर कॉल रिसीव करते हुए बोलीं... बोल समीक्षा कैसे याद किया।

समीक्षा...यार मुझे न कुछ शॉपिंग करने जाना था। तू खाली हैं तो मेरे साथ चल देती , तो अच्छा होता।"

श्रृष्टि...मैं भी कुछ काम से बजार ही जा रहीं थीं तो लगें हाथ तेरा भी काम करवा दूंगी, मेरा मतलब है तेरा शॉपिंग भी करवा दूंगी। तू घर आ जा तब तक मैं तैयार हों लेती हूं।"

श्रृष्टि से सहमति पाते ही "अभी आई" बोलकर समीक्षा ने कॉल कट कर दिया और श्रृष्टि तैयार होकर मां के पास पहुंचकर बजार से आने वाली सामानों की लिस्ट लिया फ़िर बोलीं…मां, वो समीक्षा भी आ रही है उसे शॉपिंग करनी हैं। तो हो सकता हैं कुछ वक्त लग जाय, इससे आपको दिक्कत तो नहीं होगी।"

"नहीं" बस इतना ही बोल पाई कि बहार से हॉर्न की आवाज़ आई। जिसे सुनकर श्रृष्टि बोलीं... लगता हैं समीक्षा आ गई है। मैं चलती हूं। बाय मां।

कुछ ही वक्त में दोनों सहेली दुपहिया पर सवार हों, हवा से बातें करते हुए बजार में पहुंच गईं। दोनों इस वक्त शहर के सबसे मशहूर शॉपिंग माल के गेट से भीतर पार्किंग में जा ही रहीं थीं कि एक चमचती कार दोनों के स्कूटी से बिल्कुल सटती हुई आगे को बढ़ गईं। जिसका नतीजा ये हुआ की समीक्षा का बैलेंस बिगड़ गया, किसी तरह गिरने से खुद को बचाकर समीक्षा बोलीं... अरे ओ आंख के अंधे, अमीर बाप के बिगड़े हुए औलाद दिन में ही चढ़ा लिया जो दिखना बंद हों गया।

श्रृष्टि...अरे छोड़ न यार जानें दे।

समीक्षा...क्या जानें दे, उसके पास चमचमाती कार हैं। इसका मतलब हमारी दुपिया का कोई वैल्यू ही नहीं मन कर रहा हैं पत्थर मारकर उसके चमचमाती कार का नक्शा ही बिगड़ दूं।

श्रृष्टि...अरे होते हैं कुछ लोग जिन्हें पैसे कि कुछ ज्यादा ही घमंड होता हैं। तू खुद ही देख उसके पास लाखों की कार हैं उसके आगे हमारी इस दूपिया की क्या वैल्यू?

"एक तो उस कमीने ने दिमाग की दही कर दिया। अब तू उसमें चीनी डालकर लस्सी बनाने पे तुली हैं।" तुनककर समीक्षा बोलीं तो श्रृष्टि मुस्कुराते हुए जवाब दिया...उसमें से एक गिलास निकलकर पी ले और गुस्से को ठंडा कर लें ही ही ही...।

"श्रृष्टि" और ज्यादा तुनक कर समीक्षा बोलीं तो श्रृष्टि फिर से मुस्कुराते हुए बोलीं...अरे अरे गुस्सा थूक दे और चलकर वहीं करते है जो हम करने आएं हैं।

समीक्षा को थोड़ा और समझा बुझा कर मॉल के भीतर लेकर जानें लगीं कि मुख्य दरवाजे से भीतर जाते वक्त एक हाथ श्रृष्टि के जिस्म को छू कर गुजर गया। श्रृष्टि को लगा शायद अंजाने में किसी का हाथ छू गया होगा। इसलिए ज्यादा तुल नहीं दिया। इसका मतलब ये नहीं की उसे बुरा नहीं लगा। बूरा लगा मगर वो उस शख्स को देख ही नहीं पाई जिसका हाथ श्रृष्टि के जिस्म को छूकर निकल गया। सिर्फ और सिर्फ़ इसी कारण श्रृष्टि ने मामले को यही दबा देना बेहतर समझा। बरहाल दोनों सहेली आगे को बढ़ गई और अपने काम को अंजाम देने लग गई।

लड़कियों का भी क्या ही कहना? इनको शॉपिंग करने में ढेरों वक्त चाहिए होता है। देखेगी बीस और खरीदेगी एक दो, ऐसे ही करते हुए दोनों आगे बढ़ती गई। कहीं कुछ पसंद आया तो खरीद लिया वरना आगे चल दिया। ऐसे ही एक सेक्शन में कुछ ज्यादा ही भिड़ था और उन्हीं भीड़ में समीक्षा अपने लिए कपडे देख रहीं थीं और श्रृष्टि उसकी हेल्प करने में लगीं हुई थीं।

तभी श्रृष्टि को लगा कोई उसके जिस्म को छूकर निकल गया। पलटकर पिछे देखा तो उसे अपने पिछे कई चहरे दिखा। अब दुस्वारी ये थीं कि उन चेहरों को देखकर कैसे पहचाने, उनमें से किसने उसके जिस्म को छुआ, जब पहचान ही नहीं पाई तो कोई प्रतिक्रिया देना निरर्थक था। इसलिए वापस पलटकर समीक्षा की मदद करने लग गईं।

कुछ ही वक्त बीता था की एक बार फ़िर से किसी का हाथ उसके जिस्म को छु गया। इस बार श्रृष्टि को गुस्सा आ गया। गुस्से में तमतमती चेहरा लिए पीछे पलटी तो देखा उसके पीछे कोई नहीं था। गुस्सा तो बहुत आया मगर किसी को न देखकर अपने गुस्से को दबा गई और पलटकर उखड़ी मुड़ से समीक्षा को जल्दी करने को बोलीं, कुछ ही वक्त में समीक्षा की शॉपिंग पूरा हुआ फिर ग्रोसरी स्टोर से मां के दिए लिस्ट के मुताबिक किचन का सामान लेकर दोनों बिल देने पहुंच गई। समीक्षा अपना बिल बनवा ही रहीं थीं कि अचानक "चटकक्क" के साथ "बेशर्मी की एक हद होती हैं" की तेज आवाज़ वहां मौजुद सभी के कान के पर्दों को हिलाकर रख दिया।

जारी रहेगा... बने रहिये ............. हो सके तो अभिप्राय देते रहिये .........
 
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शायद आप लोगो को मेरा भाग 1 पसंद आया हो ऐसी उम्मीद के साथ अगला एपिसोड दे रही हु .............

आशा रखती हु आप लोगो को पसंद आएगा ............

आप सर्वे पाठको को विनंती है की कही कोई कचाश दिखे तो प्लीज़ आप मेरा ध्यान दोरिये ताकि मै अगली कहानी में वो भूल सुधर सकू

शुक्रिया जिनको कहानी पसंद आई उनका और जिनको नहीं आई उनका भी ...............
 
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भाग - 2
चमचमाती सूट बूट में खड़ा एक बांका जवान अपने गोरे गाल को सहला रहा था। गाल पर छापी उंगली की छापा और लाल रंगत दर्शा रहा था। बड़े ही नजाकत से गाल की छिकाई किया गया था। आस पास अजबही करतें हुए लोग अचभित सा, जहां का तहां जम गए और गाल सहलाते हुए सूट बूट में खडे युवक को देखने में लगे हुए थे।


युवक के सामने गुस्से में तमतमाई, नथुने फूलती हुई श्रृष्टि खड़ी गहरी गहरी सांस ले और छोड़ रहीं थीं। इस उम्मीद में कि आसमान छूती अपार गुस्से को काबू कर सके मगर सामने खड़ा युवक जिसके चेहरे पर शर्मिंदगी का रत्ती भर भी अंश नहीं आया बल्कि ढीठ सा, स्वास के साथ ऊपर नीचे होती श्रृष्टि के वक्ष स्थल पर नजरे गड़ाए खड़ा रहा।


सहसा श्रृष्टि को आभास हुआ, उसके सामने खड़ा, युवक की दृष्टि कहा गड़ा हुआ हैं। बस एक पल से भी कम वक्त में श्रृष्टि का गुस्सा उड़ान छू हों गया और गुस्से की जगह लाज ने ले लिया। लजा का गहना ओढ़े, दोनों हाथों को एक दुसरे से क्रोस करते हुए अपने सीने पर रख लिया और पलटकर खड़ी हो गई।


श्रृष्टि को ऐसा करते हुए देखकर समीक्षा को समझने में एक पल से भी कम का वक्त नहीं लगा कि अभी अभी क्या हुआ होगा। समझ आते ही, गुस्से में लाल हुई, तेज आवाज़ में समीक्षा बोलीं…दिखने में पढ़े लिखें और अच्छे घर के लगते हों, फ़िर भी हरकते छिछोरे जैसी करते हों। तुम्हें देखकर लग रहा हैं शर्म लिहाज सब कोडीयो के भाव बेच खाए हों तभी तो इतनी भीड़ में थप्पड़ खाने के वावजूद ढीठ की तरह खडे हों।


समीक्षा के स्वर में गुंजन इतना अधिक था कि वहां बर्फ समान जमे लोगों को बर्फ से आजाद कर दिया और सभी चाहल कदमी करते हुए पास आने लग गए।


भिड़ इक्कठा होते हुए देख, युवक वहां से निकलना ही बेहतर समझा। रहस्यमई मुस्कान लबो पर सजाएं युवक वहां से चला गया। वहां मौजुद किसी ने भी उसे रोकना या पूछना जरूरी नहीं समझा, खैर कुछ वक्त में सब सामान्य हो गया और दोनों सहेली अपने अपने बिलों का भुगतान करके घर को चल दिया।


भाग 2 क्रमश .....

 
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भाग 2 आगे .......

दृश्य में बदलाव


शहर के एक बहुमंजिला भवन में मौजुद एक आलीशान ऑफिस में इस वक्त सभी काम काजी लोग अपने अपने काम में लगे हुए थे। वही एक ओर बने एक कमरे का दरवाजा खटखटाया जाता हैं और बोला जाता है " सर क्या मैं अन्दर आ सकती हूं?" प्रतिउत्तर में "हां आ जाओ।" की आवाज आता हैं।


कुछ ही वक्त में एक लडकी फॉर्मल ड्रेस और ऊंची एड़ी की सैंडल पहनी ठाक ठाक की आवाज़ करती हुईं। कमरे के अंदर प्रवेश करती हैं और जाकर सामने बैठा, लड़के के सामने खड़ी हो जाती हैं। " बैठ जाओ" इतना बोलकर लडकी की और देखता हैं। देखते ही सामने बैठा युवक के चहरे का भाव बदल जाता है और तल्ख लहजे में बोला... साक्षी तुम्हें कितनी बार कहा है जब भी मैं बुलाऊ, आते वक्त अपने कपड़ों की स्थिति को जांच परख कर आया करो मगर तुम हों कि सुनती ही नहीं!


साक्षी...मेरे कपडे तो ठीक हैं इसे ओर कितना ठीक करू।


"तुम्हें ऐसा लग रहा होगा लेकीन मेरी नजर में बिल्कुल ठीक नही हैं। तुम खुद ही देखो तुम्हारे शर्ट के दो बटन खुले हुए है, जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नही, इसलिए तुम अभी के अभी उन बटनो को बंद करो।"


उठी हुई नजरों को थोड़ा सा नीचे झुकाकर अजीब ढंग से मुस्कुराते हुए शर्ट का बटन बंद कर लेती हैं फ़िर बोलीं…अब तो आपको कोई दिक्कत नहीं होगा सर्ररर...।


सर शब्द को थोड़ा लम्बा खींचते हुए बोलीं तो युवक थोड़ा खिसिया गया और कुछ बोलता उससे पहले उसका सेल फ़ोन बज उठा, आ रही कॉल को रिसीव करके बात करने में लग गया जैसे जैसे बात आगे बड़ रहा था वैसे वैसे युवक के चहरे पर चिंता की लकीरें दिखाई देने लग गया। कुछ देर बात करने के बाद फोन रखते ही साक्षी बोलीं... सर क्या हुआ आप इतने टेंशन में क्यों हों?


"अरमान आया की नहीं!"


साक्षी... अभी तो नहीं आया।


"इस लड़के का मै क्या करूं जिम्मेदारी नाम की कोई चीज नहीं हैं।" इतना बोलकर दुबारा किसी को कॉल लगा दिया। कॉल रिसीव होते ही युवक बोला... अरमान तू अभी कहा हैं?


अरमान…?????


"जल्दी से ऑफिस आ बहुत जरूरी काम हैं।"


इतना बोलकर कॉल कट कर दिया फ़िर साक्षी से काम को लेकर कुछ बाते करके वापस भेज दिया। कुछ ही देर में कमरे का दरवाजा खुला और एक युवक धनधानते हुए भीतर आया फ़िर बोला... राघव ऐसी कौन सी आफत आ गई जो तू मुझे जल्दी से ऑफिस बुला लिया।


राघव... तेरा बड़ा भाई हूं और उम्र में तुझसे कई साल बड़ा हूं, कम से कम इसका तो लिहाज कर लिया कर।


बड़ा भाई (एक क्षण रूका फिर अजीब ढंग से मुस्कुराते हुए आगे बोला) बड़ा भाई तो हैं पर...।


इसके आगे कुछ बोला नहीं, अरमान के मुस्कुराने के अंदाज से राघव समझ गया वो क्या कहना चहता था। इसलिए राघव की आंखों में नमी आ गईं मगर उन नमी को बहने से पहले ही रोक लिया और मंद मंद मुस्कान से मुस्कुराकर बोला…मैं क्या हूं क्या नहीं, इस पर बात करने के लिऐ तुझे नहीं बुलाया बल्कि ये बताने के लिए बुलाया था। तुझे अभी के अभी जयपुर जाना होगा। वहां के कंस्ट्रक्शन साइड में कोई दिक्कत आ गया है।


अरमान...यही तेरा जरूरी काम था।


राघव... हा यही जरूरी काम था और तुझे करना ही होगा। अब तू घर जा और पैकिंग कर ले क्योंकि हों सकता है तुझे वहां ज्यादा दिनों के लिए रुकना पड़े मैं तब तक टिकट की व्यवस्था करता हूं।


थोड़ा गरम लहजे में राघव ने अपनी बाते कह दिया इसलिए अरमान ज्यादा कुछ न बोलकर चुपचाप चला गया फ़िर राघव सभी व्यवस्था करके घर को चल दिया और अरमान को साथ लेकर एयरपोर्ट छोड़ने चला गया।


जायिगा नहीं भाग 2 क्रमश .........
 
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भाग 2 चालु .........

दृश्य में बदलाव अगला दिन


आज का दिन श्रृष्टि के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसे आज साक्षात्कार (इंटरव्यू) देने जाना था। ऐसा नहीं की श्रृष्टि आज पहली बार साक्षात्कार देने जा रहीं थीं। बीते दो वर्षो में श्रृष्टि ने कई बार साक्षात्कार दिया। कभी नौकरी मिला कभी नहीं, जहां मिला वहां के आला अधिकारियों के रवैया के चलते कुछ दिन बाद नौकरी छोड़ दिया या फिर नौकरी छोडनी पड़ी। नौकरी करना जरूरी था साथ ही आत्मसम्मान भी जरूरी था। आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाकर नौकरी करना श्रृष्टि को कभी गवारा नहीं था। शायद यहीं एक वजह रहा होगा जिस कारण श्रृष्टि को नौकरी मिलने के बाद भी नौकरी छोड़कर दर दर की ठोकरें खाने पर मजबुर कर दिया होगा।


अच्छे से तैयार होकर एक बार अपने प्रमाण पत्रों को खंगाला, कहीं कोई एकाद रह तो नहीं गया। रह गया हों तो उसे रख ले, सभी प्रमाण पत्रों को खंगालकर संतुष्ट होते ही दोनों हाथ जोड़े अपने इष्ट देव को याद करते हुए बोलीं…हे प्रभु तू ही आसरा तू ही सहारा बस इतनी कृपा कर देना आज फिर से मुझे खाली हाथ न लौटना पड़े।


इष्ट देव को अर्जी लगाकर श्रृष्टि रूम से बाहर आई, उस वक्त श्रृष्टि की माताश्री कीचन में थी। तो आवाज देते हुए श्रृष्टि बोलीं... मां मैं जा रहीं हूं।


"रूक जा श्रृष्टि बेटा" इतना बोलकर माताश्री एक हाथ कि मुट्ठी शक्ति से भींचे हुए दुसरे हाथ में एक कटोरी, जिसमे कुछ जल रहा था। शायद कपूर की टिकिया होगा। होठों पर मुस्कान लिए श्रृष्टि के पास पहुंच गई फ़िर कटोरी वाले हाथ को सामने रखकर दूसरे हाथ को श्रृष्टि के सिर के ऊपर से घूमने लग गई। साथ ही कुछ बुदबुदा रहीं थी। ये देखकर श्रृष्टि मंद मंद मुस्कुराते हुए बोलीं... मां ये क्या कर रहीं हों?


माताश्री क्या बोलती उनका मुंह तो पहले से ही व्यस्त था। इसलिए बिना कुछ बोले अपना काम करती रहीं। जब पूर्ण हों गया तो अपने मुट्ठी में मौजुद चीजों को कटोरी में झोंक दिया फ़िर बोलीं... मैं अपने बेटी के ऊपर मंडरा रहीं सभी बलाओं को उतार रहीं थीं। जिससे की मेरी बेटी को आज खाली हाथ न लौटना पड़े।


खो खो खो ख़ासते हुए श्रृष्टि बोलीं...मां आपको यहीं सब करना था तो पहले ही बता देती। मैं थोडा जल्दी तैयार हों जाती। आपके कारण मुझे देर हों रहीं है एक तो यहां से सवारी भी देर से मिलती हैं।


माताश्री कटोरी को किनारे में रखकर कीचन की ओर जाते हुए बोलीं... श्रृष्टि बेटा याद रखना बिना संघर्ष के शौहरत नहीं मिलता, संघर्ष जितना ज्यादा होगा शौहरत की इमारत उनता ही ऊंचा होगा।


"मां, अब आप कीचन में क्यों जा रहीं हो मुझे देर हों रहीं हैं" माताश्री को कीचन की ओर जाते हुए देखकर श्रृष्टि बोलीं मगर माताश्री बिना कोई जवाब दिए कीचन में घुस गई फिर एक कटोरी साथ में लेकर श्रृष्टि के पास पहुंची ओर "बेटा मुंह खोल" बोली, श्रृष्टि के मुंह खोलते ही एक चम्मच भरकर दही खिलाया फिर शुभकनाएं देकर बेटी को जानें दिया।


कुछ मिनटों का फासला तय करके श्रृष्टि उस जगह पहुंच गई जहां से उसे सवारी करके अपने गंतव्य को जाना था। कुछ वक्त प्रतीक्षा करने के बाद एक ऑटो वाला आया। जिसे रोककर श्रृष्टि बोलीं... भैया तिवारी कंसट्रक्शन ग्रुप चलोगे।


"माफ करना बहन जी उस रूट का मेरे पास परमिट नहीं हैं।" इतना बोलकर ऑटो वाला चलता बना और बेचारगी सा मुंह बनाए ओटो वाले को जाता हुआ श्रृष्टि देखती रहीं। इंतेजार, इंतेजार बस इंतेजार करती रहीं मगर कोई ओर ऑटो वाला आते हुए नहीं दिखा। एक एक पल करके, वक्त बीतता जा रह था और बीतता हुआ एक एक पल श्रृष्टि के लिए बहुत भारी पड़ रहा था। क्योंकि उसे साधन कोई मिल नहीं रहीं थी ऊपर से वक्त भी कम बचा था। जो उसकी हताशा को बीतते पल के साथ बढ़ा रही थीं।

जारी रहेगा... आगे क्या हुआ क्या ये इंटरव्यू भी गया ???

जान ने के लिए बस जुड़े रहिये अगला भाग में ............
 
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मुझे ये तो पता था की मुझे उतने पाठक नहीं मिलेंगे क्यों की बहोत सारे पाठको की उम्मीद से विपरीत ये कहानी है

खेर अब कहानी हाथ पे ली ही है तो पूरी करनी जरुर है ..... मुझे भी श्रुष्टि की तरह हताश नहीं होना चाहिए

यही शायद श्रुष्टि की रित है जो हताश हुआ वो गया और जो लड़ा वो तैर गया

इसी उम्मीद में अगला भाग पेश कर रही हु शायद कुछ लोगो को पसंद आये .................
 
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भाग - 3
श्रृष्टि हताश निराश खड़ी बार बार घड़ी देख रहीं थी और आंखों में आशा का भाव लिए रास्ते पर देख रहीं थीं। कोई तो सवारी वाहन आए जिस पर सवार होंकर समय से अपने गंतव्य को पहुंच जाए। मगर उसका कोई आसार नजर नहीं आ रहा था क्योंकि जो भी ऑटो वाला आ रहा था वो श्रृष्टि के बताएं रूट पर जानें को तैयार ही नहीं हो रहें थे। कोई परमिट न होने की बात कह रहा था तो कोई वापसी में सवारी न मिलने की बात कह रहा था।


जैसे जैसे वक्त बीतता जा रहा था वैसे वैसे श्रृष्टि की उम्मीद टूटती जा रही थी। थोड़ी बहुत हिम्मत ओर जज्बा जो बचा था वो भी बीतते वक्त के साथ कमज़ोर पड़ता गया। एक वक्त ऐसा भी आया जब श्रृष्टि की नौकरी पाने की उम्मीद पूर्ण रूप से धराशाई हो गई और श्रृष्टि वापस घर लौटने की बात सोचा ही था कि एक ऑटो वाला उसके पास आकर रूका,
एक बार फिर से उम्मीद की टिमटिमाती लौं जो लगभग बुझ चुका था। पूर्ण वेग से प्रजावलित हों उठा और श्रृष्टि उत्साहित भाव से बोलीं...
अंकल जी मुझे तिवारी कंसट्रक्शन ग्रुप जाना था।

"माफ करना बेटी मैं उस रूट पर नहीं जा सकता क्योंकि उस रूठ की परमिट मेरे पास नहीं हैं।"

एक ओर मनाही का नतीजा ये हुआ कुछ पल के लिए जागी उम्मीद एक बार फ़िर से टूट गया। इसलिए उदासीन भाव चहरे पर लिए एक ओर कोशिश करते हुए श्रृष्टि बोलीं...
प्लीज़ अंकल जी चल दीजिए न, आज मेरा साक्षात्कार है। मैं बहुत देर से प्रतिक्षा कर रहीं हूं मगर कोई जानें को राज़ी नहीं हों रहा हैं। प्लीज़ अंकल चल दीजिए न!

"पर ( एक अल्प विराम लिया फिर कुछ सोचकर आगे बोला) ठीक है बैठ जाओ।

आभार व्यक्त करते हुए श्रृष्टि बैठ गई और ऑटो चल दिया। कुछ ही दूरी तय हुआ था कि घड़ी देखने के बाद श्रृष्टि बोलीं... अंकल जी, आप थोड़ा रफ़्तार बढ़ाएंगे, क्योंकि बहुत दिनों बाद आज साक्षात्कार देने का मौका हाथ लगा है और मेरे हाथ में समय कम बचा हैं।

"कितने बजे साक्षात्कार हैं।" जानकारी लेते हुए ऑटो चालक ने पूछा तो श्रृष्टि ने मानक समय बता दिया। जिसे सुनकर ऑटो चालक बोला... सही में तुम्हारे हाथ में बहुत ही कम समय बचा है। परन्तु तुम फिक्र न करो मैंने बहुत लोगों के उम्मीदों को टूटकर बिखरते हुए देखा हैं लेकीन तुम्हारी उम्मीद नहीं टूटने दूंगा।

इतना बोलकर ऑटो चालक ने ऑटो के कान उमेठ (एक्सीलेटर) दिया और ऑटो हवा से बातें करते हुए गंतव्य की ओर बढ़ चला मगर लगता है आज माताश्री की बला उतराई और दही खिलाना कुछ काम न आया क्योंकि कुछ ही दूरी तय करते ही सामने लम्बा चौड़ा ट्रैफिक जाम दिखा। जिसे देखकर हताश होते हुए श्रृष्टि बोलीं... इस ट्रैफिक को आज ही लगना था। जिस दिन जरूरी काम होता है सभी मुश्किलो को उसी दिन आना होता हैं।

"तुम ये क्यों भुल रहीं हों। मुश्किलो से पर जाकर ही मंजिल तक पंहुचा जाता हैं। अब तुम फिक्र करना छोड़ो मैं तुम्हें तुम्हारे गंतव्य तक पंहुचाकर ही रहूंगा।"

इतना बोलकर ऑटो चालक मंद मंद मुस्कान बिखेर दिया फिर रास्ता बदलकर चल दिया। गली कूचे और ऊबड़ खाबड़ रास्ते से हिचकोले खाते हुए आखिरकार श्रृष्टि को उसके मंजिल तक पंहुचा ही दिया।

आभार व्यक्त करते हुए ऑटो चालक को उसका किराया देकर विदा किया और जल्दी से लिफ्ट की और चल पड़ी। आपा धापी में किया गया कार्य अक्षर गलती करवा देता है। ऐसे ही एक गलती श्रृष्टि कर चुकी थीं। उसकी यहां गलती उस पर कितना भारी पड़ने वाली है। ये तो वक्त के साथ पाता चल जायेगा।

लिफ्ट की सहयता से इमारत के दसवीं मंजिल पर पहुंच गई। जो कि श्रृष्टि का गंतव्य था। ऑफिस के भीतर जाकर रिसेप्शन पर बैठी बाला से साक्षात्कार से संबंधित जानकारी लिया। सभी संबंधित जानकारी देने के बाद रिसेप्शनिष्ट बोलीं... मैडम आपको साक्षात्कार निमंत्रण पत्र भेजा गया होगा। आप पत्र दिखा दीजिए तभी आप यहां से आगे जा सकती हैं।

पत्र की बात आते ही श्रृष्टि को ध्यान आया उसका प्रमाण पत्र पुस्तिका उसके पास नहीं हैं। इधर उधर नजरे फेरा मगर श्रृष्टि की प्रमाण पत्र पुस्तिका कहीं नहीं दिखा तो श्रृष्टि परेशान सी हों गई और दिमाग पर जोर देने लग गई तब उसे याद आया शायद वो अपना प्रमाणपत्र पुस्तिका ऑटो में भुल आई हों। ध्यान आते ही श्रृष्टि तुरन्त बाहर को चली गई। बहार आने का कोई फायदा नहीं हुआ। क्योंकि ऑटो वाला जा चुका था। परेशान सी यहां वहां टहलती रहीं।

मस्तिस्क का पिंजरा तरह तरह के विचारो से भर चुका था। क्या करे क्या न करे, एक सही और सार्थक वजह श्रृष्टि को सूझ नहीं रहीं थीं। कुछ वक्त तक दिमागी घोड़ा दौड़ने के बाद उसे कुछ सूझा इसलिए लिफ्ट की सहायता से दफ्तर के रिसेप्शन पर पहुचकर बोलीं... मैम मैं अपना प्रमाण पत्र पुस्तिका जिस ऑटो मे आया था उसी में भुल गई। तो क्या कोई ऐसा तारिका है जिससे की मैं बिना निमंत्रण पत्र के साक्षात्कार दे पाऊं।

"मैम आपका दिमाग तो ठिकाने पर हैं। जरा सोच कर देखिए आपको बिना निमंत्रण पत्र के जाने भी दिया तब भी आप अपना प्रमाण पत्र दिखाए बिना साक्षात्कार नहीं दे पाएंगे इसलिए मैं आपको मुफ्त में एक सलाह दूंगी, आप मेरा और अपना कीमती समय जाया न करे तो ही आपके और मेरे लिए बेहतर होगा।"

इतनी बाते सपाट लहज़े में कहकर रिसेप्शनिष्ट, श्रृष्टि को नजरंदाज करके दूसरे कामों में लग गई और श्रृष्टि हताश निराश सा वहां मौजुद कुर्सी पर बैठ गई। इतनी भागा दौड़ी, मिन्नते न जानें क्या कुछ किया मगर हाथ क्या लगा एक ओर नाकामी, इन्हीं बातों पर विचार करते हुए श्रृष्टि का मासूम, भोला खूबसूरत चेहरे पर उदासी के बदल छा गया।

जाइगा नहीं भाग 3 अभी चालू है .... (क्रमश )
 
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दृश्य में बदलाव

ऑटो चालक एक असहाय की मदद कर खुद में गौरांवित अनुभव करते हुए श्रृष्टि को उसके गंतव्य तक पंहुचाकर दुसरे सवारी की तलाश में लग गया। कुछ ही दूर जाते ही एक सवारी के हाथ देने पर ऑटो रोक दिया। सवारी बैठने जा ही रहीं थी कि उसे कुछ दिखा, जिसे देखकर सवारी बोला...अंकल ये किसका है।

"क्या" इतना बोलकर चालक पीछे को पलट गया। तब उसे एक फाइल दिखा, जिसे देखकर ऑटो चालक बोला... ये किसका हों सकता है (एक अल्प विराम लिया और मस्तिस्क पर जोर देने के बाद आगे बोला) ये तो उस बच्ची की है जिसे अभी अभी मैं तिवारी कंसट्रक्शन ग्रुप छोड़कर आ रहा हूं। माफ करना बेटा मैं अभी तुम्हें लेकर नहीं जा सकता मुझे पहले उस बच्ची तक उसकी अमानत पहुंचना हैं।

इतना ही बोलकर ऑटो चालक उस ओर चल दिया जिधर से अभी अभी आया था। जितनी रफ़्तार से ऑटो चलाया जा सकता था। उतनी रफ्तार से ऑटो को दौड़ता हुआ वहां पहुंच गया जहां श्रृष्टि को छोड़कर गया था।

वहां मौजुद लोगों से जानकारी लेकर ऑटो चालक दसवीं मंजिल पर पहुंच गया। वो दफ्तर के भीतर जा ही रहा था कि गार्ड रोकते हुए बोला...अरे भाई बिना पूछे भीतर कहा जा रहें हों।

"भाई अभी अभी यहां एक सवारी छोड़कर गया था। आपा धापी में वो अपना प्रमाण पत्र पुस्तिका, ऑटो में भुल गई थीं। वहीं देने जा रहा हूं।"

दोनों बात कर ही रहें थे की पीछे से आवाज़ आया... गार्ड क्या हुआ? इन महाशय को कोई दिक्कत हैं, क्या?

इतना बोलकर वो शख्स दोनों के पास आया। तब गार्ड बोला... गुड मॉर्निंग सर, सर इन महाशय का कहना है अभी अभी यहां किसी को छोड़कर गए थे उनका प्रमाण पत्र पुस्तिका इनके ऑटो में छूट गया था वहीं देने आए हैं।

"कैसे गैर जिम्मेदार लोग हैं जिनसे अपने कीमती प्रमाण पत्रों को संभालकर नहीं रखा गया (गार्ड के हाथ से प्रमाण पत्र पुस्तिका लेकर देखा फ़िर आगे बोला) उम्हु.. श्रृष्टि, अंकल जी अपने अच्छा किया जो उनकी प्रमाण पत्रों को पहुंचाने आ गए। देखते है अगर वो यह हुई तो उनका प्रमाण पत्र उन तक पंहुचा देंगे और अगर नहीं रहीं तो इनमें उनका एड्रेस दिया हुआ हैं। हम उन्हें पार्सल कर देगें।


क्या श्रुष्टि अपनी मंजिल चुक गई ?
कौन था वो शख्स जिसके पास उसके प्रमाण पत्रों पहोचे?
क्या ओटो वाले से कोई गलती हुई ?

जारी रहेगा... जान ने के लिए बने रहिये अगले भाग तक ............

जारी रहेगा...
 
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भाग - 4

हताश निराश बैठी श्रृष्टि मन ही मन बोलीं... इतने दिनों बाद एक मौका हाथ लगा वो भी, अपनी ही करनी से गवा दिया। काश मैं इतनी जल्दबाजी न करती, काश मां इतना तामझाम न करती, काश मुझे एक ऑटो समय से मिल जाता तो मुझे मंजिल के पास पहुंचकर उससे दूर न होना पड़ता । हे प्रभु तुझसे एक अर्जी लगाई थी वो भी तूने नकार दिया। क्यों, आखिर क्यो, मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता हैं? और वो अपने आप को कोसती हुई (शायद अपने आप को मन ही मन में गन्दी गालिया देती हुई)

काश ऐसा न होता, काश वैसा न होता इन्हीं सब बातों पर श्रृष्टि गहन मंत्रणा खुद में कर रहीं थीं। जिसका असर चहरे पर साफ दिख रहा था। भोला मासूम खिला हुआ चेहरा बुझ सा गया। हर वक्त जिसके लवों पर मुस्कान तैरता रहा था। वो गायब सा हों गया।

कोई द्वार से भीतर प्रवेश करता तो श्रृष्टि को एक धाचका सा लगता और उसका मन कहता "क्या ये वही शक्स है? जिनके ऑटो में, मैं अपना प्रमाण पत्र भूल आई थी।" मगर खाली हाथ देखते ही फ़िर से निराश हों जाती। कई लोग सामने से आए ओर चले गए। प्रत्येक बार श्रृष्टि का मन एक ही बात दोहराया, अंतः श्रृष्टि निराश होकर सिर झुका लिया। उसी वक्त एक शख्स भीतर आया और रिसेप्शनिस्ट के पास पंहुचा, शख्स को देखकर रिसेप्शनिस्ट बोलीं... गुड मॉर्निग सर।

"गुड मॉर्निंग तन्वी (फ़िर अपने साथ लाए फाईल को देते हुए आगे बोला) तन्वी ये किसी श्रृष्टि की फाइल है जो यहां साक्षात्कार देने आई हैं वो वापस आए तो उनकी अमानत उन्हें लौटा देना।"

श्रृष्टि (फ़िर सामने की ओर उंगली से दिखाते हुए तन्वी आगे बोलीं) सर वो सामने बैठी है और बहुत देर से परेशान सी हैं।

"चलो देखा जाए कितना परेशान हैं" इतना बोलकर कुछ कदमों का फैंसला तय करके वो शख़्स श्रृष्टि के पास पहुंचकर बोला... Excuse me मिस श्रृष्टि।

खुद का नाम किसी और से सुनकर, अपना झुका हुआ सिर ऊपर उठाने लग गई। थोड़ा सा ऊपर उठाते ही सामने खड़े शख्स के हाथ में अपना प्रमाण पत्र पुस्तिका देखकर तुरन्त झपट लिए और खड़ी होकर बोलीं...शुक्रिया, बहुत बहुत शुक्रिया।

अपनी प्रमाण पत्र वापस पाने की ख़ुशी श्रृष्टि के चहरे पर दिख रहा था। जहां पहले बेबसी, बेचैनी और उदासी छाई हुई थी। वहां एक पल में मासूमियत और भोलापन ने अपना जगह ले चुका था। सामने खड़ा शख्स श्रृष्टि का भोला मासूम और खिला हुआ चेहरा देखकर उसी में अटक सा गया। मगर श्रृष्टि का ध्यान उस पर नहीं था वो तो बस साक्षात्कार दे पाने की खुशी खुद में ही मनाने में लगीं हुई थीं। सहसा सामने खडे शख्स को क्या सूझा कि वो बोल पड़ा... श्रृष्टि जी आपकी हरकते बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है अगर ऐसा न होता तो आप अपना कीमती प्रमाण पत्र एक ऑटो में न भूल आती। आप जैसे गैर जिम्मेदार एक लड़की की, शायद ही इस कम्पनी को जरूरत हों।

शख्स की बाते सुनकर श्रृष्टि को बुरा लगा, हद से ज्यादा बुरा लगा क्योंकि एक अनजान शख्स श्रृष्टि पर गैर जिम्मेदार होने का लांछन लगा रहा था। जबकि सच्चाई से वो शख्स अनजान था। गलती न होने पर भी खुद पर उंगली उठाया जाना श्रृष्टि से बर्दास्त नहीं हुआ इसलिए श्रृष्टि बोलीं...सर कभी कभी जो प्रत्यक्ष दिख रहा हैं वो सच नहीं होता अपितु सच्चाई उसके उलट होता हैं। इसलिए किसी पर उंगली उठाने से पहले सच्चाई जान लेना बेहतर होता हैं।

"अच्छा (मंद मंद मुस्कान से मुस्कराते हुए शख्स आगे बोला) तो फिर आप ही मुझे सच्चाई से अवगत करवा दीजिए कि क्या कारण रहा होगा जिस वजह से अपको अपना कीमती प्रमाण पत्र एक ऑटो में छोड़कर आना पड़ा।

श्रृष्टि... सच्चाई (कुछ पल रूकी फ़िर शख्स की आंखों से आंखें मिलाए आगे बोलीं) सच्चाई बताना मैं जरूरी नहीं समझती क्योंकि जो बीत गया उसका वखान करके किसी से सहानुभूति हासिल करना मेरी फितरत नहीं हैं।

"स्वाभिमानी हों, मैं आपकी बातो से बहुत प्रभावित हुआ हूं मगर अभी अभी जो घटना घटा उससे मैं निराश भी हुआ हूं, फ़िर भी मैं अपको प्रतिक्षा करने के अलावा कुछ नहीं कह सकता हूं। इसलिए आप प्रतीक्षा कीजिए बाकी आपकी किस्मत में जो हैं होना तो वहीं है।"

इतना ही कहकर वो शख्स अपने रास्ते चला गया और श्रृष्टि को सोचने पर मजबूर कर गया। " कौन है ये शख्स साला? क्या ये शख्स इस दफ्तर का कोई आला अधिकारी हैं? अगर हुआ तो कहीं मेरी बातों का बूरा न मान जाए। ओर मैंने ऐसा क्यो कहा? मैंने कुछ गलत भी तो नहीं कहा, जैसी मेरी सोच है मैने बिल्कुल वैसा ही कहा। उफ्फ ये नौकरी (गाली), न जानें इसे पाने के लिए कितना तामझाम करना पड़ता हैं।

श्रृष्टि कुछ वक्त तक अपनी सोच में ही तरह तरह की बाते करती रहीं फ़िर जाकर साक्षात्कार निमंत्रण पत्र जमा कर दिया और अपनी बारी आने की प्रतीक्षा करने लग गईं। एक एक कर लोग जाते गए और श्रृष्टि बैठी बैठी अपनी बारी आने की प्रतिक्षा करती रहीं। अभी भी कई लोग रह गए थे कि एक शख्स आया और बोला... आज के लिए साक्षात्कार को यहीं पर स्थगित किया जाता हैं। अगला तारिख तय होने पर आप सभी को सूचित कर दिया जाएगा। अब आप लोग अपने अपने घर के लिए प्रश्थान करे।

वहा मौजूद लोग तरह तरह की बाते करते हुए एक एक कर बहार को चल दिये। मगर श्रृष्टि जैसी थी वैसी ही बैठी रहीं। उसे यकीन ही नहीं हों रहा था कि साक्षात्कार स्थगित कर दिया गया हैं। देर सवेर उसे यकीन करना ही था और हुआ भी वैसा, यकीन होते ही एक और नाकामी का दर्द नीर बनकर उसके आंखों से बह निकला जिसे पोंछकर, धीरे धीरे कदमों से श्रृष्टि बहार को चल दि।

श्रृष्टि रिसेप्शनिस्ट के सामने से होकर गुजर रहीं थीं, ठीक उसी वक्त रिसेप्शन पर मौजूद फ़ोन बज उठा, नज़रे फेरकर उस और देखा फ़िर आगे को बठ गई। श्रृष्टि गेट से बहार निकल ही रहीं थीं। ठीक उसी वक्त रिसेप्शनिस्ट ने श्रृष्टि को आवाज़ दिया। शायद श्रृष्टि सुन नहीं पाई इसलिए कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया। तो रिसेप्शनिस्ट जल्दी से द्वार तक पंहुची, इतने वक्त में श्रष्टि लिफ्ट के पास पहुंच गई थीं। श्रष्टि लिफ्ट में सवार न हों जाएं इसलिए रिसेप्शनिस्ट ने तेज स्वर में आवाज़ देते हुए बोली... श्रृष्टि मैम रूकिए।

तेज स्वर में आवाज़ दिए जाने से श्रृष्टि रूक गई और पलटकर उस ओर देखा जिधर से आवाज़ आया था। रिसेप्सनिस्ट ने हाथ हिलाकर श्रृष्टि को अपने पास बुलाया तो श्रृष्टि न चाहते हुए भी उसके पास पहुंच गईं। श्रृष्टि के पहुंचते ही रिसेप्सनिस्ट बोलीं...मैम आपको साक्षात्कार के लिए बुलाया जा रहा हैं।

सिर्फ़ श्रृष्टि को साक्षात्कार के लिए बुलाए जानें से श्रृष्टि मन ही मन खुश हों गई मगर सवाली कीड़ा जो ऐसे मौके पर कुछ ज्यादा ही कुलबुला उठता हैं और खास कर एक नारी को और वो भी तब जब वो अपने आप को अकेली महसूस करती है। वहीं कीड़ा श्रृष्टि के अंतरमन में भी कुलबुला उठा और श्रृष्टि पूछ बैठी... साक्षात्कार तो स्थगित कर दिया गया था फ़िर मुझे ही क्यों साक्षात्कार के लिए बुलाया जा रहा है? क्या मै कोई पर्सोनल हु ? या फिर आपके सर मुझे जानते है?

तन्वी... क्यों? मैं नहीं जानती मगर इतना कहूंगी कि आप बहुत भाग्यशाली हों जो साक्षात्कार स्थगित होने के बाद भी सीईओ श्रीमान राघव सर खुद आपको साक्षात्कार के लिए बुला रहें हैं।

तन्वी की बाते सुनकर जहां श्रृष्टि खुश हुई वहीं हैरान भी हुई। मगर जाते जाते एक बार फ़िर से मौका मिल गया इसलिए ज्यादा वक्त बर्बाद न करते हुए। तन्वी के साथ रिसेप्शन पर पहुंच गई फिर तन्वी के बताए दिशा की और चल दिया। और मन हिमं सोची की जो होगा वो देखा जाएगा आखिर ये ऑफिस ही तो है यहाँ बहोत से लोग काम भी तो कर रहे है

जारी है बने रहिये .......
 

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