भाग - 2
चमचमाती सूट बूट में खड़ा एक बांका जवान अपने गोरे गाल को सहला रहा था। गाल पर छापी उंगली की छापा और लाल रंगत दर्शा रहा था। बड़े ही नजाकत से गाल की छिकाई किया गया था। आस पास अजबही करतें हुए लोग अचभित सा, जहां का तहां जम गए और गाल सहलाते हुए सूट बूट में खडे युवक को देखने में लगे हुए थे।
युवक के सामने गुस्से में तमतमाई, नथुने फूलती हुई श्रृष्टि खड़ी गहरी गहरी सांस ले और छोड़ रहीं थीं। इस उम्मीद में कि आसमान छूती अपार गुस्से को काबू कर सके मगर सामने खड़ा युवक जिसके चेहरे पर शर्मिंदगी का रत्ती भर भी अंश नहीं आया बल्कि ढीठ सा, स्वास के साथ ऊपर नीचे होती श्रृष्टि के वक्ष स्थल पर नजरे गड़ाए खड़ा रहा।
सहसा श्रृष्टि को आभास हुआ, उसके सामने खड़ा, युवक की दृष्टि कहा गड़ा हुआ हैं। बस एक पल से भी कम वक्त में श्रृष्टि का गुस्सा उड़ान छू हों गया और गुस्से की जगह लाज ने ले लिया। लजा का गहना ओढ़े, दोनों हाथों को एक दुसरे से क्रोस करते हुए अपने छीने पर रख लिया और पलटकर खड़ी हो गई।
श्रृष्टि को ऐसा करते हुए देखकर समीक्षा को समझने में एक पल से भी कम का वक्त नहीं लगा कि अभी अभी क्या हुआ होगा। समझ आते ही, गुस्से में लाल हुई, तेज आवाज़ में समीक्षा बोलीं…दिखने में पढ़े लिखें और अच्छे घर की लगते हों, फ़िर भी हरकते छिछोरे जैसी करते हों। तुम्हें देखकर लग रहा हैं शर्म लिहाज सब कोढियो के भव बेच खाए हों तभी तो इतनी भीड़ में थप्पड़ खाने के वावजूद ढीठ की तरह खडे हों।
समीक्षा के स्वर में गुंजन इतना अधिक था कि वहां बर्फ समान जमे लोगों को बर्फ से आजाद कर दिया और सभी चाहल कदमी करते हुए पास आने लग गए।
भिड़ इक्कठा होते हुए देख, युवक वहां से निकलना ही बेहतर समझा। रहस्यमई मुस्कान लवों पर सजाएं युवक वहां से चला गया। वहां मौजुद किसी ने भी उसे रोकना या पूछना जरूरी नहीं समझा, खैर कुछ वक्त में सब सामान्य हो गया और दोनों सहेली अपने अपने बिलों का भुगतान करके घर को चल दिया।
दृश्य में बदलाव
शहर के एक बहुमंजिला भवन में मौजुद एक आलीशान ऑफिस में इस वक्त सभी काम काजी लोग अपने अपने काम में लगे हुए थे। वही एक ओर बने एक कमरे का दरवाजा खटखटाया जाता हैं और बोला जाता है " सर क्या मैं अन्दर आ सकती हूं।" प्रतिउत्तर में "हां आ जाओ।" की आवाज आता हैं।
कुछ ही वक्त में एक लडकी फॉर्मल ड्रेस और ऊंची एड़ी की सैंडल पहनी ठाक ठाक की आवाज़ करती हुईं। कमरे के अंदर प्रवेश करती हैं और जाकर सामने बैठा, लड़के के सामने खड़ी हो जाती हैं। " बैठ जाओ" इतना बोलकर लडकी की और देखता हैं। देखते ही सामने बैठा युवक के चहरे का भाव बदल जाता है और तल्ख लहजे में बोला... साक्षी तुम्हें कितनी बार कहा है जब भी मैं बुलाऊ, आते वक्त अपने कपड़ों की स्थिति को जांच परख कर आया करो मगर तुम हों कि सुनती ही नहीं!
साक्षी...मेरे कपडे तो ठीक हैं इसे ओर कितना ठीक करू।
"तुम्हें ऐसा लग रहा होगा लेकीन मेरी नजर में बिल्कुल ठीक नही हैं। तुम खुद ही देखो तुम्हारे शार्ट के दो बटन खुले हुए है, जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नही, इसलिए तुम अभी के अभी उन बटनो को बंद करो।"
उठी हुई नजरों को थोड़ा सा नीचे झुकाकर अजीब ढंग से मुस्कुराते हुए शार्ट का बटन बंद कर लेती हैं फ़िर बोलीं…अब तो आपको कोई दिक्कत नहीं होगा सर्ररर...।
सर को थोड़ा लम्बा खींचते हुए बोलीं तो युवक थोड़ा खिसिया गया और कुछ बोलता उससे पहले उसका सेल फ़ोन बज उठा, आ रही कॉल को रिसीव करके बात करने में लग गया जैसे जैसे बात आगे बड़ रहा था वैसे वैसे युवक के चहरे पर चिंता की लकीरें दिखाई देने लग गया। कुछ देर बात करने के बाद फोन रखते ही साक्षी बोलीं... सर क्या हुआ आप इतने टेंशन में क्यों हों?
"अरमान आया की नहीं!"
साक्षी... अभी तो नहीं आया।
"इस लड़के का मै क्या करूं जिम्मेदारी नाम की कोई चीज नहीं हैं।" इतना बोलकर दुबारा किसी को कॉल लगा दिया। कॉल रिसीव होते ही युवक बोला... अरमान तू अभी कहा हैं?
अरमान…?????
"जल्दी से ऑफिस आ बहुत जरूरी काम हैं।"
इतना बोलकर कॉल कट कर दिया फ़िर साक्षी से काम को लेकर कुछ बाते करके वापस भेज दिया। कुछ ही देर में कमरे का दरवाजा खुला और एक युवक धनधानते हुए भीतर आया फ़िर बोला... राघव ऐसी कौन सी आफत आ गई जो तू मुझे जल्दी से ऑफिस बुला लिया।
राघव... तेरा बड़ा भाई हूं और उम्र में तुझसे कई साल बड़ा हूं, कम से कम इसका तो लिहाज कर लिया कर।
बड़ा भाई (एक क्षण रूका फिर अजीब ढंग से मुस्कुराते हुए आगे बोला) बड़ा भाई तो हैं पर...।
इसके आगे कुछ बोला नहीं, अरमान के मुस्कुराने के अंदाज से राघव समझ गया वो क्या कहना चहता था। इसलिए राघव की आंखों में नमी आ गईं मगर उन नमी को बहने से पहले ही रोक लिया और मंद मंद मुस्कान से मुस्कुराकर बोला…मैं क्या हूं क्या नहीं, इस पर बात करने के लिऐ तुझे नहीं बुलाया बल्कि ये बताने के लिए बुलाया था। तुझे अभी के अभी जयपुर जाना होगा। वहां के कंस्ट्रक्शन साइड में कोई दिक्कत आ गया है।
अरमान...यही तेरा जरूरी काम था।
राघव... हा यही जरूरी काम था और तुझे करना ही होगा। अब तू घर जा और पैकिंग कर ले क्योंकि हों सकता है तुझे वहां ज्यादा दिनों के लिए रुकना पड़े मैं तब तक टिकट की व्यवस्था करता हूं।
थोड़ा गरम लहजे में राघव ने अपनी बाते कह दिया इसलिए अरमान ज्यादा कुछ न बोलकर चुपचाप चला गया फ़िर राघव सभी व्यवस्था करके घर को चल दिया और अरमान को साथ लेकर एयरपोर्ट छोड़ने चला गया।
दृश्य में बदलाव अगला दिन
आज का दिन श्रृष्टि के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसे आज साक्षात्कार देने जाना था। ऐसा नहीं की श्रृष्टि आज पहली बार साक्षात्कार देने जा रहीं थीं। बीते दो वर्षो में श्रृष्टि ने कई बार साक्षात्कार दिया। कभी नौकरी मिला कभी नहीं, जहां मिला वहां के आला अधिकारियों के रवैया के चलते कुछ दिन बाद नौकरी छोड़ दिया। नौकरी करना जरूरी था साथ ही आत्मसम्मान भी जरूरी था। आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाकर नौकरी करना श्रृष्टि को कभी गवारा नहीं था। शायद यहीं एक वजह रहा होगा जिस कारण श्रृष्टि को नौकरी मिलने के बाद भी नौकरी छोड़कर दर दर की ठोकरें खाने पर मजबुर कर दिया होगा।
अच्छे से तैयार होकर एक बार अपने प्रमाण पत्रों को खंगाला, कहीं कोई एक अद रह तो नहीं गया। रह गया हों तो उसे रख ले, सभी प्रमाण पत्रों को खंगालकर संतुष्ट होते ही दोनों हाथ जोड़े अपने इष्ट देव को याद करते हुए बोलीं…हे प्रभु तू ही आसरा तू ही सहारा बस इतनी कृपा कर देना आज फिर से मुझे खाली हाथ न लौटना पड़े।
इष्ट देव को अर्जी लगाकर श्रृष्टि रूम से बाहर आई, उस वक्त श्रृष्टि की माताश्री कीचन में थी। तो आवाज देते हुए श्रृष्टि बोलीं... मां मैं जा रहीं हूं।
"रूक जा श्रृष्टि बेटा" इतना बोलकर माताश्री एक हाथ कि मुट्ठी शक्ति से भींचे हुए दुसरे हाथ में एक कटोरी, जिसमे कुछ जल रहा था। शायद कपूर की टिकिया होगा। होठों पर मुस्कान लिए श्रृष्टि के पास पहुंच गई फ़िर कटोरी वाले हाथ को सामने रखकर दूसरे हाथ को श्रृष्टि के सिर के ऊपर से घूमने लग गई। साथ ही कुछ बुदबुदा रहीं थी। ये देखकर श्रृष्टि मंद मंद मुस्कुराते हुए बोलीं... मां ये क्या कर रहीं हों?
माताश्री क्या बोलती उनका मुंह तो पहले से ही व्यस्त था। इसलिए बिना कुछ बोले अपना काम करती रहीं। जब पूर्ण हों गया तो अपने मुट्ठी में मौजुद चीजों को कटोरी में झोंक दिया फ़िर बोलीं... मैं अपने बेटी के ऊपर मंडरा रहीं सभी बलाओं को उतार रहीं थीं। जिससे की मेरी बेटी को आज खाली हाथ न लौटना पड़े।
खो खो खो ख़ासते हुए श्रृष्टि बोलीं...मां आपको यहीं सब करना था तो पहले ही बता देती। मैं थोडा जल्दी तैयार हों जाता। आपके कारण मुझे देर हों रहीं है एक तो यहां से सवारी भी देर से मिलती हैं।
माताश्री कटोरी को किनारे में रखकर कीचन की ओर जाते हुए बोलीं... श्रृष्टि बेटा याद रखना बिना संघर्ष के शौहरत नहीं मिलता, संघर्ष जितना ज्यादा होगा शौहरत की इमारत उनता ही ऊंचा होगा।
"मां, अब आप कीचन में क्यों जा रहीं हो मुझे देर हों रहीं हैं" माताश्री को कीचन की ओर जाते हुए देखकर श्रृष्टि बोलीं मगर माताश्री बिना कोई जबब दिए कीचन में घुस गई फिर एक कटोरी साथ में लेकर श्रृष्टि के पास पहुंची ओर "बेटा मुंह खोल" बोली, श्रृष्टि के मुंह खोलते ही एक चम्मच भरकर दही खिलाया फिर शुभकनाएं देकर बेटी को जानें दिया।
कुछ मिनटों का फैसला तय करके श्रृष्टि उस जगह पहुंच गई जहां से उसे सवारी करके अपने गंतव्य को जाना था। कुछ वक्त प्रतीक्षा करने के बाद एक ऑटो वाला आया। जिसे रोककर श्रृष्टि बोलीं... भैया तिवारी कंसट्रक्शन ग्रुप चलोगे।
"माफ करना बहन जी उस रूठ का मेरे पास परमिट नहीं हैं।" इतना बोलकर ऑटो वाला चलता बना और बेचारगी सा मुंह बनाए टेंपो वाले को जाता हुआ श्रृष्टि देखती रहीं। इंतेजार, इंतेजार बस इंतेजार करती रहीं मगर कोई ओर ऑटो वाला आते हुए नहीं दिखा। एक एक पल करके, वक्त बीतता जा रह था और बीतता हुआ एक एक पल श्रृष्टि के लिए बहुत भारी पड़ रहा था। क्योंकि उसे साधन कोई मिल नहीं रहीं थी ऊपर से वक्त भी कम बचा था। जो उसकी हतासा को बीतते पल के साथ बढ़ा रही थीं।
जारी रहेगा...