Romance Shrishti - Ajab Duniya Ki Gazab Reet Re (Complete)

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भाग - 7



"बाते बहुत हुआ (श्रृष्टि को बीच में रोकर राघव आगे बोला) श्रृष्टि जी आपको एक मौका और दे रहा हूं अबकी मुझे निराश न करना। (फिर साक्षी से मुखातिब होकर बोला) साक्षी न्यू ज्वाइनी से परिचय हों गया हों तो काम पर लग जाओ।" इतना बोलकर राघव चला गया।

बिना कारण, बिना कोई गलती किए पहले ही दिन बॉस से सुनने को मिला जिस कारण श्रृष्टि उदास सी सिर झुकाए खडी थीं और साक्षी अपने साथियों को थम्स अप का इशारा करते हुए कह रहीं थीं उनका पैंतरा काम कर गया फ़िर श्रृष्टि के पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर बोलीं... श्रृष्टि (बस इतना बोलकर रूकी फिर चासनी की मिठास शब्दों में घोलकर आगे बोलीं) श्रृष्टि मना कि जो हुआ उसमे सारी गलती हमारी थीं फ़िर भी गलती का ठीकरा तुम पर ही फोड़ दिया इसके लिए माफ कर देना यार।

इतना बोलकर अपने साथियों की और देखकर इशारा किया तो वो लोग भी अपना अपना तर्क देकर माफ़ी मांगने लग गए। सभी को माफी मांगते देखकर श्रृष्टि हल्का सा मुस्कुरा दिया फिर मन ही मन बोलीं...तुम लोग जीतना मुझे बुद्धू समझ रहें हों मैं उतनी हूं नहीं, हां मना की मैं भोली दिखती हूं और कुछ हद तक भोली भी हूं पर इतना भी नहीं कि तुम लोगों की चापलूसी समझ न पाऊं, मैं तुम जैसे लोगों का सामना पहले भी कर चुकी हूं और अच्छा किया जो पहले ही दिन तुम लोगों ने अपनी फितरत दिखा दी।

श्रृष्टि ख़ुद से बाते करने में लगीं हुईं थीं और साक्षी एक बार फिर से बोलीं...अरे यार तुम न ज्यादा तनाव न लो हम ख़ुद सर से बात करेंगे और कहेंगे तुम्हारी कोई गलती नहीं थी हम ने ही तुम्हें काम करने से रोका था। (फ़िर अपने साथियों की ओर देखकर बोलीं) अरे तुम लोग भी कुछ बोलों।

सभी हामी भरते हुए अपनी अपनी बात कहने लग गए और श्रृष्टि मुस्कुराकर देखते हुए बोलीं... चलो अच्छा हुआ तुम लोगों को गलती का आभास तो हुआ। अब कुछ काम कर लेते हैं। आखिर हमे पगार गप्पे हाकने की नहीं बल्कि काम करने की मिलती हैं।

श्रृष्टि के कहने के बाद सभी काम में जुट गए। श्रृष्टि के पास पहले से ही काम का अनुभव था इसलिए उसे समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुआ। बीच बीच में अल्प विराम लिया जिसे साक्षी और उसके साथियों ने लंबा खींचना चाहा मगर श्रृष्टि उनके मनसा पर पानी फेरते हुए अपने काम में लग गई। मजबूरन उन्हें भी श्रृष्टि के साथ काम में लगना पड़ा।

शाम के वक्त सभी बैठें चाय की चुस्कियां ले रहे थे साथ ही हसीं ठिठौली भी कर रहें थे। उसी वक्त राघव वहा आया, द्वार भिड़ा हुआ था लेकिन पूरी तरह बंद नहीं था। लगभग चार इंची जितना झिर्री खुला हुआ था। वहा से भीतर देखा तो उसे श्रृष्टि दिखा जो चाय की चुस्कियां लेते हुए हंस हंस कर बात कर रहीं थीं। यह देखकर राघव की निगाह श्रृष्टि पर ठहर गया।

सहसा श्रृष्टि को लगा द्वार पर कोई हैं। इसलिए अपनी निगाह उस ओर कर लिया पर वहा उसे कोई नहीं दिखा तो भ्रम समझकर जानें दिया।

एक एक कर लगभग तीन दिन का समय बीत गया। इन तीन दिनों में साक्षी और उसके साथियों ने कई पैंतरे आजमाए ताकि वो श्रृष्टि को राघव की नजरो में गिरा सकें मगर ऐसा हों नहीं पाया बल्की इसका उल्टा ही असर हुए। काम के प्रति श्रृष्टि की लगन और जज्बा देखकर साक्षी के साथी श्रृष्टि की कायल हों गए। मगर साक्षी इससे ओर ज्यादा चीड़ गई इसलिए अपने तरकश में से एक और पैंतरा ढूंढ़ निकाला।

अगले दिन सभी काम में व्यस्त थे और साक्षी संडास जानें की बात कहकर निकल आई और जा पहुंची राघव के पास, साक्षी को आया देखकर राघव बोला...साक्षी कोई जरुरी काम था जो तुम इस वक्त मेंरे पास आई हों जबकि मैंने तुम्हें बुलाया भी नहीं!

साक्षी... हां सर बहुत जरुरी काम हैं।

राघव...अच्छा, चलो अपना जरुरी काम बाद में बताना पहले न्यू ज्वाइन श्रृष्टि के बारे मे बताओं वो काम कैसे कर रहीं हैं।

"ओ हो नई ज्वाइन श्रृष्टि की बडी फिक्र हैं।" मन ही मन इतना बोलकर अपने तरकश से तीर निकाला और राघव पर छोड़ दिया... सर मै श्रृष्टि के बारे में बात करने आई थीं। वो न अपने काम के प्रति बिलकुल भी ज़िम्मेदार नहीं हैं। अपने सही कहा था उसे नौकरी देकर अपने खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लिया हैं।

"ऐसा हैं।" खेद व्यक्त करते हुए ऐसे बोला जैसे उसे उसकी गलती का पछतावा हो रहा हो। तो साक्षी थोड़ ओर बढ़ा चढ़कर बोलीं... सर ये श्रृष्टि न, काम कम करती हैं और गप्पे ज्यादा हकती हैं। कितना भी कह लो सुनती ही नहीं हैं। मैं तो उससे परेशान हों चुकी हूं। मैं और मेरे साथी काम करते हैं और वो हम में से किसी को काम करने से रोककर बतियाने लग जाती हैं।

"ये तो श्रृष्टि बहुत गलत कर रहीं हैं।" पूरी बात राघव गुस्सैल लहजे में कहा तो साक्षी आगे बोलीं... सर मेरा काम था आपको अगाह करना जो मैंने कर दिया अब आपको जो करना हैं वो करे बाद में मुझे न कहना कि मैंने आपको पहले से अगाह क्यों नहीं किया?

राघव... ठीक हैं तुम जाओ ओर अपना काम करो, श्रृष्टि का क्या करना हैं? मैं सोचता हूं।

श्रृष्टि वहां जी जान लगाकर काम कर रहीं है और यहां साक्षी संडास जानें का बहाना करके श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान भरके चली गईं। साक्षी के जाते ही रिबिलिंग चेयर को थोडा पीछे खिसकाया फ़िर एक टांग पर टांग चढ़ाए दोनों हाथों को सिर के पीछे लगाकर रिविलिंग चेयर के पूस्त से टिकाए पैर को नाचते हुए रहस्यमई मुस्कान से मुस्कुराने लग गया।

दृश्य में बदलाब

साक्षी काम करने वाली कमरे में पहुंच चुकी थी। उसे देखकर श्रृष्टि बोलीं...साक्षी संडास में बहुत वक्त लगा दिया। क्या करने गई थीं जो इतना वक्त लग गया?

साक्षी... वहीं जो सभी करने जाते हैं।

श्रृष्टि... अच्छा, मैं तो कुछ और ही सोचा था। खैर छोड़ो चलो काम पर लगते हैं।

"हां हां करले जीतना काम करना है। तू यहां जी जान से काम कर रहीं है और वहां सर सोच रहे हैं तू गप्पे करने में मस्त हैं।" मन ही मन बोलकर काम में लग गई।

शाम को चाय के वक्त राघव उस कमरे के पास आया पर भीतर नहीं गया बहार खड़े होकर हसीं मजाक करते हुए चाय पीती हुई श्रृष्टि को कुछ वक्त तक देखता रहा फ़िर वापस जाते वक्त खुद से बोला…मुझे क्या हों गया हैं? क्यो श्रृष्टि को देखते ही मेरा दिल मचल सा उठता हैं? क्यों अलग सा अहसास मेरे दिल में जाग उठता हैं? क्यों मैं उसकी और खींचा चला आता हूं?

क्यों, क्यों और क्यो? राघव इस क्यों का जवाब ढूंढ रहा था मगर उसे मिल नहीं रहा था। यहां दिन पर दिन बीतता जा रहा था और राघव श्रृष्टि पर कोई करवाई नहीं कर रहा था जबकि साक्षी ने इस बीच मौका देखकर श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान कई बार भर चुका था। मगर राघव हैं कि दर्शक बने सपेरे का खेल देख रहा था। ऐसा क्यो कर रहा था? ये तो राघव ही जानता हैं। किंतु इसका नतीजा उलट ही दिख रहा था। राघव के बेपरवाह रवैया से साक्षी हद से ज्यादा चीड़ गईं। वो श्रृष्टि के सामने अच्छे होने का ढोंग करते रहना चाहती थी और पीठ पीछे श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान भी भरना चाहती थी। इसलिए खुलकर सामने से कुछ कर नहीं पा रही थीं।

साक्षी की चालबाजी से अंजान श्रृष्टि ईमानदारी और लगन से काम करने में लगीं हुईं थीं। श्रृष्टि के देखा देखी साक्षी सहित बाकी साथियों को भी लगन से काम करना पड़ रहा था या यू कहूं श्रृष्टि ख़ुद भी काम कर रहीं थी और बाकियों से भी काम करवा रहीं थीं। जिसका नतीजा ये हुआ। यहां प्रोजेक्ट जो काफी समय से लटका हुआ था लगभग समाप्ति के कगार पर आ चुका था।

राघव ने श्रृष्टि को मात्र एक हफ्ता साक्षी के साथ काम करने को कहा था। मगर दो हफ्ता श्रृष्टि को साक्षी के साथ काम करते हुए बीत चुका था। जिसकी चिंता साक्षी का वजन दिन पर दिन कम करता जा रहा था मगर श्रृष्टि पर इस बात का कोई असर ही नहीं पड़ रहा था उसे तो काम से मतलब था चाहे वो साक्षी के साथ करे या किसी और के साथ करें। ऐसे में एक दिन सुबह ऑफिस आते ही राघव ने श्रृष्टि और
साक्षी सहित पूरे टीम को बुलवा भेजा।

जारी रहेगा...
 
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"बाते बहुत हुआ (श्रृष्टि को बीच में रोकर राघव आगे बोला) श्रृष्टि जी आपको एक मौका और दे रहा हूं अबकी मुझे निराश न करना। (फिर साक्षी से मुखातिब होकर बोला) साक्षी न्यू ज्वाइनी से परिचय हों गया हों तो काम पर लग जाओ।" इतना बोलकर राघव चला गया।

बिना कारण, बिना कोई गलती किए पहले ही दिन बॉस से सुनने को मिला जिस कारण श्रृष्टि उदास सी सिर झुकाए खडी थीं और साक्षी अपने साथियों को थम्स अप का इशारा करते हुए कह रहीं थीं उनका पैंतरा काम कर गया फ़िर श्रृष्टि के पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर बोलीं... श्रृष्टि (बस इतना बोलकर रूकी फिर चासनी की मिठास शब्दों में घोलकर आगे बोलीं) श्रृष्टि मना कि जो हुआ उसमे सारी गलती हमारी थीं फ़िर भी गलती का ठीकरा तुम पर ही फोड़ दिया इसके लिए माफ कर देना यार।

इतना बोलकर अपने साथियों की और देखकर इशारा किया तो वो लोग भी अपना अपना तर्क देकर माफ़ी मांगने लग गए। सभी को माफी मांगते देखकर श्रृष्टि हल्का सा मुस्कुरा दिया फिर मन ही मन बोलीं...तुम लोग जीतना मुझे बुद्धू समझ रहें हों मैं उतनी हूं नहीं, हां मना की मैं भोली दिखती हूं और कुछ हद तक भोली भी हूं पर इतना भी नहीं कि तुम लोगों की चापलूसी समझ न पाऊं, मैं तुम जैसे लोगों का सामना पहले भी कर चुकी हूं और अच्छा किया जो पहले ही दिन तुम लोगों ने अपनी फितरत दिखा दी।

श्रृष्टि ख़ुद से बाते करने में लगीं हुईं थीं और साक्षी एक बार फिर से बोलीं...अरे यार तुम न ज्यादा तनाव न लो हम ख़ुद सर से बात करेंगे और कहेंगे तुम्हारी कोई गलती नहीं थी हम ने ही तुम्हें काम करने से रोका था। (फ़िर अपने साथियों की ओर देखकर बोलीं) अरे तुम लोग भी कुछ बोलों।

सभी हामी भरते हुए अपनी अपनी बात कहने लग गए और श्रृष्टि मुस्कुराकर देखते हुए बोलीं... चलो अच्छा हुआ तुम लोगों को गलती का आभास तो हुआ। अब कुछ काम कर लेते हैं। आखिर हमे पगार गप्पे हाकने की नहीं बल्कि काम करने की मिलती हैं।

श्रृष्टि के कहने के बाद सभी काम में जुट गए। श्रृष्टि के पास पहले से ही काम का अनुभव था इसलिए उसे समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुआ। बीच बीच में अल्प विराम लिया जिसे साक्षी और उसके साथियों ने लंबा खींचना चाहा मगर श्रृष्टि उनके मनसा पर पानी फेरते हुए अपने काम में लग गई। मजबूरन उन्हें भी श्रृष्टि के साथ काम में लगना पड़ा।

शाम के वक्त सभी बैठें चाय की चुस्कियां ले रहे थे साथ ही हसीं ठिठौली भी कर रहें थे। उसी वक्त राघव वहा आया, द्वार भिड़ा हुआ था लेकिन पूरी तरह बंद नहीं था। लगभग चार इंची जितना झिर्री खुला हुआ था। वहा से भीतर देखा तो उसे श्रृष्टि दिखा जो चाय की चुस्कियां लेते हुए हंस हंस कर बात कर रहीं थीं। यह देखकर राघव की निगाह श्रृष्टि पर ठहर गया।

सहसा श्रृष्टि को लगा द्वार पर कोई हैं। इसलिए अपनी निगाह उस ओर कर लिया पर वहा उसे कोई नहीं दिखा तो भ्रम समझकर जानें दिया।

एक एक कर लगभग तीन दिन का समय बीत गया। इन तीन दिनों में साक्षी और उसके साथियों ने कई पैंतरे आजमाए ताकि वो श्रृष्टि को राघव की नजरो में गिरा सकें मगर ऐसा हों नहीं पाया बल्की इसका उल्टा ही असर हुए। काम के प्रति श्रृष्टि की लगन और जज्बा देखकर साक्षी के साथी श्रृष्टि की कायल हों गए। मगर साक्षी इससे ओर ज्यादा चीड़ गई इसलिए अपने तरकश में से एक और पैंतरा ढूंढ़ निकाला।

अगले दिन सभी काम में व्यस्त थे और साक्षी संडास जानें की बात कहकर निकल आई और जा पहुंची राघव के पास, साक्षी को आया देखकर राघव बोला...साक्षी कोई जरुरी काम था जो तुम इस वक्त मेंरे पास आई हों जबकि मैंने तुम्हें बुलाया भी नहीं!

साक्षी... हां सर बहुत जरुरी काम हैं।

राघव...अच्छा, चलो अपना जरुरी काम बाद में बताना पहले न्यू ज्वाइन श्रृष्टि के बारे मे बताओं वो काम कैसे कर रहीं हैं।

"ओ हो नई ज्वाइन श्रृष्टि की बडी फिक्र हैं।" मन ही मन इतना बोलकर अपने तरकश से तीर निकाला और राघव पर छोड़ दिया... सर मै श्रृष्टि के बारे में बात करने आई थीं। वो न अपने काम के प्रति बिलकुल भी ज़िम्मेदार नहीं हैं। अपने सही कहा था उसे नौकरी देकर अपने खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लिया हैं।

"ऐसा हैं।" खेद व्यक्त करते हुए ऐसे बोला जैसे उसे उसकी गलती का पछतावा हो रहा हो। तो साक्षी थोड़ ओर बढ़ा चढ़कर बोलीं... सर ये श्रृष्टि न, काम कम करती हैं और गप्पे ज्यादा हकती हैं। कितना भी कह लो सुनती ही नहीं हैं। मैं तो उससे परेशान हों चुकी हूं। मैं और मेरे साथी काम करते हैं और वो हम में से किसी को काम करने से रोककर बतियाने लग जाती हैं।

"ये तो श्रृष्टि बहुत गलत कर रहीं हैं।" पूरी बात राघव गुस्सैल लहजे में कहा तो साक्षी आगे बोलीं... सर मेरा काम था आपको अगाह करना जो मैंने कर दिया अब आपको जो करना हैं वो करे बाद में मुझे न कहना कि मैंने आपको पहले से अगाह क्यों नहीं किया?

राघव... ठीक हैं तुम जाओ ओर अपना काम करो, श्रृष्टि का क्या करना हैं? मैं सोचता हूं।

श्रृष्टि वहां जी जान लगाकर काम कर रहीं है और यहां साक्षी संडास जानें का बहाना करके श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान भरके चली गईं। साक्षी के जाते ही रिबिलिंग चेयर को थोडा पीछे खिसकाया फ़िर एक टांग पर टांग चढ़ाए दोनों हाथों को सिर के पीछे लगाकर रिविलिंग चेयर के पूस्त से टिकाए पैर को नाचते हुए रहस्यमई मुस्कान से मुस्कुराने लग गया।

दृश्य में बदलाब

साक्षी काम करने वाली कमरे में पहुंच चुकी थी। उसे देखकर श्रृष्टि बोलीं...साक्षी संडास में बहुत वक्त लगा दिया। क्या करने गई थीं जो इतना वक्त लग गया?

साक्षी... वहीं जो सभी करने जाते हैं।

श्रृष्टि... अच्छा, मैं तो कुछ और ही सोचा था। खैर छोड़ो चलो काम पर लगते हैं।

"हां हां करले जीतना काम करना है। तू यहां जी जान से काम कर रहीं है और वहां सर सोच रहे हैं तू गप्पे करने में मस्त हैं।" मन ही मन बोलकर काम में लग गई।

शाम को चाय के वक्त राघव उस कमरे के पास आया पर भीतर नहीं गया बहार खड़े होकर हसीं मजाक करते हुए चाय पीती हुई श्रृष्टि को कुछ वक्त तक देखता रहा फ़िर वापस जाते वक्त खुद से बोला…मुझे क्या हों गया हैं? क्यो श्रृष्टि को देखते ही मेरा दिल मचल सा उठता हैं? क्यों अलग सा अहसास मेरे दिल में जाग उठता हैं? क्यों मैं उसकी और खींचा चला आता हूं?

क्यों, क्यों और क्यो? राघव इस क्यों का जवाब ढूंढ रहा था मगर उसे मिल नहीं रहा था। यहां दिन पर दिन बीतता जा रहा था और राघव श्रृष्टि पर कोई करवाई नहीं कर रहा था जबकि साक्षी ने इस बीच मौका देखकर श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान कई बार भर चुका था। मगर राघव हैं कि दर्शक बने सपेरे का खेल देख रहा था। ऐसा क्यो कर रहा था? ये तो राघव ही जानता हैं। किंतु इसका नतीजा उलट ही दिख रहा था। राघव के बेपरवाह रवैया से साक्षी हद से ज्यादा चीड़ गईं। वो श्रृष्टि के सामने अच्छे होने का ढोंग करते रहना चाहती थी और पीठ पीछे श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान भी भरना चाहती थी। इसलिए खुलकर सामने से कुछ कर नहीं पा रही थीं।

साक्षी की चालबाजी से अंजान श्रृष्टि ईमानदारी और लगन से काम करने में लगीं हुईं थीं। श्रृष्टि के देखा देखी साक्षी सहित बाकी साथियों को भी लगन से काम करना पड़ रहा था या यू कहूं श्रृष्टि ख़ुद भी काम कर रहीं थी और बाकियों से भी काम करवा रहीं थीं। जिसका नतीजा ये हुआ। यहां प्रोजेक्ट जो काफी समय से लटका हुआ था लगभग समाप्ति के कगार पर आ चुका था।

राघव ने श्रृष्टि को मात्र एक हफ्ता साक्षी के साथ काम करने को कहा था। मगर दो हफ्ता श्रृष्टि को साक्षी के साथ काम करते हुए बीत चुका था। जिसकी चिंता साक्षी का वजन दिन पर दिन कम करता जा रहा था मगर श्रृष्टि पर इस बात का कोई असर ही नहीं पड़ रहा था उसे तो काम से मतलब था चाहे वो साक्षी के साथ करे या किसी और के साथ करें। ऐसे में एक दिन सुबह ऑफिस आते ही राघव ने श्रृष्टि और
साक्षी सहित पूरे टीम को बुलवा भेजा।

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भाग - 8


बॉस का बुलावा आए और कलीग न जाए ऐसा भाला हों सकता हैं। सभी एक के बाद एक कमरे के भीतर प्रवेश कर गए। सबसे अंत में श्रृष्टि कमरे के भीतर प्रवेश किया। न चाहते हुए भी राघव की निगाह एक बार फ़िर श्रृष्टि के भोला, मासूम, खिला हुआ चेहरा और लबों पर तैरती मुस्कान पर अटक गया।


निगाहें अटकाए राघव श्रृष्टि को देखने में व्यस्त था और श्रृष्टि दो चार कदम भीतर की ओर बढ़ी ही थी कि सहसा उसे आभास हुआ। उसका बॉस उसे टकटकी लगाए देख रहा हैं।


आभास होते ही श्रृष्टि के गालों पर शर्म की लाली छा गईं और मंद मंद मुस्कान से मुस्कराते हुए अपने निगाहों को नीचे झुका लिया। उधर राघव के लवों पर भी स्वतः ही मुस्कान तैर गया।


दोनों के इस बरताव पर भले ही किसी ओर की नज़र पड़ा हों चाहें न पड़ा हों लेकिन साक्षी की निगाहों से बच न सका।


राघव को द्वार की ओर टकटकी लगाए देखते हुए मुस्कुराता देखकर साक्षी ने भी अपनी निगाह उस ओर कर लिया। वहा शरमाई सी मुस्कुराती हुई श्रृष्टि, साक्षी की निगाह में आ गईं। ये देखकर मन ही मन बोलीं... तो ये बात हैं। ये श्रृष्टि तो बडी तेज निकली अभी आए हुए कुछ ही दिन हुआ हैं और देखो कैसे सर से नैन लड़ा रहीं हैं। एक मैं हूं जो कब से कोशिश कर रहीं हूं और सर है की पिघलते ही नहीं!


दोनों के नैनों से नैनों का टकराव शायद साक्षी को हजम नहीं हुआ इसलिए मेज पर रखा फ्लॉवर पॉट को टेबल से नीचे धकेलकर गिरा दिया।


फ्लॉवर पॉट के टूटने की आवाज़ कानों को छूते ही राघव की तंद्रा टूटा और हकलताते हुए बोला... क क क्या टूटा


"टूटा तो फ्लॉवर पॉट हैं पर लगाता है किसी का कुछ ओर भी टूट गया।" यहां आवाज साक्षी की थी। जिसमे तंज का घोल शब्दो में घुला हुआ था।


कोई बात नहीं, कभी न कभी इसे टूटना ही था तो आज ही टूट गया। (फिर सामने की और देखकर बोला) अरे श्रृष्टि जी आप वहा खडी क्यों हो आगे आओ।


राघव की आवाज कानों को छूते ही श्रृष्टि की झुकी हुई निगाहें ऊपर उठा तब एक बार फ़िर से दोनों की निगाह टकरा गई। मंद मंद मुस्कान लवों पर सजाएं कुछ कदम की दुरी तय कर मेज के पास आकर खड़ी हों गईं।


राघव की निगाह जो अब तक श्रृष्टि पर टिका हुआ था। श्रृष्टि के नजदीक आते ही राघव बोला... श्रृष्टि जी आप अपना काम जिम्मेदारी से कर रहीं हों न (फ़िर साक्षी से मुखातिब होकर बोला) साक्षी जरा इनके काम काज का विवरण दो आखिर पता तो चले श्रृष्टि जी जिम्मेदारी से काम कर रहीं हैं कि नहीं या फ़िर बतियाने में ही समय काट रहीं हैं।


राघव की बाते श्रृष्टि को चुभ गई। उसका असर यूं हुआ लवों से मुस्कान नदारद हों गई और खिला हुआ चेहरा बुझ सा गया।


साक्षी से जवाब देते नहीं बन रहा था। आखिर कहती भी तो क्या कहती श्रृष्टि के खिलाफ कान उसी ने भरे थे। अब उसी मुंह से श्रृष्टि का गुण गान करना था जो उससे हों नहीं रहा था। इसलिए साक्षी चुप रहीं मगर दूसरे साथियों में से एक बोला पड़ा...सर सिर्फ जिम्मेदारी कहना गलत होगा बल्की श्रृष्टि मैम बहुत ज्यादा जिम्मेदारी से काम कर रहीं हैं। इनके भीतर काम को लेकर अलग ही जज्बा और जुनून हैं। श्रृष्टि मैम जब काम करती हैं तो सूद बूद खोए इनका ध्यान सिर्फ़ काम पर ही रहता हैं। सर हम तो इनके कायल हों गए हैं।


"सर वैसे तो कहना नहीं चाहिए क्योंकि यह बात हमारे साख पर भी सवाल खड़ा करता हैं। मगर सच कहने में कोई गुरेज नहीं हैं। श्रृष्टि मैम की योग्यता अतुलनीय है। जिस प्रॉजेक्ट को हम पूर्ण नहीं कर पा रहे थे। सिर्फ़ कुछ ही दिनों में श्रृष्टि मैम के वजह से वह प्रॉजेक्ट पूर्ण होने के कगार पर पहुंच गया।" यहां शब्द दूसरे सहयोगी का था।


सहयोगियों से तारीफ, जिसकी शायद ही श्रृष्टि ने उम्मीद किया था क्योंकि पहले ही दिन उन लोगों ने जो सलूक उसके साथ किया था। उसके बाद उनसे तारीफ की उम्मीद करना व्यर्थ था मगर आज उन्होंने श्रृष्टि के इस भ्रम को तोड़ दिया। जिस कारण श्रृष्टि का बुझा हुआ मुखड़ा फिर से खिल उठा।


उम्मीद तो साक्षी को भी नही था कि लंबे समय से उसके साथ काम कर रहे उसके साथीगण बस कुछ दिन श्रृष्टि के साथ काम करके उसकी मुरीद बन जायेंगे और बॉस के सामने तरीफो के पुल बांध देंगे मगर उन्होंने वहीं कहा जो सच था। जिसे सुनकर राघव बोला... श्रृष्टि जी अपने मेरी धरना को गलत ठहरा दिया। अपने सिद्ध कर दिया मैंने आपको नौकरी देकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारा हैं। ( फ़िर साक्षी से मुखातिब होकर बोल) श्रृष्टि जी का रिपोर्ट कार्ड साक्षी तुमसे मांगा था। तुमने कुछ कहा नहीं मगर तुम्हारे दूसरे साथियों ने कह दिया। मुझे लगाता हैं तुम्हारा भी यहीं कहना होगा। क्यों मैं सही कह रहा हूं न?


साक्षी के पास हां कहने के अलावा दुसरा कोई रास्ता बचा ही नहीं था। इसलिए उसके मुंह से सिर्फ़ हां ही निकला इसका मतलब साक्षी की हां उसके मन से नहीं निकला था। अपितु सहयोगियों से श्रृष्टि की तारीफे सुनकर श्रृष्टि के प्रति साक्षी के मन में द्वेष पैदा हों गया।


साक्षी से हां सुनने के बाद राघव बोला... चलो अच्छा हुआ जो यहां प्रॉजेक्ट पूर्ण होने के कगार पर आ गया। श्रृष्टि जी कितने दिन और लगेंगे कुछ अंदाजा हैं।


श्रृष्टि… सर तीन से चार दिन ओर लग जायेंगे।


"जी सर इतने दिन ओर लग जायेंगे।" सहसा सहयोगियों में से एक बोला जिसके जवाब में राघव बोला... ठीक है। उस प्रॉजेक्ट को खत्म करो फ़िर तुम सभी को मेरे और से उपहार मिलेगा और श्रृष्टि जी के लिए मेरे पास एक खाश उपहार हैं।(फ़िर साक्षी से मुखातिब होकर बोला) तुम क्या कहती हो श्रृष्टि जी को खाश उपहार मिलना चाहिए की नही?


हर एक बात के लिए साक्षी को बीच में खीच लेना साक्षी को सुहा नहीं रहा था। भीतर ही भीतर साक्षी गुस्से में खौल रहीं थीं, उबाल रहीं थी मगर विडंबना ये थी कि प्रत्यक्ष रूप से दर्शा नहीं पा रही थीं। साक्षी का यूं गुस्सा करना जायज़ नहीं था क्योंकि साक्षी सच्चाई से अवगत थीं। श्रृष्टि ने काम ही तारीफो वाला किया था। खैर साक्षी से कुछ बोला नहीं गया मगर श्रृष्टि बोलने से खुद को रोक नहीं पाई... सर अपने खास उपहार मुझे देने की बात कहा जानकार अच्छा लगा मगर मुझे लगाता हैं खास उपहार साक्षी मैम को मिलना चाहिए क्योंकि वो प्रॉजेक्ट हेड हैं और प्रॉजेक्ट पूर्ण होने का सारा श्रेय साक्षी मैम को दिया जाना चाहिए।


श्रृष्टि की ये बातें राघव सहित सभी को भा गया। एक पल को साक्षी के कानों को सुखद अनुभूति करवाया लेकिन अगले ही पल साक्षी पूर्ववत हों गई क्योंकि उसे लगा श्रृष्टि उसकी पैरवी करके उस पर कोई अहसान कर रही हैं।


श्रृष्टि की बाते सुनकर राघव मुस्कुरा दिया फ़िर शांत लहजे में बोला... श्रृष्टि जी आपकी सोच की मैं दाद देता हूं क्योंकि आज कल लोग बिना कुछ किए भी श्रेय लेने के ताक में रहते हैं और अपने तो श्रेय पाने लायक काम किया हैं इसलिए आप सभी के बॉस होने के नाते फैसला लेने का मै अधिकार रखता हूं। किसको क्या मिलना चाहिए ये मुझ पर छोड़ दीजिए। अब आप सभी जाइए ओर अपना काम कीजिए।


राघव के कहने पर एक एक कर सभी चलते बने सभी के जाते ही राघव एक बार फ़िर से अपने रिविलिंग चेयर को पीछे खिसकाकर एक पैर पर दुसरा पैर चढ़ाकर दोनों हाथों को सिर के पीछे टिकाए हाथ सहित सिर को चेयर के पुस्त से टिका लिया फ़िर रहस्यमई मुस्कान बिखेरते हुए मुस्कुराने लग गया।


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राघव के कहने पर एक एक कर सभी चलते बने सभी के जाते ही राघव एक बार फ़िर से अपने रिविलिंग चेयर को पीछे खिसकाकर एक पैर पर दुसरा पैर चढ़ाकर दोनों हाथों को सिर के पीछे टिकाए हाथ सहित सिर को चेयर के पुस्त से टिका लिया फ़िर रहस्यमई मुस्कान बिखेरते हुए मुस्कुराने लग गया।

दिन भर की कामों से निजात पाकर शाम को श्रृष्टि घर पहुंची, थकान से परिपूर्ण बेटी का चेहरा देखकर माताश्री बोलीं... श्रृष्टि बेटा जाओ कपड़े बदलकर आओ फिर तेरी सिर की मालिश करके दिन भर की थकान दूर कर देती हूं।

"बस अभी आई" बोलकर श्रृष्टि कमरे में चली गई। कुछ ही देर में कपड़े बदलकर बहार आई। तब तक माताश्री कटोरी में तेल लिए मालिश की तैयारी कर चुकी थीं।

माताश्री के सामने जाकर श्रृष्टि पलथी मारकर जमीन पर बैठा गई और मताश्री तेल डालकर बालों में अच्छे से फैला दिया फ़िर.. ठप.. ठप, ठप ठपाठप, ठप ठप…


"अहा मां दर्द होता हैं।"

"उमहु रूक न मालिश वाले गाने की सज ढूंढ़ रहीं हूं।"

"उसके लिए बाध्य यंत्र बजाओ मेरा सिर क्यों बजा रहीं हो।"

"अहा तू कुछ देर चुप बैठ न"

ठप.. ठप, ठप ठपाठप, ठप ठप…

हूं हूं हूं हूं…
बम अकड बम के
मैं चम्पी करूं जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये...
बम अकड बम के
मैं चम्पी करूं जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये...
तन की थकन मैं दूर करूं
मन में नयी उमंग भरूं
ताक धीना धीन, ताक धीना धीन
ताक धीना धीन, दीधीन दीधीन...
बम अकड बम के
मैं चम्पी करूं जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये
बम अकड बम के….
दुनिया है क्या सर्कस नया
कुछ भी नहीं जोकर है हम…

"मां रूको इससे आगे मैं गाऊंगी"

दुनिया है क्या सर्कस नया
कुछ भी नहीं जोकर है हम
तुम जो बोलो वो करके दिखाऊं
उंगली पे सारे जग को नचाऊँ
कह रहे है ज़मीन आसमान
ऐसा परिवार होगा कहा
इस घर पे मेरा
सब कुछ निसार है…

आगे के बोल मां बेटी ने साथ में गया

बम अकड बम के
मैं चम्पी करूं जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये…
बूम अकड बूम के
मैं चम्पी करून जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये
मालिक हो तुम….

"मां रूको ऐसे नहीं आगे का मै गाकर सुनती हूं।"

मां हो तुम, बेटी हूं मैं
इस बात की मुझको है खुशी
मां हो तुम, बेटी हूं मैं
इस बात की मुझको है खुशी
कहना मानूं सदा आपकी
खिदमत में आपकी शीश झुकाऊं
माँ ने दी है मुझे जिंदगी
मेहनत ही शौहरत हैं मेरी
ये बात आपने सिखाया
बम अकड बम के
चम्पी करो जमके
तो बंद अकल मेरी खुल जाये…

(नोट:- यहां गाना अपने जमने का एक मशहूर गाना है जिसे समीर साहब ने लिखा। मैं इस गाने में कुछ फेर बादल किया जो कि गलत हैं इसके लिए मैं आप सभी प्रिय पाठक बंधुओं से माफी मांगता हूं।)

अंत के जितने भी बोल श्रृष्टि ने ख़ुद से बनाया फिर गाकर सुनाया उसे सुनकर माताश्री के हाथ स्वत ही रूक गए और आंखो से कुछ बूंद आंसू के मोती श्रृष्टि के सिर पर गिर गया।

माताश्री के हाथ रूकते ही अच्छी खासी चल रही मालिश में विघ्न पड़ गया। जिसका आभास होते ही श्रृष्टि बोलीं... मां रूक क्यों गईं। मालिश करो न बड़ा सकून मिल रहा था।

श्रृष्टि की आवाज कानों को छूते ही। माताश्री ने बहते आसुओं को पोछकार फिर से मालिश करने में लग गईं। कुछ देर की मालिश के बाद श्रृष्टि मां की ओर पलटी फ़िर उनके गोद में सिर रखकर बोलीं... मां आपको पाता है आज ऑफिस में क्या हुआ?

"मुझे कैसे पाता चलेगा। तू ने अभी तक बताया ही नहीं।" बेटी के सिर पर हाथ फिरते हुए माताश्री बोलीं।

श्रृष्टि.. मां आप तो जानती हों पहले ही दिन मेरे सहयोगियों ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया था लेकिन आज जब सर मेरा रिपोर्ट कार्ड जानने सभी को बुलाया तब चमत्कार हों गया सभी ने सिर्फ मेरी तारीफ़ किया। उनकी बातें सुनकर मैं हैरान रह गई।

"मेरी बेटी इतनी हुनरमंद और मेहनती हैं कि उन्हें तारीफ तो करना ही था।" शाबाशी का भाव शब्दों में घोलकर माताश्री बोलीं।

"पर मां वो साक्षी मैम मूझसे बिलकुल भी खुश नही थी। जब सर ने मुझे खास उपहार देने की बात कहीं उसके बाद मेरे सभी सहयोगियों ने मुझे बधाई दिया मगर साक्षी मैम ने कुछ भी नहीं बोला सिर्फ़ इतना ही नहीं वो दिन भर मूझसे ठीक से बात नहीं किया , मूझसे रूठी रूठी सी रहीं।" शिकायती लहजे में माताश्री को सारा सार सुना दिया।

"श्रृष्टि बेटा ये जो श्रृष्टि है न ये बड़ा अजीब है इसे जितना समझना चाहो उतना ही उलझा देती हैं। जैसे हाथ की पांचों उंगलियां एक बराबर नहीं होती वैसे ही सभी लोग एक जैसे नहीं होते। किसी को तुम्हारा काम पसन्द आयेगा किसी को नहीं, जिन्हे तुम्हारा काम पसन्द नहीं आ रहा है उन पर तुम्हें खास ध्यान देने की जरूरत हैं क्योंकि ऐसे लोगों के मन में तुम्हारे लिए द्वेष उत्पान हों जायेगा फ़िर द्वेष के चलते तुम्हें सभी के नजरों में गिराने की ताक में लगे रहेंगे।" ज्ञान का घोल बेटी को पिलाते हुए माताश्री बोलीं।

माताश्री की बातों का जवाब सिर्फ़ हां में दिया फिर कुछ देर की चुप्पी के बाद श्रृष्टि बोलीं... मां साक्षात्कार वाले दिन जिन अंकल ने मेरी मदद किया था मैं उन्हें धन्यवाद कहना चहता हूं। मगर मेरे पास उनका पाता ठिकाना नहीं हैं।

"तो क्या तुम खाली हाथ धन्यवाद देने जाओगी। उन्होंने तुम पर बहुत बड़ा अहसान किया हैं। सिर्फ़ उन्हीं के कारण तुम्हें नौकरी मिला है इसलिए मुझे लगाता हैं तुम्हें खाली हाथ नहीं बल्की कुछ लेकर जाना चाहिए"

श्रृष्टि…मां मैं उनका अहसान जिंदगी भर उतार नहीं पाऊंगी फ़िर भी मैं सोच रहीं थी जब मेरी पहली सेलरी मिलेगी तब सबसे पहले उनके लिए मिठाई और एक जोड़ी पैंट शर्ट का कपड़ा लेकर जाऊं क्योंकि उस दिन मैंने देखा था उनका शार्ट कई जगह से फटा हुआ था जिसे सिल रखे थे मगर कहां जाने पर वो मिलेंगे यहीं तो पाता नहीं हैं।

"पहले तुम्हें सैलरी मिल जाएं फ़िर क्या करना हैं बता दूंगी। अगर इस बीच वो दिख जाएं तो उनसे उनका पाता ठिकाना या फ़िर नम्बर मांग लेना।"

"ये अपने सही कह। अच्छा मां मैं बाल धोकर आती हूं तब तक आप कड़क चाय बना लो।"

अगले दिन से श्रृष्टि की कर्म यात्रा एक बार फिर सुचारू हो गई। श्रृष्टि का एक मात्र लक्ष्य था कैसे भी करके अपूर्ण रह गए काम को चार दिन से पहले खत्म कर लिया जाएं। जिसमें उसके सहयोगी भरपूर साथ दे रहें थे मगर साक्षी के मन में द्वेष का पर्दा पड़ चुका था।

साक्षी किसी भी कीमत पर अपूर्ण रह गए काम को पूर्ण होने से रोकना चाहती थीं। इसलिए कभी वो कमरे की लाइट बंद कर देती थी जो की एक बचकाना हरकत थी फ़िर भी कुछ वक्त का नुकसान हों ही जाता था।

कभी वो चाय नाश्ते के बहाने सहयोगियों को बातो में माजा लेती तो कभी जरुरी फाइल कही छुपा देती। जिस वजह से सिर्फ समय की बर्बादी हों रहा था।

जीतना समय श्रृष्टि के हाथ में बच रहा था उतने समय का सदुपयोग करते हुए ओर ज्यादा लगन और रफ़्तार से ख़ुद भी काम कर रहीं थी और सहयोगियों से काम करवा रहीं थीं।

इतनी लगन और रफ़्तार से काम करने का कोई फायदा नहीं हुआ। अंतः साक्षी अपने मकसद में कामियाब हों ही गई। श्रृष्टि को दिए समय से तीन दिन ऊपर हों चुका था। देर होने का जीतना पश्तवा श्रृष्टि को हों रहा था उतना ही साक्षी मन ही मन खुश हों रहीं थीं।

बीते एक हफ्ते से राघव रोजाना शाम के चाय के वक्त वह आता रहा मगर भीतर न जाकर बहार से ही छुप छुप कर श्रृष्टि को देखकर चला जाया करता था। आज फिर शाम के वक्त आया और श्रृष्टि को छुप कर देख रहा था कि सहसा श्रृष्टि
को आभास हुआ। द्वार पर कोई हैं।

"द्वार पर कौन हैं।" बोलकर चाय का काफ रखा और द्वार की और चल दिया।

जारी रहेगा…..
 
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भाग - 10

सहसा श्रृष्टि के आवाज देने से राघव के मस्तिस्क का सर्किट उलझ गया। क्या करे क्या न करे असमंजस की स्थिति में फस गया। मन किया वापस लौट जाएं मगर वो भी नहीं कर सकता था। क्योंकि श्रृष्टि द्वार की ओर आ रहीं थीं। कुछ ही कदम आगे बढ़ पाता कि श्रृष्टि बहार निकलकर उसे देख लेती फ़िर न जानें श्रृष्टि क्या क्या सोच लेती। सहसा राघव ने द्वार को धक्का दिया फ़िर बोला…श्रृष्टि जी मैं राघव।

"अरे सर आप..।" बस इतना ही बोला था कि श्रृष्टि के मन में एक शंका उत्पान हुआ और मन ही मन बोलीं...कही सर छुपकर तो नहीं देख रहे थे पर उन्हे छुपकर देखने की जरूरत क्यों पड़ गईं? वो जब चाहें भीतर आ सकते हैं फिर छुप कर देखने की वजह क्या हों सकता हैं? कहीं सर मुझे... नहीं नहीं मुझे क्यों देखने लगे, उस दिन भी तो कैसे टकटकी लगाएं देख रहे थे। जब हम सभी उनके कमरे में गए थे। तो आज छुप कर क्यों नहीं देख सकते हैं? नहीं नहीं सर ऐसा नहीं कर सकते। मैं भी कितनी पागल हूं क्या से क्या सोचने लग गई लगाता है ज्यादा काम की वजह से मेरा दिमाग फिर गया हैं।

राघव जिस शंका के चलते वापस नहीं गया। आखिरकार श्रृष्टि के मस्तिष्क ने उस ओर इशारा कर ही दिया। मगर इस वाबली ने अलग ही तर्क देकर अपने मस्तिष्क को चुप करा दिया।

यहां श्रृष्टि ख़ुद से बाते करने में मग्न थी ठीक उसी वक्त राघव भी खुद से बाते करने में मग्न था "कहीं श्रृष्टि जी को शक तो नहीं हों गया कि मैं उन्हें छुपकर देख रहा था। नहीं नहीं उनके शक को पुख्ता होने नहीं दिया जा सकता। मुझे कुछ करना होगा जिससे उनका ध्यान उस और न जाएं।"

अजीब कशमकश में दोनो उलझे हुए हैं। एक को शक हों गया मगर अपने मस्तिष्क को तर्क देकर उस ओर सोचने से रोक दिया। दुसरा अगर शक हुआ भी है तो शक को पुख्ता करने के लिए शक पर ध्यान केंद्रित न कर पाएं। उससे रोकना चहता हैं। क्या लिखा है दोनों की किस्मत में ये तो वक्त ही बता सकता हैं हमे सिर्फ उस वक्त का इंतजार करना हैं। खैर राघव अपने मन की बातों को विराम देते हुए बोला...श्रृष्टि जी काम कहा तक पूरा हुआ।

श्रृष्टि तो उस वक्त मन ही मन खुद से बातें करने में मग्न थी। राघव की बातों को कितना सूना कीतना नहीं ये तो सृष्टि ही जाने। जब मन की बाते खत्म हुआ तब श्रृष्टि बोली…सर आप मेरे लिए जी न लगाया करो।

श्रृष्टि की बाते सुनकर किसी को फर्क पड़ा हों चाहें न पड़ा हों मगर साक्षी को बहुत ज्यादा फर्क पड़ा तभी तो धीरे से बोली... ओ तो किस्सा यहां तक पहुंच गया। मोहतरमा को जी सुनना पसन्द नहीं हैं। तो क्या जी बोलना पसन्द हैं?

इतना बोलकर साक्षी अपने नजरों को इधर उधर घुमाया, कही किसी ने सुना तो नहीं, जब देखा उसके नजदीक कोई खड़ा नहीं हैं तब अपना ध्यान सामने की ओर कर लिया। जहां राघव मुस्कुराते हुए बोला...क्यों?

श्रृष्टि... सर मुझे अच्छा नहीं लगता हैं। आप सिर्फ मेरा नाम लिया कीजिए जैसे साक्षी मैम का और बाकियों का लेते हों।

राघव... अच्छा ठीक हैं श्रृष्टि जी ओ नही नही श्रृष्टि! अब आप ये बताइए काम कहा तक पंहुचा।

श्रृष्टि...सॉरी सर मैंने आपको जो समय बताया था उतने समय में काम पुरा नहीं कर पाई बल्की उससे तीन दिन ज्यादा हों गया फिर भी थोडा काम बाकी रह गया।

राघव... लगता है ज्यादा तारीफ़ करने से आप हवा में उड़ने लग गईं थीं जो चार दिन के जगह सात दिन में भी काम पूरा नहीं हों पाया। लगता है आप भी कुछ लोगों की तरह अलसी हों गई हों ( इतनी बाते साक्षी की ओर देखकर बोला फिर श्रृष्टि की ओर देखकर आगे बोला) श्रृष्टि जिम्मेदारी से काम नहीं कर सकतीं हों तो जिम्मेदारी लेना भी नहीं चाहिए और वादा तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। जीतना काम रह गया उसे जल्दी से पूरा कर लिजिए।

इतना बोलकर राघव चला गया और श्रृष्टि एक बार फिर राघव की बातों से आहत हो गई। करें कोई भरे कोई वाला किस्सा एक बार फिर श्रृष्टि के साथ हों गया। काम समय से पूरा न हों पाए इसके लिए अडंगा साक्षी ने लगाया और सुनना श्रृष्टि को पड़ा।

जहां श्रृष्टि आहत थी। वहीं साक्षी मन ही मन खुश हों रहीं थीं। उसकी मनसा जो पूरा हो गया था। वो यहीं तो चाहती थी कि देर होने के कारण राघव श्रृष्टि को कड़वी बातें सुनाए जो राघव सुनाकर चला गया।

अगले दिन ऑफिस आते ही श्रृष्टि की पहली प्राथमिकता अधूरा छूटा काम पूरा करने की थी। जिसे सहयोगियों के साथ पुरा करने में जुट गई। साक्षी का मंतव्य पूरा हो चुका था। इसलिए आज उसने काम में किसी भी तरह का कोई विघ्न उत्पन्न नहीं किया। लगभग दोपहर के खाने के वक्त तक काम पूरा हों गया। एक लंबी गहरी चैन की स्वास भरते हुए श्रृष्टि बोलीं... आखिरकार पूरा हों ही गया। साक्षी मैम आप जाकर सर जी को ये प्रोजैक्ट सौफ आइए।

"ओ तो ये बात हैं कल ही आशंका जताया था और आज वो सच हों गया। मोहतरमा तो सच में जी बोलने लग गईं। ये श्रृष्टि तो रॉकेट की रफ्तार से बढ़ रहीं हैं। जाओ जाओ जितनी रफ़्तार से जाना हैं जाओ। तेरी रफ्तार पर गतिरोध लगने के लिए मैं हूं।" जी शब्द सुनते ही साक्षी मन ही मन बोलीं जबकि श्रृष्टि ने साधारण लहजे में बोला था। श्रृष्टि के बोलते ही सहयोगियों में से एक बोला... हां साक्षी मैम आप जल्दी से जाकर यह प्रॉजेक्ट राघव सर को सौफ आइए वरना देर हुआ तो श्रृष्टि मैम को फिर से सुनना पड़ेगा।

साक्षी...बडी जोरों की भूख लगा है और लांच टाईम भी हों गया है। पहले लांच करूंगी फ़िर जाऊंगी। श्रृष्टि तुम्हें कोई आपत्ती तो नहीं हैं। अगर हो तो बोल दो मैं अभी दे आती हूं।

"नहीं मैम मुझे कोई आपत्ती नहीं हैं।" मुस्कुराते हुए श्रृष्टि बोला।

लांच के बाद साक्षी प्रॉजेक्ट लेकर राघव के पास पहुंच गया। प्रॉजेक्ट देखने के बाद राघव बोला...इतने विघ्न के बाद आखिरकार ये प्रोजैक्ट पूरा हों ही गया। साक्षी मुझे लगता हैं अगर श्रृष्टि तुम्हारे टीम में नहीं होता तो ये प्रोजैक्ट और लंबा खीच जाता। क्यों मैं सही कह रहा हूं न?

"सर आप मुझ पर उंगली उठा रहें हों। इशारों इशारों में मुझे अलसी कह रहें हों।" खीजते हुए साक्षी बोलीं

राघव...मैंने ऐसा तो नहीं कहा खैर छोड़ो अब तुम जाओ और आज रेस्ट कर लो कल से नया काम दूंगा और हा कल तुम सभी को उपहार भी तो देना हैं। यहां उपहार श्रृष्टि के लिए जीतना खास होगा उतना ही खास तुम्हारे लिया भी होगा। अब जब खाली समय हैं? तो बैठकर सोच लेना वो खाश उपहार क्या हों सकता हैं?

ख़ास उपहार मिलने की बात से साक्षी मुस्कान बिखेरते हुए चली गई उसके जाते ही राघव पूर्वात बैठककर रहस्यमई मुस्कान से मुस्कुराने लग गया।

यहां साक्षी साथियों के पास वापस आकर रेस्ट करने की बात कहीं तो सब के चेहरे पर मुस्कान आ गया।

रेस्ट करने का ऑर्डर मिल चुका था तो सभी लग गए बतियाने, नाना प्रकार की बाते होने लग गया। बातों के दौरान एक दूसरे की टांगे खींचा जा रहा था।

नाराज होने के जगह सभी लुप्त ले रहें थे। धीरे धीरे बातों का सिलसिला आगे बड़ा बढ़ते बढ़ते सहसा एक सहयोगी अपने प्रेम जीवन का बखान सुनाने लग गया। जिसे सुनकर साक्षी बोलीं...श्रृष्टि जरा अपने लव लाईफ के बरे मे बताओं, हम भी तो जानें इतनी खूबसूरत भोली सी सूरत वाली लड़की का कोई तो परवाना होगा जो अपने शब्दों में तुम्हारी तारीफ़ करता हों तुम्हारे नाज नखरे सहता हों।

"ऐसा कोई नहीं है अगर होता तो मैं बता देती।" शरमाई सी श्रृष्टि बोलीं।

"चल झूठी" एक धाप श्रृष्टि के पीठ पर जमाते हुए साक्षी बोलीं।

"मैं झूठ नहीं बोल रहीं हूं चलो माना कि मैं झूठ बोल रहीं हूं। सच आप ही बातों दो। आपके लाईफ में कोई तो ऐसा होगा जिसे आप पसन्द करती हों जिसे देखकर आपके दिल का सितार राग छेड़ देता हों।" पलटवार करते हुए श्रृष्टि बोलीं।

"हां है एक, जिसे कई बार इशारा दे चुकी हूं पर निर्मोही ध्यान ही नहीं देता हर बार मेरे चाहत की नव को बीच धार में डूबा देता हैं।" अफसोस जताते हुए साक्षी ने दिल की बात कह दिया।

"कौन है, कौन है वो निर्मोही" श्रृष्टि सहित सभी उतावला होकर एक स्वर में बोला।

सभी के पूछने पर भी साक्षी ने उस शख्स के बारे मे कुछ नहीं बताया। बार बार पुछा गया प्रत्येक बार सिर्फ नहीं का प्रतिउत्तर आया। अंतः सभी ने इस मुददे को टालकर बातों की दिशा बादल दिया। बातों बातों में यह दिन बीत गया और सभी अपने अपने घरों को लौट गए।

जारी रहेगा….
 

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