Romance Shrishti - Ajab Duniya Ki Gazab Reet Re (Complete)

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भाग - 19

इतने में किसी ने भीतर आने की अनुमति मांगा। झट से राघव ने आंखो को पोछा चहरे के भव को बदला फ़िर आए हुए शख्स को भीतर आने की अनुमति दी। भीतर आए शख्स से राघव को कॉफी दिया फ़िर चला गया।

शाम को श्रृष्टि दिन भर की कामों से निजात पाकर घर पहुंचा। माताश्री से कुछ औपचारिक बाते किया फ़िर अपने कपड़े बदलकर आई और मां के सामने जमीन पर बैठ गई। इतने में ही माताश्री समझ गई बेटी को आज फिर मालिश की जरूरत हैं।


तुंरत रसोई से तेल लेकर आई और मालिश शुरू कर दिया। मालिश का मजा लेते हुए श्रृष्टि बोलीं... पता हैं मां आज साक्षी मैम दफ्तर आई थीं। वो न बहुत दिनों से छुट्टी पर थीं।


"छट्टी पर थीं इसमें क्या बडी बात हैं कोई जरूरी काम होगा तभी छुट्टी पर गई होगी।"


श्रृष्टि...कोई जरुरी काम नहीं था। मुझे प्रोजेक्ट हेड बनाए जानें से वो नाराज हों गईं थीं इसलिए छुट्टी पर चली गई और पाता है मां आज वो दफ्तर सिर्फ इस्तीफा देने आई थी मगर मैंने कुछ ऐसा क्या जिससे वो कभी इस्तीफा देने की बात नहीं कहेंगे।


"अब कौन सा कांड कर आई।"


श्रृष्टि... मैंने कोई कांड बांड नहीं किया बल्कि मैंने सर को उन्हें प्रोजेक्ट हेड बनाने को कहा पर साक्षी मैम चाहती थी मैं ही प्रोजेक्ट हेड बनी रहूं। ये बात जानकार मैंने भी सर से मांग रख दी कि मेरे साथ साथ साक्षी मैम भी प्रोजेक्ट हेड रहे और सर मन गए। अच्छा मां आपने मुझे क्या खाकर पैदा किया था ऐसा मैं नही साक्षी मैम पूछ रहीं थीं।


"उम्हू लगता हैं तेरी सोच से तेरी साक्षी मैम बहुत प्रभावित हुईं हैं। उनसे कहना सभी मांये जो खाना खाती हैं मैंने भी वहीं खाना खाया बस दुनिया की वाहियात सोच से तुझे बचाकर रखा और तुझे उस सोच से रूबरू करवाया जो तुझे दुनिया से अलग बनाती हैं।"


"तभी तो मैं कहती हूं मेरी मां दुनिया की सबसे अच्छी मां है।" बोलते हुए श्रृष्टि पलटी और माताश्री के गले से लिपट गई।


"अच्छा अच्छा ठीक हैं अब तू चुपचाप बैठके मालिश करवा।" खुद से अलग करते हुए माताश्री बोलीं।


श्रृष्टि... मां आपको एक बात बताना तो भूल ही गई (इतना बोलकर माताश्री की तरफ घूम कर बैठ गईं फ़िर बोलीं) मां मैं जहां काम करती हूं न ये वहीं राघव की कम्पनी हैं जो मुझे DN कंस्ट्रक्शन ग्रुप छोड़ने के बाद ढूंढ रहें थे।


"क्या, फ़िर तो ये भी शायद उन्हीं के जैसे सोच रखते होंगे लड़कियों को अपने बाप की जागीर और खेलने वाला खिलौना समझते होंगे आखिर दोनों पार्टनर जो थे।" चौकते हुए माताश्री बोलीं


श्रृष्टि... नहीं नहीं मां वो ऐसे नहीं है बल्कि उनसे बहुत अलग हैं। जब उन्हें पाता चला कि मेरे साथ वहा गलत सलूक हुआ और इस बात की आंच उन पर और उनके कम्पनी पर न पड़े इसलिए DN कंस्ट्रक्शन ग्रुप से पार्टनरसिप तोड़ दिया था। पाता हैं मां इसके लिए उन्हें हर्जाना भी भरना पड़ा।


"जैसा तू कह रही है इससे तो लगता है तेरे सर की सोच बहुत अच्छी हैं फ़िर भी मैं तुझे इतना ही कहूंगी ऐसे लोगों का कोई भरोसा नहीं हैं। ऐसे लोग छद्दम आवरण ओढ़े रहते हैं और जरूरत के मुताबिक बदलाव करते रहते हैं।"


श्रृष्टि... मां मैं जानती हूं ऐसे ही छद्दम आवरण ओढ़े एक शख्स के छलावे के चलते आज हम मां बेटी एक दूसरे का सहारा बने हुए हैं। वैसे मां लोग मुखौटा क्यों ओढ़े रहते हैं अपना वास्तविक चेहरा सभी के सामने क्यों नहीं रख देते।


"वो इसलिए क्योंकि इससे उनके रसूक पर आंच आ जायेंगे। कभी कभी तेरी बाते मेरी समझ से परे होती हैं तू काम काज के मामले में इतनी तेज़ तर्रार हैं मगर जिंदगी की कुछ अहम बाते समझने में डाॅफर के डाॅफर ही रहीं।" एक टपली श्रृष्टि के सिर पर मार दी।


श्रृष्टि... मां मैं डाॅफर नहीं हूं फ़िर भी आपको लगता हैं तो मैं डाॅफर ही सही जब आप मेरे साथ हों फिर मुझे फिक्र करने की जरुरत ही नहीं।


"कैसे जरूरत नहीं मैं हमेशा तेरे साथ नहीं रहने वाली हूं।"


श्रृष्टि... क्यों आप कहीं जा रही हों। जहां भी जाना है मुझे साथ में लेकर जाना।


"चुप बबली आज नहीं तो कल तेरी शादी होगी तब मैं तेरे साथ नहीं रहूंगी। तब क्या करेगी?।" एक ओर टपली मरते हुए बोली


"जिस भी लड़के से ( कुछ देर रूकी और मंद मंद मुस्कुराते हुए आगे बोलीं) मेरी शादी होगी उससे साफ साफ कह दूंगी। दहेज में मेरी मां को साथ ले रहे हों तो बात करो वरना रास्ता नापो।"


"तू सच में डाॅफर हैं जिससे भी तेरी शादी होगा उसका भी अपना परिवार होगा। तो फिर वो मुझे क्यों साथ रखने लगा? वैसे भी शादी के बाद बेटी पर मां का कोई हक नहीं होता। पति और उसका परिवार ही सब कुछ होता हैं। इसलिए तुझे वहां नए सिरे से जिंदगी शुरू करना होगा उसके परिवार को संवारना होगा। समझी की नहीं।"


श्रृष्टि... उम्हू नहीं समझी मेरा पहला परिवार मेरी मां हैं जहां मेरी मां नहीं वहां मेरा कोई ओचित्य नहीं अब आप इस बात को भूल जाओ जब मेरी शादी होगी तब सोचेंगे क्या करना हैं? अभी आप मुझे ये बातों उस अंकल से कैसे मिला जाए।


बेटी की बातों ने माताश्री को कुछ पल के लिए भावुक कर दिया फिर अपने भावनाओं को काबू करके बेटी का गाल सहला दिया और उसी हाथ को चूम कर बोलीं... कभी कभी तू ऐसी बातें कह देती हैं जिसे सुनकर लगता हैं। मैं तेरी मां नहीं तू मेरी मां हैं। मगर अगले ही पल कुछ ऐसा कह देती है जिसे सुनकर लगता हैं तेरे से बड़ा मूर्ख कोई ओर नहीं हैं।


"मां" ऐसे बोलीं जैसे पसंद नहीं आया


"क्या मां, तुझे पाता नहीं वो ऑटो चलाते हैं तो ऑटो स्टैंड पर ही मिलेंगे इसके अलावा तुझे कोई ओर जगह पाता हों तो चली जा।"


श्रृष्टि…ये तो मैं भी जानती हूं और सोचा भी यही था। मैं तो बस आपसे कन्फर्म कर रहीं थीं।


"अच्छा, मतलब मां को मामू बना रहीं थीं।"


श्रृष्टि... नहीं नहीं मां को मां बनना रहीं थीं। वो क्या है कि मेरी मां अपनी बेटी को अपनी मां बनाने पर तुली है ही ही ही।


इतना बोलकर श्रृष्टि भाग्गी लगा दिया "ठहर जा तुझे अभी बताती हूं" इतना बोलकर माताश्री भी श्रृष्टि के पीछे भाग्गी लगा दी।


ऐसे ही अगले तीन से चार दिन बीत गया। इन्हीं दिनों श्रृष्टि और साक्षी की देख रेख में पुर जोर काम चलता रहा। इन्हीं दिनों पूर्व की दिनों की तरह प्रत्येक दिन राघव लांच के समय उन्हीं के साथ लांच करने आ जाता था। राघव के मन में क्या हैं इससे न श्रृष्टि अंजान थीं न ही साक्षी अंजान थीं। ऐसे ही एक दिन जब राघव सभी के साथ लांच कर रहा था तो एक साथी बोला... सर कई दिनों से गौर किया हैं। आप लगभग प्रत्येक दिन हमारे साथ लांच करने आ जाते हैं। जान सकता हूं ऐसा क्यों?


"हां सर मैंने भी देखा हैं। ऐसी क्या बात हों गई जो आप लांच हमारे साथ ही करते हों जबकि और भी बहुत लोग यहां काम करते हैं। इससे बडी बात ये कि आप या तो अपने कमरे में लांच करते हों या कैंटीन में फिर सहसा क्या हों गया जो आप सिर्फ हमारे साथ ही लांच करने आ जाते हों।" नज़र फेरकर श्रृष्टि को देखा फ़िर साथी का साथ देते हुए साक्षी बोलीं।


"बस मन करता हैं इसलिए आ जाता हूं। इसके अलावा कोई ओर खास बात नहीं हैं आगर तुम सभी को बूरा लगता है तो कल से नहीं आऊंगा।" इतनी बात राघव ने श्रृष्टि को देखकर मुस्कुराते हुए कहा बदले में श्रृष्टि भी मुस्कुरा दिया और सिर झुका कर खाना खाने लग गईं।


साक्षी... सर अपने जो वजह बताया वो तो ठीक हैं फ़िर भी मुझे लगता है हम में से कोई आपको भा गया हैं इसलिए आप उसके साथ वक्त बिताने के बहाने हमारे साथ लांच करने आ जाते हों।


इतना सुनते ही श्रृष्टि को ढचका लग गई और वो खो खो खो खांसने लग गई। श्रृष्टि के बगल में ही साक्षी बैठी थी वो तुंरत संभली और श्रृष्टि की ओर पानी का गिलास बढ़ा दिया फिर पीठ सहलाते हुए बोलीं... अरे श्रृष्टि तुम्हारा ध्यान किधर हैं। कम से कम भोजन के वक्त तो अपना ध्यान भोजन पर दो।


राघव… श्रृष्टि तुम ठीक तो हों न।


श्रृष्टि...जी मैं ठीक हूं बस...।


"बस तुम्हारा ध्यान काम पर था और जल्दी से खाना खाकर काम पर लगना था। अरे भाई कम से कम खाना खाते वक्त तो काम से ध्यान हटा लो। यहां ध्यान देने के लिए कुछ ओर भी हैं जरा उन पर भी ध्यान दे लो।"


श्रृष्टि का अधूरा वाक्य पूरा करते हुए साक्षी बोलीं साथ ही अपने तरफ से भी जोड़ दिया। जिसे सुनकर राघव मुस्कुरा दिया। लेकिन श्रृष्टि आंखे मोटी मोटी करके साक्षी को देखने लग गई। जिसे देखकर साक्षी बोलीं... अरे तुम मुझे खा जानें वाली नजरों से क्यों देख रही हों खाना ही हैं तो भोजन खाओ ही ही ही।


श्रृष्टि इतना तो समझ ही गई की साक्षी तफरी काट रहीं है और बातों ही बातों में राघव की ओर ध्यान देने की बात कह रही हैं। इसलिए बिना कुछ बोले चुप चाप भोजन करने लग गईं।


कुछ ही देर में भोजन समाप्त करके राघव चला गया और बाकि सब अपने अपने काम में लग गए। ऐसे ही दिन बीतने लगा और इतवार का दिन भी आ गया।


जारी रहेगा...
 
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भाग - 20


इतवार की सुबह लगभग 10 बजे के करीब श्रृष्टि नजदीक के ऑटो स्टैंड चली गई। कई सारे ऑटो सवारी के इंतजार में खड़े थे। चकरी, चकरी, चकरी, बस एक सवारी चहिए चकरी की, मेढा, मेढा, मेढा, मेढा जानें वालो इधर आ जाओ, ये मामू हट न सामने से सवारी आने दे, अरे ओ... हां हां तुझे बोल रहा हूं अपना डिब्बा हटा मुझे जाना है।

तरह तरह की आवाजे वहां गूंज रहा था। कोई सवारी हातियाने के लिए सवारी का सामान खुद उठा ले रहे थे। तो कोई "अरे माताजी आप मेरे ऑटो में बैठिए बस चलने ही वाला हूं" बोल रहा था। इन्हीं आवाजों के बीच श्रृष्टि एक चेहरे को बड़े बारीकी से ढूंढ रहीं थी। कई ऑटो वाले उसे सवारी समझकर अपने ऑटो में बैठने को कह रहा था।

श्रृष्टि उन पर ध्यान न देकर आगे बढ़ जाती। तो ऑटो वाला "अरे मैम कहा जाना है जगह तो बताओं आपको वहा तक छोड़ आऊंगा" पीछे से बोल देता। श्रृष्टि इन पर ध्यान न देखकर सिद्दत से उस खास शख्स को ढूंढने में लगी हुई थीं।

श्रृष्टि को आए वक्त काफी हों चूका था। धूप की तपन बीतते वक्त के साथ बढ़ता जा रहा था। बिना इसकी प्रवाह किए माथे पर आई पसीना को पोछकर उस शख्स को ढूंढने में लगीं हुईं थीं। सहसा एक ऑटो आकर वहा रूका। चालाक को ध्यान से देखने के बाद एक खिला सा मुस्कान श्रृष्टि के लवों पर तैर गया और श्रृष्टि उस ऑटो वाले की ओर बढ़ गया।

सवारी समझकर ऑटो वाला बोला...बेटी आपको कहा जाना हैं।

"अंकल मैं आज आपकी ऑटो की सवारी करने नहीं आई हूं बल्कि आपसे मिलने आई हूं।" मुस्कुराते हुए श्रृष्टि बोलीं

"मूझसे पर क्यों? मैं तो तुम्हें जानता भी नही।"

श्रृष्टि... अंकल आप भूल गए होंगे मगर मैं नहीं भुला आज से लगभग एक महीना पहले अपने मेरी मदद कि थी। जिससे मुझे नौकरी मिला था। धन्यवाद अंकल सिर्फ आपके कारण ही मुझे नौकरी मिला था। ये लिजिए...।

इतना कहकर श्रृष्टि अपने साथ लाई थैली को चालक की और बढ़ा दिया। चालक अनभिज्ञता का परिचय देते हुए श्रृष्टि का मुंह ताकने लग गया।

"क्या हुआ अंकल ऐसे क्यों देख रहें हों। लगता हैं आपको सच में मैं याद नही रहा चलिए कोई बात नहीं मैं आपको याद करवा देती हूं।"

इसके बाद श्रृष्टि ने उस दिन की घटना सूक्ष्म रूप में सूना दिए जिसे सुनकर चालक बोला…ओ तो तुम हों चलो अच्छा हुआ बेटा जो उस दिन तुम्हें नौकरी मिल गई। मगर मैं ये नहीं ले सकता। बेटी मैंने तो उस दिन एक इंसान होने के नाते इंसानियत का फर्ज निभाया था।

श्रृष्टि...उस दिन अपने अपना फर्ज निभाया था आज मैं अपना फर्ज निभा रहीं हूं। वैसे भी अपने मुझे बेटी कहा हैं। बेटी कुछ दे तो मना नहीं करते।

"पर...।"

"पर वर कुछ नहीं बस आप रख लिजिए। प्लीज़ अंकल जी।" बचकाना भाव से श्रृष्टि बोलीं

"अच्छा अच्छा ठीक है लाओ दो। वैसे इसमें हैं क्या?।" हाथ में लेकर परखते हुए चालक बोला

श्रृष्टि... जो भी है आप बाद में देख लेना अभी आप अपना कॉन्टेक्ट नम्बर दे दिजिए मुझे जब भी कहीं आने जानें की जरूरत पड़ेगी मैं आपको बुला लिया करूंगी। आप आयेंगे न अंकल जी।

"हां हां आ जाऊंगा।" अपना संपर्क सूत्र देते हुए बोला

चालाक का संपर्क सूत्र लेकर श्रृष्टि चल दिया। वहां मौजुद एक लड़का यह सब देख और सुन रहा था। श्रृष्टि के जाते ही चालक के पास आया ओर बोला...अंकल ये लड़की थोड़ा अजीब हैं न, भाला कौन ऐसा करता हैं।

"अजीब तो हैं जहां लोग अपनो से मदद लेकर भूल जाते है वहां इस जैसी भी है जो एक अंजान के मदद करने पर भी उसे भूली नहीं बल्कि उसे ढूंढते हुए आ गई।"

"चलो अच्छा है अब देख भी लो क्या देकर गई हैं। बाद में पाता चला थैला सिर्फ दिखने में भरी है उसमे कुछ है ही नहीं।"

"क्या है क्या नहीं तुझे उससे क्या करना हैं। मैं इतना तो जान गया हूं इसमें कुछ न कुछ है आगर कुछ नहीं भी हुआ। तब भी मेरे लिए इतना ही काफी है वो मेरा किया मदद भुला नहीं और मुझे ढूंढते हुए यह तक आ गई। चल जा अपना काम कर और मुझे अपना काम करने दे।" टका सा जवाब दे दिया

इतना बोल ऑटो वाला ऑटो बढ़ा दिया और लड़का "मैं तो बस ऐसे ही बोला रहा था। इन्हे तो बूरा लग गया चलो यार जाने दो अपने को क्या करना मैं अपना काम करता हूं वैसे भी सुबह से एक भी सवारी नहीं मिला।" बोलते हुए अपने ऑटो की ओर चला गया।

यूं ही दिन पर दिन बीत रहा था और राघव लगभग प्रत्येक दिन श्रृष्टि के पास लांच करने पहुंच जाता था। इस बात का फायदा साक्षी बखूबी उठा रहीं थी। मौका देख दोनों को छेड़ देती और कुछ ऐसा कह देती जिसके जद में दोनों आ जाते। राघव तो खुद को संभाल लेता लेकिन श्रृष्टि खुद को संभाल नहीं पाती और उसे धाचका लग जाता।

श्रृष्टि राघव की हरकतों को बखूबी समझ रहीं थी और उसके दिल में भी राघव के लिए जगह बन चूका था फ़िर भी न जानें क्यों चुप सी रहती। राघव जब भी छुट्टी वाले दिन यानी इतवार वाले दिन लांच या फिर शाम की चाय पे मिलने की बात कहता तो काम न होते हुए भी बहना बनाकर टल देती।

श्रृष्टि का ऐसा करना राघव के समझ से परे था। कभी कभी राघव को लगता श्रृष्टि के दिल में उसके लिए जगह बन चूका हैं और शायद वो भी उससे प्यार करने लगीं हैं फिर राघव के साथ अकेले मिलने से मना कर देने पर राघव को लगता शायद जैसा वो सोच रहा है वैसा कुछ नहीं हैं। मगर फिर श्रृष्टि के हाव भव उसके सोच को बदल देता।

श्रृष्टि के इसी व्यवहार के चलते राघव परेशान सा रहने लगा। परेशानी का हाल कैसे ढूंढा जाएं इसका रास्ता उसे सूज नहीं रहा था।

राघव की परेशानी में उसकी सौतेली मां ओर इजाफा कर देती। जब भी कोई रास्ता सुजाता और उस पर अमल करने की सोचता ठीक उसी दिन उसकी सौतेली मां वबाल करके उसके दिमाग को दिशा से भटका देता।

ऐसे ही एक दिन राघव सुबह सुबह वबाल करके बिना कुछ खाए पिए घर से निकल ही रहा था कि उसके पिता ने उसे रोका और घर से बहार लाकर बोला... राघव बेटा मुझे माफ़ करना मेरे एक भूल की सजा तुझे भुगतना पढ़ रहा हैं।

राघव... आह पापा आप से कितनी बार कहा है आप माफी न मांगा करे अपने तो मेरे भाले के लिए सोचा था मगर शायद मैं ही इतना मनहूस हूं जिसके किस्मत में मां की ममता लिखा ही नहीं है।

तिवारी... ये बात तू गलत कह रहा हैं तू मनहूस नहीं है अगर तू मनहूस होता तो मेरी ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर लेते ही मेरा धंधा दिन दुगुनी और रात चौगुनी तरक्की नहीं कर रहा होता।

राघव…वो तो सिर्फ़ मेरी मेहनत की वजह से हों रहा हैं। पापा मैं सोच रहा था। अभी अभी जो प्लॉट लिया है मैं उसी में जाकर रहने लग जाऊं। इसे न मैं इनके सामने रहूंगा ओर न ही रोज रोज कहासुनी होगा।

तिवारी…ऐसा सोचने से पहले एक बार अपने इस बूढ़े बाप के बारे मे भी सोच लेता जो तेरे सहारे जीने की आस जगाए जी रहा हैं।

राघव...आप की बाते सोचकर ही तो अब तक चुप रहा लेकिन अब ओर सहन नहीं होता। आप भी चल देना दोनों बाप बेटे साथ में रहेंगे।

तिवारी... अच्छा ओर इस घर का क्या होगा? जिसे तेरी मां ने खुद अपने पसंद से बनवाया था एक एक कोना खुद अपने हाथों से सजाया था। आज भी उसकी यादें इस घर में बसी है मैं उसे छोड़कर कहीं ओर जा ही नहीं सकता हूं।

राघव... आप जा नहीं सकते मुझे जाने नहीं दे रहे। गजब की किस्मत लिखवा कर लाया हूं अब तो लगता है जिंदगी भर ऐसे ही ताने सुन सुनकर जीना होगा।

तिवारी... सब्र रख ऊपर वाले पर भरोसा रख वो जरूर हम बाप बेटे के लिए कुछ न कुछ करेगा।

राघव... पापा वो कुछ नहीं करता बस रास्ता दिखा देता हैं। अच्छा आप भीतर जाइए नहीं तो वो बहार आ गई तो फ़िर से शुरू हो जायेगी।

तिवारी... ठीक हैं जाता हूं और तू दफ्तर पहुंचने से पहले कुछ खां लेना।

राघव... कैंटीन में खा लूंगा

बाप से कहकर राघव चल तो दिया पर उसकी मानो दशा ठीक नहीं था। अभी अभी जो बाते बरखा ने कहा था उसका एक एक शब्द राघव के कानों में गूंज रहा था। "तू इतना मनहूस हैं की पैदा होने के कुछ साल बाद अपने मां को खा गया अब मेरे खुशियों को खा रहा हैं। तुझसे मेरी खुशी देखी नहीं जाती इसलिए मेरे बेटे को मूझसे दूर भेज दिया। उसके जगह तू ही चला जाता कम से कम मुझे तेरा मनहूस सूरत तो न देखना पड़ता।"

इन्हीं शब्दों ने राघव के मन मस्तिस्क पर कब्जा जमा रखा था। उससे कार चलाया नहीं जा रहा था इसलिए कार को रोड सईद रोक दिया और भीगी पलकों को पोछकर अपना मोबाईल निकलकर गैलरी में से एक फोटो ढूंढ निकाला और उसे देखते हुए बोला...मां तू मुझे छोड़कर क्यों चली गई। मैं मनहूस हूं इसलिए तूने भी मूझसे पीछा छुड़ाने ले लिए वक्त से पहले भगवान के घर चली गई है न बोल मां बोल न।

"मेरा राजा बेटा मनहूस नहीं हैं।" सहसा एक आवाज राघव के कानों में गूंजा।

जारी रहेगा….
 
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भाग - 21

"मेरा राजा बेटा मनहूस नहीं हैं" ये आवाज कानों में गूंजते ही राघव दाएं, बाएं, पीछे देखने लग गया मगर उसे ऐसा कोई नहीं दिखा जिसने यह शब्द कहा हों। जब कोई नहीं दिखा तो राघव एक बार फिर मां की फ़ोटो देखते हुए बोला... मां इस जन्म में भले ही आप मूझसे पीछा छुड़ा लिया लेकिन अगले जन्म में फिर से आपका बेटा बनकर आऊंगा तब आपको बहुत परेशान करुंगा। आप मुझसे पीछा छुड़ाना चाहोगी तब भी नहीं छोडूंगा।

राघव मां की फ़ोटो देखकर बाते करने में लगा हुआ था। बातों के बीच उसका फ़ोन बजा कुछ देर बात करने के बाद राघव चल दिया।

दृश्य में बदलाव

श्रृष्टि सुबह जब दफ्तर आई तब सामान्य थीं। मगर आने के कुछ देर बाद असामान्य व्यवहार करने लग गई। काम करते करते उठकर द्वार के पास जाकर खड़ी हो जाया करती। कुछ पल खड़ी रहती फिर जाकर काम में लग जाती। कुछ देर काम करती फ़िर द्वार पर चली जाती कुछ देर खड़ी रहती फिर आकर काम में लग जाती। अबकी बार जैसे ही श्रृष्टि उठकर द्वार की और जानें लगी तब साक्षी रोकते हुए बोलीं... श्रृष्टि क्या हुआ ऐसा क्यों कर रहीं हैं। किस बात की बेचैनी हैं जो दो पल कही ठहर ही नहीं रहीं हैं।

"कुछ नहीं" बस इतना ही बोलीं और द्वार की ओर चल दिया। कुछ देर खड़ी रहीं फ़िर भागती हुई साक्षी के पास पहुचा और बोला... साक्षी मैम सर कुछ परेशान सा लग रहे हैं जाइए न पूछकर आइए क्या हुआ हैं?

"सर की इतनी फिक्र है तो तू ही जाकर पूछ ले।" मुस्कुराते हुए साक्षी बोलीं

"साक्षी मैम प्लीज़ जाइए न।" विनती करते हुए बोलीं

साक्षी... अच्छा बाबा जाती हूं।

इतना कहकर साक्षी चली गई और कुछ ही देर में वापिस आ गई। आते ही श्रृष्टि बोलीं…बात हों गई। क्या हुआ कुछ पाता चला।

साक्षी... नहीं रे सर अभी बिजी हैं थोड़ी देर में खुद ही बुला लेंगे।

कुछ जानने का मन हो ओर उस बारे में पाता न चले तो मन अशांत सा रहता हैं और जानने की बेचैनी बीतते पल के साथ बढ़ता जाता है। वैसे ही कुछ श्रृष्टि के साथ हों रहा था। उसे राघव की परेशानी जानना था मगर अभी तक कुछ पाता नहीं चल पाया। इसलिए श्रृष्टि काम तो कर रहीं थी लेकिन ध्यान उसका काम में न होकर कहीं ओर था।

यह बात साक्षी समझ रहीं थी और मन ही मन मुस्कुरा रहीं थीं। खैर कुछ वक्त बीता ओर फिर से श्रृष्टि साक्षी के पास जाकर बोलीं... मैम अभी जाकर देखिए न शायद सर फ्री हो गए होंगे।

साक्षी...बोला न सर खुद ही बुला लेंगे। अच्छा एक बात बता सर परेशान हैं। उससे तू क्यों इतना बैचेन हो रही हैं?

"पाता नहीं" झेपते हुए श्रृष्टि ने जवाब दिया। इतने में साक्षी का फ़ोन बज उठा। फोन देखकर साक्षी बोलीं... ले सर का फ़ोन आ गया।

"जाइए न जल्दी से पूछ आइए" बेचैनी से श्रृष्टि बोलीं

"अरे बाब जाती हूं। हेलो सर...।" फ़ोन रिसीव करके बात करते हुए साक्षी चली गई।

राघव के पास पहूंचकर भीतर जाने की अनुमति लेकर जैसे ही भीतर गया। राघव ने सवाल दाग दिया।

"साक्षी कुछ काम था।"

साक्षी…सर मुझे कोई काम नहीं था काम तो आपके दिलरुबा को था। उसी ने भेजा हैं।

राघव... दिलरुबा ... ओ श्रृष्टि को, उसे काम था तो खुद आ जाती।

साक्षी... वो आ जाती तो आप उसकी बेचैनी भाप नहीं लेते। अच्छा ये बताइए आप परेशान किस बात से हों।

राघव...बेचैनी उसे किस बात की बेचैनी हैं और रहीं बात परेशानी की तो तुम खुद ही देख लो, क्या मैं तुम्हें परेशान लग रहा हूं?

साक्षी...बेचैनी तो होगी ही आपने आदत जो लगा दिया। दफ्तर आते ही मिलने पहुंच जाओगे आज जब नहीं आए तब से एक पल एक जगह ठहर ही नहीं रहीं थीं। बार बार द्वार पर आकर खड़ी हों जाती तभी शायद आप उसे दिख गई होगी और भागते हुए मेरे पास आकर मुझे यहां भेज दिया कि आपको क्या परेशानी है जानकर आऊ।

राघव…वाहा जी वाहा कमाल की लङकी से पाला पड़ा हैं। दो पल निगाह क्या टकराया उसी में जान लिया मैं परेशान हूं जबकि कोई ओर जान ही नहीं पाया और इतने दिनों से मेरे दिल में क्या है उससे अनजान बनी हुई हैं।

साक्षी...अनजान बनी हुई है तो खुद से कह दो आगे बड़ो और प्रपोज कर दो फिर समझ जायेगी।

राघव... क्या खाक आगे बढूं जब वो खुद से आगे ही नहीं बढ़ रहीं हैं। कितनी बार उसे इतवार को लांच या फिर शाम को चाय पर मिलने को बोला मगर हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टल देती है। अब तुम ही बताओं मैं करूं तो करूं क्या?

"उहुम्म ( कुछ सोचते हुए साक्षी आगे बोलीं) अभी से इतने नखरे पाता नहीं बाद में श्रृष्टि आपका क्या हाल करेंगी ही ही ही।

राघव...एक बार हां तो कर दे फ़िर चाहें जितनी नखरे करना हों कर ले मैं बिना उफ्फ किए सह लूंगा। अब तुम मेरी खिल्ली उड़ने के जगह कोई रस्ता हों तो बताओं।

साक्षी...उफ्फ ये प्रेम रोग मुझे कब लगेगी। खैर छोड़िए आप एक काम करिए पूरे टीम को एक साथ लांच पर ले चलिए सभी साथ होंगे। तब मना भी नहीं कर पाएगी फ़िर वहां पर उसे आपके साथ अलग टेबल पर बिठा देखेंगे फिर कह देना जो आपको कहना हों।

राघव... आइडिया तो सही हैं मगर मुझे एक शंका है। इतवार को लांच पर चलने की बात कहा तो कहीं फिर से टाल न दे।

साक्षी... अरे तो इतवार को लेकर जानें को कह ही कौन रहा हैं।

राघव...इसका मतलब मुझे थोड़ा नुकसान सहना पड़ेगा चलो कोई बात नही इसकी भरपाई बाद में तुम सभी से काम करवा कर लूंगा ही ही ही।

साक्षी... हां हां करवा लेना अब आप ये कहिए कि आप किस बात से परेशान थे। क्या है न मेरे जाते ही आपकी श्रृष्टि फिर से मेरे पीछे पड़ जायेगी।

राघव... घर में कुछ कहा सुनी हों गया था जिससे बाते बहुत बढ़ गई थीं। इसलिए मैं थोड़ा परेशान था।

साक्षी... किस बात पे कहा सुनी हुआ था। ये मुझे नहीं जानना मैं तो बस आपके श्रृष्टि के लिए पूछ रहीं हूं। क्योंकि जब तक वो पुरी बात नहीं जान लेगी तब तक उस बेचैन आत्म को चैन नहीं मिलेगा।

राघव...कहासूनी की वजह मेरी अपनी है। मैं उसका बखान किसी के सामने करना नहीं चाहूंगा तुम अपनी तरफ से जोड़कर कुछ भी बोल देना जिससे उसे लगे की सच में यहीं मेरे परेशानी की वजह हैं।

"ठीक है सर" बोलकर साक्षी चली गई


दृश्य में बदलाव

साक्षी जैसे ही भीतर आई उसे देखकर श्रृष्टि अपने जगह से उठने लगीं तो साक्षी बोलीं…अरे इतनी जल्दी में क्यों है? मैं आ तो रहीं हूं।

इतना सुनते ही श्रृष्टि हल्का सा मुस्कुरा दिया फिर अपने जगह बैठ गई। साक्षी पास आकर बोलीं... श्रृष्टि बता तू इतना बेचैन क्यों हैं।

श्रृष्टि... मैम...।

"ये मेम की औपचारिकता तू कब भूलेगी मैंने कहा था न हम दोनों दोस्त है और दोस्तों में कोई औपचारिकता नहीं होती।" टोकते हुए साक्षी बोलीं

श्रृष्टि... आदत से मजबुर हूं मैम, नहीं नहीं साक्षी। अब ठीक है न।

साक्षी... अब बता तू इतना बेचैन क्यों हैं और तुझे कैसे पता चला सर परेशान हैं?

"क्यो और कैसे पाता नहीं।" इतना बोलकर श्रृष्टि नज़रे झुका लिया। शायद इसलिए कि कहीं उसकी नज़रे चुगली करके उसके दिल का हाल बयां न कर दे। मगर इस पगली को कौन समझाए चुगल खोरी तो हो चूका है जिसे भाप कर साक्षी बोलीं...कुछ लोग होते है जो बिना बताए ही जान लेते हैं कि सामने वाले का हाल क्या हैं। पाता हैं श्रृष्टि मैंने एक क्वेट्स में पढ़ा था ऐसे लोग दिल के बहुत करीब होते हैं और मुझे लगता हैं सर तेरे दिल के बहुत करीब हैं। इसलिए तो तू बिना बताए ही जान गई कि सर को कोई परेशानी हैं। जबकि मैं भी उन्हें देखकर पाता नहीं कर पाईं कि उन्हें कोई परेशानी हैं।

साक्षी के कथन का श्रृष्टि के पास कोई जवाब नहीं था फ़िर भी कुछ न कुछ बोलकर इस कथन को नकरना था इसलिए श्रृष्टि बोलीं…मेरा स्वभाव शुरू से ही ऐसा हैं इसलिए मैं सर को देखते ही भाप गई कि उन्हें कोई परेशानी हैं। अब तुम ये बताओं सर किस बात से परेशान थे

साक्षी...सर कह रहें थे। उनके घर पर कुछ कहा सुनी हुआ था इसलिए परेशान थे।

श्रृष्टि…कहासुनी.. हल्की फुल्की कहासुनी से कोई इतना परेशान नहीं होता। तुमने पुछा था किस बात पे इतना कहासुनी हुआ था। बताओ न।

"कहासुनी इस बात पे हुई (इतना बोलकर रूकी फिर कुछ सोचकर बोलीं) सर कह रहे थे उनके घर वाले उनकी शादी के लिए कोई लड़की देखा हैं लेकिन सर अभी शादी नहीं करना चाहते हैं इसी बात पर बहस हों गई और बाद में बहस बहुत गरमा गया बस इसी बात से सर परेशान थे।

जारी रहेगा….
 
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भाग - 22

शादी वो भी राघव की, सुनते ही श्रृष्टि के लिए पल जहां का तहां ठहर सा गया। किसी बात पर प्रतिक्रिया देना क्या होता हैं? श्रृष्टि भूल सी गईं। श्रृष्टि को यूं अटक हुआ देखकर साक्षी मुस्कुरा दिया और बोलीं... तुझे क्या हुआ तुझे किस बात का सदमा लग गया।

साक्षी की बाते कानों को छूते ही श्रृष्टि चेतना पाई फिर बोली... कुछ बोला क्या?

साक्षी...मैं तो बस इतना ही कह रहीं थीं। काम पर लगते हैं।

"हां चलो" इतना बोलकर दोनों काम में लग गई मगर साक्षी बीच बीच में श्रृष्टि की ओर देखकर मुस्करा देती क्योंकि श्रृष्टि ओर दिनों की तरह काम पर ध्यान ही नहीं दे पा रहीं थीं। जीतना खुद को सामान्य करके काम पर ध्यान देना चहती। उतना ही उसका ध्यान किसी बात से भटक जाता और बेचैनी सा उस पे हावी हो जाता नतीजातन उसका ध्यान काम से विमुख हों जाता।

दिन का बचा हुआ वक्त श्रृष्टि का ध्यान भटकना फिर बेचैन हों जाना इसी में ही निकल गया। शाम को जैसे ही घर पहुंचा माताश्री देखते ही पहचान गई कि उसकी बेटी पर थकान से ज्यादा कुछ ओर ही हावी हैं। तो तुरंत ही बेटी को अपने पास बैठाया फ़िर बोलीं...श्रृष्टि बेटा क्या बात है आज दफ्तर में कोई बात हों गई हैं जो तू इतना परेशान दिख रहीं हैं।

"नहीं मां, छोटी मोटी बाते तो होती ही रहती है उससे क्या परेशन होना। आज ज्यादा काम की वजह से मुझे थकान ज्यादा हों गई हैं शायद मेरी थकान आपको परेशानी के रूप में दिख रही हों। वैसे भी ज्यादा थकान भी तो परेशानी का कारण होता हैं।" हाव भव में बदलाव करते हुए श्रृष्टि बोलीं।

"मेरी नज़रे कभी धोका नहीं खा सकती है। मैं मेरी बेटी का चेहरा देखकर ही जान जाता हूं वो कब थकान के वजह से परेशान है और कब किसी बात को लेकर परेशान हैं। समझी।"

श्रृष्टि... उफ्फ मां आप भी न दिन भर की कामों से थकी हरी बेटी घर लौटी हैं। उसे एक कड़क चाय या कॉफी पिलाने के जगह आप बातों में लगीं हुईं हों।

"अच्छा अच्छा अभी लती हूं।" इतना बोलकर माताश्री रसोई की ओर चल दिया कुछ कदम पर रूककर बोलीं...श्रृष्टि बेटा तेरी मां होने के साथ साथ तेरी पहली दोस्त भी हूं। इसलिए कोई बात आगर तुझे परेशान कर रहीं है तो मुझे बता देना शायद इससे तेरे परेशानी का हल मिल जाएं।

"ओ हो मां फिलहाल तो मुझे कोई परेशानी नहीं हैं आगर कोई परेशानी होगी तो आपको बता दूंगी अब आप जल्दी से एक कड़क चाय लेकर आईए"

माताश्री आगे कुछ न बोलकर रसोई में चली गई और श्रृष्टि अपने कमरे में चली गई। जब तक वो कपड़े बदलकर आई तब तक माताश्री चाय बना चुकी थी। श्रृष्टि के आते ही दोनों मां बेटी चाय की चुस्कियां गपशप करते हुए लेने लग गई।


अगले दिन लांच के वक्त सभी लांच करना शुरू ही किया था कि उसी वक्त राघव भी टिफिन लिए पहुंच गया।

बीते दिन राघव लांच करने नहीं आया था और राघव की झूठी शादी की खबर साक्षी ने पहले श्रृष्टि को बताया बाद में उसे छेड़ने के लिया दूसरे साथी को भी बता दिया।

यहां बात जानने की कातुहाल दूसरे साथियों के मन में खलबली मचाया हुआ था। राघव को देखते ही वो अपना सवाल दागने ही वाले थे की साक्षी बोल पड़ी...सर आप कल क्यों नहीं आए आप जानते तो है आपको देखे बिना कोई है जो बहुत बेचैन हों जाती हैं। खुद की नहीं तो उसकी ही फिक्र कर लेते।

साक्षी कह तो राघव से रही थी। मगर इशारा श्रृष्टि की ओर थीं यह बात श्रृष्टि समझ गई। इसलिए हल्का सा मुस्कुरा दिया फिर सरसरी निगाह राघव और साक्षी पे फेरकर सिर झुका लिया और भोजन करने में मग्न हो गई।

राघव नजदीक आकर एक कुर्सी पर बैठ गया फिर टिफन खोलते हुए बोला... फिक्र है बहुत ज्यादा फिक्र है इसलिए मैं आना भी चाहत था लेकिन कुछ जरुरी काम की वजह से नहीं आ पाया। आज आ गया हूं अब कल की भी भरपाई कर दूंगा।

बोलने के बाद राघव ने सरसरी निगाह श्रृष्टि पर फेर दिया और बगल में बैठा एक सहयोगी बोला…सर कौन है वो जिसकी फिक्र आपको बहुत ज्यादा हैं जरा हमे भी बता दिजिए हम भी तो जानें वो खुश नसीब कौन है जिसकी आपको बहुत ज्यादा फिक्र है।

साक्षी... है कोई अभी सर और उसके बीच छुप्पन छुपाई चल रहा हैं। जब दोनों का खेल खत्म हो जायेगा तब सभी को बता दिया जायेगा। क्यों श्रृष्टि ये बात शायद तुम भी जानती हों?

साक्षी का इतना बोलना था की श्रृष्टि को एक बार फिर धचका लग गई। ये देख राघव श्रृष्टि को पानी का गिलास बड़ा दिया। श्रृष्टि बिना कुछ कहे पानी ले लिया। थोड़ी ही वक्त में श्रृष्टि संभली तो सहयोगी में से एक बोला...सर कल साक्षी मैम कह रही थी आप शादी करने वाले हों। जिसके लिए लड़की भी देखा जा रहा हैं।

एक बार फ़िर से शादी की बात छिड़ते ही श्रृष्टि दम सादे सिर झुकाए बैठी राघव के जवाब का इंतजार करने लगी।

खुद की शादी की बात जिससे राघव खुद अंजान था। सुनते ही साक्षी की ओर देखा और इशारे से पुछा ऐसा क्यो कहा। तब साक्षी ने श्रृष्टि की ओर इशारा कर दिया और राघव को हां बोलने को कहा।

अब राघव गंभीर परिस्थिति में फंस गया। क्या जवाब दे क्या न दे ये समझ ही नहीं पा रहा था? सहसा उसे क्या सूझा की बोल पडा... हां देख तो रहें हैं। मैं भी कब तक टाला मटोली करूं उम्र निकलता जा रहा हैं अब सोच रहा हूं शादी कर ही लेता हूं।

राघव का हां बोलना और श्रृष्टि जो दम सादे सुन रहीं थीं। उसको सहसा दम घुटने सा लगा। खाने का निवाला जो हाथ में पकड़ी थी वो हाथ से छुट कर प्लेट पे गिर गया। यह सब साक्षी सहित सभी देख रहे थे। देखते ही साक्षी बोलीं... श्रृष्टि क्या हुआ खाना पसंद नहीं आया या फिर किसी की बाते पसंद नहीं आई। बोलों क्या बात हैं?

श्रृष्टि से बोला कुछ नहीं गया। चुप चाप अपने जगह से उठी और चली गई। ये देख राघव विचलित सा हो गया और मन ही मन पछताने लगा कि उसने साक्षी का कहना क्यों माना और साक्षी आवाज देते हुए बोली... श्रृष्टि क्या हुआ तुम कहा जा रहीं हों खाना पसंद नहीं आया तो मेरे में से खा लो।

श्रृष्टि ने कोई जबाव नहीं दिया और चुप चाप रूम से बहार चली गई और राघव विचलित सा साक्षी को देखा तो साक्षी ने इशारे से आश्वासन देते हुए कहा कुछ नहीं हुआ वो सब संभाल लेगी। मगर राघव पे आश्वासन का कोई असर नहीं हुआ।

सभी खाने में लगे रहें मगर राघव से एक भी निबला निगला नहीं गया इसलिए वो भी अधूरा खाना छोड़कर जाते वक्त साक्षी को उसके रूम में आने को कह गया।

पल भर में पूरा शमा ही बदल गया एक झूठी हां ने दोनों को हद से ज्यादा विचलित कर दिया। श्रृष्टि अपना खाना फेंक कर आई और बेमन से कम में लग गई। साक्षी खाना खाने के बाद राघव के रूम में पहुंच गई।

राघव... तुमने देखा ना मेरे झूठी हां से श्रृष्टि कितना परेशान हों गईं। तुम्हें कहना ही था तो कोई ओर बात बता देती। मेरी झूठी शादी की बात कहने की जरूरत ही किया थीं। कह दिया सो कह दिया मुझे भी सच बोलने से रोक दिया। साक्षी तुम्हें ऐसा नहीं करना चहिए था।

साक्षी... सर आज जैसा हुआ कल भी श्रृष्टि का ऐसा ही हाल हुआ था बस आज आपने खुद से हां कहा तो इसका कुछ ज्यादा ही असर हुआ। इस बात से इतना तो आप जान ही गए होंगे कि श्रृष्टि भी आपसे प्यार करती हैं। अब आपको देर नहीं करना चहिए कल ही जैसा मैंने कहा था वैसे ही सभी को साथ में लांच पे ले चले और मौका देखकर प्रपोज कर दे।

राघव... एक तो वो पहले से ही मेरे साथ जानें को राजी नहीं हों रही थी उसके बाद आज जो हुआ अब तो वो बिल्कुल भी राजी नहीं होगी।

साक्षी...सर आप ट्राई तो कीजिए अगर नहीं जाती है तो मैं खुद उससे बात करके सच बता दूंगी और आगर लांच पर चल देती है तब आप पहले उसे सच बता देना फिर प्रपोज कर देना।

राघव... तुमने अलग ही टेंशन में डाल दिया अब तुम जाओ ओर श्रृष्टि को संभालो मैं कुछ काम कर लेता हूं फ़िर समय निकल कर एक फेरा आ जाऊंगा।

साक्षी राघव से बात करके वापस आ गई। यहां श्रृष्टि का हाल कल से ज्यादा बेहाल था वो काम पर ध्यान ही नहीं लगा पा रही थी। साक्षी कई बार बात करना चाह मगर श्रृष्टि साक्षी ही नहीं किसी से बात करने को राजी नहीं हुई। मानो उसने चुप्पी सी सद ली हों।

उधर राघव का हाल भी दूजा नही था। वो भी काम में ध्यान ही नहीं लगा पा रहा था। बार बार रह रहकर एक ही ख्याल मन में आ रहा था कि वो साक्षी की बात माना ही क्यों उसे साक्षी की बात मानना ही नहीं चहिए था।

एक दो बार वहां गया मगर श्रृष्टि ने उस पे ज्यादा ध्यान ही नहीं दिया और श्रृष्टि को बेचैन सा देखकर इशारे इशारे में साक्षी को डांटकर चला गया।

जारी रहेगा….
 
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भाग - 23

शाम होते होते श्रृष्टि का हाल ऐसा हों गया। जैसे अनगिनत तूफान उसके अंदर उमड़ रहीं हो और उसके जद में आने वालों के परखाचे उड़ा दे।

छुट्टी का वक्त होते ही श्रृष्टि दफ़्तर से ऐसे निकली मानों वो वहां किसी को जानती ही नहीं सभी उसके लिए अजनबी हों। ये देखकर साक्षी मन ही मन खुद को कोसने लगीं। सहसा उसके ख्यालों में कुछ उपजा "नहीं वो ऐसा नहीं कर सकतीं है।" बोलते हुए तुरंत दफ्तर से बहार भागी।

जब साक्षी लिफ्ट का सहारा लेकर नीचे पहुंचा। ठीक उसी वक्त श्रृष्टि उसके सामने से निकल गई। श्रृष्टि किस ओर जा रहीं है ये देखकर साक्षी तुरंत अपनी कार लेकर उस ओर चल दिया।

जितनी रफ़्तार से साक्षी कार को दौड़ा सकती थी दौड़ा रहीं थीं और श्रृष्टि की रफ्तार भी कुछ काम नहीं था। वो स्कूटी की कान अंतिम छोर तक उमेठकर दौड़ाए जा रहीं थीं।

दोनों के बीच पकड़म पकड़ाई जोरों पर थीं। रास्ते पर अजबाही करती दूसरी गाडियां भी थी और कुछ ज्यादा ही था। जिससे साक्षी को आगे निकलने में कुछ दिक्कत आ रही थी मगर श्रृष्टि हल्की सी गली मिलते ही स्कूटी ऐसे निकल रहीं थी मानों उसे किसी बात की परवाह ही न हों।

ट्रैफिक से निकलकर जब खाली रस्ता मिला तब जल्दी से श्रृष्टि तक पहुंचने के लिए साक्षी ने कार की रफ्तार बड़ा दिया। जब तक साक्षी पास पहुंचती तब तक श्रृष्टि एक गली में घुस गई।

साक्षी को गाली में घुसने में थोड़ा देर हों गया। जब वो गाली में घुसा श्रृष्टि जा चुकी थी। अब साक्षी के सामने दुस्वरी ये थी इस अंजान गली में श्रृष्टि को ढूंढे तो ढूंढे कहा तो कार को रोक कर बोलीं... ये पगली कुछ कर न बैठें अब मैं क्या करूं उसका घर कहा है कैसे ढूंढू कोई और दिख भी नहीं रहा। हे प्रभू उसके मन में कोई गलत ख्याल न आने देना मैं कान पकड़ती हूं कभी किसी से ऐसा मजाक नहीं करूंगी तब तो बिल्कुल भी नहीं जब मामला दो दिलों का हों।

दृश्य में बदलाव

श्रृष्टि जैसे ही घर पहुंचा माताश्री देखते ही पहचान गई। आज उसकी बेटी कल से ज्यादा परेशान हैं उसके अंतरमन में उफान सा आया हुआ हैं।

ये भापते ही माताश्री तूरंत श्रृष्टि को अपने पास बैठाया और बोला... श्रृष्टि बेटा क्या हुआ कुछ बात हों गई हैं जो इतना परेशान दिख रही हैं।

माताश्री का इतना ही पूछना था कि श्रृष्टि के हृदय में उपजा तूफान सैलाब का रूप ले लिया फ़िर रूदन के रूप में बहार निकल आई और श्रृष्टि मां से लिपट कर रोने लग गई।

श्रृष्टि का रूदन अन्य दिनों से अलग था। जिसने माताश्री के हृदय में खलबली मचा दिया। इसलिए माताश्री पुचकारते हुए बोलीं... श्रृष्टि, बेटा क्या हुआ तू ऐसे क्यों रो रहीं है?

माताश्री के पुचकारते ही श्रृष्टि का रूदान और बढ़ गया। जिसे देखकर माताश्री एक बार फ़िर पुचकारते हुए पुछा तो इस बार श्रृष्टि फफकते हुए बोलीं... मां वो न वो न शादी कर रहा हैं।

माताश्री... कौन शादी कर रहा है? हां बोल कौन (साहस माताश्री के मस्तिष्क में कुछ खिला और मताश्री बोलीं) जिसकी शादी हों रहा हैं कहीं तू उससे प्यार तो नहीं करती।

"हां" सुबकते हुए श्रृष्टि बोलीं

" कौन है वो और तू ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया।"

श्रृष्टि... मां वो न वो न राघव सर हैं।

राघव सर सुनते ही मानो माताश्री पर वज्र पात हों गया हों। तूरंत श्रृष्टि को खुद से अलग किया फिर बोलीं... ये तूने क्या किया? तू भी उसी रास्ते पे चल पड़ी जिस रास्ते पर चलकर मैं पछता रहीं हूं। क्यो आखिर क्यों?

श्रृष्टि…मैंने खुद को बहुत रोकना चाहा मगर रोक ही नहीं पाई। दिल पे भाला किसका बस चला हैं। प्यार तो किसी से भी हों सकता है। प्यार न अमीरी, न गरीबी, न जाति, न धर्म देखता है। वो तो बस हो जाता हैं। मुझे भी हो गया अब वो शादी कर रहें हैं। जब से उनकी शादी की बात जाना हैं। तब से मुझ पे क्या बीत रहीं हैं? मै ही जानती हूं।

"वो शादी कर रहें हैं तो तू भी इस बात को भूल जा मुझे साफ साफ दिख रहा हैं तेरा प्यार एक तरफा हैं इसलिए मेरी मान तू खुद को यही पर रोक ले।"

श्रृष्टि... नहीं मां मेरा प्यार एक तरफा नहीं हैं। मैंने कई बार भापा है वो भी मूझसे प्यार करते।

"अच्छा अगर वो भी तुझे प्यार करते तो शादी क्यों कर रहें हैं। सोच जरा।"

माताश्री की बातों से श्रृष्टि को स्तब्ध कर दिया। वो कुछ बोल ही नहीं पाई मगर उसके मस्तिष्क में विचार चल पडा, उसका मस्तिष्क बार बार उससे कह रहा था की मां सही कह रहीं है अगर उन्हें मूझसे प्यार होता तो सभी के जानने पर हा क्यों कहते कि उनकी शादी की बात सही है..।

श्रृष्टि विचारों में खोई थी की माताश्री उसके विचारों में सेंद मरते हुए बोलीं...श्रृष्टि मैंने तुझे पहले ही कहा था। कुछ लोग हाव भाव से कुछ दर्शाते है और उनके मस्तिष्क में कुछ ओर चलता हैं। तेरे राघव सर भी शायद उन्हीं में से एक हैं। देख तेरी मां होने के नाते मैं तेरा अहित कभी नही चाहूंगी और ये भी नहीं चाहूंगी कि जो गलती मैंने किया जिसकी सजा मैं आज भी भुक्त रही हूं। तू भी वही गलती दोहराए इसलिए मैं बस इतना ही कहुंगा जो भी फैंसला लेना सोच समझ कर लेना ताकि तुझे भविष्य में पछतावा न हो।

माताश्री की बातों ने एक बार फिर से श्रृष्टि के मन मस्तिस्क में खलबली मचा दिया। कुछ देर तक उसके मस्तिस्क में माची खलबली उसे परेशना करता रहा। सहसा ही आंखो से आंसु पोछकर बोलीं... मां मुझे एक काफ चाय मिल सकता है।

"ठीक है तू हाथ मुंह धोकर आ मैं चाय बनाती हूं।"

श्रृष्टि उठकर कमरे में चल दिया और माताश्री रसोई की ओर "अभी तो कितना रो रहीं थी सहसा उसके स्वर में इतना बदलाब कैसे आ गया। हे प्रभू जो मेरी बेटी के लिए सही हो वहीं करना उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ मत करना जैसे मेरे भविष्य के साथ किया था बस इतनी सी मेरी विनती मान लेना।" बोलते हुए चल दिया।

श्रृष्टि ने कौन सा फैंसला लिया जिससे उसका रूदन स्वर में बदलाव आ गया जिसे भापकर माताश्री प्रभू से विनती करने लग गई। यह तो बस समय ही बता पाएगा बरहाल माताश्री रसोई में प्रवेश किया ही था कि द्वार घंटी ने किसी के आगमन का संकेत दे दिया।

"कौन है" बोलकर माताश्री द्वार खोलने बढ़ गई। द्वार खोलते ही सामने खड़े शख्स ने बोला... आंटी जी श्रृष्टि यहीं पर रहती हैं।

"जी हा! आप कौन?"

"जी मैं उसी के साथ काम करती हूं मेरा नाम साक्षी हैं।"

"हों तुम ही हो साक्षी तुम्हारी बहुत चर्चा सूना था। आओ भीतर आओ।"

साक्षी को बैठाकर माताश्री श्रृष्टि को आवाज देते हुए बोलीं... श्रृष्टि बेटा देख तेरी साक्षी मैम आई हैं। जल्दी से बहार आ जा (फिर साक्षी से बोलीं) बेटा तुम बैठो मैं चाय लेकर आई।

इतना बोल कर माताश्री रसोई में चली गई और कुछ ही देर में श्रृष्टि हल्की मुस्कान लवों पर लिए कमरे से बहार आई और साक्षी को देखकर बोलीं...अरे साक्षी तुम मेरे घर में।

साक्षी... क्यों नहीं आ सकती (फिर मन में बोलीं) थैंक गॉड श्रृष्टि सामान्य लग रही हैं।

श्रृष्टि... अरे मैं तो बस इसलिए कहा तुम्हे मेरे घर का पाता नहीं मालूम था न।

साक्षी... पाता नहीं मालूम था अब तो चल गया वो भी सिर्फ तेरे वजह से तू दफ्तर से इतनी परेशान होकर निकली मुझे लगा तू कुछ कर न बैठें इसलिए मैं तेरा पीछा करते करते आ गई बस गली में घुसते ही तू ओझल हो गई वरना तेरे साथ ही तेरे घर पे आ जाती।

श्रृष्टि...चलो अच्छा हुआ इसी बहाने मेरा गरीब खाना भी देख लिया और उस बात को भूल जाना क्योंकि वो मेरी एक बचकाना हरकत थी जो अब मैं समझ चुकी हूं अच्छा तू बैठ मैं देखती हूं चाय बना की नहीं फिर चाय पीते हुए बाते करेंगे।

श्रृष्टि की बातों ने साक्षी को अचंभित कर दिया साथ ही उसके व्यवहार भी जो लांच के बाद किसी से बात नहीं कर रहीं थी घर आते ही बदल गई सिर्फ़ इतना ही नहीं जो परेशानी और उदासी उसकी चेहरे पर देखा था वो भी गायब हों गया।

कुछ देर तक साक्षी इसी विचार में मगन रही मगर श्रृष्टि में आई बदलाब ने उसके विचार को ध्वस्त कर दिया। कुछ ही देर में चाय नाश्ता लेकर दोनों मां बेटी आ गई फ़िर तीनों में शुरू हुआ बातों का दौरा। जो की लंबा चला फ़िर साक्षी विदा लेकर कल दफ्तर में मिलते है बोलकर चली गई।

जारी रहेगा….
 
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भाग - 24

राघव का हाल भी श्रृष्टि से दूजा नहीं था। वो भी उतना ही परेशान था बस बदहवास नहीं हुआ था। खुद पर काबू रखा हुआ था। वैसे तो राघव जल्दी घर नहीं जाता था इसकी वजह बरखा थीं। मगर आज उसका मन कही पे नहीं लगा तब घर चला गया। तिवारी भी उसी वक्त घर पर मौजूद था और बेटे को जल्दी आया देखकर उसके साथ कुछ वक्त बिताना चाहा इसलिए साथ में चाय पीने की फरमाइश कर दी।

बेमन से राघव पिता की बात मन लिया और उनके साथ बैठ गया। तिवारी बातों के दौरान ध्यान दिया कि राघव का ध्यान कहीं ओर है और उसके सामने रखा कॉफी पड़ा पड़ा ठंडा हों रहा था लेकिन राघव अभी तक एक भी घूंट नहीं पिया था। ये देख तिवारी जी बोले... राघव क्या हुआ बेटा तुझे कोई परेशानी है?

राघव... नहीं तो

तिवारी... क्यों झूठ बोल रहा हैं? मैं कब से देख रहा हूं कॉफी पड़े पड़े ठंडा हों रहा है और तू पीने के जगह कहीं और खोया हुआ हैं।

"तुम्हें तो सिर्फ़ अपने बेटे की परेशानी दिखता हैं। कभी इतना ही ध्यान मेरे बेटे पर भी दे दिया करो।" बरखा कमरे से बहार आ रहीं थी तो दोनों बाप बेटे की बाते सुनकर तंज का भव शब्दों में घोलकर बोलीं

तिवारी... ये बात तुम कह रहीं हों जरा अपनी गिरेबान में झांककर देखो कभी तुमने मां होने का एक भी फर्ज निभाया कभी राघव को पास बैठाकर एक मां की तरह उससे उसके परेशानी पुछा नही कभी नहीं मगर मैंने कभी अरमान और राघव में भेद नहीं किया दोनों को एक समान बाप का प्यार दिया।

बरखा... मैं तो करती हूं और आगे भी करती रहूंगी क्योंकि राघव मेरा सगा नहीं सौतेला हैं...।

राघव इतना सुनते ही उठकर चला गया और तिवारी बोला...बस करो बरखा ओर कब तक ऐसे ही मेरे बेटे को उसी के सामने सौतेला होने का एहसास करवाते रहोगे वो तो तुम दोनों से कभी भी भेद भाव नहीं करता हैं फ़िर तुम और अरमान सगा सौतेला का भेद क्यों करते हों न मैंने कभी सगा सौतेले का भेद किया हैं।

बरखा...मैं तो जो भी करती हूं सामने से करती हूं। तुम जो भी करते हो वो सब दिखावा करते हों। अगर दिखावा नहीं करते तो जायदाद में दोनों को बराबर हिस्सा देते। अरमान को कम और राघव को ज्यादा नहीं देते।

बातों का रूख बदलते देख तिवारी उठे और कमरे की और जाते हुए बोले...उसके लिए भी तुम दोनों मां बेटे ही ज़िम्मेदार हों जीतना दिया उसी में खुश हों लो वरना वो भी छीन लूंगा और मुझे ऐसा करने पर मजबुर न करो।

इतना बोलकर तिवारी कमरे में चला गया और बरखा दो चार बाते और सुनाया फ़िर अपने कमरे में चला गया।

अजीब विडंबना में दोनों बाप बेटे जिए जा रहे हैं। दो पल बैठकर एक दूसरे की परेशानी भी जान नहीं पा रहे हैं। आज कोशिश की पर वो भी सिर्फ बरखा के कारण धारा का धारा रह गया।

रात्रि भोजन का वक्त हों चुका था मगर राघव कमरे से एक पल के लिए बहार ही नहीं आया था। यहां बात जानते ही तिवारी बेटे को बुलाने चले गए। कई आवाज देने के बाद राघव बहार आया तब तिवारी बोला... चल बेटा भोजन कर ले।

राघव... पापा आप कर लिजिए मुझे भूख नहीं हैं।

तिवारी... चल रहा है की फिर से सुरसुरी करना शुरू करू।

राघव... नहीं पापा चलाइए आप की सुरसुरी सहने से अच्छा भोजन ही कर लेता हूं।

दोनों बाप बेटे खाने के मेज पर आ के बैठ गए। भोजन लगाया जा रहा था उसी वक्त बरखा भी आ कर बैठ गई। निवाला मुंह में डालते हुए बरखा बोलीं... यहां बाप अपने बेटे के साथ बैठे भोजन कर रहा हैं मगर मेरा बेटा वहां भोजन किया भी कि नहीं ये तक किसी ने नहीं पुछा।

तिवारी... उसके लिए तुम हों न घड़ी घड़ी फ़ोन करके पूछ ही लेती हो तो फिर दूसरे को पूछने की जरूरत ही क्या है अब तुम चुप चाप भोजन करो। यहां बैठना अच्छा नहीं लग रहा हैं तो अपने कमरे में जा सकती हों।

एक निवाल बनाकर राघव को खिलाते हुए बोला...आज मैं अपने बेटे को अपने हाथ से खाना खिलाता हूं और एक सौतेली मां को दिखा देना चाहता हूं वो भाले ही मेरे बेटे को मां का प्यार दे चाहे न दे लेकिन एक बाप मां और बाप दोनों का प्यार देना जानता हैं।

बरखा... हा हा...।

"चुप बरखा बिल्कुल चुप एक भी अल्फाज न बोलना नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा। मुझे इतना भी मजबुर न कारो की मुझे तुम पर हाथ उठना पड़े।" तिवारी ने अपनी बाते लगभग चीखते हुए बोला।

तिवारी का गर्म तेवर देखकर बरखा चुप हो गई और चुप चाप भोजन करने लग गई।

तिवारी खुद से निवाला बनाकर राघव को खिलाए जा रहा था। कुछ निवाला खाने के बाद राघव खुद से निवाला बनाकर खाने लगा। राघव खुद से खा तो रहा था मगर उसके मस्तिस्क के किसी कोने में दोपहर के भोजन का वहां दृश्य बार बार चल रहा था जब श्रृष्टि भोजन अधुरा छोड़कर चला गया था।

वहां दृश्य मस्तिस्क में उभरते ही उस वक्त का पूरा दृश्य चलचित्र की तरह राघव के सामने चलने लग गया और राघव के चहरे पर एक बार फ़िर से परेशानी की लकीरें आ गया। बगल में बैठा बाप इसे भाप गया तो एक हाथ से राघव का हाथ थाम लिया।

स्पर्श का आभास होते ही राघव के सामने चल रहा चलचित्र अदृश्य हों गया और राघव हाथ में लिया हुआ निवाला प्लेट में छोड़कर चला गया।

"राघव भोजन तो पूरा करता जा।" रोकते हुए तिवारी बोला

बरखा...अरे जानें दो क्यों गला फाड़ रहे हो उसे भूख नहीं होगा, होता तो भोजन अधुरा छोड़कर नहीं जाता।

तिवारी...बरखा मैंने तुमसे बोला था चुप रहना फिर क्यों अपना मुंह खोला, तुम्हें दिख नहीं रहा वो किसी बात से परेशान हैं।

बरखा…परेशान तो होगा ही रोज पाता नहीं बहार से क्या गंदा संदा खा पीकर आता हैं। जा कर देखे कहीं तुम्हारे बेटे का लिवर सीवर सड़ तो नही गया।

बरखा की बातों ने तिवारी का पारा इतना चढ़ा दिया की वो खुद पर काबू नहीं रख पाया। तिवारी झट से अपना खुर्शी छोड़ा और चटाक, चटाक की आवाज वहा गूंज उठा। सहसा क्या हुआ ये बरखा के समझ से परे था और तिवारी यहां नहीं रूके एक के बाद एक कई चाटा ओर मारा फ़िर लगभग चीखते हुए बोला…बरखा आज तुम्हारे जुबान से जो निकला वो मेरे सहन सीमा को पर कर गया। आज तुम्हें चेतावनी देता हूं आज के बाद तुम अपनी ये सड़ी हुई सुरत लेकर मेरे बेटे के सामने आएं तो तुम्हरा वो हस्र करुंगा कि आईने में अपनी सूरत देखने से कतराओगे।

बरखा को इतने चाटे पड़े की उसका हुलिया बिगड़ गया। बिना बालों को छुए करीने से कड़े और जुड़ा किए हुए बालों को अस्त व्यस्त कर दिया गया।

तिवारी का रौद्र रूप बरखा के लिए किसी सदमे से कम न था इससे पहले भी बरखा ने न जानें कितनी वाहियात बाते कहीं थी मगर उस वक्त तिवारी सिर्फ टोकने के अलावा कुछ नहीं किया और आज वो हुआ जिसका इल्म शायद बरखा को न थी, न ही तिवारी ने कभी किसी महिला के साथ किया होगा।

मेज पर रखा पानी उठाकर गट गट पी गया फिर गहरी गहरी सांसे लेकर तिवारी ने अपने गुस्से को ठंडा किया फिर बोला...बरखा तुम्हारी हरकतें और कड़वी बातों ने आज मुझे वो करने पर मजबुर कर दिया जो न मैंने कभी सोचा था न ही कभी किया था और हा जो भी बाते मैने गुस्से में कहा ये मत सोचना की मैं भूल जाऊंगा भाले ही मैंने गुस्से में कहा हो मगर एक एक बाते सच हैं आज के बाद तुम्हारी सुरत मुझे या मेरे बेटे को दिखा तो तुम्हारा गत इससे भी बूरा करुंगा। मुझे ऐसा बहुत पहले कर देना चहिए था जिससे मेरे बेटे को इतना जलील न होना पड़ता चलो देर से ही सही अब से उसे उसके घर में जलील नहीं होना पड़ेगा।

इतना कहाकर एक प्लेट में खाना लगाया ओर राघव के कमरे की ओर जाते हुए बोला... मैं राघव को भोजन करवाने जा रहा हूं जब लौट कर आऊं तब तुम मुझे यहां नहीं दिखना चहिए और हां अभी अभी तुम्हारे साथ जो भी हुआ इसकी भनक अरमान को नहीं लगना चाइए अगर उसे पाता चला तो तुम्हारा गत क्या होगा ये मैं भी नहीं जानता बस इतना कहुंगा बहुत बूरा होगा।


राघव के कमरे पे पहुचकार द्वार खटखटाया फ़िर बोला... राघव दरवाजा खोल और भोजन कर ले बेटा।

राघव... पापा...।

"राघव कोई बहाना नहीं चलेगा तू द्वार खोलता है कि मैं कुछ करूं।" झिड़कते हुए तिवारी बोला

राघव ने तुरंत द्वार खोल दिया फ़िर दोनों भीतर चले गए। राघव को बेड पर बैठने को कहकर खुद भी बैठ गए फ़िर राघव को खुद से भोजन करवाने लग गए। राघव न न करता रहा पर तिवारी माने नहीं डांट डपट कर जीतना भोजन लाया था लगभग सभी भोजन राघव को खिला दिया फ़िर प्लेट रखकर बोले... अब बोल तू किस बात से इतना परेशान हैं।

राघव...मैं कहा परेशान हूं लगता हैं आपको भ्रम हुआ था।

तिवारी...अच्छा मुझे भ्रम हुआ था चल माना की मुझे भ्रम हुआ था मगर भोजन के वक्त तू किन ख्यालों में गुम था और मेरा स्पर्श पाते ही बना बनाया निवाला छोड़कर आ गया।

जारी रहेगा….
 

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