भाग - 20
इतवार की सुबह लगभग 10 बजे के करीब श्रृष्टि नजदीक के ऑटो स्टैंड चली गई। कई सारे ऑटो सवारी के इंतजार में खड़े थे। चकरी, चकरी, चकरी, बस एक सवारी चहिए चकरी की, मेढा, मेढा, मेढा, मेढा जानें वालो इधर आ जाओ, ये मामू हट न सामने से सवारी आने दे, अरे ओ... हां हां तुझे बोल रहा हूं अपना डिब्बा हटा मुझे जाना है।
तरह तरह की आवाजे वहां गूंज रहा था। कोई सवारी हातियाने के लिए सवारी का सामान खुद उठा ले रहे थे। तो कोई "अरे माताजी आप मेरे ऑटो में बैठिए बस चलने ही वाला हूं" बोल रहा था। इन्हीं आवाजों के बीच श्रृष्टि एक चेहरे को बड़े बारीकी से ढूंढ रहीं थी। कई ऑटो वाले उसे सवारी समझकर अपने ऑटो में बैठने को कह रहा था।
श्रृष्टि उन पर ध्यान न देकर आगे बढ़ जाती। तो ऑटो वाला "अरे मैम कहा जाना है जगह तो बताओं आपको वहा तक छोड़ आऊंगा" पीछे से बोल देता। श्रृष्टि इन पर ध्यान न देखकर सिद्दत से उस खास शख्स को ढूंढने में लगी हुई थीं।
श्रृष्टि को आए वक्त काफी हों चूका था। धूप की तपन बीतते वक्त के साथ बढ़ता जा रहा था। बिना इसकी प्रवाह किए माथे पर आई पसीना को पोछकर उस शख्स को ढूंढने में लगीं हुईं थीं। सहसा एक ऑटो आकर वहा रूका। चालाक को ध्यान से देखने के बाद एक खिला सा मुस्कान श्रृष्टि के लवों पर तैर गया और श्रृष्टि उस ऑटो वाले की ओर बढ़ गया।
सवारी समझकर ऑटो वाला बोला...बेटी आपको कहा जाना हैं।
"अंकल मैं आज आपकी ऑटो की सवारी करने नहीं आई हूं बल्कि आपसे मिलने आई हूं।" मुस्कुराते हुए श्रृष्टि बोलीं
"मूझसे पर क्यों? मैं तो तुम्हें जानता भी नही।"
श्रृष्टि... अंकल आप भूल गए होंगे मगर मैं नहीं भुला आज से लगभग एक महीना पहले अपने मेरी मदद कि थी। जिससे मुझे नौकरी मिला था। धन्यवाद अंकल सिर्फ आपके कारण ही मुझे नौकरी मिला था। ये लिजिए...।
इतना कहकर श्रृष्टि अपने साथ लाई थैली को चालक की और बढ़ा दिया। चालक अनभिज्ञता का परिचय देते हुए श्रृष्टि का मुंह ताकने लग गया।
"क्या हुआ अंकल ऐसे क्यों देख रहें हों। लगता हैं आपको सच में मैं याद नही रहा चलिए कोई बात नहीं मैं आपको याद करवा देती हूं।"
इसके बाद श्रृष्टि ने उस दिन की घटना सूक्ष्म रूप में सूना दिए जिसे सुनकर चालक बोला…ओ तो तुम हों चलो अच्छा हुआ बेटा जो उस दिन तुम्हें नौकरी मिल गई। मगर मैं ये नहीं ले सकता। बेटी मैंने तो उस दिन एक इंसान होने के नाते इंसानियत का फर्ज निभाया था।
श्रृष्टि...उस दिन अपने अपना फर्ज निभाया था आज मैं अपना फर्ज निभा रहीं हूं। वैसे भी अपने मुझे बेटी कहा हैं। बेटी कुछ दे तो मना नहीं करते।
"पर...।"
"पर वर कुछ नहीं बस आप रख लिजिए। प्लीज़ अंकल जी।" बचकाना भाव से श्रृष्टि बोलीं
"अच्छा अच्छा ठीक है लाओ दो। वैसे इसमें हैं क्या?।" हाथ में लेकर परखते हुए चालक बोला
श्रृष्टि... जो भी है आप बाद में देख लेना अभी आप अपना कॉन्टेक्ट नम्बर दे दिजिए मुझे जब भी कहीं आने जानें की जरूरत पड़ेगी मैं आपको बुला लिया करूंगी। आप आयेंगे न अंकल जी।
"हां हां आ जाऊंगा।" अपना संपर्क सूत्र देते हुए बोला
चालाक का संपर्क सूत्र लेकर श्रृष्टि चल दिया। वहां मौजुद एक लड़का यह सब देख और सुन रहा था। श्रृष्टि के जाते ही चालक के पास आया ओर बोला...अंकल ये लड़की थोड़ा अजीब हैं न, भाला कौन ऐसा करता हैं।
"अजीब तो हैं जहां लोग अपनो से मदद लेकर भूल जाते है वहां इस जैसी भी है जो एक अंजान के मदद करने पर भी उसे भूली नहीं बल्कि उसे ढूंढते हुए आ गई।"
"चलो अच्छा है अब देख भी लो क्या देकर गई हैं। बाद में पाता चला थैला सिर्फ दिखने में भरी है उसमे कुछ है ही नहीं।"
"क्या है क्या नहीं तुझे उससे क्या करना हैं। मैं इतना तो जान गया हूं इसमें कुछ न कुछ है आगर कुछ नहीं भी हुआ। तब भी मेरे लिए इतना ही काफी है वो मेरा किया मदद भुला नहीं और मुझे ढूंढते हुए यह तक आ गई। चल जा अपना काम कर और मुझे अपना काम करने दे।" टका सा जवाब दे दिया
इतना बोल ऑटो वाला ऑटो बढ़ा दिया और लड़का "मैं तो बस ऐसे ही बोला रहा था। इन्हे तो बूरा लग गया चलो यार जाने दो अपने को क्या करना मैं अपना काम करता हूं वैसे भी सुबह से एक भी सवारी नहीं मिला।" बोलते हुए अपने ऑटो की ओर चला गया।
यूं ही दिन पर दिन बीत रहा था और राघव लगभग प्रत्येक दिन श्रृष्टि के पास लांच करने पहुंच जाता था। इस बात का फायदा साक्षी बखूबी उठा रहीं थी। मौका देख दोनों को छेड़ देती और कुछ ऐसा कह देती जिसके जद में दोनों आ जाते। राघव तो खुद को संभाल लेता लेकिन श्रृष्टि खुद को संभाल नहीं पाती और उसे धाचका लग जाता।
श्रृष्टि राघव की हरकतों को बखूबी समझ रहीं थी और उसके दिल में भी राघव के लिए जगह बन चूका था फ़िर भी न जानें क्यों चुप सी रहती। राघव जब भी छुट्टी वाले दिन यानी इतवार वाले दिन लांच या फिर शाम की चाय पे मिलने की बात कहता तो काम न होते हुए भी बहना बनाकर टल देती।
श्रृष्टि का ऐसा करना राघव के समझ से परे था। कभी कभी राघव को लगता श्रृष्टि के दिल में उसके लिए जगह बन चूका हैं और शायद वो भी उससे प्यार करने लगीं हैं फिर राघव के साथ अकेले मिलने से मना कर देने पर राघव को लगता शायद जैसा वो सोच रहा है वैसा कुछ नहीं हैं। मगर फिर श्रृष्टि के हाव भव उसके सोच को बदल देता।
श्रृष्टि के इसी व्यवहार के चलते राघव परेशान सा रहने लगा। परेशानी का हाल कैसे ढूंढा जाएं इसका रास्ता उसे सूज नहीं रहा था।
राघव की परेशानी में उसकी सौतेली मां ओर इजाफा कर देती। जब भी कोई रास्ता सुजाता और उस पर अमल करने की सोचता ठीक उसी दिन उसकी सौतेली मां वबाल करके उसके दिमाग को दिशा से भटका देता।
ऐसे ही एक दिन राघव सुबह सुबह वबाल करके बिना कुछ खाए पिए घर से निकल ही रहा था कि उसके पिता ने उसे रोका और घर से बहार लाकर बोला... राघव बेटा मुझे माफ़ करना मेरे एक भूल की सजा तुझे भुगतना पढ़ रहा हैं।
राघव... आह पापा आप से कितनी बार कहा है आप माफी न मांगा करे अपने तो मेरे भाले के लिए सोचा था मगर शायद मैं ही इतना मनहूस हूं जिसके किस्मत में मां की ममता लिखा ही नहीं है।
तिवारी... ये बात तू गलत कह रहा हैं तू मनहूस नहीं है अगर तू मनहूस होता तो मेरी ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर लेते ही मेरा धंधा दिन दुगुनी और रात चौगुनी तरक्की नहीं कर रहा होता।
राघव…वो तो सिर्फ़ मेरी मेहनत की वजह से हों रहा हैं। पापा मैं सोच रहा था। अभी अभी जो प्लॉट लिया है मैं उसी में जाकर रहने लग जाऊं। इसे न मैं इनके सामने रहूंगा ओर न ही रोज रोज कहासुनी होगा।
तिवारी…ऐसा सोचने से पहले एक बार अपने इस बूढ़े बाप के बारे मे भी सोच लेता जो तेरे सहारे जीने की आस जगाए जी रहा हैं।
राघव...आप की बाते सोचकर ही तो अब तक चुप रहा लेकिन अब ओर सहन नहीं होता। आप भी चल देना दोनों बाप बेटे साथ में रहेंगे।
तिवारी... अच्छा ओर इस घर का क्या होगा? जिसे तेरी मां ने खुद अपने पसंद से बनवाया था एक एक कोना खुद अपने हाथों से सजाया था। आज भी उसकी यादें इस घर में बसी है मैं उसे छोड़कर कहीं ओर जा ही नहीं सकता हूं।
राघव... आप जा नहीं सकते मुझे जाने नहीं दे रहे। गजब की किस्मत लिखवा कर लाया हूं अब तो लगता है जिंदगी भर ऐसे ही ताने सुन सुनकर जीना होगा।
तिवारी... सब्र रख ऊपर वाले पर भरोसा रख वो जरूर हम बाप बेटे के लिए कुछ न कुछ करेगा।
राघव... पापा वो कुछ नहीं करता बस रास्ता दिखा देता हैं। अच्छा आप भीतर जाइए नहीं तो वो बहार आ गई तो फ़िर से शुरू हो जायेगी।
तिवारी... ठीक हैं जाता हूं और तू दफ्तर पहुंचने से पहले कुछ खां लेना।
राघव... कैंटीन में खा लूंगा
बाप से कहकर राघव चल तो दिया पर उसकी मानो दशा ठीक नहीं था। अभी अभी जो बाते बरखा ने कहा था उसका एक एक शब्द राघव के कानों में गूंज रहा था। "तू इतना मनहूस हैं की पैदा होने के कुछ साल बाद अपने मां को खा गया अब मेरे खुशियों को खा रहा हैं। तुझसे मेरी खुशी देखी नहीं जाती इसलिए मेरे बेटे को मूझसे दूर भेज दिया। उसके जगह तू ही चला जाता कम से कम मुझे तेरा मनहूस सूरत तो न देखना पड़ता।"
इन्हीं शब्दों ने राघव के मन मस्तिस्क पर कब्जा जमा रखा था। उससे कार चलाया नहीं जा रहा था इसलिए कार को रोड सईद रोक दिया और भीगी पलकों को पोछकर अपना मोबाईल निकलकर गैलरी में से एक फोटो ढूंढ निकाला और उसे देखते हुए बोला...मां तू मुझे छोड़कर क्यों चली गई। मैं मनहूस हूं इसलिए तूने भी मूझसे पीछा छुड़ाने ले लिए वक्त से पहले भगवान के घर चली गई है न बोल मां बोल न।
"मेरा राजा बेटा मनहूस नहीं हैं।" सहसा एक आवाज राघव के कानों में गूंजा।
जारी रहेगा….