भाग - 4
हताश निराश बैठी श्रृष्टि मन ही मन बोलीं... इतने दिनों बाद एक मौका हाथ लगा वो भी, अपनी ही करनी से गवा दिया। काश मैं इतनी जल्दी बाजी न करता, काश मां इतना तामझाम न करती, काश मुझे एक ऑटो समय से मिल जाता तो मुझे मंजिल के पास पहुंचकर उससे दूर न होना पड़ता । हे प्रभु तुझसे एक अर्जी लगाई थी वो भी तूने नकार दिया। क्यों, आखिर क्यो, मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता हैं?
काश ऐसा न होता, काश वैसा न होता इन्हीं सब बातों पर श्रृष्टि गहन मंत्रना खुद में कर रहीं थीं। जिसका असर चहरे पर साफ दिख रहा था। भोला मासूम खिला हुआ चेहरा बुझ सा गया। हर वक्त जिसके लवों पर मुस्कान तैरता रहा था। वो गायब सा हों गया।
कोई द्वार से भीतर प्रवेश करता तो श्रृष्टि को एक धाचका सा लगता और उसका मन कहता "क्या ये वही शक्स है? जिनके ऑटो में, मैं अपना प्रमाण पत्र भूल आई थी।" मगर खाली हाथ देखते ही फ़िर से निराश हों जाती। कई लोग सामने से आए ओर चले गए। प्रत्येक बार श्रृष्टि का मन एक ही बात दोहराया, अंतः श्रृष्टि निराश होकर सिर झुका लिया। उसी वक्त एक शख्स भीतर आया और रिसेप्शनिस्ट के पास पंहुचा, शख्स को देखकर रिसेप्शनिस्ट बोलीं... गुड मॉर्निग सर।
"गुड मॉर्निंग तन्वी (फ़िर अपने साथ लाए फाईल को देते हुए आगे बोला) तन्वी ये किसी श्रृष्टि की फाइल है जो यहां साक्षात्कार देने आई हैं वो वापस आए तो उनकी अमानत उन्हें लौटा देना।"
श्रृष्टि (फ़िर सामने की ओर उंगली से दिखाते हुए तन्वी आगे बोलीं) सर वो सामने बैठी है और बहुत देर से परेशान सी हैं।
"चलो देखा जाए कितना परेशान हैं" इतना बोलकर कुछ कदमों का फैंसला तय करके वो शख़्स श्रृष्टि के पास पहुंचकर बोला... Excuse me मिस श्रृष्टि।
खुद का नाम किसी और से सुनकर, अपना झुका हुआ सिर ऊपर उठाने लग गई। थोड़ा सा ऊपर उठाते ही सामने खड़े शख्स के हाथ में अपना प्रमाण पत्र पुस्तिका देखकर तुरन्त झपट लिए और खड़ी होकर बोलीं...शुक्रिया, बहुत बहुत शुक्रिया।
अपनी प्रमाण पत्र वापस पाने की ख़ुशी श्रृष्टि के चहरे पर दिख रहा था। जहां पहले बेबसी, बेचैनी और उदासी छाई हुई थी। वहां एक पल में मासूमियत और भोलापन ने अपना जगह ले चुका था। सामने खड़ा शख्स श्रृष्टि का भोला मासूम और खिला हुआ चेहरा देखकर उसी में अटक सा गया। मगर श्रृष्टि का ध्यान उस पर नहीं था वो तो बस साक्षात्कार दे पाने की खुशी खुद में ही मनाने में लगीं हुई थीं। सहसा सामने खडे शख्स को क्या सूझा कि वो बोल पड़ा... श्रृष्टि जी आपकी हरकते बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है अगर ऐसा न होता तो आप अपना कीमती प्रमाण पत्र एक ऑटो में न भूल आती। आप जैसे गैर जिम्मेदार एक लड़की की, शायद ही इस कम्पनी को जरूरत हों।
शख्स की बाते सुनकर श्रृष्टि को बुरा लगा, हद से ज्यादा बुरा लगा क्योंकि एक अनजान शख्स श्रृष्टि पर गैर जिम्मेदार होने का लांछन लगा रहा था। जबकि सच्चाई से वो शख्स अनजान था। गलती न होने पर भी खुद पर उंगली उठाया जाना श्रृष्टि से बर्दास्त नहीं हुआ इसलिए श्रृष्टि बोलीं...सर कभी कभी जो प्रत्यक्ष दिख रहा हैं वो सच नहीं होता अपितु सच्चाई उसके उलट होता हैं। इसलिए किसी पर उंगली उठाने से पहले सच्चाई जान लेना बेहतर होता हैं।
"अच्छा (मंद मंद मुस्कान से मुस्कराते हुए शख्स आगे बोला) तो फिर आप ही मुझे सच्चाई से अवगत करवा दीजिए कि क्या कारण रहा होगा जिस वजह से अपको अपना कीमती प्रमाण पत्र एक ऑटो में छोड़कर आना पड़ा।
श्रृष्टि... सच्चाई (कुछ पल रूकी फ़िर शख्स की आंखों से आंखें मिलाए आगे बोलीं) सच्चाई बताना मैं जरूरी नहीं समझता क्योंकि जो बीत गया उसका वखान करके किसी से सहानुभूति हासिल करना मेरी फितरत नहीं हैं।
"स्वाभिमानी हों, मैं आपकी बातो से बहुत प्रभावित हुआ हूं मगर अभी अभी जो घटना घाटा उससे मैं निराश भी हुआ हूं, फ़िर भी मैं अपको प्रतिक्षा करने के अलावा कुछ नहीं कह सकता हूं। इसलिए आप प्रतीक्षा कीजिए बाकी आपकी किस्मत में जो हैं होना तो वहीं है।"
इतना ही कहकर वो शख्स अपने रास्ते चला गया और श्रृष्टि को सोचने पर मजबूर कर गया। " कौन है ये शख्स? क्या ये शख्स इस दफ्तर का कोई आला अधिकारी हैं? अगर हुआ तो कहीं मेरी बातों का बूरा न मन जाए। ओ मैंने ऐसा क्यो कहा? मैंने कुछ गलत भी तो नहीं कहा, जैसी मेरी सोच है मैने बिल्कुल वैसा ही कहा। उफ्फ ये नौकरी, न जानें इसे पाने के लिए कितना तामझाम करना पड़ता हैं।
श्रृष्टि कुछ वक्त तक अपनी सोच में ही तरह तरह की बाते करती रहीं फ़िर जाकर साक्षात्कार निमंत्रण पत्र जमा कर दिया और अपनी बारी आने की प्रतीक्षा करने लग गईं। एक एक कर लोग जाते गए और श्रृष्टि बैठी बैठी अपनी बारी आने की प्रतिक्षा करती रहीं। अभी भी कई लोग रह गए थे कि एक शख्स आया और बोला... आज के लिए साक्षात्कार को यहीं पर स्थगित किया जाता हैं। अगला तारिक तय होने पर आप सभी को सूचित कर दिया जाएगा। अब आप लोग अपने अपने घर लौट जाएं।
वहा मौजूद लोग तरह तरह की बाते करते हुए एक एक कर बहार को चल दिया। मगर श्रृष्टि जैसी थी वैसी ही बैठी रहीं। उसे यकीन ही नहीं हों रहा था कि साक्षात्कार स्थगित कर दिया गया हैं। देर सवेर उसे यकीन करना ही था और हुआ भी वैसा, यकीन होते ही एक और नाकामी का दर्द नीर बनकर उसके आंखों से बह निकला जिसे पोंछकर, धीरे धीरे कदमों से श्रृष्टि बहार को चल दिया।
श्रृष्टि रिसेप्शनिस्ट के सामने से होकर गुजर रहीं थीं, ठीक उसी वक्त रिसेप्शन पर मौजूद फ़ोन बज उठा, नज़रे फेरकर उस और देखा फ़िर आगे को बड़ गई। श्रृष्टि गेट से बहार निकल ही रहीं थीं। ठीक उसी वक्त रिसेप्शनिस्ट ने श्रृष्टि को आवाज़ दिया। शायद श्रृष्टि सुन नहीं पाई इसलिए कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया। तो रिसेप्शनिस्ट जल्दी से द्वार तक पंहुचा, इतने वक्त में श्रष्टि लिफ्ट के पास पहुंच गई थीं। श्रष्टि लिफ्ट में सवार न हों जाएं इसलिए रिसेप्शनिस्ट ने तेज स्वर में आवाज़ देते हुए बोली... श्रृष्टि मैम रूकिए।
तेज स्वर में आवाज़ दिए जाने से श्रृष्टि रूक गई और पलटकर उस ओर देखा जिधर से आवाज़ आया था। रिसेप्सनिस्ट ने हाथ हिलाकर श्रृष्टि को अपने पास बुलाया तो श्रृष्टि न चाहते हुए भी उसके पास पहुंच गईं। श्रृष्टि के पहुंचते ही रिसेप्सनिस्ट बोलीं...मैम आपको साक्षात्कार के लिए बुलाया जा रहा हैं।
सिर्फ़ श्रृष्टि को साक्षात्कार के लिए बुलाए जानें से श्रृष्टि मन ही मन खुश हों गई मगर सवाली कीड़ा जो ऐसे मौके पर कुछ ज्यादा ही कुलबुला उठता हैं। वहीं कीड़ा श्रृष्टि के अंतरमन में भी कुलबुला उठा और श्रृष्टि पूछ बैठी... साक्षात्कार तो स्थगित कर दिया गया था फ़िर मुझे ही क्यों साक्षात्कार के लिए बुलाया जा रहा है?
तन्वी... क्यों? मैं नहीं जानती मगर इतना कहूंगा कि आप बहुत भाग्यशाली हों जो साक्षात्कार स्थगित होने के बाद भी सीईओ श्रीमान राघव सर खुद आपको साक्षात्कार के लिए बुला रहें हैं।
तन्वी की बाते सुनकर जहां श्रृष्टि खुश हुई वहीं हैरान भी हुआ। मगर जाते जाते एक बार फ़िर से मौका मिल गया इसलिए ज्यादा वक्त बर्बाद न करते हुए। तन्वी के साथ रिसेप्शन पर पहुंच गई फिर तन्वी के बताए दिशा की और चल दिया।
दृश्य में बदलाव
राघव इस वक्त अपने दफ्तर रूम में बैठा साक्षी की क्लास लगा रहा था। वजह वहीं जिसके लिए राघव लगभग प्रत्येक दिन डांटा करता था। राघव डांटते हुए बोला... साक्षी तुम्हें एक बात बार बार क्यों कहना पड़ता हैं? एक बार में तुम सुन क्यों नही लेती? मैं दूसरो जैसा नहीं हूं जो लड़कियों को नुमाइश की वस्तु समझें मगर तुम हों की नुमाइश करने से बाज नहीं आती। आज तुम्हें आखरी भर चेतावनी दे रहा हूं। अगली बार तुम्हारे शार्ट का बटन, मुझे खुला हुआ दिख तो वो दिन इस दफ्तर में तुम्हारा आखरी दिन होगा। अब तुम जाओ और अपना काम करो।
साक्षी को झिड़ककर राघव एक फाइल देखने लग गया और साक्षी सनसनीखेज नजरों से राघव को देखा फिर पलट कर जाते हुए मन में बोला... क्या आदमी है कितना भी डोरे डालो फंसता ही नहीं, इनके जगह कोई ओर होता तो अब तक गोते लगा चुका होता। खैर कोई बात नहीं इन्हें फंसाने का कोई न कोई पैंतरा ढूंढ ही लूंगा।
मन ही मन खुद से बातें करते हुए साक्षी द्वार तक पहुंच गई जैसे ही द्वार खोला सामने श्रृष्टि को खड़ी देखकर सवाल दाग दिया... तुम कौन हों और यहां किस काम से आई हों?
श्रृष्टि... मैम मैं श्रृष्टि हूं और यहां साक्षात्कार देने आई हूं।
साक्षी... तो यहां क्या कर रहीं हो? साक्षात्कार तो दुसरी ओर हो रहा है। उधर जाओ।
श्रृष्टि... पर मुझे तो राघव सर ने यहीं बुलाया था।
श्रृष्टि का इतना बोलना था की साक्षी को सोचने पर मजबूर कर दिया और साक्षी मन ही मन बोलीं...क्यों, आखिर क्यो राघव सर ने इस लड़की को साक्षात्कार देने अपने पास बुलाया? जबकि राघव सर किसी का साक्षात्कार लेते ही नहीं, तो फ़िर क्यों इस लड़की का साक्षात्कार खुद लेना चाहते हैं? इस लड़की के साथ राघव सर का क्या रिश्ता हैं? सोच साक्षी सोच कुछ तो गड़बड़ है। मामला क्या है पाता लगाना पड़ेगा?
यहां साक्षी ख़ुद की सोच में गुम थी और वहां जब राघव की नज़र द्वार पर पड़ा तो साक्षी को खडा देखकर बोला... साक्षी तुम अभी तक गई नहीं, वहा खड़ी खड़ी क्या कर रहीं हों?
साक्षी अपने सोच से मुक्त होकर जवाब देते हुए बोली... सर कोई श्रृष्टि नाम की लड़की आई है और...।
साक्षी की बात बीच में कटकर राघव बोला... ओ श्रृष्टि! साक्षी तुम जाओ अपना काम करो और उन्हें अंदर भेजो।
"उन्हे! वाहा जी वाहा" मन ही मन इतना बोलकर साक्षी द्वार से हटकर आगे को चली गई और श्रृष्टि द्वार से ही बोलीं… सर मैं भीतर आ सकती हूं।
राघव... हां बिल्कुल आइए, आपको भीतर आने के लिए ही बुलाया गया था।
जारी रहेगा...