Fantasy विष कन्या(completed)

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आगे हमने देखा कि राजवैद्य सुमंत मृत्युंजय को अपनी उपचार पद्धति के विषय में बताते हे ओर मृत्युंजय अपनी पद्धति के विषय में। फिर सब जब वहां से चले जाते है तो मृत्युंजय लावण्या से थोड़ा व्यंग करता है और लावण्या क्रोधित होकर उत्तर देने जा रही है तभी उसकी नज़र कक्ष के द्वार पर पड़ती है और उसे आश्चर्य होता है। अब आगे......


मृत्युंजय के व्यंगात्मक शब्दों से लावण्या ज्यादा क्रोधित हो जाती है और वो उसका प्रत्युत्तर देने जा रही है तभी उसे कक्ष के द्वार पर भुजंगा और कुछ सेवक दिखाई पड़ते है। उन सभी के हाथो में पुष्प से भरी टोकरियां हे और वो कक्ष में प्रवेश करते है। सेवक टोकरियां कक्ष में रखकर चले जाते है।


अब ये क्या है? इतने सारे पुष्प की इस कक्ष में क्या आवश्यकता है? लावण्या ने मृत्युंजय की ओर देखते हुए प्रश्न किया। इस कक्ष को शुशोभित करने केलिए तुरंत भुजंगा ने उत्तर दे दिया। मैने आपसे तो प्रश्न नहीं किया? फिर बीच में बोलने का कष्ट क्यों किया आपने? लावण्या ने बड़ी ही ऋष्ट होकर भुजंगा से कहा। उत्तर वो दें या में दूं एक ही बात है लावण्या जी फिर मृत्युंजय ने मुस्कुराते हुए कहा। लावण्या ने मृत्युंजय की ओर देखा और बस मौन हो गई।


मृत्युंजय मौन रहने वाला नहीं था। वो क्या है लावण्या जी की जब इस कक्ष मे साक्षात सुन्दरता की देविया उपस्थित है तो फिर ये बिचारे पुष्प वहा वाटिका में क्यों रहे उनको भी तो आपकी सेवा का अवसर क्यों ना दिया जाए यही सोचकर हमने वाटिका के से पुष्प यहां मंगवा लिए। लावण्या मृत्युंजय के किसी भी व्यंग या कटाक्ष का उत्तर देना नहीं चाहती थी जिस से बात आगे ही ना बढे।


सारिका यहां आओ लो ये औषधि और इसको इतना कुटो के ये जल की भांति प्रवाही बन जाए ओर फिर सेविका को देकर राजकुमारी को पिलाने केलिए कह देना में अब यहां एक क्षण भी नहीं रुक सकती। लावण्या ने मृत्युनजय के सामने क्रोधित होकर देखते हुए कहा ओर हाथ झटकते हुए वहां से चली गई। मृत्युंजय मुस्कुराते हुए उसको जाते हुए देखता रहा।


सारिका औषधि को पीस रही थी। भुजंगा उसके समीप गया, प्रणाम मेरा नाम भुजंगा है और आपका। सारिका, मुंह मरोड़ते हुए सारिका ने उत्तर दिया। हम इस कक्ष को शुसोभित करने हेतु ये पुष्प लेकर आए है क्या आप हमारी इसमें सहायता करेंगी सारिका जी? जी नहीं खुद ही कर लिजिए फिर सारिका ने मुंह बनाकर उत्तर दिया। भुजंगा ने सारिका के चहेरे को ध्यान से देखने का अभिनय किया और बोला हमने तो सुना है और देखा भी है की व्यक्ति अपने माता पिता पर जाते है पर आप तो बिल्कुल अपनी सहेली पर गई है, और जोर जोर से हसने लगा।


सारिका ने थोड़ा क्रोधित होकर भुजंगा की ओर देखा और बोली अच्छा कैसी है मेरी सखी बताइए जरा मैं भी तो जानूं। सौंदर्यवान, गुणवान, मिलनसार। क्या क्या नहीं है आपकी सखी में ये पूछिए। हमारे पास एसे शब्द कहां जो उनका वर्णन कर सके भुजंगा ने बड़े व्यंगात्म शब्दों में उत्तर दिया। सारिका ने भुजंगा को जैसे अभी हाथ में तलवार होती तो उसके दो टुकड़े कर देती, एसी दृष्टि से देखा और वो भी पांव पटककर कुछ भी प्रत्युत्तर दिए बिना चली गई।


आपके परिचय का लेंन देन समाप्त हुआ हो तो अब कुछ कार्य करले मित्र? पीछे से मृत्युंजय ने कहा। हा... हा... अवश्य मित्र। मैं तो कार्य ही कर रहा था सोचा अगर सारिका जी भी थोड़ी सहायता कर देगी तो कार्य जल्द संपन्न हो जाएगा अन्य कुछ नहीं और दोनों मित्र एक दूसरे की ओर देखकर हसने लगे।


महाराज अपने कक्ष में चहलकदमी कर रहे है। उनके मन में कुछ संशय चलता देख राजगुरु कहते है, महाराज कोई द्विधा हो तो कहिए मैं संभवतः उसके निवारण का प्रयास करूंगा। राजगुरु मेरे मन में यही प्रश्न उठ रहा है कि क्या मृत्युंजय ने कहा एसी भी उपचार पद्धति है।


हा महाराज अथर्ववेद मे इस उपचार पद्धति को दर्शाया गया है। जैसे मंत्र उपचार पद्धति, हम जब ओमकार का उच्चारण करते है तो हमारा रक्तचाप ठीक रहता है। मस्तिष्क में रक्तप्रवाह ओर वायु पर्याप्त मात्रा में पहुंचते है। कंठ की कोशिका एवम् स्वर वाहिनी के संबंधित रोगों से मुक्ति मिलती है और ह्रदय की गति भी नियंत्रित रहती है। एसे ही सूर्यदेव के सामने खड़े रहकर सूर्य मंत्रका जाप करने से त्वचा संबंधित रोगों से मुक्ति मिलती है। आप निश्चिंत रहिए ये सब उपचार पद्धति औषधि से भी ज्यादा लाभदाई है।राजगुरु महाराज को आश्वस्त कर रहे है तभी एक सेवक आकर कहता है कि महाराज एक अनुचर आपसे मिलने की आज्ञा मांग रहा है। महाराज ने शिर हिलाकर अनुमति दी और कुछ ही पल में अनुचर कक्ष में आकर महाराज और राजगुरु को हाथ जोड़कर प्रणाम करता है। हमे आशा है की तुम जरूर कोई शुभ सूचना लेके आए होंगे।


क्षमा कीजिए महाराज किन्तु कोई शुभ समचार नहीं है। अथाग प्रयत्न के बाद भी हम कुमारी चारूलता को खोजने में असफल रहे है। हमने दूर दूर पड़ोसी राज्य, मित्र राज्य, दुश्मन राज्य,। और हमारे आश्रित राज्य, सभी जगह ढूंढा लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला महाराज। अनुचरने शिश झुकाकर खेद से कहा। अच्छा.... तुम प्रयास जारी रखो महाराज ने कहा और वो अनुचर प्रणाम करके चला गया।


महाराज फिर किसी विषय में सोचने लगे। महाराज चिंता ना करे कुमारी चारुलता की खबर मिल जाएगी। राजगुरु हम कैसे महाराज है जो ना अपनी बेटी को स्वस्थ कर सकते है ना ही हमारे मित्र और हमारे प्रधान सेनापति वज्रबाहु की पुत्री को खोजने में सफल हुए है। जब हमारी पुत्रियों को ही हम सुरक्षित नहीं रख सकते तो प्रजा की सुरक्षा क्या कर सकेंगे। हमारी प्रजा हमारे बारे में क्या सोचती होंगी।


धीरज धरे महाराज विधाता आपकी कसौटी कर रहा है। आपको हिम्मत बनाय रखनी है। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। राजगुरु ने महाराज को आश्वाशन दिया। महाराज आसन पर विराजते हुए बोले ईश्वर करे सब जल्द ही ठीक हो जाएं। हम आज हमारे मित्र वज्रबाहु से भेंट करने उनके निवास पर जाएंगे। उचित है महाराज।
 
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आगे हमने देखा कि मृत्युंजय लावण्या से व्यंग करता है और लावण्या क्रोधित होकर वहां सेचली जाती है। वहीं महाराज को आशंका है की मृत्युंजय ने जिस उपचार पद्धतियों का वर्णन किया एसा होता है और क्या को लाभदाई रहेगा राजकुमारी केलिए। राजगुरु उनको विस्तार से समझाते है। तभी एक अनुचर आता है और समाचार सुनता है कि कुमारी चारूलता का कहीं पता नहीं चला अब आगे............


महाराज आप अपने साथ कुछ सैनिक लेकर जाइए। आप का इस तरह अकेले जाना उचित नहीं है। मैं आपकी बात से सहमत हूं राजगुरु किन्तु आज एक राजा अपने प्रधान सेनापति से मिलने नहीं जा रहा परंतु एक मित्र अपने मित्र से भेंट करने जा रहा है। इस लिए में अकेले ही जाऊंगा। महाराज ने राजगुरु को प्रणाम किया और सारथी को आदेश दीया की सेनापति के भवन की ओर चलो।


जैसे ही सेनापति को खबर मिली कि महाराज खुद उनसे भेंट करने हेतु उनके भवन पधारे है, वो दौड़ कर द्वार पर जाकर उनका स्वागत करते है। प्रणाम महाराज मुझे संदेश भेजा होता तो मैं उपस्थित हो जाता आपकी सेवा में आपने स्वयंम आने का कष्ट क्यों किया? सेनापति हाथ जोड़कर कहा। महाराज ने सेना पति के जोड़े हुए हाथोंको अपने हाथ में लेकर कहा, महाराज नहीं मित्र आज तुम्हारा मित्र इंद्र्वर्मा तुमसे मिलने आया है। गले नहीं मिलोगे मित्र के?। वज्रबाहु की आंख में हर्ष के आंसू आगए। उसने भावुक होकर मित्र को गले लगाया और आवकार देकर आसन ग्रहण करने को कहा।


आज अचानक यहां कैसे राज्य में सब कुशल मंगल तो हैं ना? हां व्रजबाहू पूरे राज्य में सब कुशल मंगल है बस नहीं है तो हमारे अपने जीवन में। महाराज कहते कहते भावुक हो गए। वज्रबाहु भी भावुक हो गए। फिर कुछ आस पास देखकर बोले मै आपके लिए जलपान की व्यवस्था करता हूं। नहीं मित्र इसकी कोई आवश्यकता नहीं है इंद्र्वर्मा ने उठकर मित्र के हाथ थाम लिए। में यहां तुमसे भेंट करने और हम दोनों के ह्रदय में पड़े बोज को हल्का करने केलिए आया हूं मित्र।


वज्रबाहु बैठ गए। मित्र तुम कुछ दिनों से राजमहल आए नहीं हो, तुम्हारे बिना में और हमारा राज्य अधूरा है। एक तरफ राजकुमारी वृषाली की ये अवस्था तो दूसरी ओर कुमारी चारूलता का अपहरण हो जाना मित्र ये विधाता हम दोनों की कैसी परीक्षा कर रहा है? महाराज ने पीड़ा भरे स्वर में कहा। वज्रबाहु की आंखे छलक गई, वो अपने आपको संभाल नहीं पाए।


मित्र मेरी तो पूरी दुनिया ही उजड गई है। मुझे ये सारा संसार विष के भांंति लगता हैं। जिसका स्वर अमृत के समान मेरे जीवन को ऊर्जा प्रदान करता था वो ना जाने कहा खो गई। वज्रबाहु दुखी स्वर से बोले। मित्र हमारी दशा तुमसे भिन्न कहां? अपनी पुत्री को शय्यामे अचेत देखकर हमारा ह्रदय चूर चूर हो जाता है। थोड़ी देर केलिए सब शांत हो गए। फिर महाराज बोले, मित्र कंही हमारे राज्य में हमसे कोई षडयंत्र तो नहीं कर रहा ना? महाराज इंद्रवर्मा आशंकाओं से घिरे हुए दिखाई दे रहे थे।


कैसा षडयंत्र मित्र? देखोना राजकुमारी का यूं आश्चर्यजनक स्थिति में अस्वस्थ हो ना, तुम्हारी पुत्री का अज्ञात लोगो के द्वारा अपहरण हो जाना कहीं ये हमारे विरुद्ध और हमारे राज्य के विरुद्ध कोई षडयंत्र तो नहीं है ना? चिंतित होकर महाराज ने कहा। नहीं नहीं मित्र ये एक संयोग मात्र भी तो हो सकता है ना। एसे नकारात्मक विचार अपने मस्तिष्क में प्रवेश ना करने दें । हमारे राज्य का हर एक व्यक्ति राष्ट्रप्रेमी है। ये जरूर हमारे किसी प्रतिद्वंदी राज्य या दुश्मन राज्य का काम हो सकता है। सेनापति वज्रबाहु ने बड़ी कुशाग्र बुद्धी से बात को संभाल लिया।
जो भी हो मित्र, किन्तु मैं और हमारा राज्य तुम्हारे बिना अपूर्ण है इस लिए तुम अपने पदभार को त्वरित ग्रहण करलो । तुमसे ये एक मित्र और राजा दोनों की विनती है । आप मुझे लज्जित कर रहे है, आप को मुज जैसे व्यक्ति के सामने विनती नहीं आज्ञा देनी चाहिए। मुझे क्षमा करना महाराज मै पुत्री के वियोग के शोक में इतना डूब गया था कि अपने कर्तव्य से विमुख हो गया था। मैं कल से अपने कर्तव्य पद पर लोट आऊंगा। व्रजबाहु हाथ जोड़कर महाराज से बोले। महाराज ने वज्रबाहु को गले लगा लिया और राज्य की ओर प्रस्थान किया।


संध्या होने को है। आसमान में पक्षी अपने निवास स्थान पर पहुंच ने केलिए चहल पहल कर रहे है। सूर्यदेव भी अब निजभवन पहुंचने केलिए धीरे धीरे कदम बढ़ा रहे है। मृत्युंजय अपने कक्ष के जरुखे से इस मनोरम दृश्य को निहार रहा है तभी उसकी नजर वाटिका में विहार कर रहे राजगुरु पर पड़ी। वो आकाश की ओर निहार रहे है और ढलते हुए सूर्य को देख रहे है।


मृत्युंजय राजगुरु के पास आया। प्रणाम राजगुरु। आप इस समय यहां वाटिका में? आयुष्यमान भव पुत्र राजगुरु ने मृत्युंजय के प्रणाम के उत्तर मे आशीर्वाद दिए। राजगुरु के मुख से पुत्र सुनते ही मृत्युंजय की आंखे चमक उठी और चहेरे पर प्रसन्नता छा गई। आपने मुझे पुत्र कहा राजगुरु? हां, क्यों की मित्र का पुत्र अपने पुत्र के समान ही होता है मृत्युंजय। यहां में राजगुरु के पद की मर्यादाओं से मुक्त हूं। यहां में तुम्हारे पिता के मित्र के रूप में तुम्हारे समक्ष खड़ा हूं पुत्र। मृत्युंजय की आंखे छलक गई। धन्यवाद आपका ये मेरा अहोंभाग्य है जो आपने मुझे इस योग्य समझा।


राजगुरु मुझे आपसे कुछ जानकारी चाहिए। किस विषय में? राजकुमारी वृषाली की बीमारी के विषय में। जी पूछो तुम्हे जो जानकारी चाहिए में देने का प्रयास करूंगा।


राजकुमारी वृषाली को क्या हुआ था जिसके कारण वो इस दशा में है? मृत्युंजय ने जिज्ञासा से पूछा। राजगुरु चलते चलते रुक गए और एक आम्र के वृक्ष के नीचे बने एक चबूतरे पर बैठ गए। मृत्युंजय भी उनके निकट बैठ गया।


क्रमशः...........
 
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आगे हमने देखा की, महाराज इंद्र्वर्मा अपने मित्र और प्रधान सेनापति वज्रबाहु से मिलने उनके भवन जाते है। महाराज प्रधान सेनापति को अपने पदभार को फिर से संभालने केलिए कहते है। राजमहल की वाटिका मे राजगुरु को देख मृत्युंजय उनके समीप जाकर राजकुमारी के बारे में प्रश्न करता है अब आगे......


राजगुरु आम्र के वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर बैठे है। मृत्युंजय उनके चरणों के समीप बैठा है। राजगुरु मृत्युजंय की ओर देखते हुए बोले, राजकुमारी वृषाली बहुत ही गुणवान, शुसिल और समजदार कन्या है। राजकुमारी अपने पिता से सर्वाधिक स्नेह करती है। जब उनका जन्म हुआ तभी उनकी मां स्वर्ग सिधार गई ओर तबसे ही महाराज ने उनको पाल पोषकर बड़ा किया उन्होंने दूसरा विवाह भी नहीं किया।


कुछ समय पहले जब राजकुमारी अपनी परम सखी चारूलता के साथ इस वाटिका में विहार कर रही थी तो अचानक से मूर्छित होकर गिर गई बस तबसे वो इस तरह अचेत और मूर्छित अवस्था में है। कितने ही राज्यों के बड़े बड़े वैध आकर अपनी विद्या आजमाकर हार स्वीकार करके चलें गए पर राजकुमारी वृषाली की अवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ।


कुछ दिन बाद राजकुमारी की सखी कुमारी चारूलता जो की हमारे प्रधान सेनापति की पुत्री है उनका भी संदिग्ध तरीके से अपहरण हो गया। आज दिन तक नतो राजकुमारी वृषाली स्वस्थ हुई है और नाही कुमारी चारूलता का पता चला है। राजगुरु ने बड़ी निराशा के साथ मृत्युंजय को हकीक़त से अवगत कराया।


संध्या होने के कारण दूर दूर दाना पानी की खोज में निकले पक्षी वापस आ रहे थे। राजगुरु ओर मृत्युंजय जिस आम्र वृक्ष के नीचे बैठे है उस पर भी बहुत सी मेना ने अपना घोंसला बनाय है और वो वापस अपने घोंसले मे आकर अपने आपको सुरक्षित पाकर खुशी से गा रही है। उनके मधुर स्वरसे पूरी वाटिका गूंज रही है। सूर्यदेव अब अस्त होने ही वाले है।


राजगुरु खड़े हुए और मृत्युंजय से कहा अब संध्या पूजा का समय हो चला हे इसलिए मे चलता हूं। तुम्हे किसी चीज की आवश्यकता हो तो तुम कभी भी मेरे कक्ष में आ सकते हो। मृत्युंजय भी राजगुरु के साथ खड़ा हो गया और अपने दोनों हाथ को जोड़कर उसने राजगुरु का धन्यवाद किया।


रात्रि हो गई है। महाराज अपने कक्ष में बैठे हुए है तभी राजगुरु का कक्ष में प्रवेश होता है। महाराज अपने आसन से उठकर राजगुरु को प्रणाम करते है और राजगुरु महाराज के समीप आसन ग्रहण करते है। भेंट हो गई आपकी प्रधान सेनापति वज्रबाहु से? वो कुशल और स्वस्थ हैं ना महाराज। राजगुरु ने महाराज से प्रश्न किया। महाराज बड़े दुखी हो गए। हां भेंट हों गई मेरी मेरे मित्र वज्रबाहु से। एक पिता जिसकी पुत्री का किसी अज्ञात लोगों द्वारा अपहरण है गया हो वो कैसा हो सकता है राजगुरु।


वज्रबाहु कि मनोदशा बड़ी ही व्याकुल कर देती है। सैंकड़ों प्रश्न उसके मस्तिष्क में उभरते है। मेरी बेटी कैसी होगी, किस हाल में होगी, उसके साथ कुछ हो तो नहीं गया होगा, वो जीवित होगी या नहीं, किसने उसका अपहरण किया, क्यों किया आदि। विधाता किसी पुत्री के पिता को एसा दिन उसके जीवन में ना दिखाए। महाराज की आंखे पीड़ा से छलक गई। तभी दरबान आया और कहने लगा, महाराज उप सेनापती तेजपाल आपके सामने उपस्थित होने की आज्ञा चाहते है।


महाराज कुछ बोल नहीं पाए उन्हों ने अपना सिर हिलाकर इशारे मे अनुमति दी और दरबान चला गया। उप सेनापति तेजपाल इस वक्त यहां? राजगुरु को आश्चर्य हुआ। मैने ही उन्हे उपस्थित होने केलिए आदेश भेजा था राजगुरु। महाराज ने राजगुरु की ओर देखकर कहा।
कुछ ही पल में उप सेनापति तेजपाल कक्ष में उपस्थित हो गए। उन्हो ने प्रथम राजगुरु और फिर महाराज को प्रणाम किया। क्या आदेश है मेरे लिए महाराज। तेजपाल ने विनम्रता पूर्वक महाराज से पूछा। महाराज ने तेजपाल के सामने देखकर कहा आपने सेनापति वज्रबाहु की अन उपस्थिति में उनका कार्यभार बड़ी ही कुशलता से संभाला हम इस बात से प्रसन्न है।


कल से वज्रबाहु वापिस आकर अपना कार्यभार संभाल रहे है किन्तु वे अभी अपनी पुत्री के विरह में थोड़े व्यथित है इस लिए आपसे हमारी ये आज्ञा है कि आप उनका और राज्य की सुरक्षा व्यवस्था का विशेष ध्यान रखिए।


ये मेरा प्रथम कर्तव्य है महाराज और में निष्ठा से अपने कर्तव्यका वहन करूंगा। आप इस विषय में चिंतित मत रहिए तेजपाल ने हाथ जोड़कर कहा। हम आपको एक और कार्य भी सौंपना चाहते है। जी महाराज। कुमारी चारूलता के अपहरण को इतना समय बीत गया लेकिन उनका कोई समाचार नहीं मिल रहा है।


हमारा सारा सैन्य, सारे गुप्तचर, सब किस कामका जब हम अपनी ही पुत्री को खोज ना पाए। इस लिए हम चाहते है कि अब सख्ती का पालन करते हुए सभी को ये आदेश दिया जाए की वो कुमारी चारूलता के विषय में समाचार प्राप्त करे और इसकी सम्पूर्ण जवाबदारी हम आपको सौंपते है। जैसी आज्ञा महाराज। अब आप जा सकते है। महाराज ने कहा। तेजपाल ने राजगुरु और महाराज को प्रणाम किया और वहा से चले गए।


भुजंगा कक्ष के जरुखे से आकाश की ओर देखकर चांदनी को निहार रहा है। मृत्युंजय उसके समीप पहुंचा। क्या हुआ मित्र किस विषय में इतना गहरा डूब गए हो। कुछ नहीं बस हमारे घर की और मां की बहुत याद आ रही है। इतने गरिष्ठ पकवान ग्रहण करने के बाद भी पेट भरा नहीं मृत्युंजय। ये सारे पकवान और मिष्ठान मां के हाथ के एक निवाले के आगे कुछ नहीं है। भुजंगा का चहेरा उतर गया है।


सही कहा मित्र इन पकवानों में मां का स्नेह जो नहीं है। जिस भोजन में स्नेह नहीं होता वो भोजन पेट तो भर सकता है पर मनको तृप्ति नहीं दे सकता। मां की याद तो मुझे भी बहुत आती है। मृत्युंजय भी थोड़ा उदास हो गया तभी उसकी नज़र आकाश में उड़ रहे एक पक्षी पर पड़ी और वो चौंक गया।


भुजंगा देखो देखो आकाश में उड़ रहे उस पक्षी को। भुजंगा ने उस ओर देखा। क्या हुआ तुम इतने अचंभित क्यों हो गए एक पक्षी ही तो है। नहीं मित्र जरा ध्यान पूर्वक देखो वो बाज पक्षी है और उसकी चोंच में एक सर्प है। हा देख रहा हूं। लेकिन इसमें एसी खास बात क्या है? एसे दृश्य तो हम आए दिन हमारे वहा देखते थे ये कोई पहली बार तो नहीं देख रहे।भुजंगा ने कहा। यहां इतनी बड़ी घनघोर वाटिका है तो सर्पो का होना कोई नई बात तो नहीं है।


खास बात ही नहीं पर ये तोआश्चर्य की बात भी है मित्र। क्या आश्चर्य मृत्युंजय? पहेलियां मत बुझाओ जरा समझाओ।
 
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आगे हमने देखा की, महाराज इंद्ववर्मा से राजगुरु प्रधान सेनापति की कुशलता के विषय में पूछते है तभी वहां उप सेनापति तेजपाल आते है। महाराज उन्हे कुमारी चारूलता को खोजने का कार्य सौंपते है। भुजंगा और मृत्युंजय चांदनी रात्रि में अपने कक्ष के जरुखे में खड़े बात कर रहे हैं तभी मृत्युंजय की नजर आकाश में उड़ते बाज पक्षी पर पड़ती है और वो चौंक जाता है। अब आगे........


मृत्युंजय वो बाज पक्षी है सर्पका शिकार करे उसमे इतना आश्चर्य कैसा। ऐसी बात अगर यहां नगरमे रहनेवाला कोई व्यक्ति करता तो समझ में आता किंतु हम वनवासी है। हिमालय की गोद में पले बड़े हमारे लिए ये आश्चर्य की बात कबसे होने लगी। ऐसे बाज को सर्प का शिकार करते हमने सहस्त्रों बार देखा है। भुजंगा ने मृत्युंजय से कहा।


यही तो में तुम्हे समझा रहा हूं मित्र। देखो इस बाज पक्षी को जरा ध्यान पूर्वक देखो ये तो हमारे हिमालय के जंगलों में रहने वाला बाज पक्षी है तो ये यहां कैसे आया। मृत्युंजय का मन आशंकाओं से घिर गया है। भुजंगा ने ध्यानपूर्वक देखा और कहा, सत्य कहा मित्र ये तो हमारे वहा देखने को मिलता है वही सफेद बाज पक्षी है। वही तो में कह रहा हु मित्र ये बाज पक्षी हिमालय की बर्फीली पहाड़ियों में रहनेवाला स्वेत रंग का बाज है, ये पक्षी शीत प्रदेश में ही जीवित रह सकते हे। हिमालय यहां से कोसों की दूरी पर हे तो ये पक्षी इस उष्ण प्रदेश में कैसे आया। मृत्युंजय और भुजंगा आपस में चर्चा कर रहे है उतने में बाज उड़ते उड़ते सिघ्रता से उनकी दृष्टि से ओझल हो गया।


आया होगा शिकार की खोज में। वैसे भी ये बाज पक्षी बहुत तेज गति से हवा में तैर सकते है मित्र। तो सायद गलती से कोई इस दिशा में आ गया होगा। अब तुम इन व्यर्थ बातों में अपना समय और बुद्धि बर्बाद मत करो। और वैसे भी यहां इन पक्षियों के अलावा भी निरखने केलिए बहुत सी वस्तुए और भी है जो इस बाज पक्षी से भी सुंदर और रोचक है मित्र। भुजंगा ने व्यंगात्मक हास्य के साथ मृत्युंजय से कहा।


अच्छा तो वो सुंदर और रोचक वस्तुएं कोन कोन सी हे जरा हम भी तो जाने। जवाब में मृत्युंजय ने भी व्यंग किया। साक्षात सुन्दरता की देवी लावण्या और.....कहते कहते भुजंगा रुक गया और शय्या पर जाके बैठ गया। मानो जैसे किसी सपने में खो गया हो। और कोन? रुक क्यों गए मित्र बताओ बताओ मृत्युंजय भी ठिठोली करते करते भुजंगा के पास जाकर उसके साथ सैया पर बैठ गया।


और सुंदर, सहज एवम कर्ण को भाए ऐसा मीठा बोलने वाली सारिकाजी। बोलते बोलते भुजंगा के चहरे पर लालिमा छा गई। सरीकाजी?? क्या बात हे बड़े स्नेह और आदर के साथ नाम लिया जा रहा हे...सारिकाजी... और इस मुख की लालिमा तो जरा देखिए ओय .. होय...होय...व्यंग करते हुए मृत्युंजय हसने लगा। लगता हे पहली मुलाकात में ही सारिकाजी की सुंदरता ने हमारे सखा को अपने वश में कर लिया हे। हाय री हमारे फूटे भाग्य ले देके हमारा एक ही परम सखा था उन्हें भी एक रूप सुंदरी ने हमसे छीन लिया। मृत्युंजय अभिनय के साथ बोल रहा था।


बस अब बसभी करो मित्र। इतने अभिनय की कोई आवश्यकता नहीं हे। ना ही हम सरिकाजी के सौंदर्य से मोहित हुए है और नाही हमे किसी ने तुम से छीना हे। हम तो सिर्फ सुंदरता की प्रशंशा मात्र कर रहे थे तुम बात को कहा से कहा ले गए। रात्रि बहुत हो गई हे अब हमे सो जाना चाहिए। भुजंगा कहते कहते मुं फेर के सो गया।


कुछ भी कहलो मित्र लेकिन तुम्हारी दशा मुझसे छिपा नहीं सकोगे। और हां प्रातः जरा जल्दी उठ जाना सारिकाजी के स्वप्न में कही सूर्यदेव सिरपे ना आ जाए शुभ रात्रि। मृत्युंजय व्यंग कर रहा था लेकिन भजंगा मुं फेर कर मुस्कुरा रहा था उसने कोई जवाब नही दिया और आंखे बंध करके जैसे गाढ़ निंद्रा में हो ऐसा अभिनय करने लगा।


प्रातः हो गई सारिका आज हमे बड़ा विलंब हो गया। राजवैद्य जी आकर वापस चले गए होंगे वो क्या सोच रहे होंगे हमारे।विषय में। लावण्या बोलते बोलते तेज गति से चल रही हे और पीछे पीछे सारिका चल रही हे। दोनो राजकुमारी वृषाली के कक्ष में पहुंची। जैसे ही दोनो राजकुमारी के कक्ष के द्वार पर पहुंची तो कक्ष के अंदरका दृश्य देखकर दोनो आश्चर्यचकित हो गई और दोनों के कदम वहीं द्वार पर थम गए।संपूर्ण कक्ष में एक दिव्य सुगंधित धूप का धुंआ प्रसरा हुआ था। कक्ष के सारे जरुखे खोल दिए गए थे उसमे से उगते सूरज की सुनहरी किरने कक्ष के भीतर प्रवेश कर रही थी। कक्ष का हर कोना पुष्प और कलीयो से सुशोभित किया हुआ था।


तभी उड़ते धुएं में से एक व्यक्ति दिखाई दिया जो हाथ में छोटा सा कुंड लेकर पूरे कक्ष में धूप को प्रसार रहा था। उसका मुख आगे की तरफ और पीठ कक्ष के मुख्य द्वार की ओर था। विशाल कंधे, लंबी भुजाए, चौड़ी पीठ, सिंह के जैसी पतली कमर। ऐसा लग रहा था जैसे हिमालय का सर्वोच्च शिखर अडिग हो कर खड़ा हे। मस्तिष्क के ऊपर से नीचे कंधे तक आती खुली जटाये जैसे हिमालय के बर्फीली पहाड़ी में से निकलती सहस्त्र गंगधाराऐ।


अचानक वो व्यक्ति कक्ष के द्वार की तरफ मुड़ा तो उसके भाल पर लगा चंदन का तिलक दिखने लगा। मानो वो जैसे शिवजी का त्रिनेत्र हो। ऐसा लग रहा था की साक्षात शिवजी हिमालय के शिखर पर खड़े है और धूप का धुआं जैसे वहां से उड़ते बादल है।


लावण्या मंत्र मुग्ध होकर उस दृश्य को वहीं कक्ष के मुख्य द्वार से ही निहारती रही। जैसे वो कुछ क्षणों केलिए खुद को विसार चुकी हो। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वो राजकुमारी का कक्ष नही साक्षात इंद्रदेव का स्वर्गलोक हो। तब अचानक उसके कानो में सारिका की आवाज टकराई। वो लावण्या का कंधा पकड़कर उसे हिला रही थी। सखी लावण्या कहा खो गई।

क्रमशः....….
 
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आगे हमने देखा की मृत्युंजय और भुजंगा आपस में बात कर रहे हे। मृत्युंजय भुजंगा को सारिका के नाम से छेड रहा है। प्रातः लावण्या और सारिका जब राजकुमारी वृषाली के कक्ष में पहुंचते है तो देखते है की, पूरे कक्ष में धूप की दिव्य सुवास प्रसरी हुई है और उसमे मृत्युंजय की धुंधली छवि हिमालय की बर्फीली पहाड़ियों में शिवजी हो ऐसा प्रतीत होती हे। अब आगे.....


अचानक सारिका की आवाज लावण्या के कानो में पड़ी और वो चौंक गई। ऐसा लगा जैसे किसी ने जादू करके कुछ क्षण केलिए उसकी दृष्टि को अपने वश में कर लिया हो। उसने देखा तो समीप मृत्युंजय खड़ा हे उसके हाथ में धूप का पात्र था उसका धुआं अब ना के बरोबर हो गया है लेकिन उसमें से अभी भी वो दिव्य सुवास आ रही हैं।


मृत्युंजय को लावण्या को इस दशा में देखकर व्यंग करनेका एक मौका मिल गया और वो इस मौके को हाथ से कैसे जाने देता। उसने लावण्या के सामने देखकर कहा, किस प्रदेश की यात्रा में निकल गई लावण्या जी और हसने लगा। लावण्या ने अपने आपको स्वस्थ किया और अपनी आंखे और नाक मरोडते हुए आगे बढ़कर मृत्युंजय को अपने कंधे से धक्का देते हुए कक्ष में प्रवेश कर गई। पता नही लोग दूसरे के मार्ग में अवरोध बनके क्यों सामने आ जाते है प्रातः काल में ही। लावण्या चीड़ते हुए बोली।


लगता हे आपकी सखी खुली आंख से स्वप्नमे विहार करने की कला में भी पारंगत है सारिका जी। मृत्युंजय ने सारिका की ओर देखते हुए लावण्या का उपहास किया। सारिका मुस्कुराई और कक्ष में प्रवेश करके लावण्या के पास गई। लावण्या ने तिरछी नजर से रूष्ट होकर सारिका के सामने देखा तो सारिका ने अपनी आंखे नीचे करली।


आज कक्ष के अंदरका पूरा दृश्य ही बदल चुका था। राजकुमारी के सिराने के आसपास भी फुल से भरे पात्र रखें गए थे। कक्ष का हर कोना पुष्प और दिव्य धूप की दोहरी अलौकिक सुवास से महक रहा था। राजकुमारी वृषाली के चहेरे पर आज जैसे तेज दिखाई दे रहा था।


हमारा कुछ सामान था यहां जो दृष्टिमान नही हो रहा कोई बताएगा की वो कहा है और यहां से उसको क्यों ले लिया गया है। लावण्या ने रूष्ट हो कर ऊंचे स्वर में पूछा। जरा धीरे से बोलिए लावण्या जी अपने कोमल कंठ को इतना कष्ट मत दीजिए। आपका छोटा सा औसधलय वहा जरुखे के समीप हमने संभालकर रखा है वो सुरक्षित हे। मृत्युंजय ने जवाब दिया। लावण्या उस और मुड़ी और फिर छिन्न होकर बोली हमारी वस्तुओ का स्थान बदलने का साहस किस मूर्ख ने किया है। वो हमने किया है लावण्या जी। मृत्युंजय ने बड़ी निडरता से जवाब दिया।
सारिका यहां आओ और इन वस्तुओ को अपने स्थान पर यथावत करने में हमारी सहायता करो।लावण्या ने जैसे सारिका को आज्ञा दी हो ऐसे स्वर में कहा। सारिका दौड़ ते हुए लावण्या के समीप गई और उसकी मदद करने लगी। दोनो वस्तुएं लेकर वहां से यहां करने लगी।


अरे अरे आप दोनो इतना कष्ट क्यों कर रही हे, अपने इन नाजुक कलाई पर थोड़ी दया कीजिए। ये वस्तुएं हमने ही वहां जरुखे के समीप रख्खी है ताकि वहा सूर्यदेव के प्रकाश में आप अपना कार्य सरलतासे कर सके। कक्ष के इस कोने में प्रकाश नही है तो अगर कभी औषधि गलती से बदल जाए तो अनर्थ हो सकता हे वैद्य जी इस लिए इन्हें यंही रहने दे आपके कार्य में सुगमता रहेगी।


मृत्युंजय ने लावण्या का हाथ पकड़ के उसे रोकते हुए कहा। लावण्या मृत्युंजय के उसकी कलाई पकड़ने पर अपने आपे से बाहर हो गई। आपका इतना साहस के आप हमारा हाथ पकड़ले। क्षमा कीजिए लावण्या जी मेरा ऐसा कोई प्रयोजन नहीं था। मृत्युंजय ने खेद जताते हुए कहा और तेजी से लावण्या की कलाई छोड़दी। तभी भुजंगा हाथ में एक छोटासा पात्र लेकर आया।


ये लो मित्र तुमने जैसे औषधियुक्त तेल मांगा था वैसा बनकर तैयार हे। उसने देखा की कक्ष में नीरव शांति हे। उसने मृत्युंजय के कान में पूछा क्या हुआ मित्र आज ये मैना चुप कैसे है कोई राग नही आलाप रहीं और थोड़ा मुस्कुराया। शांत रहो मित्र अन्यथा अभी ये शेरनी दहाड़ देगी और तुम भागते नजर आओगे। मृत्युंजय ने व्यंग में कहा।


मृत्युंजय आगे बढ़ा और लावण्या के समीप जाकर बोला ये लीजिए ये औषधियुक्त तेल हे राजकुमारी वृषाली के सिरमें, भाल पर, हथेलियों में और पाव के तलवों पर इसकी मालिश कर दीजिए। लावण्या ने क्रोध भरी दृष्टि से मृत्युंजय के चहेरे के सामने देखा और ऊंचे स्वर में बोली, सारिका ये पात्र लेलो। सारिका ने मृत्युंजय से वो पात्र लेलिया।


लगता है आपको हमारा यहां आपसे पूर्व आना अच्छा नहीं लगा हे लावण्या जी। मृत्युंजय ने लावण्या से पूछा। इस राजमहल की स्वामीनी तो में हूं नही जो किसी के कहीं आवागमन पर आपत्ती करूं। लावण्या ने सिलबट्टे में औषधि पिसते हुए कहा।


एक प्रश्न हे आप से हमारा लावण्याजी, आप हमेशा हमसे इतनी रूष्ट क्यों रहती हैं। आप वैद्य हम भी वैद्य, आपका राज्य कनकपुर हिमालय की गोद में बसा है, हम भी उसी हिमालय की पहाड़ियों के वन के निवासी इस नाते हम तो पड़ोसी हुए और पड़ोसी से अच्छा कोई मित्र नहीं होता। मृत्युंजय ने प्रसन्नतासे कहा।


लावण्याने नजर तिरछी करते हुए मृत्युंजय को देखा। अरे ऐसा हम नहीं हमारे पूर्वजों ने कहा हे। मृत्युंजय बोला। हा और पड़ोसी से बढ़कर कोई शत्रु भी नही होता। लावण्या ने कटु वचन में कहा।


अरे हमारी इतनी क्या हिम्मत जो स्वयंम कनकपुर के राजवैद्य की पुत्री लावण्या जी से शत्रुता करें। कहां आप और कहां हम। आपके पिता भी तो एक महान वैद्य थे हां ये बात ध्यान देनेवाली है की उनके पुत्र में ऐसी कोई विशेषता नजर नहीं आती। लावण्या ने मृत्युंजय की ओर देखते हुए व्यंग में कहा। सही कहा आपने लावण्या जी कहां हमारे पिताजी और कहां हम। हमतो उनके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हैं। मृत्युंजय ने थोड़े भारी स्वर में कहा।


लावण्या को अपनी बात पर थोड़ा संकोच हुआ। क्षमा कीजिए हम तो केवल आपके पिताजी की महत्ता कर रहे थे आप इसको अन्यथा मत लीजिएगा। आज पहली बार मृत्युंजय ने लावण्या को ऐसे कोमल शब्दो में बात करते देखा। उसे बहुत आश्चर्य हुआ।


क्रमशः........
 
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और लावण्या में नोक झोक हो रही हैं। मृत्युंजय लावण्या के सामने मित्रता का प्रस्ताव रखता है। लावण्या व्यंग व्यंग में मृत्युंजय से कहती हे की उसके पिता महान वैद्य थे किंतु उसमे उसके पिता जैसे कोई गुण नहीं है। इस बात को सुनकर मृत्युंजय चुप हो जाता है। लावण्या को अपनी बात पर संकोच होता है और वो मृत्युंजय से क्षमा मांगती है। ये देखकर मृत्युंजय को आश्चर्य होता है। अब आगे......


मृत्युंजय ने आज पहली बार बात बात पे व्यंग करने वाली, कटु वचन बोलने वाली और अहंकारी दिखनेवाली लावण्या का ये रूप देखा। जो कुछ क्षण केलिए ही सही लेकिन मृदु, कोमल और सहज था। मृत्यंजय को लगा जैसे लावण्या का सही रूप ये हे। व्यर्थ ही वो अहंकार का चोला पहने रहती हे। व्यक्ति के जन्मगत स्वभाव को वो कितना भी शब्दो के पीछे छिपाले पर आंखे सत्य बोल ही देती है।


मृत्युंजय कुछ क्षणों के लिए चुप हो गया। लावण्या ने फिर व्यंग किया, लगता हे आप भी खुली आँखोसे स्वप्न विहार करनेकी कला जानते हो। और थोड़ा मुस्कुराई। सारिका भी व्यंग में हसने लगी।


चलो आपको हमारे भीतर कुछ तो कला दिखाई दी लावण्या जी। वैसे आप मुस्कुराते हुए ज्यादा सुंदर दिखती हैं। मुस्कुराया कीजिए वैद्य शास्त्र कहता है की, हसने से इंसान के मुखकी सुंदरता और आयु दोनो बढ़ती हे। हमतो चाहते हैं की आपकी सुंदरता और आप दोनो चिरायु रहे। मृत्युंजय ने लावण्या के सामने देखते हुए कहा।


आप वैध शास्त्र से ज्यादा अभी तो वार्ताकला में पारंगत नजर आते हो। अगर आपका कार्य समाप्त हो गया हो तो आप यहां से जा सकते हो ताकि हम शांतिपूर्ण हमारा कार्य कर सकें। लावण्या ने मृत्युंजय को कक्ष की ओर हाथसे इशारा करते हुए कहा।


जी अवश्य, मित्र चलो अब यहां से विदा लेते हैं मृत्युंजय ने भुजंगा को देखते हुए कहा। क्यों नही मित्र इसके पहले की ये दो सुंदर कुमारिकायें हमे बल पूर्वक यहां से बाहर करे हमे सम्मान से विदा ले लेनी चाहिए। भुजंगा व्यंग करते हुए मृत्युंजय के पीछे द्वार की ओर बढ़ा और जाते जाते मध्य में खड़ी सारिका को अपने हाथ में रक्खा पुष्प देकर बोला ये आपके लिए सारिका जी।


सारिका कुछ जवाब दे उसके पहले ही वो पुष्प उसने सारिका के हाथ में रख्खा और चला गया। लावण्या और सारिका दोनों द्वार की ओर जाते मृत्युंजय और भुजंगा को देख रही थी। तभी अचानक द्वारके बीच मृत्युंजय ठहर गया और जरा पीछे मुडके बोला, लावण्या जी हमारे मित्रता के प्रस्ताव पर जरा शांति पूर्वक विचार कीजिएगा। इतना कहकर फिर से वापस मुड़ा और चला गया। कुछ ही क्षणों में दोनो मित्र आंखो से ओझल हो गए।


सारिका अपने हाथ में भुजंगा द्वारा दिए गए पुष्प को देखकर प्यारसे मुस्कुराने लगी। वो खड़ी खड़ी डोल रही थी और कुछ गुनगुना रही थी। लावण्या ने ये देखा, वो सारिका के समीप गई और बोली पहली बार पुष्प देखा है क्या तुमने सारिका जो इतनी प्रसन्न हो रही हो। मानो ये जैसे पुष्प नही कोई बहुत बड़ा खजाना हो। पुष्प तो कई बार देखे हैं सखी किंतु ये पुष्प किसीने हमे प्यार से अपने हाथ से भेट किया हे प्रसन्नता इस बात की हैं।अच्छा...? तो चलो आज हम तुम्हें पूरा एक वृक्ष भेंट करते हैं अब प्रसन्न? वो मृत्युंजय ने जो तेल दिया हे उसकी मालिश राजकुमारी को करदो और फिर ये औषधि भी पिलानी है।


ओहो...क्या बात है आज लावण्या जी के मुख पर मृत्युंजय का नाम आया। सूर्यदेव आज किस दिशा से उदित हुए है सखी। सारिका ने लावण्या का उपहास किया। अब ज्यादा वार्तालाप मत करो अपना कार्य करो। लावण्या ने जरा रूष्ट होने का बस अभिनय ही किया।


सारिका राजकुमारी की शयन सैया के समीप गई और उनके शरीर पर तेल का मालिश करने लगी। फिर उसके मन में कुछ बात आई और वो वही से लावण्या की ओर देखते हुए बोली, सखी कुछ भी कहलो पर मृत्युंजय है बड़ा मनमोहक। अच्छा? हमे तो ऐसा कुछ भी उस वनवासी में प्रतीत नहीं होता। लावण्या ने थोड़ा अहंकार भरे शब्दों में कहा। हां वोतो जब हम कक्ष में प्रवेश कर रहे थे ना तभी मैने देख लिया था सखी। सारिका की इच्छा लावण्या का उपहास करने की हैं।


ऐसाक्या देखा था तूमने जो इतनी चहक रही हो। वही की, कैसे तुम मृत्युंजय को देख कक्ष के द्वार पर ही रुक गई थी और पता नही किस अनजान प्रदेश की यात्रा पर चली गई थी। सारिका व्यंग करके जोर जोर से हंसने लगी। तुम भी उस वनवासी मृत्युंजय से मिलते मिलते वनकी मर्कट बन गई हो। लावण्या ने थोड़ा इतराते हुए सारिका से कहा। येतो जैसी जिसकी दृष्टि सखी किसीको हम सुंदरता की साक्षात देवी लगते हैं और किसीको मर्कट। सारिका ने लावण्या के समीप आकर हाथ में तेल का पात्र था उसे रखते हुए व्यंग किया।


कार्य संपन्न हो गया आपका सुंदरता की देवी? तो यहां से प्रस्थान करें हमारे कक्षकी ओर। लावण्या ने आगे चलते हुए कहा और सारिका भी पीछे पीछे चल पड़ी।


मध्याह्न का समय हे। मृत्युंजय अपने कक्ष में वेद का अभ्यास कर रहा है और भुजंगा अपने झोले में से कुछ इधर उधर कर रहा हे। एक अनुचर कक्ष में प्रवेश करता हे और प्रणाम करके महाराज का संदेश मृत्युंजय को देते हुए कहता है की, महाराज ने आपको अति शीघ्र उनके कक्ष में उपस्थित होने की आज्ञा दी है। में शीघ्र ही महाराज के सामने उपस्थित होता हूं महाराज से कहिए। मृत्युंजय ने उत्तर दिया और अनुचर वहां से चला गया।


मृत्युंजय कुछ क्षणों केलिए विचार में पड़ गया तभी भुजंगा ये बात सुनकर व्याकुल दशा में मृत्युंजय के समीप आया। अभी तो मध्याह्न के भोजन का समय है इस समय महाराज ने तुम्हे सिघ्रता से उनके कक्ष में उपस्थित होने की आज्ञा क्यों दी हे। कहीं उस लावण्या ने हमारे विरुद्ध महाराज के कान तो नही भरे? वैसे भी हमारा यहां आना उसको अच्छा नहीं लगा है। भुजंगा का मन लावण्या के प्रति आशंका से भर गया है।


शांत मित्र इतने व्याकुल मत बनो। महाराज को मुझसे कुछ कार्य भी तो हो सकता है। बात के तथ्य को जाने बिना ही किसी व्यक्ति केलिए नकारात्मक सोच बना लेना उचित नहीं हैं। मृत्युंजय ने शांतचित्त से कहा और पुस्तक को प्रणाम करके आसन से उठा। में महाराज से भेट करके आता हु तुम अपने मस्तिष्क को इतना कष्ट मत दो मित्र कहते कहते कक्ष से बाहर चला गया।


क्रमशः.......
 

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