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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय सुबह सुबह राजकुमारी वृषाली के कक्ष में पहुंचता है और महाराज निंद्रा से जागते है। मृत्युंजय शुभ प्रभात कहकर उनका अभिवादन करता है, महाराज भी उत्तर देकर चले जाते है। मृत्युंजय सूर्यदेव की छदोबध्ध स्तुतिगान कर रहा हे तभी लावण्या और सारिका भी वहां आती है। मृत्युंजय की स्तुति पूर्ण होने पर लावण्या कक्ष में प्रवेश करती हे। अब आगे.........
कक्ष में प्रवेश करते ही लावण्या अपने कार्य में जुट जाती हैं। वो सिलबट्टे पर औषधि पिसने लगती है। सारिका भी उसकी सहायता में लगी हुई है। इस तरफ भुजंगा कक्ष को पुष्प से शुसोभित कर रहा है। मृत्युंजय ने अपना कार्य पूर्ण किया और वो लावण्या के समीप आया और उसे यूं औषधि पिसते हुए देखकर मन ही मन मुस्कुराने लगा।
लावण्या तिरछी नजर से ये सब देख रही थी। कुछ क्षण वो चुप रही फिर उससे रहा नही गया तो उसने मुं बनाकर पूछ ही लिया आपका यूं मुझे औषधि पिसते हुए देखकर मुस्कुराने का तात्पर क्या है? अब आपको इसमें भी कोई व्यंग सूझ रहा है क्या?
नही लावण्याजी मुझे कोई व्यंग नही सुझा है मुझे तो इस सिलबट्टे और इस पिसती हुई औषधि को देखकर इर्षा हो रही है। ईर्षा? कैसी ईर्षा? लावण्या को बड़ा आश्चर्य हुआ मृत्युंजय की बात सुनकर।
मृत्युंजय ने एक लंबी सांस भरी और फिर सांस छोड़ते हुए बोला, सोच रहा हूं की इस पत्थर ने जरूर किसीना किसी रूप में कोई अच्छे कर्म किए होंगे तभीतो आज इन सुंदर और नर्म हाथों में है। क्या सौभाग्य मिला है इस पत्थर को, एक अतिसुंदर कन्या अपने सुंदर नर्म हाथों में लेकर बड़े ही प्यार से उससे औषधि पिस रही है, ईश्वर आपकी लीला भी न्यारी हे।
आपको व्यर्थ प्रलाप करने की बीमारी पहले से है या यहां आकर लगी हैं? लावण्या ने व्यंग करते हुए मृत्युंजय से प्रश्न किया। लीजिए अब तो लोग सत्य बात को भी प्रलाप समझ लेते है अब सत्य वचनी मनुष्य करे भी तो क्या? लावण्या मृत्युंजय की बाते सुनकर मंद मंद मुस्कुरा रही हैं।
प्रलाप ही तो है। क्षणभर केलिए सोच लीजिए अगर ये सिलबट्टा आपके नर्म, सुंदर हाथों के बजाय किसी कठोर पुरुष के हाथों में होता तो इसकी क्या दशा होती। जगह जगह से क्षति पहुंच गई होती ओर बिचारे का अस्तित्व ही खंडित हो गया होता। किंतु ये देखें आपके सुंदर और कोमल हाथों में ये कितना सुरक्षित है।
मृत्युंजय बड़ी ही विनम्रता से लावण्या की प्रशंशा कर रहा है। लावण्या को भी कहीं ना कहीं ये सब बाते अच्छी लग रही हे ये बात उसके मुख की प्रसन्नता से स्पष्ट ज्ञात हो रही है।
कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है की विधाता ने आपके साथ बड़ा अन्याय किया है। मृत्युंजय की बात सुनकर लावण्या के हाथ सिलबट्टे पर रुक गए। कैसा अन्याय? उसने जिज्ञासा से पूछा। अब देखियेना विधाता ने आपको शरीर सुंदर, और कोमल राजकुमारियों के भांति दिया किंतु जन्म एक वैद्य के घर दिया। ये कोमल, नर्म हाथ में ये सिलबट्टा शोभा नही देता। आपको तो किसी बड़े राज्य की राजकुमारी होना चाहिए था।
मृत्युंजय की ये बात सुनकर लावण्या थोड़ी छिन्न हो गई। क्यों राजकुमारीयां भी तो शस्त्र उठाती हे ये तो फिर भी एक छोटेसे पत्थर से बना सिलबट्टा है। हाथ कोमल हो या कठोर महत्व इस बात का होता है की उसमे बल कितना है समझे?। ये बात कहते कहते लावण्या की आंखो में एक भिन्न प्रकार की चमक आ गई। मृत्युंजय के पास अब इस बात का उत्तर देने केलिए कुछ भी शेष नहीं था । उसका मौन उसकी स्वीकृति दर्शाता था।
लावण्या ने सिलबट्टे में से पीसी हुई सारी औषधि एक पात्र में निकाली और सारिका को दी। सारिका और भुजंगा मंद मंद मुस्कुराते हुए मृत्युंजय और लावण्या की चर्चा का आनंद ले रहे है।
वैसे मुझे भी एक शंसय आपके प्रति हमेशा रहता है। लावण्या ने एक वस्त्र से अपने हाथ साफ करते हुए मृत्युंजय की ओर देखकर कहा। ओर वो संशय क्या हैं लावण्याजी? मृत्युंजय ने तुरंत ही आश्चर्य से पूछ लिया।
यही की आपने सत्य ही वेदशास्त्र और वैधशास्त्र का ही अभ्यास किया है या भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का अभ्यास किया है। लावण्या ने हस्ते हुए व्यंग किया। आपको ऐसा क्यों लगता है? क्यों की जिस तरह आप हर क्षण अभिनय करते रहते है और जो ये संवादलीला करते रहते है उस से तो यही प्रतीत होता हे की आप वेदशास्ञ या वैध्यशास्त्र में नही किंतु नाट्यशास्त्र में पारंगत हैं। ये बात कहते कहते लावण्या जोर जोर से हसने लगी। दूर खड़ी लावण्या भी हंस पड़ी।
हम वनवासी के भाग्य इतने अच्छे कहां की हम नाट्यशास्त्र का अभ्यास कर सके। हमे तो जैसा दिखता है वैसा सहज ही बता देते है अब इसमें भी आपको अभिनय प्रतीत होता है तो हमारे फूटे भाग्य और क्या। मृत्युंजय ने निराश होने वाला मुंह बनाया और कहा। अच्छा ऐसा तो आप कल रात काव्यशास्त्र और छंदशास्त्र के विषय में भी कह रहे थे। आप कभी सत्य बोलते हैं या हमेशा अपने विषयमे लोगो को असत्य ही कहते हे। लावण्या ने कठोर शब्दों में कहा।
हमने आपसे।कुछ भी असत्य नहीं कहा। हमे सच में काव्यशास्त्र और छंदशास्त्र के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं हैं। हां येतों हमने सुबह देख ही लिया। लावण्या ने मृत्युंजय की चोरी जैसे पकड़ ली। अरे वो तो आप जैसे परमज्ञानी की संगत का असर है। हम तो आप जैसे ज्ञाता के मुख से सुनते सुनते कुछ कुछ सीख गए अन्यथा हमारे भाग्य में छंदशास्त्र का ज्ञान कहां।मृत्युंजय बात को संभाल ने की चेष्ठा कर रहा है।
अच्छा वेदो में छंदशास्त्र का अभ्यास भी आता है तो अगर आपने वेदशास्त्र का अभ्यास किया है तो निश्चित ही काव्यशास्त्र ओर छंदशास्त्र का अभ्यास भी किया ही होगा तो ये असत्य बोलने की क्या आवश्यकता। मृत्युंजय को प्रतीत हो गया की लावण्या इस चर्चा को आगे तक लेकर जायेगी। उसने भुजंगा को इशारा किया और भुजंगा समझ गया की मित्र आज बहुत बुरा फंस गया हे और उसे अब उसकी सहायता की आवश्यकता है।
भुजंगा मृत्युंजय के समीप आया और बोला, मित्र ये चर्चा तो होती रहेंगी किंतु क्या तुम्हें स्मरण नहीं है की महाराज ने तुम्हे अपने कक्ष में उपस्थित होने की आज्ञा दी है? अगर विलंब हो गया तो वो रूष्ट भी हो सकते हैं इसलिए हमे अब यहां से महाराज के कक्ष की ओर प्रस्थान करना चाहिए। मृत्युंजय ने भी अभिनय प्रारंभ किया।
अरे हां मित्र अच्छा हुआ तुमने स्मरण कराया अन्यथा में तो भूल ही गया था। अच्छा लावण्याजी अभी केलिए मुझे आज्ञा दे हमारी भेंट होती रहेगी कहकर मृत्युंजय तेजीसे द्वारकी ओर चल पड़ा पीछे भुजंगा भी सारिका की ओर देखकर मुस्कुराकर चला गया।
लावण्या वहीं खड़ी उन दोनो को जाते हुए निहारती रही और उसके मुख से सहज ही निकल गया मर्कट कहिंका.....
कक्ष में प्रवेश करते ही लावण्या अपने कार्य में जुट जाती हैं। वो सिलबट्टे पर औषधि पिसने लगती है। सारिका भी उसकी सहायता में लगी हुई है। इस तरफ भुजंगा कक्ष को पुष्प से शुसोभित कर रहा है। मृत्युंजय ने अपना कार्य पूर्ण किया और वो लावण्या के समीप आया और उसे यूं औषधि पिसते हुए देखकर मन ही मन मुस्कुराने लगा।
लावण्या तिरछी नजर से ये सब देख रही थी। कुछ क्षण वो चुप रही फिर उससे रहा नही गया तो उसने मुं बनाकर पूछ ही लिया आपका यूं मुझे औषधि पिसते हुए देखकर मुस्कुराने का तात्पर क्या है? अब आपको इसमें भी कोई व्यंग सूझ रहा है क्या?
नही लावण्याजी मुझे कोई व्यंग नही सुझा है मुझे तो इस सिलबट्टे और इस पिसती हुई औषधि को देखकर इर्षा हो रही है। ईर्षा? कैसी ईर्षा? लावण्या को बड़ा आश्चर्य हुआ मृत्युंजय की बात सुनकर।
मृत्युंजय ने एक लंबी सांस भरी और फिर सांस छोड़ते हुए बोला, सोच रहा हूं की इस पत्थर ने जरूर किसीना किसी रूप में कोई अच्छे कर्म किए होंगे तभीतो आज इन सुंदर और नर्म हाथों में है। क्या सौभाग्य मिला है इस पत्थर को, एक अतिसुंदर कन्या अपने सुंदर नर्म हाथों में लेकर बड़े ही प्यार से उससे औषधि पिस रही है, ईश्वर आपकी लीला भी न्यारी हे।
आपको व्यर्थ प्रलाप करने की बीमारी पहले से है या यहां आकर लगी हैं? लावण्या ने व्यंग करते हुए मृत्युंजय से प्रश्न किया। लीजिए अब तो लोग सत्य बात को भी प्रलाप समझ लेते है अब सत्य वचनी मनुष्य करे भी तो क्या? लावण्या मृत्युंजय की बाते सुनकर मंद मंद मुस्कुरा रही हैं।
प्रलाप ही तो है। क्षणभर केलिए सोच लीजिए अगर ये सिलबट्टा आपके नर्म, सुंदर हाथों के बजाय किसी कठोर पुरुष के हाथों में होता तो इसकी क्या दशा होती। जगह जगह से क्षति पहुंच गई होती ओर बिचारे का अस्तित्व ही खंडित हो गया होता। किंतु ये देखें आपके सुंदर और कोमल हाथों में ये कितना सुरक्षित है।
मृत्युंजय बड़ी ही विनम्रता से लावण्या की प्रशंशा कर रहा है। लावण्या को भी कहीं ना कहीं ये सब बाते अच्छी लग रही हे ये बात उसके मुख की प्रसन्नता से स्पष्ट ज्ञात हो रही है।
कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है की विधाता ने आपके साथ बड़ा अन्याय किया है। मृत्युंजय की बात सुनकर लावण्या के हाथ सिलबट्टे पर रुक गए। कैसा अन्याय? उसने जिज्ञासा से पूछा। अब देखियेना विधाता ने आपको शरीर सुंदर, और कोमल राजकुमारियों के भांति दिया किंतु जन्म एक वैद्य के घर दिया। ये कोमल, नर्म हाथ में ये सिलबट्टा शोभा नही देता। आपको तो किसी बड़े राज्य की राजकुमारी होना चाहिए था।
मृत्युंजय की ये बात सुनकर लावण्या थोड़ी छिन्न हो गई। क्यों राजकुमारीयां भी तो शस्त्र उठाती हे ये तो फिर भी एक छोटेसे पत्थर से बना सिलबट्टा है। हाथ कोमल हो या कठोर महत्व इस बात का होता है की उसमे बल कितना है समझे?। ये बात कहते कहते लावण्या की आंखो में एक भिन्न प्रकार की चमक आ गई। मृत्युंजय के पास अब इस बात का उत्तर देने केलिए कुछ भी शेष नहीं था । उसका मौन उसकी स्वीकृति दर्शाता था।
लावण्या ने सिलबट्टे में से पीसी हुई सारी औषधि एक पात्र में निकाली और सारिका को दी। सारिका और भुजंगा मंद मंद मुस्कुराते हुए मृत्युंजय और लावण्या की चर्चा का आनंद ले रहे है।
वैसे मुझे भी एक शंसय आपके प्रति हमेशा रहता है। लावण्या ने एक वस्त्र से अपने हाथ साफ करते हुए मृत्युंजय की ओर देखकर कहा। ओर वो संशय क्या हैं लावण्याजी? मृत्युंजय ने तुरंत ही आश्चर्य से पूछ लिया।
यही की आपने सत्य ही वेदशास्त्र और वैधशास्त्र का ही अभ्यास किया है या भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का अभ्यास किया है। लावण्या ने हस्ते हुए व्यंग किया। आपको ऐसा क्यों लगता है? क्यों की जिस तरह आप हर क्षण अभिनय करते रहते है और जो ये संवादलीला करते रहते है उस से तो यही प्रतीत होता हे की आप वेदशास्ञ या वैध्यशास्त्र में नही किंतु नाट्यशास्त्र में पारंगत हैं। ये बात कहते कहते लावण्या जोर जोर से हसने लगी। दूर खड़ी लावण्या भी हंस पड़ी।
हम वनवासी के भाग्य इतने अच्छे कहां की हम नाट्यशास्त्र का अभ्यास कर सके। हमे तो जैसा दिखता है वैसा सहज ही बता देते है अब इसमें भी आपको अभिनय प्रतीत होता है तो हमारे फूटे भाग्य और क्या। मृत्युंजय ने निराश होने वाला मुंह बनाया और कहा। अच्छा ऐसा तो आप कल रात काव्यशास्त्र और छंदशास्त्र के विषय में भी कह रहे थे। आप कभी सत्य बोलते हैं या हमेशा अपने विषयमे लोगो को असत्य ही कहते हे। लावण्या ने कठोर शब्दों में कहा।
हमने आपसे।कुछ भी असत्य नहीं कहा। हमे सच में काव्यशास्त्र और छंदशास्त्र के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं हैं। हां येतों हमने सुबह देख ही लिया। लावण्या ने मृत्युंजय की चोरी जैसे पकड़ ली। अरे वो तो आप जैसे परमज्ञानी की संगत का असर है। हम तो आप जैसे ज्ञाता के मुख से सुनते सुनते कुछ कुछ सीख गए अन्यथा हमारे भाग्य में छंदशास्त्र का ज्ञान कहां।मृत्युंजय बात को संभाल ने की चेष्ठा कर रहा है।
अच्छा वेदो में छंदशास्त्र का अभ्यास भी आता है तो अगर आपने वेदशास्त्र का अभ्यास किया है तो निश्चित ही काव्यशास्त्र ओर छंदशास्त्र का अभ्यास भी किया ही होगा तो ये असत्य बोलने की क्या आवश्यकता। मृत्युंजय को प्रतीत हो गया की लावण्या इस चर्चा को आगे तक लेकर जायेगी। उसने भुजंगा को इशारा किया और भुजंगा समझ गया की मित्र आज बहुत बुरा फंस गया हे और उसे अब उसकी सहायता की आवश्यकता है।
भुजंगा मृत्युंजय के समीप आया और बोला, मित्र ये चर्चा तो होती रहेंगी किंतु क्या तुम्हें स्मरण नहीं है की महाराज ने तुम्हे अपने कक्ष में उपस्थित होने की आज्ञा दी है? अगर विलंब हो गया तो वो रूष्ट भी हो सकते हैं इसलिए हमे अब यहां से महाराज के कक्ष की ओर प्रस्थान करना चाहिए। मृत्युंजय ने भी अभिनय प्रारंभ किया।
अरे हां मित्र अच्छा हुआ तुमने स्मरण कराया अन्यथा में तो भूल ही गया था। अच्छा लावण्याजी अभी केलिए मुझे आज्ञा दे हमारी भेंट होती रहेगी कहकर मृत्युंजय तेजीसे द्वारकी ओर चल पड़ा पीछे भुजंगा भी सारिका की ओर देखकर मुस्कुराकर चला गया।
लावण्या वहीं खड़ी उन दोनो को जाते हुए निहारती रही और उसके मुख से सहज ही निकल गया मर्कट कहिंका.....