Fantasy विष कन्या(completed)

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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय सुबह सुबह राजकुमारी वृषाली के कक्ष में पहुंचता है और महाराज निंद्रा से जागते है। मृत्युंजय शुभ प्रभात कहकर उनका अभिवादन करता है, महाराज भी उत्तर देकर चले जाते है। मृत्युंजय सूर्यदेव की छदोबध्ध स्तुतिगान कर रहा हे तभी लावण्या और सारिका भी वहां आती है। मृत्युंजय की स्तुति पूर्ण होने पर लावण्या कक्ष में प्रवेश करती हे। अब आगे.........


कक्ष में प्रवेश करते ही लावण्या अपने कार्य में जुट जाती हैं। वो सिलबट्टे पर औषधि पिसने लगती है। सारिका भी उसकी सहायता में लगी हुई है। इस तरफ भुजंगा कक्ष को पुष्प से शुसोभित कर रहा है। मृत्युंजय ने अपना कार्य पूर्ण किया और वो लावण्या के समीप आया और उसे यूं औषधि पिसते हुए देखकर मन ही मन मुस्कुराने लगा।


लावण्या तिरछी नजर से ये सब देख रही थी। कुछ क्षण वो चुप रही फिर उससे रहा नही गया तो उसने मुं बनाकर पूछ ही लिया आपका यूं मुझे औषधि पिसते हुए देखकर मुस्कुराने का तात्पर क्या है? अब आपको इसमें भी कोई व्यंग सूझ रहा है क्या?


नही लावण्याजी मुझे कोई व्यंग नही सुझा है मुझे तो इस सिलबट्टे और इस पिसती हुई औषधि को देखकर इर्षा हो रही है। ईर्षा? कैसी ईर्षा? लावण्या को बड़ा आश्चर्य हुआ मृत्युंजय की बात सुनकर।


मृत्युंजय ने एक लंबी सांस भरी और फिर सांस छोड़ते हुए बोला, सोच रहा हूं की इस पत्थर ने जरूर किसीना किसी रूप में कोई अच्छे कर्म किए होंगे तभीतो आज इन सुंदर और नर्म हाथों में है। क्या सौभाग्य मिला है इस पत्थर को, एक अतिसुंदर कन्या अपने सुंदर नर्म हाथों में लेकर बड़े ही प्यार से उससे औषधि पिस रही है, ईश्वर आपकी लीला भी न्यारी हे।


आपको व्यर्थ प्रलाप करने की बीमारी पहले से है या यहां आकर लगी हैं? लावण्या ने व्यंग करते हुए मृत्युंजय से प्रश्न किया। लीजिए अब तो लोग सत्य बात को भी प्रलाप समझ लेते है अब सत्य वचनी मनुष्य करे भी तो क्या? लावण्या मृत्युंजय की बाते सुनकर मंद मंद मुस्कुरा रही हैं।


प्रलाप ही तो है। क्षणभर केलिए सोच लीजिए अगर ये सिलबट्टा आपके नर्म, सुंदर हाथों के बजाय किसी कठोर पुरुष के हाथों में होता तो इसकी क्या दशा होती। जगह जगह से क्षति पहुंच गई होती ओर बिचारे का अस्तित्व ही खंडित हो गया होता। किंतु ये देखें आपके सुंदर और कोमल हाथों में ये कितना सुरक्षित है।


मृत्युंजय बड़ी ही विनम्रता से लावण्या की प्रशंशा कर रहा है। लावण्या को भी कहीं ना कहीं ये सब बाते अच्छी लग रही हे ये बात उसके मुख की प्रसन्नता से स्पष्ट ज्ञात हो रही है।


कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है की विधाता ने आपके साथ बड़ा अन्याय किया है। मृत्युंजय की बात सुनकर लावण्या के हाथ सिलबट्टे पर रुक गए। कैसा अन्याय? उसने जिज्ञासा से पूछा। अब देखियेना विधाता ने आपको शरीर सुंदर, और कोमल राजकुमारियों के भांति दिया किंतु जन्म एक वैद्य के घर दिया। ये कोमल, नर्म हाथ में ये सिलबट्टा शोभा नही देता। आपको तो किसी बड़े राज्य की राजकुमारी होना चाहिए था।


मृत्युंजय की ये बात सुनकर लावण्या थोड़ी छिन्न हो गई। क्यों राजकुमारीयां भी तो शस्त्र उठाती हे ये तो फिर भी एक छोटेसे पत्थर से बना सिलबट्टा है। हाथ कोमल हो या कठोर महत्व इस बात का होता है की उसमे बल कितना है समझे?। ये बात कहते कहते लावण्या की आंखो में एक भिन्न प्रकार की चमक आ गई। मृत्युंजय के पास अब इस बात का उत्तर देने केलिए कुछ भी शेष नहीं था । उसका मौन उसकी स्वीकृति दर्शाता था।


लावण्या ने सिलबट्टे में से पीसी हुई सारी औषधि एक पात्र में निकाली और सारिका को दी। सारिका और भुजंगा मंद मंद मुस्कुराते हुए मृत्युंजय और लावण्या की चर्चा का आनंद ले रहे है।


वैसे मुझे भी एक शंसय आपके प्रति हमेशा रहता है। लावण्या ने एक वस्त्र से अपने हाथ साफ करते हुए मृत्युंजय की ओर देखकर कहा। ओर वो संशय क्या हैं लावण्याजी? मृत्युंजय ने तुरंत ही आश्चर्य से पूछ लिया।


यही की आपने सत्य ही वेदशास्त्र और वैधशास्त्र का ही अभ्यास किया है या भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का अभ्यास किया है। लावण्या ने हस्ते हुए व्यंग किया। आपको ऐसा क्यों लगता है? क्यों की जिस तरह आप हर क्षण अभिनय करते रहते है और जो ये संवादलीला करते रहते है उस से तो यही प्रतीत होता हे की आप वेदशास्ञ या वैध्यशास्त्र में नही किंतु नाट्यशास्त्र में पारंगत हैं। ये बात कहते कहते लावण्या जोर जोर से हसने लगी। दूर खड़ी लावण्या भी हंस पड़ी।


हम वनवासी के भाग्य इतने अच्छे कहां की हम नाट्यशास्त्र का अभ्यास कर सके। हमे तो जैसा दिखता है वैसा सहज ही बता देते है अब इसमें भी आपको अभिनय प्रतीत होता है तो हमारे फूटे भाग्य और क्या। मृत्युंजय ने निराश होने वाला मुंह बनाया और कहा। अच्छा ऐसा तो आप कल रात काव्यशास्त्र और छंदशास्त्र के विषय में भी कह रहे थे। आप कभी सत्य बोलते हैं या हमेशा अपने विषयमे लोगो को असत्य ही कहते हे। लावण्या ने कठोर शब्दों में कहा।


हमने आपसे।कुछ भी असत्य नहीं कहा। हमे सच में काव्यशास्त्र और छंदशास्त्र के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं हैं। हां येतों हमने सुबह देख ही लिया। लावण्या ने मृत्युंजय की चोरी जैसे पकड़ ली। अरे वो तो आप जैसे परमज्ञानी की संगत का असर है। हम तो आप जैसे ज्ञाता के मुख से सुनते सुनते कुछ कुछ सीख गए अन्यथा हमारे भाग्य में छंदशास्त्र का ज्ञान कहां।मृत्युंजय बात को संभाल ने की चेष्ठा कर रहा है।


अच्छा वेदो में छंदशास्त्र का अभ्यास भी आता है तो अगर आपने वेदशास्त्र का अभ्यास किया है तो निश्चित ही काव्यशास्त्र ओर छंदशास्त्र का अभ्यास भी किया ही होगा तो ये असत्य बोलने की क्या आवश्यकता। मृत्युंजय को प्रतीत हो गया की लावण्या इस चर्चा को आगे तक लेकर जायेगी। उसने भुजंगा को इशारा किया और भुजंगा समझ गया की मित्र आज बहुत बुरा फंस गया हे और उसे अब उसकी सहायता की आवश्यकता है।


भुजंगा मृत्युंजय के समीप आया और बोला, मित्र ये चर्चा तो होती रहेंगी किंतु क्या तुम्हें स्मरण नहीं है की महाराज ने तुम्हे अपने कक्ष में उपस्थित होने की आज्ञा दी है? अगर विलंब हो गया तो वो रूष्ट भी हो सकते हैं इसलिए हमे अब यहां से महाराज के कक्ष की ओर प्रस्थान करना चाहिए। मृत्युंजय ने भी अभिनय प्रारंभ किया।


अरे हां मित्र अच्छा हुआ तुमने स्मरण कराया अन्यथा में तो भूल ही गया था। अच्छा लावण्याजी अभी केलिए मुझे आज्ञा दे हमारी भेंट होती रहेगी कहकर मृत्युंजय तेजीसे द्वारकी ओर चल पड़ा पीछे भुजंगा भी सारिका की ओर देखकर मुस्कुराकर चला गया।


लावण्या वहीं खड़ी उन दोनो को जाते हुए निहारती रही और उसके मुख से सहज ही निकल गया मर्कट कहिंका.....
 
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आगे हमने देखा की, लावण्या को औषधि पिसते हुए देखकर मृत्युंजय कहता हे की इतने कोमल हाथ में ये पत्थर का सिलबट्टा शोभा नही देता। लावण्या मृत्युंजय को स्तुति का स्मरण कराके कहती हे की आपने कल रात्रि असत्य बोलाथा की आपको छंदशास्त्र की समझ नहीं है। मृत्युंजय का असत्य पकड़ा जाता है तो वो महाराज से मिलनेका बहाना करके वहां से चला जाता है। अब आगे......


मध्याह्न का समय हो गया हे। प्रकृति की गति जैसे थोड़ी मंद हो गई है। सूर्यदेव सीधी गति से आकाश में अपने सप्तअश्व वाले रथ में तपते हुए तंबावर्ण के हो गए है। शीत ऋतु भी अब विदा ले रही है। धीरे धीरे उष्णता तीव्र हो रही हैं।


लावण्या अपने कक्ष के जरूखे से प्रकृति के बदलते इस परिवेश को निहार रही है। उसके मस्तिष्क में जैसे कोई बात है। सारिका कक्ष में प्रवेश करती हे और उसकी नजर जरुखे में खड़ी लावण्या पर जाति है। वे सीघ्र ही उसके समीप पहुंचती है। ये क्या सखी इस तपते मध्याह्न के समय तुम यहां जरुखे में खड़ी हो? अब शीत ऋतु विदा ले चुकी है, इस उष्ण वायु से तुम्हारा कोमल शरीर जुलस जायेगा। कक्ष के भीतर आजाओ।


अचानक सारिका की आवाज सुनकर लावण्या थोड़ा चौंक जाति है। ये क्या सारिका तुमने तो हमे भयभीत कर दिया। अच्छा हमारी सखी को भय लगता हे ये बात तो हमे आज ही पता चली। सारिका ने थोड़ा उपहास किया। सारिका बाल की खाल मत खींचो। लावण्या ने थोड़ा रूष्ट होनेका अभिनय किया और कहते कहते वो सैया पर आकर लेट गई।


क्षमा करदो सखी अब ऐसा नहीं करूंगी। अब तो हस दो। अरे क्षमा मांगने की कोई आवश्यकता नहीं हे मेने तो ऐसे ही कह दिया। लावण्या के मुख पर आज उदासी दिख रही हैं। क्या हुआ सखी किस विषय में सोचकर इतना गंभीर हो गई हो कोई बात ही तो मुझे बताओ कदाचित कोई रास्ता निकल आए। सारिका लावण्या के साथ लेट गई और उसका मुख अपने हाथों से अपनी ओर करते हुए बोली।


विषय ही कुछ गंभीर है सारिका लावण्या ने गंभीर मुद्रा में कहा। क्या बात हे सखी कहो तो सही सारिका समझ गई की जरूर कुछ गंभीर बात हे जो लावण्या को परेशान कर रही है।


लावण्या उठकर सैया में बैठ गई। सारिका भी बैठ गई। तुम्हे ज्ञात हे ना की कल पूर्णिमा की रात्रि थी और में हर माह की जैसे इस माह की पूर्णिमा को भी जलविहार करने महल के पीछे के झरने पर गई थी। हा मुझे ज्ञात हे सखी तो क्या हुआ सारिका की जिज्ञासा और बढ़ गई। में जैसे ही झरने में जल विहार करने लगी अचानक से वहां मृत्युंजय आ गया। मृत्युंजय रात्रि के समय झरने पर क्या कर रहा था? सारिका ने बड़े विस्मय के साथ पूछा।


वही तो सारिका। मुझे भी इस बात का बहुत आश्चर्य हुआ। में महल से वाटिका में बनी पगदंडी से छुपते छुपाते दुषाला ओढकर निकली थी जिससे मुझे कोई देख न सके और पहचान भी न पाए किंतु मृत्युंजय का अचानक ही वहां झरने पर आना मुझे कुछ अटपटा सा लग रहा है सारिका। लावण्या ने संशय के साथ कहा। सत्य कह रही हो सखी। और जानती हो सारिका जब मैने मृत्युंजय से इस विषय में प्रश्न किया तो उसने कहा की वो भोजन करने के बाद यूंही विहार कर रहा था और उसके कानों में मेरे गीत का मधुर स्वर सुनाई पड़ा और वो चलते चलते वहां आ पहुंचा।


हां, ऐसा भी हो सकता है। कदाचित वो सत्य कह रहा हो। तुम्हारा स्वर इतना सुंदर है की जोभी सुने वो मंत्र मुग्ध हो जाए सखी। सारिका ने बड़ी प्रसन्नता के साथ लावण्या की बड़ाई की। नही सारिका पता नही क्यों मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है की जैसे मृत्युंजय मेरा पीछा करते हुए झरने पर पहुंचा था। अच्छा अगर तुम्हे ऐसा लग रहा है तो फिर ये बात गंभीर है। इस मृत्युंजय से थोड़ा संभालकर रहेना सखी कहीं उसको तुम्हारे रहस्य के विषय में ज्ञात हो गया तो हमारे लिए बड़ी समस्या हो जायेगी और हमारे सारे किए कराए पर पानी फिर जाएगा। सारिका ने।चिंतित स्वर में कहा।
में भी इसी बात से चिंतित हूं सारिका। कहीं हम पूरा दरिया तेर कर किनारे पे आकर डूब ना जाए। लावण्या बहुत चिंतित है। पर ये भी तो हो सकता है ना सखी की वो सत्य कह रहा हो? क्यूं की आज प्रातः जब उससे हमारी भेंट हुई तो ऐसा कुछ नजर नहीं आया। उसका वर्तन व्यवहार पहले जैसा ही था अन्यथा कुछ तो बदलाव नजर आता। कदाचित तुम सही कह रही हो सारिका में ही कुछ ज्यादा सोच रही हूं इस विषय में। जो भी हो हमे इस मृत्युंजय।से।अब संभलकर रहना पड़ेगा।


अच्छा चलो अब ये सब बाते छोड़ दो मध्याह्न भोजन का समय है। स्वादिष्ट भोजन भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है की लावण्याजी कब हमे न्याय देंगी। सारिका ने हस्ते हुए कहां।


दोनो सखियां भोजन कर रही है तभी सारिका बोली कुछ भी कहलों मृत्युंजय जितना मनमोहक हे उतना ही चतुर है और मृदु भाषी है। उसका स्वर कितना सुंदर और कर्ण प्रिय है , है ना सखी?। लावण्या ने तिरछी नजर से सारिका की ओर देखा और बोली, सारिका तुम इस समय मृत्युंजय की प्रशस्ति करना बंध करो और अपनी जिहवा को इस स्वादिष्ट भोजन का आनंद लेने दो। सारिका मुस्कुराते हुए भोजन करने लगी।


क्रमशः........
 
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आगे हमने देखा की, लावण्या मध्याह्न के समय अपने कक्ष के जरूखे में खड़ी है। जब सारिका पूछती हे की वो किस विषय में सोच विचार कर रही हे। तब लावण्या उसे झरने पर जलविहार वाली घटना कहती हैं। लावण्या को आशंका है की मृत्युंजय उस पर नजर रख रहा है। सारिका उसे मृत्युंजय से सचेत रहने को कहती हे जिस से उसका रहस्य मृत्युंजय के सामने उजागर न हो जाए। बाद में दोनो एक दूसरे का परिहास करते हुए मध्याह्न भोजन करती है। अब आगे............


रात्रि का समय हे महाराज के कक्ष में आज कुछ ज्यादा प्रकाश दिख रहा है। बहुत दिनों के पश्चात आज इतना प्रकाश हे अन्यथा थोड़ी सी धुंधली सी न के बरोबर रोशनी होती है। महाराज अपने आसन पर विराजे हुए है। ऐसा प्रतीत हो रहा है की जैसे वो किसी की बहुत आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे है। उनकी दृष्टि कक्ष के मुख्य द्वार पर जैसे थम गई हे।


कक्ष के मुख्य द्वार से राजगुरु सौमित्र भीतर प्रवेश करते हैं। महाराज अपने आसन से उठकर सामने चलकर राजगुरु को प्रणाम करते हुए उनका स्वागत करते हैं। राजगुरु महाराज को यशस्वी भव का आशीर्वाद देते है। महाराज राजगुरु को बड़े ही आदर के साथ आसन ग्रहण करने को कहते हैं।


राजगुरु आपकी अनुपस्थिति में हमे बड़ा अकेलापन लगता है। आप यहां उपस्थित होते हो तो राजगुरु, ओर पिता दोनों की उपस्थिति हमे प्रतीत होती हे। कृपया आप हमें और राजमहल को छोड़कर मत जाया कीजिए। महाराज ने बड़े व्याकुल होकर राजगुरु को अपनी व्यथा सुनाई।


राजगुरु थोडासा मुस्कुराए, महाराज में आपकी व्याकुलता समझ सकता हुं किंतु में हमारे राज्य का राजगुरु होने के साथ साथ हमारे गुरुकुल का प्रधान आचार्य भी हूं अतः मेरा गुरुकुल के प्रति भी कुछ उत्तरदायित्व हैं इसलिए मेरा वहां जाना भी अत्यंत आवश्यक हैं। जी राजगुरु आप सत्य कह रहे हैं।


राजगुरु सौमित्र और महाराज इंद्रवर्मा आपस में बात कर ही रहे थे की वहां मृत्युंजय उपस्थित हुआ। मृत्युंजय को इस वक्त अपने कक्ष में बिना आमंत्रण के ही देखकर महाराज को बड़ा आश्चर्य हुआ।


मृत्युंजय आप इस वक्त हमारे कक्ष में? महाराज ने विषमयता से पूछा। मृत्युंजय ने राजगुरु की ओर देखा और हाथ जोड़कर प्रणाम किया फिर महाराज को प्रणाम किया। राजगुरु ने मृत्युंजय को यशश्वी भव का आशीर्वाद दिया। मृत्युंजय महाराज को कोई भी उत्तर दें उससे पूर्व ही राजगुरु ने कहा, महाराज मृत्युंजय को मेने यहां उपस्थित होने का आदेश दिया था।


जी राजगुरु मुझे जैसे ही अनुचर ने आपका संदेश दिया में एक क्षण का भी विलंब किए बिना यहां आपकी सेवा में उपस्थित हो गया हूं। आज्ञा कीजिए मेरे लायक कोई सेवा? महाराज जिज्ञासा वस राजगुरु के मुख की ओर देख रहे थे।


राजगुरु के मुख पर प्रसन्नता की लहर छा गई। उन्हो ने मृत्युंजय को आसन ग्रहण करने को कहा। मृत्युंजय में कुछ दिनों से महल में नही था, गुरुकुल में था तो मुझे ये जान ने की बड़ी तत्परता है की अब राजकुमारी वृषाली का स्वास्थ्य कैसा है? आपके आशीर्वाद से राजकुमारी के स्वास्थ्य में अब सुधार हो रहा है। मृत्युंजय आगे कुछ बोले इस से पहले ही महाराज मध्य में ही उत्सुकता से बोल पड़े। अच्छा तो अब राजकुमारी कब मूर्छा से बाहर आएंगी।


महाराज और मृत्युंजय दोनो ने महाराज की ओर देखा उनके मुख पर आतुरता स्पष्ट दिखाई दे रही थी। मृत्युंजय ने राजगुरु की ओर देखा दोनो ने आंखो आंखो में जैसे एक विवश पिता की मनोदशा को समझ लिया। महाराज ईश्वर की कृपा से राजकुमारी वृषाली बहुत जल्द मूर्छा से बाहर आ जायेंगी। मृत्युंजय के मुख से ये बात सुनते ही महाराज के मुख पर प्रसन्नता छा गई। ईश्वर करे वो दिन जल्द ही आ जाए। महाराज ने मंगल कामना की।


राजगुरु में आपसे राजकुमारी वृषाली के स्वास्थ्य और उपचार के विषय में कुछ चर्चा करना चाहता हुं। अवश्य करो मृत्युंजय जो कहना हैं कहो, तुम्हे अगर किसी वस्तु की आवश्यकता हे तो वो तुम्हे सीघ्र ही प्राप्य कराई जायेगी। जी धन्यवाद राजगुरु पर मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं हे बस आपसे कुछ परामर्श करना है। अवश्य कहो मृत्युंजय किस विषय में। महाराज मात्र एक प्रेक्षक बनकर मृत्युंजय और राजगुरु का वार्तालाप सुन रहे हे। ये सुनकर महाराज को समझ नही आ रहा की वो प्रसन्न हो या दुखी। उनके मुखपर फिर से निराशा छा गई। महाराज ये बहुत प्रसन्नता की घड़ी हे निराश मत होइए राजकुमारी बहुत जल्द ठीक हो जाएंगी। राजगुरु ने महाराज को आश्वस्त करते हुए आशा बंधाई।


मृत्युंजय और लावण्या दोनो एक दूसरे की ओर देख रहे हैं। राजगुरु, महाराज अब आप अपने अपने कक्ष में जाकर विश्राम कीजए राजकुमारी के पास में और लावण्या हे।राजगुरु ने महाराज को पलके जपकाकर मृत्युंजय की बात मान ने को कहा और वो दोनो वहां से चले गए।


मृत्युंजय सिलबट्टे पर कुछ पत्तियां पिसने लगा। सारिका जो दूर खड़िंथी वो तेजी से मृत्युंजय के समीप आई और बोली लाइए में पीस देती हूं। धन्यवाद किंतु में करलूंगा। मृत्युंजय का उत्तर सुनकर लावण्या आगे आई उसने मृत्युंजय का हाथ पकड़ा और रोकते हुए उसकी आंखो में आंखे डालकर बोली में पिसती हूं आप रहने दे।मृत्युंजय ने कोई उत्तर नही दिया और सिलबट्टा छोड़कर वहां से पीछे हट गया।


भुजंगा ने तेज गति से कक्ष में प्रवेश किया उसने जोला मृत्युंजय के सामने रक्खा। मृत्युंजय ने उसमे से एक छोटी सी पुड़िया निकाली और सारिका के सामने इशारा किया, सारिका नजदीक आई, इस घुट्टी को तेल में मिलाकर राजकुमारी के हाथ ओर पैरों पर मालिश करो। सारिका कार्य में जुट गई। मृत्युंजय कक्ष में चहलकदमी करने लगा, उसके मुख पर गंभीर रेखाए तन गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी बात को लेकर बहुत चिंतित हे।


लावण्या सिलबट्टे पर पत्तियां पिसते पिसते तिरछी नजर से चुपके चुपके मृत्युंजय को देख रही थी। वो समज गई की, जरूर मृत्युंजय किसी गहन विषय में सोच रहा है। पर वो विषय क्या होगा। आज न वो बात कर रहा है ना कोई व्यंग कर रहा है। लावण्या ने सारिका की ओर देखा और दोनो सखियों ने जैसे आंखो आंखो में बार करली।
 
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आगे हमने देखा की, राजकुमारी के शरीर में चेतना का संचार हुआ है। मृत्युंजय कोशिश कर रहा हे की राजकुमारी के शरीर को ऊर्जा मिले और उसकी मूर्छा भंग हो लेकिन ऐसा नहीं होता। मृत्युंजय सारिका को कुछ औषधि देता है और राजकुमारी को मालिश करने को कहता हे। लावण्या औषधि पिसते हुए मृत्युंजय को देख रही हे वो कुछ चिंताधीन नजर आ रहा है। अब आगे......


लावण्या मृत्युंजय को ऐसे चिंतित देखकर मन ही मन विचार करती हे, ये मृत्युंजय इतना चिंतित क्यूं है? कदाचित राजकुमारी की मूर्छा भंग नहीं हुई इस वजह से वो चिंतित हे। उसने अपने मनकों संतुष्ट करनेका प्रयास किया किंतु उसका मन बड़ा विचलित हो रहा था।


औषधि पिस चुकी थी। लावण्या ने सारिका को औषधि ले जाने केलिए इशारे में ही कह दिया। लावण्या धीरे धीरे मृत्युंजय के समीप आई और उसके सामने खड़ी हो गई। मृत्युंजय चलते चलते ठहर गया। क्या बात हे मृत्युंजय आज तुम बड़े विचलित नजर आ रहे हो? कुछ नही वो जरा राजकुमारी के स्वास्थ्य के विषय में.... मृत्युंजय ने बात अधूरी छोड़ दी।


मृत्युंजय कक्ष से बाहर की ओर चला गया। लावण्या भी अपने कक्ष में चली गई। वो शयन सैया पर लेट गई पर उसको बड़ी बैचेनी सी होने लगी। इस मृत्युंजय को क्या हुआ है? आज क्यूं इतना बदला बदला सा है। कुछ बात तो है, आज से पहले उसे इतना विचलित नहीं देखा। उसके मन में बार बार मृत्युंजय के ही विचार चल रहे थे।


तभी पीछे से सारिका की आवाज आई, क्या हुआ सखी किस सोच में हो? कुछ नही, रात्रि बहुत हो गई है सारिका मुझे निंद्रा आ रही है तुम भी सो जाओ। लावण्या विरुद्ध दिशा की ओर मुख करके सो गई।


सूर्य देव फिर से उदित हो रहे हैं। लावण्या तेज गति से चलते हुए राजकुमारी के कक्ष की ओर जा रही है। तभी सामने से मृत्युंजय भी आ रहा है। राजकुमारी के कक्ष के मुख्य द्वार पर दोनो साथ पहुंचे। दोनो एक दूसरे को देखकर रुक गए। शुभ प्रभात, आज लावण्या मृत्युंजय से पहले बोली। मृत्युंजय ने मुस्कुरुराते हुए उत्तर दिया। आज तो हम दोनो साथ पहुंचे हे कहते कहते दोनो कक्ष में प्रवेश करते हे।


कक्ष में पहुंचते ही मृत्युंजय और लावण्या दोनो को आश्चर्य होता है। आज प्रातः इतना जल्दी महाराज राजकुमारी के कक्ष में उपस्थित हैं। उनके साथ अन्य कोई भी है। महाराज ने मुड़कर मृत्युंजय और लावण्या को देखा दोनो ने महाराज का अभिवादन किया। शुभ प्रभात महाराज।


आज आप प्रातः काल ही यहां महाराज? सब कुशल मंगल तो है ना ? मृत्युंजय ने जिज्ञासावस प्रश्न किया। ईश्वर की कृपा से सब ठीक है, वो क्या ही की मेरे अनुज का पुत्र मेरा भतीजा आज प्रातः ही हमारे महल आया है। उसको अपनी छोटी बहन को देखने की इच्छा थी इसलिए हम दोनो यहां आ गए। महाराज ने हाथ से एक युवान की ओर इंगित करते हुए कहा।


ये मेरे अनुज का पुत्र राजकुमार निकुंभ हे, ओर निकुंभ ये लावण्या और मृत्युंजय हे। मृत्युंजय और लावण्या ने राजकुमार की ओर देखा, कद काठी मृत्युंजय से मिलती जुलती हे, बड़ी बड़ी आंखे और उसमे से छलकता आत्मविश्वास बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व हे।


स्वागत है आपका राजकुमार निकुंभ। मृत्युंजय ने विनम्रता से अभिवादन किया लावण्या ने भी मुख हिलाकर अभिवादन किया। धन्यवाद मृत्युंजय आपका और लावण्या जी.... राजकुमार निकुंभ ने जैसे ही लावण्या की ओर देखा वो उसके रूप से मंत्र मुग्ध हो गया। उसकी आंखे लावण्या के मुख मंडल पर स्थिर हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे वो लावण्या के रूप से सम्मोहित हो गया है।
अचानक उसको स्थल का भान हुआ। मृत्युंजय काकाश्री ने हमे अवगत कराया की आपके उपचार और प्रयास से हमारी बहन के स्वास्थ में बहुत सुधार आया है, इस बात केलिए हम आपके आभारी हे। राजकुमार निकुंभ ने कहा। जी नहीं राजकुमार आपने केवल अर्ध सत्य सुना है। राजकुमारी के सस्वास्थ में सुधार केवल हमारे उपचार से ही नहीं किंतु उसमे बहुत बड़ा योगदान इस लावण्या जी का भी हे। मृत्युंजय ने लावण्या की ओर देखते हुआ कहा।


जी लावण्या जी आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद। लावण्या मृत्युंजय की बात सुनकर मन ही मन प्रसन्न हो गई। निकुंभ अब आप भी चलिए और थोड़ा विश्राम कर लीजिए बहुत दूर से यात्रा करके पधारे है। जी काकाश्री। अच्छा अब तो भेंट होती रहेगी कहेकर निकुंभ और महाराज कक्ष से चले गए।


लावण्या और मृत्यंजय अपने अपने कार्य में जुट गए। सारिका लावण्या की मदद करने लगी और भुजंगा भी कक्ष में पुष्प सजाने लगा। आज भी मृत्युंजय चुप था , लावण्या चोर नजर से उसे देख रही थी। मृत्युंजय ने अपना कार्य किया और बस कक्ष से चला गया। लावण्या भी कक्ष से निकलकर मृत्युंजय के पीछे गई।


मृत्युंजय तेज गति से चलते हुए अपने कक्ष में पहुंचा पीछे लावण्या भी कक्ष में गई। मृत्युंजय, लावण्या ने पीछे से आवाज दी मृत्युंजय ने मुड़कर देखा तो सामने लावण्या थी। लावण्या जी आप? मेरे कक्ष में, कुछ कार्य था? क्यूं बिना कार्य के हम यहां नहीं आ सकते? पहले कभी तो आप यहां नहीं पधारी इस लिए बुरा मत मानिए।


आइए बिराजिए। लावण्या बैठ गई। दोनो चुप थे वार्तालाप केसे प्रारंभ करे समझ नही आ रहा था। में आपके लिए जल लाऊ। मृत्युंजय ने वार्तालाप शुरू कारनेका प्रयास किया। नही उसकी आवश्यकता नहीं हे। वो क्या हे की हमे ऐसा प्रतीत हो रहा है की तुम कुछ चिंतित हो तो पूछने केलिए.... नही नही में किसी बात केलिए चिंतित नहीं हूं। तो फिर इतना विचलित क्यूं हो। नही तो ऐसी कोई बात नही हे। आपको कोई भ्रम हुआ हे।


क्या तुम सत्य कहे रहे हो? जी भला मैं आपसे क्यों असत्य बोलूंगा लावण्या जी। वो...वो...क्या लावण्या जी। तुम मुझे केवल लावण्या कहे शकते हो मृत्युंजय। मृत्युंजय ने आश्चर्य से लावण्या की ओर देखा। जी धन्यवाद किंतु में हर नारी को सम्मान देता हु। हा वो ठीक है किंतु एक मित्र दूसरे मित्र को नाम लेकर बुलाए उसमे किसीका मांन सम्मान भंग नहीं होता और में भी तो तुम्हे नाम लेकर ही बुलाती हूं। मृत्युंजय आश्चर्य से लावण्या को देख रहा था।


क्रमशः........
 
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और लावण्या जब प्रातः राजकुमारी के कक्ष में पहुंचते हे तब वहां महाराज पहले से ही उपस्थित होते हे। वो दोनो का परिचय राजकुमार निकुंभ से करवाते है। मृत्युंजय जब अपने कक्ष में जाता हे तो लावण्या भी पीछे जाति हे और उसकी चिंता के विषय में पूछती हे। अब आगे......


लावण्या की बात सुनकर मृत्युंजय को अपने कान पर विश्वास नहीं हो रहा। ये लावण्या आज ऐसी बाते क्यूं कर रही हे? उसके रंग बदले से हे। कहां खो गए मृत्युंजय? कही नही यहीं हूं तुम्हारे समक्ष। लावण्या को ये सुनकर खुशी हुई।


मुझे बहुत खुशी हुई के तुमने मेरे मित्रता के प्रस्ताव का स्वीकार किया धन्यवाद। अच्छा अच्छा स्वीकार किया तुम्हारा धन्यवाद बस और दोनो जोर से हस पड़े। अच्छा तो अब में चलती हु कहकर जैसे लावण्या कक्ष के द्वार की ओर मुड़ी तो वहां भुजंगा ओर सारिका
खड़े थे। वो लावण्या और मृत्युंजय की बात सुनकर हंस रहे थे। लावण्या को ऐसा लगा जैसे उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो। वो तेज गति से कक्ष से बाहर निकली और अपने कक्ष में चली गई।


मेरे कान ने जो सुना मुझे उस पर विश्वास नहीं हो रहा मृत्युंजय। उस नकचड़ी लावण्या ने तुम्हारी मित्रता स्वीकार करली? भुजंगा बहुत खुश हे। मित्र, किसी भी स्त्री के बारे में अनुचित शब्दों का प्रयोग हमे शोभा नही देता। हा भाई अब तो वो आपकी मित्र हे आप क्यों भला उनके विषय में कुछ अनुचित सुनेंगे। अच्छा और तुम क्या हो भुजंगा? मृत्युंजय ने हस्ते हस्ते पूछा।


में भी मित्र हु पर बिचारा अब मेरे स्थान पर लावण्या जो आ गई हे। तुम्हारा स्थान कोई नही ले सकता मित्र में तुम्हारी मित्रता का जीवनभर ऋणी रहूंगा। अरे में तो केवल उपहास कर रहा था मृत्युंजय, तूम तो गंभीर हो गए। क्षमा करना मेने हंसी हंसी में कुछ ज्यादा ही कह दिया। भुजंगा दुखी हो गया। अरे ऐसी कोई बात नहीं हे मित्र में तुम्हे अच्छे से जानता हूं तुम्हे दुखी होने की आवश्यकता नहीं हे समझे।


अच्छा सुनो मित्र में राजगुरु से मिलकर आता हूं । मृत्युंजय कक्ष के द्वार की ओर मुड़ता हे। रुको मृत्युंजय राजगुरु तो प्रातः ही गुरुकुल प्रस्थान कर गए? गुरुकुल प्रस्थान कर गए? किंतु कल ही तो आए थे वो। जब में प्रातः काल वाटिका से पुष्प एकत्रित कर रहा था तब उन्हों ने तुम्हारे लिए एक संदेश भी दिया था की, उन्हे किसी कारणवश अचानक से ही गुरुकुल जाना पड़ रहा है किंतु वो आकर तुमसे वार्तालाप करेंगे। ओर ये भी कहा हे की वो बहुत जल्द वापस आयेंगे। ठीक है...


लावण्या अपने कक्ष के जरूखे में खड़ी हे, वो स्वच्छ आकाश की ओर निहार रही हे और मुस्कुरा रही हे तभी सारिका उसके समीप जाति हे। क्या बात हे आज तो सखी बहुत प्रसन्न नजर आ रही हे।लावण्या ने सारिका के सामने नजर की ओर कोई उत्तर दिए बगैर ही जाकर सैया पर बैठ गई। सारिका उसके पीछे वहां गई और पास मै बैठ गई। नए मित्र मिल गए तो क्या पुरानी सखी का कोई मोल नहीं रहा?


सारिका आज कल तुम बहुत बोलने लगी हो। लावण्या ने थोड़ा नाराज होने का अभिनय किया। ये लो अब तो हमारे बोलने पर भी प्रतिबंध। सारिका व्यथित होने का अभिनय कर रही हे। वैसे लावण्या ये चमत्कार हुआ केसे जिस मृत्युंजय के नाम से भी तुम क्रोधित हो जाती थी उस मृत्युंजय को तुमने मित्र बना लिया? क्यों तुम्हे अच्छा नहीं लगा सारिका? मृत्युंजय तो मुझे पहले दिन से ही अच्छा लगता हे सखी, सारिका ने फिर उपहास किया। लावण्या तुम्हे नही लगता की तुम ज्यादा ही अभिनय करने लगी हो ? में हमारी मित्रता के विषय में पूछ रही हूं। अच्छा ये बात हे, मुझे क्यों नही अच्छा लगेगा। ओर हा ये तुम और भुजंगा जब देखो तब आपस में क्या बाते करते रहते हो? कुछ नही बस ऐसे ही, मेने सोचा की अब तुम और मृत्युंजय मित्र बन गए हो तो में और भुजंगा भी क्यूं न मित्र बन जाए। सारिका हसने लगी, जो भी हे में आज बहुत प्रसन्न हु।


संध्या हो चुकी हे, मृत्युंजय वाटिका में बैठकर कुदरत की बनाई हुई प्रकृति को निहारकर प्रसन्न हो रहा हे। उसका कवि ह्रदय प्रकृति की सुंदरता किए बिना केसे रह सकता है।


नव वधू सी लग रही, आज प्रकृति परा।
हरित चूनर औढकर, हरी भरी हुई धरा।।

बूंद बूंद अमृत जल, गगन से बरस रहा।
स्वाति बूंद पीकर चातक मन हर्षित हुआ।।

सुघंन्दित समीर नीर, संग संग डोलती।
भ्रमर कि मधुर तान, पुष्प कान बोलती।।

पावस सरस बरस, हरष मन अपार है।
नवल धवल हिमशिखर, सझके तैयार हैं।।

लता पात मिलकर वात संग झूमती।
प्रेम विवश गले लग पेड़ों के लूमती।।


अति सुन्दर हे तुम्हारा काव्य सर्जन मृत्युंजय। मृत्युंजय ने पीछे मुड़कर देखातो निकुंभ उसकी प्रशंशा कर रहा हे। धन्यवाद राजकुमार आपका। मृत्युंजय मेरा तुमसे एक अनुरोध है। जी राजकुमार आदेश कीजिए। तुम मुझे निकुंभ कहेकर ही संबोधित किया करो। ये क्या राजकुमार... राजकुमार कहते हो। आप राजकुमार हे तो आपको अम्मान से राजकुमार ही कहूंगाना।


नही मृत्युंजय तुम मुझे मेरे नाम से ही संबोधित किया करो, और वैसे भी हम दोनो समान आयु के हैं। मुझे लगता हे की हम अच्छे मित्र भी बन सकते हे। मित्र? कहां में एक वनवासी और कहा आप सुमेरगढ़ जैसे विशाल राज्य के युवराज, में कैसे आपका मित्र बन सकता हूं। मित्रता राज पाट या गरीब, तनंगीरी से नही होती जहां ह्रदय और मन दोनों जुड़ जाए वही होती हे।


मृत्युंजय सजल आंखो से निकुंभ को निहार ने लगा। राजकुमार होते हुए भी कितनी सहजता और विनम्रता हे निकुंभ में। अब बताओ के मेरी मित्रता को स्वीकार किया की अभी और भी बड़ी बड़ी ज्ञान की बाते सुनाऊ। निकुंभ कहते कहते हंस पड़ा। अरे नही नही रहने दो निकुंभ ज्यादा ज्ञान भी इंसान को अहेनकारी बना देता हे। दोनो प्रसन्न होकर एक दूसरे के गले लगे।


समय धीरे धीरे मुट्ठी में से रेत के जैसे फिसलते हुए शांत गति से बीत रहा था। लावण्या और मृत्युंजय घनिष्ट मित्र बन गए है। लावण्या ह्रदय खोलकर मृत्युंजय से बाते करने लगी हैं। दूसरी ओर निकुंभ और मृत्युंजय भी बहुत अच्छे मित्र बन गए है। भुजंगा और सारिका का को देखकर अज्ञानी भी समझ जाए की ये दोनो एक दूसरे के प्रेम के बंधन में बंध चुके है। राजकुमारी के शरीर में भी अब चेतना आ रही हे।


क्रमशः.......
 
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और लावण्या अच्छे मित्र बन जाते है। निकुंभ भी मृत्युंजय के आगे मित्रता का प्रस्ताव रखता है और उन दोनो के बीच में भी मित्रता होती हे। वक्त अपनी गति से चल रहा है। राजकुमारी के शरीर में भी अब चेतना का संचार होने लगा हे। अब आगे........


रात्रि का तीसरा प्रहर शुरू हो चुका हे, हर तरफ शांति ही शांति हे। अचानक ही लावण्या की नींद टूट जाती है,उसकी आंख खुल जाती है। कक्ष में एक नन्हा सा दीपक जल रहा है। लावण्या ने सैया की दूसरी ओर नजर की तो सारिका गहेरी नींद में हे। वो वापस सोने का प्रयास करती हे किंतु नींद आ नही रही। वो खड़ी होकर कक्ष में चहलकदमी करने लगी।


लावण्या ने विचार किया की कक्ष से थोड़ी देर बाहर विहार कर लेती हूं। वो कक्ष से बाहर आकर कुछ कदम ही चली थी की उसकी नजर एक जरुखे से महल की बाहर पड़ी। वहां थोड़ा अंधेरा था पर महल के घुम्मत पर जलती मशाल की धुंधली रोशनी वहां थी।


वहां एक कोने में मृत्युंजय और प्रधान सेनापति वज्रबाहु कुछ वार्तालाप कर रहे थे। उनके हावभाव देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी गहन विषय पर चर्चा कर रहे हे। लावण्या वहीं रुक गई और जरूखेसे उन दोनों को देखती रही। कुछ देर बाद दोनो ने एक दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और वहां से चले गए।


ये दोनो कहां चले गए? ओर इतनी रात को ये दोनो यूं महल के बाहर मिलकर किस विषय में चर्चा कर रहे होंगे? लावण्या के मस्तिष्क में अनेक सवाल उठने लगे। वो सोच ही रही थी के उसको सामने से मृत्युंजय आता हुआ दिखा। मृत्युंजय ने जैसे ही लावण्या को सामने खड़ा पाया उसके चहेरे का रंग ही उड़ गया।उसकी चलने की तेज गति धीमी हो गई।


मृत्युंजय लावण्या के समीप पहुंच गया।अरे लावण्या तुम इतनी रात को यहां क्या कर रही हो? तुमारा स्वास्थ्य तो ठीक है ना? कोई चिंता का विषय तो नही है ना। मृत्युंजय की जिह्वा लड़खड़ा रही हे, जैसे उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो। लावण्या शंकाभरी नजरो से मृत्युंजय को देख रही हे।


मेरा स्वास्थ्य ठीक है। बस आंख खुल गई तो सोचा थोड़ा टहल लेती हूं। लेकिन मेरा भी प्रश्न यही हे की तुम रात्रि के इस प्रहर में महल के बाहर कहां गए थे? मेरी भी तुम्हारी तरहा आंख खुल गई तो सोचा की बाहर थोड़ा विहार कर लेता हूं। अब निंद्रा आ रही है तो अब सो जाऊंगा तुम भी अब अपने कक्ष में जाकर सो जाओ। अगर किसी ने हमे इस समय यहां एक साथ देख लिया तो पता नही क्या क्या सोचेंगे।


मृत्युंजय अपनी बात को पूर्ण करके चला गया। लावण्या वहीं खड़े रहेकर मृत्युंजय को जाते हुए देख रही थी। वो भी अपने कक्ष की ओर जाने लगी किंतु उसके मस्तिष्क में रहे रहेकर एक ही विचार घूम रहा था मृत्युंजय तो सेनापति के साथ बात कर रहा था तो उसने मुझसे असत्य क्यों कहा? वो अपनी सैया में जाकर लेट गई और सोनेका प्रयत्न करने लगी किंतु उसे निंद्रा नही आई।

पूरी रात वो करवट बदलती रही। आखिर ऐसी क्या बात हे जो मृत्युंजय को मुझसे छुपाने केलिए असत्य बोलना पड रहा हे। यही विचार उसके मन मस्तिष्क को घेरे रहा।


प्रातः हो गई थी सूर्य देव अपनी गति चक्र को लेकर श्रुष्टि की यात्रा पर निकल गए थे। पूरी रात यात्रा करने के पश्चात सेनापति वज्रबाहु गुरुकुल पहुंचे। गुरुकुल नदी के किनारे बना हुआ है। बहुत ही शांत, सुंदर और पवित्र वातावरण हे यहां।


नदी का जल शांत गति से प्रवाहित हो रहा हे, उसमे कुछ शिष्य स्नान कर रहे हे और सूर्य देव की आराधना कर रहे तो कुछ शिष्य मिट्टी के पात्र में पानी भरकर गुरुकुल के रसोईघर में ले जा रहे हे। सेनापति वज्रबाहु अपने अश्व पर से नीचे उतरे और अश्व को आश्रम के बाहर एक पेड़ से बांध दिया, और आश्रम में प्रवेश किया।


सेनापति वज्रबाहु महाराज के साथ पहले भी यहां कई बार आचुके हे। आश्रम में प्रवेश करते ही उन्हें सामने जो भी मिलता वो सिर झुकाकर हाथ जोड़कर प्रणाम करता और आगे बढ़ जाता। आश्रम में कुछ कुछ दूरी पर पेड़ के नीचे आचार्यों द्वारा शिष्यों को नित्य पाठ और शिक्षा दी जा रही हे। कुछ शिष्य गायों को चारा पानी डालकर दुग्ध दोहन कर रहे हे।


सेनापति वज्रबाहु राजगुरु सौमित्र की कुटीर के समीप गए और बाहर जो शिष्य थे उन्हें राजगुरु को सेनापति के आनेका संदेश देने केलिए कहा। एक शिष्य कुटीर के अंदर गया। राजगुरु वेद पाठ में व्यस्त थे उन्हें प्रणाम करके शिष्य ने सेनापति के गुरुकुल आने का समाचार दिया।


शिष्य की बात सुनकर राजगुरु को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हों ने शिष्य से पूछा, क्या महाराज भी साथ पधारे हैं? नही गुरुदेव केवल सेनापति वज्रबाहु ही पधारे है। ऐसी क्या बात हो गई जो सेनापति को मुझे यहां मिलने आना पड़ा होगा, महाराज भी साथ नहीं है। वहां राजमहल में सब कुशल तो होगा, कहीं राजकुमारी को कुछ.... नही नही ईश्वर करे सब कुशल मंगल हो। राजगुरु का मन शंकाओं से विचलित हो गया।


पुस्तक को प्रणाम किया और एक तरफ रख दिया। राजगुरु धरती पर बिछाए आसन परसे उठ गए। जाओ सीघ्र ही सेनापति वज्रबाहु को आदर सहित हमारी कुटीर में ले आओ शिष्य। जो आज्ञा गुरुजी कहकर शिष्य कुटीर से बाहर चला गया। राजगुरु सेनापति से भेंट करने केलिए और उनके अचानक ही आने का तात्पर्य जानने केलिए आतुर हो गए थे।


क्रमशः.......
 
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आगे हमने देखा के मध्य रात्रि लावण्या की नींद टूट जाती है और वो कक्ष से बाहर टहल ने केलिए निकलती है। अचानक उसकी नजर महल के बाहर एक कोने में बात करते सेनापति और मृत्युंजय पर पड़ती है। जब वो मृत्युंजय को पूछती हे तो वो असत्य कहता हे की उसे निंद्रा नही आ रही थी तो टहल ने केलिए गया था। सेनापति वज्रबाहु गुरुकुल में राजगुरु वज्रबाहु से मिलने जाते है। अब आगे......


राजगुरु प्रतीक्षा कर रहे हे किंतु एक एक क्षण उनके लिए मानो दिनों जैसे बीत रहा है । शिष्य सेनापति वज्रबाहु को कुटीर के भीतर लेकर आता है। वज्रबाहु राजगुरु को प्रणाम करते हे। आयुष्यमान भव। सेनापति वज्रबाहु आप यहां ऐसे अचानक? राजमहल और राज्य में सब कुशल मंगल तो है ना? ओर राजकुमारी वृषाली उनका स्वास्थ्य तो.....?


सेनापति वज्रबाहु राजगुरु को विचलित होते देख उनको वार्ता के मध्य में ही रोक लेते है, शांत राजगुरु राजमहल और राज्य में सब कुशल है। राजकुमारी वृषाली भी ठीक है आप चिंता ना कीजिए। राजगुरु को आश्चर्य हुआ।


जब सब कुशल मंगल हे तो आपका यूं अचानक गुरुकुल में आने का तात्पर्य सेनापति वज्रबाहु? सेनापति नही राजगुरु सिर्फ वज्रबाहु , आपसे मिलने आज सेनापति नही किंतु मात्र वज्रबाहु आया है। आज में यहां आपके समक्ष सेनापति बन के नही किंतु एक संदेश वाहक बन के उपस्थित हुआ हुं।


वज्रबाहु यूं पहेलियां बुझाना बंध करो और विस्तार से कहो जो कहेना है। जी गुरुजी। वज्रबाहु ने कटिबंध में से एक पत्र निकाला और राजगुरु को दिया। राजगुरु ने तुरंत उस पत्र को खोला और पढ़ने लगे। पत्र पढ़ते ही उनके मुख की रेखाएं बदल गई, वो चिंता में पड़ गए। पत्र में लिखाथा,


"राजमहल में बहुत बड़ा षडयंत्र हो रहा हे कृपया महाराज और राज्य दोनों की रक्षा हेतु तुरंत महल पधारिए। मृत्युंजय"


राजगुरु के भाल पर प्रसवेद की बूंदे फुटी, वो अपने आसन पर विराज गए। षडयंत्र ? राजमहल में, कैसा षडयंत्र वज्रबाहु? वज्रबाहु राजगुरु के समीप गए और उनको आस्वस्थ करते हुए बोले, इस विषय में तो मृत्युंजय ही बता सकता है। उसने मुझे भी नही बताया, बस इतना कहा की में आपको ये संदेशदू। जब आप वहां होंगे तभी विस्तार से बात करेगा।


मुझे उसकी बातो पर पूर्ण विश्वास तो नही हे किंतु में महाराज और राज्य की सुरक्षा पर किसी भी प्रकारका संकट नही आने दे सकता इस हेतु में यहां उसका संदेश लेकर आया हु। मृत्युंजय कभी असत्य नहीं कहेगा, कोई बात जरूर होगी। में उसे भली भांति जानता हूं सेनापति। मुझे सीघ्र ही राजमहल पहुंचना चाहिए।


एक और बात भी कही हे मृत्युंजय ने, क्या वज्रबाहु? मृत्युंजय ने कहा हे की हम दोनो साथ रामाहल ना जाए, अलग अलग जाएं जिस से षडयंत्र कारी सचेत न हो जाए। और आपसे इस विषय में महाराज से भी वार्तालाप करने से मना किया है। उसने कहा हे की ये बात हम तीनो के मध्य में ही रहें चाइए।


मृत्युंजय ने इतनी सावचेति बरतने को कहा हे इसका तात्पर्य यही हे की बात जरूर गंभीर है सेनापति। हमे तुरंत यहां से राजमहल केलिए प्रस्थान करना चाहिए। सेनापति वज्रबाहु आप प्रस्थान कीजिए में भी बहुत जल्द राजमहल पहुंचता हूं। जो आज्ञा राजगुरु, सेनापति ने प्रणाम किया और प्रस्थान किया।


मध्याह्न का समय हे लावण्या दर्पण के समक्ष बैठी हे और सारिका उसके बाल सहेज रही हे। लावण्या किसी विचार में खो गई हे। वो यहां होकर भी नही हे जब ये सारिका ने देखा तो उसने लावण्या का कंधा हिलाया और उसके विचारों की डोर को तोड़ दिया।


लावण्या किस विषय में इतना विचार कर रही हो? बात क्या हे, में देख रही हूं की दो तीन दिन से तुम कुछ खोई खोई सी रहती हो। अगर कुछ हुआ है तो बताओ ना। मृत्युंजय भी आजकल बहुत कम बोलता है, क्या तुम दोनो के मध्य कोई मनमोटाव हुआ हैं या किसी विषय को लेकर कहा सुनी हुई हे।


लावण्या कहने ही जा रही थी के रुक गई। क्या बताऊं तुम्हे सारिका? ये की मृत्युंजय मुझसे असत्य बोल रहा हे, या फिर ये की आजकल वो मुझे देखकर नजर चुराकर चला जाता हे। नही ये हम दोनो मित्र के मध्य की बात हे। में इस विषय में सारिका से कुछ नही कहूंगी। जरूर कोई कारण रहा होगा अन्यथा मृत्युंजय असत्य बोलनेवालो में से नही है।


लावण्या, फिर से विचारों में डूब गई ? क्या हे बताओ तो सही। कुछ नही सखी, ऐसी कोई बात नही हे।लावण्या ने अपने मुख के हावभाव को छुपाने की कोशिश करते हुए कहा। मृत्युंजय अपने कार्य में कदाचित व्यस्त होगा इसलिए काम बात करता होगा। तुम सत्य कहे रही हो सखी?


क्या में अंदर प्रवेश कर सकता हूं? कक्ष के मुख्य द्वार से आवाज आई। लावण्या और सारिका दोनों उस ओर देखने लगी। आप यहां? द्वार पर राजकुमार निकुंभ थे जिसे देखकर दोनो सहेलियां आश्चर्य चककित हो गई। जी मेने कुछ दिनों से आपको और मृत्युंजय को वाटिका में नही देखा तो चिंता हुई की आप स्वस्थ तो हैं ना, इस लिए चला आया क्षमा कीजिएगा अगर आपको कोई....


अरे नही ऐसा कुछ नही हे, आई ए पधारिए। वो बात ये हे की मैं और मृत्युंजय दोनो अपने अपने कार्य में व्यस्त हैं इस लिए समय ही नहीं मिलता। किंतु में हमेशा आपकी वहां प्रतीक्षा करता हूं। जी... मेरे कहनेका तात्पर्य ये है की आप और मृत्युंजय दोनो की। निकुंभ ने बात को संभाल लिया। हम सब रोज संध्या के समय वाटिका में मिलते थे ना किंतु आप लोग नही आए दो तीन दिनों से तो विचार आया की आपसे यहां आकर भेंट करलू।


राजगुरु राजमहल पहुंचते ही महाराज से भेंट करने गए जैसे वो हर बार करते है। राजमहल की राज्य की कुशलता के विषय में जानकारी ली। उनके वर्तन में कुछ भी बदलाव दिखाई न दे इसके लिए वो संपूर्ण सजाग थे। उनके मस्तिष्क में एक ही प्रश्न घूम रहा था, आखिर मृत्युंजय के हाथ ऐसा क्या लगा है जिस से प्रमाणित हो की महल में षडयंत्र चल रहा है। उन्हे बस रात्रि की प्रतीक्षा थी। आज दिन बहुत लंबा लग रहा है।


क्रमशः.......
 
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आगे हमने देखा की, सेनापति राजगुरु को मृत्युंजय का संदेश देते है और राजगुरु राजमहल पधारते है। दर्पण के सामने बैठी लावण्या कहीं खोई हुई है, जब सारिका कारण पूछती हे तो वो बात को टाल देती है तभी वहां राजकुमार निकुंभ आते है। राजगुरु रात्रि होने की प्रतीक्षा कर रहे हे। अब आगे.....


राजगुरु रात्रि की प्रतीक्षा कर रहे है। संध्या ढल गई थी अब सब अपने अपने भोजन कार्य में व्यस्त हो गए थे किंतु आज राजगुरु के गले से निवाला नही उतर रहा हे। उन्हों ने भोजन को प्रणाम किया और भोजन किए बिना ही उठ गए। वो कक्ष में व्याकुल होकर चहलकदमी कर रहे हे। धीरे धीरे रात्रि का प्रथम प्रहर पूर्ण हुआ और दूसरा शुरू हुआ। राजगुरु ने अपनी दुशाला शरीर पर लपेटी और कक्ष से बाहर निकले।


आज पहली बार राजगुरु राजमहल में एक चोर के भांति दबे पांव चलते चलते मृत्युंजय के कक्ष तक पहुंचे। कक्ष में प्रवेश करते ही उन्हों ने भीतर से द्वार बंद कर दिया। राजगुरु को देखते ही मृत्युंजय उनके सामने उनका अभिवादन करने केलिए आया और प्रणाम किया।


राजगुरु आसन पर विराजे। सेनापति वज्रबाहु वहां पहले से ही उपस्थित थे। मृत्युंजय बताओ की ऐसी क्या बात हे जिसने तुम्हे यह सोचने पर विवश कर दिया की यहां, राजमहल में कोई षडयंत्र हो राहा है? राजगुरु अपनी व्याकुलता और जिज्ञासा अब अधिक समय तक संभाल नहीं पाए।


मृत्युंजय ने राजगुरु के हाथ में एक लिपटा हुआ पत्र दिया। राजगुरु ने उसको तुरंत खोला, वो बिलकुल कोरा था उसमे कुछ भी नही लिखाथा। ये क्या मृत्युंजय तुम मेरे साथ उपहास कर रहे हो? इसमें तो कुछ भी नही लिखा हे। राजगुरु थोड़ा छिन्न होगए।


शांत राजगुरु, मृत्युंजय कक्ष में थोडी दुरी पर दीपक जल रहे थे वहां से एक दीपक लेकर आया और राजगुरु के सामने रक्खा। राजगुरु मृत्युंजय का इशारा समझ गए, उन्हों ने पत्र को दीपक के समीप रक्खा तो उसमे अक्षर साफ साफ दिखाई दिए, उसमे लिखाथा,


" अब यहां कुछ नही हो सकता, यहां अब कुछ भी करना मेरे बस में नहीं है। अब आप ही कुछ मार्ग निकालिए"


मृत्युंजय इसमें ऐसा क्या है जो तुम दृढ़ता से कहे सकते हो की ये पत्र षडयंत्र के विषय में है? ओर तुम्हे ये पत्र कहां से मिला?।


राजगुरु मुझे ये पत्र एक बाज पक्षी के पास मिला। बाज पक्षी के पास? राजगुरु और सेनापति दोनो को आश्चर्य हुआ। जी राजगुरु । में जब से यहां आया हुं तबसे में जरुखे में खड़ा होकर रात्रि में आकाश को निहारता हूं, यह मेरी आदत है। मुझे कुछ कुछ दिन के अंतर पर यहां से बाज पक्षी साप को अपने मुंह में लिए हुए जाते दिखाई देता।


पहले मेने ध्यान नहीं दिया किंतु कुछ दिन पहले मेने देखा की उस बाज़ पक्षी के पंजों में एक गठरी थी जिसे वो लेकर जा रहा था। बाज पक्षी के पंजों में गठरी? हां राजगुरु आप जानते ही हे की एक बड़ा बाज़ पक्षी एक बड़ी भेड़ को भी अपने पंजों में दबोच कर लेके उड़ जाता है। हा मृत्युंजय। मेने उस बाज़ के पंजों में जो गठरी थी उस पर निशाना साधा, तीर जाकर सीधा उस पर लगा और बाज़ के पंजों से गठरी छूट गई और जमीन पर गिर गई।


मेने वहां जाकर उस गठरी को ले लिया और जब कक्ष में आकर उस गठरी को खोला तो उसमे जो कुछ भी था उसे देखकर मेरी आंखे फटी रहे गई। ऐसा क्या था मृत्युंजय उस गठरी में? सेनापति ने प्रश्न किया। मृत्युंजय अपने कक्ष में पड़े एक बड़े से पिटारे के पास गया और उसे खोलकर उसमे से वो गठरी लेकर आया और मध्य में रखदी।


राजगुरु और सेनापति दोनो इस गठरी में क्या हे ये जान ने केलिए उत्सुक थे। मृत्युंजय इसमें क्या है? आप खुद ही देख लीजिए राजगुरु। मृत्युंजय ने गठरी छोड़ी तो अंदर एक बांस की टोकरी थी। मृत्युंजय ने जब उस टोकरी खोली तो राजगुरु और सेनापति दोनो चोंक गए वो दोनो अपने आसन से उठ गए। ये क्या मृत्युंजय ये तो.... सेनापति आगे बोल नही पाए।


राजगुरु पर जैसे किसीने अचानक ही किसी तीक्ष्ण हथियार से घात किया हो ऐसी उनकी हालत हो गई। वो मुख से कुछ बोलभी नही पा रहे थे। ये तो सर्प हे और वो भी विषैला। राजगुरु के मुख से यही शब्द निकले। जी राजगुरु, और ये मृत भी हे। किंतु ऐसे गुप्त संदेश के साथ ऐसे मरा हुआ सर्प भेजने का अर्थ क्या हो सकता है राजगुरु?


में बताता हूं सेनापति जी इसका मतलब ये हे की कोई ऐसा महल में है जो सर्प का विष उपयोग कर रहा हे या उपयोग हेतु एकत्रित कर रहा है। ये घटना बहुत बड़े संकट का अंदेशा दे रही हे। सत्य कहा मृत्युंजय हमे इस विषय में तुरंत महाराज से बात करनी चाहिए। नही राजगुरु हमें अभी महाराज से बात नही करनी चाहिए फिर वो अपने किसी भी मंत्री पर विश्वास नहीं कर सकेंगे और ये हमारे राज्य केलिए ठीक नही होगा।
ये बात हम तीनो के मध्य ही रहनी चाहिए ताकि षडयंत्रकारी चौकन्ने न होजाए। किंतु अब हमे बहुत ज्यादा चौकन्ने रहने की आवश्यकता हे। तीनो बात कर रहे है तभी एक अनुचारिका वहां दौड़कर आती है।


आप तुरंत ही राजकुमारी के कक्ष में चलिए मृत्युंजय जी। क्या हुआ भुजंगा वहां है ना। हा किंतु उन्हों ने ही आपको सीघ्र ही वहां आने को कहा हे आप चलिए।


हे ईश्वर अब क्या हुआ राजकुमारी को। राजगुरु और सेनापति चिंतित हो गए। वो ठीक तो हे ना। प्रश्नों के उत्तर देने का समय नहीं हे कृपया आप तुरंत मेरे साथ राजकुमारी के कक्ष में चलिए। अनुचारिका ने कहा ओर वो कक्ष से बाहर चली गई। मृत्युंजय,सेनापति, और राजगुरु भी राजकुमारी के कक्ष की ओर चलने लगे।


क्रमशः........…
 
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आगे हमने देखा की, राजगुरु और सेनापति मृत्युंजय से मिलने उसके कक्ष में जाते है। दोनो राजमहल में होनेवाले षडयंत्र के विषय में जानने केलिए उत्सुक है। मृत्युंजय उन्हे एक पत्र ओर एक टोकरी दिखाकर सब बात विस्तार से बताता है। तभी कक्ष में एक सेविका आकर मृत्युंजय को राजकुमारी के कक्ष में सीघ्र ही चलने केलिए कहती हे। अब आगे......


मृत्युंजय तेज गति से राजकुमारी वृषाली के कक्ष की ओर जाता हे। पीछे पीछे सेनापति और राजगुरु भी जाते है। जैसे ही वो कक्ष में पहुंचे तो उनको अपनी आंखो पर विश्वास नहीं हुआ।


मृत्युंजय को कक्ष में देखकर भुजंगा तेजी से उसके समीप आता है। उसके मुख पर हर्ष समा नही रहा है। देखो मित्र ये चमत्कार हो गया। मृत्युंजय अचंबित हो गया था। वो इतना हर्षित हो गया था की वो कुछ बोल नहीं पा रहाथा। तभी लावण्या भी वहां पहुंची उसको भी अपनी आंखो पर विश्वास नहीं हो रहा था।


महाराज तक भी सूचना पहुंच गई वो ओर राजकुमार निकुंभ भी राजकुमारी वृषाली के कक्ष में सीघ्र ही पहुंच गए। सब लोग बस राजकुमारी की ओर निहार रहे थे। राजकुमारी मूर्छा से बाहर आ गई थी। भुजंगा और सारिका ने सहारा देकर उसे सैया पर बैठा दिया था।


महाराज अपने आपको रोक नही पाए उन्होंने जाकर राजकुमारी को गले लगा दिया। मेरी बच्ची तुम ठीक हो गई, ईश्वर का बहुत बहुत धन्यवाद, में आज बहुत खुश हूं। महाराज की आंखो से अश्रु बह रहे थे राजकुमारी की भी आंखे अश्रुओ से भर गई थी। कक्ष में उपस्थित सब लोग इस दृश्य को देखकर भावुक हो गए। सबकी आंखे हर्षित हो कर छलक रही थी।


तुम ठीक होंगई मेरी बच्ची, जी पिताजी। आज लंबे समय के बाद महाराज के कणों को पिताजी शब्द सुनाई दिया वो खुदको रोक नही पाए और राजकुमारी को गले लगाकर रो ने लगे। पिता पुत्री का यह मिलन देख सबकी आंखों में आंसू आगए।


राजगुरु महराज के समीप गए और उनके कंधों पर अपना हाथ धीरे से थपथपाकर बोले, आंसुओं का समय बीत गया अब तो हर्षित होने का समय आया है महाराज अपने आपको संभालिए।


राजगुरु ये हर्ष के ही आंसू है। राजकुमारी की दृष्टि थोड़ी दूर खड़े राजकुमार निकुंभ पर पड़ी। भ्राता श्री आप भी राजमहल पधारे है? वो खुश होकर उसके गले लगने केलिए उठने लगी किंतु वो उठ नही पाई। उसने बहुत प्रयास किया किंतु वो अपने पैरो को हिला भी नही पाई। सब ये देखकर बहुत दुखी हो गए। पिताजी में उठ क्यों नही पा रही हूं, मेरे पैर हिल भी नहीं रहे है ऐसा लगता हे जैसे ये पत्थर के हो गए हैं।


ये सुनते ही महाराज पर जैसे आसमान टूट पड़ा हर्ष के आंसू व्यथा में बदल गए। कक्ष में उपस्थित सब व्यथित हो गए। राजकुमारी व्याकुल होकर अपने पांव को हिला ने की कोशिश कर रही हे, पर उसके पैर चेतना हीन हे। वो फुट फुट कर रोने लगी, चिल्लाने लगी। पिताजी में उठ क्यों नही पा रही हुं। कक्ष में उपस्थित सब लोग ये देखकर दुखी हो गए।


महाराज अपनी पुत्री को इस दशा में देख नही पाए। उन्हों ने राजकुमारी को गले लगा लिया। वो खुद भी सब भूलकर पुत्री की व्यथा में व्यथित होकर रोने लगे। बड़ा भावुक दृश्य था ये। किसीकी हिम्मत नही हो रही हे की उनको शांत्वना दे सके।


मृत्युंजय खुदको अब रोक नही पाया। वो महाराज के समीप गया और उनके विशाल कंधो पर हाथ रखकर उन्हें आश्वस्त करने लगा, महाराज शांत हो जाइए, ये समय ऐसे विलाप करनेका नही हे। आपको तो राजकुमारी की हिम्मत बढ़ानी चाहिए। आप नकारात्मक सोच को त्याग दीजिए और यह सोचे की, इतने महीनो से राजकुमारी मूर्छा में थी आज वो हम सब के बीच है


जैसे वो मूर्छा से बाहर आ गई है धीरे धीरे उनके पैरों की चेतना भी लॉट आएगी। इतना लंबा समय लगा उनको मूर्छा से बाहर आने में तो कुछ समय में वो चलने फिरने भी लगेगी। ये समय तो खुशी मनाने का है राजकुमारी सही सुरक्षित हे और हम सब के मध्य है। राजकुमारी वृषाली आप भी एक राजकन्या है आप को ऐसे विचलित होना शोभा नही देता। शोर्य आपकी नस नस में रुधिर बनकर दौड़ता है। आप धैर्य का परिचय दीजिए। आप बहुत जल्द संपूर्ण ठीक हो जाएगी।


मृत्युंजय की बात सुनकर महाराज और राजकुमारी दोनो अपनी व्यथा से बाहर आगए। महाराज ने अपनी आंखो के अश्रु पोचें ओर राजकुमारी कि आंखो के भी। राजकुमारी ने अपने आपको स्वस्थ किया, पिताश्री में ठीक हूं और बहुत जल्द अपने पैरो पर खड़ी हो जाऊंगी, में यूं हार नही मानूंगी।


ईश्वर करे ये सीघ्र हो मेरी बेटी। ऐसा ही होगा महाराज। राजगुरु समीप गए और बोले। चरण स्पर्श गुरुजी, राजकुमारी ने अपने दोनो हाथ जोड़कर राजगुरु को प्रणाम किया। आयुष्य मान भव:, दीर्घायु भव: मेरी पुत्री। राजगुरु ने आशीर्वाद दिए।


धीरे धीरे कक्ष का वातावरण सामान्य हो गया। राजगुरु आजका दिन बहुत शुभ हेआज मेरी पुत्री मूर्छा से बाहर आई है, में चाहता हूं की ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाय, गरीबों को दान दिया जाय, और राजमहल में पूजा की जाए जिससे मेरी पुत्री सीघ्र ही संपूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाए अगर आपकी आज्ञा हो तो? बहुत अच्छा विचार है महाराज। राजगुरु ने तुरंत ही अपना अभिप्राय दे दिया।


महाराज रात्रि बहुत हो चुकी हे अब आ सब भी अपने कक्ष में जाकर विश्राम कीजिए और राजकुमारी को भी करने दें उनको विश्राम की अति आवश्यकता हे। अब तो वार्तालाप होता ही रहेगा। मृत्युंजय सत्य कह रहा है महाराज अब हमे राजकुमारी को विश्राम करने देना चाहिए। किंतु राजगुरु...... चिंता मत कीजिए हम यहां उपस्थित है राजकुमारी की सेवा में।


मेरा मन नहीं मान रहा हे किंतु आप सब कहे रहे है तो... में ठीक हुं पिताश्री मेरी चिंता न करें । महाराज ने राजकुमारी के शिर पर हाथ रक्खा और भारी ह्रदय से अपनी कक्ष की ओर चल पड़े। राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु भी पीछे पीछे चले गए।


भुजंगा मेरा झोला दो, मृत्युंजय ने उसमे से कुछ चीजे निकाली और कुछ औषधि बनाने लगा। लावण्या भी उसकी सहायता करने लगी। सारिका लो ये तेल इसकी मालिश राजकुमारी के पैरो में और तलवों में करदो। सारिका ऐसा करने लगी।


लावण्या आज रात्रि को तुम और सारिका यहीं रुक जाओ। अगर कोई आवश्यकता पड़ जाए तो तुम दोनो होंगी तो ठिक रहेगा। में और भुजंगा पुरुष है इसलिए यहां रुक नही सकते तो.... बस बस में समझ रही हुं। चिंता मत करो हम यहीं रुकते हैं। धन्यवाद लावण्या। अच्छा अब मित्रता में धन्यवाद भी आ गया? तुम ये भूल गए हो की में भी इस महल में राजकुमारी वृषाली के उपचार हेतु ही हुं।


राजकुमारी वृषाली सब सुन रही हे किंतु उसके मस्तिष्क में इस समय कुछ भी सोचने समझ ने की क्षमता नहीं है। उसकी आंखे निंद्रा से घिर गई। औषधि अपना असर कर रही हे। कुछ ही देर में वो निंद्राधीन हो गई। मृत्युंजय भी अब कक्ष से जा चुका था।लावण्या और सारिका भी नीचे बिछौना बिछाकर सो गई।
आगे हमने देखा की, राजकुमारी वृषाली मूर्छा से बाहर आ गई हैं। सब लोग यह देखकर खुश हे। तभी ये पता चलता हे की वो चल नही सकती, उनके पैर चेतना हीन हे तो महाराज और राजकुमारी व्यथित हो जाते हैं। मृत्युंजय अपने शब्दों से उनकी हिम्मत बढ़ाता है। सब अपने अपने कक्ष में विश्राम केलिए जाते हे। सारिका और लावण्या दोनों राजकुमारी के कक्ष में ही सो जाती हे अब आगे.....


महाराज अपनी रेशमी सैया में सोने का प्रयास कर रहें हे किंतु बेटी के स्वास्थ की चिंता के कारण निंद्रा नही आ रही। रेशमी शयन सैया आज उन्हे कांटो की भांति चुभ रही हे। हे ईश्वर मेरी बच्ची की ओर परीक्षा मत लीजिए उसे जल्द ही पूर्ण स्वस्थ कर दीजिए।


राजगुरु अपनी सैया में करवट बदल रहे हे उन्हे भी निंद्रा नही आ रही है। वो उठ गए और अपने कक्ष में पड़े एक पात्र में से जल भरकर पिया और जाकर आसन पर बैठ गए। वो अपने हाथ की उंगली में पहनी अंगूठी को देख रहे थे। वर्षो पूर्व मेरे मित्र वेदर्थी के साथ एक षडयंत्र किया गया जिसके कारण उसने अपनी सारी उमर जंगलों में गुमनामी में बितादी ओर में उसकी कोई सहायता नही कर पाया था।


आज यहां इस राजमहल में भी षडयंत्र हो रहा हे। समय फिर से अपना इतिहास दोहरा रहा हे। किंतु इस बार में विवश होकर बैठ नही सकता मुझे महाराज, राजमहल और इस राज्य की रक्षा करनी ही होगी। पहले में अकेला था इसलिए अपने मित्र केलिए कुछ नही कर पाया किंतु आज मेरे साथ मृत्युंजय और सेनापति वज्रबाहु दोनो है। हम मिलकर अवश्य ही इस राज्य की सुरक्षा करेंगे।


क्या हुआ सखी नींद नहीं आ रही हे क्या इस बिछोने पर? आदत जो नही हे धरती पर सोने की। नही सारिका ऐसी कोई बात नही हे तुम सो जाओ। लावण्या के मस्तिष्क में यही विचार घूम रहा हे, आखिर ऐसी क्या बात हे जो मृत्युंजय मुझसे छुपाने का प्रयास कर रहा है। उसकी वाणी, वर्तन सब बदल गया है। कुछतो बात है कहीं उसे मेरे बारे में सत्य तो ज्ञात नही होगया। इस विचार से ही लावण्या गभरा गई । नही....नही.... ऐसा हुआ तो अनर्थ हो जायेगा।


मृत्युंजय अपने कक्ष के जरूखे में खड़ा आकाश की ओर निहार रहा हे। महल में षडयंत्र हो रहा हे ये तो पता चल गया किंतु इस षडयंत्र के पीछे कोन है और इस षडयंत्र का हेतु क्या हे, जब तक ये ज्ञात नही हो जाता मुझे निंद्रा नहीं आएगी। मुझे राजकुमारी की सुरक्षा का भी ख्याल रखना है।


रात्रि तो एक ही है किंतु सब की अपनी अपनी व्यथा, ओर चिंता की वजह भिन्न है।


धीरे धीरे रात्रि बीत गई और फिर एक बार सूर्यदेव अपने सप्त अश्वों के रथ पर बैठकर धरती पर जीवन का संचार करने हेतु कार्यरत हो रहे हे। मंगल बेला उनके स्वागत केलिए तत्पर है। फिर से मृत्युंजय, लावण्या, सारिका और भुजंगा अपने अपने कार्य में जुट गए।


मृत्युंजय राजकुमारी के कक्ष में आया तो लावण्या और सारिका अपने अपने कार्य में व्यस्त थी। सुभ प्रभात मृत्युंजय। लावण्या ने तुरंत ही मृत्युंजय को कहा।शुभ प्रभात। सब ठीक था रात्रि को? जी सब ठीक हे राजकुमारी अभी निंद्रा में ही हे औषधि के कारण। सही है उन्हे विश्राम की आवश्यकता भी है।


मृत्युंजय और लावण्या आपस में बात कर रहे थे तभी भुजंगा भी पुष्पों से भरी बड़ी टोकरी लेकर कक्ष में आया। आज कुछ ज्यादा ही पुष्प लेकर आए हो मित्र, लगता हे वाटिका में एक भी पुष्प शेष नहीं रहा हे। मृत्युंजय ने हस्ते हस्ते व्यंग किया।


सब अपने कार्य में व्यस्त हे तभी महाराज और उनके साथ राजगुरु एवम कुमार निकुंभ कक्ष में पधारे सबने प्रणाम किया। अभी हमारी बेटी निंद्रा में ही हे? कदाचित हम ही इतने सीघ्र आ गए हे। बहुत दिनों पश्चात पुत्री मूर्छा से बाहर आई है तो खुदको उनसे मिलने केलिए रोक नही पाए। महाराज का स्वर सुनकर राजकुमारी वृषाली की निंद्रा भंग हो गई और वो उठ गई।


पिताजी आप इतनी सुबह सुबह मेरे कक्ष में। जी पुत्री में खुद को रोक ही नही पाया। ईश्वर ही जानते है की मेने रात्रि केसे गुजारी है। मेरा मन तुम्हे देखने केलिए और तुमसे वार्तालाप करने केलिए अधीर बन गया हे। महाराज राजकुमारी की सैया में उनके समीप बैठ गए और बेटी के सिर पर हाथ रक्खा। राजकुमारी भावुक हो गई उनकी आंखे अश्रु से भर गई।कक्ष में राजवैद्य सुमंत और ब्रजबाहू ने प्रवेश किया। सबने राजवैद्य को प्रणाम किया। अब कैसी है राजकुमारी आप? में स्वस्थ हूं राजवैधजी। ईश्वर का धन्यवाद की आप मूर्छा से बाहर आगई। राजवैद्य ने राजकुमारी के हाथ की नाडी का अवलोकन किया। सब की दृष्टि राजवैद्य पर टिकी हुई हे। चिंता का कोई विषय नही हे राजकुमारी अब स्वस्थ हे। बहुत जल्द उनके पैरो की चेतना भी लॉट आएगी।


ये बात सुनते ही महाराज की जान में जान आई। कक्ष में उपस्थित सब हर्षित हो गए। में आपका कैसे धन्यवाद करु राजवैद्यजी आप के प्रयास से ही आज मेरी पुत्री स्वस्थ हे। महाराज हाथ जोड़कर बोले। इसमें धन्यवाद कैसा महाराज येतो मेरा कर्तव्य हे। दुश्मन भी अगर सामने घायल या रोगी अवस्था में आए तो एक वैध का कर्तव्य हे की वो इसे स्वस्थ होने में उसकी सहायता करे, येतों फिर भी हमारी राजकुमारी हे।


राजकुमारी स्वस्थ हे इसका यश केवल मुझे ही नहीं किंतु मृत्युंजय, लावण्या, सारिका और भुजंगा इन सबको भी मिलना चाहिए। उन्हों ने तो दिन रात राजकुमारी की सेवा की हे वो मुझसे भी ज्यादा यश के पात्र है। सत्य कहा राजवैध्यजी ने महाराज। राजगुरु ने राजवैद्य की बात को अपना समर्थन दिया।


में आप सबका आभारी हुं। आप सबने मेरी पुत्री के स्वास्थ केलिए अथाग प्रयत्न किए हे। महाराज ने हाथ जोड़कर सबका धन्यवाद किया। ऐसा कहेकर हमे लज्जित न कीजिए महाराज, मृत्युंजय आगे आया और।बोला। जी महाराज ये हमारा कर्तव्य और सौभाग्य था जो हमे आपकी और राजकुमारी की सेवा करनेका अवसर प्राप्त हुआ, लावण्या ने कहा।


क्रमशः..........
 

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