Fantasy विष कन्या(completed)

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आगे हमने देखा की, सब अपनी सैया में सोने का प्रयत्न कर रहे हैं, किंतु सबके मस्तिष्क में अपने अपने प्रश्न चल रहे हैं। प्रातः होते ही सब अपने कार्य में जुट ते है तभी महाराज, राजगुरु,निकुंभ, राजवैद्य और सेनापति वज्रबाहु वहां आते है। महाराज सबका धन्यवाद करते है। अब आगे......


अरे बातों बातों में राजकुमारी हम इन सबसे आपका परिचय करवाना ही भूल गए। कोई बात नही अब करवा दीजिए परिचय पिताजी। हम भी इन सबके विषय में जान ने केलिए उत्सुक हे। हमारे राजवैदजी को तो आप जानती ही हे, ये हे मृत्युंजय। इनके पिताजी बहुत बड़े वैध अभ्यासी और शोध करता थे। ये भी उनकी ही भांति महान वैध हैं। ये यहां आपके उपचार हेतु ही पधारे है।


प्रणाम मृत्युंजयजी। राजकुमारी ने मृत्युंजय की ओर पहली बार देखा। राजकुमारी की आंखे कुछ पलों केलिए मृत्युंजय के मुख पर स्थिर हो गई। उसके मुख का तेज, उसकी प्रतिभा देखकर राजकुमारी दंग रहे गई। ये मनुष्य है की, स्वर्ग से आया कोई यक्ष या गंधर्व? इतना सुंदर इतना तेजस्वी व्यक्तित्व पहले कभी नहीं देखा। देवता भी इसको देखकर लज्जित हो जाए। राजकुमारी विचारों में खो गई।


ये हैं, लावण्याजी ये कनकपुर के राजवैधजी की पुत्री हे और यहां हमारे राजवैद्य सुमंतजी से वैध शास्त्र का अभ्यास करने हेतु पधारी हे। इन्हो ने रात दिन आपकी सेवा की हे। धन्यवाद लावण्या तुम्हारा। अरे धन्यवाद करके मुझे लज्जित न करे राजकुमारी ये हमारा कर्तव्य था।


ये दोनो कोन है पिताजी? ये भुजंगा है मृत्युंजय का परम मित्र और सहियोगी ओर ये सारिका है लावण्या की सखी और सहयोगी। इन सबका बहुत बड़ा योगदान हे तुम्हे स्वस्थ करने में पुत्री। आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। बात करते करते वृषाली की दृष्टि सेनापति वज्रबाहु पर पड़ी। काकाश्री आप भी यहां है किंतु मेरी सखी चारूलता कहीं दिख नही रही। वो कहां हैं? किसी ने उसे ये संदेश नही दिया की में मूर्छा से बाहर आ गई हूं? वो मुझसे अब तक मिलने क्यूं नही आई।


राजकुमारी की आंखे सबके मध्य अपनी सखी चारूलता को खोज रही हैं। वो अपनी सखी से मिलने केलिए व्याकुल हो गई हे।


राजकुमारी की बात सुनते ही सबके होश उड़ गए। सब चिंतित होंगए की, राजकुमारी को क्या उत्तर दे। कक्ष में सन्नाटा हो गया राजकुमारीजी चारूलता अपने नेनिहाल गई है। आप मूर्छित थी तो वो बहुत अकेली पड़ गई थी और दुखी भी इसलिए मैने उसे कुछ दिन उसके मामा के पास भेज दिया। सेनापति वज्रबाहु ने बात को संभाल लिया।


में आप केलिए कबसे राजकुमारी हो गई काकाश्री आप तो हमेशा मुझे पुत्री कहकर बुलाते थे तो अब पराया क्यूं कर दिया। राजकुमारी थोड़ी दुखी हो गई। अरे आप मेरी पुत्री ही हो, अपने काका को क्षमा करदो पुत्री। वज्रबाहु राजकुमारी के समीप गए और उनके सर पर हाथ रखकर बोले। उनकी आंखो से अश्रु बहने लगे वो बहुत प्रयत्न कर रहे थे किंतु अश्रु रुके नहीं। क्या हुआ ककाश्री आप क्यूं रोने लगे? राजकुमारी को भीतर भीतर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ये अश्रु पीड़ा के है।


कुछ नही पुत्री बहुत समय पश्चात तुम्हे स्वस्थ देखा तो खुशी के अश्रु बहने लगे। अच्छा अब आप सीघ्र ही मेरी सखी चारूलता को वापस बुला लीजिए अन्यथा हम आपसे रूष्ट हो जायेंगे। जैसा तुम कहो मेरी पुत्री।


अरे भाई अगर सबसे मेल मिलाप हो गया हो तो कोई हमसे भी मिल ले हम भी बहुत देर से प्रतीक्षा में खड़े हे की, कब हमारी बहन हमसे भी मिले। भैया आपको यहां देखकर हमे बहुत प्रसन्नता हो रही हे, और हमे आपको यूं स्वस्थ देखकर मेरी लाडली बहेना। राजकुमार निकुंभ वृषाली के पास गए और उनके गालों को थपथपाते हुए बोले।


ये राजमहल और हमारा जीवन दोनों आपके इस सुंदर भैया के संबोधन के बिना कितने सुने थे ये हम ही जानते है। पता हे मेरी बच्ची जब तुम मूर्छा में थी तब कुमार निकुंभ ने युवराज बन ने से मना कर दिया, कह रहे थे की जब तक हमारी छोटी बहन हमारे भाल में तिलक नही करेंगी हम युवराज केसे बनेंगे। महाराज ने वृषाली को इस बात से अवगत कराया। वृषाली भावुक हो गई और अपने भाई के गले लग गई।


बहुत समय बीत गया है महाराज, आपके दरबार का समय हो गया है अब हमे प्रस्थान करना चाहिए। अवश्य राजगुरु। हम अपने कार्य पूर्ण करके शीघ्र ही तुमसे मिलने यहां उपस्थित होते हे मेरी बच्ची। जी पिताजी। महाराज कक्ष से बाहर की ओर चले गए साथ राजगुरु सौमित्र और सेनापति वज्रबाहु भी गए।


समय अपनी गति अनुसार चलने लगा। धीरे धीरे राजकुमारी स्वस्थ होने लगी। लाइए राजकुमारी हम आपके पैरो में इस तेल का मालिश कर देते हे। नही लावण्या मुझे तुमसे अपना कोई कार्य नहीं करवाना। राजकुमारी थोड़ा रूष्ट होकर बोली। किंतु क्या हुआ है? मुझसे कोई भूल हो गई ही तो में क्षमा मांगती हु । भूल नही तुमसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है अपराध। कैसा अपराध राजकुमारी? लावण्या चिंतित हो गई। सारिका भी गभारा गई।


तुम्हारा अपराध ये हे की तुम मुझे सखी कहती हो किंतु मानती नही हों। ऐसा नहीं हे राजकुमारी आप मेरी परम मित्र हे। अच्छा तो ये राजकुमारी....राजकुमारी क्यूं कहती रहती हो? वृषाली कहकर संबोधित करो हमे। में आपको नाम लेकर केसे बुलाऊ आप राजकुमारी हे।


मतलब में सही हूं तुम सिर्फ कहने को ही हमे सखी मानती हो, तुम्हारी परम सखी तो सिर्फ सारिका हे। ऐसा नहीं हे राजकुमारी। तो सारिका को तुम नाम से बुलाती हो तो हमे क्यूं नही? किंतु आप.... किंतु ..परंतु कुछ नही आज से इसी क्षण से तुम मुझे वृषाली कहकर बुलाओगी समझी। अन्यथा हम तुमसे रूष्ट हो जायेंगे।


अरे नही सखी ऐसा मत करना, लावण्या बोली और दोनो सहेलियां गले लगकर हंस ने लगी। सारिका दूर खड़ी दोनो को देखकर खुश हो रही है। अब तुम्हे संदेश भेजकर बुलाना होगा क्या सारिका, तुम भी मुझे वृषाली ही बुलाओगी समझी आओ तुम भी। सारिका भी दोनो के साथ गले लगी। में तो तुम्हे सखी कहकर बुलाऊंगी जैसे लावण्या को बुलाती हूं। ठीक हे सारिका देवी।


तीनो सहेलियां हसने लगी। कुमार निकुंभ, मृत्युंजय और भुजंगा कक्ष के द्वार पर खड़े इन सहेलियों को निहार रहे थे। आपका ह्रदय बहुत बड़ा हे राजकुमारी वृषाली। मृत्युंजय स्वागत ही बोल पड़ा।


अगर आप सहेलियों की आज्ञा हो तो हम बिचारे तीन युवान कबसे कक्ष के द्वार पर खड़े हे हमभी भीतर प्रवेश करे। मृत्युंजय ने कहा। अवश्य पधारे मित्र, वृषाली ने उत्तर दिया। मित्र? हा आप भी हमारे मित्र ही है। धन्यवाद राजकुमारी जी। अब आपको मुझे अलग से फिर से ये सब कहना होगा मृत्युंजय की आप भी हमे वृषाली कहकर संबोधित कीजिए .... नही नही में समझ गया वृषाली। कक्ष में उपस्थित सब प्रसन्न होकर हंसने लगे।


महाराज ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य देखकर प्रसन्न हो गए। प्रणाम पिताजी देखिए मेरे कितने सारे मित्र है बस कमी हे तो चारूलता की अगर वो भी यहां होती तो कितना अच्छा होता।


महाराज मुझे आज्ञा दीजिए मुझे थोड़ा कार्य है इस लिए मुझे जाना होगा। मृत्युंजय ने जाने की अनुमति मांगी। ठीक मृत्युंजय तुम जाओ। मृत्युंजय तेजगति से कक्ष के बाहर निकल गया और अपने कक्ष में पहुंचा। वहां राजगुरु पहले से उसकी प्रतीक्षा रहे थे। क्षमा करना राजगुरु मेंने आने में विलंब कर दिया। किंतु कुमार निकुंभ मेरे साथ थे इस लिए में उन्हे राजकुमारी के कक्ष में व्यस्त करके आया हुं। कोई बात नही मृत्युंजय ऐसा हो जाता हे।


सब वार्तालाप में व्यस्त थे लावण्या ने सारिका को इशारा किया और दबे पांव राजकुमारी के कक्ष से बाहर निकल गई और मृत्युंजय के कक्ष की ओर चलने लगी।कितना समय हुआ मृत्युंजय से अकेले ना ही भेंट होती हे ना ही बात। आज सब यहां व्यस्त है तब तक हम दोनो मित्र थोड़ी बात कर लेंगे। ये सब सोचते सोचते लावण्या ने मृत्युंजय के कक्ष में प्रवेश किया।


कुछ कदम चलते ही वोन रूक गई उसने देखा तो राजगुरु वहां उपस्थित है और मृत्युंजय से वार्तालाप कर रहे हे। वो वहीं खड़ी रही।


मृत्युंजय एक बार पुनः विचार करलो। तुम जो करने जा रहे हो उसमे जीवन का संकट हैं। जी राजगुरु मेंने मन बना लिया है अब मुझे ये करना ही हैं। ठीक हे में तुम्हे रोकूंगा नही। ईश्वर से प्रार्थना करूंगा किं तुम अपने कार्य में सफल होकर सीघ्र ही सुरक्षित लॉट आओ। धन्यवाद राजगुरु, किंतु महल में मेरी अनुपस्थिति में सब कुछ आपको और सेनापति वज्रबाहु को संभालना होगा। इसकी चिंता तुम मत करो बस जाओ और अपना कार्य पूर्ण करके वापस आजाओ।


ये लोग किस विषय में बात कर रहे हैं, मृत्युंजय कहां जा रहा है? कुछ तो भेद हे जो मृत्युंजय, राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु सबसे छिपा रहे हे। लावण्या विचार करने लगी और कक्ष से बाहर निकल गई।


क्रमशः..........
 
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आगे हमने देखा की, राजकुमारी वृषाली अब धीरे धीरे धीरे स्वस्थ होने लगी है। लावण्या, सारिका, मृत्युंजय, भुजंगा ओर कुमार निकुंभ सब समान उम्र के हे और अब सब के बीच मित्रता हो गई है। मृत्युंजय अपने कक्ष में जाता हे, पीछे लावण्या भी जाति हे। वो राजगुरु और मृत्युंजय के बीच हो रही बात को सुन लेती है अब आगे......


लावण्या अपने कक्ष में जा रही है। उसके मस्तिष्क में कई प्रश्न जन्म ले रहे हैं। ये मृत्युंजय और राजगुरु किस विषय में वार्तालाप कर रहे थे? और मृत्युंजय कहां जाने की बात कर रहा था कुछ तो बात है। विचार करते करते वो अपने कक्ष में पहुंच गई।


लावण्या का मन आशंकाओं से घिर गया। में मृत्युंजय को अपना सच्चा मित्र मानती हुं किंतु वो मुझसे बाते छुपाता है। वो दर्पण के सामने खड़े होकर सोच रही है। तभी वो सामने देखती हैं तो दर्पण में अपने आपको देखकर सोचती हे, तुमने भी तो मृत्युंजय से बहुत सारी बाते छुपाई है, तुम्हे कोई हक नही हे की तुम उस पर रूष्ट हो। मृत्युंजय जो भी करता हे सबके भले केलिए करता हे।


लावण्या सोच में डूबी हुई हे तभी उसके कक्ष के द्वार से एक स्वर सुनाई दिया, क्या में अंदर आ सकता हुं? बहुत ही जाना पहचाना और कर्ण प्रिय स्वर था। लावण्या ने बिना मुड़े ही उत्तर दे दिया एक मित्र दूसरे मित्र के कक्ष में अनुमति लेकर नही जाता मृत्युंजय। सत्य कहा लावण्या तुमने किंतु एक पुरुष को एक स्त्री के कक्ष में हमेशा अनुमति लेकर ही प्रवेश करना चाइए यही शिष्टाचार है सखी। मृत्युंजय ने कक्ष में प्रवेश करते हुए कहा।


लावण्या मृत्युंजय की ओर मुड़ी, आज आप हमारे कक्ष में? लगता है आप मार्ग भूल गए हे सखा। लावण्या ने थोड़ा रूष्ट होने का अभिनय करते हुए कहा। मित्र का कार्य ही यही हे की मार्ग भूले हुए मित्र का मार्ग दर्शन करें। तुमसे चर्चा में कोई जीत नही सकता मृत्युंजय, हो सकता है किंतु लावण्या भी कभी पराजित नही हो सकती।


मुझे तुमसे बात करनी है लावण्या। अच्छा हमारे भाग्य ही खुल गए जो वैद्य और वेदशास्त्र के ज्ञाता मृत्युंजय साक्षात चलकर हमारे कक्ष में हमसे वार्तालाप करने केलिए पधारे हे। लावण्या ने कटु वचन में ताना मारा। में जानता हुं की तुम मुझसे रूष्ट हो, किंतु मैं कुछ कार्यों में बहुत व्यस्त होंगाया हु इस कारण तुमसे मिलने का या बात करने का अवसर नही मिलता है। ठीक है...ठीक है... अब ज्यादा शहद मत लपेटो जो बात करने आए हो वो कहो। लावण्या में कुछ दिनों केलिए महल से बाहर जा रहा हुं, जब तक में वापस न आजाऊ तब तक यहां सब तुम्हे संभालना है। में चाहता हुं के राजकुमारी वृषाली के कक्ष में या उनके आसपास तुम, सारिका और भुजंगा तुम तीनो के सिवा कोई भी नजाए। कोई सेविका भी नही।


किंतु मृत्युंजय तुम कहां जा रहे हो ऐसे अचानक ही, ओर ये सब मेरी समझ से परेह हे कृपया विस्तार से बताओ। विस्तार से बतानेवाली कोई बात ही नही है, में पास के राज्य में कुछ औषधि लाने हेतु जा रहा हुं शीघ्र ही लोट आऊंगा बस तब तक तुम सब संभाल लेना।


किंतु.... कोई प्रश्न मत करो लावण्या तुम्हे अपने मित्र के ऊपर भरोसा है ना? अपने आपसे भी ज्यादा। धन्यवाद लावण्या अब में चलता हुं। मृत्युंजय जाने केलिए कक्ष के द्वार की ओर मुड़ा तभी पीछे से लावण्या ने आवाज दी, मृत्युंजय निश्चिंत होकर जाना में यहां सब संभाल लूंगी। ईश्वर तुम्हे तुम्हारे कार्य में सफल करे। धन्यवाद लावण्या, मृत्युंजय ने हंसकर कहा और चला गया।


प्रातः लावण्या और सारिका राजकुमारी के कक्ष में नित्य दिन के जैसे अपने कार्य में व्यस्त थी। राजकुमारी की आंख खुली तो हमेेशा की तरह सामने लावण्या थी। शुभ प्रभात वृषाली, ये लो अपनी औषधि पी लो और अपने दिन की शुरुआत करो।


शुभ प्रभात लावण्या, तुम मुझे कृपया एक बात बताओ की, कब तक मुझे ये औषधि पीनी पड़ेगी। जब तक तुम पूर्ण स्वस्थ नही हो जाती मेरी सखी तब तक ये औषधि और मैं दोनो तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगे समझी।


बातो बातो में सुबह हो गई, भुजंगा पुष्प लेकर कक्ष में आया और अपना कार्य करने लगा। राजकुमारी वृषाली ने जरुखे में देखा तो सूर्य देव पूर्ण रूप से आकाश में उदित हो गए थे। वो बार बार कक्ष के मुख्य द्वार की ओर देखने लगी। जैसे वो किसकी प्रतीक्षा कर रहीं हे। बहुत समय बीत गया। अब वो अपने आप को रोक नही पाई।


भुजंगा आज तुम आगए किंतु मृत्युंजय को आने में इतना विलंब क्यूं हो रहा है, उसका स्वास्थ्य तो ठीक है ना?। मृत्युंजय तो महल में नही हे, वो कुछ औषधियां लाने हेतु पड़ोसी राज्य में गया हुआ हे। ऐसे केसे बिना बताए चला गया वृषाली मन में सोच ने लगी। वो कल रात्रि में ही प्रयाण कर गया वृषाली, पीछे से लावण्या ने कहा।


तुम्हे ज्ञात हे की वो कहीं गया है लावण्या? जी उसने मुझे बताया था और तुम्हारे स्वास्थ्य की ओर तुम्हारी दोनो की जिम्मेदारी वो मुझे सौंप के गया हे। कह रहा था की जब तक वो वापास नही आता में तुम्हे एक क्षण केलिए भी अकेला ना छोड़ूं।


किंतु उसने मुझसे तो कुछ भी नही कहां। वृषाली को इस बात से थोड़ी ठेस पहुंची। उसे अचानक ही जाना पड़ा रात्रि को इस लिए अन्य कोई बात नही हे। भुजंगा ने बात को संभाल ने का प्रयत्न किया। ठीक है, किंतु वो वापस कब आएगा? बहुत जल्द आ जायेगा। अच्छा अब में जाता हुं कोई कार्य हो तो मुझे बुला लेना शुभ दिन। भुजंगा कक्ष से चला गया।


मध्याह्न हो गई किंतु आज एक ही कक्ष में तीन युवतियां होते हुए भी तीनो चुप है, कोई कुछ बोल नहीं रहा हे। राजकुमारी कभी लेट जाती ही तो कभी लावण्या और सारिका को कहती हे मुझे उठकर बैठ ने में सहायता करो। एक अज्ञात बेचैनी ने सबको जैसे घेर लिया है, किंतु ये किस लिए? कदाचित राजकुमारी वृषाली और लावण्या दोनो अपने मन से ये प्रश्न कर रही है।
आज मौसम कुछ ठीक नहीं है ना सखियां? सारिका ने वार्तालाप करने केलिए एक विषय रक्खा। सत्य कहती हो तुम सारिका देखोना केसे बिना मौसम के ही बदल आए है ऐसा लगता हे कदाचित वर्षा होगी है ना वृषाली। लावण्या ने कहते कहते वृषाली की ओर देखा। वृषाली ने कुछ सुना ही नहीं वो तो अपने किसी विचारों में खोई हुई थी।


लावण्या ने वृषाली के गाल को धीरे से थपथपाया, सखी कहां खो गई हो। कही नही बस ऐसे ही सोच रहीथी की आज दिन कितना लंबा हो गया है। मृत्युंजय नही है और पिताजी भी आज कदाचित राज्य के कोई कार्य में व्यस्त होंगे इस लिए यहां आ नहीं पाए। वृषाली ने थोड़ा उदास होकर कहा। सत्य कहती हो वृषाली मृत्युंजय के बिना बहुत सुना लग रहा है सब।


सारिका दोनो की बात सुन रही है। दोनो की स्थिति देख सारिका थोड़ी चिंतित हो जाती हे। कहीं राजकुमारी वृषाली भी मृत्युंजय को प्रेम तो नही करने लगी हे ना? लावण्या मन ही मन में मृत्युंजय को प्रेम करती है भले ही वो अपने मुख से कुछ कहे न कहे। अगर राजकुमारी वृषाली भी.... नही....नही... हे ईश्वर ऐसा अनर्थ मत करना। दोनो की विचलित और उदास आंखे बहुत कुछ कहती है। ईश्वर करे मेरा ये विचार गलत हो।
आगे हमने देखा की, मृत्युंजय राजकुमारी कि जिम्मेदारी लावण्या को सौंपता है और उनके सिवा किसी को भी राजकुमारी के कक्ष में प्रवेश ने न दे ये भी कहता है। मृत्युंजय की अनुपस्थिति में लावण्या और राजकुमारी दोनो उदास है,।सारिका को लगने लगता हे कहीं दोनो को एक साथ मृत्युंजय से प्रेम तो नही हो गया?। अब आगे.....


संध्या बीत गई हे और रात्रि हो गई है। राजगुरु अपने भोजन और अपने नित्य कार्य से निवृत्त होकर अपने कक्ष में बैठे हैं। बाहर तेज हवा चल रही है। लगता है सीघ्र ही वर्षा होगी। ये मौसम ने कैसी करवट ली है बीन मौसम के ही वर्षा हो रही हे। एक चक्रवात राजगुरु के मस्तिष्क में भी उठ रहा है।


ऐसा कोन हे जो राजमहल के भीतर रहकर षडयंत्र रच रहा हे? ओर क्यूं? जब तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठता ना तो मुझे भोजन में रुचि होगी और नही किसी और कार्य में मन लगेगा। हे ईशर मृत्युंजय की रक्षा करना और उसको अपने कार्य में सफल करना।


प्रणाम राजगुरु। राजगुरु के कार्णो में आवाज पड़ी और वो विचारों से बाहर आए तो देखा की सामने महाराज खड़े है। वो चौंक गए, महाराज आप इस समय? जी राजगुरु आज पूरा दिन राज्य के कार्य में व्यस्त रहा तो आपसे भेंट नही हुई तो विचार आया की आपके कक्ष में आकर मिल लूं।


ठीक हे। यशश्वी भव:, बिराजिये महाराज। आप किस विचार में मग्न थे राजगुरु? कहीं में अनुचित समय पर तो नही आया ना? नही नही ऐसा कुछ नही हे बस ये मौसम ने करवट बदली हे उसी के विषय में सोच रहा था। आप कहिए कोई खास कार्य था आपको मुझसे महाराज? कार्य तो नही हे राजगुरु, कुमारी वृषाली के कक्ष में उनसे मिलने गया था तो विचार आया की आपसे भी भेंट करता चलूं। उचित है महाराज।


राजगुरु ये मृत्युंजय कहीं दिखे नही आज दिनभर, राजमहल से बाहर गए है क्या? राजगुरु ये प्रश्न सुंनकर थोड़ा चौंक गए। वो निकट के राज्य में राजकुमारी के उपचार हेतु कोई औषधि लाने केलिए गया है। मुझसे अनुमति लेकर गया है। अच्छा हमसे कहते हम मंगवा देते उसमे जाने की क्या आवश्यकता। ये उनका विषय है अब हम इसमें क्या कर सकते है। उचित कहा राजगुरु आपने चलिए अब में आज्ञा लेता हुं आपसे प्रणाम। शुभ रात्रि महाराज।


लावण्या और सारिका राजकुमारी के कक्ष में सोने केलिए धरती पर बिछौना बिछा रही हे। लावण्या तुम और सारिका यहीं हमारे साथ हमारी सैया में क्यों नही सो जाते ये इतनी बड़ी सैया हे और तुम दोनो बिछौने में सोती हो ये बात हमे अच्छी नहीं लगती। वृषाली नें कहा। धन्यवाद सखी किंतु ये सैया आपकी है हम यहीं ठीक हे, हमे तो यहीं सोने में आनंद आता है। लावण्या ने उत्तर।दिया।


अच्छा फिर ठीक है आनंद आता हे तो हम भी तुम्हारे साथ वहीं सो जायेंगे। ये क्या बात हुई वृषाली तुम भला नीचे क्यों सोने लगी? क्यों की मेरी सखियां अकेले अकेले आनंद जो ले रही हे, में क्यों वंचित रह जाऊं? वृषाली तुम्हे और मृत्युंजय को बातों में कोई पराजित नही कर सकता। तुम दोनों कुछ भी करके अपनी बात मनवाते ही हो। वो तो है हम दोनो मित्र जो ठहरे। वृषाली बोली और दोनो सखियां मुस्कुराने लगी।


लावण्या वृषाली की सैया में उसके साथ जा कर लेट गई। देखा सखी मेने कहा थाना की वर्षा होगी, देखो कितना शीतल वायु है। हा लावण्या, तुम्हे प्रकृति से बहुत प्रेम है है ना? हा वृषाली मुझे पैड, पोधे, बाग, उपवन, वाटिका, नदी, सरोवर, झरना सब बहुत अच्छे लगते हे। लावण्या की आंखो में कहते कहते चमक आ गई।


लावण्या तुम्हे पता है, हमारी मां की परम सखी भी कनकपुर सेथी। कनकपुर से? लावण्या को बड़ा आश्चर्य हुआ। कोन थी, कहां रहतीथी? कनकपुर के महाराज की बहन देवशीखा। वो हमारी मां की सखी थी। महाराज की बहन? वो कैसे वृषाली? मेरी मां और देवशिखा मौसी गुरुकुल में साथ अध्ययन करती थी। पिताजी कहते हैं की दोनो एक समान थी रूप, गुण और शास्त्र विद्या एवम शस्त्र विद्या में भी। वृषाली ने प्रसन्न होकर कहा।


फिर तो विजयगढ़ की मित्रता कनकपुर से बहुत पुरानी हे। हा लावण्या, हमारी मां की सखी भी कनकपुर सेथी और हमारी सखी भी। कैसा संजोग हे देखौना।


लावण्या तुमने और सारिका ने हमारे लिए जो किया हैं और कर रहीं है, में इसका धन्यवाद कैसे करू मुझे समझ नहीं आता। ये क्या एक ओर सखी कहती हो और दूसरी ओर धन्यवाद भी करती हो वाह सखी एक ही पल में पराया कर दिया। लावण्या ने थोड़ा रूष्ट होकर कहा। क्षमा करदो सखी मेरे कहनेका तात्पर्य वो नहीथा। जो भी था अब आगेसे ऐसा मत कहना समझी।आगे हमने देखा की, रात्रि का समय है, बाहर बिन मौसम वर्षा हो रही है। महाराज राजगुरु के कक्ष में जाकर मृत्युंजय के विषय में पूछते है। वृषाली लावण्या को बताती है की उसकी मां की सखी कनकपुर के महाराज की बहन थी। अब आगे.....


छे दिन बीत गए किंतु अभी मृत्युंजय वापस महल नही आया। किस पड़ोसी राज्य में वो गया होगा? ईश्वर करें वो कुशल हो और जल्दी वापस आ जाए। वृषाली कक्ष में अकेली है, वो सोच में डूबी हुई हे तभी लावण्या और सारिका कक्ष में आती हे।


देखो वृषाली में तुम्हारे लिए कुछ लेकर आई हुं। लावण्या ने अपनी बंध मुठ्ठी वृषाली के सामने रखखी। क्या लाई हो लावण्या? लावण्या ने मुठ्ठी खोली और वृषाली खुश होगई। अरे चौसर की कुकी? कहांसे लेकर आई? मेरे पास हे चौसर क्या तुम्हे खेलना पसंद है वृषाली? हा बहुत, में और चारूलता बहुत खेला करती थी पर वो यहां नहीं हे तो मन नहीं करता। वृषाली के चहरे पर उदासी छा गई।


लावण्या ने सारिका की ओर देखा और इशारा किया, सखी छंद मुकरी खेलते है बहुत दिन हो गए। हां सारिका सत्य कहा, वो तो खेलोगी ना वृषाली। ठीक हे मुझे काव्य और छंद बहुत पसंद है। तो चलो फिर प्रारंभ करते है,। सारिका तुमसे प्रारंभ करते हैं।


*छंद कह मुकरी*
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सारिका ....शीत ऋतु में जब वो आये
दिखे न कुछ भी धुंध बनाये
बना फिरे जैसे बोहरा

वृषाली.... क्या सखी साजन
सारिका... नहि सखि कोहरा


लावण्या ...सौम्य रूप में हवन कराये
उग्र होत सब जगत जलाये
बनती साक्षी जुड़ते भाग

सारिका..... क्या सखि साजन
लावण्या..... नहि सखि आग


वृषाली.....शिवशंकर का वार पुराना
मस्तक ऊपर शशी सुहाना
मिली न उसको कोई भौम

लावण्या... क्या सखि साजन
वृषाली.... नहि सखि सोम


सारिका.....रवि किरणों से छन छन आती
शीत काल में अधिक लुभाती
प्रखर पुंज है इसका रूप

लावण्या, वृषाली... क्या सखि धूप
सारिका...... नही सखि साजन

वृषाली....गोकुल की गलियों में रमता
रास रचाता कभी न थमता
ज्यूं देखूं ज्यूं बढती तृष्णा
क्या सखि साजन
नहि सखि कृष्णा


लावण्या....बागों में वो गुन गुन गाता
कली कली पर जब मँडराता
एक जगह पर कहीं न ठहरा
क्या सखि साजन
नहि सखि भँवरा


सारिका...इक पखवाड़े बढता जाता
दूजे को फिर घटता जाता
इक दिन दिखता बहुत मंदा
क्या सखि साजन
नहि सखि चंदा


वृषाली....उमड़ घूमड़ कर बरसा पानी
धरती औढी चूनर धानी
खग मृग पशु सबका मन हर्षा
क्या सखि साजन
नहि सखि वर्षा


लावण्या....नील गगन में रहते सारे
टिम टिम करते रहते प्यारे
मां रजनी के राज दुलारे
क्या सखि साजन
नहि सखि तारे


सारिका......रंगो से खेले रंगोली
प्रेम प्यार की बोले बोली
करते सब जन हँसी ठिठोली
क्या सखि साजन
नहि सखि होली।
लावण्या और वृषाली चौंक गई ये किसने उत्तर दिया, उन्होंने पीछे मुडके देखा तो पीछे मृत्युंजय खड़ा था। लावण्या और वृषाली के हर्ष की कोई सीमा ना रही। मृत्युंजय तुम आ गए लावण्या दौड़कर मृत्युंजय के समीप गई। वृषाली को अपनी दशा पर क्रोध आया वो उदास हो गई।


कहां थे इतने दिन? पता हे हमने तुम्हे बहुत स्मरण किया है ना वृषाली,? लावण्या वहीं मृत्युंजय से वार्तालाप करने लगी।


मुझे अंदर प्रवेश तो कर लेने दो लावण्या। मृत्युंजय वृषाली के समीप गया पीछे लावण्या भी गई। कैसी हो वृषाली? कुशल हुं, किंतु तुम कहां चले गए थे सूचना दिए बिना हम तुमसे रूष्ट हैं।


अरे कोई हमे जलपान केलिए भी पूछे। सब प्रश्नों का एक ही उत्तर हे जो बताकर गया था, लो ये औषधि वृषाली को पिलानी हे। सारिका ने मृत्युंजय को जल दिया।


वैसे तुम तीनो छंद और काव्य में पारंगत हो। अच्छा तो तुमने छुपकर हम सहेलियों की बाते सुनी? लावण्या ने रूष्ट होनेका अभिनय करते कहा। नही मेने कहां बाते सुनी मेने तो आपकी चतुर बुद्धि के दर्शन किए बालिका।मृत्युंजय ने हास्य के साथ कहा। अच्छा अब में अपने कक्ष में जाता हुं, बहुत लंबा प्रवास करके आया हुं।


ठीक हे तुम जाओ और विश्राम करो बाते तो होती ही रहेंगी वृषाली ने कहा। अरे ऐसे केसे कितने दिन पश्चात आए हो कुछ समय तो बैठो साथ फिर विश्राम कर लेना लावण्या ने मुंह बनाकर कहा।


लावण्या दो दिन से निरंतर अश्व लेकर प्रवास कर रहा हुं, स्नान भी नही किया ये न हो की मेरे प्रस्वेद की सुवास से तुम मूर्छित हो जाओ। ठीक हे ठीक हे जाओ और निवृत होकर मिलने आना।


मृत्युंजय मुड़ा और कक्ष के द्वार तक पहुंचा तभी वृषाली ने पीछे से आवाज दी, मृत्युंजय.. मृत्युंजय तुरंत पीछे मुड़ा। सुनो तुम स्नान करके निवृत हो जाओ फिर भोजन अवश्य कर लेना। वृषाली की आंखे स्नेह से छलक रही थी। अवश्य सखी,मृत्युंजय ने उत्तर दिया और कक्ष से चला गया।


रात्रि का प्रथम प्रहर प्रारंभ हो गया। मित्र में राजगुरु से भेंट करके आता हुं। भुजंगा से कहकर मृत्युंजय कक्ष से बाहर गया।


क्या में अंदर आजाउ राजगुरु, अरे मृत्युंजय तुम कब आए? आ जाओ भीतर। मध्याह्न में आ गया। राजगुरु और मृत्युंजय समीप बैठे।


तो क्या तुम्हारा कार्य सफल रहा। राजगुरु बहुत उत्सुक थे सब जान ने केलिए। जी राजगुरु किंतु अभी पूर्ण नही हुआ है। मृत्युंजय विस्तार से बताओ। कुछ समय और प्रतीक्षा कीजिए राजगुरु समय आने पर सब बताऊंगा। किंतु.... आपको मुझ पर विश्वास है ना? हां मृत्युंजय, तो बस थोड़ा समय दीजिए।


क्रमशः......
 
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय को याद करके वृषाली चिंतित हे, तभी सारिका और लावण्या कक्ष में चौसर लेके आते हे। वृषाली को चौसर देखकर चारूलता की याद आती हे और वो उदास हो जाती हे। लावण्या कहती हे की आज हम छंद मुकरी खेलते हे। सब खेल रही हे तभी पीछे से मृत्युंजय उत्तर देता हे। उसे देखकर वृषाली और लावण्या खुस होते हैं। राजगुरु मृत्युंजय को कार्य के विषय में पूछते है तो वो कहता हे उचित समय आने पर सब बताऊंगा अब आगे........


समय बीत रहा हे। राजकुमारी अब धीरे धीरे अपने पैरों पर खड़ी होने लगीं हैं। जैसे नन्हा बालक धीरे धीरे डगमगाते चलता हे वैसे राजकुमारी भी चल रही हैं। महाराज बहुत प्रसन्न हे, किंतु राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु राजमहल की सुरक्षा के विषय में चिंतित एवम कार्यरत हे की कहीं कोई अनहोनी घटना न घट जाए। मृत्युंजय इस कार्य में अपना पूरा योगदान दे रहा है।


लावण्या अपनी शैय्या में लेटी हुई है। उसका मुख देखकर ये ज्ञात होता है की वो बहुत उदास हैं। सारिका कबसे लावण्या को पास में बैठी निहार रही हे।


आखिर सारिका ने अपने मौन को विराम दिया और बोली, सखी इतनी व्यथित क्यों हो रही हो? लावण्या ने सारिका के सामने देखा, ये तुम पूछ रही हों सारिका अगर ये बात कोई अन्य व्यक्ति मुझसे पूछता तो फिर भी ठीक था। जब तुम सब जानती हो तो भी पूछ रही हो। लावण्या के अंदर जो पीड़ा हे वो उसके शब्दों में स्पष्ट दिखाई देती हे।


तुम्हे याद हैं लावण्या जब राजवैद्यजी ने तुम्हे राजमहल में राजकुमारी के उपचार हेतु आने केलिए कहा था तब तुम कितनी रूष्ट हुई थी। सारिका वो बात अलग थी, हा सखी उसी तरह आज राजव्वैध्यजी ने तुम्हे कार्य संपन्न होने पर वापस लौट ने केलिए कहा है। और वैसे भी हम यहां जिस प्रयोजन से आए हे वो भी तो पूर्ण करना हे। फिर भी सारिका यहां मेरे मित्र हे जिनके साथ मेरा ह्रदय जुड गया हैं।


किंतु मृत्युंजय भी तो अब अपने गांव लॉट जायेगा। उसका भी कार्य अब समाप्त होंगया हे फिर तुम यहां रहो के अपने अध्ययन स्थल पर क्या फर्क पड़ेगा।


लावण्या और सारिका बात कर रही है तभी एक सेविका कक्ष में प्रवेश करती हे, महाराज ने आपको तुरंत अपने कक्ष में उपस्थित होने का आदेश दिया हैं, बिना विलंब आप हमारे साथ चलिए।


महाराज ने आदेश दिया हैं? लावण्या और सारिका दोनों को आश्चर्य हुआ। किंतु इस समय, क्या कोई समस्या आ गई हे? वो हम नही जानते बस आप हमारे साथ चलिए।


सेविका आगे चल रही हे। लावण्या और सारिका शीघ्र ही महाराज के कक्ष में पहुंच गई। किंतु वहां जाकर उसने जो दृश्य देखा ये देखकर उसके होश उड़ गए, उसको अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हो रहा था वो कुछ क्षण केलिए ठहर गई और तेजिसे सामने खड़े एक व्यक्ति की ओर बढ़ी और उसके नजदीक जाते ही फिर ठहर गई।


कक्ष में महाराज, राजगुरु, मृत्युंजय, राजकुमारी वृषाली, सेनापति वज्रबाहु, और अन्य तीन व्यक्ति भी उपस्थित थे। वो तीनो व्यक्ति महाराज के समक्ष ऐसे खड़े थे जैसे उन्होंने कोई अपराध किया है और सजा सुनाने हेतु उन्हे यहां उपस्थित किया गया है।सबने लावण्या की ओर देखा उन तीन व्यक्तियों ने।भी, सब चुप थे।


लावण्या क्यों रुक गई मिल लो अपने पिता से, अब रहस्य से पर्दा उठ गया हे, मृत्युंजय ने कहां। ये सुनते ही लावण्या के पैरो के नीचे से जमीन खिसक गई। उसके ह्रदय पर जेसे कोई बहुत बड़ा बोझ किसीने रख दिया हो ऐसा उसे लगा। वो अपनी जगह से दो कदम पीछे हो गई। वो मृत्युंजय के सामने देख रही थी किंतु उसकी आंख से आंख नहीं मिला पा रही थी। उसकी आंख से आंसू निकलें और नीचे गिर गए।


सब शांत था, लेकिन ये शांति कोई बड़े चक्रवात का अंदेशा दे रही थी।


महाराज कनकपुर तो आपका आश्रित राज्य है, आप हमारे महाराज है तो हम भला आपके और आपके राज्य के विरुद्ध षडयंत्र क्यूं करेंगे? लावण्या के बड़े पिताजी और कनकपुर के महाराज ने कहा। यही तो हम आपसे जानना चाहते है भानुप्रताप की हमने या हमारे राज्य ने कभी कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जिससे आपके मान, सम्मान, आपके कुटुंब, राज्य या आपके।धन को हानि पहुंचे फिर भी आपने हमारे विरुद्ध ये सब क्यों किया?


षडयंत्र? महाराज और बड़े पिताजी ये किस षडयंत्र के विषय में बात कर रहे हैं। सच छुपाना कोई षडयंत्र तो नही होता। लावण्या मन ही मन स्वयम से कहे रही हे।


भानुप्रताप, वीर युद्धभूमि में युद्ध करते हैं यूं पीठ पीछे षडयंत्र नही। आपसे हमे ऐसी कायरता की अपेक्षा नहीं थी। महाराज आप क्या कह रहे हैं हमारी कुछ समझ में नहीं आ रहा हे।


महाराज इंद्रवर्मा ओर कनकपुर के राजा भानुप्रताप वार्तालाप कर रहे हैं तभी मृत्युंजय आसन से उठा और मध्य में बोला, क्षमा कीजिए महाराज आप दोनो के मध्य बोल रहा हूं किंतु क्यों ना ये सवाल उस व्यक्ति से ही पूछा जाए जिसने ये पूरा षडयंत्र रचा हे।


मृत्युंजय की बात सुनकर सब आश्चर्यचकित हो गए। तुम कहेना क्या चाहते हो मृत्युंजय जरा विस्तार।से कहो, राजगुरु ने कहा। विस्तार से में क्या कह सकता हुं जो भी कहेंना है वो अब कनकपुर के महाराज भानुप्रताप के अनुज तेजप्रताप ही कहेंगे।


तेजप्रताप कहेंगे? मृत्युंजय पहेलियां मत बुझाओ कुछ समझ में आए ऐसा कहो। राजगुरु ने स्पष्ट शब्दों में मृत्युंजय को आज्ञा देते हुए कहा। मृत्युंजय ठीक कहे रहा हे राजगुरु जो कहेंगे वो तेजप्रताप ही कहेंगे। सेनापति वज्रबाहु ने भी यही कहा।


पिताजी क्या कहेंगे? ओर ये किस षडयंत्र के विषय में बात कर रहे हे। लावण्या का ह्रदय तेज गति से धड़कने लगा हे।


अवश्य ही आपसे किसी ने असत्य कहा हे महाराज इंद्रवर्मा हमारा अनुज ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकता जिससे हमे ग्लानि हो और हमारा शीश झुक जाए। ऐसा हे तो फिर आपही स्वयम अपने भ्राता से पूछ क्यों नही लेते की ऐसी क्या विवशता थी जिसने इन्हे षड्यंत्रकारी बना दिया।


हमारा अनुज षड्यंत्रकारी? भानुप्रताप की आंखे फटी की फटी रहे गई सेनापति वज्रबाहु की ये बात सुनकर। हमारे पिताजी षड्यंत्रकारी नही नही ऐसा कदापि नही हो सकता, लावण्या मध्य ही चीखकर बोल पड़ी।


कुमारी लावण्या इस समय दो राज्यों के राजाओं के मध्य बात हो रही हैं आप बीच में न बोलें यहीं उचित होगा। राजगुरु ने थोड़ा रूष्ट होकर आज्ञा दी। क्षमा करे राजगुरु किंतु यहां हमारे पिताजी पर कलंक लगाया जा रहा हे, मेरे पिताजी वीर योद्धा हे वे षड्यंत्रकारी कभी नहीं हो सकते, कभी नही।


लावण्या तुमने सुना नही राजगुरु ने तुम्हे का आज्ञा दी मृत्युंजय ने कठिन शब्दों में लावण्या की ओर देखते हुए कहा। मृत्युंजय तुम भी? तुम तो हमारे मित्र हो फिर भी,? हम अपने पिता पर कोई भी कलंक लगते नाही देख सकते हैं ओर नाही सुन सकते हैं समझे तुम। लावण्या उग्र हो गई।


हां हुं में षड्यंत्रकारी, में ये स्वीकार करता हुं के ये सारा षडयंत्र मेने ही रचा है। तेजप्रताप ने ऊंचे स्वर में कहां और लावण्या चुप हो गई, उसके ह्रदय पर जैसे घात हो गया। भानुप्रताप का शरीर सुन्न हो गया। महाराज इंद्रवर्मा और राजगुरु अपने आसन से उठखड़े हो गए।
आपने रचा षडयंत्र तेजप्रताप हमारे विरुद्ध? किंतु क्यूं, आपसे तो हमारी परस्पर ना कोई स्पर्धा हे ना कोई शत्रुता फिर आपने ऐसा जघन्य अपराध क्यूं किया। महाराज इंद्रवर्मा क्रोधित हो गए, उनका हाथ अपनी कमर पर लटकती म्यान पर गया और उन्हों ने तलवार निकाली। सब चिंतित हो गए , महाराज अपने आप पर संयम रखिए और विवेक से काम लीजिए, राजगुरु ने कहा।


संयम केसे रख्खू राजगुरु अगर ये वीरो की तरह वार करते तो मुझे गर्व होता किंतु उसने तो कायर के।भांति पीठ पीछे वार किया, और चोंट पहुंचाई भी तो किसे? हमारी बेटी राजकुमारी वृषाली को। नही गुरुजी ये दंड के पात्र हैं हम इस समय ही उसका शीश धड़ से अलग कर देंगे।


षडयंत्र हमारे विरुद्ध? वृषाली ये सुनकर चौंक गई।हमारे पिताजी ने वृषाली को चोट पहुंचाई आखिर ये किस विषय में बात हो रही हे। लावण्या भी चौंक गई थी उसके मस्तिष्क ने जैसे कार्य करना ही बंध कर दिया था राजगुरु ने जैसे तैसे महाराज को शांत किया।


भानुप्रताप अपने अनुज तेजप्रताप के समीप गए और जोर से एक चाटे की आवाज कक्ष में गूंज गई। ये किस षडयंत्र की बात हो रही हैं तुमने क्या षडयंत्र किया हैं तेजपाल बोलो, ऐसे पत्थर की मूरत बनकर क्यों खड़े हो बोलो तेजपाल बोलो नही तो आज हमारे हाथों से कुछ अनर्थ हो जायेगा।


भानुप्रताप, तेजपाल के दोनों कंधो को जक्जोड़ कर पूछ रहे हैं। हा मेने ही रचा है षडयंत्र मैने ही। क्या किया है तुमने और क्यों किया है तेजपाल बोलो....


भानुप्रताप द्वारा तेजपाल से पूछे गए प्रश्न का उत्तर जान ने केलिए सब उत्सुक हे।


क्रमशः........
आगे हमने देखा की,राजकुमारी अब ठीक होने लगी है। एक दिन लावण्या को महाराज के कक्ष में उपस्थित होने का संदेश मिलता है। जब को वहां जाति हे तो उसके पिता, बड़े पिताजी और मंजले पिता वहां खड़े है। सबको पता चल गया है की लावण्या कनकपुर के राजा के छोटे भाई की पुत्री हे। सब लावण्या के पिताजी से पूछ रहे हैं की, उन्हों ने षडयंत्र क्यूं रचा। लावण्या को कुछ समझ नही आ रहा है। अब आगे........


तेजप्रताप की बात सुनकर कक्ष में उपस्थित सबके पैरो के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई। महाराज इंद्रवर्मा क्रोधित होंगए। उन्होंने अपने म्यान से तलवार खिंचली, चालबाज, षड्यंत्रकारी तेजपाल आज हम तुम्हारा शिर छेद कर देंगे। तुमने हमारे और हमारे राज्य के विरुद्ध षडयंत्र रचा । आज हम तुम्हे जीवित नहीं छोड़ेंगे।


मृत्युंजय बीच में आ गया और महाराज का हाथ पकड़कर उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगा किंतु महाराज के क्रोध की अग्नि शांत ही नही हो रही हे। सेनापति वज्रबाहु भी बात को संभालने का प्रयत्न करने लगे, किंतु सबके प्रयत्न विफल होते देख राजगुरु आगे आए उन्हों ने महाराज को आज्ञा दी के अपनी तलवार को म्यान में रखें। महाराज ने अपने मन को मारकर अपनी तलवार को म्यान में रक्खा। आप एक राजा हे आपको ऐसा वर्तन शोभा नही देता महाराज। राजगुरु ने समझाकर उन्हे अपने आसन पर बिठाया।


लावण्या ये सब देखकर टूट गई उसे तो समझ ही नही आ रहा की उसके पिता ने आखिर किया क्या है और ये किस षडयंत्र के विषय में बात हो रही हे। नौबत ऐसी आ गई हैं की महाराज उसके पिता का वध करनेका प्रयास कर रहे हैं।


जब तुम्हारा और हमारा आपस में कोई झगड़ा या युद्ध नही हे तो तुमने कायर की भांति हमारे पीठ पीछे वार क्यों किया तेजप्रताप हमे कारण बताओ। महाराज ने क्रोधित स्वर में कहा।


क्यूं की आप मेरी बहन दीपशिखा के हत्यारे हैं। तेजपाल ने भी क्रोधित होंकर खूंखार स्वर में उत्तर दिया। दीपशिखा के हत्यारे और हम? कक्ष में उपस्थित सबके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। जब हमारी बहन की हत्या ही नही हुई तो हत्यारे महाराज इंद्रवर्मा कैसे हो गए तेजपाल? लगता हे तुम्हारे मस्तिष्कका संतुलन डगमगा गया है। हमारी बहन की तो हत्या ही नही हुई। भानुप्रताप ने तेजप्रताप से क्रोधित होकर पूछा।


हुई थी हमारी बहन दीपशिखा की हत्या हुई थी और हत्यारा है ये इंद्रवर्मा। तेजप्रताप तुम होश में तो हो क्या बोल रहे हो तुम्हे कुछ ज्ञात हे? जब तक हमे ज्ञात हे तुम्हारी बहन की मृत्यु तो बीमारी से हुई थी। राजगुरु बोलें।


नही ये अर्धसत्य है राजगुरु सौमित्र। मेरी बहन की असमय मृत्यु का कारण ये इंद्रवर्मा हैं। तुम ये क्या बोल रहे हो अनुज । में सत्य कह रहा हुं बड़े भैया।


यूं पहेलियां मत बुझाओ तेजप्रताप जो कहना हैं साफ साफ कहो, राजगुरु ने क्रोधित होकर कहा। आपको जानना हे तो सुनिए,


हमारी बहन दीपशिखा एक होनहार कन्या थी। अस्त्र, शस्त्र, ज्ञान, वेद सबकी शिक्षा दीक्षा उसने प्राप्त की थी। गुरुकुल में वो इंद्रवर्मा की रानी वसुंधरा के साथ ही अभ्यास करती थी। दोनों बहुत अच्छी सहेलियां थी, दोनों अस्त्र, शस्त्र, वेदपाठ और व्यवहार ज्ञान में समान कुशाग्र थी। जब उनकी शिक्षा दीक्षा पूर्ण हुई तो आचार्य ने उन दोनो को सूरजगढ़ में हो रही सबसे बड़ी प्रतियोगिता में सम्मेलित होने केलिए कहा।


आचार्य को अपनी दोनो शिष्या की प्रतिभा पर बहुत गर्व था। दोनो सूरजगढ़ में होने वाली प्रतियोगिता में सम्मिलित होने केलिए गई। वहां सभी राज्यों से राजकुमार ओर राजकुमारियां प्रतियोगिता में सम्मिलित होने केलिए आई हुई थी। ये इंद्रवर्मा भी वहां उपस्थित था।


महाराज इंद्रवर्मा कहो, महाराज का नाम सम्मान से लो तेजप्रताप ये मत भूलो की ये तुम्हारे राजा हे और तुम हमारे आश्रित राज्य के राजा के भाई। राजगुरु ने क्रोधित होकर कहा।


नही में अपनी बहन के हत्यारे को कभी सम्मान से नहीं बुला सकता। तेजप्रताप ने उत्तर दिया। राजगुरु रहने दीजिए एक षड्यंत्रकारी से मुझे किसी सम्मान की आवश्यकता नहीं है। आगे बताओ तेजप्रताप महाराज इंद्रवर्मा ने आदेश दीया।


उस प्रतियोगिता में राजकन्याओ में राजकुमारी वसुंधरा प्रथमविजई हुई थी और हमारी बहन द्वितीय। राजकुमारो में इंद्रवर्मा प्रथम विजेता हुए थे। सभी कुछ दिन साथ रहे और तीनो में मित्रता हो गई थी। धीरे धीरे हमारी बहन दीपशिखा इंद्रवर्मा को प्रेम करने लगी थी। जब वो अपनी शिक्षा पूर्ण करके राजमहल वापस लौटी तो हमारे पिता महाराज ने हमारी बहन की शादी का प्रस्ताव विजयगढ़ के महाराज के सामने रक्खा किंतु इस इंद्रवर्मा ने वो प्रस्ताव ठुकरा दिया और उस वसुंधरा से विवाह कर लिया।


हमारी बहन ये बात को कभी स्वीकार नहीं कर पाई। उसका मन संसार से उठ गया, वो राजमहल छोड़कर मंदिर में जाकर रहने लगी। हमारी बहन जो हमेशा सोलह श्रृंगार में सुंदर और स्वरूपवान दिखती थी वो सफेद वस्त्रों में कुरूपता का जीवन व्यापन करने लगी।


ये बात हमे तो ज्ञात नही हे तेजप्रताप, वो इस वजह से भैया की आप सब हमसे आयु में बहुत बड़े थे और आप सब राज्य के कार्य में व्यस्त रहते थे किंतु में और दीपशिखा दोनो जुड़वा थे और हम दोनो मित्र समान थे वो अपने मन की सभी बातें हमसे किया करती थी और किसी से नहीं। मुझे हमारी बहन से आप सबसे कहीं अधिक प्रेम था।


कक्ष में उपस्थित सभी का मन आगे की बात जान ने केलिए बहुत उत्सुक हो रहा था।


क्रमशः.......
 
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आगे हमने देखा की, तेजप्रताप स्वीकार करता हे की, उसने महाराज इंद्रवर्मा के विरुद्ध षडयंत्र रचा हे। सबके पूछने पर वो कारण बताता है की, उसकी बहन दीपशिखा की वजह से। दीपशिखा और वसुंधरा एक प्रतियोगिता में जाति हैं, वहां महाराज इंद्रवर्मा भी उपस्थित थे। दीपशिखा इंद्रवर्मा से प्रेम करने लगती है किंतु इंद्रवर्मा उसकी सहेली वसुंधरा से विवाह करते है। अब आगे.......


ऐसे ही दिन बीतते गए और दिन, महीने और साल हो गए। कई साल बीत गए किंतु हमारी बहन उसी संन्यासिन अवस्था में जी रही थी। फिर एक दिन अचानक सूचना मिली की, वसुंधरा अपनी पुत्री को जन्म देके इस दुनिया से चल बसी। उसका स्वर्गवास हो गया है। सब ने दीपशिखा से यूं जीवन व्यापन का कारण पूछा था किंतु उसने किसी को नहीं बताया था। यहां तक वसुंधरा को भी नही। केवल मुझे ही ज्ञात था।


वसुंधरा के मृत्यु के विषय में जब दीपशिखा को ज्ञात हुआ तो उसे बहुत पीड़ा हुई थी। एक बार पुनः हमारे पिताजी ने दोनो राज्यों के संबंध को ध्यान में रखते दीपशिखा को बहुत मनाकर यहां विवाह का प्रस्ताव भेजा किंतु पुनः इस इंद्रवर्मा ने ये कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया की उसने ये प्रण लिया है की वो आजीवन एक ही विवाह करेंगा


एक बार पुनः हमारी बहन का ह्रदय छलनी हो गया। अब वो अपने जीवन के प्रति उदासीन हो गई थी। कुछ ही समय में वो अस्वस्थ रहने लगी और असमय ही वो इस धरा को छोड़कर हम सबको छोड़कर चलीं गई। हमारी बहन दीपशिखा के मृत्यु का कारण ये इंद्रवर्मा है।


कक्ष में उपस्थित सबका ह्रदय पीड़ा से भर गया। महाराज इंद्रवर्मा को समझ नही आ रहा की वो क्या कहे, क्या करे,? उनका मन गल्याणी से भर गया। लावण्या और वृषाली एक दूसरे के सामने देखकर आंखो ही आंखो में जैसे कह रही थी की, कुछ दिवस पूर्व वो दोनो अपनी मां और दीपशिखा की मित्रता के विषय में गर्व से बात कर रही थी उसका एक पहलु ये भी हो सकता है। दोनो के मन की पीड़ा उनकी आंखो में सष्ट नजर आ रही थी।


हमे तो इस विषय में कुछ ज्ञात ही नही था अनुज। कैसे होगा ज्ञात आपको भैया, दीपशिखा ने इस विषय में कभी किसी से एक शब्द नही कहा। पहले लज्जा के कारण और विवाह प्रस्ताव ठुकराने के बाद इस वजह से की कहीं उसकी वजह से दोनो राज्योमे शत्रुता ना हो जाए। किंतु उसने मुझे अपने ह्रदय की व्यथा बताई थी। उसने तो विशाल ह्रदय करके इस इंद्रवर्मा ओर वसुंधरा को क्षमा कर दिया किंतु में इन दोनो को कभी क्षमा नहीं कर पाया।


मेरे मनमे इन दोनो के प्रति बहुत क्रोध था किंतु जब हमारी बहन का स्वर्गवास हो गया तो ये क्रोध प्रेतिशोध की प्रचंड ज्वाला में बदल गया। तेजप्रताप महाराज के सामने देखकर बोलने लगा। उसकी बड़ी बड़ी आंखों में लहू उतर आया, वो क्रोध से ताम्र वर्ण हो गया।


वर्षो तक मेरे मन में एक ही विचार पलता रहा। इस इंद्रवर्मा से प्रतिशोध लेनेका। तेजप्राताप ने महाराज के सामने क्रोध से उंगली निर्देश करते हुए कहा। में इंद्रवर्मा को पीड़ा में घुट घुटकर मृत्यु को प्राप्त करते देखना चाहता था ठीक उसी तरह जैसे हमारी बहन मृत्यु की गोद में सो गई थी।


में अपनी पुत्री लावण्या से बहुत प्रेम करता हुं, दुनिया में सबसे अधिक। मुझे अगर मेरे प्राणों से भी कोई अधिक प्रिय है तो वो हे मेरी पुत्री लावण्या।


एक दिन लावण्या अपनी सखियों के साथ वन विहार करने हेतु गई। संध्या हो गई किंतु लावण्या वन से वापस नहीं लौटी तो मेरा कलेजा मुंह को आगया। पुत्री की चिंता ने मुझे घेर लिया और में जैसे ऊर्जाहीन हो गया था। जब रात्रि को लावण्या राजमहल वापस लौटी तो मेरी जान में जान आई।


बस उस रात्रि को मैने ये निश्चय कर लिया की इंद्रवर्मा के जीवन में एक ही व्यक्ति है उसकी पुत्री जोंकि उसे प्राणों से अधिक प्यारी होगी अगर में कुछ ऐसा करु की उसकी पुत्री को पीड़ा हो तो ये देखकर इंद्रवर्मा का जीवन भी पीड़ा से भर जाएगा और वोभी ऊर्जाहीन, चेतनाहीन हो जायेगा।


जब उसे यह प्रतीत होगा की इतने बड़े राज्य का महाराज होकर भी वो अपनी पुत्री केलिए कुछ नही कर सकता तो वो असहाय होकर घुट घुटकर मरेगा और मेने इंद्रवर्मा के विरुद्ध षडयंत्र रचा।


ये तुमने क्या किया अनुज, तुमने कैसा षडयंत्र रचा बताओ तेजप्रताप। भानुप्रताप क्रोधित होकर पूछ रहे हैं। तेजप्रताप चुप हैं। सब लोगो से ये चुप्पी सेहन नही हो रही। उपस्थित सब ये जान ने के लिए आतुर है की आखिर तेजपाल ने क्या षडयंत्र रचा? और कैसे।मैने इस राजमहल मैं एक विषकन्या को भेजा और इंद्रवर्मा की इस पुत्री को जहर दे दिया। तेजपाल ने वृषाली के सामने निर्देश करते हुए कहा। ये बात सुनकर सबके कान फट गए। हमारी पुत्री को विष दिया तुमने, कायर, निर्लज तुम्हे इस कायरतापूर्ण कार्य करते हुए तनिक भी लज्जा नहीं आई? महाराज के क्रोध की कोई सीमा नहीं रही।


आगे बताओ तेजपाल, पूरी बात बताओ। राजगुरुने क्रोधित होकर कहा। मैने तुम्हारे ही राज्य के एक सैनिक को अपने साथ मिला लिया और पूरा षडयंत्र रचा।


एक बार जब तुम्हारी पुत्री और उसकी सखी वाटिका में विहार कर रही थी तो उस सैनिक ने हमारे बताए अनुसार बांस की एक छोटी सी नली में विशेली छोटीसी सुई रखदी और फूंक मार कर वृषाली के गले में वो सुई भोंकदी। तुम्हारी पुत्री को कुछ समझ में आए उससे पहले ही वो मूर्छित हो गई। फिर वो कभी मूर्छा से बाहर ही न आए इस लिए उसे हर रोज थोड़ा थोड़ा विष देने का कार्य मेरी विष कन्या ने किया।


सब कुछ निर्धारित योजना से हो रहा था तुम्हारी पुत्री की पीड़ा में और व्यथा में तुम भी उसी तरह तिल तिल कर मर रहे थे जैसे में अपनी बहन की पीड़ा की अग्नि में जला था।


हमे लगा की वाटिका में वृषाली के साथ उसकी सखी चारूलता भी उपस्थित थी तो हो सकता है वो कभी हमारे लिए संकट बन सकती हे।


एक दिन वो जब राजमहल से अपने गृह की ओर जा रही थी तो हमने उसका अपहरण करवा लिया और उसे भी सदा केलिए मृत्यु की नींद सुला दिया। बिचारी वो तो बेमतलब की मौत मर गई। तेजपाल ने अट्टहास्य करते हुए कहा।


क्रमशः.......

आगे हमने देखा की, तेजप्रताप बताता हे की केसे उसने इस राज्य के सैनिक को अपने साथ षडयंत्र में सम्मिलित करके राजकुमारी को विषैली सुई से मूर्छित कर दिया और फिर चारूलता का अपहरण करके उसकी भी हत्या करदी। अब आगे.....


तेजपाल ने जैसे ही कहा की केसे उसने अपहरण करके चारूलता की हत्या करदी। ये बात सुनते ही सेनापति वज्रबाहु अपना आपा खो बैठे। वो क्रोधित होकर अपनी तलवार लिए तेजपाल के समीप तेजगति से गए। षड्यंत्रकारी तेजपाल विधाता ने तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों लिखी हैं। आज ईश्वर भी तुम्हारी रक्षा मुझसे नही कर सकते। वज्रबाहु ने अपनी तलवार तेजपाल की गर्दन पर चलाने केलिए जेसेही उठाई, मृत्युंजय ने बिचमे आकर रोक लिया।


मृत्युंजय तुम मध्य में मत आओ, आज मैं इस अधर्मी, पापी, कायर तेजपाल का वध कर दूंगा। इसने मेरी दोनो पुत्रियों को हानि पहुंचाई है, मेरी निर्दोष पुत्री का जीवन छीन लिया? ऐसे दुष्ट को इस धरा पर जीवित रहनेका कोई अधिकार नही हे। मुझे छोड़ दो मृत्युंजय।


सेनापति वज्रबाहु शक्तिशाली योद्धा है और उपरसे क्रोधित उन्हे संभाल पाना बहुत कठिन हे। मृत्युंजय के हाथ में तलवार से चोट लग गई उसमे से लहू बहने लगा। उसने तलवार को छोड़ सेनापति वज्रबाहु को अपने दोनों हाथोसे मजबूती से अपनी बहुपाश में जकड़ लिया।


राजगुरु तेजगति से वहां आए। सेनापति वज्रबाहु ये हमारी आज्ञा है की तुम अपनी तलवार हमे देदो। राजगुरु एक वीर योद्धा जब अपनी तलवार उठा लेता है तो फिर म्यान में नही रखता मुझे क्षमा कीजिए किंतु में आज इस अधर्मी का वध कर दूंगा।


सेनापति ये युद्धभूमि नही हे जो उठी हुई तलवार म्यान में वापस नही जा सकती। विवेक बुद्धि से कार्य करो, शांत हो जाओ और तलवार म्यान में रखदो। अभी अगर तुमने इसकी मृत्यु के घाट उतार दिया तो हमे पूरे षडयंत्र के विषय में पता नही चलेगा। इसलिए हम तुम्हे ये आदेश करते है की, क्रोध त्यागकर अपने आसन पर बैठ जाओ।


सेनापति वज्रबाहु ने उठाया हुआ हाथ नीचे किया, मृत्युंजय ने उन्हें अपने बाहु से मुक्त किया। जैसे ही मृत्युंजय ने उन्हें छोड़ा वो असहाय होकर धरती पर गीर गए। उनकी आंखे अश्रुओ से छलक गई। वो विलाप करने लगे। मार दिया, मेरी पुत्री को मार दिया? उसने तो कभी किसका अहित नहीं किया फिर क्यूं उसके साथ ऐसा व्यवहार, हे विधाता ये कैसा अन्याय है तेरा एक पिता से उसके जिगर का टुकड़ा छीन लिया? वज्रबाहु ऊपर की ओर देखते हुए बोले।


सेनापति वज्रबाहु को पुत्री विरह में यूं दुखी देख सबकी आंखे छलक गई। राजकुमारी वृषाली अपने आसन से उठ दौड़कर आकर वज्रबाहु के गले लग गई और विलाप करने लगी। दोनो को विलाप करता हुआ देखकर उपस्थित किसी व्यक्ति में साहस नहीं था की उन्हे सांत्वना दे। मृत्युंजय वहीं पास में खड़ा था और अपने आप को विवश प्रतीत कर रहाथा।


सेनापति वज्रबाहु आप एक वीर पुरुष हे आपको यु विलाप करना सोभा नही देता। आप नित्य ही महाराज को विवेक, ओर धीरज से कार्य करने का परामर्श देते है ओर आज आप स्वयंम ही ऐसे विलाप कर रहे हैं? मृत्युंजय ने अपने शब्दों से सेनापति वज्रबाहु में साहस का संचार किया। वो उठे और अपनी व्यथा को अंदर ही छिपा कर अपने आसन पर विराज गए।


तेजप्रयाप अब तुम्हारी भलाई इसी में हे की अब तुम अपनी उस विष कन्या और षडयंत्र के विषयमे बतादो अन्यथा अब हम तुम्हे जीवित नहीं छोड़ेंगे। अब हमे तुम्हारा शीश धड़ से अलग करने से कोई नहीं रोक पायेगा। महाराज ने आदेश किया।


तेजप्रताप चुप खड़ा है और वो अपनी मूछ में मुस्कुरा रहा है। महाराज इंद्रवर्मा के बार बार पूछने पर उसने अट्ट हास्य करते हुए अपने दोनो हाथ ऊपर उठाए और बोला,में तुम्हारे सामने ही हुं, लो करदो मेरा शीश धड़ से अलग, रुके हो क्यूं इंद्रवर्मा करदो मेरा वध। फिर जोर जोर से अट्टहास करने लगा। महाराज इंद्रवर्मा ओर सेनापति वज्रबाहु दोनो का हाथ अपनी तलवार की मूठ पर भीस रहा था किंतु वो दोनो जब तक पूरे षडयंत्र के विषय में जान न ले उसको मार नही सकते थे। दोनो अपने आप को विवश पा रहे थे।


कुछ समय ऐसा ही चलता रहा। अब मृत्युंजय से यह सेहन नही हुआ वो उठा और बोला में बताता हूं की वो विष कन्या कोन है। सब को बहुत आश्चर्य हुआ, सब मृत्युंजय की ओर जिज्ञासा से देख रहे थे। सबके मन में कई प्रश्न उठने लगे।


मृत्युंजय तुम बताओगे कैसे? राजगुरु सौमित्र अपने आपको यह प्रश्न पूछने से रोक नही पाए। मृत्युंजय ने राजगुरु की ओर देखा और बिना कुछ कहे अपने आसन को छोड़ चलने लगा। सबकी दृष्टि मृत्युंजय की ओर टिकी हुई थी। वो उसी कक्ष के मुख्य द्वार के पास एक कोने में गया जहां अंधेरा था। वो पर्दो को हटाते हुए किसका हाथ पकड़कर सबके सामने चला आ रहा था अंधेरा बहुत था दूर से किसी को कुछ स्पष्ट दिख नही रहा था।


मृत्युंजय जैसे जैसे सबके समीप आता गया धुंधली सी आकृति अब स्पष्ट दिखने लगी। सबके होश उड़ गए, सब को समझ नही आ रहा था की ये हो क्या रहा हे।


मृत्युंजय जिसका हाथ पकड़कर सबके सामने लेके आ रहा था उसे सबके मध्य खड़ा करके बोला ये रही वो विष कन्या। सबको अपनी आंख और कान पर विश्वास नहीं हुआ। तुम क्या कह रहे हो मृत्युंजय? मैने आप सबसे जो कहा वो सत प्रतिशत सत्य है महाराज, क्यों तेजप्रताप सिंघ में सत्य कह रहा हुं ना? तेजप्रताप का मुंह उतर गया वो अपना मुंह धरती की ओर झुकाकर नजरे चुराने लगा।


अब सबको सत्य तुम बताओगी या में बताऊं सारिका? ये सुनकर लावण्या के ह्रदय पर फिर से एक तेज घात हुआ। राजकुमारी वृषाली को भी ये सुनकर आघात लगा।


सारिका चुप चाप सर झुकाए खड़ी हे। उसकी आंख।से आंसू जमीन पर गिर रहे हैं।


क्रमशः.....अब उठेगा षडयंत्र से पर्दा। कैसे रचा गया पूरा षडयंत्र और मृत्युंजय को इसके विषय में केसे पता चला जान ने केलिए पढ़ते रहिए आगे की कहानी।
 
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आगे हमने देखा की, महाराज तेजप्रताप से विष कन्या के विषय में पूछते हे पर तेजप्रताप अट्टहास करता है और कहेता है की मेरा शीश धड़ से अलग करदो किंतु में तुम्हे नही बताऊंगा। महाराज और सेनापति चाहकर भी कुछ कर नही पाते। ये सब देखकर मृत्युंजय इस राज से पर्दा उठाता है और सबको पता चलता हे की, सारिका विष कन्या हे अब आगे......


सारिका शीश झुकाए खड़ी हे। उसे ऐसा प्रतीत होता है की, अगर ये धरा फट जाए तो में अंदर समा जाऊं।


मृत्युंजय आगे बोलना प्रारंभ करता हे। सारिका ही वो विष कन्या है जो तेजप्रताप सिंग के द्वारा विजयगढ़ के राज महल में भेजी गई थी।


किंतु तुम्हे इस विषय में केसे ज्ञात हुआ मृत्युंजय? महाराज ने पूछा


जब में इस राजमहल में आया, ओर जिस क्षण मेने राजकुमारी की नाडी का अवलोकन किया था उसी क्षण मुझे ज्ञात हो गया था की राजकुमारी को कोई रोग नही है। किंतु फिर वो मूर्छित क्यों हैं ये मेरे लिए जानना बहुत आवश्यक था। मैने धीरे धीरे उनका उपचार करना प्रारंभ किया। किंतु जब एक दिन में राजकुमारी के समीप गया तो उनकी सांस से मुझे एक विचित्र प्रकार की गंध आई।


में जंगल में पला बड़ा हुं इस लिए प्रकृति के तत्वों को अच्छे से जानता हुं। मैने एक दिन राजकुमारी के मुख से किसी को पता न चले ऐसे लार लेली और उसका परिक्षण किया तो मुझे समझ आ गया की, राजकुमारी को एक विशेष प्रकार का विष दिया जा रहा है। मुझे इस विष के विषय में ज्ञात था।


विशेष प्रकार का विष? ये कैसा विष है मृत्युंजय? राजगुरु ने प्रश्न किया। हिमालय में एक विशेष प्रजाति का सर्प पाया जाता है जिसका विष बाकी जहरीले सर्पों से भिन्न हे। मृत्युंजय की बात सब जिज्ञासा से सुन रहे थे।


ये सर्प अगर किसी को काटले या उसका विष किसीको दिया जाए तो इसका असर थोड़ा भिन्न होता है। इस सर्प का विष सीधे मनुष्य या प्राणी के मस्तिष्क पर असर करता है। धीरे धीरे मनुष्य का मस्तिष्क मृत हो जाता हे। यानी की मानसिक तौर पर मनुष्य की मृत्यु हो जाती हे और वो हमेशा ऐसे ही मूर्छा में ही रहता है।


इस सर्प के विष की एक और विशेषता ये हैं की, ये किसी भी प्राणी या मनुष्य के शरीर में जाए तो उसका शरीर नीला नही पड़ता। यही कारण है की, इस सर्प के विष का प्रयोजन ऐसे षड्यंत्रों में किया जाता हे। यहां भी इस विष का प्रयोग किया गया जिस से राजकुमारी को विष दिया जा रहा हे इस बात का पता ही न चला।


इस सर्प की पहचान करने में भुजंगा पारंगत हे। भूजंगा सब सर्पों के विषय में और उनके जहर के विषय में ज्ञान रखता हे। जब मेने राजकुमारी की लार का परीक्षण किया तो उसे देखकर भुजंगा ने तुरंत उस विष को उसके लक्षणों से पहचान लिया। किंतु वो सर्प मात्र हिमालय में ही पाया जाता है तो उसका विष यहां कैसे आया।


हमने इस विषय में खोज शुरू की ओर जब उस बाज़ की चोंच से वो टोकरी गिरी मिली, याद है न राजगुरु और सेनापति जी उसमे उस सर्प को देखकर इस बात की पूर्णतः पुष्टि हो गई की, राजकुमारी को विष देने हेतु ही राजमहल में से ही कोई इस सर्प का प्रयोग करता हे।


ठहरो मृत्युंजय तुमने अभी कहा की राजगुरु और सेनापति को ज्ञात था क्या ये सत्य हे राजगुरु और वज्रबाहु? महाराज का प्रश्न सुनते ही राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु एक दूजे के मुख की ओर देखने लगे।


हां महाराज मृत्युंजय ने ईस विषय में हमे तब बताया था जब उसे वो मरे हुए सर्प की टोकरी मिलिंथी। आप दोनो को ज्ञात था की राजमहल में कोई षडयंत्र चल रहा है और आप दोनो ने हमसे इस विषय में कुछ भी नही कहा राजगुरु? आप दोनो ने मुझसे ये बात छिपाई। महाराज को बड़ा धक्का लगा।


क्षमा करें महाराज, किंतु राजगुरु और सेनापती वज्रबाहु को मैने मना किया था आपको इस विषय में किसी भी सूचना देने से। मृत्युंजय ने महाराज को सत्य से अवगत कराया। किंतु क्यों मृत्युंजय हमारे राजमहल में हमारे विरुद्ध षडयंत्र रचा जा रहा था और हमे इसकी भनक तक नहीं थी। महाराज ने खिन्न होकर कहा।


वो इस प्रयोजन से की, आपको इस बात का पता चलता तो आप अपने आपको रोक नही पाते। पिडावश ओर क्रोधित होकर आप कोई ऐसा कार्य करते जिससे षड्यंत्रकारी चौकन्ने हो जाते ओर फिर उन्हें पकड़ना मुश्किल या असंभव हो जाता। आशा करता हुं आप मुझे इस कार्य केलिए अवश्य ही क्षमा करेंगे।


अच्छा मृत्युंजय अब आगेकी बात बताओ। महाराज ने कहा।


जब मेरे मन में ये संशय उठा की ऐसा कोन हे जो राजमहल में रहकर, महाराज और राजकुमारी के अहित की कामना रखता है तो मेने राजगुरु सौमित्र और प्रधान सेनापति वज्रबाहु की सहायताली ओर खोज शुरू की।


राजमहल में रहने वाले हर व्यक्ति को में संशय से देखने लगा और सबके विषय में जाएकत्रित की अब बारी लावण्या की थी।


जबसे मेने लावण्या को देखाथा तब से मेरे मन में उसके लिए संशय रहता था। उसकी बाते, उसका कार्य, उसका स्वभाव कुछ भी आपस में मिलता नही था।


उसे जब मेने प्रथम बार देखा तबसे मुझे लगता था की लावण्या जो हे वो दरअसल सत्य नही हे। इसलिए मैने उसके विषय में जानने का प्रयास किया।


मृत्युंजय की बात सुनकर लावण्या को दुख हुवा। तो क्या मृत्युंजय ने कभी मुझसे मित्रता की ही नही वो मात्र एक आडंबर था? वो अपने आप को संभाले तो कैसे एक एक करके सब के भेद खुल रहेथे। वो अपने आप को बड़ा नासमझ और मूर्ख समझने लगी। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था की सब लोगो ने और सब संबंध ने उसको केवल छला है।


मृत्युंजय की दृष्टि बात करते करते लावण्या के ऊपर पड़ी वो उसकी दशा देखकर उसके मनोभाव को समझ गया। लावण्या इस क्षण किसी भी निर्णय पर मत पहुंचो अभी तो शुरुआत है, अभी बहुत से सत्य जान ने बाकी हैं। लावण्या मृत्युंजय की बात सुन रही थी लेकिन उसने एक भी बार मृत्युंजय के मुख की ओर दृष्टि नही की। मृत्युंजय उसकी व्यथा और पीड़ा दोनो को भली भांति समझ रहा था।


लावण्या के विषय मे जानने हेतु में उसके राज्य कनकपुर पहुंचा? तुम कब कनकपुर गए थे मृत्युंजय? महाराज ने पूछा। जब में आप सबसे कहकर गया था की में पड़ोसी राज्य में जा रहा हुं राजकुमारी केलिए औषधि लाने हेतु तब। लावण्या और वृषाली दोनो को ये सुनकर आश्चर्य हुआ।


कनकपुर जाने के बाद मुझे ये ज्ञात हुआ की, लावण्या वो है ही नही जो यहां हमारे मध्य हैं। लावण्या के भी कुछ रहस्य थे जिसके विषय में जानकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था।


इसका तात्पर्य ये हैं की, मृत्युंजय को मेरे विषय में बहुत पहलेसे ही सब ज्ञात था? लावण्या विचार में पड़ गई।


लावण्या का भी रहस्य है? ओर किस किस के विषय में सत्य बताओगे मृत्युंजय? क्या इस कक्ष में ऐसा कोई हे जिसका कोई रहस्य नही हैं? राजकुमारी वृषाली पीड़ा भरे शब्दों में बोली।


मृत्युंजय वृषाली की ओर मुड़ा, उसके मुख पर एक हास्य खेल ने लगा। ऐसा लगता था की जेसे वो हास्य बहुत भेदी है। मैने कुछ क्षणों पहले जो लावण्या से कहा वो तुमसे भी कहता हुं वृषाली व्यथित न हो और संयम रखो अभी किसी निर्णय पर मत पहुंच जाओ अभी बहुत कुछ बताना, बहुत कुछ जानना और बहुत कुछ कहना शेष है।

सब मृत्युंजय के मुख की ओर देख रहे थे ऐसी परिस्थितियों में भी वो शांत था। उसका मन या ह्रदय तनिक मात्र भी विचलित प्रतीत नही हो रहाथा। उसमे सत्य ही उसके नाम के समान गुण हैं।


क्रमशः.........

में कनकपुर में जाकर वहां के राजवैध सुबोधन से जाकर मिला। वहां मेने उनसे अपनी पहचान नहीं छुपाई। मैने उनको बताया कि में महान वैदाचार्य वेदर्थी का पुत्र मृत्युंजय हुं और इस राज्य में कुछ कार्य हेतु आया हुं। मैने उनसे उनके आश्रम में ठहरने केलिए अनुमति मांगी और उन्हों ने प्रसन्न होकर मुझे वहां रहने।दिया।


मैने राजवैध सुबोधन से ये बात छुपाई की, में अभी विजयगढ़ के राजमहल से आया हुं अन्यथा मुझे जो जानकारी चाहिए थी वो नही मिलती।


में वहां आश्रम में रुका और वहां रहते शिष्यों से मित्रता करके जानकारी लेने लगा और तब मुझे पता चला की लावण्या कनकपुर के राजवैध की पुत्री नही किंतु कनकपुर की राजकुमारी हैं। मुझे जब ये सत्य ज्ञात हुआ तो मुझे ये विचार आया की, अगर लावण्या राजवैध की पुत्री नही हे तो वहां अपनी असत्य पहचान बनाके क्यूं रह रही हे?


में अपना कार्य पूर्ण करके वापस विजयगढ़ लोट आया किंतु ये सत्य मेने यहां आकर राजगुरु सौमित्र और सेनापति वज्रबाहु से नही कहा। में स्वयंम इस बात की सत्यता तक पहुंचना चाहता था।


एक दिन मुझे अवसर मिल गया तो में लावण्या के कक्ष में गया छानबीन करने हेतु के कहीं कुछ मिल जाए। किंतु मुझे लावण्या के पास से ऐसा शंकाशपद कुछ भी नही मिला किंतु सारिका के सामान में से मुझे ये विष की शीशी और ये पत्र मिला।


जहर की शिशी ओर पत्र? राजगुरु ने बड़े आश्चर्य से पूछा। हां राजगुरु। जब बाज के पंजों से वो सर्प की टोकरी हमारे हाथ लग गई तो तेजप्रताप ने सारिका तक विष पहुंचानेका एक अन्य मार्ग ढूंढ लिया।


कोनसा मार्ग मृत्युंजय? सेनापति वज्रबाहु ने पूछ लिया। तेजप्रताप ने उसी सैनिक का फिर से उपयोग किया और सर्प की बजाय विष की शीशी भिजवाई ताकि किसी को ये ज्ञात न हो की उस सर्प के विष का उपयोग यहां कोन करता हे और क्यूं करता है।


ओर इस पत्र में क्या लिखा है मृत्युंजय? महाराज ये जान ने केलिए बहुत उत्सुक थे।


इस पत्र में सारिका से ये कहा गया है की, वो इस विष का उपयोग करके राजकुमारी वृषाली के प्राण लेले और लावण्या को लेकर उस सैनिक की मदद लेकर वहां से सुरक्षित हमारे राज्य पहुंच जाए, ओर हमारे राज्य की सीमा में पहुंचते ही उस सैनिक के प्राण भी लेले ताकि कभी किसी को इस षडयंत्र के विषय में ज्ञात ना हो।


में सत्य कह रहा हुं ना तेजप्रताप सिंग? मृत्युंजय ने प्रश्न किया। तेजप्रताप ने क्रोधित होकर मृत्युंजय के सामने बड़ी बड़ी आंखों से घुरा और फिर बोला सही कहा तुमने सब योजना के अनुसार हो जाता किंतु इस सारिका ने पूरी बाजी बिगाड़ दी। उसने सारिका की ओर उंगली निर्देश करते हुए कहा।


सारिका ने बाजी बिगड़ दी? हां महाराज, मृत्युंजय ने उत्तर देना प्रारंभ किया। सारिका ने राजकुमारी वृषाली को न तो वो विष दिया और न ही उस सैनिक के प्राण लिए।क्यों सत्य है ना सारिका? मृत्युंजय ने सारिका की ओर देखा। सारिका ने अश्रुभरी आंख से मृत्युंजय की ओर देखा वो कुछ नही बोल रही थी।


जब सारिका यहां हमारे प्राण हरने हेतु ही आई थी और भेजी गईथी तो उसने मुझे वो विष क्यों नही दिया? अब इस प्रश्न का उत्तर तो स्वयंम सारिका ही दे सकती हे राजकुमारी वृषाली। बताओ सारिका तुम्हारी सखी वृषाली ये जान ने केलिए आतुर हैं की आखिर तुमने इसके प्राण क्यों नही लिए। मुत्युंजय ने सारिका की ओर देखते हुए कहा।


सारिका चुप खड़ी हे अभी उसके आंखो के अश्रु बह रहे है। राजकुमारी वृषाली से उसकी ये चुप्पी सेहन नही हो रही हे। वो उठकर सारिका के समीप गई और बोली, बताओ सखी आखिर तुमने मेरे प्राण क्यों नही लिए? क्या मुझ पर दया आ गई थी तुम्हे ? बोलो सखी बोलो। वृषाली क्रोधित होकर सारिका को पकड़कर हिला रही थी और पूछ रही थी।
दया नही तुमसे स्नेह बंध गयाथा। अचानक सारिका ने ऊपर देखा और चिल्लाते हुए कहा। तुमसे मृत्युंजय से, और.... और.... भुजंगा से। सारिका थोड़ा हिच किचाते हुए बोली। तुम सबसे मेरी मित्रता हो गई थी, में तुम सबको अपना मित्र समझकर स्नेह करने लगी थी इसलिए तुम्हारे प्राण नही लेपाई।


मित्रता की बात तुम नाही करो तो अच्छा है सारिका। तुम्हारे मुख से मित्र शब्द अच्छा नहीं लगता। हम वर्षो से इतनी अच्छी सहेलियां थी। आज तक में सोचती थी की तुम मेरी सबसे अच्छी सहेली हो किंतु तुम तो मेरे साथ विश्वासघात कर रही थी। क्यों किया तुमने ये सब क्यों?


लावण्या ये प्रश्न अपने इस पिता से पूछो। आप सबको में विश्वासघाती लगती हुं, दुष्ट लगती हुं किंतु मुझे ऐसा बनाया किसने? मैने स्वयंम तो इस नर्क जैसी जिंदगी का चयन नही किया। में जब दूध भी पीना नही सीखी थी तबसे तुम्हारे पिता ने मुझे विष पीला के विषैली विष कन्या बना दिया। सारिका तेजप्रताप के सामने हाथ उठाकर क्रोधित होकर बोल रही थी।


तुम्हारे पिता ने मुझे तुम्हारी सखी बना दिया ताकि में तुम्हारी रक्षा कर शकु। तुम्हारे पिता ने मुझे तुम्हारे संग स्वार्थ से रक्खा किंतु मैने हमेशा तुम्हे अपनी प्रिय सखी ही समझा और तुम्हारी रक्षक बनकर तुम्हारे साथ रही।


तुम्हारे सिवा मेरा इस दुनिया में और था ही कोन। किंतु जब हम यहां आए तो यहां आकर इन सबसे मुझे स्नेह हो गया। मानो मुझे नया जन्म मिल गया। दोषी में हुं इस बात से सहेमत हुं, किंतु मुझसे बड़े दोषी तो तुम्हारे पिता है सखी।


लावण्या निःशब्द होंगाई वो तेजप्रताप की ओर मुड़ी और क्रोध से उसकी ओर देखते हुए बोली, वाह पिताजी वाह दुनिया में बहुत से महान पिता हुए होंगे किंतु आपसे महान पिता इस पूरी दुनिया में दीपक लेकर ढूंढने निकलो तो भी नही मिलेंगे।


में आपको एक सुरवीर योद्धा और सबसे महान पिता समझती थी। में तो आपको ही अपना आदर्श मानकर आपके जैसी बनाना चाहती थी किंतु आपतो एक कायर और षड्यंत्रकारी निकले। आप अपनी क्रोध और प्रतिशोध की अग्नि में इतने अंध हो गए की आपने अपने षडयंत्र में अपनी पुत्री का भी उपयोग कर लिया?


यहां आते समय आपने हमसे कहा था की, हमारी सुरक्षा हेतु ये आवश्यक हे की दूसरे राज्य में किसी को ये ज्ञात ना हो की हम कनकपुर की राजकुमारी हैं इस लिए हम वहां राजवैध सुबोधन की पुत्री बनकर जाए पर हमे सत्य ज्ञात नही था की आप हमे छलकर हमारा उपयोग आपके षडयंत्र कों सफल बनाने में कर रहे हो।


लावण्या का मन पीड़ा से भर गया और वो रोते रोते जमीन पर गिर गई। उसकी पीड़ा देख वृषाली से रहा नही गया वो उसके समीप गई और उसे गले से लगा लिया, उसे शांत करने का प्रयास करने लगी।


में तुम्हारी अपराधी हुं वृषाली मुझे मृत्यु दण्ड दो। नही तुम अपराधी नहीं नही हो अपने आप को दोष मत दो। लावण्या बहुत विलाप कर रही थी।


जिस पुत्री को तेजप्रताप अपने प्राणों से अधिक स्नेह करताथा उस पुत्री की आंखो और शब्दों में अपने प्रति घृणा और नफरत को देख तेजप्रताप अब टूट ने लगा, उसे अपने आप से लज्जा आने लगी, वो अपनी पुत्री को यूं रोते बिलखते देख रहाथा किंतु उसमे इतना साहस नहीं था की वो ऊसके समीप जाकर उसे सांत्वना दे सके। या उसका सामना भी कर सके।


क्रमशः.......
 
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अपने पिता तेजप्रताप के विषय में सत्य जानकर लावण्या का ह्रदय टूट जाता है। वो रोने लगती है, विलाप करने लगती है। अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय पुत्री को इस दशा में देखकर तेजप्रताप अपने आप को लज्जित पाता है। उसे बहुत क्रोध आता है वो दौड़कर महाराज इंद्रवर्मा के पास जाता हे और उनके कमर में लटकती म्यान से तलवार खींच लेता है और महाराज इंद्रवर्मा पर वार करने की कोशिश करता हे।


ये सब पलक झपकते ही होता हे। कोई कुछ समझे उससे पहले सब हो जाता है। तभी कुमार निकुंभ मध्य में आकर महाराज इंद्रवर्मा के प्राणों की रक्षा करते हे।


तेजप्रताप बहुत क्रोधित हे वो चिल्ला रहा हे मुझे छोड़ दो में इस इंद्रवर्मा से उसके प्राण ले लूंगा, उसे जीने का कोई अधिकार नही है।


ये सब देखकर सब भयभीत हो जाते हैं की, अगर एक क्षण का भी विलंब होता और कुमार निकुंभ मध्य में आकर तेजप्रताप के वार को विफल नही करते तो कितना बड़ा अनर्थ हो जाता।


महाराज ने ऊंचे स्वर में सैनिकों को आवाज दी सैनिक दौड़ते हुए कक्ष में आए। इस अपराधी और षड्यंत्रकारी तेजप्रताप को यहां से लेकर जाओ और काराग्रह में डाल दो अन्यथा हम यहीं इस समय उसका वध कर बैठेंगे


सैनिकों ने तेजप्रताप को पकड़ लिया और बेडियो में जकड़ लिया। तेजप्रताप क्रोधित होकर खींचा तानी कर रहा है और सैनिक उसको वश में करने का प्रयास कर रहे हैं। ये दृश्य देखकर लावण्या को बहुत पीड़ा हो रही हे। उसके लिए उसका पिता आदर्श व्यक्ति था, उसने कभी स्वप्न में भी नही सोचाथा की उस पिता को वो कभी इस दशा में भी देखेंगी।


सैनिक तेजप्रताप को बेड़ियों में बांधकर घसीटते हुए कक्ष से काराग्रह की और ले जा रहे हैं इस दृश्य को देख कनकपुर के महाराज भानुप्रताप लज्जित और दुखी हैं। वो तेजप्रताप के समीप गए, तेजप्रताप उनसे आंखे नही मिला पा रहा है।


ये क्या किया तुमने तेजप्रताप? अपनी प्रतिशोध की अग्नि में इतना अंध हो गए की इस अग्नि में हमारे कुल की मान, मर्यादा, सम्मान सब जला दिया? तुमने हमारे कुल को कलंकित कर दिया? क्या आवश्यकता थी ये सब करने की?


दो राज्य परस्पर शत्रु ना बन जाए इस लिए हमारी बहन ने जिस बात को अपने ह्रदय के किसी कोने में छुपाकर रख्खी तुमने उसी बात केलिए ये नीच और घिनौना षडयंत्र रचा? तुमने हमारी बहन के त्याग और बलिदान को लज्जित कर दिया। हमारी बहन की आत्मा जहां कहीं भी होगी तुम्हे पीड़ा से देख रही होंगी।


बाल्यावस्था से हमे हमारे माता पिता और गुरुजनों से ये सिख मिली हे की, जैसे आग कभी आग नही बुझा सकती ऐसे ही प्रतिशोध की अग्नि को कभी क्रोधाग्नि शांत नही कर सकती। तुमने प्रतिशोध और क्रोध में हमारे संस्कारों को लज्जित कर दिया तुमने ऐसा क्यूं किया तेजप्रताप?


तेजप्रताप अपने जेष्ठ के प्रश्नों का उत्तर नही दे सकता था। वो लज्जित होकर कक्ष के बाहर चल पड़ा। महाराज इंद्रवर्मा हम आपके अपराधी हैं, आप हमे जो दंड दे हमे स्वीकार है, आप हमे भी कारागृह में डाल दीजिए, मृत्यु दंड दे दीजिए किंतु हमारे कारण हमारी प्रजा को दंडित मत कीजिएगा ये हमारी आपसे करबद्ध विनती है। भानुप्रताप हाथ जोड़े महाराज इंद्रवर्मा से विनती करने लगे।


महाराज अपनी जगह से तेज गति से भानुप्रताप के समीप आए, ये आप क्या कर रहे हे भानुप्रताप, जो अपराध आपने किया ही नहीं उसके लिए भला आप क्यों क्षमा मांग रहे हैं, और रही बात दंड की तो विजयगढ़ का सुनहरा इतिहास हे की उसने कभी निर्दोष व्यक्ति को दंजो हुआ उसमे आपकी एवम आपके राज्य की प्रजा की कोई गलती नही है इस लिए निश्चिंत रहिए आपको और आपकी प्रजाको ना अकारण दंडित किया जाएगा और न ही आपका राज्य आपसे छीना जाएगा।


महाराज ने उचित कहा भानुप्रताप विजयगढ़ हमेशा से न्याय प्रिय रहा है, राजगुरु ने कहा। किंतु मैं तो अपराधी हुं ना मेरे लिए क्या दंड हैं महाराज? लावण्या ने लज्जा से शीश झुकाए महाराज से कहा। हम तो न चाहते हुए भी अनजाने में ही सही किंतु अपने पिता के षडयंत्र में सम्मिलित तो गए थे कृपया हमे भी मृत्युदंड दे दीजिए।


नही पुत्री तुम तो निश्छल हो, तुमने तो पूरे मन से लगन से राजकुमारी वृषाली की दिन रात ना देखते हुए सेवा और।सहायता की है, तुम तो हमारे लिए हमारी पुत्री के समान हो। महाराज इंद्रवर्मा ने लावण्या की ओर देखते हुए कहा। महाराज इंद्रवर्मा के विशाल ह्रदय को देख सब प्रसन्न हो गए।


लावण्या तुम हमारी सखी थी और हमेशा रहोगी। हमारे मन में जो स्नेह तुम्हारे लिए ये सब ज्ञात होने से पूर्व था वही स्नेह अभी हे और रहेगा। वृषाली ने ऐसा कहते हुए लावण्या को गले लगा लिया।


क्रमशः.......
राजकुमारी वृषाली लावण्या को आश्वस्त कर रही हे की, जो कुछ भी हुआ उसमे उसका कोई दोष नही हे।

सारिका ये सब देखकर बहुत लज्जित हैं। वो अपने आपको अपराधी देख कोश रही हैं। वो मन ही मन यह विचार कर रही है की, है विधाता तुमने मेरे भाग्य में ये सब क्यूं लिख दिया? मेरे माता पिता की मृत्यु हो गई और में अनाथ हो गई, उस दुष्ट तेजप्रताप ने इस बात का लाभ उठाया और मुझे विष देकर पाला। में उसी क्षण क्यूं मर नही गई जब उस राक्षस ने मुझे प्रथम बार विष दिया।


तभी उसके कानों में महाराज के बोल सुनाई दिए, सैनिकों इस विष कन्या सारिका को भी ले जाओ और काराग्रह में डाल दो महाराज ने ये आज्ञा की।


ठहरिए पिताजी ये उचित नहीं होगा। जो हुआ उसमे सारिका का अपराध केवल इतना ही था की वो एक सेविका थी उसने ऐसा किया जैसा उसे उसके स्वामी ने करने को कहा। उसने तो अपने खुद केलिए ऐसे नर्क जैसे जीवन का चयन नही किया है ना पिताजी।


अगर सारिका चाहती तो मुझे विष देकर मारकर यहां से पलायन हो जाती, फिर कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता था किंतु उसने ऐसा नहीं किया। सारिका ने मुझे केवल सखी मुख से ही नहीं कहा है किंतु अपने ह्रदय से माना है।


उसने मेरी सेवा और सहायता हर क्षण की है तो वो अपराधी कैसे हुई पिताजी? मेरा आपसे अनुरोध है की आप मेरी सखी को दंड न दे वो पहले ही बहुत भुगत चुकी हे। वृषाली अपने पिता के सामने हाथ जोड़े विनती कर रही हैं।


किंतु राजकुमारी आप ये ना भूले की वो एक विष कन्या हैं। वो अन्य मनुष्य केलिए असुरक्षित हे। राजगुरु ने कहा।


मृत्युंजय तुम तो बहुत बड़े वैध हो और वेदशास्त्री भी क्या तुम्हारे शास्त्रों में ऐसा कोई उपचार हैं जो मेरी सखी सारिका को विष से मुक्त करदे? अवश्य हे राजकुमारी। तो क्या तुम हम पर एक और उपकार करोगे? हमारी सखी को विष से मुक्ति देकर हमारे जैसी बना दोगे? राजकुमारी ने कहा।


अवश्य वृषाली अगर सारिका चाहती है तो ये अवश्य हो सकता हैं। समय लगेगा, कठिन भी है किंतु सारिका की इच्छा होगी तो हो जायेगा। विष मुक्ति उपचारसे ये संभव हे।


मृत्युंजय की बात सुनते ही वृषाली और लावण्या दोनो के मुख पर प्रसन्नता छा गई। दोनो जाकर सारिका से लिपट गई। सारिका मौन थी उसे समझ ही नही आ रहा था की दुखी हो या प्रसन्न हो।


वैसे लावण्या तुम्हे ये ज्ञात हे की इस कक्ष में हमारे अतिरिक्त कोई और भी उपस्थित हे जो मृत्युंजय की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हे। अच्छा सखी, ओर वो कोन हैं? लावण्या और वृषाली भुजंगा की और देखते हुए सारिका का उपहास करने लगी। भुजंगा के मुख पर प्रसन्नता की रेखाए उभर आई।


अपनी पुत्री को प्रसन्न देख महाराज इंद्रवर्मा भी बहुत प्रसन्न थे। उन्हों ने सारिका को क्षमा कर दिया। सब प्रसन्न थे एक सेनापति वज्रबाहु को छोड़कर। उनकी आंख से अश्रु छलक रहेथे।


मृत्युंजय तुम हमे उस सैनिक के विषय में बताओ जिसने राजद्रोह किया और तेजप्रताप के षडयंत्र में उसकी सहायता की।


वो सैनिक भी अपराधी नही हे महाराज। तुम कहना क्या चाहते हो मृत्युंजय, उसने हमारे विरुद्ध षडयंत्र करने में हमारे शत्रु का सहयोग किया और तुम कहते हो की वो निर्दोष हैं?उसने अपनी इच्छा से ये कार्य नहीं किया था महाराज। सेनापति वज्रबाहु ने कहा। इसका क्या तात्पर्य वज्रबाहु? महाराज अधर्मी तेजप्रताप ने उसकी पत्नी और दो बालकों को अपने वश में करकर उससे यह कार्य कराया था। लावण्या ने उसे मारा नही था किंतु तेजप्रताप से असत्य लिख दिया था की उसने उस सैनिक को मृत्यु देदि हे तब उसने उसकी पत्नी और बालकों को मुक्त कर दिया।


वो सैनिक अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर यहां से दूसरे राज्य में चला गया किंतु अपने महाराज और अपने राज्य के विरुद्ध षडयंत्र में साथ देने की वजह से उसकी आत्मा उसे कचोटती थी और उसने आत्महत्या करली।


आत्महत्या करली? इस अधर्मी तेजप्रताप ने कितने अनुचित कार्य किए हे। महाराज बोल पड़े। लावण्या की आंखे भी लज्जित हो गई।


हमे गर्व हे हमारे ऐसे सिपाहियो पर। वज्रबाहु उसकी पत्नी और बच्चों के भरण पोषण का दाईत्व हम लेते हैं। महाराज की बात सुनकर उपस्थित सब लोग उनके विशाल ह्रदय को देख प्रसन्न हो गए।


कक्ष में उपस्थित सब प्रसन्न हे किंतु एक सेनापति वज्रबाहु ही है जो दुखी हैं। मृत्युंजय ने सेनापति वज्रबाहु के मुख की ओर देखा तो उसने उनकी पीड़ा को समझ लिया वो उनके समीप गया। मृत्युंजय को अपने समीप देख सेनापति वज्रबाहु ने अपने पीड़ा के भाव को छुपा नेका प्रयत्न किया और मुख पर हास्य लाने का प्रयास किया।


धन्यवाद मृत्युंजय आज तुम्हारी चतुराई और सतर्कता के कारण ही राजमहल में हो रहे इस षडयंत्र का पता चला और कोई बड़ी अनहोनी घटना नहीं घटी। में किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करु समझ नही आ रहा मुझे। तो मत कीजिए ना धन्यवाद, ये तो मेरा कर्तव्य था जो मैने निभाया है।


सेनापति वज्रबाहु चुप थे। मृत्युंजय ने उन्हें आश्वस्त करनेका प्रयत्न शुरू किया। सेनापति वज्रबाहु आप अपना दिल छोटा मत कीजिए विधाता जो करता हे अच्छे केलिए करता है और धीरे धीरे सब पुनः ठीक हो जायेगा।


सत्य कहा तुमने मृत्युंजय किंतु इन सब में मेरी पुत्री का असमय स्वर्गारोहण केसे अच्छा हो सकता है? और सब ठीक कैसे होगा, मेरी पुत्री तो अब वापस नही आएंगी ना? ब्रजबाहु की आंखे छलक गई।


में आपकी पीड़ा समझ सकता हुं किंतु फिर भी पुनः आपसे कहता हुं की विधाता पर विश्वास रखिए। इतना कहकर मृत्युंजय थोड़ी दूर खड़े भुजंगा के पास जाकर खड़ा हो गया।


वो कहते हे ना अंत भला तो सब भला। अब सब भेद खुल गए, सारे रहस्य बाहर आ गए। अब न कोई षडयंत्र है ना कोई छल बस अब महल में सब मंगल ही मंगल हे, है ना पिताजी। वृषाली ने प्रसन्नता से कहा।


सब रहस्य से पर्दा नहीं उठा हे वृषाली अभी कुछ रहस्य और कुछ भेद शेष हैं। मृत्युंजय ने वृषाली की बात का उत्तर दिया। सब को आश्चर्य हुआ अब कोन से रहस्य से पर्दा उठना रह गया है, ओर तुम किस भेद के विषय में बात कर रहे हो मृत्युंजय। वृषाली मृत्युंजय के समीप गई।


अभी मेरे विषय में भी कुछ रहस्य खुल ने शेष हैं वृषाली। मृत्युंजय की बात सुनकर सबके ह्रदय को जेसे धक्का लगा। राजगुरु सौमित्र की तो सांस रुक गई। मृत्युंजय ऐसे पहेलिया ना बुझाओ विस्तार से कहो मेरा ह्रदय बैठा जा रहा है। राजगुरु सौमित्र तेजगति से मृत्युंजय के समीप गए और बोले।


क्रमशः.......
जैसे ही मृत्युंजय ने ये बात सबके सामने रखी के उसके विषय में भी कुछ भेद हैं सबकी सांस मानो भारी सी हों गई। इतने सारे रहस्य जानने के पश्चात अब कोई और भेद या रहस्य? अब कोई और कड़वे सत्य का सामना करने का किसी में जैसे सामर्थ्य ही नही रहा था। सब चिंतित हो गए की मृत्युंजय अब किस रहस्य से पर्दा उठाएगा।


मृत्युंजय अब ऐसा मत कहना की तुम मेरे मित्र वेदर्थी के पुत्र नही हो और तुमने हम सबसे ये असत्य कहा था। राजगुरु ने बड़े व्याकुल होकर कहा। मृत्युंजय ने राजगुरु सौमित्र की ओर देखा और मंद मुस्कान के साथ कहा, बस थोड़ी धीरज धरिए राजगुरु।


में आप सबसे करबद्ध ये अनुरोध करता हुं की आप सब अपने आसन पर बिराज जाए और मेरी बात को सुने। विश्वास रखिए मैने जाने अनजाने में भी यहां किसी का अहित नहीं किया बस कुछ क्षण केलिए धीरज धरें ओर में जो कहने जा रहा हुं उसे सुने। मृत्युंजय ने हाथ जोड़कर सबसे विनती की।


कक्ष में उपस्थित सबके मन में जिज्ञासा थी की मृत्युंजय क्या कहेगा और ये भय भी था की ईश्वर करे कोई भी ऐसी बात न हो जिससे अब किसी के भी ह्रदय को ठेस पहुंचे। लावण्या और वृषाली बहुत व्यथित हैं। निकुंभ भी बहुत विचलित हो गया है की ऐसी क्या बात होगी।


सब ने अपना अपना आसन ग्रहण किया। मृत्युंजय सामने खड़ा था। आप सबसे में इतनी विनती करता हुं की मेरी बात पूर्ण न हो जाए तब तक मेरे विषय में अपने लिए कोई भी राय न बना लीजिए। मृत्युंजय ईश्वर केलिए शीघ्र बात प्रारंभ करो निकुंभ ने कहा। मृत्युंजय ने उसके सामने देखकर कुछ नही कहा सिर्फ मुस्कुराया।


तो सुनिए। जैसे की आप सब को मेने अपने विषय में परिचय देते हुए कहा था की में महान वैद्याचार्य वेदर्थी का पुत्र मृत्युंजय हूं इस बात में कुछ भी असत्य नहीं हैं, यह संपूर्ण सत्य हैं। मृत्युंजय के मुख से यह बात सुनकर राजगुरु सौमित्र की सांस की गति थोड़ी धीमी हुई। उन्हों ने राहत की सांस ली।


मैं यहां राजकुमारी के उपचार हेतु आया हुं ये भी सतप्रतिशत सत्य हैं। तो फिर रहस्य का है मृत्युंजय? वृषाली ने मध्य ही विचलित होकर प्रश्न पूछा। शांत वृषाली, थोड़ी धीरज धरो। में पूर्ण बात विस्तार से बताता हुं।


जब मेरे पिता की मृत्यु हुई तो उससे पूर्व उन्होंने मुझे एक पत्र और साथ अंगूठी देकर कहा की ये मेरे परम मित्र, और विजयगढ़ के राजगुरु सौमित्र तक पहुंचा देने ये मेरी अंतिम इच्छा है पुत्र। मैने उनकी इच्छा को शिरोधार्य रक्खा, सोचा शीघ्र ही पिताजी की ये अंतिम इच्छा को पूर्ण करूंगा किंतु कुछ कार्यों में व्यस्त हो गया और यहां राजगुरु सौमित्र तक पहुंच नही पाया। इस बात की पीड़ा मुझे हमेशा रहती।


एक दिन की बात है में और भुजंगा अपने गांव के समीप एक गांव हे वहां एक व्यक्ति के उपचार हेतु गए थे। हमे वापस लोट ने में बहुत देरी हो गई। हम जंगल के मार्ग से चलते चलते घर वापस लोट रहे थे। मंगल बेला हो गई थी।


तभी हमारे कान में किसी का पीड़ा से भरा स्वर सुनाई दिया। आवाज बहुत धीमी थी और ऊपर से अंधकार। हमने उस पीड़ा से भरे स्वर को खोजने का प्रयास किया तो कुछ समय के बाद हमे झाड़ियों के बीच एक कन्या पड़ी हुई दिखाई दी। वो बहुत जख्मी थी, ऐसा लगता था की उसे बहुत प्रताड़ित किया गया है ओर जान से मारने का हमने उस कन्या को अपने साथ ले लिया और हमारे घर ले गए। उस कन्या की जीवित रहने की कोई आशा नहीं थी। मैने और भुजंगा ने उसका उपचार प्रारंभ किया। बहुत दिनों तक वो यूंही मूर्छा में ही रही। उसके शरीर पर बहुत घांव थे धीरे धीरे वो भरने लगे। हमे आशा बंधी की वो मूर्छा से अवश्य बाहर आएगी।


एक दिन वो कन्या मूर्छा से बाहर आ गई। हमे बहुत प्रसन्नता हुई ये देखकर। हमे लगा की अब वो कन्या हमे अपने विषय में बताएगी की वो कोन हे, और उसके साथ क्या घटना हुई थी। किंतु वो कन्या तो सब भूल चुकी थी। उसे अपने स्वयंम के विषय में कुछ भी ज्ञात नही था। दिन बीत रहे थे, में और भुजंगा उसका उपचार कर रहे थे। हमने उसे एक नाम दीया वनदेवी क्यूं की वो हमे वन में मिली थी।


एक दिन में और भुजंगा जब घर पहूंचे तो हमने देखा की, वो घर की एक दीवार पर कुछ बीज और पर्नो का रंग निचोड़कर एक पंख की सहायता से चित्र बना रही हैं। हमे ये देखकर बहुत आश्चर्य हुआ की उसने अपना और एक अपनी ही जैसी दूसरी कन्या का चित्र बनाया।


हमने वनदेवी से पूछा की ये किसका चित्र हैं? तुम्हारे साथ ये कन्या कोन है किंतु उसे कुछ भी याद नहीं था। वो हमेशा बैठकर उस चित्र को ही निहारती रहती। वो चित्र इतना सुंदर था की उसके विषय में सैंकड़ों कविताएं लिखी जा सकती थी।


वनदेवी के साथ जो दूसरी कन्या थी मुझे उसका चित्र देखते ही उससे प्रेम हो गया। में उस चित्र में बनी कन्या के रूप से मोहित हो गया। मुझे उस चित्र में बनी कन्या को एक बार अपने नेत्रों से साक्षात देखने की इच्छा हो रही थी। मृत्युंजय के मुख से ये बात सुनकर लावण्या और वृषाली दोनो को बहुत धक्का लगा।


ऐसे ही कुछ और दिन बीत गए और एक दिन अचानक वनदेवी हमारे पास दौड़कर आई। उसको सब याद आ गया था। वो कोन है, कहां से आई हैं और उसकी ये दशा कैसे हुई ये सब उसने हमे विस्तार से बताया। वो सब सुनकर हम आश्चर्य में पड़ गए।


वनदेवी ने ऐसा क्या बताया, और उस बात का हमारे राजमहल और राज्य से कोई संबध है मृत्युंजय? महाराज ने अधीर होकर पूछा।


हां मृत्युंजय कोन थी वो वनदेवी? उसने अपने विषय में तुम से क्या कहा? वृषाली की अधीरता भी बढ़ गई थी।


क्रमशः........
 
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वनदेवी के विषय में जान ने केलिए सब उत्सुक थे। वृषाली मृत्युंजय से पूछती है की, कोन थी वो वनदेवी?


मृत्युंजय जरासा मुस्कुरूया ओर बोला, वो वनदेवी और कोई नही वो हैं हमारे प्रधान सेनापति वज्रबाहु की पुत्री और वृषाली तुम्हारी सखी चारूलता।


मृत्युंजय ने जैसे ही चारूलता का नाम अपने मुख से लिया, सेनापति वज्रबाहु अपने आसन से उठ गए। क्या कहा मृत्युंजय तुमने? मेरी बेटी चारूलता जीवित है? वो कहां हैं? किस दशा में है? सेनापति वज्रबाहु इतने प्रसन्न हो गए की उनकी आंख से अश्रु बहने लगे।


वृषाली भी खुद को रोक नही पाई। हां मृत्युंजय बताओ मेरी सखी कहां हैं? मुझे सीघ्र ही उसके पास ले जाओ कहकर मृत्युंजय का हाथ पकड़कर कक्ष के द्वार की ओर ले जाने लगी।


थोड़ी धीरज धरो वृषाली इतनी अधीर मत बनो। मृत्युंजय ने वृषाली के हाथ से अपने हाथ को छुड़ाते हुए कहा।


मृत्युंजय ने आगे की बात कहना शुरू किया। चारूलता जीवित हैं ये सुनकर कक्ष में उपस्थित सब के मुख पर प्रसन्नता छा गई। लावण्या ने भी मन में ईश्वर का धन्यवाद किया, हे ईश्वर तुम्हारा धन्यवाद तुमने मेरे पिता को एक कन्या की हत्या करने के पापकर्म से बचा लिया।


वनदेवी ने हमे बताया की केसे उसका अज्ञात व्यक्तियों द्वारा अपहरण किया गया और उसे जान से मारने का प्रयास। अपहरण कर्ता ने वनदेवी को मृत समझकर वहीं झाड़ियों में छोड़ दिया।


उसने बताया की वो विजयगढ़ के प्रधान सेनापति वज्रबाहु की पुत्री हैं और उसके संग चित्र में जो है वो महाराज इंद्रवर्मा की पुत्री राजकुमारी वृषाली हे जो अभी मूर्छित हैं। वनदेवी की बात सुनकर मुझे और भुजंगा को ये प्रतीत हो गया की जरूर राजमहल में महाराज के विरुद्ध कोई षडयंत्र चल रहा है और बस हम दोनो फिर यहां आए।


मुझे अपने पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण करने केलिए राजगुरु सौमित्र से भेंट करने कभी न कभी आना ही था ऊपर से ये दूसरा कारण मिल गया इस राज्य में आने का।


तो क्या मृत्युंजय जिस चित्र वाली कन्या के प्रेम में पड गया था वो मैं थी। राजकुमारी वृषाली के मुख पर इस विचार मात्र से ही लालिमा छा गई। वो मृत्युंजय के मुखंके सामने देख रही थी।


मृत्युंजय ने राजकुमारी वृषाली की आंखों में देखा, दोनों की अखियां मिली और मुख पर प्रसन्नता छा गई। वृषाली ने हस्ते हुए शर्माकर दृष्टि नीचे करली। यही वृषाली के प्रेमका स्वीकृति करण था।


लावण्या के ह्रदय में जैसे तेज पीड़ा उठी, वो टूट गई उसकी आंखो से अश्रु बहने ही वाले थे की उसने चुपके से उसे रोक लिया। सारिका ने लावण्या की ओर देखा, उससे लावण्या की पीड़ा छुपी नहीं थी। उसको ज्ञात था की भले लावण्या मुख से कुछ कहती नही हे किंतु वो मृत्युंजय से प्रेम करती हैं। लावण्या ने सारिका को आंख से ही इशारा कर दिया की अब कभी इस बात के विषय में किसी से कुछ मत कहना।


महाराज इंद्रवर्मा और राजगुरु भी ये जानकर विष्मित थे। कोई कुछ भी कह नहीं रहा था। सब मौन थे।


मृत्युंजय तुमने इस राज्य केलिए जो कुछ भी किया हे इसके लिए हम सब और आने वाली पीढ़ियां भी तुम्हारी ऋणी रहेंगी। ये कहते हुए राजगुरु सौमित्र ने मृत्युंजय का आभार किया।


राजगुरु सत्य कहे रहे हैं मृत्यंजय, हम तुम्हारे जीवन पर्यंत ऋणी रहेंगे। तुमने हमारे राज्य की ओर हमारी दोनो पुत्रियो के जीवन की रक्षा की है में किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करु?


ऐसा कहेकर मुझे लज्जित न करे राजगुरु और महाराज। मैने तो केवल अपने कर्तव्य का पालन किया हैं। तुम सत्य ही धन्य हों मृत्युंजय, कहो हम तुम्हे क्या भेंट करे इस उपकार के बदले?


क्षमा कीजिए महाराज किंतु मैने कोई भी कार्य किसी भी लालसा से नही किया हैं। मृत्युंजय ने हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा। हमे गर्व हे तुम पर मृत्युंजय की तुम हमारे मित्र वेदर्थी के पुत्र हो। जैसा यशश्वी मेरा मित्र था ऐसे ही तेजश्वि तुम हो। ईश्वर सदैव तुम्हारी रक्षा करें। राजगुरु की आंखों में गर्व हे मृत्युंजय के प्रति।राजगुरु अगर आप अनुमती दे और अगर कुमारी वृषाली को ये स्वीकार्य हो तो हम राजकुमारी वृषाली का विवाह मृत्युंजय से करना चाहते हैं। महाराज ने अपने मन की बात सबके मध्य रखी।


मृत्युंजय से उचित वर राजकुमारी वृषाली केलिए अन्य कोई हो ही नही सकता महाराज। राजगुरु ने प्रसन्नता से शीघ्र ही अपनी अनुमति दे दी।


तुम्हारा क्या अभिप्राय है वृषाली? महाराज ने वृषाली की ओर देखते हुए प्रश्न किया। ये प्रश्न सुनते ही वृषाली के मन के आंगन में जैसे हजारों मोर नाचने लगे। उसका ह्रदय हर्ष से भर गया। उसने अपने मन के भाव को बड़ी कुशलता से छिपाया।


पिताजी हमे ये नया जीवन मिला है वो मृत्युंजय के कारण ही मिला है। मेरे जीवन पर प्रथम किसी का अगर अधिकार है तो वो मृत्युंजय का ही है आगे आप ओर राजगुरु जैसा उचित समझे। राजकुमारी वृषाली ने बड़ी चतुराई से अपनी स्वीकृति दे दी।


मृत्युंजय क्या तुम हमारी पुत्री राजकुमारी वृषाली से विवाह करोगे ? महाराज ने मृत्युंजय के सामने हाथ जोड़कर विनती भरे स्वर में ये प्रस्ताव रक्खा।


हाथ जोड़कर मुझे लज्जित न करे महाराज। क्षमा कीजिए महाराज किंतु में राजकुमारी के योग्य वर नही हुं। ये सत्य हैं की मुझे राजकुमारी वृषाली का चित्र देखते ही उससे प्रेम हो गया था किंतु कहां वो महलों में रहने वाली राजकुमारी और कहां में वन में भटकने वाला ब्राह्मण? हमारा कोई मेल नहीं हे।


मृत्युंजय की बात सुनकर सबको आश्चर्य हुआ। भुजंगा तो हैरान रह गया ये सुनकर, अरे मृत्युंजय राजकुमारी वृषाली से इतना प्रेम करता हे फिर क्यों विवाह केलिए ना कह रहा है?


मृत्युंजय राजकुमारी वृषाली हमारी एकलौती संतान हे इस लिए ये पूरा राज्य उसिका और उसके पति का ही होगा। इस लिए मेरे बाद मेरे राज्य के उत्तराधिकारी तुम बनोगे मृत्युंजय।


क्षमा कीजिए महाराज किंतु दान में मिले राज्य से राजा नही बना जा सकता, और ये मेरे सिद्धांतो के विरुद्ध होगा। ऊपर से में ठहरा वनवासी ब्राह्मण मुझे ये राज्य और महल नही भाते। आपके राज्य का सच्चा उत्तराधिकारी तो निकुंभ है। वो आपके अनुज का पुत्र है इस लिए वही इस राज्य का सच्चा वारसदार हैं मृत्युंजय ने विवेक के साथ अपनी बात कह दी।


मृत्युंजय की बात सुनकर सब दुविधा में पड़ गए। लावण्या, सारिका, भुजंगा, निकुंभ सब चिंतित हो गए की, वृषाली और मृत्युंजय दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं किंतु इस परिस्थिति में अब उनका विवाह केसे होगा? क्या उनको हमेशा केलिए अलग होना पड़ेगा। इस विचार मात्र से सबका ह्रदय विचलित हो गया।

मृत्युंजय की बात सुनकर सब चिंतित हो गए की इस दुविधा का मार्ग कैसे निकले।


तुम राजमहल में नही रहे सकते तो कोई बात नही मृत्युंजय मैं तुम्हारे साथ वन में रहूंगी। जहां तुम वहां मैं। तुम्हारे साथ चलने में मुझे बहुत आनंद मिलेगा। वृषाली ने कहा।


वो इतना आसान नहीं है वृषाली जितना तुम समझती हों। तुमने अभी राजमहल से बाहर की दुनिया देखी नही है। जीवन बहुत कठिनाइयों से भरा हुआ है।


जीवन में अगर प्रिय पात्र ना हो तो भी जीवन कहां सरल और सुखद होता है मृत्युंजय? वृषाली ये सब कहने में और सहेने में बहुत अंतर होता हैं। कोई बात नही वो अंतर साथ मिलकर कम कर लेंगे। वृषाली भावनाओ में बहेकर जिंदगी के निर्णय नही लिए जाने चाहिए। तो हर क्षण, और हर एक कदम पर डरके भी तो जीवन नही जीया जाता मृत्युंजय।


मृत्युंजय और वृषाली के बीच चर्चा छिड़ गई हैं। बाकी सब उन दोनो को केवल सुन रहे हैं। दोनो का वार्तालाप सुनकर महाराज ने मध्य में ही दोनो को रोका।


आप दोनो सत्य कहे रहे हैं। मृत्युंजय में तुमसे बस इतना कहना चाहता हुं की मेरी पुत्री का मन तुम्हारे साथ जुड़ गया हैं, और जब एक स्त्री का मन किसी पुरुष के संग जुड़ जाता हे तो वो उसके साथ किसी भी परिस्थितियों में निभाव कर लेती है। मुझे अपनी पुत्री पर पूर्ण विश्वास है की वो तुम्हारे साथ कदम से कदम मिलाकर चलेगी तुम्हे कभी निराश नहीं होना पड़ेगा।


पुत्री मुझे गर्व है तुम पर। महाराज सत्य कह रहे हे मृत्युंजय मान जाओ। राजगुरु ने कहा। ठीक हे जैसी आप सभी की इच्छा। मृत्युंजय के मुख से स्वीकृति सुनते ही सब प्रसन्न हो गए सब मित्र गले लगे और अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।


वृषाली बहुत बहुत प्रसन्न है। वो मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद कर रही है। लावण्या और सारिका वृषालिंके समीप आई और उसे गले लगाकर बधाई देने लगी। ईश्वर करे तुम हमेशा यूंही प्रसन्न और स्वस्थ रहो, मेरी सखी को किसी की भी नजर न लगे। लावण्या ने वृषाली को गले से लगा लिया।


महाराज इंद्रवर्मा ईश्वर की कृपा से अब सब कुशल मंगल हो गया हे तो अब हमे प्रस्थान करने की अनुमति दे। महाराज भानुप्रताप ने अनुरोध किया। अरे अभी तो हमने आपका अतिथि सत्कार भी नही किया और आप विदाई की बात कर रहें हैं? आप को कुछ दिन हमारा अतिथि बनकर राजमहल में रहना होगा। महाराज ने आग्रह किया। महाराज सत्य कह रहे हैं भानुप्रताप सिंग। राजगुरु ने भी कहा।


इतना सब होने के बाद भी आपने हम पर और हमारे राज्य पर जो उपकार किया हे वही बहुत है महाराज अब रुक ने को मत कहिए। जैसी आपकी इच्छा भानुप्रताप हम आपके ऊपर कोई दबाव नहीं डालेंगे।


एक और विनती है आपसे महाराज इंद्रवर्मा, जी कहिए भानुप्रताप। अगर आप आज्ञा दे तो हम हमारी पुत्री लावण्या को भी अपने साथ वापस ले जाएं। भानुप्रताप ने बिनती करते हुए कहा।


इसमें हमारी अनुमति की क्या आवश्यकता, आपकी पुत्री है, आपकी धरोहर है अवश्य लें जाए। आपका बहुत बहुत धन्यवाद महाराज।


नही मेरी सखी लावण्या और सारिका कहीं नहीं जाएगी वो यही कुछ दिन हमारे साथ रहेंगी। किंतु वृषाली.... किंतु, परंतु कुछ नही लावण्या तुम यहीं हमारे साथ रहोगी ये हमारी तुमसे आज्ञा है। वृषाली ने अभिनय करते हुए कहा। आपकी आज्ञा शिरोधार्य सखी लावण्या ने कहा ओर तीनो हसने लगी। बस अब में तो उस क्षण की प्रतीक्षा में हूं की कब मेरि सखी चारूलता भी राजमहल वापस आयेंगी और में उसे अपने गले लगाऊंगी।


अच्छा तो अब हमे आज्ञा दे महाराज। ठीक हे आप प्रस्थान कीजिए भानुप्रयाप सिंग। ठहरिए महाराज भानुप्रताप, मृत्युंजय ने प्रस्थान कर रहे महाराज भानुप्रताप को रोक लिया। सबको ये देखकर आश्चर्य हुआ। एक क्षण केलिए सबके मन में ये विचार आया कि, अब मृत्युंजय और क्या कहेगा।


जी कहिए, आप हमसे कुछ कहना चाहते हैं मृत्युंजय? हां महाराज भानुप्रताप सिंग।


मृत्युंजय लावण्या के पास गया, लावण्या में तुमसे कुछ कहना चाहता हुं। कहो मृत्युंजय मुझे कुछ कहने केलिए तुम्हे मेरी अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है।

क्रमशः.........लावण्या हम सब मित्र बहुत दिनो से एक साथ यहां राजमहल में साथ रह रहे हैं, एक दूजे को अब अच्छे से पहचान भी गए हैं। हां तो क्या मित्र? मृत्युंजय तुम्हे जो भी कहना हैं सीधे सीधे कह सकते हो, भूमिका बांधने की आवश्यकता नहीं है।


मृत्युंजय मुस्कुराया, यही पहचान होती हे अच्छे और सच्चे मित्र की वो जान ही लेता है की सामने वाला मित्र उससे कुछ कहने में हीच कीचा रहा है। हां सखा।


लावण्या राजकुमार निकुंभ तुमसे बहुत प्रेम करते है, जिस दिन उन्हों ने तुम्हे प्रथम बार देखा तबसे। ये बात सिर्फ हम दोनो को ज्ञात है, में तुम दोनो का मित्र हुं इस नाते में तुम्हारे आगे अपने मित्र का प्रस्ताव लेकर आया हुं क्या तुम उनसे विवाह करोगी?


मृत्युंजय की बात सुनकर सबके मन में प्रसन्नता हुई। लावण्या के मस्तिष्क पर जेसे कोई प्रहर हुआ हो ऐसे वो कुछ क्षण केलिए सुन हो गया। उसने कभी इस विषय में स्वप्न में भी नही सोचा था। उसे समझ नही आ रहा था की वो क्या प्रतिक्रिया दें।


कुछ क्षणों केलिए वो चुप रही जैसे उसके मस्तिष्क में कुछ चल रहा हो फिर उसने अचानक चुप्पी तोडी, हां मृत्युंजय मुझे ये विवाह प्रस्ताव स्वीकार हैं। लावण्या के मुख से ये बात सुनते ही वृषाली प्रसन्नता से उछल पड़ी और लावण्या के गले लगकर बोली अब मेरी सखी हमेशा मेरे साथ रहेंगी मेरी भाभी बनकर इस से और प्रसन्नता की बात मेरे लिए कुछ हो ही नही सकती।


सबको ये बात जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। महाराज इंद्रवर्मा ने महाराज भानुप्रताप से लावण्या का हाथ निकुंभ केलिए मांगा। आपने इतना कुछ होने के पश्चात भी लावण्या को अपने कुल की कुलवधु बनाना स्वीकार किया इसलिए में आपका सदैव सेवक बनकर रहूंगा। भानुप्रताप ने कहा। लावण्या बड़े किस्मत वाली हे जो आपके कुल की कुल वधु बन ने जा रही हैं।


निकुंभ को समझ नही आ रहा हैं की वो इस अपार प्रसन्नता के भाव को कैसे सैयाम में रखे। राजमहल में अब एक के बाद एक खुशियां ही खुशियां आ रही देख सब का ह्रदय प्रसन्नता से भर गया था।


एक सारिका के ह्रदय में पीड़ा थी, क्योंकि वो जानती थी की लावण्या मृत्युंजय से प्रेम करती थी। फिर उसने सोचा की लावण्या केलिए मृत्युंजय के अलावा अगर कोई योग्य वर हे तो वो राजकुमार निकुंभ ही हो सकता हैं। उसे इस बात की प्रसन्नता थी की मेरी सखी एक बड़े राज्य की वधु बनेगी और सुरविर योद्धा की पत्नी।


सब प्रसन्न होकर एक दूसरे को बधाईयां दे रहे थे। पूरे कक्ष का वातावरण मंगलमय हो गया था। तभी राजगुरु सौमित्र ने महाराज से कहा, महाराज मुझे भी आपसे कुछ कहना हैं। फिर सबके मन अधीर हो गए अब राजगुरु क्या कहना चाहते है?। राजगुरु के मुख की गंभीरता से ये स्पष्ट था की वो जो भी कहने जा रहे हैं वो बात निश्चित ही अगत्य होगी। सब वो बात जान ने केलिए जिज्ञासु थे।


क्रमशः........
 
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विष कन्या -- अंतिम भाग


राजगुरु क्या कहना चाहते हैं ये जान ने की सबको बहुत जिज्ञासा थी।


महाराज आप जानते हो की अब मेरी आयु हो गई हैं। मुझ पर राजगुरु और गुरुकुल के प्रधान आचार्यपद दोनो पद का भार है, किंतु अब में गुरुकुल के अचार्यपद से निवृत्त होना चाहता हुं। अब मैं राज, काज छोड़कर आध्यात्म की ओर प्रयाण करना चाहता हुं अतः मेरी आपसे ये विनती हे की मुझे गुरुकुल के आचार्यपद से निवृत्त करें।


राजगुरु की बात सुनकर महाराज, सेनापति वज्रबाहु, वृषाली, मृत्युंजय सबको थोड़ा धक्का लगा। ये क्या कह रहे हे आप राजगुर आप निवृत्त होना चाहते हैं? आपको ज्ञात है ना की आपके बिना ये राजमहल और गुरुकुल दोनो अपूर्ण है कृपया आप निवृत्त होने की बात मत कीजिए। महाराज ने राजगुरु से हाथ जोड़कर विनती की।


में राजगुरु के पद से निवृत्त नही हो सकता किंतु मुझे गुरुकुल के पद से निवृत्त कर दीजिए ये मेरे लिए और हम सबके लिए अच्छा होगा।


किंतु आपके बिना गुरुकुल चलाएगा कोन? आपसे अच्छा और आपसे बढ़कर आचार्य गुरुकुल को और नही मिलेगा इसलिए आप शिष्यों केलिए ही आचार्यपद का त्याग मत कीजिए।


ऐसा किसने कहा की मुझसे अच्छा आचार्य गुरुकुल को और नही मिलेगा? परिवर्तन श्रृष्टि का नियम है, यहां कोई भी हमेशा केलिए सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि नही रहता। "बहु रत्ना वसुंधरा" पृथ्वी पर हजारों एक से बढ़कर एक रत्न हैं। राजगुरु ने कहा।


किंतु हम गुरुकुल केलिए आप जैसा महान ज्ञानी आचार्य कहां से लायेंगे राजगुरु। महाराज मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति हैं जो मुझसे भी बढ़कर है। ऐसा कोन है राजगुरु कृपया बताए। मृत्युंजय.... मृत्युंजय गुरुकुल के आचार्यपद केलिए सर्वथा उचित है।


राजगुरु के मुख से मृत्युंजय का नाम सुनकर सबको अच्छा लगा। इस पद हेतु में मृत्युंजय का चयन करता हुं महाराज। राजगुरु में आपकी बात से सहमत हुं, सेनापति वज्रबाहु ने कहा।


महाराज अभी बिना कुछ कहे चुप है। आपकी क्या राय हैं महाराज? राजगुरु ने प्रश्न किया। आपका चयन कभी अनुचित हो ही नही सकता राजगुरु किंतु मृत्युंजय को ये पद स्वीकार्य होगा?


तुम क्या सोचते हो मृत्युंजय इस विषय में? राजगुरु ने मृत्युंजय के समीप जाकर उससे पूछा। में आपके जितना योग्य तो अभी नहीं हुं राजगुरु। देखो मृत्युंजय तुमने राज्य का महाराज पद लेने से मना किया क्योंकि वो तुम्हे भेंट में मिल रहा था, किंतु गुरुकुल का आचार्यपद तुम्हे तुम्हारी योग्यता से मिल रहा है।


गुरुकुल को तुम्हारे जैसे ज्ञानी और सुलझे हुए आचार्य की आवश्यकता है इसलिए मैं तुमसे ये अनुरोध करता हुं की इस पद का स्वीकार कर लो।


अगर आपको ये उचित लगता हे तो ठीक है मुझे ये पद स्वीकार्य हैं। मृत्युंजय की स्वीकृति से सब प्रसन्न हो गए।


समय अपनी गति से बीतने लगा। शुभ मुहूर्त में राजकुमारी वृषाली का विवाह मृत्युंजय से, लावण्या का विवाह कुमार निकुंभ से और भुजंगा का विवाह सारिका से हो गया। तीनो कन्याओं का विवाह एक ही मंडप में हुआ और तीनो का कन्यादान महाराज ने अपने हाथसे किया।


सब प्रसन्न होकर जीवन निर्वाह करने लगे। राजगुरु ने आचार्यपद मृत्युंजय को सौंप दिया। भुजंगा भी गुरुकुल में अपनी योग्यता के आधार पर शिक्षक बन गया। महाराज ने भी अपना राज्य कुमार निकुंभ को सौंप दिया और उसका मार्गदर्शन कर रहे थे। सारिका अब विष मुक्त होकर सामान्य हो गई।


और इस तरह प्रतिशोध और षडयंत्र से शुरू हुई एक कहानी का सुखद अंत हुआ।


समाप्त🙏



आप सब वाचकों ने मेरी कहानी "विष कन्या" को प्रेम से पढ़ा और बहुत पसंद किया हैं, आप के रिव्यू ने मुझे अच्छा लिखने का उत्साह प्रदान किया इसलिए मैं आप सबकी बहुत आभारी हुं। आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। बस ऐसे ही साथ जुड़े रहिए और उत्साह प्रदान करते रहिए यही विनती हैं। 🙏🙏🙏
 

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