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आगे हमने देखा की, सब अपनी सैया में सोने का प्रयत्न कर रहे हैं, किंतु सबके मस्तिष्क में अपने अपने प्रश्न चल रहे हैं। प्रातः होते ही सब अपने कार्य में जुट ते है तभी महाराज, राजगुरु,निकुंभ, राजवैद्य और सेनापति वज्रबाहु वहां आते है। महाराज सबका धन्यवाद करते है। अब आगे......
अरे बातों बातों में राजकुमारी हम इन सबसे आपका परिचय करवाना ही भूल गए। कोई बात नही अब करवा दीजिए परिचय पिताजी। हम भी इन सबके विषय में जान ने केलिए उत्सुक हे। हमारे राजवैदजी को तो आप जानती ही हे, ये हे मृत्युंजय। इनके पिताजी बहुत बड़े वैध अभ्यासी और शोध करता थे। ये भी उनकी ही भांति महान वैध हैं। ये यहां आपके उपचार हेतु ही पधारे है।
प्रणाम मृत्युंजयजी। राजकुमारी ने मृत्युंजय की ओर पहली बार देखा। राजकुमारी की आंखे कुछ पलों केलिए मृत्युंजय के मुख पर स्थिर हो गई। उसके मुख का तेज, उसकी प्रतिभा देखकर राजकुमारी दंग रहे गई। ये मनुष्य है की, स्वर्ग से आया कोई यक्ष या गंधर्व? इतना सुंदर इतना तेजस्वी व्यक्तित्व पहले कभी नहीं देखा। देवता भी इसको देखकर लज्जित हो जाए। राजकुमारी विचारों में खो गई।
ये हैं, लावण्याजी ये कनकपुर के राजवैधजी की पुत्री हे और यहां हमारे राजवैद्य सुमंतजी से वैध शास्त्र का अभ्यास करने हेतु पधारी हे। इन्हो ने रात दिन आपकी सेवा की हे। धन्यवाद लावण्या तुम्हारा। अरे धन्यवाद करके मुझे लज्जित न करे राजकुमारी ये हमारा कर्तव्य था।
ये दोनो कोन है पिताजी? ये भुजंगा है मृत्युंजय का परम मित्र और सहियोगी ओर ये सारिका है लावण्या की सखी और सहयोगी। इन सबका बहुत बड़ा योगदान हे तुम्हे स्वस्थ करने में पुत्री। आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। बात करते करते वृषाली की दृष्टि सेनापति वज्रबाहु पर पड़ी। काकाश्री आप भी यहां है किंतु मेरी सखी चारूलता कहीं दिख नही रही। वो कहां हैं? किसी ने उसे ये संदेश नही दिया की में मूर्छा से बाहर आ गई हूं? वो मुझसे अब तक मिलने क्यूं नही आई।
राजकुमारी की आंखे सबके मध्य अपनी सखी चारूलता को खोज रही हैं। वो अपनी सखी से मिलने केलिए व्याकुल हो गई हे।
राजकुमारी की बात सुनते ही सबके होश उड़ गए। सब चिंतित होंगए की, राजकुमारी को क्या उत्तर दे। कक्ष में सन्नाटा हो गया राजकुमारीजी चारूलता अपने नेनिहाल गई है। आप मूर्छित थी तो वो बहुत अकेली पड़ गई थी और दुखी भी इसलिए मैने उसे कुछ दिन उसके मामा के पास भेज दिया। सेनापति वज्रबाहु ने बात को संभाल लिया।
में आप केलिए कबसे राजकुमारी हो गई काकाश्री आप तो हमेशा मुझे पुत्री कहकर बुलाते थे तो अब पराया क्यूं कर दिया। राजकुमारी थोड़ी दुखी हो गई। अरे आप मेरी पुत्री ही हो, अपने काका को क्षमा करदो पुत्री। वज्रबाहु राजकुमारी के समीप गए और उनके सर पर हाथ रखकर बोले। उनकी आंखो से अश्रु बहने लगे वो बहुत प्रयत्न कर रहे थे किंतु अश्रु रुके नहीं। क्या हुआ ककाश्री आप क्यूं रोने लगे? राजकुमारी को भीतर भीतर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ये अश्रु पीड़ा के है।
कुछ नही पुत्री बहुत समय पश्चात तुम्हे स्वस्थ देखा तो खुशी के अश्रु बहने लगे। अच्छा अब आप सीघ्र ही मेरी सखी चारूलता को वापस बुला लीजिए अन्यथा हम आपसे रूष्ट हो जायेंगे। जैसा तुम कहो मेरी पुत्री।
अरे भाई अगर सबसे मेल मिलाप हो गया हो तो कोई हमसे भी मिल ले हम भी बहुत देर से प्रतीक्षा में खड़े हे की, कब हमारी बहन हमसे भी मिले। भैया आपको यहां देखकर हमे बहुत प्रसन्नता हो रही हे, और हमे आपको यूं स्वस्थ देखकर मेरी लाडली बहेना। राजकुमार निकुंभ वृषाली के पास गए और उनके गालों को थपथपाते हुए बोले।
ये राजमहल और हमारा जीवन दोनों आपके इस सुंदर भैया के संबोधन के बिना कितने सुने थे ये हम ही जानते है। पता हे मेरी बच्ची जब तुम मूर्छा में थी तब कुमार निकुंभ ने युवराज बन ने से मना कर दिया, कह रहे थे की जब तक हमारी छोटी बहन हमारे भाल में तिलक नही करेंगी हम युवराज केसे बनेंगे। महाराज ने वृषाली को इस बात से अवगत कराया। वृषाली भावुक हो गई और अपने भाई के गले लग गई।
बहुत समय बीत गया है महाराज, आपके दरबार का समय हो गया है अब हमे प्रस्थान करना चाहिए। अवश्य राजगुरु। हम अपने कार्य पूर्ण करके शीघ्र ही तुमसे मिलने यहां उपस्थित होते हे मेरी बच्ची। जी पिताजी। महाराज कक्ष से बाहर की ओर चले गए साथ राजगुरु सौमित्र और सेनापति वज्रबाहु भी गए।
समय अपनी गति अनुसार चलने लगा। धीरे धीरे राजकुमारी स्वस्थ होने लगी। लाइए राजकुमारी हम आपके पैरो में इस तेल का मालिश कर देते हे। नही लावण्या मुझे तुमसे अपना कोई कार्य नहीं करवाना। राजकुमारी थोड़ा रूष्ट होकर बोली। किंतु क्या हुआ है? मुझसे कोई भूल हो गई ही तो में क्षमा मांगती हु । भूल नही तुमसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है अपराध। कैसा अपराध राजकुमारी? लावण्या चिंतित हो गई। सारिका भी गभारा गई।
तुम्हारा अपराध ये हे की तुम मुझे सखी कहती हो किंतु मानती नही हों। ऐसा नहीं हे राजकुमारी आप मेरी परम मित्र हे। अच्छा तो ये राजकुमारी....राजकुमारी क्यूं कहती रहती हो? वृषाली कहकर संबोधित करो हमे। में आपको नाम लेकर केसे बुलाऊ आप राजकुमारी हे।
मतलब में सही हूं तुम सिर्फ कहने को ही हमे सखी मानती हो, तुम्हारी परम सखी तो सिर्फ सारिका हे। ऐसा नहीं हे राजकुमारी। तो सारिका को तुम नाम से बुलाती हो तो हमे क्यूं नही? किंतु आप.... किंतु ..परंतु कुछ नही आज से इसी क्षण से तुम मुझे वृषाली कहकर बुलाओगी समझी। अन्यथा हम तुमसे रूष्ट हो जायेंगे।
अरे नही सखी ऐसा मत करना, लावण्या बोली और दोनो सहेलियां गले लगकर हंस ने लगी। सारिका दूर खड़ी दोनो को देखकर खुश हो रही है। अब तुम्हे संदेश भेजकर बुलाना होगा क्या सारिका, तुम भी मुझे वृषाली ही बुलाओगी समझी आओ तुम भी। सारिका भी दोनो के साथ गले लगी। में तो तुम्हे सखी कहकर बुलाऊंगी जैसे लावण्या को बुलाती हूं। ठीक हे सारिका देवी।
तीनो सहेलियां हसने लगी। कुमार निकुंभ, मृत्युंजय और भुजंगा कक्ष के द्वार पर खड़े इन सहेलियों को निहार रहे थे। आपका ह्रदय बहुत बड़ा हे राजकुमारी वृषाली। मृत्युंजय स्वागत ही बोल पड़ा।
अगर आप सहेलियों की आज्ञा हो तो हम बिचारे तीन युवान कबसे कक्ष के द्वार पर खड़े हे हमभी भीतर प्रवेश करे। मृत्युंजय ने कहा। अवश्य पधारे मित्र, वृषाली ने उत्तर दिया। मित्र? हा आप भी हमारे मित्र ही है। धन्यवाद राजकुमारी जी। अब आपको मुझे अलग से फिर से ये सब कहना होगा मृत्युंजय की आप भी हमे वृषाली कहकर संबोधित कीजिए .... नही नही में समझ गया वृषाली। कक्ष में उपस्थित सब प्रसन्न होकर हंसने लगे।
महाराज ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य देखकर प्रसन्न हो गए। प्रणाम पिताजी देखिए मेरे कितने सारे मित्र है बस कमी हे तो चारूलता की अगर वो भी यहां होती तो कितना अच्छा होता।
महाराज मुझे आज्ञा दीजिए मुझे थोड़ा कार्य है इस लिए मुझे जाना होगा। मृत्युंजय ने जाने की अनुमति मांगी। ठीक मृत्युंजय तुम जाओ। मृत्युंजय तेजगति से कक्ष के बाहर निकल गया और अपने कक्ष में पहुंचा। वहां राजगुरु पहले से उसकी प्रतीक्षा रहे थे। क्षमा करना राजगुरु मेंने आने में विलंब कर दिया। किंतु कुमार निकुंभ मेरे साथ थे इस लिए में उन्हे राजकुमारी के कक्ष में व्यस्त करके आया हुं। कोई बात नही मृत्युंजय ऐसा हो जाता हे।
सब वार्तालाप में व्यस्त थे लावण्या ने सारिका को इशारा किया और दबे पांव राजकुमारी के कक्ष से बाहर निकल गई और मृत्युंजय के कक्ष की ओर चलने लगी।कितना समय हुआ मृत्युंजय से अकेले ना ही भेंट होती हे ना ही बात। आज सब यहां व्यस्त है तब तक हम दोनो मित्र थोड़ी बात कर लेंगे। ये सब सोचते सोचते लावण्या ने मृत्युंजय के कक्ष में प्रवेश किया।
कुछ कदम चलते ही वोन रूक गई उसने देखा तो राजगुरु वहां उपस्थित है और मृत्युंजय से वार्तालाप कर रहे हे। वो वहीं खड़ी रही।
मृत्युंजय एक बार पुनः विचार करलो। तुम जो करने जा रहे हो उसमे जीवन का संकट हैं। जी राजगुरु मेंने मन बना लिया है अब मुझे ये करना ही हैं। ठीक हे में तुम्हे रोकूंगा नही। ईश्वर से प्रार्थना करूंगा किं तुम अपने कार्य में सफल होकर सीघ्र ही सुरक्षित लॉट आओ। धन्यवाद राजगुरु, किंतु महल में मेरी अनुपस्थिति में सब कुछ आपको और सेनापति वज्रबाहु को संभालना होगा। इसकी चिंता तुम मत करो बस जाओ और अपना कार्य पूर्ण करके वापस आजाओ।
ये लोग किस विषय में बात कर रहे हैं, मृत्युंजय कहां जा रहा है? कुछ तो भेद हे जो मृत्युंजय, राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु सबसे छिपा रहे हे। लावण्या विचार करने लगी और कक्ष से बाहर निकल गई।
क्रमशः..........
अरे बातों बातों में राजकुमारी हम इन सबसे आपका परिचय करवाना ही भूल गए। कोई बात नही अब करवा दीजिए परिचय पिताजी। हम भी इन सबके विषय में जान ने केलिए उत्सुक हे। हमारे राजवैदजी को तो आप जानती ही हे, ये हे मृत्युंजय। इनके पिताजी बहुत बड़े वैध अभ्यासी और शोध करता थे। ये भी उनकी ही भांति महान वैध हैं। ये यहां आपके उपचार हेतु ही पधारे है।
प्रणाम मृत्युंजयजी। राजकुमारी ने मृत्युंजय की ओर पहली बार देखा। राजकुमारी की आंखे कुछ पलों केलिए मृत्युंजय के मुख पर स्थिर हो गई। उसके मुख का तेज, उसकी प्रतिभा देखकर राजकुमारी दंग रहे गई। ये मनुष्य है की, स्वर्ग से आया कोई यक्ष या गंधर्व? इतना सुंदर इतना तेजस्वी व्यक्तित्व पहले कभी नहीं देखा। देवता भी इसको देखकर लज्जित हो जाए। राजकुमारी विचारों में खो गई।
ये हैं, लावण्याजी ये कनकपुर के राजवैधजी की पुत्री हे और यहां हमारे राजवैद्य सुमंतजी से वैध शास्त्र का अभ्यास करने हेतु पधारी हे। इन्हो ने रात दिन आपकी सेवा की हे। धन्यवाद लावण्या तुम्हारा। अरे धन्यवाद करके मुझे लज्जित न करे राजकुमारी ये हमारा कर्तव्य था।
ये दोनो कोन है पिताजी? ये भुजंगा है मृत्युंजय का परम मित्र और सहियोगी ओर ये सारिका है लावण्या की सखी और सहयोगी। इन सबका बहुत बड़ा योगदान हे तुम्हे स्वस्थ करने में पुत्री। आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। बात करते करते वृषाली की दृष्टि सेनापति वज्रबाहु पर पड़ी। काकाश्री आप भी यहां है किंतु मेरी सखी चारूलता कहीं दिख नही रही। वो कहां हैं? किसी ने उसे ये संदेश नही दिया की में मूर्छा से बाहर आ गई हूं? वो मुझसे अब तक मिलने क्यूं नही आई।
राजकुमारी की आंखे सबके मध्य अपनी सखी चारूलता को खोज रही हैं। वो अपनी सखी से मिलने केलिए व्याकुल हो गई हे।
राजकुमारी की बात सुनते ही सबके होश उड़ गए। सब चिंतित होंगए की, राजकुमारी को क्या उत्तर दे। कक्ष में सन्नाटा हो गया राजकुमारीजी चारूलता अपने नेनिहाल गई है। आप मूर्छित थी तो वो बहुत अकेली पड़ गई थी और दुखी भी इसलिए मैने उसे कुछ दिन उसके मामा के पास भेज दिया। सेनापति वज्रबाहु ने बात को संभाल लिया।
में आप केलिए कबसे राजकुमारी हो गई काकाश्री आप तो हमेशा मुझे पुत्री कहकर बुलाते थे तो अब पराया क्यूं कर दिया। राजकुमारी थोड़ी दुखी हो गई। अरे आप मेरी पुत्री ही हो, अपने काका को क्षमा करदो पुत्री। वज्रबाहु राजकुमारी के समीप गए और उनके सर पर हाथ रखकर बोले। उनकी आंखो से अश्रु बहने लगे वो बहुत प्रयत्न कर रहे थे किंतु अश्रु रुके नहीं। क्या हुआ ककाश्री आप क्यूं रोने लगे? राजकुमारी को भीतर भीतर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ये अश्रु पीड़ा के है।
कुछ नही पुत्री बहुत समय पश्चात तुम्हे स्वस्थ देखा तो खुशी के अश्रु बहने लगे। अच्छा अब आप सीघ्र ही मेरी सखी चारूलता को वापस बुला लीजिए अन्यथा हम आपसे रूष्ट हो जायेंगे। जैसा तुम कहो मेरी पुत्री।
अरे भाई अगर सबसे मेल मिलाप हो गया हो तो कोई हमसे भी मिल ले हम भी बहुत देर से प्रतीक्षा में खड़े हे की, कब हमारी बहन हमसे भी मिले। भैया आपको यहां देखकर हमे बहुत प्रसन्नता हो रही हे, और हमे आपको यूं स्वस्थ देखकर मेरी लाडली बहेना। राजकुमार निकुंभ वृषाली के पास गए और उनके गालों को थपथपाते हुए बोले।
ये राजमहल और हमारा जीवन दोनों आपके इस सुंदर भैया के संबोधन के बिना कितने सुने थे ये हम ही जानते है। पता हे मेरी बच्ची जब तुम मूर्छा में थी तब कुमार निकुंभ ने युवराज बन ने से मना कर दिया, कह रहे थे की जब तक हमारी छोटी बहन हमारे भाल में तिलक नही करेंगी हम युवराज केसे बनेंगे। महाराज ने वृषाली को इस बात से अवगत कराया। वृषाली भावुक हो गई और अपने भाई के गले लग गई।
बहुत समय बीत गया है महाराज, आपके दरबार का समय हो गया है अब हमे प्रस्थान करना चाहिए। अवश्य राजगुरु। हम अपने कार्य पूर्ण करके शीघ्र ही तुमसे मिलने यहां उपस्थित होते हे मेरी बच्ची। जी पिताजी। महाराज कक्ष से बाहर की ओर चले गए साथ राजगुरु सौमित्र और सेनापति वज्रबाहु भी गए।
समय अपनी गति अनुसार चलने लगा। धीरे धीरे राजकुमारी स्वस्थ होने लगी। लाइए राजकुमारी हम आपके पैरो में इस तेल का मालिश कर देते हे। नही लावण्या मुझे तुमसे अपना कोई कार्य नहीं करवाना। राजकुमारी थोड़ा रूष्ट होकर बोली। किंतु क्या हुआ है? मुझसे कोई भूल हो गई ही तो में क्षमा मांगती हु । भूल नही तुमसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है अपराध। कैसा अपराध राजकुमारी? लावण्या चिंतित हो गई। सारिका भी गभारा गई।
तुम्हारा अपराध ये हे की तुम मुझे सखी कहती हो किंतु मानती नही हों। ऐसा नहीं हे राजकुमारी आप मेरी परम मित्र हे। अच्छा तो ये राजकुमारी....राजकुमारी क्यूं कहती रहती हो? वृषाली कहकर संबोधित करो हमे। में आपको नाम लेकर केसे बुलाऊ आप राजकुमारी हे।
मतलब में सही हूं तुम सिर्फ कहने को ही हमे सखी मानती हो, तुम्हारी परम सखी तो सिर्फ सारिका हे। ऐसा नहीं हे राजकुमारी। तो सारिका को तुम नाम से बुलाती हो तो हमे क्यूं नही? किंतु आप.... किंतु ..परंतु कुछ नही आज से इसी क्षण से तुम मुझे वृषाली कहकर बुलाओगी समझी। अन्यथा हम तुमसे रूष्ट हो जायेंगे।
अरे नही सखी ऐसा मत करना, लावण्या बोली और दोनो सहेलियां गले लगकर हंस ने लगी। सारिका दूर खड़ी दोनो को देखकर खुश हो रही है। अब तुम्हे संदेश भेजकर बुलाना होगा क्या सारिका, तुम भी मुझे वृषाली ही बुलाओगी समझी आओ तुम भी। सारिका भी दोनो के साथ गले लगी। में तो तुम्हे सखी कहकर बुलाऊंगी जैसे लावण्या को बुलाती हूं। ठीक हे सारिका देवी।
तीनो सहेलियां हसने लगी। कुमार निकुंभ, मृत्युंजय और भुजंगा कक्ष के द्वार पर खड़े इन सहेलियों को निहार रहे थे। आपका ह्रदय बहुत बड़ा हे राजकुमारी वृषाली। मृत्युंजय स्वागत ही बोल पड़ा।
अगर आप सहेलियों की आज्ञा हो तो हम बिचारे तीन युवान कबसे कक्ष के द्वार पर खड़े हे हमभी भीतर प्रवेश करे। मृत्युंजय ने कहा। अवश्य पधारे मित्र, वृषाली ने उत्तर दिया। मित्र? हा आप भी हमारे मित्र ही है। धन्यवाद राजकुमारी जी। अब आपको मुझे अलग से फिर से ये सब कहना होगा मृत्युंजय की आप भी हमे वृषाली कहकर संबोधित कीजिए .... नही नही में समझ गया वृषाली। कक्ष में उपस्थित सब प्रसन्न होकर हंसने लगे।
महाराज ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य देखकर प्रसन्न हो गए। प्रणाम पिताजी देखिए मेरे कितने सारे मित्र है बस कमी हे तो चारूलता की अगर वो भी यहां होती तो कितना अच्छा होता।
महाराज मुझे आज्ञा दीजिए मुझे थोड़ा कार्य है इस लिए मुझे जाना होगा। मृत्युंजय ने जाने की अनुमति मांगी। ठीक मृत्युंजय तुम जाओ। मृत्युंजय तेजगति से कक्ष के बाहर निकल गया और अपने कक्ष में पहुंचा। वहां राजगुरु पहले से उसकी प्रतीक्षा रहे थे। क्षमा करना राजगुरु मेंने आने में विलंब कर दिया। किंतु कुमार निकुंभ मेरे साथ थे इस लिए में उन्हे राजकुमारी के कक्ष में व्यस्त करके आया हुं। कोई बात नही मृत्युंजय ऐसा हो जाता हे।
सब वार्तालाप में व्यस्त थे लावण्या ने सारिका को इशारा किया और दबे पांव राजकुमारी के कक्ष से बाहर निकल गई और मृत्युंजय के कक्ष की ओर चलने लगी।कितना समय हुआ मृत्युंजय से अकेले ना ही भेंट होती हे ना ही बात। आज सब यहां व्यस्त है तब तक हम दोनो मित्र थोड़ी बात कर लेंगे। ये सब सोचते सोचते लावण्या ने मृत्युंजय के कक्ष में प्रवेश किया।
कुछ कदम चलते ही वोन रूक गई उसने देखा तो राजगुरु वहां उपस्थित है और मृत्युंजय से वार्तालाप कर रहे हे। वो वहीं खड़ी रही।
मृत्युंजय एक बार पुनः विचार करलो। तुम जो करने जा रहे हो उसमे जीवन का संकट हैं। जी राजगुरु मेंने मन बना लिया है अब मुझे ये करना ही हैं। ठीक हे में तुम्हे रोकूंगा नही। ईश्वर से प्रार्थना करूंगा किं तुम अपने कार्य में सफल होकर सीघ्र ही सुरक्षित लॉट आओ। धन्यवाद राजगुरु, किंतु महल में मेरी अनुपस्थिति में सब कुछ आपको और सेनापति वज्रबाहु को संभालना होगा। इसकी चिंता तुम मत करो बस जाओ और अपना कार्य पूर्ण करके वापस आजाओ।
ये लोग किस विषय में बात कर रहे हैं, मृत्युंजय कहां जा रहा है? कुछ तो भेद हे जो मृत्युंजय, राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु सबसे छिपा रहे हे। लावण्या विचार करने लगी और कक्ष से बाहर निकल गई।
क्रमशः..........