आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और भुजंगा के जाने के बाद सारिका लावण्या का उपहास करती है और कहती है की मृत्युंजय का व्यक्तित्व मनमोहक हे।लावण्या इस बात से जब सहमत नही होती तो वो उसे कक्ष के द्वार पर वो कैसे मृत्युंजय को देख ठहर गई थी वो स्मरण कराते हुए उसका उपहास करती हे। मध्याह्न के समय एक अनुचर महाराज का संदेश लेकर आता हे और मृत्युंजय से कहता हे की महाराजने सीघ्र उसे उनके कक्ष में उपस्थित होने को कहा है अब आगे.......
एक दरवान कक्ष में प्रवेश करता है और मृत्युंजय के आने का समाचार महाराज को सुनाता है। महाराज उसे अंदर आने की अनुमति देते हैं। कुछ ही क्षण में मृत्युंजय महाराज के सामने उपस्थित होता है। मृत्युंजय ने कक्ष में प्रवेश करते ही देखा की महाराज के सिवा वहां अन्य कोई एक व्यक्ति भी उपस्थित हैं। उसने महाराज के समक्ष जाकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया। आपने मुझे अति सीघ्र यहां उपस्थित होने की आज्ञा दी सब कुशल मंगल तो है ना महाराज। मृत्युंजय ने विनम्रता पूर्वक प्रश्न किया।
महाराज ने मृत्युंजय को आसन ग्रहण करने को कहा।आज पहली बार मृत्युंजय को महाराज के मुख मंडल पर प्रसन्नता दिखाई दी। ईश्वर की कृपा से सब ठीक हैं। तो फिर आपने मुझे यूं तत्काल उपस्थित हो ने की आज्ञा दी उसका तात्पर्य महाराज। बात ऐसी है मृत्युंजय की हम आपका परिचय हमारे राज्य के प्रधान सेनापति एवम हमारे परम मित्र वज्रबाहु से कराना चाहते हैं। महाराज ने वज्रबाहु की ओर देखते हुए कहा।
मृत्युंजय ने वज्रबाहु की ओर देखा और हाथ जोड़कर विनम्रता से प्रणाम किया। सेनापति ने भी प्रणाम का उत्तर दिया। महाराज ने वज्रबाहु को मृत्युंजय का विस्तार से परिचय करवाया। दोनो का एक दूसरे से परिचय हुआ। कुछ समय पश्चात मृत्युंजय ने महाराज से जाने केलिए आज्ञा मांगी। महाराज मध्याह्न भोजन का समय है, तो मुझे आज्ञा दीजिए।
महाराज ने मृत्युंजय को रोकते हुए कहा, ठहरिए मृत्युंजय ये लीजिए ये हमारी राजमुद्रिका है। महाराज ने मृत्युंजय के हाथ में मुद्रिका दी। ये मुद्रिका हमारी राजमुद्रा है ये आपके पास होगी तो आपको कहीं, किसी जगह आने जाने पर कोई पाबंदी या अवरोध नही होगा और आपसे कोई किसी भी प्रकारका प्रश्न भी नही करेगा जैसा की आपने अपनी शर्त में कहा था। किंतु आपको इस राजमुद्रा का जतन अपने प्राणों के भांति करना पड़ेगा।
अगर ये राजमुद्रा भूल से भी गलत हाथों में चली गई तो कुछ भी अगठित हो सकता हे। इस से हमारा राज्य, हमारे प्राण और हमारी प्रजा संकट में पड़ सकते है। आप ज्ञानी है समझदार है इस लिए आपसे बस इतनी ही विनती हे। महाराज ने राजमुद्रा का मूल्य और गंभीरता समजाते हुए कहा।
जी महाराज में इस विषय की गंभीरता को समझ सकता हूं। आप निश्चिंत रहिए में आपको कभी निराश नहीं करूंगा। मृत्युंजय की आंखो में सत्य की चमक और स्वर में अपने दायित्व की प्रति सभानता का अनोखा टंकार था। अब में आज्ञा लेता हूं कहकर मृत्युंजय कक्ष से चला गया।
भुजंगा मृत्युंजय की राह देख रहा हे। उसके मस्तिष्क में बहुत से प्रश्न आ जा रहे है। अपने आप से ही जैसे बात कर रहा है। पूरे कक्ष में भ्रमण कर रहा है। कभी बैचेन होकर जरुखे में जाता है तो कभी आकर सैया पर बैठ जाता है।बहुत देर हो गई अभी भी मृत्युंजय नही आया, आखिर क्या बात होगी।
मृत्युंजय कक्ष में प्रवेश करता है। उसके मुख पर शांति है। उसको आते देख भुजंगा अपने आपको रोक नही पाता और दौड़ कर सामने जाता है। बड़ा उत्सुक है वो। क्या हुआ महाराज को क्या काम था, क्या कहा उन्हों ने तुमसे, अनेको प्रश्नों की बौछार करदी उसने।
मृत्युंजय जाकर सैया पर शांति से बैठ गया। भुजंगा बड़ी आतुरता से उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है। क्या हुआ मित्र उत्तर दो। मेरी शंका सही थी ना लावण्या ने ही महाराज को हमारे विरुद्ध कुछ कहा थाना? नही मित्र ऐसा कुछ नही था। तो क्या था? महाराज मेरा परिचय प्रधान सेनापति बज्रबाहु से करवाना चाहते थे बस। भुजंगा ने लंबी सांस ली, बस इतना ही कार्य था। हा इतना ही। मैने पहले ही कहा था की अपने मस्तिष्क पे इतना जोर मत डालो। सही है भुजगा स्वागत बोला "खोदा पहाड़ निकला चूहा"। मृत्युंजय ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रक्खा, चले अब अपना कार्य करें हमारे पास समय बहुत कम है। भुजंगा ने सिर हिलाया और कहा सत्य कह रहे हो।
पूर्णिमा की रात है। चंद्रमा की रोशनी जरुखे से अंदर आरही ही, रात्रि भोजन करने के बाद मृत्युंजय अपने कक्ष में कुछ सोचते हुए चहलकदमी कर रहा है, तभी उसकी नजर जरुखे के ठीक सामने नीचे वाटिका के मध्य से बाहर की ओर जाती एक छोटी सी पगदंडी पर पड़ी।
लावण्या दुशाला ओढ़े इधर उधर देखते हुए वहां से महल के बाहर जा रही थी। वो बार बार अपने आस पास नजर करते हुए गति से चल रही थी ऐसा लग रहा था जैसे वो कोई उसे देख न ले इस तरह छुपते छुपाते जाना चाहती है।
इस समय लावण्या कहां जा रही हैं और वो भी इतनी तेज गति से, चुपके से?। मृत्युंजय के मस्तिष्क में संशय हुआ। उसने देखा तो भुजंगा सैया पर लेटा हुआ था। मृत्युंजय ने एक दुशाला अपने बदन पर लपेटा और पदत्राण धारण करते हुए भुजंगा से कहा, मित्र तुम विश्राम करो में कुछ क्षणों में आता हूं। किंतु इस समय तुम जा कहां रहे हो। कहीं नहीं आज भोजन थोड़ा गरिष्ठ था और पूर्णिमा भी है तो उसकी शीतल चांदनी में थोड़ा विहार करके आता हु। कहते कहते मृत्युंजय भी तेज गति के साथ कक्ष से बाहर की ओर चला गया।
क्रमशः.........