Fantasy विष कन्या(completed)

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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और लावण्या में नोक झोक हो रही हैं। मृत्युंजय लावण्या के सामने मित्रता का प्रस्ताव रखता है। लावण्या व्यंग व्यंग में मृत्युंजय से कहती हे की उसके पिता महान वैद्य थे किंतु उसमे उसके पिता जैसे कोई गुण नहीं है। इस बात को सुनकर मृत्युंजय चुप हो जाता है। लावण्या को अपनी बात पर संकोच होता है और वो मृत्युंजय से क्षमा मांगती है। ये देखकर मृत्युंजय को आश्चर्य होता है। अब आगे......


मृत्युंजय ने आज पहली बार बात बात पे व्यंग करने वाली, कटु वचन बोलने वाली और अहंकारी दिखनेवाली लावण्या का ये रूप देखा। जो कुछ क्षण केलिए ही सही लेकिन मृदु, कोमल और सहज था। मृत्यंजय को लगा जैसे लावण्या का सही रूप ये हे। व्यर्थ ही वो अहंकार का चोला पहने रहती हे। व्यक्ति के जन्मगत स्वभाव को वो कितना भी शब्दो के पीछे छिपाले पर आंखे सत्य बोल ही देती है।


मृत्युंजय कुछ क्षणों के लिए चुप हो गया। लावण्या ने फिर व्यंग किया, लगता हे आप भी खुली आँखोसे स्वप्न विहार करनेकी कला जानते हो। और थोड़ा मुस्कुराई। सारिका भी व्यंग में हसने लगी।


चलो आपको हमारे भीतर कुछ तो कला दिखाई दी लावण्या जी। वैसे आप मुस्कुराते हुए ज्यादा सुंदर दिखती हैं। मुस्कुराया कीजिए वैद्य शास्त्र कहता है की, हसने से इंसान के मुखकी सुंदरता और आयु दोनो बढ़ती हे। हमतो चाहते हैं की आपकी सुंदरता और आप दोनो चिरायु रहे। मृत्युंजय ने लावण्या के सामने देखते हुए कहा।


आप वैध शास्त्र से ज्यादा अभी तो वार्ताकला में पारंगत नजर आते हो। अगर आपका कार्य समाप्त हो गया हो तो आप यहां से जा सकते हो ताकि हम शांतिपूर्ण हमारा कार्य कर सकें। लावण्या ने मृत्युंजय को कक्ष की ओर हाथसे इशारा करते हुए कहा।


जी अवश्य, मित्र चलो अब यहां से विदा लेते हैं मृत्युंजय ने भुजंगा को देखते हुए कहा। क्यों नही मित्र इसके पहले की ये दो सुंदर कुमारिकायें हमे बल पूर्वक यहां से बाहर करे हमे सम्मान से विदा ले लेनी चाहिए। भुजंगा व्यंग करते हुए मृत्युंजय के पीछे द्वार की ओर बढ़ा और जाते जाते मध्य में खड़ी सारिका को अपने हाथ में रक्खा पुष्प देकर बोला ये आपके लिए सारिका जी।


सारिका कुछ जवाब दे उसके पहले ही वो पुष्प उसने सारिका के हाथ में रख्खा और चला गया। लावण्या और सारिका दोनों द्वार की ओर जाते मृत्युंजय और भुजंगा को देख रही थी। तभी अचानक द्वारके बीच मृत्युंजय ठहर गया और जरा पीछे मुडके बोला, लावण्या जी हमारे मित्रता के प्रस्ताव पर जरा शांति पूर्वक विचार कीजिएगा। इतना कहकर फिर से वापस मुड़ा और चला गया। कुछ ही क्षणों में दोनो मित्र आंखो से ओझल हो गए।


सारिका अपने हाथ में भुजंगा द्वारा दिए गए पुष्प को देखकर प्यारसे मुस्कुराने लगी। वो खड़ी खड़ी डोल रही थी और कुछ गुनगुना रही थी। लावण्या ने ये देखा, वो सारिका के समीप गई और बोली पहली बार पुष्प देखा है क्या तुमने सारिका जो इतनी प्रसन्न हो रही हो। मानो ये जैसे पुष्प नही कोई बहुत बड़ा खजाना हो। पुष्प तो कई बार देखे हैं सखी किंतु ये पुष्प किसीने हमे प्यार से अपने हाथ से भेट किया हे प्रसन्नता इस बात की हैं।अच्छा...? तो चलो आज हम तुम्हें पूरा एक वृक्ष भेंट करते हैं अब प्रसन्न? वो मृत्युंजय ने जो तेल दिया हे उसकी मालिश राजकुमारी को करदो और फिर ये औषधि भी पिलानी है।


ओहो...क्या बात है आज लावण्या जी के मुख पर मृत्युंजय का नाम आया। सूर्यदेव आज किस दिशा से उदित हुए है सखी। सारिका ने लावण्या का उपहास किया। अब ज्यादा वार्तालाप मत करो अपना कार्य करो। लावण्या ने जरा रूष्ट होने का बस अभिनय ही किया।


सारिका राजकुमारी की शयन सैया के समीप गई और उनके शरीर पर तेल का मालिश करने लगी। फिर उसके मन में कुछ बात आई और वो वही से लावण्या की ओर देखते हुए बोली, सखी कुछ भी कहलो पर मृत्युंजय है बड़ा मनमोहक। अच्छा? हमे तो ऐसा कुछ भी उस वनवासी में प्रतीत नहीं होता। लावण्या ने थोड़ा अहंकार भरे शब्दों में कहा। हां वोतो जब हम कक्ष में प्रवेश कर रहे थे ना तभी मैने देख लिया था सखी। सारिका की इच्छा लावण्या का उपहास करने की हैं।


ऐसाक्या देखा था तूमने जो इतनी चहक रही हो। वही की, कैसे तुम मृत्युंजय को देख कक्ष के द्वार पर ही रुक गई थी और पता नही किस अनजान प्रदेश की यात्रा पर चली गई थी। सारिका व्यंग करके जोर जोर से हंसने लगी। तुम भी उस वनवासी मृत्युंजय से मिलते मिलते वनकी मर्कट बन गई हो। लावण्या ने थोड़ा इतराते हुए सारिका से कहा। येतो जैसी जिसकी दृष्टि सखी किसीको हम सुंदरता की साक्षात देवी लगते हैं और किसीको मर्कट। सारिका ने लावण्या के समीप आकर हाथ में तेल का पात्र था उसे रखते हुए व्यंग किया।


कार्य संपन्न हो गया आपका सुंदरता की देवी? तो यहां से प्रस्थान करें हमारे कक्षकी ओर। लावण्या ने आगे चलते हुए कहा और सारिका भी पीछे पीछे चल पड़ी।


मध्याह्न का समय हे। मृत्युंजय अपने कक्ष में वेद का अभ्यास कर रहा है और भुजंगा अपने झोले में से कुछ इधर उधर कर रहा हे। एक अनुचर कक्ष में प्रवेश करता हे और प्रणाम करके महाराज का संदेश मृत्युंजय को देते हुए कहता है की, महाराज ने आपको अति शीघ्र उनके कक्ष में उपस्थित होने की आज्ञा दी है। में शीघ्र ही महाराज के सामने उपस्थित होता हूं महाराज से कहिए। मृत्युंजय ने उत्तर दिया और अनुचर वहां से चला गया।


मृत्युंजय कुछ क्षणों केलिए विचार में पड़ गया तभी भुजंगा ये बात सुनकर व्याकुल दशा में मृत्युंजय के समीप आया। अभी तो मध्याह्न के भोजन का समय है इस समय महाराज ने तुम्हे सिघ्रता से उनके कक्ष में उपस्थित होने की आज्ञा क्यों दी हे। कहीं उस लावण्या ने हमारे विरुद्ध महाराज के कान तो नही भरे? वैसे भी हमारा यहां आना उसको अच्छा नहीं लगा है। भुजंगा का मन लावण्या के प्रति आशंका से भर गया है।


शांत मित्र इतने व्याकुल मत बनो। महाराज को मुझसे कुछ कार्य भी तो हो सकता है। बात के तथ्य को जाने बिना ही किसी व्यक्ति केलिए नकारात्मक सोच बना लेना उचित नहीं हैं। मृत्युंजय ने शांतचित्त से कहा और पुस्तक को प्रणाम करके आसन से उठा। में महाराज से भेट करके आता हु तुम अपने मस्तिष्क को इतना कष्ट मत दो मित्र कहते कहते कक्ष से बाहर चला गया।


क्रमशः.......
positive things insan ko aage le jati
 
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Ek din hamari mehnat Ko bhi like air comments milenge hum bhi kisi ki nazron me aajayen shayad
 
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और भुजंगा के जाने के बाद सारिका लावण्या का उपहास करती है और कहती है की मृत्युंजय का व्यक्तित्व मनमोहक हे।लावण्या इस बात से जब सहमत नही होती तो वो उसे कक्ष के द्वार पर वो कैसे मृत्युंजय को देख ठहर गई थी वो स्मरण कराते हुए उसका उपहास करती हे। मध्याह्न के समय एक अनुचर महाराज का संदेश लेकर आता हे और मृत्युंजय से कहता हे की महाराजने सीघ्र उसे उनके कक्ष में उपस्थित होने को कहा है अब आगे.......


एक दरवान कक्ष में प्रवेश करता है और मृत्युंजय के आने का समाचार महाराज को सुनाता है। महाराज उसे अंदर आने की अनुमति देते हैं। कुछ ही क्षण में मृत्युंजय महाराज के सामने उपस्थित होता है। मृत्युंजय ने कक्ष में प्रवेश करते ही देखा की महाराज के सिवा वहां अन्य कोई एक व्यक्ति भी उपस्थित हैं। उसने महाराज के समक्ष जाकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया। आपने मुझे अति सीघ्र यहां उपस्थित होने की आज्ञा दी सब कुशल मंगल तो है ना महाराज। मृत्युंजय ने विनम्रता पूर्वक प्रश्न किया।


महाराज ने मृत्युंजय को आसन ग्रहण करने को कहा।आज पहली बार मृत्युंजय को महाराज के मुख मंडल पर प्रसन्नता दिखाई दी। ईश्वर की कृपा से सब ठीक हैं। तो फिर आपने मुझे यूं तत्काल उपस्थित हो ने की आज्ञा दी उसका तात्पर्य महाराज। बात ऐसी है मृत्युंजय की हम आपका परिचय हमारे राज्य के प्रधान सेनापति एवम हमारे परम मित्र वज्रबाहु से कराना चाहते हैं। महाराज ने वज्रबाहु की ओर देखते हुए कहा।


मृत्युंजय ने वज्रबाहु की ओर देखा और हाथ जोड़कर विनम्रता से प्रणाम किया। सेनापति ने भी प्रणाम का उत्तर दिया। महाराज ने वज्रबाहु को मृत्युंजय का विस्तार से परिचय करवाया। दोनो का एक दूसरे से परिचय हुआ। कुछ समय पश्चात मृत्युंजय ने महाराज से जाने केलिए आज्ञा मांगी। महाराज मध्याह्न भोजन का समय है, तो मुझे आज्ञा दीजिए।


महाराज ने मृत्युंजय को रोकते हुए कहा, ठहरिए मृत्युंजय ये लीजिए ये हमारी राजमुद्रिका है। महाराज ने मृत्युंजय के हाथ में मुद्रिका दी। ये मुद्रिका हमारी राजमुद्रा है ये आपके पास होगी तो आपको कहीं, किसी जगह आने जाने पर कोई पाबंदी या अवरोध नही होगा और आपसे कोई किसी भी प्रकारका प्रश्न भी नही करेगा जैसा की आपने अपनी शर्त में कहा था। किंतु आपको इस राजमुद्रा का जतन अपने प्राणों के भांति करना पड़ेगा।


अगर ये राजमुद्रा भूल से भी गलत हाथों में चली गई तो कुछ भी अगठित हो सकता हे। इस से हमारा राज्य, हमारे प्राण और हमारी प्रजा संकट में पड़ सकते है। आप ज्ञानी है समझदार है इस लिए आपसे बस इतनी ही विनती हे। महाराज ने राजमुद्रा का मूल्य और गंभीरता समजाते हुए कहा।


जी महाराज में इस विषय की गंभीरता को समझ सकता हूं। आप निश्चिंत रहिए में आपको कभी निराश नहीं करूंगा। मृत्युंजय की आंखो में सत्य की चमक और स्वर में अपने दायित्व की प्रति सभानता का अनोखा टंकार था। अब में आज्ञा लेता हूं कहकर मृत्युंजय कक्ष से चला गया।


भुजंगा मृत्युंजय की राह देख रहा हे। उसके मस्तिष्क में बहुत से प्रश्न आ जा रहे है। अपने आप से ही जैसे बात कर रहा है। पूरे कक्ष में भ्रमण कर रहा है। कभी बैचेन होकर जरुखे में जाता है तो कभी आकर सैया पर बैठ जाता है।बहुत देर हो गई अभी भी मृत्युंजय नही आया, आखिर क्या बात होगी।


मृत्युंजय कक्ष में प्रवेश करता है। उसके मुख पर शांति है। उसको आते देख भुजंगा अपने आपको रोक नही पाता और दौड़ कर सामने जाता है। बड़ा उत्सुक है वो। क्या हुआ महाराज को क्या काम था, क्या कहा उन्हों ने तुमसे, अनेको प्रश्नों की बौछार करदी उसने।


मृत्युंजय जाकर सैया पर शांति से बैठ गया। भुजंगा बड़ी आतुरता से उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है। क्या हुआ मित्र उत्तर दो। मेरी शंका सही थी ना लावण्या ने ही महाराज को हमारे विरुद्ध कुछ कहा थाना? नही मित्र ऐसा कुछ नही था। तो क्या था? महाराज मेरा परिचय प्रधान सेनापति बज्रबाहु से करवाना चाहते थे बस। भुजंगा ने लंबी सांस ली, बस इतना ही कार्य था। हा इतना ही। मैने पहले ही कहा था की अपने मस्तिष्क पे इतना जोर मत डालो। सही है भुजगा स्वागत बोला "खोदा पहाड़ निकला चूहा"। मृत्युंजय ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रक्खा, चले अब अपना कार्य करें हमारे पास समय बहुत कम है। भुजंगा ने सिर हिलाया और कहा सत्य कह रहे हो।


पूर्णिमा की रात है। चंद्रमा की रोशनी जरुखे से अंदर आरही ही, रात्रि भोजन करने के बाद मृत्युंजय अपने कक्ष में कुछ सोचते हुए चहलकदमी कर रहा है, तभी उसकी नजर जरुखे के ठीक सामने नीचे वाटिका के मध्य से बाहर की ओर जाती एक छोटी सी पगदंडी पर पड़ी।


लावण्या दुशाला ओढ़े इधर उधर देखते हुए वहां से महल के बाहर जा रही थी। वो बार बार अपने आस पास नजर करते हुए गति से चल रही थी ऐसा लग रहा था जैसे वो कोई उसे देख न ले इस तरह छुपते छुपाते जाना चाहती है।


इस समय लावण्या कहां जा रही हैं और वो भी इतनी तेज गति से, चुपके से?। मृत्युंजय के मस्तिष्क में संशय हुआ। उसने देखा तो भुजंगा सैया पर लेटा हुआ था। मृत्युंजय ने एक दुशाला अपने बदन पर लपेटा और पदत्राण धारण करते हुए भुजंगा से कहा, मित्र तुम विश्राम करो में कुछ क्षणों में आता हूं। किंतु इस समय तुम जा कहां रहे हो। कहीं नहीं आज भोजन थोड़ा गरिष्ठ था और पूर्णिमा भी है तो उसकी शीतल चांदनी में थोड़ा विहार करके आता हु। कहते कहते मृत्युंजय भी तेज गति के साथ कक्ष से बाहर की ओर चला गया।


क्रमशः.........
 
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आगे हमने देखा की, महाराज इंद्रवर्मा मृत्युंजय को मध्याह्न के समय अति सीघ्र उपस्थित होने की आज्ञा देते है। मृत्युंजय जब वहां पहुंचता है तो महाराज उसका परिचय प्रधान सेनापति वज्रबाहु से कराते है और उसको राज मुद्रिका देते हैं जो राजमुद्रा हैं। रात्रि भोज के पश्चात मृत्युंजय अपने कक्ष में चहलकदमी करते करते जरुखे से देखता है की लावण्या दुसाला ओढ़े हुए तेज गति से चुपके चुपके वाटिका में बनी पगदंडी से महल की बाहर जा रही है। अब आगे..........


मृत्युंजय के मस्तिष्क में कई शंसय हो रहे है। वो जब तक अपने कक्ष से निकलकर वाटिका में आया तब तक लावण्या ओझल हो गई थी। मृत्युंजय भी उस पगदंडी पर आगे की ओर बढ़ा। वो पगदंडी महल के पीछे से महल की बाहर जा रही थी। अब मृत्युंजय भी महल से निकल कर बाहर आ चुका था किंतु लावण्या कहीं नजर नहीं आ रही थी। ये लावण्या इस रात्रि के समय ऐसे वृक्ष से घनघोर रास्ते से जा कहां रही थी। और वो ऐसे अदृश्य केसे हो गई। मृत्युंजय अपने आप से ही बाते करते करते आगे बढ़ रहा है।


उसको शांत गति से बहने वाला एक झरना दिखाई दिया और तभी उसके कान में सुंदर और बहुत ही मीठी आवाज सुनाई दी। मृत्युंजय को बहुत ही आश्चर्य हुआ, ऐसे एकांत स्थल पर इतनी रात गए कोन गा रहा है। आवाज इतनी सुरीली थी की मृत्युंजय के कदम सहज ही उस दिशा की ओर चल पड़े जहां से ये आवाज आ रही थी।


कुछ कदम चलने के बाद ही मृत्युंजय उस स्थान पर पहुंच गया जहां से वो मनहोहक आवाज आ रही थी। और ये क्या वो देखते ही चौंक गया। उसने देखा की, लावण्या जल में जल विहार कर रही थी। उसके काले घने लम्बे बाल पानी में ऐसे बिखर रहे थे जैसे अनेकों सर्पिनियां प्रवाहित जल में तैर रही हो। उसका सुंदर बदन मानो जैसे आज दो चांद एक साथ खिले हैं, एक आकाश में और दूसरा इस जलाशय के भीतर। ऐसा लग रहा था की कोई जलपरी स्वयंम ही जल क्रीड़ा कर रही हे। उपरसे उसका ये सुमधुर स्वर और गीत, मृत्युंजय अपने आप को भूल गया और किसी रोमांचित सृष्टि में खो सा गया।


नव नार सजीली सी मैं प्रिय
छवि छैल छबीली सी मैं प्रिय

मधु गागर सी मैं भरी रस की
मदमस्त हुवै जो भरे चुस्की

शोभा कहूं किम आनन की
कछु चूक भई चतुरानन की

मुख मंजन अंजन नैन करूं
सुख चैन सदा मन नांय डरूं

अति काम कमान भवैं मेरी
डसती बन ब्यालनी सी घेरी

चमकै निश में खद्योतन ज्यूं
पट कंचुकि मांही कपोत रखूं

मुझे देखे कोई जो नजर भर के
गति मुर्छित होय गिरे धर पै



लावण्या का ये स्व की प्रशस्ति करता हुआ गीत अचानक बंध हो गया। मृत्युंजय ने आंखे खोली और देखा तो वो लावण्या के सामने खड़ा था और लावण्या उसे बड़ी बड़ी आंखों से क्रोधित होकर देख रही थी।


आपको तनिक भी लज्जा नहीं आती एक स्त्री को ऐसे स्नान करते हुए छुप छुप के निहार रहे हों? क्षमा कीजिएगा लावण्याजी बात ऐसी हैं की, इसमें हमारा कोई दोष नही है ये सब किया धरा आपके सुंदर कंठ, स्वर और इस सुमधुर गीत का है जिसको सुनते ही हम सुध खो बैठे और हमारे कदम स्वयम ही इस ओर चल पड़े। मृत्युंजय ने प्रशंशा भरे शब्दों में लावण्या से कहा।अपनी प्रशंशा सुनके लावण्या को बहुत अच्छा लगा फिर भी वो मृत्युंजय के सामने रोस वाली मुखमुद्रा बना के क्रोध का अभिनय करती है।


वैसे हमे नही ज्ञात था की आप इतना सुमधुर गाती हे और आपको छंदशास्त्र और काव्य शास्त्र का भी ज्ञान है। वो कहते हैं ना "कनक में सुवास" ऐसी बात है। एक तो आप इतनी सुंदर और उपरसे आपका ये काव्यशास्त्र ओर छंदशास्त्र का ज्ञान और उस से भी कहीं ज्यादा सुंदर आपका स्वर। ईश्वर ने सब कुछ आपको ही दे दिया है । मेंरे चक्षु और मेरा जीवन तो धन्य हो गया। मृत्युंजय लावण्या की प्रशंशा करता ही जा रहा है।


आपको काव्यशास्ञ और छंदशास्त्र में अधिक रुचि लगती है, क्या ज्ञान भी रखतें हो या यूंही सबकी वाहवाही करते हों? लावण्या ने मृत्युंजय का उपहास करते हुए कहा।


अरे मुझ जैसे वनवासी का छंद और काव्यशास्त्र् से क्या मेल। हम तो वन में पक्षियों के मधुर स्वर को सुन सुनके पले बड़े है।


सही कहा वो कहावत तो आपने सुनी ही होगी "बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद" कहकर लावण्या जोर जोर से हंसने लगी। फिर रूखे स्वर में बोली अब आपका प्रलाप समाप्त हुआ हो तो यहां से जाइए।


हम जाहि रहे है लावण्याजी किंतु आप भी बड़ी कठोर है, बिचारे इस चांद को माह में एक ही बार पूर्णतः खिलकर अपनी चांदनी बिखेर नेका अवसर मिलता हे वो भी आपने उससे छीन लिया। चांदकी सारी चांदनी आपने अपने वदन में समेटली। मृत्युंजय हंसते हंसते कहने लगा और आज्ञा लावण्याजी कहकर वहां से चला गया।


लावण्या विचार करने लगी की मृत्युंजय उसकी प्रशंशा कर रहा था या व्यंग कर रहा था। फिर उसने स्वयंम से मान लिया की नहीं वो प्रशंसा ही कर रहा था। वो फिर से प्रसन्न होकर जलक्रीड़ा करने लगी और गीत गुनगुनाने लगी।


महाराज राजकुमारी वृषाली के कक्ष में पहुंचे। सारिका और दो अन्य सेविकाए राजकुमारी को औषधि पिलाकर मृत्युंजय की सूचना अनुसार तेल मालिश कर रही थी। महाराज को कक्ष में देखकर वें अपना कार्य पूर्ण करके कक्ष से बाहर चली गई।


महाराज राजकुमारी की शयन सैया के समीप गए। जरुखे से आ रही चांदनी के प्रकाश में राजकुमारी का मुख सुंदर और निर्मल दिख रहा था। महाराज को उस दिनका स्मरण हुआ जब राजकुमारी का जन्म हुआ था और उन्होंने पहली बार उन्हे देखा था और अपनी गोद में लिया था। उस दिन भी वो ऐसी ही सुंदर और प्यारी लगती थी।


महाराज राजकुमारी के सिराने बैठ गए और राजकुमारी के सिर पर हाथ फेरने लगे। उनकी आंखो से अश्रु बहने लगे। उनमें से कुछ अश्रु की बूंदे राजकुमारी के गालों पर पड़ती और नीचे की तरफ सरककर शैयामे लुप्त हो जाती।


कपकपाते स्वर में महाराज इतना ही बोल पाए। आप जल्दी से स्वस्थ हो जाइए कुमारी वृषाली, आपके पिताजी आपके बिना बहुत अकेले पड़ गए हैं। कान तरस गए हैं आपके मीठे स्वर में पिताजी सुनने केलिए।


महाराज की आंखो से अश्रु बहते रहे, वो जरुखे से बाहर पूर्ण खिले चंद्रमा को देखते देखते पुत्री के विषाद में वहीं राजकुमारी के सिराने बैठे बैठे निंद्राधीन हो गए।
 
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय अपने कक्ष के जरूखे से लावण्या को छुपते छुपाते वाटिका में बने मार्गसे महल से बाहर की ओर जाते हुए देखता है। मृत्युंजय शंसयवस लावण्या को अनुसरते हुए एक झरने पर पहुंचता हे। लावण्या वहां जलक्रीड़ा कर रही है और मधुर स्वर में गीत गा रही है। मृत्युंजय उसकी प्रशंशा करता है। इस तरफ महाराज राजकुमारी के कक्ष में जाते है और भावुक होकर वहींं राजकुमारी के सिराने ही निंद्राधीन हो जाते है। अब आगे........


उदित होते सूर्य की लालिमा नभ में चारो ओर बिखरी हुई है जो नव प्रभात की सुंदरता में अभिवृद्धि कर रही हैं। पंछी कलरव करते हुए अपने नित्यक्रम से अपने घोंसले को त्याग स्वच्छ आकाश में उड़ रहे हैं। सर्व दिशाएं जैसे ईश्वर की आराधना कर रही है।


सूर्यदेव की सुनहरी किरने शांति से दबे पांव जरुखे से राजकुमारी के कक्ष मे प्रवेश कर रही है तभी कक्ष के मुख्य द्वार से मृत्युंजय कक्ष में प्रवेश करता है। कक्ष में प्रवेश करते ही मृत्युंजय की दृष्टि राजकुमारी के सिराने बैठे बैठे ही निंद्रधीन हो गए महाराज पर पड़ती है। वो समझ जाता है की पुत्री के पास आकर एक पिता महाराज नही किंतु एक सामान्य व्यक्ति की तरह व्यथित होकर निंद्राधीन हो गए होंगे।


ये दृश्य देखकर वो थोड़ी देर वहीं रुककर सोचने लगता है की, बड़े से बड़ा राजा हो या रंक अपनी संतान को कष्ट में देखकर कैसे असहाय और दुखी हो जाता हे। ईश्वर कभी किसी पिता को ऐसी परिस्थिति में ना डाले।


पीछे से भुजंगा तेजिसे हाथ में फूलों से भरी एक बड़ी सी टोकरी के साथ प्रवेश करता है। मृत्युंजय आजतो वाटिका में बहुत ही सुंदर पुष्प खिले हैं। आज तो वाटिका की शोभा देखने लायक है ऐसा कहते कहते उसने टोकरी एक मेज पर रखदी। मृत्युंजय तेज गतीसे मुड़ा और भुजंगा के पास जाकर उसके मुंह पर हाथ रखकर उसे धीरे से बोलने केलिए इशारा करने लगा।


आवाज से महाराज की निंद्रा टूट गई और उन्होंने सामने खड़े मृत्युंजय और भुजंगा को देखा। अरे मैं रात्रि में यहीं सो गया राजकुमारी के पास। शुभ प्रभात महाराज मृत्युंजय ने अपने दोनो हाथ जोड़कर महाराज का अभिवादन किया। भुजंगा ने भी ऐसा ही किया। महाराज ने भी अभिवादन का उत्तर दिया और कक्ष से चले गए।


मित्र चलो अपने अपने कार्य में जुट जाते है कहकर मृत्युंजय कक्ष के एक कोने में गया और वहां से धूप पात्र लेकर उसमे धुपकी सामग्री रखने लगा। भुजंगा भी पुष्पोसे कक्ष को सुशोभित करने में व्यस्त हो गया किंतु उसकी आंखे कक्ष के मुख्य द्वार पर जैसे थम गई थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो बड़ी ही आतुरता से किसकी प्रतीक्षा कर रहा है। मृत्युंजय ये सब देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहा था।


देखा आज भी राजकुमारी के कक्ष में पहुंच ने में हमे विलंब हो गया। मैने कितनी बार तुमसे कहा हे सारिका की मंगलाचरण में उठकर मुझे भी जगाया करो किंतु मेरी एक नही सुनती हो तुम। पता नही आजकल तुम्हारा ध्यान कहां रहता है? कुछ भी कहो बस ही ही करके दांत दिखाती रहती हो मर्कट के जैसे। लावण्याा बोलते बोलते तेजी से राजकुमारी के कक्ष की ओर जा रही है और पीछे सारिका भी उसको अनुसरती चल रही है।
जब वो राजकुमारी के कक्ष के निकट पहुंचि तो उसके कर्ण में सूर्यदेव की स्तुति के शब्द सुनाई पड़े। बड़ी मधुर आवाज थी। सुंदर शब्द और छंदोबद्ध लय में ये कोन गा रहा है? लावण्या ये ज्ञात करने केलिए आतुर हो गई। उसके कदम सेहज ही उस मधुर स्वर की दिशा में मूड गए। चलते चलते वो राजकुमारी के कक्ष के मुख्य द्वार तक पहुंची और रुक गई।


आज फिर मृत्युंजय हाथ में धूप का पात्र लेकर कक्ष में गुगल और सुगंधित द्रव्यो से कक्ष में चारो ओर सुवास और पवित्रता का संचार कर रहा हे। वो अपने मधुर स्वर में सूर्यदेव की स्तुति कर रहा है ये देखकर लावण्या को बड़ा आश्चर्य हुआ। मृत्युंजय इन सब बातो से अनविघ्न अपने कार्य में लीन है।



भोर भई दिश पूरब में प्रकटी रवि रश्मिन की अरुणाई।
मंदिर शंखरु नाद करै घटीयाल घुरै धवनी नभ छाई ।।
जीव चराचर जाग उठे खग मुग्ध हुये चिड़िया चहचाई।
संत अनंत सदा शिव शंकर जोगिय जंगम ध्यान लगाई।।

(छंद मत्त गयंद)


ये स्तुति मृत्युंजय कर रहा है? वो इतना सुमधुर गा सकता है, वो भी छंद में? लावण्या मन ही मन अपने आपसे मृत्युंजय की प्रशस्ति करने लगी। उसे रात्रि की घटना याद आ गई। वो अपने द्वारा कहे गए उस शब्दो को स्मरण कर स्वयं लज्जित हो गई की, " बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद"। ये मृत्युंजय बड़ा छलावा है, स्वयंम छंद का ज्ञान रखता है और अभिनय ऐसा कर रहा था जैसे काव्यशास्त्र के बारे में कुछ नही जानता। असत्य बोलने में तो जैसे उसे महारथ हासिल है।


लावण्या को अकेले अकेले प्रलाप करता देख पीछे से सारिका ने अपनी कोणी से धक्का देते हुए लावण्या का उपहास किया, क्यूं सखी आज फिर किस स्वप्न प्रदेश की यात्रा में निकल पड़ीं? आज फिर मृत्युंजय को देख अपनी सुध गवां बैठी ना? अपना मुख बंध रख्खो सारिका, में तो मात्र सूर्यदेव की स्तुति का मान रखकर यहां खड़ी हूं। दुश्मन भी अगर ईश्वर की उपासना कर रहा हो तो उसका ध्यान भंग नहीं करना चाहिए मृत्युंजय तो फिर भी हमारा..... लावण्या कहते कहते रुक गई।


मृत्युंजय क्या हमारा... हमारा.... हा.. हा.... बोलो सखी बोलो रुक क्यों गई? लावण्या को बड़ा संकोच हुआ अपने शब्दों पर, ये मैने क्या बोल दिया अब ये सारिका बात का बतंगड़ बना देगी। वो खुद बड़बड़ाने लगी। सारिका को लावण्या को छेड़ ने का अवसर मिला था और वो इस अवसर को हाथ से कैसे जाने देती। वो लावण्या को छेड़े जा रही हैं तभी भुजंगा भी कक्ष के द्वार पर आगया।


भुजंगा को अपने सामने देख लावण्या सारिका की ओर देखकर उसे आंखे दिखाकर चुप होने का इशारा करने लगी। पधारिए देवियां आप द्वार पर क्यूं रुकी हुई हैं? भुजंगा ने स्वागत करने का अभिनय करते हुए लावण्या के सामने देखा। आपके मित्र की स्तुति पूर्ण हो इस प्रतीक्षा में खड़े है ताकि उनकी स्तुति में कोई अवरोध न हो।


मृत्युंजय की स्तुति पूर्ण हुई । वो हाथ में धूप का पात्र लेकर कक्ष के मुख्य द्वार पर आया तो उसने लावण्या, सारिका और भुजंगा को आपस में कुछ बात करते हुए देखा। वो जिज्ञाशवस उनके समीप गया और लावण्या का अभिवादन करते हुए बोला, शुभ प्रभात लावण्याजी आशा है आप कुशल होंगी। मुझे क्या होगा भला में कुशल ही हूं आपको मेरे विषय में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं हे। लावण्या कहते कहते कक्ष में प्रवेश कर गई।


क्रमशः..........
 

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