आगे हमने देखा कि महाराज और राजगुरु मृत्युंजय का परिचय राजवैद सुमंत से करवाते है। और राजवैध मृत्युंजय का परिचय अपनी सहायक और कनकपुर के राजवैध की पुत्री लावण्या से करवाते है। अब आगे.........
मृत्युंजय के प्रश्न पर राजवैद्य जी जरा मुस्कुराए। वहीं लावण्या गुस्से से लाल पीली हो गई। वो कतराकर मृत्युंजय की और देखने लगी। उसने अपने हाथ की मुठ्ठी इतनी जोर से भींस ली के उसमे जो औसधी थी वो पीस गई। कक्ष में अगर राजगुरु, और महाराज ना होते तो वो जरूर मृत्युंजय को पलटवार करती पर वो मर्यादा में बंधी हुई थी।
राजवैद्य ने कहा लावण्या के पिता सूबोधन मेरे परम मित्र है। हमने साथ ही आयुर्वेद का अभ्यास किया है। लेकिन उन्होंने आयुर्वेद की सिद्ध उपचार पद्धति का अभ्यास मात्र ही किया है और मैने सिद्ध उपचार पद्धति एवम् प्राकृत उपचार पद्धति दोनों का अभ्यास किया है अतः उन्होंने अपनी पुत्री को आयुर्वेद की दोनों उपचार पद्धति की शिक्षा प्राप्त हो इस उद्देश्य से मेरे पास भेजा हे। और लावण्या कुछ ही समय में दोनों उपचार पद्धति की शिक्षा प्राप्त कर लेंगी। मुझे ये कहते हुए बहुत गर्व होता है कि वो आयुर्वेद की सिद्ध उपचार पद्धति में अपने पिता के भांति ही निपुर्ण है।
मृत्युंजय ने लावण्या के सामने देखा और कहा अच्छा.. तो ये कारण हे। आप तो आयुर्वेद की परम ज्ञाता है लावण्या जी, मेरे लिए आपसे मिलना बड़े सौभाग्य की बात है। मृत्युंजय के शब्द और मुख के भाव भिन्न थे, लावण्या चतुर थी वो समज गई की ये सिर्फ और सिर्फ अभिनय कर रहा है।
में राजकुमारी वृषाली का उपचार सिद्ध और प्राकृत दोनों पद्धति से कर रहा हूं अब आगे आप जैसा उचित समझें वैसा कीजिए। राजवैद्य ने मृत्युजंय की ओर देखकर बड़ी ही विनम्रता से कहा। आप जिस उपचार पद्धति से राजकुमारी का उपचार कर रहे है वो उचित हे आप उपचार करते रहिए मुझे कोई आपत्ती नहीं है राजवैद्यजी। मृत्युंजय की बात सुनकर राजवैद्य , राजगुरु और महाराज तीनों को आश्चर्य हुआ। लावण्या भी ये बात सुनकर चोंक गई।
पर अब तो आगे आप राजकुमारी का उपचार करने वाले हेना? राजवैद्य ने मृत्युंजय से बड़ी विस्मयता के साथ प्रश्न किया। हां में राजकुमारी के उपचार हेतु ही यहां आया हूं किन्तु मेरी उपचार पद्धति आपकी पद्धति से बिल्कुल भिन्न है इस लिए आप अपना उपचार यथावत रखिए मृत्युंजय ने दृढ़ता से अपनी बात कही। में कुछ समझा नहीं मृत्युजंय अतः अपनी बात विस्तार से समझाइए। राजवैद्य ने मृत्युंजय से कहा।
जैसे की, आप सब को ज्ञात है कि मेरे पिताजी अथर्ववेद के ज्ञाता थे तो उन्होंने मुझे भी अथर्ववेद की शिक्षा दी है तो गुरु कृपा ओर ईश्वर के आशीर्वाद से मैने जो शिक्षा प्राप्त की है उसी से में राजकुमारी का उपचार करूंगा। आप आयुर्वेद की पद्धतिसे उपचार करना में अथर्ववेद में दी गई , रेकी चिकित्सा, पुष्प चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा, ध्वनि चिकित्सा, प्रकाश चकित्सा, सूर्य चिकित्सा, तेल चिकित्सा, स्वर चिकित्सा एवम् आध्यात्म और मंत्र चिकित्सा का प्रयोग उपचार हेतु करूंगा। साथ ही आप अपना उपचार और औषधि भी उन्हे देते रहिए।
राजवैद्य और राजगुरु के मुख पर एक प्रसन्नता की लहर छा गई। पर महाराज के मन में कुछ संशय उठने लगे और ये उनके मुख पर स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। राजगुरु ने प्रसन्न होकर कहा मृत्युंजय तुम हम सब केलिए आशा की एक किरण बनकर आए हो और मुझे अपने मित्र की दी गई शिक्षा पर पूर्ण विश्वास है की तुम अपने कार्य में निसंदेह सफल होंगे और जल्द ही हमारी राजकुमारी स्वस्थ हो जाएंगी। बस आप सभी पूजनीय अपना आशीर्वाद सदैव मुझ पर बनाए रखिए। मृत्युंजय ने हाथ जोडकर कहा।
आप अपना उपचार आरंभ कीजिए हम यहां से प्रस्थान करते है। ईश्वर आपको आपके कार्य में सफलता और यश प्रदान करे। राजगुरु ने शुभकामनाएं एवम् आशीर्वाद देते हुए विदा ली। पीछे महाराज भी गए। राजवैद्य ने लावण्या को कुछ औषधि दी और राजकुमारी को देने को कहकर वो भी चले गए। अब कक्ष में लावण्या, मृत्युंजय, सारिका और भुजंगा चारो ही उपस्थित थे। जैसे ही सब चले गए लावण्या ने मृत्युंजय की उपस्थिति को अनदेखा कर दिया।मृत्युंजय ने भुजंगा के कानमे कुछ कहा और वो भी वहा से चला गया।मृत्युंजय ने लावण्या की ओर देखा और कहा अपनी इस नाजुक अंगुलियों को इतना कष्ट मत दीजिए लावण्या जी औषधि पीस ने हेतु। लावण्या ने मृत्युंजय के सामने एसे देखा जैसे अगर उसके हाथ में होता तो वो मृत्युंजय को फांसी पर चढ़ा देती लेकिन फिर चुपचाप अपने कार्य मे जुट गई। मृत्युंजय कक्ष का बारीकी से निरीक्षण करने लगा। कुछ वस्तुओं को उसने उठाकर ध्यान से देखा फिर राजकुमारी के समीप जाकर उसके मुख के सामने देखने लगा।
मृत्युंजय को राजकुमारी के मुख के इतने समीप देखकर लावण्या ने कहा आप क्या कर रहे हो? अगर किसीने आपको राजकुमारी के इतने समीप देख लिया तो कारावास मे डाल देंगे। और वो जगह आपके लिए कदाचित ज्यादा उचित है। मृत्युंजय राजकुमारी से दूर होकर हास्य करते हुए बोला, में राजकुमारी के श्वाश के आवागमन को देख रहा था।
वैसे लावण्या जी आपको इस बात की चिंता हुई की में राजकुमारी के इतने समीप था या ईर्षा हुई सच बताइए। मृत्युंजय हास्य के साथ व्यंग में बोला। लावण्या अब अपने आपे से बाहर हो गई और अब तो यहां कोई उपस्थित भी नहीं था। देखिए आप अपनी सीमा में रहिए वही आपके लिए उचित रहेगा अन्यथा....। लावण्या ने क्रोधित होकर कहा। अरे अरे आप तो क्रोधित हो गई लावण्या जी हम तो आपको अपना समझकर थोड़ा व्यंग कर रहे है और कुछ नहीं। आपके ये दो धारी तलवार जैसे नेनो ने तो हमारे ह्रदय को छलनी कर दिया, कृपया मुझ कोमल ह्रदय के इनसान पर इतने तिर ना चलाए।
मृत्युंजय ने फिर व्यंगात्मक शब्दों का प्रयोग किया। लावण्या इस व्यंगका उत्तर देने ही जा रही थी तभी उसकी नजर कक्ष के द्वार पर पड़ी और वो आश्चर्य में पड गई।