Adultery C. M. S. [Choot Maar Service] (Completed)

Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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अध्याय - 25
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अब तक...

मेरे ज़हन में ऐसे ऐसे ख़याल उभर रहे थे जिनको मेरा अपना ही मन मानने को तैयार नहीं था किन्तु इतना कुछ देख लेने के बाद मैं हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ भी नहीं कर सकता था। मुझे अब पूरी तरह यकीन हो गया था कि मेरे पापा कोई मामूली इंसान नहीं हैं बल्कि उनका किरदार बड़ा ही रहस्यमय है।

अब आगे....



उस वक़्त शाम के छह बज रहे थे जब संस्था द्वारा दिए गए मोबाइल पर मैसेज आया देख कर मैं हल्के से चौंका था। मैसेज के द्वारा संस्था के चीफ़ ने मुझे गुप्त भवन बुलाया था। जब से मेरे साथ हादसा हुआ था तब से ये पहली बार था जब संस्था द्वारा मेरे पास कोई सन्देश आया था। मैं ये तो जानता था कि चीफ़ को मेरे साथ हुए हादसे के बारे में पहले ही पता चल गया रहा होगा किन्तु ये समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे गुप्त भवन में आने का हुकुम किस लिए हो सकता था?

मैं क्योंकि चलने फिरने लायक हो गया था इस लिए सविता आंटी से ये कह कर बाहर निकल गया कि घूमने जा रहा हूं। मुझे पता था कि मेरे जाने के बाद सविता आंटी संजय अंकल को मेरे बारे में सूचित करेंगी। ख़ैर मैं हर तरह की सावधानी रखते हुए बंगलो से निकला और एक ऑटो कर के गुप्त भवन की तरफ निकल गया। गुप्त भवन यानी की चूत मार सर्विस का ऐसा मुख्यालय जिसके बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं था।

जब मैं "सी एम एस" के मुख्यालय पहुंचा तो उस वक़्त सात बज गए थे। मैं अंदर से काफी असामान्य हालत में था। यहाँ आने के बाद पता नहीं क्या हो जाता था कि मेरे अंदर एक तरह की घबराहट भर जाती थी और मैं थोड़ा असहज सा महसूस करने लगता था।

"ज़ीरो ज़ीरो सेवन।" हॉल में रहस्यमय ब्यक्ति यानी संस्था के चीफ़ की अजीब सी आवाज़ गूंजी____"तुमने संस्था के नियम तोड़ने की ज़ुर्रत क्यों की?"
"क्...क्या????" चीफ़ की बात सुन कर मैं बुरी तरह उछल पड़ा था और साथ ही हकला भी गया था, किन्तु फिर जल्दी ही खुद को सम्हाल कर मैंने कहा____"मेरा मतलब है कि मैंने कब संस्था के किसी नियम को तोड़ा सर??"

"यहां किसी एजेंट को सवाल के जवाब में कोई सवाल करने की इजाज़त नहीं है।" चीफ़ ने ख़तरनाक भाव से कहा____"तुमने संस्था के नियम का पालन नहीं किया जोकि अपराध है और इस अपराध के लिए तुम्हें मौत की सज़ा मिल सकती है।"

चीफ़ के ऐसा कहने के बाद मैं चाह कर भी कुछ बोल न सका। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मैंने संस्था का कौन सा नियम तोड़ा था जिसके लिए मुझे मौत की सज़ा मिल जाएगी। मैं अभी इसी ख़याल में गुम था कि तभी हाल में चीफ़ की आवाज़ फिर गूँजी।

"संस्था के हर एजेंट का ये फ़र्ज़ है कि वो ऐसा कोई भी काम न करें जिसकी वजह से किसी को संस्था के बारे में या उसकी खुद की असलियत के बारे में पता चल जाए।" चीफ़ कह रहा था____"तुमने अपने निजी कारण के चलते संस्था की गोपनीयता को भी ताक पर रख दिया। वो तो शुक्र था कि सही समय पर हमारा एक एजेंट उस जगह पहुंच गया था वरना कोई दूसरा होता तो जाने क्या हो जाता।"

"मुझे माफ़ करें चीफ़ लेकिन प्लीज मुझे ये बताने की कृपा कीजिए कि मुझसे ऐसा कौन सा गुनाह हो गया है जिसके लिए आप ऐसा कह रहे हैं?" मैंने हिम्मत कर के पूछने की ज़ुर्रत की_____"अपनी समझ में तो मैंने अभी तक संस्था का कोई भी नियम नहीं तोड़ा है।"

"हम तुम्हारे साथ हुए उस हादसे के सम्बन्ध में ऐसा कह रहे हैं जिस हादसे में तुम संस्था द्वारा दिए गए मोबाइल को खो चुके थे।" चीफ़ ने कहा____"क्या तुम्हें हालात की गंभीरता का ज़रा भी एहसास है? ज़रा सोचो अगर वो मोबाइल किसी ऐसे ब्यक्ति के हाथ लग जाता जो उसकी खासियतों को देख कर उसकी जांच करने पर उतारू हो जाता तो क्या होता? वो कोई मामूली मोबाइल नहीं है और यही बात किसी के भी मन में ये जानने की उत्सुकता पैदा कर सकती है कि आख़िर वो मोबाइल ऐसा क्यों है कि उसमे कोई फंक्शन ही नज़र नहीं आता? मान लो अगर वो मोबाइल किसी पुलिस या इंटेलिजेंस वालों के हाथ लग जाता तब क्या होता?"

चीफ़ की बात सुन कर मुझे पहली बार एहसास हुआ कि वास्तव में उस मोबाइल को खो देने की मैंने कितनी बड़ी ग़लती की थी। हालांकि मुझे उसके खो जाने का बेहद मलाल भी हुआ था किन्तु उसके लिए मैं कर भी क्या सकता था। मैं तो इसी बात से राहत महसूस करने लगा था कि वो संदीप गुप्ता नाम के किसी अच्छे आदमी के हाथ लग गया था जिसने उसे सही सलामत मुझे लौटा दिया था।

"अब तुम्हें समझ आ गया होगा कि तुमने अपने निजी कारण के चलते संस्था के लिए कितना बड़ा ख़तरा पैदा कर दिया था।" चीफ़ ने कहा____"संस्था के हर एजेंट पर हमारी पैनी नज़र रहती है और यही वजह है कि हमने ख़तरे को तुरंत ही मिटा देने का काम करवा दिया। हम ये कैसे बरदास्त कर सकते हैं कि संस्था का कोई एजेंट अपने किसी निजी कारण के लिए संस्था के वजूद को ख़तरे में डाल दे?"

"मुझे माफ़ कर दीजिए चीफ़।" मैंने आहत भाव से कहा_____"मैं मानता हूं कि मोबाइल को उस वक़्त एक्सीडेंट के चलते खो देने से संस्था के लिए ख़तरा बन गया था लेकिन वो सब मुझसे जान बूझ कर नहीं हुआ था। उस दिन वैसा कुछ हो जाएगा इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं तो बस अपने पिता जी का पीछा कर रहा था। ये जानने के लिए कि अगर वो उस दिन अपने ऑफिस नहीं जा रहे थे तो आख़िर कहां जा रहे थे?"

"माना कि तुम अपने पिता का किन्हीं कारणों से पीछा कर रहे थे।" चीफ़ ने कहा____"लेकिन उसके चलते तुमने इस संस्था के वजूद को ख़तरे में डाला उसका क्या? तुम्हें ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि तुम एक आम इंसान नहीं हो बल्कि किसी ऐसी संस्था के एजेंट भी हो जिसके वजूद की हर तरह से हिफाज़त करना तुम्हारा सबसे पहला कर्त्तव्य है।"

मैं समझ सकता था कि चीफ़ अपनी जगह सही था लेकिन मैं अब उसे कैसे समझाता कि मैं आज कल किस तरह के हालातों से गुज़र रहा था?

"हम उम्मीद करते हैं कि अगली बार से तुम ऐसी कोई ग़लती नहीं करोगे।" मुझे चुप देख कर चीफ़ ने कहा____"अब तुम जा सकते हो।"
"थैंक यू चीफ़।" मैंने खुश हो कर कहा____"थैंक यू सो मच।"

मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि चीफ़ इस तरह से जाने देगा। जिस तरह से उसने संस्था के नियम तोड़ने और उसके लिए सज़ा देने की बात कही थी उससे तो मैं हिल ही गया था किन्तु अब मैं ये सोच कर थोड़ा हैरान हुआ था कि उसने मुझे बिना कोई सज़ा दिए जाने दिया।

घर आया तो देखा मम्मी पापा ऑफिस से आ चुके थे। मुझे देख कर उन्होंने नाराज़गी से कहा कि मैं बाहर घूमने क्यों गया था जबकि मुझे अभी घर में ही रह कर आराम करना चाहिए था। मैंने मम्मी पापा को किसी तरह समझाया और अपने कमरे में चला गया।

दिन ऐसे ही गुज़रने लगे। मैं अपने कमरे में ही रहता और मम्मी पापा के ऑफिस चले जाने के बाद उनके कमरे में मौजूद तहख़ाने में जा कर उस दूसरे वाले दरवाज़े को खोलने की कोशिश करता। एक हप्ता गुज़र गया था और इस एक हप्ते में भी मुझे उस दूसरे वाले दरवाज़े को खोलने में कामयाबी नहीं मिल सकी थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर ऐसा कौन सा जुगाड़ था जिसकी वजह से वो दरवाज़ा खुलता था? संभव था कि उस दरवाज़े को खोलने का कोई जरिया ऐसा हो जो वहां मौजूद कंप्यूटर से ऑपरेट किया जाता हो। मेरे ज़हन में भी ये बात अब बैठ चुकी थी कि उस दरवाज़े को खोलने का जुगाड़ वहां मौजूद किसी कंप्यूटर में ही होगा, क्योंकि बाकी तो मैंने हर चीज़ को जाने कितनी ही बार बारीकी से चेक कर लिया था।

मेरे सिर की चोट अब काफी हद तक ठीक हो चुकी थी। मैंने ये सोचा था कि जब तक यहाँ पर हूं तब तक यहीं रह कर पापा और उनके दोस्तों के बारे में पता करता रहूंगा लेकिन सच तो ये था कि मैं उस तहख़ाने में ही फंस कर रह गया था। इस बीच मैंने दुबारा संजय अंकल को अपने घर पर सविता आंटी से मिलते नहीं देखा था। हालांकि मेरे दोस्त लोग मुझसे मिलने आते रहते थे। उस एक्सीडेंट के बाद से मैंने दुबारा पापा का पीछा भी नहीं किया था। इतना तो मैं समझ गया था कि मुझ पर कड़ी नज़र रखी जा रही थी। इस लिए मैंने भी किसी का पीछा कर के किसी के बारे में जानने का मंसूबा करना छोड़ दिया था।

मैंने एक दिन मम्मी पापा से अपने काम पर जाने की बात कही तो उन्होंने भी मुझे जाने की इजाज़त दे दी। असल में अब वो भी देख चुके थे कि मैं अब पहले से काफी बेहतर हो चुका हूं। दूसरे शहर में आ कर मैंने एक दो दिन तो अपने काम पर ही ध्यान दिया, उसके बाद मैंने एक ऐसे प्राइवेट डिटेक्टिव को तलब किया जो ऐसे मामलों को अंजाम देने में माहिर हो। मैंने उस डिटेक्टिव को अपने पापा और उनके सभी दोस्तों के बारे में गहराई से पता करने का काम सौंप दिया और साथ ही उसे ये भी बता दिया था कि इस काम में वो जितनी सावधानी रख सके रखे क्योंकि इस काम में उसकी जान को भी ख़तरा हो सकता है। मेरी बातें सुन कर वो डिटेक्टिव ऐसे मुस्कुराया था जैसे मैंने कोई बचकानी बात कह दी हो। ख़ैर डिटेक्टिव को काम पर लगा कर मैं अपने ऑफिस के काम में लग गया था और साथ ही उस डिटेक्टिव की रिपोर्ट का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा था।

☆☆☆

शाम को शिवकांत वागले अपनी ड्यूटी से फ़ारिग हो कर अपने घर पहुंचा। उसके ज़हन में तो आज कल विक्रम सिंह और उसकी कहानी ही छाई रहती थी किन्तु वो चाहता था कि घर आने के बाद वो स्वतंत्र मन से अपनी खूबसूरत बीवी सावित्री के साथ प्यार का वक़्त बिता सके। पिछले कुछ दिनों से उसे सावित्री के साथ सेक्स से भरा प्यार करने में बेहद ही आनंद आने लगा था और वो नहीं चाहता था कि अब किसी वजह से उसका ये आनंद फीका पड़ जाए। इसके लिए वो पूरी कोशिश कर रहा था लेकिन विक्रम सिंह की कहानी अब ऐसे मोड़ पर आ पहुंची थी कि वो चाह कर भी उससे अपना ध्यान हटा नहीं पाता था। उसके ज़हन में बार बार ये सवाल उभर आते थे कि आख़िर विक्रम सिंह के पिता और उसके पिता के सभी दोस्त किस चक्कर में थे और उसके बाद ऐसा क्या हुआ होगा जिसके चलते विक्रम सिंह ने अपने ही माता पिता की हत्या कर दी थी? वो जल्द से जल्द इस बारे में सब कुछ जान लेना चाहता था किन्तु उसके पास इतना वक़्त भी नहीं होता था कि वो विक्रम सिंह की डायरी को एक ही बार में पढ़ कर सब कुछ जान ले।

घर का दरवाज़ा हमेशा की तरह उसकी बीवी सावित्री ने ही खोला और बीवी के होठों पर सजी मुस्कान को देख कर वागले जैसे सब कुछ भूल गया था। सावित्री का चेहरा आज कुछ ज़्यादा ही चमक रहा था। उसकी आँखों में ऐसे भाव थे जिन्हें देख कर वागले के जिस्म में मीठी सी झुरझुरी दौड़ती चली गई थी। वागले सावित्री को कुछ पल निहारने के बाद मुस्कुराया और फिर उसके बगल से निकल कर कमरे की तरफ बढ़ गया। बच्चे ड्राइंग रूम में बैठे थे। वागले को देख कर दोनों ने उससे फौरी तौर पर उसका हाल चाल पूछा जिसका जवाब उसने चलते चलते ही दिया था।

रात में डिनर करने के बाद वागले कमरे में अपनी बीवी का इंतज़ार कर रहा था। कुछ ही समय में जब सावित्री अपने सारे काम निपटा कर आई तो वागले ने उसे फ़ौरन ही दबोच लिया। वागले का उतावलापन देख कर सावित्री धीमे स्वर में हंस पड़ी थी।

"क्या बात है।" फिर उसने कहा____"आज तो जनाब बड़े ही बेसब्री हो रहे हैं।"
"जिसकी बीवी इतनी सुन्दर हो और इतनी कामुक हो वो बेसब्र नहीं होगा तो और क्या होगा मेरी जान?" वागले ने सावित्री को बेड पर सीधा लेटा कर उसके चेहरे को सहलाते हुए कहा____"कितना बेवकूफ था मैं जो अब तक बेकार का जीवन जी रहा था। मैंने कभी ये देखने और समझने की कोशिश ही नहीं की थी कि मेरी बीवी आज भी ऐसी है जो सोलह साल की जवान लड़कियों को भी मात देती है। सच कहता हूं सावित्री तुम आज भी मस्त माल नज़र आती हो।"

"शरम कीजिए कुछ।" सावित्री ने मुस्कुराते हुए कहा____"इस उमर में ये आप कैसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं?"
"उमर चाहे जो हो सवित्री।" वागले ने झुक कर सावित्री के होठों को चूम कर कहा____"लेकिन मन तो सदा जवान ही रहता है ना। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि सोच लेने भर से कोई बूढ़ा या जवान नहीं हो जाता। तुम खुद इस बात की गवाह हो कि पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से हमने एक दूसरे को प्यार किया है क्या वो किसी जवान इंसान से कमतर था?"

"हां ये बात तो मैं मानती हूं आपकी।" सावित्री ने वागले की आँखों में देखते हुए कहा____"आपके अंदर का जोश देख कर तो मैं हैरान ही हो गई थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि पचास की उम्र के क़रीब पहुंच रहा मेरा पति किसी जवान मर्द की तरह इतने जोश में और इतनी क्षमता के साथ मेरे साथ सम्भोग कर रहा है।"

"सम्भोग की जगह चुदाई शब्द का स्तेमाल किया करो मेरी जान।" वागले ने सावित्री की एक छाती को जोर से मसल कर कहा____"प्यार करते समय जितना खुल कर चीज़ों का नाम लोगी उतना ही मज़ा आएगा। ख़ैर छोड़ो और ये बताओ कि आज इतना खुश और कामुक क्यों लग रही हो तुम? कोई ख़ास बात है क्या?"

"ख़ास तो कुछ नहीं है।" सावित्री ने हया से लजाते हुए कहा____"किन्तु जब से हम दोनों के बीच ये सब शुरू हुआ है तब से हर वक़्त जाने क्यों मेरा मन उसी बारे में सोच सोच कर रोमांचित होता रहता है। अब तो ये हाल है कि आपके बिना अकेले इस घर में रहा भी नहीं जाता। मेरे अंदर एक बेचैनी सी छाई रहती है। मन यही किया करता है कि जल्दी से आप आ जाएं और मुझे अपनी बाहों में भर कर मुझे खूब सारा प्यार करें।"

"अच्छा।" वागले ने मन ही मन हैरान हो कर कहा____"और क्या क्या लगा करता है तुम्हें?"
"कैसे बताऊं आपको?" सावित्री ने अपनी नज़रों को उससे हटा कर दूसरी तरफ देखते हुए कहा____"मेरा मन तो यही करता है कि कितनी जल्दी रात हो और फिर आप मुझे इस तरह प्यार करें कि मेरे जिस्म का रोम रोम ख़ुशी और आनंद से भर जाए। क्या आपको ऐसा नहीं लगता?"

"मेरी हालत तुमसे जुदा कैसे हो सकती मेरी जान?" वागले ने सावित्री के चेहरे को सीधा कर के फिर से उसके होठों को चूम कर कहा था____"मन तो मेरा भी यही करता है कि हर वक़्त तुम्हें अपनी बाहों में भर कर तुम्हें प्यार करता रहूं लेकिन क्या करूं जीवन में इसके अलावा भी बहुत से ऐसे ज़रूरी काम हैं जिन्हें करना जैसे मज़बूरी है।"

"सही कहा आपने।" सावित्री ने गहरी सांस ली____"बहुत कुछ सोचना पड़ता है और बहुत कुछ सहना भी पड़ता है। जवान हो चुके अपने बच्चों के बारे में भी सोचना पड़ता है कि अगर उन्हें किसी दिन हमारे ऐसे कर्मों का पता चला तो वो हमारे बारे में क्या सोचेंगे?"

"आज कल के बच्चे बहुत समझदार हैं सावित्री।" वागले ने कहा____"वो हमारे बारे में अच्छा ही सोचेंगे। तुम इस सबकी चिंता मत करो बल्कि इस प्यार का खुल कर आनंद लो। अब चलो छोड़ो ये सब बातें और आओ हम खुल कर एक दूसरे को प्यार करें।"

वागले की बात सुन कर सावित्री उसकी आँखों में देखने लगी। जबकि वागले ने कुछ पल उसे देखा और फिर झुक कर सावित्री के रसीले होठों को अपने मुँह में भर कर उनका रसपान करने लगा। एक हाथ से वो उसकी बड़ी बड़ी छातियों को भी बारी बारी से मसलने लगा था। सावित्री जल्दी ही एक मीठे आनंद में डूबती नज़र आने लगी थी। उसने भी खुल कर अपने पति का साथ देना आरम्भ कर दिया।

कुछ ही देर में आलम ये हो गया कि दोनों ही पूरी तरह निर्वस्त्र हो ग‌ए। वागले सावित्री के खूबसूरत जिस्म के हर हिस्से पर अपनी जीभ फिरा रहा था। सावित्री बेड पर किसी मछली की तरह मचल रही थी। सावित्री के सीने पर मौजूद उसके बड़े बड़े खरबूजों को वागले मुँह में भर कर चूस भी रहा था और हाथों से बुरी तरह मसलता भी जा रहा था। जल्दी ही वो उसके पेट से होते हुए उसकी चिकनी चूत पर आ गया। पहले तो उसने सावित्री की मोटी गुदाज़ जाँघों को चूमा चाटा और फिर एकदम से उसकी रस छोड़ती चूत पर अपनी जीभ लगा दी। चूत पर जैसे ही उसकी जीभ लगी तो उसे किसी गरम भट्ठी का आभास हुआ जिसकी तपिश से उसे अपना मुँह जलता हुआ सा प्रतीत हुआ।

वागले पागलों की तरह सावित्री की चूत को चाटता जा रहा था और एक हाथ की दो उंगली से वो उसकी चूत को भी छेड़ता जा रहा था जिससे सावित्री बुरी तरह आहें भरते हुए मचल रही थी। पूरे कमरे में सावित्री की घुटी घुटी सिसकियां और आहें गूँज रहीं थी। हालांकि वो अपनी सिसकियों और आहों को दबाने की भरपूर कोशिश कर रही थी लेकिन बावजूद इसके वो नाकाम हो रही थी। जल्दी ही सावित्री अपने चरम पर पहुंच गई और झटके खाते हुए झड़ गई। झड़ने के बाद वो गहरी गहरी साँसें लेते हुए बेड पर निढाल सी पड़ गई थी। उधर वागले उसकी चूत से निकले कामरस को सारा का सारा चाट गया था।

कुछ देर बाद जब सावित्री की साँसें थमी तो उसने अपनी आँखें खोल कर वागले को देखा। उसकी आँखों में परम संतुष्टी के भाव थे और वो वागले को बड़े ही प्यार से देख रही थी। उसे अपनी तरफ देखता देख वागले हल्के से मुस्कुराया और उसके चेहरे के पास आ कर उसने हल्के से उसके होठों को चूम लिया।

"तो कैसा लगा मेरी जान को?" फिर उसने मुस्कुराते हुए उससे पूछा"
"मज़े के उस एहसास को मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती।" सावित्री ने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"बस यही कह सकती हूं कि उस वक़्त मैं ऐसी दुनियां में थी जहां पर ऐसा आनंद था जैसा हक़ीक़त की दुनियां में कहीं हो ही नहीं सकता।"

"ऐसी बात है क्या।" वागले हल्के से मुस्कुराया____"फिर तो मुझे भी उसी दुनियां में उस आनंद को पाने की इच्छा है। मुझे भी उस दुनियां में भेजो डियर।"
"जी बिल्कुल।" सावित्री कहने के साथ ही उठी और फिर वागले के चेहरे को अपनी हथेलियों में भर कर कहा____"आप लेट जाइए, मैं जल्द ही आपको उस अद्भुत दुनियां में भेजती हूं।"

वागले मुस्कुराते हुए लेट गया। सावित्री ने कुछ देर उसके होठों को अपने होठों के बीच ले कर चूसा और फिर उसी के जैसे उसके जिस्म के हर हिस्से पर अपनी जीभ फिराने लगी। वागले जल्द ही मज़े की तरंगों में डूबने लगा। सावित्री का कोमल स्पर्श और उसकी गर्म साँसें जब वागले के जिस्म पर पड़तीं थी तो वो एक अलग ही तरह के मीठे एहसास में खो जाता था। आँखें बंद कर के वो उसी एहसास में खुद को डूबाने लगा था। जल्दी ही सावित्री उसके जिस्म के उस हिस्से पर आ गई जहां पर उसका स्पर्श पड़ते ही वागले के जिस्म में उठती तरंगों में इज़ाफ़ा हो गया।

सावित्री ने वागले के लंड को अपने कोमल हाथ में लिया और उसे कुछ पलों तक सहलाने के बाद झुक कर उसे चूम लिया। वागले को अपना जिस्म अंतरिक्ष में उड़ता महसूस होने लगा। सावित्री ने जैसे ही उसके लंड को अपने मुँह में लिया तो मज़े की तरंगों से मजबूर हो कर वागले ने फ़ौरन ही अपने दोनों हाथ बढ़ा कर सावित्री के सिर को थाम लिया और नीचे से अपना पिछवाड़ा उठा कर अपने लंड को और भी उसके मुँह में ठेल दिया। सावित्री का गर्म मुख और जीभ के घर्षण की वजह से वागले जल्द ही स्वर्ग जैसे आनंद में पहुंच गया।

सावित्री एक लय में अपने सिर को आगे पीछे करते हुए उसके लंड को चूस रही थी और साथ ही अपने हाथों से उसके टट्टों को भी सहला रही थी। वागले का लंड जल्द ही उसके मुख में फूलने लगा। सावित्री के मुख की गर्मी और उसके चूसने का जल्द ही असर हुआ। वागले ज़्यादा देर तक खुद को सम्हाल न पाया और किसी रेत के महल की तरह भरभरा कर उसके मुख में ही झड़ता चलता गया। झड़ते वक़्त उसका पूरा जिस्म झटके खा रहा था और फिर कुछ ही झटकों के बाद वो बेजान सा हो कर शांत पड़ गया। कमरे में उसकी भारी हो चुकी साँसें ही गूँज रहीं थी।

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अध्याय - 26
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अब तक...

सावित्री एक लय में अपने सिर को आगे पीछे करते हुए उसके लंड को चूस रही थी और साथ ही अपने हाथों से उसके टट्टों को भी सहला रही थी। वागले का लंड जल्द ही उसके मुख में फूलने लगा। सावित्री के मुख की गर्मी और उसके चूसने का जल्द ही असर हुआ। वागले ज़्यादा देर तक खुद को सम्हाल न पाया और किसी रेत के महल की तरह भरभरा कर उसके मुख में ही झड़ता चलता गया। झड़ते वक़्त उसका पूरा जिस्म झटके खा रहा था और फिर कुछ ही झटकों के बाद वो बेजान सा हो कर शांत पड़ गया। कमरे में उसकी भारी हो चुकी साँसें ही गूँज रहीं थी।

अब आगे....

दूसरे दिन शिवकांत वागले ऑफिस पहुंचा। सबसे पहले उसने जेल का चक्कर लगाया और सारी सुरक्षा ब्यवस्थाओं को चेक किया। इतने से काम में उसे क़रीब एक से डेढ़ घंटे का समय लग गया। उसके बाद वो अपने केबिन में आ कर विक्रम सिंह की डायरी ले कर पढ़ने बैठ गया।

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क़रीब एक हप्ता गुज़र गया था।
जिस डिटेक्टिव को मैंने अपने पिता और उनके दोस्तों के बारे में पता करने के लिए लगाया था वो अब तक मेरे पास नहीं लौटा था। पिछले एक हप्ते से मैं यही सोच सोच कर हलकान होता रहा था कि डिटेक्टिव आख़िर किस तरह की जानकारी ले कर मेरे पास आएगा? एक एक पल गुज़ारना जैसे मेरे लिए मुश्किल सा हो रहा था। मन में तरह तरह के ख़याल उभरने लगते थे। कभी कभी ये भी सोचने लगता था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस डिटेक्टिव को मैंने इस काम के लिए लगाया था वो पकड़ा गया हो और अब वो किसी मुसीबत में हो। मैं जानता था कि इस काम में उसकी जान को ख़तरा भी था और मैंने इस बात से उसे आगाह भी किया था। एक हप्ता गुज़र गया था लेकिन वो अभी तक नहीं लौटा था और ना ही किसी तरह उसने किसी प्रकार की सुचना दी थी मुझे। पल पल मेरी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।

एक दिन ज़फर ने मुझे फ़ोन कर के बताया कि वो और उसके पेरेंट्स यहाँ का सब कुछ बेंच कर विदेश में रहने जा रहे हैं। मेरे लिए ये हैरानी की बात तो थी लेकिन भला मैं उसे या उसकी फॅमिली को कैसे कहीं जाने से रोक सकता था? ज़फर ने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैं अगले ही दिन उससे मिलने अपने शहर चला गया। वहां पर मैं ज़फर और उसके पेरेंट्स से मिला। उसकी बेटी जो किसी परी से कम नहीं थी उसे प्यार और स्नेह दिया। उसके बाद मैं अपने घर चला गया। शाम को घर में रुक कर और मम्मी पापा से मिल जुल कर मैं अगली सुबह ही वापस आ गया था।

दूसरे शहर आ कर जैसे ही मैं अपने ऑफिस जाने के लिए निकला तो डिटेक्टिव आ धमका। उसे देख कर मैंने ऐसा महसूस किया जैसे अब जा कर मुझ में जान आई है। ख़ैर डिटेक्टिव को मैंने अंदर ड्राइंग रूम में बैठाया और उससे मुख्य विषय पर बात शुरू की। डिटेक्टिव का चेहरा मुझे बेहद गंभीर नज़र आ रहा था और ये बात मेरे लिए अच्छी नहीं थी। मैं जानना चाहता था कि आख़िर वो इतना गंभीर क्यों था और उसने मेरे कहने पर क्या जानकारी हासिल की थी?

"सब कुछ ठीक तो है न?" मैंने धड़कते दिल से उससे पूछा____"आपके चेहरे पर मौजूद गंभीरता को देख कर ऐसा लग रहा है जैसे हालात कुछ ठीक नहीं हैं।"

"सच कहा आपने।" उसने उसी गभीरता से कहा____"एक हप्ते पहले जब आपने मुझसे ये कहा था कि मैं अपना ख़याल रखूंगा क्योंकि इस काम में मेरी जान को ख़तरा भी हो सकता है तो मुझे उस वक़्त आपकी बातें बचकानी लगी थी। ऐसा इस लिए क्योंकि मेरे पेशे में ऐसा होना आम बात नहीं थी किन्तु मैं इस लिए बेफिक्र रहता था क्योंकि मुझे अपनी सुरक्षा करना भली भाँति आता है। पर आपका केस मेरे हर केस से कहीं ज़्यादा जुदा निकला। मैं इतना तो जानता था कि ऐसे काम आसान नहीं होते लेकिन इस बात का अंदाज़ा शायद मैंने ग़लत लगाया था कि ये केस मेरे पिछले केसेस जैसा ही होगा।"

"आख़िर बात क्या हुई है मिस्टेर कुलकर्णी?" मैंने ब्याकुलता से कहा____"प्लीज़ पहेलियाँ मत बुझाइए बल्कि मुझे साफ़ शब्दों में बताइए कि इस एक हप्ते में आपने क्या किया और किस तरह की जानकारी हासिल की? साथ ही ये भी बताइए कि आपके चेहरे पर मौजूद गंभीरता की वजह क्या है?"

"आपका केस लेने के बाद।" कुलकर्णी ने गहरी सांस लेने के बाद कहना शुरू किया____"जब मैं यहाँ से गया तो शुरू के दो तीन दिन तो मेरी समझ में ठीक ठाक ही गुज़रे किन्तु फिर मुझे एहसास हुआ कि मेरा पीछा किया जा रहा है। मैंने ऐसा महसूस किया जैसे चारो तरफ से कुछ अज्ञात लोग मुझ पर नज़र रखे हुए हैं। इस बात का एहसास होते ही मैंने उन्हें चकमा देने की कोशिश की। एक दो बार मैं उन्हें चकमा देने में कामयाब हो भी गया लेकिन फिर मुझे समझते देर न लगी कि मेरे लिए उनकी पैनी निगाहों से ज़्यादा देर तक बच के रहना मुमकिन नहीं है। मैं ये भी समझ गया था कि जो लोग मेरे पीछे लगे हैं वो निहायत ही ख़तरनाक लोग हैं। शायद वो पहले ही समझ गए थे कि मैं किसी ऐसे चक्कर में हूं जो सरासर उनसे सम्बन्ध रखता है। मैं क्योंकि आपका केस ले चुका था और मेरा उसूल है कि किसी का केस लेने के बाद मैं उस केस को तब तक नहीं छोड़ता जब तक उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा देता। इस लिए मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि इस मामले में मैं अपना काम पूरा कर सकूं लेकिन पुरज़ोर कोशिश करने के बाद भी मैं सफल नहीं हो पाया। आज आलम ये है कि मैं खुद अपनी ही जान बचा कर किसी तरह आपके पास आ पहुंचा हूं और साथ ही ये भी कह रहा हूं कि मुझे आपका केस छोड़ना पड़ेगा। मेरे जीवन में ऐसा पहली बार हुआ है कि मैंने अपनी जान की परवाह करते हुए कोई केस छोड़ा है।"

डिटेक्टिव कुलकर्णी की बातें सुनने के बाद मैं एकदम से कुछ बोल नहीं पाया था। उसके द्वारा कहे गए एक एक शब्द मेरे कानों में गूँज रहे थे और मुझे सोचो के किसी गहरे समुद्र में डुबाते जा रहे थे। ऐसा नहीं था कि मुझे इस मामले में मौजूद भयानक ख़तरे का एहसास नहीं था बल्कि वो तो बखूबी था किन्तु मैं ये सोच कर चुप रह गया था कि जब एक सुलझा हुआ डिटेक्टिव इस काम में नाकाम हो कर लौटा है तो मैं भला कैसे इस मामले की तह तक जा सकता था? मेरे ज़हन में उस दिन का वो दृश्य उजागर हो गया जब मैं अपने पापा का पीछा कर रहा था और अचानक से उस मोड़ पर एक बड़ा सा पत्थर लुढ़कता हुआ मेरी मोटर साइकिल के आगे आ गया था। साफ़ ज़ाहिर था कि उस पत्थर के द्वारा मुझे रोक कर ये समझाने की कोशिश की गई थी कि जिस मकसद से मैं उस रास्ते पर आगे बढ़ रहा था वो मेरे लिए ख़तरनाक है। इससे ये भी ज़ाहिर हो गया था कि उस दिन मैं भले ही ये समझ रहा था कि मेरे पापा को अपना पीछा किए जाने का ज़रा भी आभास नहीं था किन्तु मैं ग़लत था क्योंकि असल में मैं किसी न किसी की नज़रों में ही था उस वक़्त। अब सवाल ये था कि ऐसा क्यों? आख़िर कोई ऐसा क्यों चाह सकता था कि मैं अपने पिता का पीछा करते हुए उस रास्ते में आगे न जाऊं? क्या सच में मेरे पिता कोई ऐसी शख्सियत वाले थे जिनकी असलियत का मैं तसव्वुर भी नहीं कर सकता था?

"मिस्टर विक्रम।" डिटेक्टिव कुलकर्णी की आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया तो मैंने उसकी तरफ देखा। जबकि उसने आगे कहा_____"मुझे बेहद खेद है कि मैं आपका केस लेने के बाद भी इस केस को छोड़ रहा हूं। जीवन में पहली बार मैं ख़तरे को देख कर ये सोच बैठा हूं कि जान है तो जहान है। अगर कोई मामूली ख़तरा होता तो मैं उसे सम्हाल लेता लेकिन ये ख़तरा मामूली नहीं है, बल्कि ये ऐसा है कि इस ख़तरे का मैं किसी भी तरह से सामना नहीं कर सकता।"

"कोई बात नहीं मिस्टर कुलकर्णी।" मैंने गहरी सांस ली____"मैं समझ सकता हूं कि जान से बढ़ कर कुछ नहीं होता। मैं बस ये जानना चाहता हूं कि क्या आप इस मामले में किसी भी तरह की जानकारी हासिल नहीं कर पाए?"

"ऐसा नहीं है मिस्टेर विक्रम।" कुलकर्णी ने कहा____"शुरुआत में मैंने जो कुछ पता किया उससे मैं यही कहूंगा कि आपका शक सही था। यानि आपके पिता और उनके सभी दोस्त जैसा नज़र आते हैं वैसे हैं नहीं। आपके साथ जिस रोड पर हादसा हुआ था उस रोड पर जा कर भी मैंने पता किया। वो रास्ता मुख्य सड़क से हट कर जिस तरफ को जाता है वहां कुछ दूरी पर मैंने दो तीन इमारतें बनी हुई देखी हैं। उसके बाद कुछ छोटे बड़े फार्म हाउस भी दिखे। हालांकि रास्ता उसके आगे भी जाता है लेकिन आगे क़रीब दस किलो मीटर तक सड़क के दोनों तरफ बंज़र ज़मीन के अलावा कुछ नज़र नहीं आया। उसके बाद एक छोटा सा गांव पड़ता है और वहीं से होते हुए वो रास्ता आगे एक मुख्य सड़क से मिल जाता है। जहां पर आपके साथ हादसा हुआ था उसके आगे जो दो तीन इमारतें थीं उनके बारे में पता करने की मैंने कोशिश की लेकिन वहां मौजूद गॉर्डस ने ये कह कर मुझे भगा दिया कि यहाँ बाहरी लोगों का आना एलाऊ नहीं है। मेरे लिए ये अजीब बात थी क्योंकि किसी जगह या इमारत के बारे में पूछना कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके बारे में बताया न जा सके। यही हाल बाकी दोनों जगहों का भी था। मैंने सोचा कि शाम के समय जा कर वहाँ के बारे में अपने तरीके से पता करुंगा लेकिन उससे पहले ही मुझे मेरा पीछा किए जाने का एहसास हो गया। उसके बाद तो बस खुद को बचाते रहने का जैसे सिलसिला ही चल पड़ा।"

कुलकर्णी जिन इमारतों की बात कर रहा था उनमें से एक को मैं जानता था। उन इमारतों में से एक में सी. एम. एस. का मुख्यालय था जबकि दो इमारतें मेरे लिए भी अंजान थीं। हालांकि सी. एम. एस. के मुख्यालय में जाने के बाद भी कोई ये नहीं कह सकता था कि वहां पर इस नाम की कोई संस्था मौजूद हो सकती है क्योंकि मुख्यालय इमारत में तो था लेकिन ज़मीन के नीचे। इमारत के एक भाग में फैक्ट्री थी और मुख्य भाग को रेजिडेंस के लिए बनाया गया था जहां पर फैक्ट्री के मालिक की रिहाइश थी। इमारत का मालिक कौन था इस बारे में मुझे भी पता नहीं था और ना ही मैंने कभी देखा था उसे। हालांकि मैंने तो दूसरे भाग में मौजूद उस फैक्ट्री को भी नहीं देखा था जहां पर लाइट फिटिंग करने वाली पट्टियां बनतीं थी। सड़क के दूसरी तरफ दो और इमारतें थीं लेकिन वो किसकी थीं और वहां क्या था इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी।

"ख़ैर और क्या पता किया आपने?" मैंने फिर से गहरी सांस ले कर कुलकर्णी से पूछा।
"शुरु के दो तीन दिन मैंने यही देखा था कि आपके पिता जी के अलावा।" कुलकर्णी ने कहा____"उस रास्ते पर उनके सभी दोस्त भी जाते हैं। मेरी शुरू में की गई तहक़ीकात के अनुसार आपके पिता और उनके सभी दोस्त अपने अपने घरों से निकल कर पहले अपने ब्यवसायिक ऑफिस में जाते हैं। वहां से क़रीब एक या डेढ़ घंटे बाद वो निकलते हैं, उसके बाद आगे पीछे कुछ समय के अंतराल में वो सब उसी रास्ते की तरफ जाते हैं। हालांकि उस रास्ते पर उनकी मंज़िल कहां होती है ये मैं पता नहीं कर पाया लेकिन मेरा अनुमान है कि वो सब उन तीन इमारतों में से ही किसी पर जाते होंगे, या ये भी हो सकता है कि उसी रास्ते से हो कर वो आगे मुख्य सड़क पर पहुंचते हों। जहां से वो कहीं दूसरी जगह जाते होंगे। मैं ऐसा इस लिए कह रहा हूं क्योंकि वो रास्ता दूसरे शहर जाने के लिए शार्ट रास्ते का भी काम करता है, जबकि इधर के मुख्य सड़क से वहां तक पहुंचने में क़रीब सात किलो मीटर का अंतर पड़ता है।"

"और कुछ?" मैंने बड़ी उम्मीद के साथ पूछा।
"एक दिन मैंने आपके दोस्त रंजन को भी उस रास्ते पर जाते देखा था।" कुलकर्णी ने ये कहा तो मैं बुरी तरह चौंका, फिर खुद को सम्हाल कर बोला____"इस बात का क्या मतलब हुआ?"

"मतलब तो मुझे भी शुरू में समझ नहीं आया था।" कुलकर्णी ने कहा____"लेकिन अपने अंदर पैदा हुए शक को दूर करने के लिए जब मैंने आपके दोस्त के बारे में पता किया तो एक बात मेरी समझ में नहीं आई।"

"कैसी बात??" मैं उससे पूंछ तो बैठा था लेकिन जाने क्यों मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था।
"आपने बताया था कि आपके सभी दोस्त अब अपने अपने पिता के कारोबार में लग गए हैं।" कुलकर्णी ने एक सिगरेट जलाने के बाद कहा____"इस बात को ध्यान में रख कर जब मैंने तहक़ीकात की तो पता चला कि रंजन के पिता यानि संजय भाटिया का ऑफिस तो उस तरफ है ही नहीं जिसके लिए रंजन को उस रास्ते की तरफ जाना पड़े। सोचने वाली बात है कि अगर रंजन अपने पिता के कारोबार में उनके साथ ही लगा हुआ है तो वो उस रास्ते की तरफ क्यों जाएगा जिस रास्ते में उसके पिता का ऑफिस है ही नहीं? बल्कि ऑफिस तो शहर के दूसरे रास्ते की तरफ है। उस वक़्त मुझे ये बात समझ नहीं आई थी किन्तु जब मैंने ये देखा कि आपके पिता और उनके सभी दोस्त आगे पीछे कुछ समय के अंतराल में उसी ख़ास रास्ते की तरफ जाते हैं तो मुझे ये समझते देर न लगी कि रंजन भी अपने पिता की तरह मामूली शख्सियत वाला इंसान नहीं है।"

कुलकर्णी जाने क्या क्या कहे जा रहा था और यहाँ मेरे दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से एक तूफ़ान सा चल पड़ा था। मनो मस्तिष्क में विस्फोट से होने लगे थे। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ये ख़याल उभर आया था कि इसका मतलब रंजन भी मेरी तरह सी. एम. एस. नाम की संस्था का एजेंट है। हालांकि मुझे अभी भी इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन कुलकर्णी की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था। अगर ये सच था तो यकीनन मेरे लिए ये हैरान कर देने वाली बात थी। मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि रंजन ने कब और कैसे चूत मार सर्विस जैसी संस्था को ज्वाइन किया होगा?

डिटेक्टिव कुलकर्णी बस इतना ही जान पाया था। उसके बाद वो ये कह कर चला गया कि अब वो गधे के सिर के सींग की तरह इस शहर से ग़ायब हो जाएगा क्योंकि एक भयानक ख़तरे ने उसे चारो तरफ से घेर रखा है। कुलकर्णी के जाने के बाद मैं काफी देर तक इस सबके बारे में सोचता रह गया था। ख़ास कर रंजन के बारे में। मैं चाह कर भी रंजन से इस बारे में पूछतांछ नहीं कर सकता था, क्योंकि अगर सच में रंजन चूत मार सर्विस का एजेंट होगा तो संस्था के नियम के अनुसार मैं ना तो उसके बारे में जानने का सोच सकता था और ना ही उसके सामने ये ज़ाहिर कर सकता था कि मुझे असलियत पता है। मैंने महसूस किया कि अचानक से ही परिस्थितियां कितनी अजीब और तनावपूर्ण हो गईं थी।

ज़हन से सारी बातें निकाल कर मैं ऑफिस तो चला आया था लेकिन सारा दिन मैं इन्हीं सब बातों के बारे में सोचता रहा था। शाम को बाहर से ही डिनर कर के घर आया और अपने कमरे में बेड पर लेट गया। मैं सोचने लगा कि इसके पहले मेरी ज़िन्दगी कितनी बेहतर चल रही थी। यानि चूत मार सर्विस से जुड़ने के बाद मेरी सबसे बड़ी चाहत पूरी हुई थी और मैं तरह तरह की औरतों के साथ सेक्स का मज़ा लेता था किन्तु जबसे मुझे अपने पिता और उनके दोस्तों के रहस्यमयी होने का पता चला है तब से मैं निहायत ही चिंतित और परेशान सा रहने लगा हूं। मैं चाह कर भी अपने ज़हन से उनके ख़याल निकाल नहीं पा रहा था। मेरे अंदर सच जानने की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।

डिटेक्टिव कुलकर्णी को इस मामले का पता करने के लिए लगाया तो मामला और भी ज़्यादा गंभीर नज़र आने लगा था। मुझे अब समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस तरह से अपने पिता और उनके दोस्तों का सच पता करूं? सहसा मेरे मन में ख़याल उभरा कि क्या इस बारे में मुझे अपने पिता से पूछना चाहिए लेकिन सवाल था कि मैं उनसे आख़िर क्या पूछूंगा? कहने का मतलब ये कि मेरे पास कोई ऐसा आधार होना चाहिए जिसके बल पर मैं उनसे सवाल कर सकूं। मैं सोचने लगा कि उनसे कुछ पूछने के लिए किस चीज़ को आधार बनाना चाहिए मुझे? अभी मैंने ये सोचा ही था कि अचानक से मेरे ज़हन में मेरे मम्मी पापा के कमरे में मौजूद उस ख़ुफ़िया तहख़ाने का ख़याल आया। मैंने सोचा कि उस तहख़ाने को ही आधार बना कर मैं उनसे सवाल जवाब कर सकता हूं। मैंने इस बारे में काफी सोचा और आख़िर में मैंने यही फैसला किया कि मैं उस तहख़ाने के आधार पर ही उनसे सवाल जवाब करुंगा।

अपने घर से आए मुझे अभी आठ दिन ही हुए थे इस लिए मैं बिना वजह वापस घर नहीं जा सकता था। ऐसे में घर जा कर अगर मैं पापा से उनके कमरे में मौजूद उस तहख़ाने के सम्बन्ध में कुछ पूछूंगा तो संभव है कि उन्हें शक हो जाए। यानि वो ये सोच सकते हैं कि मैं सिर्फ तहख़ाने के बारे में जानने के लिए ही घर आया हूं। मैंने सोचा कि उनसे उस तहख़ाने के बारे में पूछने से पहले अलग से कोई भूमिका बनानी पड़ेगी, ना कि डायरेक्ट उनसे तहख़ाने के बारे में पूछा जाए।

रात पता नहीं कब मेरी आँख लग गई। सुबह उठा और फ्रेश होने के बाद मैं ड्राइंग रूम में आ कर सोफे पर बैठ गया। घर में काम करने के लिए करुणा नाम की एक औरत आती थी। सुबह का चाय नास्ता वही बनाती थी। सोफे पर बैठ कर मैंने टीवी चालू किया। तभी करुणा चाय और नास्ता ले कर आ गई। उसने नास्ता और चाय सेण्टर टेबल पर रखा और चली गई। मैंने प्लेट में रखे गोभी के पराठे की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि टीवी में चल रही न्यूज़ को देख कर मेरा हाथ जहां का तहां ठिठक गया। टीवी स्क्रीन पर मेरी निगाहें जमी की जमी रह गईं थी और मेरे दिल की धड़कनें मुझे रुक गईं सी प्रतीत हुईं।

टीवी पर न्यूज़ एंकर ख़बर सुना रही थी और स्क्रीन में उसके बगल से एक फोटो दिख रही थी। वो फोटो किसी और का नहीं बल्कि डिटेक्टिव कुलकर्णी का था। न्यूज़ एंकर बता रही थी कि पिछली रात पुलिस को मनीष कुलकर्णी नाम के इस आदमी की लाश शहर से बाहर जाने वाले रास्ते पर सड़क के किनारे पड़ी हुई मिली। लाश को देख कर साफ़ पता चलता है कि मनीष कुलकर्णी नाम के इस आदमी का मर्डर किया गया है। मृतक के सीने में दो गोलियां मारी गईं थी जिसके चलते उसकी मौत हो गई।

डिटेक्टिव मनीष कुलकर्णी के मर्डर की ख़बर टीवी में देख कर मेरे होश उड़ चुके थे। मैं ये तो समझता था कि मैंने जिस मामले को उसे सौंपा था उसमें उसकी जान तक जाने का ख़तरा था और ये बात आख़िर में कुलकर्णी भी जान चुका था किन्तु ना तो मुझे उसकी इस तरह जान चले जाने का यकीन था और ना ही शायद कुलकर्णी को रहा होगा। मेरी आँखों के सामने कुलकर्णी का चेहरा बार बार उजागर होने लगा था। अभी कल की ही तो बात थी। वो मेरे सामने इसी ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठा था। मनीष कुलकर्णी की इस तरह से हुई मौत ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया था। अगर मैं ये कहूं तो ज़रा भी ग़लत न होगा कि उसकी मौत का जिम्मेदार मैं खुद था। अगर मैं उसे अपने पापा और उनके दोस्तों के बारे में पता करने को नहीं कहता तो आज मनीष कुलकर्णी ज़िंदा होता। मेरा दिलो दिमाग़ एकदम से इस अपराध बोझ से भर गया। पलक झपकते ही मैं आत्मग्लानि में डूब गया। मेरा ज़मीर चीख चीख कर मुझे धिक्कारने लगा था। मेरी आँखों के सामने हर एक मंज़र बड़ी तेज़ी से घूमने लगा। ऐसा लगा जैसे मैं बेहोश हो जाऊंगा। मैंने बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हाला और रिमोट उठा कर टीवी बंद कर दिया।

इस मामले में मुझे ख़तरे का आभास तो था लेकिन ऐसी कल्पना मैंने हरगिज़ नहीं की थी कि कुलकर्णी के सिर पर मंडराने वाला ख़तरा इस तरह से भयानक रूप ले कर इतना जल्दी उसकी जान ले लेगा। कुलकर्णी की अकस्मात हुई मौत ने जहां मुझे हिला कर रख दिया था वहीं मैं ये सोचने पर भी मजबूर हो गया था कि क्या उसके मर्डर में मेरे पापा या उनके दोस्तों का हाथ हो सकता है? यकीनन हो सकता है क्योंकि कुलकर्णी उन्हीं सब के बारे में तो पता कर रहा था।

न नास्ते करने का दिल किया और ना ही चाय पीने का। भारी मन से मैं उठा और अपना एक छोटा सा ब्रीफ़केस ले कर घर से ऑफिस के लिए निकल गया। ऑफिस तो पहुंच गया लेकिन किसी भी चीज़ में मेरा मन नहीं लगा। बार बार आँखों के सामने टीवी स्क्रीन पर दिख रहे मनीष कुलकर्णी का फोटो उभर आता और कानों में न्यूज़ पढ़ने वाली उस संवाददाता की बातें गूजने लगतीं। बड़ी ही मुश्किल से दिन गुज़रा और मैं ऑफिस से घर आ गया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इस मामले में मुझे क्या करना चाहिए?

मैं अच्छी तरह जानता था कि कुलकर्णी की पहुंच ज़रूर पुलिस विभाग या उससे ऊपर तक भी हो सकती थी। ऐसे में पुलिस उसके मर्डर वाले मामले में चुप नहीं बैठेगी। यानि वो मनीष कुलकर्णी के मर्डर की बारीकी से जांच करेगी। ऐसे में अगर मैं उसके इस मामले में कुछ करुंगा तो ज़ाहिर है कि पुलिस का रुख़ मेरी तरफ भी होगा और उसके बाद पुलिस बाल की खाल निकालना शुरू कर देगी जो कि ज़ाहिर है कि मेरे लिए अच्छी बात नहीं होगी। मेरे माता पिता भी मुझे ऐसे मामले में फंसा हुआ नहीं देखना चाहेंगे। यही सोच कर मैंने कुलकर्णी के इस मामले में कुछ भी करने का अपना इरादा मुल्तवी कर दिया।

डिटेक्टिव कुलकर्णी के मर्डर का जिम्मेदार मैं था इस लिए अब मुझे हर कीमत पर ये जानना था कि उसका मर्डर किसने किया था और क्यों किया था? अगर कुलकर्णी को जान से मारने वाले मेरे अपने ही थे तो अब मुझे पता करना था कि आख़िर किस वजह से मेरे अपनों ने उसकी जान ली? आख़िर ऐसा क्या हो गया था जिसकी वजह से कुलकर्णी को उनके द्वारा अपनी जान से हाथ धोना पड़ा?

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अध्याय - 26
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अब तक...

सावित्री एक लय में अपने सिर को आगे पीछे करते हुए उसके लंड को चूस रही थी और साथ ही अपने हाथों से उसके टट्टों को भी सहला रही थी। वागले का लंड जल्द ही उसके मुख में फूलने लगा। सावित्री के मुख की गर्मी और उसके चूसने का जल्द ही असर हुआ। वागले ज़्यादा देर तक खुद को सम्हाल न पाया और किसी रेत के महल की तरह भरभरा कर उसके मुख में ही झड़ता चलता गया। झड़ते वक़्त उसका पूरा जिस्म झटके खा रहा था और फिर कुछ ही झटकों के बाद वो बेजान सा हो कर शांत पड़ गया। कमरे में उसकी भारी हो चुकी साँसें ही गूँज रहीं थी।

अब आगे....

दूसरे दिन शिवकांत वागले ऑफिस पहुंचा। सबसे पहले उसने जेल का चक्कर लगाया और सारी सुरक्षा ब्यवस्थाओं को चेक किया। इतने से काम में उसे क़रीब एक से डेढ़ घंटे का समय लग गया। उसके बाद वो अपने केबिन में आ कर विक्रम सिंह की डायरी ले कर पढ़ने बैठ गया।

☆☆☆

क़रीब एक हप्ता गुज़र गया था।
जिस डिटेक्टिव को मैंने अपने पिता और उनके दोस्तों के बारे में पता करने के लिए लगाया था वो अब तक मेरे पास नहीं लौटा था। पिछले एक हप्ते से मैं यही सोच सोच कर हलकान होता रहा था कि डिटेक्टिव आख़िर किस तरह की जानकारी ले कर मेरे पास आएगा? एक एक पल गुज़ारना जैसे मेरे लिए मुश्किल सा हो रहा था। मन में तरह तरह के ख़याल उभरने लगते थे। कभी कभी ये भी सोचने लगता था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस डिटेक्टिव को मैंने इस काम के लिए लगाया था वो पकड़ा गया हो और अब वो किसी मुसीबत में हो। मैं जानता था कि इस काम में उसकी जान को ख़तरा भी था और मैंने इस बात से उसे आगाह भी किया था। एक हप्ता गुज़र गया था लेकिन वो अभी तक नहीं लौटा था और ना ही किसी तरह उसने किसी प्रकार की सुचना दी थी मुझे। पल पल मेरी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।

एक दिन ज़फर ने मुझे फ़ोन कर के बताया कि वो और उसके पेरेंट्स यहाँ का सब कुछ बेंच कर विदेश में रहने जा रहे हैं। मेरे लिए ये हैरानी की बात तो थी लेकिन भला मैं उसे या उसकी फॅमिली को कैसे कहीं जाने से रोक सकता था? ज़फर ने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैं अगले ही दिन उससे मिलने अपने शहर चला गया। वहां पर मैं ज़फर और उसके पेरेंट्स से मिला। उसकी बेटी जो किसी परी से कम नहीं थी उसे प्यार और स्नेह दिया। उसके बाद मैं अपने घर चला गया। शाम को घर में रुक कर और मम्मी पापा से मिल जुल कर मैं अगली सुबह ही वापस आ गया था।

दूसरे शहर आ कर जैसे ही मैं अपने ऑफिस जाने के लिए निकला तो डिटेक्टिव आ धमका। उसे देख कर मैंने ऐसा महसूस किया जैसे अब जा कर मुझ में जान आई है। ख़ैर डिटेक्टिव को मैंने अंदर ड्राइंग रूम में बैठाया और उससे मुख्य विषय पर बात शुरू की। डिटेक्टिव का चेहरा मुझे बेहद गंभीर नज़र आ रहा था और ये बात मेरे लिए अच्छी नहीं थी। मैं जानना चाहता था कि आख़िर वो इतना गंभीर क्यों था और उसने मेरे कहने पर क्या जानकारी हासिल की थी?

"सब कुछ ठीक तो है न?" मैंने धड़कते दिल से उससे पूछा____"आपके चेहरे पर मौजूद गंभीरता को देख कर ऐसा लग रहा है जैसे हालात कुछ ठीक नहीं हैं।"

"सच कहा आपने।" उसने उसी गभीरता से कहा____"एक हप्ते पहले जब आपने मुझसे ये कहा था कि मैं अपना ख़याल रखूंगा क्योंकि इस काम में मेरी जान को ख़तरा भी हो सकता है तो मुझे उस वक़्त आपकी बातें बचकानी लगी थी। ऐसा इस लिए क्योंकि मेरे पेशे में ऐसा होना आम बात नहीं थी किन्तु मैं इस लिए बेफिक्र रहता था क्योंकि मुझे अपनी सुरक्षा करना भली भाँति आता है। पर आपका केस मेरे हर केस से कहीं ज़्यादा जुदा निकला। मैं इतना तो जानता था कि ऐसे काम आसान नहीं होते लेकिन इस बात का अंदाज़ा शायद मैंने ग़लत लगाया था कि ये केस मेरे पिछले केसेस जैसा ही होगा।"

"आख़िर बात क्या हुई है मिस्टेर कुलकर्णी?" मैंने ब्याकुलता से कहा____"प्लीज़ पहेलियाँ मत बुझाइए बल्कि मुझे साफ़ शब्दों में बताइए कि इस एक हप्ते में आपने क्या किया और किस तरह की जानकारी हासिल की? साथ ही ये भी बताइए कि आपके चेहरे पर मौजूद गंभीरता की वजह क्या है?"

"आपका केस लेने के बाद।" कुलकर्णी ने गहरी सांस लेने के बाद कहना शुरू किया____"जब मैं यहाँ से गया तो शुरू के दो तीन दिन तो मेरी समझ में ठीक ठाक ही गुज़रे किन्तु फिर मुझे एहसास हुआ कि मेरा पीछा किया जा रहा है। मैंने ऐसा महसूस किया जैसे चारो तरफ से कुछ अज्ञात लोग मुझ पर नज़र रखे हुए हैं। इस बात का एहसास होते ही मैंने उन्हें चकमा देने की कोशिश की। एक दो बार मैं उन्हें चकमा देने में कामयाब हो भी गया लेकिन फिर मुझे समझते देर न लगी कि मेरे लिए उनकी पैनी निगाहों से ज़्यादा देर तक बच के रहना मुमकिन नहीं है। मैं ये भी समझ गया था कि जो लोग मेरे पीछे लगे हैं वो निहायत ही ख़तरनाक लोग हैं। शायद वो पहले ही समझ गए थे कि मैं किसी ऐसे चक्कर में हूं जो सरासर उनसे सम्बन्ध रखता है। मैं क्योंकि आपका केस ले चुका था और मेरा उसूल है कि किसी का केस लेने के बाद मैं उस केस को तब तक नहीं छोड़ता जब तक उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा देता। इस लिए मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि इस मामले में मैं अपना काम पूरा कर सकूं लेकिन पुरज़ोर कोशिश करने के बाद भी मैं सफल नहीं हो पाया। आज आलम ये है कि मैं खुद अपनी ही जान बचा कर किसी तरह आपके पास आ पहुंचा हूं और साथ ही ये भी कह रहा हूं कि मुझे आपका केस छोड़ना पड़ेगा। मेरे जीवन में ऐसा पहली बार हुआ है कि मैंने अपनी जान की परवाह करते हुए कोई केस छोड़ा है।"

डिटेक्टिव कुलकर्णी की बातें सुनने के बाद मैं एकदम से कुछ बोल नहीं पाया था। उसके द्वारा कहे गए एक एक शब्द मेरे कानों में गूँज रहे थे और मुझे सोचो के किसी गहरे समुद्र में डुबाते जा रहे थे। ऐसा नहीं था कि मुझे इस मामले में मौजूद भयानक ख़तरे का एहसास नहीं था बल्कि वो तो बखूबी था किन्तु मैं ये सोच कर चुप रह गया था कि जब एक सुलझा हुआ डिटेक्टिव इस काम में नाकाम हो कर लौटा है तो मैं भला कैसे इस मामले की तह तक जा सकता था? मेरे ज़हन में उस दिन का वो दृश्य उजागर हो गया जब मैं अपने पापा का पीछा कर रहा था और अचानक से उस मोड़ पर एक बड़ा सा पत्थर लुढ़कता हुआ मेरी मोटर साइकिल के आगे आ गया था। साफ़ ज़ाहिर था कि उस पत्थर के द्वारा मुझे रोक कर ये समझाने की कोशिश की गई थी कि जिस मकसद से मैं उस रास्ते पर आगे बढ़ रहा था वो मेरे लिए ख़तरनाक है। इससे ये भी ज़ाहिर हो गया था कि उस दिन मैं भले ही ये समझ रहा था कि मेरे पापा को अपना पीछा किए जाने का ज़रा भी आभास नहीं था किन्तु मैं ग़लत था क्योंकि असल में मैं किसी न किसी की नज़रों में ही था उस वक़्त। अब सवाल ये था कि ऐसा क्यों? आख़िर कोई ऐसा क्यों चाह सकता था कि मैं अपने पिता का पीछा करते हुए उस रास्ते में आगे न जाऊं? क्या सच में मेरे पिता कोई ऐसी शख्सियत वाले थे जिनकी असलियत का मैं तसव्वुर भी नहीं कर सकता था?

"मिस्टर विक्रम।" डिटेक्टिव कुलकर्णी की आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया तो मैंने उसकी तरफ देखा। जबकि उसने आगे कहा_____"मुझे बेहद खेद है कि मैं आपका केस लेने के बाद भी इस केस को छोड़ रहा हूं। जीवन में पहली बार मैं ख़तरे को देख कर ये सोच बैठा हूं कि जान है तो जहान है। अगर कोई मामूली ख़तरा होता तो मैं उसे सम्हाल लेता लेकिन ये ख़तरा मामूली नहीं है, बल्कि ये ऐसा है कि इस ख़तरे का मैं किसी भी तरह से सामना नहीं कर सकता।"

"कोई बात नहीं मिस्टर कुलकर्णी।" मैंने गहरी सांस ली____"मैं समझ सकता हूं कि जान से बढ़ कर कुछ नहीं होता। मैं बस ये जानना चाहता हूं कि क्या आप इस मामले में किसी भी तरह की जानकारी हासिल नहीं कर पाए?"

"ऐसा नहीं है मिस्टेर विक्रम।" कुलकर्णी ने कहा____"शुरुआत में मैंने जो कुछ पता किया उससे मैं यही कहूंगा कि आपका शक सही था। यानि आपके पिता और उनके सभी दोस्त जैसा नज़र आते हैं वैसे हैं नहीं। आपके साथ जिस रोड पर हादसा हुआ था उस रोड पर जा कर भी मैंने पता किया। वो रास्ता मुख्य सड़क से हट कर जिस तरफ को जाता है वहां कुछ दूरी पर मैंने दो तीन इमारतें बनी हुई देखी हैं। उसके बाद कुछ छोटे बड़े फार्म हाउस भी दिखे। हालांकि रास्ता उसके आगे भी जाता है लेकिन आगे क़रीब दस किलो मीटर तक सड़क के दोनों तरफ बंज़र ज़मीन के अलावा कुछ नज़र नहीं आया। उसके बाद एक छोटा सा गांव पड़ता है और वहीं से होते हुए वो रास्ता आगे एक मुख्य सड़क से मिल जाता है। जहां पर आपके साथ हादसा हुआ था उसके आगे जो दो तीन इमारतें थीं उनके बारे में पता करने की मैंने कोशिश की लेकिन वहां मौजूद गॉर्डस ने ये कह कर मुझे भगा दिया कि यहाँ बाहरी लोगों का आना एलाऊ नहीं है। मेरे लिए ये अजीब बात थी क्योंकि किसी जगह या इमारत के बारे में पूछना कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके बारे में बताया न जा सके। यही हाल बाकी दोनों जगहों का भी था। मैंने सोचा कि शाम के समय जा कर वहाँ के बारे में अपने तरीके से पता करुंगा लेकिन उससे पहले ही मुझे मेरा पीछा किए जाने का एहसास हो गया। उसके बाद तो बस खुद को बचाते रहने का जैसे सिलसिला ही चल पड़ा।"

कुलकर्णी जिन इमारतों की बात कर रहा था उनमें से एक को मैं जानता था। उन इमारतों में से एक में सी. एम. एस. का मुख्यालय था जबकि दो इमारतें मेरे लिए भी अंजान थीं। हालांकि सी. एम. एस. के मुख्यालय में जाने के बाद भी कोई ये नहीं कह सकता था कि वहां पर इस नाम की कोई संस्था मौजूद हो सकती है क्योंकि मुख्यालय इमारत में तो था लेकिन ज़मीन के नीचे। इमारत के एक भाग में फैक्ट्री थी और मुख्य भाग को रेजिडेंस के लिए बनाया गया था जहां पर फैक्ट्री के मालिक की रिहाइश थी। इमारत का मालिक कौन था इस बारे में मुझे भी पता नहीं था और ना ही मैंने कभी देखा था उसे। हालांकि मैंने तो दूसरे भाग में मौजूद उस फैक्ट्री को भी नहीं देखा था जहां पर लाइट फिटिंग करने वाली पट्टियां बनतीं थी। सड़क के दूसरी तरफ दो और इमारतें थीं लेकिन वो किसकी थीं और वहां क्या था इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी।

"ख़ैर और क्या पता किया आपने?" मैंने फिर से गहरी सांस ले कर कुलकर्णी से पूछा।
"शुरु के दो तीन दिन मैंने यही देखा था कि आपके पिता जी के अलावा।" कुलकर्णी ने कहा____"उस रास्ते पर उनके सभी दोस्त भी जाते हैं। मेरी शुरू में की गई तहक़ीकात के अनुसार आपके पिता और उनके सभी दोस्त अपने अपने घरों से निकल कर पहले अपने ब्यवसायिक ऑफिस में जाते हैं। वहां से क़रीब एक या डेढ़ घंटे बाद वो निकलते हैं, उसके बाद आगे पीछे कुछ समय के अंतराल में वो सब उसी रास्ते की तरफ जाते हैं। हालांकि उस रास्ते पर उनकी मंज़िल कहां होती है ये मैं पता नहीं कर पाया लेकिन मेरा अनुमान है कि वो सब उन तीन इमारतों में से ही किसी पर जाते होंगे, या ये भी हो सकता है कि उसी रास्ते से हो कर वो आगे मुख्य सड़क पर पहुंचते हों। जहां से वो कहीं दूसरी जगह जाते होंगे। मैं ऐसा इस लिए कह रहा हूं क्योंकि वो रास्ता दूसरे शहर जाने के लिए शार्ट रास्ते का भी काम करता है, जबकि इधर के मुख्य सड़क से वहां तक पहुंचने में क़रीब सात किलो मीटर का अंतर पड़ता है।"

"और कुछ?" मैंने बड़ी उम्मीद के साथ पूछा।
"एक दिन मैंने आपके दोस्त रंजन को भी उस रास्ते पर जाते देखा था।" कुलकर्णी ने ये कहा तो मैं बुरी तरह चौंका, फिर खुद को सम्हाल कर बोला____"इस बात का क्या मतलब हुआ?"

"मतलब तो मुझे भी शुरू में समझ नहीं आया था।" कुलकर्णी ने कहा____"लेकिन अपने अंदर पैदा हुए शक को दूर करने के लिए जब मैंने आपके दोस्त के बारे में पता किया तो एक बात मेरी समझ में नहीं आई।"

"कैसी बात??" मैं उससे पूंछ तो बैठा था लेकिन जाने क्यों मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था।
"आपने बताया था कि आपके सभी दोस्त अब अपने अपने पिता के कारोबार में लग गए हैं।" कुलकर्णी ने एक सिगरेट जलाने के बाद कहा____"इस बात को ध्यान में रख कर जब मैंने तहक़ीकात की तो पता चला कि रंजन के पिता यानि संजय भाटिया का ऑफिस तो उस तरफ है ही नहीं जिसके लिए रंजन को उस रास्ते की तरफ जाना पड़े। सोचने वाली बात है कि अगर रंजन अपने पिता के कारोबार में उनके साथ ही लगा हुआ है तो वो उस रास्ते की तरफ क्यों जाएगा जिस रास्ते में उसके पिता का ऑफिस है ही नहीं? बल्कि ऑफिस तो शहर के दूसरे रास्ते की तरफ है। उस वक़्त मुझे ये बात समझ नहीं आई थी किन्तु जब मैंने ये देखा कि आपके पिता और उनके सभी दोस्त आगे पीछे कुछ समय के अंतराल में उसी ख़ास रास्ते की तरफ जाते हैं तो मुझे ये समझते देर न लगी कि रंजन भी अपने पिता की तरह मामूली शख्सियत वाला इंसान नहीं है।"

कुलकर्णी जाने क्या क्या कहे जा रहा था और यहाँ मेरे दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से एक तूफ़ान सा चल पड़ा था। मनो मस्तिष्क में विस्फोट से होने लगे थे। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ये ख़याल उभर आया था कि इसका मतलब रंजन भी मेरी तरह सी. एम. एस. नाम की संस्था का एजेंट है। हालांकि मुझे अभी भी इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन कुलकर्णी की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था। अगर ये सच था तो यकीनन मेरे लिए ये हैरान कर देने वाली बात थी। मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि रंजन ने कब और कैसे चूत मार सर्विस जैसी संस्था को ज्वाइन किया होगा?

डिटेक्टिव कुलकर्णी बस इतना ही जान पाया था। उसके बाद वो ये कह कर चला गया कि अब वो गधे के सिर के सींग की तरह इस शहर से ग़ायब हो जाएगा क्योंकि एक भयानक ख़तरे ने उसे चारो तरफ से घेर रखा है। कुलकर्णी के जाने के बाद मैं काफी देर तक इस सबके बारे में सोचता रह गया था। ख़ास कर रंजन के बारे में। मैं चाह कर भी रंजन से इस बारे में पूछतांछ नहीं कर सकता था, क्योंकि अगर सच में रंजन चूत मार सर्विस का एजेंट होगा तो संस्था के नियम के अनुसार मैं ना तो उसके बारे में जानने का सोच सकता था और ना ही उसके सामने ये ज़ाहिर कर सकता था कि मुझे असलियत पता है। मैंने महसूस किया कि अचानक से ही परिस्थितियां कितनी अजीब और तनावपूर्ण हो गईं थी।

ज़हन से सारी बातें निकाल कर मैं ऑफिस तो चला आया था लेकिन सारा दिन मैं इन्हीं सब बातों के बारे में सोचता रहा था। शाम को बाहर से ही डिनर कर के घर आया और अपने कमरे में बेड पर लेट गया। मैं सोचने लगा कि इसके पहले मेरी ज़िन्दगी कितनी बेहतर चल रही थी। यानि चूत मार सर्विस से जुड़ने के बाद मेरी सबसे बड़ी चाहत पूरी हुई थी और मैं तरह तरह की औरतों के साथ सेक्स का मज़ा लेता था किन्तु जबसे मुझे अपने पिता और उनके दोस्तों के रहस्यमयी होने का पता चला है तब से मैं निहायत ही चिंतित और परेशान सा रहने लगा हूं। मैं चाह कर भी अपने ज़हन से उनके ख़याल निकाल नहीं पा रहा था। मेरे अंदर सच जानने की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।

डिटेक्टिव कुलकर्णी को इस मामले का पता करने के लिए लगाया तो मामला और भी ज़्यादा गंभीर नज़र आने लगा था। मुझे अब समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस तरह से अपने पिता और उनके दोस्तों का सच पता करूं? सहसा मेरे मन में ख़याल उभरा कि क्या इस बारे में मुझे अपने पिता से पूछना चाहिए लेकिन सवाल था कि मैं उनसे आख़िर क्या पूछूंगा? कहने का मतलब ये कि मेरे पास कोई ऐसा आधार होना चाहिए जिसके बल पर मैं उनसे सवाल कर सकूं। मैं सोचने लगा कि उनसे कुछ पूछने के लिए किस चीज़ को आधार बनाना चाहिए मुझे? अभी मैंने ये सोचा ही था कि अचानक से मेरे ज़हन में मेरे मम्मी पापा के कमरे में मौजूद उस ख़ुफ़िया तहख़ाने का ख़याल आया। मैंने सोचा कि उस तहख़ाने को ही आधार बना कर मैं उनसे सवाल जवाब कर सकता हूं। मैंने इस बारे में काफी सोचा और आख़िर में मैंने यही फैसला किया कि मैं उस तहख़ाने के आधार पर ही उनसे सवाल जवाब करुंगा।

अपने घर से आए मुझे अभी आठ दिन ही हुए थे इस लिए मैं बिना वजह वापस घर नहीं जा सकता था। ऐसे में घर जा कर अगर मैं पापा से उनके कमरे में मौजूद उस तहख़ाने के सम्बन्ध में कुछ पूछूंगा तो संभव है कि उन्हें शक हो जाए। यानि वो ये सोच सकते हैं कि मैं सिर्फ तहख़ाने के बारे में जानने के लिए ही घर आया हूं। मैंने सोचा कि उनसे उस तहख़ाने के बारे में पूछने से पहले अलग से कोई भूमिका बनानी पड़ेगी, ना कि डायरेक्ट उनसे तहख़ाने के बारे में पूछा जाए।

रात पता नहीं कब मेरी आँख लग गई। सुबह उठा और फ्रेश होने के बाद मैं ड्राइंग रूम में आ कर सोफे पर बैठ गया। घर में काम करने के लिए करुणा नाम की एक औरत आती थी। सुबह का चाय नास्ता वही बनाती थी। सोफे पर बैठ कर मैंने टीवी चालू किया। तभी करुणा चाय और नास्ता ले कर आ गई। उसने नास्ता और चाय सेण्टर टेबल पर रखा और चली गई। मैंने प्लेट में रखे गोभी के पराठे की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि टीवी में चल रही न्यूज़ को देख कर मेरा हाथ जहां का तहां ठिठक गया। टीवी स्क्रीन पर मेरी निगाहें जमी की जमी रह गईं थी और मेरे दिल की धड़कनें मुझे रुक गईं सी प्रतीत हुईं।

टीवी पर न्यूज़ एंकर ख़बर सुना रही थी और स्क्रीन में उसके बगल से एक फोटो दिख रही थी। वो फोटो किसी और का नहीं बल्कि डिटेक्टिव कुलकर्णी का था। न्यूज़ एंकर बता रही थी कि पिछली रात पुलिस को मनीष कुलकर्णी नाम के इस आदमी की लाश शहर से बाहर जाने वाले रास्ते पर सड़क के किनारे पड़ी हुई मिली। लाश को देख कर साफ़ पता चलता है कि मनीष कुलकर्णी नाम के इस आदमी का मर्डर किया गया है। मृतक के सीने में दो गोलियां मारी गईं थी जिसके चलते उसकी मौत हो गई।

डिटेक्टिव मनीष कुलकर्णी के मर्डर की ख़बर टीवी में देख कर मेरे होश उड़ चुके थे। मैं ये तो समझता था कि मैंने जिस मामले को उसे सौंपा था उसमें उसकी जान तक जाने का ख़तरा था और ये बात आख़िर में कुलकर्णी भी जान चुका था किन्तु ना तो मुझे उसकी इस तरह जान चले जाने का यकीन था और ना ही शायद कुलकर्णी को रहा होगा। मेरी आँखों के सामने कुलकर्णी का चेहरा बार बार उजागर होने लगा था। अभी कल की ही तो बात थी। वो मेरे सामने इसी ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठा था। मनीष कुलकर्णी की इस तरह से हुई मौत ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया था। अगर मैं ये कहूं तो ज़रा भी ग़लत न होगा कि उसकी मौत का जिम्मेदार मैं खुद था। अगर मैं उसे अपने पापा और उनके दोस्तों के बारे में पता करने को नहीं कहता तो आज मनीष कुलकर्णी ज़िंदा होता। मेरा दिलो दिमाग़ एकदम से इस अपराध बोझ से भर गया। पलक झपकते ही मैं आत्मग्लानि में डूब गया। मेरा ज़मीर चीख चीख कर मुझे धिक्कारने लगा था। मेरी आँखों के सामने हर एक मंज़र बड़ी तेज़ी से घूमने लगा। ऐसा लगा जैसे मैं बेहोश हो जाऊंगा। मैंने बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हाला और रिमोट उठा कर टीवी बंद कर दिया।

इस मामले में मुझे ख़तरे का आभास तो था लेकिन ऐसी कल्पना मैंने हरगिज़ नहीं की थी कि कुलकर्णी के सिर पर मंडराने वाला ख़तरा इस तरह से भयानक रूप ले कर इतना जल्दी उसकी जान ले लेगा। कुलकर्णी की अकस्मात हुई मौत ने जहां मुझे हिला कर रख दिया था वहीं मैं ये सोचने पर भी मजबूर हो गया था कि क्या उसके मर्डर में मेरे पापा या उनके दोस्तों का हाथ हो सकता है? यकीनन हो सकता है क्योंकि कुलकर्णी उन्हीं सब के बारे में तो पता कर रहा था।

न नास्ते करने का दिल किया और ना ही चाय पीने का। भारी मन से मैं उठा और अपना एक छोटा सा ब्रीफ़केस ले कर घर से ऑफिस के लिए निकल गया। ऑफिस तो पहुंच गया लेकिन किसी भी चीज़ में मेरा मन नहीं लगा। बार बार आँखों के सामने टीवी स्क्रीन पर दिख रहे मनीष कुलकर्णी का फोटो उभर आता और कानों में न्यूज़ पढ़ने वाली उस संवाददाता की बातें गूजने लगतीं। बड़ी ही मुश्किल से दिन गुज़रा और मैं ऑफिस से घर आ गया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इस मामले में मुझे क्या करना चाहिए?

मैं अच्छी तरह जानता था कि कुलकर्णी की पहुंच ज़रूर पुलिस विभाग या उससे ऊपर तक भी हो सकती थी। ऐसे में पुलिस उसके मर्डर वाले मामले में चुप नहीं बैठेगी। यानि वो मनीष कुलकर्णी के मर्डर की बारीकी से जांच करेगी। ऐसे में अगर मैं उसके इस मामले में कुछ करुंगा तो ज़ाहिर है कि पुलिस का रुख़ मेरी तरफ भी होगा और उसके बाद पुलिस बाल की खाल निकालना शुरू कर देगी जो कि ज़ाहिर है कि मेरे लिए अच्छी बात नहीं होगी। मेरे माता पिता भी मुझे ऐसे मामले में फंसा हुआ नहीं देखना चाहेंगे। यही सोच कर मैंने कुलकर्णी के इस मामले में कुछ भी करने का अपना इरादा मुल्तवी कर दिया।

डिटेक्टिव कुलकर्णी के मर्डर का जिम्मेदार मैं था इस लिए अब मुझे हर कीमत पर ये जानना था कि उसका मर्डर किसने किया था और क्यों किया था? अगर कुलकर्णी को जान से मारने वाले मेरे अपने ही थे तो अब मुझे पता करना था कि आख़िर किस वजह से मेरे अपनों ने उसकी जान ली? आख़िर ऐसा क्या हो गया था जिसकी वजह से कुलकर्णी को उनके द्वारा अपनी जान से हाथ धोना पड़ा?

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Ju ko ider dek kar dil garden ho gaya :hug:
 
Bᴇ Cᴏɴғɪᴅᴇɴᴛ...☜ 😎
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अध्याय - 27
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अब तक...

डिटेक्टिव कुलकर्णी के मर्डर का जिम्मेदार मैं था इस लिए अब मुझे हर कीमत पर ये जानना था कि उसका मर्डर किसने किया था और क्यों किया था? अगर कुलकर्णी को जान से मारने वाले मेरे अपने ही थे तो अब मुझे पता करना था कि आख़िर किस वजह से मेरे अपनों ने उसकी जान ली? आख़िर ऐसा क्या हो गया था जिसकी वजह से कुलकर्णी को उनके द्वारा अपनी जान से हाथ धोना पड़ा?

अब आगे....



डिटेक्टिव मनीष कुलकर्णी का मर्डर हुए क़रीब एक हप्ता गुज़र गया था। इस एक हप्ते में मैंने शहर में थोड़ी बहुत पुलिस की गहमा गहमी देखी थी और न्यूज़ चैनल पर भी उसके बारे में ख़बरें आती देखीं थी लेकिन जैसे जैसे दिन गुज़र रहे थे कुलकर्णी के मर्डर का मामला फीका पड़ता जा रहा था। मैं समझ गया कि या तो पुलिस उसके मर्डर पर कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखा रही है या फिर शायद ऐसा था कि कुलकर्णी के मर्डर वाले मामले को जान बूझ कर दबाया जा रहा था। मैं अच्छी तरह जानता था कि पुलिस अगर चाह लेती तो वो कुलकर्णी के खूनी को देर सवेर पकड़ सकती थी लेकिन मैं समझ गया था कि पुलिस पर दबाव बना दिया गया था।

मैं पिछले एक हप्ते से यही देखने और समझने की कोशिश कर रहा था कि पुलिस का इस मामले में कैसा बेहैवियर है। अब मैं समझ चुका था कि कुलकर्णी का हत्यारा अब कभी सामने नहीं आने वाला था लेकिन मेरी नज़र में ये सही नहीं था। कुलकर्णी की मौत मेरी वजह से हुई थी और जब तक मैं उसके हत्यारे का पता नहीं लगा लेता तब तक मुझे ना तो चैन मिलने वाला था और ना ही मैं अपराधबोझ से दूर हो सकता था।

मैं इतना तो अब पक्के तौर पर समझ चुका था कि कुलकर्णी की मौत में मेरे ही अपनों का हाथ था लेकिन असल में उसका क़ातिल कौन था ये जानना मेरे लिए बेहद ज़रूरी था। अभी तक मैं ये सोच कर चुप बैठा था कि सारा मामला मेरे पेरेंट्स से सम्बन्ध रखता था और मैं इस बारे में जानने के लिए कहीं न कहीं झिझक महसूस करता था लेकिन अब मामला हद से बाहर हो चुका था।

रात में बेड पर लेटा मैं कुलकर्णी के ही बारे में सोच रहा था। मैंने फ़ैसला किया कि अब जो होगा देखा जाएगा किन्तु अब मैं हर कीमत पर सच का पता लगा के ही रहूंगा। सुबह मैं उठा और फ्रेश होने के बाद कपड़े पहने। उसके बाद अपना एक छोटा सा ब्रीफ़केस ले कर घर से निकल लिया। सड़क पर आ कर मैंने एक टैक्सी रूकवाई और उससे रेलवे स्टेशन चलने को कहा।

क़रीब चार घंटे के सफर के बाद मैं अपने शहर पहुंच गया। मैंने इस बात का ख़ास ख़याल रखा था कि मेरे यहाँ आने तक किसी ने मेरा पीछा तो नहीं किया था। मैं नहीं चाहता था कि मेरे यहाँ आने का उन लोगों को पता चल जाए। ऐसे में वो सतर्क हो सकते थे।

मार्केट में जा कर मैंने कुछ ख़ास चीज़ें ख़रीदीं और उन्हें ले कर होटल पहुंच गया। मैंने यहाँ पर रुकने के लिए होटल में एक कमरा बुक करवा लिया था। होटल में पहुंच कर मैं पहले फ्रेश हुआ। मेरे पास अभी काफी वक़्त था इस लिए मैंने आराम करने का सोचा और बेड पर लेट गया।

शाम को मेरी आँख खुली तो मैं फ्रेश हो कर तैयार हुआ। छोटे से बैग में मैंने खरीदी हुई वो ख़ास चीज़ें भी रख लीं। उसके बाद मैं कमरे से निकल कर सीधा होटल के बाहर आ गया। मैंने एक कार किराए पर लेने के लिए एक जगह बात की थी इस लिए ऑटो में बैठ कर मैं उस जगह गया। किराए पर कार ले कर मैं उस कार मैं बैठ कर निकल पड़ा।

शाम का धुंधलका छा गया था। मैं कार से एक ऐसी जगह पहुंचा जहां आस पास कोई नहीं था और अँधेरे में किसी के देख लिए जाने का ख़तरा भी नहीं था। मैंने बैग से वो ख़ास चीज़ें निकाल कर कार की शीट पर रखी और अपना हुलिया चेंज करने लगा। क़रीब आधे घंटे बाद मैंने कार के अंदर की लाइट जला कर मिरर में खुद को देखा। मेरा हुलिया पूरी तरह बदल चुका था। अब इतना जल्दी मैं किसी की पहचान में नहीं आ सकता था। सब कुछ ठीक ठाक होने के बाद मैंने कार को स्टार्ट कर के आगे बढ़ा दिया। अब मैं अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ता चला जा रहा था।

क़रीब बीस मिनट बाद एक तीन मंजिला इमारत के क़रीब पहुंच कर मैंने कार रोकी। इमारत और मेरे बीच का फासला क़रीब बीस क़दम की दूरी पर था। हालांकि सड़क के दोनों तरफ इमारतें थी जो कि आपस में जुडी हुई ही थी, जैसा कि शहरों में दिखती हैं। दोनों तरफ की इमारतों के बीच काफी चौड़ी सड़क थी जिसके दोनों तरफ इक्का दुक्का वाहन खड़े हुए थे। मैंने अपने बाएं हाथ में बंधी घड़ी पर टाइम देखा। शाम के साढ़े आठ बज रहे थे। मैंने आहिस्ता से कार को एक वाहन के बगल से लगा कर खड़ी कर दिया।

कार में बैठे बैठे ही मैं बीस क़दम की दूरी पर दिख रही इमारत की तरफ देखने लगा। बताने की ज़रूरत नहीं कि मैंने कार के अंदर की लाइट बंद कर ली थी। कार के सभी शीशों पर काली पन्नी लगी हुई थी जिससे बाहर का कोई भी मुझे देख नहीं सकता था। ये कार मैंने इसी लिए किराए पर ली थी ताकि कोई अंदर का देख न सके।

क़रीब आधा घंटा इंतज़ार करने के बाद मैंने देखा कि बीस कदम की दूरी पर दिख रही इमारत का बड़ा सा गेट खुला और उस गेट से दो लोग बाहर निकले। एक मर्द था और दूसरी औरत। दोनों ऐसे सजे हुए थे जैसे किसी ख़ास जगह पर जाने के लिए तैयार हो कर निकले थे। दोनों के ही चेहरे चमक रहे थे और काफी खुश भी दिख रहे थे। मेरे देखते ही देखते वो दोनों सड़क पर आए और वहीं पास में ही किनारे पर खड़ी एक कार का दरवाज़ा खोल कर उसके अंदर बैठ ग‌ए।

दोनो के बैठते ही कार स्टार्ट हुई। कार की हेड लाइट जल उठने से सड़क पर तेज़ रौशनी फ़ैल गई थी। मैं साँसें रोके उस कार को ही देख रहा था। कार आगे बढ़ी तो मैं भी उसके पीछे चलने के लिए तैयार हो गया। कार जब आगे जा कर एक मोड़ पर मुड़ गई तो मैंने भी अपनी कार स्टार्ट की और झट से उनके पीछे लग गया।

डिटेक्टिव कुलकर्णी के द्वारा मैं इतना तो समझ गया था कि अगर कोई उनका पीछा करता है तो शायद उन्हें फ़ौरन ही इसका पता चल जाता है। यही सोच कर मैंने अपना हुलिया बदला था और बदले हुए हुलिए के बावजूद मुझे इस बात का ख़ास ख़याल रखना था कि उन्हें मेरे द्वारा अपना पीछा किए जाने का ज़रा भी एहसास न हो। जहां से उनकी कार मुड़ी थी वहां पर "टी पॉइंट" था, यानी दो तरफ जाने के लिए रास्ता था। मैंने दूसरी तरफ को मुड़ने का सोच कर कार को उसी तरफ मोड़ दिया। ये दोनों ही रास्ते आगे जा कर मुख्य सड़क से मिल जाते थे। मुझे बस इतना ही करना था कि उनके मुख्य सड़क पर पहुंचने से पहले ही मुख्य सड़क पर पहुंच कर उनके पीछे पहुंच जाना था। मतलब कि उन्हें ऐसा लगे जैसे अन्य वाहन मुख्य सड़क पर उनके पीछे आ रहे हैं वैसे ही मैं भी उनका हिस्सा हूं।

मैं तेज़ी से मुख्य सड़क पर आ गया था। मुख्य सड़क पर आ कर जैसे ही मैं मुड़ा था तो कुछ ही पलों में उनकी कार भी आ कर मुड़ गई थी। ये मेरी किस्मत ही थी कि वो मेरे आगे जाने वाले रास्ते की तरफ मुड़ गए थे वरना अगर वो मेरी तरफ मुड़ते तो ज़ाहिर है कि मेरे लिए परेशानी हो जाती क्योंकि उनका पीछा करने के लिए मुझे भी वापस मुड़ना पड़ता। ख़ैर मैं उनकी कार पर नज़र जमाए उनके काफी पीछे फासला बना कर चलने लगा था।

काफी देर तक मैं उनके पीछे फासला बनाए चलता रहा। मैं जानता था कि जब तक मैं मुख्य सड़क पर हूं तब तक उन्हें अपना पीछा किए जाने का शक नहीं होगा क्योंकि मुख्य सड़क पर कई सारे वाहन आ जा रहे थे किन्तु मुख्य सड़क के बाद उन्हें शक हो सकता था। इधर मैं ये समझने की कोशिश कर रहा था कि वो कार में किस तरफ जा रहे होंगे?

कुछ ही देर में जब वो मुख्य सड़क से हट कर बाएं तरफ मुड़े तो मैं समझ गया कि वो कहां जा रहे हैं इस लिए मैं उनके पीछे गया ही नहीं बल्कि सीधा ही चला गया। सीधा जाने का एक मतलब ये भी था कि अगर किसी को मेरे द्वारा उनका पीछा करने का शक भी हुआ हो तो मेरे सीधा चले जाने पर उनका वो शक दूर हो जाए और वो मेरी तरफ से बेफिक्र हो जाएं।

मुख्य सड़क पर चलते हुए मैं क़रीब एक किलोमीटर के आगे ही आ कर रुका। कार को मैंने सर्विस लेन पर एक जगह खड़ी कर दिया। कार से उतर कर मैंने उसे लॉक किया और मुख्य सड़क पर आ गया। मैंने एक ऑटो वाले को हाथ दे कर रुकवाया और उससे अपने गंतव्य पर चलने के लिए कहा। ऑटो में बैठ कर मैं उसी तरफ को चल पड़ा जिधर वो कार मुड़ कर गई थी।

क़रीब दस मिनट बाद मैंने एक जगह ऑटो वाले को रुकने को कहा और उसे उसका किराया दे कर चलता किया। रात के सवा नव बज चुके थे। मैं अंदर से थोड़ा घबराया हुआ तो था लेकिन मैंने भी सोच लिया था कि अब जो होगा देखा जाएगा।

कुछ दूर पैदल चलने के बाद मैं एक जगह अँधेरे में रुक गया। कुछ ही दूरी पर मुझे एक इमारत दिख रही थी। उस इमारत के अगल बगल भी इमारतें थीं किन्तु थोड़ा हट कर। मैं अँधेरे का फायदा उठा कर आगे बढ़ चला। एकदम से मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था। ख़ैर जल्दी ही मैं इमारत के पिछले हिस्से की तरफ पहुंच गया। मैंने गौर से इधर उधर देखा और दिवार के किनारे किनारे चलते हुए मैं इमारत के साइड व्यू पर आ गया।

मैंने आस पास दिख रही इमारतों की तरफ बड़ी ही बारीकी से देखते हुए मुआयना किया। इमारतों के अंदर लाइट जल रही थी किन्तु मुझे ऐसा बिलकुल भी प्रतीत नहीं हुआ कि मैं जो करने वाला हूं उसे देखने वाला वहां कोई मौजूद था। सड़क पर भी इक्का दुक्का वाहन ही आते जाते दिख जाते थे जोकि कुछ समय के अंतराल में ही आते जाते थे। मैं जब अच्छी तरह मुतमईन हो गया तो मैंने पीठ पर टंगे अपने बैग को निकाला और उसमें से एक रस्सी निकाली। रस्सी को खोल कर मैंने ऊपर दिख रही बालकनी की तरफ देखा। बालकनी लोहे की थी। मैंने रस्सी के एक सिरे को पकड़ कर बड़ी सावधानी से ऊपर की तरफ उछाल दिया। रस्सी का सिरा ऊपर तेज़ी से गया और लोहे के स्टैंड पर जो ऊपर थोड़ा सा कुंडा उठा हुआ था उसमें फंस गया। रस्सी के दूसरे छोर पर मैंने तीन चार मोटी मोटी गाँठ बाँध दी थी जो उस कुंडे में फंस गई थी। मैंने इधर से ज़ोर लगा कर खींचा तो वो टस से मस न हुआ।

एक बार फिर से मैंने आस पास गौर से देखा और फिर आस्वस्त होने के बाद रस्सी को पकड़ कर ऊपर की तरफ चढ़ना शुरू कर दिया। मैं जानता था कि ये बहुत ही ख़तरनाक काम था किन्तु मैं ये भी जानता था कि अब बिना कोई ख़तरा उठाए कोई काम नहीं होने वाला था। ट्रेनिंग में ये सब मैं कर चुका था इस लिए मुझे रस्सी के सहारे ऊपर बालकनी में पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई। जल्दी ही मैं बालकनी में आ गया।

धाड़ धाड़ बजते अपने दिल की धड़कनों को मैंने काबू किया और फिर बालकनी की लम्बी राहदारी में आगे बढ़ चला। जल्दी ही मैं एक खिड़की के पास पहुंच गया। खिड़की में अंदर से पर्दा लगा हुआ था इस लिए अंदर का कुछ दिखने का सवाल ही नहीं था किन्तु खिड़की पर लगा पर्दा चमक रहा था जिससे ज़ाहिर था कि अंदर कमरे में लाइट जल रही है। खिड़की लकड़ी की ही थी और उसके दोनों पल्लों में कांच का शीशा लगा हुआ था। पर्दा क्योंकि अंदर से लगा हुआ था इस लिए अगर मैं खिड़की के एक पल्ले को आहिस्ता से सरकाता भी तो अंदर कमरे में मौजूद किसी को पता नहीं चल सकता था। मैंने एक हाथ से खिड़की के उस पल्ले को बहुत ही आहिस्ता से बाएं तरफ को सरकाया जिससे क़रीब चार अंगुल की जगह बन गई। मेरे लिए इतना काफी था। मैंने एक बार पीछे पलट कर देखा। वातावरण में एकदम से ख़ामोशी छाई हुई थी। हालांकि अगर कोई ध्यान से देखता तो पता चल जाता कि इमारत के पहले फ्लोर की खिड़की के पास कोई खड़ा है। मेरे पास छुपने का कोई जुगाड़ नहीं था किन्तु मजबूरी थी इस लिए जान हथेली पर रख कर मैं उस खिड़की के पास ही खड़ा था और खिड़की में बाशनी उस थोड़ी सी जगह में अपने कान लगा दिए थे मैंने।

"अवधेश और माधुरी नहीं आए क्या?" मेरे कान में खिड़की के अंदर से आवाज़ आई। आवाज़ तरुण के पापा सीराज पटेल की थी। मैं उन्हीं का पीछा करते हुए यहाँ तक आया था_____"ये दोनों कभी भी समय पर नहीं पहुंचते।"

"आते ही होंगे।" शेखर के पापा जीवन अंकल की आवाज़____"शायद रास्ते में होंगे। तुम दोनों तब तक व्हिस्की का आनंद लो।"
"मूड तो बनाना ही पड़ेगा जीवन।" सीराज अंकल ने कहा____"वरना गरिमा भाभी से आँख कैसे मिला पाऊंगा?"

"ओहो! तो मुझसे आँख मिलाने के लिए आपको इस व्हिस्की का सहारा लेना पड़ेगा?" शेखर की मम्मी गरिमा आंटी की खनकती हुई आवाज़ आई_____"क्या यही मर्दानगी है?"

"मर्दानगी दिखाने का आपने मौका ही कब दिया भाभी?" सीराज अंकल की ऐसी आवाज़ आई जैसे उन्हें बड़ा अफ़सोस था____"वरना आपको भी पता चल जाता कि जीवन से किसी भी मामले में कम नहीं हूं मैं।"

"यही बात तो मैं भी जाने कब से सौम्या भाभी से कहता आ रहा हूं सीराज।" जीवन अंकल की आवाज़ आई। सौम्या, सीराज अंकल की वाइफ और तरुण की मम्मी का नाम था_____"लेकिन ये कभी मौका ही नहीं देती हैं।"

"हमारी बीवियों को तो बस एक ही सनक सवार है भाइयो।" संजय अंकल की आवाज़ आई_____"और वो ये कि जब तक ये सभी अपने अपने बेटों से सम्भोग का सुख नहीं ले लेतीं तब तक ये हमारी इच्छाएं पूर्ण नहीं करेंगी।"

"ये तो सरासर हम पर ज़ुल्म है कीर्ति भाभी।" सीराज अंकल ने संजय अंकल की वाइफ और रंजन की मम्मी का नाम लेते हुए कहा____"भला ये कैसी ज़िद पाल रखी है आप औरतों ने? अरे! भाई हमारा भी कुछ ख़याल रखिए।"

"पहले आप लोग हमारी इच्छा की पूर्ती कीजिए।" कीर्ति आंटी की आवाज़ आई____"उसके बाद हम सब आपकी इच्छाओं की भी पूर्ती कर देंगे।"
"सही कहा कीर्ति तुमने।" गरिमा आंटी ने कहा____"ये लोग जब तक हमारी इच्छाएं पूरी नहीं करेंगे तब तक इनकी इच्छा भी नहीं पूरी होगी। अब इसे ये लोग हमारी ज़िद कहें या अपने अपने बेटों के प्रति हमारा पागलपन से भरा हुआ प्यार।"

"आप लोगों की इच्छा पूरी करने के काम में ही लगे हुए थे हम लोग।" सीराज अंकल की आवाज़ आई____"लेकिन अवधेश के लाडले विक्रम की वजह से हम फिलहाल एक अलग ही चक्कर में पड़ गए हैं। पता नहीं उसके अंदर कौन सी सनक सवार हो गई है कि उसे अपनी जान का भी कोई मोह नहीं रह गया है।"

"अवधेश भाई साहब की जिस दिन मैरिज एनिवर्सरी थी।" कीर्ति आंटी की आवाज़____"उस रात उसने पता नहीं ऐसा क्या सुन लिया था जिसकी वजह से उसके मन में हम सबके बारे में शक पैदा हो गया था। हालांकि हमने तो खुल कर कोई बात भी नहीं की थी। आज हालात यहाँ तक पहुंच गए हैं कि उसने हमारे बारे में पता करने के लिए मनीष कुलकर्णी नाम के किसी डिटेक्टिव को भी लगा दिया था।"

"बिल्कुल सही कहा आपने भाभी।" जीवन अंकल की आवाज़____"वो तो अच्छा हुआ की समय रहते हमें इस बात का पता चल गया और हमने उस कुलकर्णी नाम के डिटेक्टिव को धर लिया और उसका क्रिया कर्म करवा दिया वरना वो हमारी तह तक पहुंच जाता जोकि हमारे लिए ज़रा भी अच्छी बात नहीं होती।"

"कुलकर्णी तो स्वर्ग सिधार गया।" संजय अंकल की गंभीर आवाज़ आई____"लेकिन इससे प्रॉब्लम साल्व नहीं हुई है बल्कि और भी बढ़ गई है। विक्रम कोई छोटा सा बच्चा नहीं है जो इतना कुछ हो जाने के बाद डर जाएगा और अपने ज़हन से हमारे बारे में जानने का ख़याल निकाल कर चुप बैठ जाएगा। कुलकर्णी की मौत से यकीनन उसे बेहद झटका लगा होगा और कहीं न कहीं वो कुलकर्णी की मौत का जिम्मेदार खुद को ही मानने लगा होगा। ऐसे में अब वो हर कीमत पर यही चाहेगा कि वो कुलकर्णी की मौत की वजह का पता लगाए और साथ ही ये भी कि हमारी वास्तविकता क्या है। मैंने अपने आदमियों को उस पर कड़ी नज़र रखने के लिए लगा दिया है। अब देखना ये है कि वो इस मामले में क्या करता है?"

"मेरे हिसाब से तो अब उस पर नज़र रखने की ज़रूरत ही नहीं है।" सीराज अंकल की आवाज़ आई____"मैंने पहले भी यही कहा था कि ऐसे हर उस ब्यक्ति का जीवित रहना ठीक नहीं है जिसके मन में हमारे प्रति किसी तरह का शक पैदा हो चुका हो। हमारे द्वारा बनाए गए नियम कानून भी हैं यही कि अगर कोई हमारे बारे में पता करने का सोचे भी तो उसे इस दुनियां से ही उठा दिया जाए।"

"मैं सीराज की बात से सहमत हूं।" जीवन अंकल की आवाज़ आई____"जब हम ही कानून का पालन नहीं करेंगे तो दूसरा कोई कैसे करेगा? हमें किसी के साथ पक्षपात करने का कोई हक़ नहीं होना चाहिए।"

"अगर ऐसा मामला तुम्हारे अपने बेटे शेखर का होता।" संजय अंकल की आवाज़ आई____"क्या तब भी तुम इतनी आसानी से ऐसा कह सकते थे? मैं मानता हूं कि किसी के भी साथ पक्षपात करना जायज़ नहीं है लेकिन आखिरी निर्णय लेने का हक़ हमारा नहीं है। आज हम इसी बात के लिए यहाँ इकठ्ठा हुए हैं ताकि अवधेश से इस सम्बन्ध में बात की जाए और उसको हालात की गंभीरता से अवगत कराएं। मुझे यकीन है कि मौजूदा हालात में वो यही निर्णय लेगा जो क़ानूनी होगा और हमारे लिए हितकर होगा।"

संजय अंकल की इस बात के बाद अंदर कमरे में सन्नाटा छा गया था। इधर खिड़की के पास खड़ा मैं एक अलग ही दुनिया में पहुंच गया था। अंदर उन लोगों ने जो भी बातें की थी उसने मेरे शक को यकीन में बदल दिया था। सबसे ज़्यादा मैं ये सोच कर आश्चर्य चकित था कि हम सभी दोस्तों की मम्मियां अपने अपने बेटों के प्रति किस तरह की हसरत पाले हुए थीं। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था कि ये बात सच भी हो सकती है।

अभी मैं ये सोच ही रहा था कि फ़िज़ा में किसी वाहन के आने की आवाज़ सुन कर मैं चौंक गया। पलट कर पीछे देखा तो लोहे वाले गेट के बाहर सड़क पर एक कार रुकी हुई नज़र आई मुझे। मैं समझ गया कि वो मेरे पेरेंट्स हैं। मैं फ़ौरन ही अपनी जगह पर उकडू बैठ गया जिससे कि उस तरफ से मैं उन्हें दिखाई न दे सकूं। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें बड़ी तेज़ी से चल रहीं थी। मेरे ज़हन में तरह तरह की आशंकाएं उभरती जा रहीं थी। अंदर जो भी बातें हुई थी उन्हें सुनने के बाद मैं समझ गया था कि वो लोग मेरे पेरेंट्स के आने का इंतज़ार कर रहे थे। मैं भी जानना चाहता था कि इस परिस्थिति में मेरे पापा उनसे क्या बातें करते हैं और मेरे बारे में क्या फैसला सुनाते हैं?

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