शायरी और गजल™

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एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर हूँ मैं
हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समुन्दर मुझको
 
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ज़ख़्म चेहरे पे, लहू आँखों में, सीना छलनी,
ज़िन्दगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको
 
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दुख तो ये है मेरा दुश्मन ही नहीं है कोई
ये मेरे भाई हैं कहते हैं जो बाबर मुझको
 
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मुझसे आँगन का अँधेरा भी नहीं मिट पाया,
और दुनिया है कि कहती है ‘मुनव्वर’ मुझको।
 
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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
 
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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
 

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