शायरी और गजल™

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तमाम शब जहाँ जलता है इक उदास दिया,
हवा की राह में इक ऐसा घर भी आता है।।
 
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तेरे बदन से जो छू कर इधर भी आता है।
मिसाल-ए-रंग वो झोंका नज़र भी आता है।।
 
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अब तो ख़ुद अपनी साँसें भी लगती हैं बोझ सी,
उमरों का देव सारी तवनाई ले गया।।
 
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कभी कभी मुझे मिलने बुलंदियों से कोई,
शुआ-ए-सुब्ह की सूरत उतर भी आता है।।
 
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अभी सिनाँ को सँभाले रहें अदू मेरे,
के उन सफ़ों में कहीं मेरा सर भी आता है।।
 
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चले जो ज़िक्र फ़रिश्तों की पारसाई का,
तो ज़ेर-ए-बहस मक़ाम-ए-बशर भी आता है।।
 
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जहाँ लहू के समंदर की हद ठहरती है,
वहीं जज़ीरा-ए-लाल-ओ-गुहर भी आता है।।
 
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वफ़ा की कौन सी मंज़िल पे उस ने छोड़ा था,
के वो तो याद हमें भूल कर भी आता है।।
 
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सुर्खियाँ अमन की तलकीन में मशरूफ रहीं,
हर्फ़ बारूद उगलते रहे अख़बार के बीच।।
 
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अपनी पोशाक के छिन जाने का अफ़सोस न कर,
सर सलामत नहीं रहते यहाँ दस्तार के बीच।।
 

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