Romance राजवंश

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राज ने घृणा पूर्ण दृष्टि से जय की ओर देखा...फिर चारों ओर देखकर उसने जेबों में हाथ डाले...एक जेब से कार की चाबी निकाली, दूसरी जेब से नोटों का पर्स और तीसरी जेब से सोने का सिगरेट-केस। उसने घृणा से ये सब चीजें जय की ओर बढ़ा दीं। जय ने उन चीजों पर अपना अधिकार जमाते हुए मुस्करा कर कहा, “और ये कपड़े?...चलो मैं दया करके छोड़ देता हूं, क्यों कि तुम यहां से नंगे नहीं जा सकते....”

राज की आंखों में घृणा ने प्रतिशोध का रूप धारण कर लिया...उसका मन तो चाहा कि वह अपने पहने हुए वस्त्रों को फाड़ फेंके, किन्तु; विवश-सा वह इस अपमान को पी गया।

मित्रों को साथ लेकर वह तेजी से हॉल से बाहर निकल गया। उसके बाहर जाते ही जय ने बड़ी प्रसन्न मुद्रां में अतिथियों को सम्बोधित किया, “सज्जनो! आप किस प्रतीक्षा में हैं...खाना ठंडा हो रहा है। कृपया आरम्भ कीजिए...।”

द्वार से गुजरते हुए राधा ने राज को देखा तो उसकी आंखों में अनायास आंसू उमड़ आए। राजा ने मां की साड़ी छूते हुए पूछा, “मम्मी, अंकल कहां जा रहे हैं?”

राधा ने कोई उत्तर न दिया। वह केवल भीगी आंखों से राज को जाते देखती रही। मां से कोई उत्तर न पाकर राजा भागकर राज के पैरों से लिपट गया और बोला, “अंकल...आप कहां जा रहे हैं अंकल! आप ही के पास होने पर तो यह समारोह हो रहा है...और आप ही जा रहे हैं...”

राज ने झुककर राजा को देखा। उसके भोले-भाले चेहरे पर एक गहरी वेदना थी और आंखों में आंसू झलक रहे थे। राज का मन भी भर आया। उसने राजा के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और धीरे-से दबी आवाज में बोला, “हां बेटे! मैं जा रहा हूं...ऐसी जगह जहां खून के दरिया को सुनहरी दीवारें विभक्त न कर सकें...”

“नहीं अंकल! मैं नहीं जाने दूंगा आपको...आप नहीं जाएंगे...”

राजा रोते हुए राज की टांगों से लिपट गया। राज ने बड़ी कठिनाई से उसे अलग किया। नीचे बैठकर उसे प्यार किया और फिर तेजी से उठकर द्वार की ओर बढ़ गया। राजा हाथ उठा-उठाकर चिल्लाता ही रहा, “अंकल...अंकल...”

राधा के चेहरे पर चिन्ता और बेचैनी की गहरी रेखाएं उभर आईं...उसने घबराकर बाहर द्वार की ओर देखा जहां से राज अभी-अभी बाहर निकला था। जय इस समय मिठाई का एक टुकड़ा उठाकर मुंह में डाल रहा था। राधा ने पति के कंधे पर हाथ रखकर बड़े दुख से कहा, “देखिए तो...राज सचमुच ही जा रहा है...भगवान के लिए उसे रोक लीजिए...”

“चुप...!” जय इतनी जोर से चिल्लाया कि राधा हड़बड़ाकर पीछे हट गई और डरी हुई दृष्टि से जय को देखने लगी।

यों गला फाड़कर चीखने से जय को खांसी आ गई और वह सीने पर हाथ रखकर बुरी तरह खांसने लगा।
 
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राज ने अपने ध्यान में खोए जेब टटोली, फिर चौंक पड़ा और ठंडी सांस लेकर अनिल से बोला, “एक सिगरेट देना...”

अनिल ने जेब में हाथ डाला और कुमुद की ओर देखकर बोला, “पैकेट खुला हुआ नहीं है, तुम जरा एक सिगरेट निकालो...”

कुमुद ने सिगरेट निकालकर राज को दिया। राज ने अनिल और कुमुद को ध्यान से देखा फिर सिगरेट सुलगाकर धुआं ऊपर छोड़ा...

“अब धुआं ही छोड़ते रहोगे या कुछ सोचोगे भी?”


“क्या सोचूं?” राज कुछ खिन्न होकर बोला, “मेरे मस्तिष्क में तो बस एक ही बात बार-बार चक्कर लगा रही है, मेरे पास पिस्तौल होती तो इस स्वार्थी आदमी को गोली मार देता...”

“गोली उसे क्यों मारते...” कुमुद ने बुरा-सा मुंह बनाकर कहा, “गोली मारनी है तो अपने डैडी को मारो...”


“डैडी मर चुके हैं...किन्तु मैं तो अब भी नहीं सोच सकता कि वह मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय करेंगे...”

“खूब!” अनिल व्यंग्यात्मक ढंग से बोला, “तुम अभी तक इसे अपने डैडी का अन्याय ही समझ रहे हो...”

“और क्या समझूं...?” राज ने अनिल को घूरकर कहा।

“यार! हमने दुनिया देखी है...यह दुनिया एक बहुत बड़ा रंगमंच है, जहां भांति-भांति के नाटक होते रहते हैं...और जो लोग नाटक की कला में कुशल होते हैं वे किसी भी दृष्टि में अपनी इच्छानुसार जो मोड़ चाहें उत्पन्न कर सकते हैं...”

“क्या मतलब...?”

“अब मतलब भी समझाना पड़ेगा...” अनिल झल्लाकर बोला, “क्या तुमने शिक्षा झक मारने के लिए प्राप्त की है? अरे कभी भी पिता अपनी संतान से ऐसा अन्याय नहीं कर सकता है...जो वसीयत खन्ना साहब ने दिखाई है वह तुम्हारे डैडी की असली वसीयत नहीं हो सकती...वसीयत जाली भी बनाई जा सकती है...”

“क्या कहते हो?” राज धीरे-से बोला, “इस पर डैडी के हस्ताक्षर हैं...”

“हस्ताक्षर क्या नकली नहीं हो सकते? मेरे पास लाओ...मैं उसकी वैसी ही नकल करके दिखा सकता हूं...”

“अरे हां...” फकीरचन्द उछलकर बोला, “यह तो मैंने सोचा ही नहीं था।”

“अब मुझे विश्वास है कि यह वसीयत जाली है...” धर्मचन्द संभलता हुआ आवेश में बोला, “और यदि तुम इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दो तो न केवल न्यायालय से तुम्हें अपनी सम्पत्ति का आधा भाग मिल जाएगा बल्कि जाली वसीयत बनाने के अपराध में जय और खन्ना साहब को जेल की हवा खानी पड़ेगी...”

राज की आंखें चमक उठीं...उसके नथुने फूल गए...जय को बन्दीगृह में देखने की कल्पना से उसके प्रतिशोध की भावना को कुछ सन्तोष मिला। वह बड़बड़ाया, “मैं...मैं...उसे न्यायालय में चैलेंज करूंगा...”

“और हम सब लोग तुम्हारे साथ हैं...” अनिल सहानुभूति से राज के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, “कोई चिन्ता न करो...तुम इस संसार में अकेले नहीं हो...मुझे विश्वास है कि तुम सफल होकर रहोगे...तुम्हारी सम्पत्ति, तुम्हारा कारोबार तुम्हें अवश्य मिलेगा...पच्चीस करोड़ थोड़े नहीं होते राज! इससे एक पूरी रियासत खरीदी जा सकती है...अपनी कोठी, अपनी कारें...हम पग-पग पर तुम्हारे साथ होंगे...”

“मुझे अपना मैनेजर बना लेना....” कुमुद ने बड़े मूड़ में कहा, “मेरे बाबा मुझे सदा निखट्टू कहकर पुकारते हैं...मैं उन्हें बता दूंगा कि मैं निखट्टू नहीं हूं...”
 
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“मुझे तो भाई केवल पच्चीस हजार रुपये उधार दे देना,” फकीरचन्द ठंडी सांस लेकर बोला, “इस साले हर दिन के झगड़े से छुटकारा मिल जाएगा...मैं अपना कारोबार अलग करके बैठ जाऊंगा...”

“मेरा काम केवल दस हजार में चल जाएगा...” धर्मचन्द आगे खिसकता हुआ बोला, “एक वर्ष हो गया जब तुम्हारी भाभी के गहने, काम आरम्भ करने के लिए गिरवी रखे थे...आज तक नहीं छुड़ा सका...अब तुम्हारे द्वारा यह काम हो जाए तो जीवन-भर तुम्हारी भाभी तुम्हें आशीर्वाद देगी...”

“तुम लोग अभी से कल्पना की दुनिया में विचरने लगे हो...” अनिल बुरा-सा मुंह बनाकर बोला, “अरे राज को मुकदमा जीतने तो दो...फिर जो कुछ उसका है वह सब हमारा ही है...हम कोई पराए थोड़े हैं...आओ...उठो...राज! मैं अभी तुम्हें वकील चटर्जी के पास लिए चलता हूं...नगर का माना हुआ वकील है...इसके बाद हम लोग जरा बार में चलेंगे...सब नशा उखड़ गया है, इस बात से...”

सारी मित्र-मंडली उठ खड़ी हुई। राज की आंखों में प्रतिशोध की भावना और घृणा की आग स्पष्ट झलक रही थी...उसके होंठों पर एक घृणामय मुस्कराहट फैल गई।

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वकील चटर्जी ने चौंककर कहा, “क्या कहा, वसीयत मिस्टर खन्ना ने तैयार की है?”

“जी हां!” अनिल ने हाथ मलते हुए कहा, “इसीलिए तो हम आपके पास आए हैं...इस नगर में आपके अतिरिक्त और कौन-सा वकील खन्ना साहब से टक्कर ले सकता है?”

“यह तो ठीक है मिस्टर अनिल...” चटर्जी ने कहा, “किन्तु, मेरे परामर्श की फीस पांच सौ रुपये है...पहले...फिर परामर्श...”

अनिल ने राज की ओर देखा। राज जेब टटोलने लगा। अनिल ने अपनी जेब में से सौ रुपये का एक नोट निकाला और कुमुद इत्यादि की ओर देखकर बोला, “लाओ भई....पांच सौ रुपये पूरे करो....एक दोस्त का काम है.....मेरे पास केवल तीन सौ हैं, दूसरे दो दिन के खर्च के लिए रखे हैं....”

कुमुद, धर्मचन्द और फकीरचन्द ने अनमने मन से अपनी-अपनी जेबें टटोलीं और बड़ी कठिनाई से फीस के पांच सौ रुपये पूरे किए गए। मिस्टर चटर्जी ने पैसे गिने और बोले, “हां, अब विस्तार से पूरी बात बताइए....”

अनिल ने एक बार फिर वर्णन किया। चटर्जी ने आंख से चश्मा उतारकर पोंछते हुए कहा, “भई! देखिए.....हो सकता है आप लोग अपने स्थान पर ठीक सोचे रहे होंगे.....किन्तु अभी तक खन्ना साहब का पहला रिकार्ड बिल्कुल उजला है और मेरा विचार है कि वह इतनी बड़ी भूल करके अपने कैरियर को दागदार न बना सकेंगे.....मेरा परामर्श है कि जो दस-पन्द्रह हजार रुपये आप मुकदमेबाजी में लगाएंगे इससे कोई व्यापार आरम्भ कीजिए और संतोष से बैठ जाइए। व्यर्थ के मुकदमे की घुन निकाल दीजिए....”

“जी....!” अनिल ने आश्चर्य से कहा।

सभी दोस्तों ने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर अनिल शुष्क स्वर में बोला, “यदि यही परामर्श देना था आपको तो हमारे पांच सौ रुपये क्यों आपने जेब में रख लिए....”

“वह तो परामर्श की फीस है जनाब!” चटर्जी....मुस्कराकर बोला, “चूंकि आपका केस था इसलिए मैं रात के ग्यारह बजे भी परामर्श देने के लिए तैयार हो गया वरना आठ बजे के बाद मेरे मुवक्किल द्वार से ही लौटा दिए जाते हैं....”

“किन्तु मिस्टर चटर्जी। मुझे विश्वास है कि मेरे डैडी मेरे प्रति इतना अन्याय नहीं कर सकते थे....मेरे भाई ने मुझसे धोखा किया है....”

“ठीक है....यदि आपको विश्वास है तो मैं क्या कह सकता हूं....मैं तो वकील हूं और वकील का काम केस लड़ना है....आप लोग कल किसी समय कोर्ट में आ जाइए....पांच हजार रुपये मेरी फीस के लेते आइए, केस फाइल कर दिया जाएगा....”

उन लोगों ने फिर एक-दूसरे की ओर देखा और चटर्जी ने उकताए हुए ढंग से घड़ी पर दृष्टि डालते हुए कहा, “मेरा विचार है आप रात में सोचकर किसी निर्णय पर पहुंच सकते हैं....मुझे कल के मुकदमे का अध्ययन करना है....”

“एक मिनट ठहरिए.....वकील साहब। हम लोग जरा सा आपस में परामर्श कर लें....” अनिल ने उठते हुए कहा।

राज उठने लगा तो अनिल ने कहा, “तुम यहीं ठहरो राज।”
 
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राज हक्का-बक्का इन लोगों को देखता रह गया। अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द और कुमुद पर्दे की ओट में चले गए। राज के कान उधर ही लगे हुए थे। उसके कानों में यह वार्तालाप पड़ा।

“अब क्या विचार है यारो....।” अनिल ने कहा।

“तुम्हीं बताओ?” यह कुमुद की आवाज थी।

“विचार क्या है भाई।” धर्मचन्द बोला, “यदि राज केस जीत गया तो समझ लो कि हम लोगों की पांचों उंगलियां घी में हैं....”

“इसलिए हम पांच हजार का प्रबन्ध कर दें....”

“बिल्कुल....”

“और यदि केस हार गया तो.....पांच सौ तो डूब ही गए हैं....यह पांच हजार भी डूबे ही समझो।”

“ओहो....” फकीरचन्द चिन्तामय स्वर में बोला, “इस विषय पर तो विचार ही नहीं किया था मैंने...”

“हमें हर पहलू पर विचार करना चाहिए....खन्ना साहब वास्तव में अपनी ईमानदारी के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं....यदि सच ही वसीयत जाली प्रमाणित न हुई तो सब कुछ चौपट हो जाएगा....जय से दुश्मनी अलग हो जाएगी....धनी आदमी है, व्यर्थ में किसी ढंग से हमसे बदला लेने पर उतर आया तो किससे प्रार्थना करते फिरेंगे?”

“यह भी ठीक है भाई! अपनी गांठ में इतने पैसे हैं नहीं कि इतना बड़ा जुआ खेला जाए....” फकीरचन्द ने अपना अन्तिम निर्णय दिया।

“फिर मेरे ही पास कोई फालतू थोड़े ही है...” कुमुद ने कहा।

राज को ऐसे अनुभव हो रहा था जैसे उसका मस्तिष्क झाएं-झाएं कर रहा हो....उसकी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा, शरीर पसीने से भीग गया। धीरे-धीरे उसने आंखें खोलीं और घबराया हुआ शून्य में देखने लगा। फिर उसने अनिल, धर्मचन्द, फकीरचन्द और कुमुद को चटर्जी से बातें करते हुए देखा। अनिल कह रहा था‒
“अच्छा वकील साहब! इस समय हम लोग चलते हैं....हम लोग कल सुबह तक किसी निर्णय पर पहुंचकर आपको सूचित करेंगे....”

“ठीक है....” चटर्जी ने कहा।

“आओ राज! चलें....” अनिल ने राज की ओर मुड़ते हुए कहा।

राज चुपचाप उठकर उन लोगों के साथ बाहर निकल आया। अनिल ने अपनी कार के पास पहुंचकर घड़ी देखी और चौंकते हुए बोला, “अच्छा भई मैं तो चलता हूं....ग्यारह बज चुके हैं....मुझे याद ही नहीं रहा था आज मेरी सास का ऑपरेशन हुआ है....मेरी पत्नी अपनी मां के पास ही अस्पताल में होगी....उसे यहां से लेकर मुझे घर पहुंचना है।”

यह कहकर अनिल बिना किसी का उत्तर सुने ही गाड़ी की खिड़की खोलकर ड्राइविंग-सीट पर बैठ गया। दूसरी ओर से खिड़की खोलकर धर्मचन्द उसके बराबर वाली सीट पर आ विराजा और बोला, “चलो यार! मुझे रास्ते में छोड़ते जाना....मेरा सिर पीड़ा से फटा जा रहा है।”

गाड़ी स्टार्ट हुई और तेजी से आगे बढ़ गई। राज कुछ भी न बोला। कुछ क्षण बाद फकीरचन्द ने उकता कर कहा, “आखिर हम यहां कब तक खड़े रहेंगे?”

राज ने चौंककर फकीरचन्द की ओर देखा किन्तु, कुछ बोला नहीं। फकीरचन्द ने एक लम्बी जम्हाई ली और बोला, “मेरा घर तो इस ओर है भई....अरे हां, तुम कहां जाओगे?”

“मैं...?” राज धीरे से बड़बड़ाया, “हां, मैं कहां जाऊंगा? मैं कहां जाऊंगा?”

“मेरा विचार है आज की रात तुम कुमुद के यहां काट लो....कल फिर कहीं प्रबन्ध कर लेना....क्यों कुमुद...?”

‘‘ईं....ह....हां....हां....क्या हानि है इसमें.....आज की रात मेरे यहां रहो....कल कहीं प्रबन्ध कर लेना।’’

“तो फिर मैं चलता हूं...”

उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही फकीरचन्द तेजी से एक गुजरती हुई टैक्सी को रुकवा कर उसमें सवार हो गया। टैक्सी चल पड़ी और राज टैक्सी को जाते देखता रह गया। कुमुद कुछ चिन्तित, कुछ उकताया हुआ-सा खड़ा था। उसने चोर-दृष्टि से राज को देखा और बोला, “तो फिर चल रहे हो?”

“ई....हां, चल रहा हूं....” राज बड़बड़ाया।

दोनों साथ-साथ चल पड़े। कुमुद कुछ इस प्रकार उदास, अनमना-सा उकताता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था मानो किसी परिचित की अर्थी के संग विवशतः श्मशान-घाट की ओर चल रहा हो....और राज कुछ इस दशा में चल रहा था मानो अपनी अर्थी स्वयं उठाए हो। उसका माथा सपाट था, होंठ बन्द थे और आंखें भावहीन, बस वह चुपचाप फैली हुई थीं....वह पलक भी नहीं झपक रहा था। कुछ दूर चलने के बाद कुमुद ने राज को सिगरेट सुलगा कर दिया और कहा, “लो सिगरेट पियो....।”

“ऊ हूं....” राज ने सिगरेट की ओर देखा और बोला, “मूड नहीं है....”
 
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कुमुद ने सिगरेट अपने होंठों में दबा लिया और माचिस की तीली हवा में उछालता हुआ चिन्तित स्वर में बोला, “समझ में नहीं आता आखिर अब होगा क्या।”

राज कुछ न बोला....चुपचाप चलता रहा। कुमुद ने फिर निस्तब्धता को तोड़ा, “तुमने भी कुछ सोचा इस विषय पर?”

“ऊं हूं....” राज बहुत धीमे स्वर में बोला।

“क्या होगा?”

“कुछ नहीं होगा....” राज बड़बड़ाया।

“मेरा भी यही विचार है....” कुमुद शीघ्रता में बोला “अनिल, धर्मचन्द और फकीरचन्द भी यही कह रहे थे....यदि वसीयत सच्ची निकल आई तो व्यर्थ ही समय और धन नष्ट होगा....बेहतर यह होगा कि तुम हालात के साथ समझौता कर लो....”

“हूं....” राज चलते हुए अपने ध्यान में खोया बोला।

“तुम्हें डिग्री मिल ही गई है....इसके द्वारा तुम्हें कहीं कोई उचित नौकरी अवश्य मिल जाएगी और रोटी का सहारा हो जाएगा....आजकल आदमी को दो जून रोटी और तन ढांपने को कपड़ा मिल जाए तो भगवान की बड़ी कृपा है.....मैं भी तुम्हारे लिए कोई काम ढूंढूंगा.....तुम स्वयं भी प्रयत्न करना....”

“हूं....” राज उसी मुद्रा में बोला।

चलते चलते कुमुद अपने फ्लैट पर पहुंच गया....फिर घंटी बजाकर उसने द्वार खुलवाया और राज को वहीं छोड़कर स्वयं भीतर चला गया। राज चुपचाप वहीं खड़ा रहा....उसकी आंखें वैसे ही शून्य में घूर रही थीं....। लगभग पन्द्रह मिनट उसे वहीं खड़े रहना पड़ा....फिर कुमुद बाहर निकला और हाथ मलता हुआ बोला, “क्षमा करना मैं जरा बाथ-रूम में चला गया था।”

“हूं....” राज बहुत धीमे स्वर में बोला।

मैंने तुम्हारी भाभी से कहा था कि राज यहीं सोएगा...

“हूं....”

“किन्तु, भई क्या बताऊं....बड़ी विचित्र नारी है...इतनी डरपोक नारी तो मैंने आज तक नहीं देखी....वह कहती है कि यदि कोई पराया पुरुष यों हार में रात को रहेगा तो अड़ोस-पड़ोस वाले क्या सोचेंगे....तुम तो जानते हो कि घर में हम दोनों पति पत्नी के अतिरिक्त कोई तीसरा व्यक्ति नहीं रहता....”

“हूं....” राज ने बिना कोई चिन्ता प्रकट किए उसी सन्तोष में उत्तर दिया।

“यार! बुरा न मानना, कुछ विचित्र सी स्थिति बन गई है...”

“चुप रहो...” अचानक राज इतनी तेजी से चिल्लाया कि कुमुद अनायास उछल पड़ा।

फिर घबरा कर वह अपने फ्लैट में घुस गया और उसने भीतर से द्वार बन्द कर लिया। राज चीख-चीख कर कहता रहा, “तुम सब नीच हो, स्वार्थी हो, कृतघ्न हो...”

“यार! क्या मूर्खता है....” कुमुद ने द्वार में से गर्दन निकालते हुए कहा, पड़ोस वाले क्या कहेंगे?

“चुप रह....” राज फिर दहाड़ा।

कुमुद ने झट द्वार बन्द कर लिया...राज क्रोधित दृष्टि से द्वार को यों देखता रहा जैसे अब किसी ने सिर निकालकर बाहर झांका तो वह उसका सिर फोड़ देगा....किन्तु, अब कुमुद ने द्वार नहीं खोला.....हां अब दूसरे फ्लैटों के द्वार बारी-बारी खुलने लगे थे....और आवाजें आ रही थीं।

“कौन चीख रहा है?”

“पागल मालूम होता है?”

“शराब पीकर आया है....”

“यह तो कुमुद के घर के सामने खड़ा है....”

“नहीं भई। कुमुद साहब तो बहुत भले आदमी हैं...”

“तब तो कोई शराबी ही है...”

राज ने चारों ओर दृष्टि घुमा कर अपने-अपने द्वारों में से झांकती हुई आंखों को देखा....जिधर भी वह देखता वे आंखें डर कर पीछे हट जातीं और खट से द्वार बन्द हो जाता। आखिर जब एक द्वार पर उसकी दृष्टि टिकी तो एक अधेड़ आयु के व्यक्ति ने डरते-डरते कहा, “आगे जाओ भाई। क्यों शरीफ आदमियों की नींद नष्ट करते हो...”
“खामोश...” राज पागलों के समान चीखता हुआ उस द्वार की ओर झपटा।

अधेड़ आयु के व्यक्ति ने झट द्वार बन्द कर लिया....और राज मुट्ठियां भींचकर बड़बड़ाया, “यह कोई शरीफ नहीं....सभी कमीने हैं....नीच....”

इसी प्रकार बड़बड़ाता हुआ वह धीरे-धीरे एक ओर चलने लगा....“कोई शरीफ नहीं है....सभी कमीन हैं....नीच....।”

पास ही कोई कुत्ता भौंककर राज की आवाज में आवाज मिलाने लगा...राज ने मुट्ठियां भींचकर कुत्ते की ओर देखा और फिर एक पत्थर उठाकर उसने कुत्ते की ओर फेंका-कुत्ता चाओं-चाओं करता हुआ तेजी से भागा....राज पत्थर उठा-उठाकर मारता हुआ कुत्ते के पीछे दौड़ता चला गया।
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“क्या बात है?” संध्या ने नौकर की ओर देखा।

“बेटा! राज बाबू आपसे मिलना चाहते है....”

“राज!” अनिल हड़बड़ा कर खड़ा हो गया।

“अरे-अरे...।” संध्या उसकी बांह पकड़ कर बिठाती हुई बोली, ‘‘बैठो तुम्हें क्या हो गया है?’’

“अरे कहीं वह मुझे यहां न देख ले...” अनिल घबराया।

“देख लेगा तो क्या हुआ!” संध्या ने मुस्कराकर कहा।

“पागल हो रहा है वह...” अनिल ने चिन्तामय स्वर में कहा, “रात कुमुद को ही मारने दौड़ पड़ा था...बड़ी कठिनाई से उस बेचारे ने अपने प्राण बचाए....पड़ोसियों से अलग बहाना करना पड़ा कि एक दोस्त था जो शराब पीकर आ गया। कुछ रुपये ऋण मांग रहा है.....तुम्हारे साथ मुझे देखकर और भड़क उठेगा....”

“क्यों भड़क उठेगा....क्यों भड़क उठेगा....” संध्या ने विषैली मुस्कराहट से कहा, “क्या मैं कोई उसकी खरीदी हुई दासी हूं?”

“तुम उससे प्रेम करती थीं ना...” अनिल मुस्कराया।

“प्रेम हूं” संध्या ने बुरा सा मुंह बनाकर कहा, “प्रेम तो एक हल्के नाजुक कूंजे से भी अधिक कोमल होता है, अनिल बाबू! मैं जीवन भर उस अपमान को नहीं भूल सकती जो भरी सभा में मेरे प्रति किया गया है....उसके भाई ने मुझे क्या समझ रखा है.....क्या मैं किसी भिखारी की बेटी हूं....मेरा बाप भी लखपति था....इन दिनों कुछ उलझनों की फेरी में आ गए हैं हम लोग तो क्या हुआ....सेठ शंभूनाथ तो इतना पीछे पड़ा है कि डैडी उससे दस-बीस हजार रुपये लेकर कारोबार की साख संभाल लें..”

किन्तु डैडी ही उसके उपकार अधीन नहीं होता चाहते....क्योंकि सेठ शंभूनाथ का इंगलैंड-रिटर्न्ड अर्धपागल बेटा मुझे पसंद नहीं। डैडी मेरा ब्याह मेरी इच्छानुसार करना चाहते हैं...अब क्या इतने बड़े आदमी की बेटी के ससुराल वाले इतने गिरे-पड़े होंगे कि दस बीस हजार से हमारी सहायता करके कारोबार की गिरती हुई साख को न संभाल सकें...

“कदापि नहीं....” अनिल ने मुस्कराकर संध्या का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “आखिर कारोबार होगा किसका? तुम भी तो अपने डैडी की इकलौती बेटी हो।”

“इकलौती बेटी....डैडी की सम्पत्ति की एकमात्र मालिक.... संध्या ने मुस्कराकर टाई-पिन अनिल की टाई में टांकते हुए कहा।”

“राज!” अनिल अचानक उछलते हुए चिल्लाया।

संध्या ने भी चौंककर द्वार की ओर देखा। राज मुट्ठियां भींचे, नथुने फुलाए हुए खूंखार दृष्टि से उन दोनों को घूर रहा था। उसके बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी बढ़ गई थी। और पतलून मसली हुई थी। उसकी आंखों से एक जुनून और पागलपन झांक रहा था। संध्या ने क्रोध-भरे स्वर में कहा‒
“यह क्या मूर्खता है? बिना अनुमति भीतर कैसे चले आए?”

राज कुछ न बोला। वह संध्या और अनिल को घूरे जा रहा था। उसकी आंखें आग उगल रही थीं। संध्या ने झुंझलाकर कहा, “सुना नहीं तुमने....यहां क्या लेने आए हो? निकल जाओ यहां से....”

राज कुछ न बोला....वह मुट्ठियां भींचे हुए उसी क्रोधित मुद्रा में संध्या की ओर बढ़ता रहा जैसे उसकी गर्दन दबोच डालेगा। संध्या घबराकर पीछे हटती हुइ बोली, “होश में आओ....राज कहीं तुम पागल तो नहीं हो गए?”

“होश में आ गया हूं...” राज दांतों पर दांत जमाकर बोला, “पागलपन की सीमा से निकल आया हूं...तुम सब कमीने हो कृतघ्न हो।”

“राज....!” संध्या क्रोध से चीख पड़ी।

उसी समय राज ने झपट कर संध्या की गर्दन दबोच ली और हांफते हुए फूली सांस से बोला, ‘‘जीवित नहीं छोड़ूंगा तुझे.....कमीनी...जीवित नहीं छोड़ूंगा।’’

संध्या की चीखे निकलने लगीं। अनिल ने झपटकर राज से संध्या को छुड़ाने का प्रयत्न किया....संध्या बिलबिला कर पूरी शक्ति लगाकर राज की पकड़ से निकल गई और चीख-चीखकर नौकरों को पुकारने लगी। राज ने फिर संध्या की ओर झपटने का प्रयत्न कियां। अनिल ने जोर से राज की ठोड़ी पर घूंसा मारा और राज उछलकर द्वार के पास जा गिरा। इतने में चारों ओर से नौकरों ने आकर उसे पकड़ लिया। संध्या कंकपाती हुई चीख रही थी, “निकाल दो इसे....धक्के मारकर निकाल दो....यह होश में नहीं है....पागल हो गया है।”

राज चीखता रहा और नौकरों ने उसे धक्के मारकर कोठी से बाहर निकाल दिया। राज सड़क पर गिर पड़ा और कोठी फाटक बन्द हो गया। राज ने होंठ और माथे का लहू पोंछा और कोठी के फाटक को जोर-जोर से हिलाते हुए चिल्लाया‒
“तुम सब कमीने हो....कमीने”
 
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सुषमा ने पाठ दोहराते हुए एक लम्बी जम्हाई ली और बोली‒“कुछ समझ में आया....बेबी!”

सुषमा ने यह कहकर दृष्टि उठाई तो बेबी मेज पर रखी हुई कापी पर सिर रखे गहरी सांसें ले रही थी।
“अरे....यह तो सो गई....बेबी....ऐ बेबी....”

सुषमा से चौंककर पलटते हुए देखा और फिर मुस्कराकर उठती हुई बोली, “मैंने सोचा था कल सप्लिमेंट्री का पहला पेपर है आज जरा पाठ पूरे करा दूं किन्तु, यह तो एक पाठ भी पूरा न कर सकी।”

“ग्यारह बजने वाले हैं ना....” शंकर ने मुस्कराकर कहा।

“ग्यारह....” सुषमा चौंककर उठती हुई बोली, “उफ! बहुत देर हो गई....भैया शायद आ गए होंगे....कमरे की चाबी मेरे पास है अच्छा मैं चलती हूं।”

फिर सुषमा ने उठते-उठते बेबी की ओर देखा.....उसके भोले-भाले चेहरे पर सोते में भी एक मुस्कराहट थी। सुषमा ने मुस्कराकर बेबी के बालों पर हाथ फेरा, फिर उसे गोद में उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया और उसे चादर ओढ़ाते हुए बोली, “बहुत कमजोर हो गई है बेचारी....दोहरा परिश्रम करना पड़ता है ना....शंकरजी....! आप इसके स्वास्थ्य का ध्यान रखा करें....”

“स्वास्थ्य का ध्यान....” शंकर फीकी-सी मुस्कराहट के साथ बोला, “मैं तो बहुत ध्यान रखता हूं....घर में किस चीज की कमी है? हजारो रुपये महीने की आमदनी है और खाने वाले केवल दो ही है....किन्तु केवल खाने-पीने से ही स्वास्थ्य थोड़े बनता है सुषमा देवी।” बच्चों को उचित देखभाल की भी आवश्यकता होती है....आज पांच वर्ष हो गए इसकी मां को मरे हुए....जब यह केवल चार ही वर्ष की थी तब से सिर पर मां की छाया नहीं पड़ी। मुझे दिन भर काम पर गैरेज में रहना पड़ता है....घर पर नौकरानी ही होती है, न जाने कैसे खिलाती पिलाती है....मुझे स्वयं निरन्तर यही चिन्ता रहती है, किन्तु समझ में नहीं आता क्या करूं?

शंकर सुषमा के मुंह की ओर देख रहा था। सुषमा ने सिर पर साड़ी का आंचल ठीक किया और बोली, “आप ठीक ही कहते हैं शंकरजी! मां के बिना बच्चों का जीवन ऐसे ही होता है जैसे तपती धूप में नन्हे कोमल पौधे....”

“किन्तु मैं इसकी मां को भगवान के घर से वापस नहीं ला सकता। स्वयं भी सोचता हूं कि बेबी को एक मां की छाया की आवश्यकता है, यदि ब्याह करूंगा भी तो ऐसी औरत से जो बेबी को प्यार करे!”

“यह भी आप ठीक कहते हैं....” सुषमा ने ठंडी सांस लेकर कहा, “यदि सौतेली मां से भी स्नेह न मिला तो बेचारी का जीवन नष्ट हो जाएगा....”

यह कहकर सुषमा दवात का ढक्कन बन्द करके द्वार की ओर बढ़ी। शंकर ने कहा, “जबसे तुमने बेबी को पढ़ाना आरम्भ किया है वह तुमसे हिलमिल गई है....दिन भर तुम्हारी ही बातें करती है....”

“बच्चे तो प्यार के ही भूखे होते हैं शंकरजी! मैं जब भी बेबी को देखती हूं मुझे अपना बचपन याद आ जाता है....यही विवशता और भोलापन होता है हर बे-मां के बच्चे के चेहरे पर...”

“यही तो मैं भी सोचता हूं....जितना बेबी तुम्हें चाहती है उतना ही तुम भी उसे प्यार करती हो....तुम मां की ममता का मूल्य जानती हो....तुम उसे भरपूर ममता दे सकती हो....”

“जी....” सुषमा ने चौंककर शंकर की ओर देखा।

“मेरा मतलब है....कल तुमने तनख्वाह मांगी थी....यह तुम्हारे पैसे रखे हैं...”

शंकर ने जेब में से दस-दस के पांच नोट निकालते हुए सुषमा की ओर बढ़ा दिए। सुषमा मुस्कराहट के साथ बोली, “कल शाम मैंने अपना वेतन मांगा था....आपने पचास रुपये दे दिए थे...”

“ओह....मुझे याद ही नहीं रहा....मैं जानता हूं तुम्हारे भैया की क्या आय है....किसी समय भी आवश्यकता पड़ सकती है....इन्हें अगले महीने की पेशगी समझकर रख लो....”

“धन्यवाद! शंकरजी! यदि पेशगी की आवश्यकता पड़ गई तो भैया कुछ अधिक समय तक टैक्सी चला लिया करेंगे।”

“फिर भी आवश्यकता तो किसी समय भी पड़ सकती है....अभी चार पांच दिन पहले की ही तो बात है तुम्हारे भैया की टैक्सी का एक्सिडेन्ट हो गया था.....ढाई तीन सौ रुपये मरम्मत में लग गए थे....रख लो समय पर काम आएंगे।”

सुषमा ध्यान से शंकर का चेहरा देखती रही....शंकर की आंखों का पीला प्रकाश धीरे-धीरे लाल रंग में परिवर्तित होता जा रहा था। उसने कुछ रुककर धीरे से कहा, “बहुत देर हो रही है शंकरजी! भैया मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे....मैं जा रही हूं...”

सुषमा ने द्वार की ओर बढ़ने के लिए पहला पग उठाया ही था कि शंकर दोनों बांहें फैलाकर उसका रास्ता रोककर खड़ा हो गया। सुषमा ध्यानपूर्वक उसके चेहरे पर उत्पन्न भावों का निरीक्षण करती बड़बड़ाई “शंकरजी....”

“बहुत धैर्य कर चुका हूं सुषमा...” शंकर कंपकंपाती हुई आवाज में बोला, “कई दिनों से साहस बटोर रहा था कि तुमसे मन की बात कह दूं....जबसे तुमने बेबी के हृदय में प्यार का पौधा लगाया है, चुपके-चुपके दबे पांव तुम मेरे हृदय में भी उतरती चली आई हो, तुम्हें घर में देखता हूं तो कभी-कभार यों अनुभव होता है कि बेबी की मां घर में चल-फिर रही है....कई रातें बिस्तर पर करवटें बदलते-बदलते तुम्हारे ही विषय में सोचते हुए गुजर जाती हैं....आंख लग जाने पर स्वप्न में भी तुम बेबी की मां के रूप में ही आती हो....अब और सहन करना मेरे वश में नहीं सुषमा....बिल्कुल नहीं....मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं....मेरी बेबी को एक मां दे दो....मेरे हृदय की दहकती हुई ज्वाला पर अपने शीतल भीगे होंठों का अमृत जल छिड़क दो....”

सुषमा के होंठों पर सन्तोषमय मुस्कराहट फैल गई। उसने धीरे से कहा, “मुझे बेबी से अत्यधिक प्यार है शंकरजी....इसी कारण मेरे मन में आपके लिए भी सहानुभूति है, क्योंकि आप बेबी के पिता हैं....मां के बाद उस अबोध का एकमात्र सहारा है....आप मेरे भैया को भी बहुत निकट से जानते हैं....उन्होंने जिन परिस्थितियों में एक मां और एक बाप बनकर मुझे पाला है....उन परिस्थितियों ने उन्हें कितना विद्रोही बना दिया है....मैं इसीलिए भैया से आपकी शिकायत न करूंगी कि कहीं कल आपकी बेबी को भी बाप की छाया से वंचित न होना पड़े....”

शंकर की सांसें और तेज हो गई थीं और उसकी आंखों से चिंगारियां निकलने लगीं। सुषमा ने उससे बचकर द्वार से निकलने का प्रयत्न किया किन्तु शंकर ने झपटकर उसे बांहों में दबोच लिया और हांफता हुआ बोला, “आज की रात मेरी है सुषमा....आज की रात मेरी है....कल सुबह तुम स्वयं रो-रोकर भैया से कहोगी कि वह तुम्हारे फेरे शंकर के साथ करवा दें....मैं उस समय भी तुम्हें अपनी पत्नी बनाना स्वीकार कर लूंगा.....क्योंकि मैं किसी दशा में भी तुम्हें छोड़ नहीं सकता....मुझे तुम्हारे शरीर, अंग प्रत्यंग में पदमा दिखाई दे रही है....तुम सुषमा नही हो पदमा..... हो मेरी पदमा.....”

“छोड़ दीजिए शंकरजी!” सुषमा कांपते स्वर में विनयपूर्वक बोली “भगवान के लिए मुझे छोड़ दीजिए...”

“यह असम्भव है....अब मुझसे तुम्हें कोई नहीं छुड़ा सकता....मैं जानता हूं कि तुम शोर नहीं मचाओगी....यदि तुमने शोर मचाया तो बात तुम्हारे भैया के कानों तक भी अवश्य ही पहुंचेगी....तुम्हारा भैया यदि आवेश में आकर मेरे प्राण भी ले लेगा तो वह भी फांसी के तख्ते पर लटकेगा....और तुम....तुम अपने भाई को अपने सामने फांसी लगते नहीं देख सकतीं....”

“हां, हां, मैं शोर नहीं मचाऊंगी,” सुषमा बिलबिला कर बोली “मुझे भैया के जीवन से अधिक अपनी इज्जत प्यारी है....रास्ते वाले क्या जानेंगे कि मैं लुट गई या बच गई किन्तु ऊपर भगवान भी तो है शंकरजी उसके कठोर दण्ड से बचिए....भगवान के लिए मुझे जाने दीजिए...”

किन्तु, शंकर तो पागल सा हो रहा था....वासना ने उसे अंधा कर रखा था....उसने बलपूर्वक सुषमा को बिस्तर की ओर खींचने का प्रयत्न किया....उसी समय सुषमा ने पूरी शक्ति से स्वयं को शंकर के चंगुल से छुड़ाना चाहा.....इस खींचातानी में सुषमा का ब्लाउज मसक कर पीठ से हट गया किन्तु यह तो वासना का चढ़ा हुआ भूत था जिसने उसे इतना बल भी दे दिया था। उसका सांस अत्यधिक फूला हुआ था और उसकी टांगें कांप रही थीं। सुषमा के दोनों हाथ स्वतन्त्र थे.....एक हाथ से वह अपने मुंह पर से शंकर का हाथ हटाने का प्रयत्न कर रही थी और दूसरे हाथ से शंकर की पीठ पर घूंसे मारे जा रही थी।

शंकर को एक छाया सी दिखाई दी। शंकर ठिठककर रुक गया। किन्तु, दूसरे ही क्षण उसने सन्तोष की सांस ली....वह छाया लड़खड़ाती हुई उसके पास से बिना कोई ध्यान दिए निकलने लगी‒शंकर ने सोचा कोई बेसुध शराबी होगा....उससे क्या भय है....किन्तु, ज्योंही वह लड़खड़ाता हुआ व्यक्ति उनके पास से निकलने लगा सुषमा ने हाथ बढ़ाकर जोर से उसका हाथ पकड़ लिया। वह व्यक्ति लड़खड़ा कर उसकी ओर मुड़ गया। घबराहट में शंकर की पकड़ ढीली पड़ गई। सुषमा एक बार पूरे बल से मचली और शंकर के कंधे से कूद गई। उसने उस व्यक्ति का हाथ अब भी नहीं छोड़ा था। धरती पर पैर पड़ते ही वह उस राह चलते व्यक्ति से चिपट गई और हांफती हुई बोली, “बचाओ....भगवान के लिए मुझे बचाओ।”

“आं....” वह आगंतुक आंखें फाड़कर देखता हुआ बोला, “कौन.....कौन है?”

दूसरे ही क्षण शंकर ने उस व्यक्ति को एक घूंसा मारा और वह लड़खड़ा कर पीछे हटा। सुषमा उसके साथ ही घिसटती चली गई। वह एक सहमी हुई फाख्ता के समान थर-थर कांप रही थी....वह व्यक्ति अब और अधिक आंखें फाड़कर शंकर को देख रहा था। शंकर ने इस बार सुषमा का हाथ पकड़ कर खींचने का प्रयत्न किया....किन्तु सुषमा ने उस व्यक्ति की कमीज गले से थाम ली और वह दूर तक उसके साथ खिंचता चला आया और फिर उसने एकाएक सुषमा का हाथ पकड़ कर जोर से झटका दिया। सुषमा का हाथ शंकर की पकड़ से स्वतंत्र हो गया। शंकर भन्ना कर फिर सुषमा की ओर झपटा। इस बार उस व्यक्ति ने हाथ घुमाकर शंकर की कनपटी पर मारा और शंकर का पूरा शरीर झनझना उठा। वह न केवल हड़बड़ा कर पीछे हटा बल्कि ठोकर खाकर पीठ के बल गिर पड़ा। वह व्यक्ति यों हाथ फैलाए हुए शंकर पर झुका हुआ झूम रहा था जैसे उस पर प्रहार करने वाला हो। इसी समय शंकर के कानों से एक आवाज टकराई, “सुषमा....”

यह सुषमा के भाई चन्दर की आवाज थी। शंकर के शरीर में सन्नाटा-सा दौड़ गया। दूसरे ही क्षण वह फुर्ती से उठा और तीर के समान अपने मकान की ओर भागता चला गया। सुषमा के मस्तिष्क का सन्नाटा धीरे-धीरे गहरा होता जा रहा था। इसी सन्नाटे में उसने चन्दर की आवाज सुनी थी....और फिर उसे अनुभव हुआ कि वह अब बिल्कुल सुरक्षित है....उसका मस्तिष्क तरंग में बेसुध सा झकोले खाने लगा।

चन्दर ने परछाइयों को हिलते हुए देखा था। धुंधली रोशनी में वह केवल सुषमा की झलक ही पहचान सका था....उसके पांव में स्फूर्ति आ गई थी...वह भागता हुआ उनके पास पहुंचा...और... एकाएक उसके मस्तिष्क को एक तीव्र धक्का लगा। सुषमा एक अनजाने व्यक्ति की बांहों में बेसुध पड़ी हुई थी....उसका ब्लाउज पीछे से फटा हुआ था, बाल बिखरे हुए थे और साड़ी का आंचल सड़क पर पड़ा था। वह व्यक्ति आंखें फाड़फाड़कर सुषमा को ध्यानपूर्वक देखता हुआ कह रहा था, “मैं....मैं तुम से प्यार करता हूं संध्या....मैं तुमसे प्यार करता हूं....तुम.....तुम....बेवफा नहीं हो सकतीं....सब....सब कमीने हैं.....मैं.....मैं सबको जान से मार दूंगा....”

और अचानक उस व्यक्ति की आंखें क्रोध की तीव्रता से फट गईं और वह बड़े कठोर भाव से सुषमा को देखने लगा....उसने दोनों हाथों से सुषमा की गर्दन पकड़ ली‒
चन्दर को सहसा ऐसा अनुभव हुआ जैसे उसके पूरे शरीर में एक ज्वालामुखी फूट पड़ा हो....उसका समस्त शरीर क्रोध की अधिकता से आग उगलने लगा था....उसने दोनों हाथों की मुट्ठियां कसकर बन्द कर लीं और आगे बढ़कर झटके से उस व्यक्ति को हाथ से पकड़ करे खींचा। सुषमा एक निराश्रित स्तंभ के समान उस व्यक्ति की बांहों से छूटकर एक ओर जा गिरी....वह व्यक्ति झटके से एक पग पीछे हट गया और आंखें फाड़-फाड़कर चन्दर को देखने लगा। चन्दर ने दांत भींचकर कहा, “तुम हो बाबूजी। अभी पिछला भी कुछ शेष तुमसे चुकाना है....टैक्सी की मरम्मत में ढाई सौ रुपये लगे थे....किन्तु तुम्हारी मरम्मत तो अब भगवान भी न कर सकेगा....वह टैक्सी का मुआमला था....तुम दारू पिए हुए थे सो क्षमा किया जा सकता था....किन्तु; दारू पीकर एक शरीफ लड़की को तुम टैक्सी समझो....यह अपराध तो कदापि क्षमा नहीं किया जा सकता।”

“भाग जाओ....” वह व्यक्ति लड़खड़ाता हुआ बोला, “तुम सब कमीने हो....नीच हो....”

अचानक चन्दर का भरपूर घूंसा उस व्यक्ति की कनपटी पर पड़ा और वह लड़खड़ा कर पीछे हटता हुआ आंखें फाड़-फाड़ कर चन्दर की ओर देखने लगा। चन्दर ने उछल कर अब उस व्यक्ति के पेट में पांव से ठोकर मारने का प्रयत्न किया किन्तु, दूसरे ही क्षण चन्दर की टांग को खींचकर एक ओर झटका दिया और चन्दर मुंह के बल जा गिरा। जितने समय में चन्दर उठकर उसका सामना करता वह व्यक्ति स्वयं ही औंधे मुंह सड़क पर जा गिरा।

सुषमा अब तक कुछ सुधि में आ चुकी थी। उसने अपने आप को संभाला और आंखें फाड़कर देखा। उसकी दृष्टि चन्दर पर पड़ी। पहले उसे चन्दर का धुंधला-धुंधला प्रतिबिम्ब सा दिखाई दिया और फिर उसका चेहरा स्पष्ट दिखाई देने लगा। वह बड़े खूंखार ढंग से चाकू लिए उस व्यक्ति की ओर बढ़ रहा था। अचानक सुषमा चीखती हुई उठ बैठी, “भैया...!
और फिर वह झपटकर हवा की सी फुर्ती से चन्दर और उस व्यक्ति के मध्य आती हुई बोली, “क्या कर रहे हो भैया....क्या कर रहे हो?”

“सामने से हट जा सुषमा! मैं इस कुत्ते का सिर धड़ से अलग कर दूंगा...”

“किस अपराध में इसे मारोगे भैया?” सुषमा हांफती हुई बोली “इस अपराध में कि उसने तुम्हारी बहिन का सतीत्व एक कुत्ते से बचाया है।”

“इसने? इसने बचाया है तुम्हें?”

“हां भैया....यदि समय पर यह व्यक्ति देवता बनकर न पहुंच जाता तो...तो...” कहते कहते सुषमा ने दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया।

“कौन था? कौन था वह दुष्ट मैं उसकी बोटियां करके फेंक दूंगा।”

“वह....” सुषमा ने झट कहा, “पता नहीं कौन था? मैं शंकर जी के यहां से निकलकर यहां पहुंची ही थी कि उसे कुत्ते ने पीछे आकर मुझे दबोच लिया था।”

“किधर गया वह भाग कर?”

“मैं तो बेहोश हो गई थी....न जाने किधर गया....अब तक पता नहीं कहां पहुंचकर छिप गया होगा।”

“खैर....तू देखकर पहचान तो लेगी?”

“अंधेरा था गली में भैया। इसलिए शायद ही पहचान सकूं....”

चन्दर सुषमा को कुछ देर ध्यानपूर्वक देखता रहा....! फिर हल्की-सी सांस लेकर बोला, “अच्छी बात है....चल घर...”

“किन....किन्तु भैया...” सुषमा ने सड़क पर पड़े उस व्यक्ति की ओर देखकर करुणामय स्वर में कहा, “इस गरीब को क्या यों ही पड़ा रहने दोगे?”

“मेरे यहां शराबियों के लिए कोई स्थान नहीं है।” चन्दर ने कठोर स्वर में उत्तर दिया।

“शराबी! किन्तु? भैया, इसके मुंह से तो शराब की दुर्गन्ध नहीं आ रही...”

चन्दन ने ध्यान से उस व्यक्ति की ओर देखा, फिर उसके पास बैठकर झुककर उसका मुंह सूंघकर बोला, “अरे....सच ही यह शराब तो नहीं पिए है....” फिर उसका हाथ थामते हुए चौंककर बोला, “अरे.....इसे तो बहुत सख्त बुखार है....फुंक रहा है इसका पूरा शरीर आग के समान....”

“सूरत भी तो देखा कैसी हो रही है भैया! यह किसी भारी कष्ट में पड़ा दिखाई देता है...”

“और अब हमें भी अपने साथ किसी कष्ट में डालेगा।” चन्दर झुककर उसे बांहों पर उठाते हुए बड़बड़ाया।

“मेरे भगवान! भार तो देखो....पहलवान है, पूरा पहलवान....”
 
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कोठरी में पहुंचकर चन्दर ने अजनबी को बिस्तर पर लिटा दिया और अपनी दोनों बांहों को दबाता हुआ बोला, “हाथ तोड़ दिए इसने तो मेरे....अरे घर में कोई सैरिडॉन इत्यादि भी होगी.....इसे तो बहुत तेज बुखार है....”

“गोली तो कोई नहीं है...” सुषमा ने चिन्ता भरे स्वर में कहा।

“फिर क्या करूं? इस समय दवा-दारू ही कहां से मिलेगी?”

“पास ही तो वैद्यजी का घर है...चले जाओ....रात में और दशा खराब हो गई....और भगवान न करे कहीं यह मर गया तो कोई आपत्ति न आ पड़े....”

“मर....मर....मर गया ....अरे बाप रे...” चन्दर ने घबराकर अजनबी को उठाने का प्रयत्न किया और सुषमा उसे पकड़ते हुए बोली‒

“अरे....अरे....यह क्या कर रहे हो?”

“मर गया तो न जाने किस संकट में पड़ जाएं....मैं इसे बाहर ही डाल देता हूं...”

“तुम्हारा दिमाग क्या खराब हो गया है भैया! एक बीमार आदमी को यों ठिठुरती शीत में सड़क पर फेंक आओगे तो न मरता भी मर जाएगा।”

“यह भी तू ठीक कहती है....” चन्दर बड़बड़ाया, किस जंजाल में फंसा दिया तूने?

“जंजाल कह रहे हो भैया! इसने तो आज मेरी लाज बचाई है...”

“अरे हां....इस साले का एहसान भी तो है हम पर....देखभाल तो करनी ही पड़ेगी...चाहे आगे चलकर स्वयं भूखे ही रहना पड़े....वाह भगवान! तू भी कहेगा कि मैंने आदमी बनाए हैं....”

चन्दर बड़बड़ाता हुआ कोठरी से बाहर निकल गया। सुषमा ने अजनबी को रजाई ओढ़ा दी। पहली बार उसने ध्यानपूर्वक उसके चेहरे पर दृष्टि डाली। दाढ़ी बढ़ी हुई, लजीला, पीला-पीला सा चेहरा....ऐसे लगता था कई दिनों से मुंह नहीं धुला....सिर के बालों में धूल अटी हुई थी....गोरे....गोरे, भरे चेहरे पर विशेष चिन्ता और निराशा के चिन्ह थे....उसके होंठों पर पपड़ियां जम गई थीं। सुषमा का हृदय धड़क उठा।

थोड़े समय बाद घर में पांव की आहटें गूंजी और इसके साथ ही चन्दर वैद्य जी को कंधे पर उठाए भीतर आया। वैद्य जी कह रहे थे, “अरे, अरे....क्या करता है रे....उतार, उतार मुझे....”

चन्दर ने वैद्य जी को उतार कर फर्श पर खड़ा कर दिया। वैद्य जी ने उसे घूंसा दिखाकर कहा, “मैंने कह दिया कई बार....इतनी रात गए मैं किसी के घर नहीं जाता....”

“नहीं जाते....तभी तो उठाकर लाया हूं....और अब जब आ ही गए तो रोगी को देखो....”

“आ गया हूं? है....!” वैद्य जी ने चौंककर इधर-उधर देखा।

“किधर है रोगी....” सुषमा ने मुस्कराकर अजनबी की ओर संकेत किया।

वैद्य जी मुंह-ही-मुंह बड़बड़ाकर अजनबी को देखने लगे। चन्दर वैद्य जी से बोला, “ध्यान रखना वैद्य जी। मरने न पाए....मेरे पास दवा दारू के पैसे तो हो सकते हैं अर्थी उठाने के लिए नहीं...”

“अरे....मरेगा नहीं तो क्या जीवित बचेगा....इसके पेट में तो घास का तिनका भी नहीं....जाने कब से भूखा है?”

“धत् तेरी....चन्दर मुंह बनाकर बोला, फिर वह सुषमा की ओर देखकर कहने लगा, “सुन लिया तूने....अब झोंक चूल्हा....मेरे लिए तूने पांच रोटियां रखी होंगी....उनमें से एक रोटी भी कम नहीं करूंगा....वैसे भी इतनी बड़ी देह को उठाकर लाया हूं....भूख बढ़ गई है....”

“हां...” वैद्य जी ने कहा, “रोटी खिला दो बुखार में जिससे चार दिन में ठीक होना हो तो चार सप्ताह लग जाएं....अरे अभी इसे दूध दिया जाएगा....केवल दूध....”

“दूध...” चन्दर चौंककर बोला, “तुम्हारा दिमाग तो ठीक है वैद्य जी....मां के दूध के बाद यहां केवल चाय में थोड़ा-सा दूध देखने को मिला है...इस हट्टे-कट्टे व्यक्ति के लिए इतना दूध कहां से लाऊंगा?”

“वह तो किसी प्रकार प्राप्त करना ही पड़ेगा....चल मेरे साथ मैं दूध दिए देता हूं...दूध के साथ एक पुड़िया दवाई भी दे देना....एक पुड़िया दो घन्टे बाद....फिर चार पुड़ियां कल....भगवान ने चाहा तो कल शाम तक बुखार टूट जाएगा....”

“और साथ ही मेरी कमर भी टूट जाएगी....क्या हर पुड़िया दूध के साथ दी जाएगी?” चन्दर ने घबराकर पूछा।

“नहीं, इस समय एक पुड़िया दूध के साथ....फिर एक पुड़िया सुबह दूध के साथ.....”

“हे भगवान!” चन्दर ने लम्बी सांस ली।

वैद्य जी खड़े हो गए। चन्दर ने झुककर उन्हें फिर कंधे पर उठा लिया। वैद्य जी गड़बड़ाकर बोले, “अरे...अरे क्या करता है?”

तुम्हारा नियम नहीं टूटना चाहिए वैद्य जी! रात में तुम कहीं आते-जाते नहीं, मैं ही उठाकर लाया हूं.....मैं ही वापस पहुंचाऊंगा।
 
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वैद्य जी टांगें हिला-हिलाकर ‘अरे’ अरे ही करते रह गए और चन्दर उन्हें उठाए हुए कोठरी से बाहर निकल गया। सुषमा ने मुस्कराकर उन्हें जाते हुए देखा और फिर अजनबी को देखने लगी। वह अब धीरे-धीरे कराह रहा था। सुषमा उसके ऊपर झुक गई। थोड़े समय बाद अजनबी ने आंखें खोल दीं और ध्यानपूर्वक सुषमा को देखने लगा। फिर उसने धीरे-से आंखें बन्द कर लीं मानो उसने कुछ न देखा हो। उसके होंठों पर एक हल्की-सी मुस्कराहट रेंग गई और वह न जाने किस कल्पना में डूबा बड़बड़ाया, “संध्या! ....मैं जानता था....मेरी संध्या मुझे धोखा नहीं दे सकती....मेरी संध्या....”

“मैं संध्या नहीं...” सुषमा ने अजनबी पर झुककर धीरे से कहा, “मैं संध्या नहीं हूं।”

अजनबी ने धीरे से आंखें खोल दीं और फिर आंखें झपकाकर सुषमा को देखते हुए आश्चर्य से बोला, “कौन.....कौन हो तुम....?”

“आपकी तबीयत ठीक नहीं है...” सुषमा ने सहानुभूति भरे स्वर में कहा, “भैया आपके लिए दवा लेने गए हुए हैं....”

“भैया....कौन भैया? मैं कहां हूं?’’

अजनबी ने उठना चाहा किन्तु, सुषमा ने शीघ्र ही उसके सीने पर हाथ रखकर फिर उसे लिटाते हुए कहा, “लेटे रहिए....आपकी तबीयत ठीक नहीं है।”

अजनबी फिर सुषमा को देखता हुआ लेट गया। इससे पूर्व कि वह कुछ और बोलता चन्दर वापस लौट आया। उसके एक हाथ में दूध का गिलास था और दूसरे हाथ में दवाई की पुड़िया। अजनबी चन्दर को यों देखने लगा जैसे उसे पहचानने का प्रयत्न कर रहा हो। चन्दर ने सिर हिलाकर कहा, “आ गए होश में....देख लीजिए....ध्यान से देख लीजिए....आपके हिसाब में एक सौ पचास रुपये के साथ एक रुपया बारह आने और लिख दिए गए हैं....”

अजनबी कुछ न बोला। वह अब भी ध्यान से चन्दर को देखे जा रहा था। चन्दर ने सुषमा से कहा, “ले.....झट से दूध गर्म करके ले आ साहब को दे दे....मेरी तरकारी भी गर्म कर दे....भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं....न जाने किस अशुभ व्यक्ति का मुंह देखा था घर से निकलते समय....”
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