Romance राजवंश

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एक विचित्र-सा शांतिमय सन्नाटा राज के पूरे शरीर में फैला हुआ था....एक गहरे उन्माद के समान....कभी ऐसे ज्ञात होता जैसे वह हुआ था....वह गहरे उन्माद के समान....कभी ऐसे ज्ञात होता जैसे वह गहरी और मीठी नींद सो रहा हो कभी यों लगता कि वह जाग रहा है और जो कुछ दिखाई दे रहा था स्वप्न नहीं था वास्तविकता थी....उसके शरीर के नीचे सख्त और खुरदरी जमीन नहीं बल्कि नर्म और कोमल बिस्तर था। अर्धनिद्रा की सी दशा में उसने आंखें बन्द कर लीं। उसे यों अनुभव हो रहा था मानों वह अपने घर में नर्म और गुदगुदे बिस्तर पर सो रहा है.....उसके होंठों पर एक सांत्वना भरी मुस्कराहट फैल गई।

अचानक उसे अपने शरीर पर एक नर्म रेशमी सरसराहट-सी अनुभव हुई और उसने आंखें खोल दीं। एक साड़ी का आंचल उसके पास ही लटका हुआ था और नीचे गिरी हुई रजाई सरककर उसके शरीर पर आ गई थी। उसने आंखें खोलने का प्रयत्न किया किन्तु, फिर आनन्ददायक गर्मी उसके शरीर में फैल गई और उसने आंखें बन्द कर लीं....उसके मस्तिष्क पट पर कल्पना में एक चेहरा उभरा....कभी ऐसा लगता कि वह चेहरा संध्या का था और कभी उस लड़की का जिसने कुछ देर पहले उसे दवाई पिलाई थी....फिर इन्हीं चेहरों के साथ एक और चेहरा उभरा....यह चेहरा उस टैक्सी ड्राइवर का था जिससे उसकी झड़प हुई थी....किन्तु; वह टैक्सी ड्राइवर कहां था; यह तो जय का चेहरा था....नहीं टैक्सी-ड्राइवर....इसी विश्वास और सन्देह की खींचातानी में धीरे-धीरे वह गहरी नींद में खो गया।

कुछ ही क्षण बाद राज के कंधों से दो नर्म-नर्म हाथ टकराए और इन हाथों ने उसे करवट बदलने में सहायता दी....अजनबी ने आंखें खोल दीं....वही रात वाला चेहरा उसके सामने था।

“अब जाग जाइए और दवा पी लीजिए...” कांपते हुए होंठों से आवाज निकली।

राज जाग उठा। थोड़ी देर बाद वही लड़की एक प्याली में दूध लाई और दवाई वाली पुड़िया खोलकर राज के मुंह में डालना ही चाहती थी कि राज ने कराह कर कहा, “ठहरो....मैं बैठ जाऊं।”

लड़की ने दूध की प्याली और दवाई की पुड़ियो को मेज पर रखा और उठकर बैठने में राज की सहायता की....उसकी पीठ से तकिया लगा दिया फिर अपने हाथ से उसने दवाई राज के मुंह में डाली और दूध का प्याला उसके होंठों से लगा दिया। राज जब दूध पी चुका तो लड़की ने तौलिए से उसका मुंह साफ किया और बोली, “अब लेट जाइए....”

“नहीं...” राज ने कमजोर आवाज में कहा, “लेटे-लेटे उकता गया हूं....”

“अब आपका ताप भी हल्का है....लड़की ने राज का माथा छू कर कहा, “शाम तक तीनों पुड़ियां खा लेंगे तो बिल्कुल उतर जाएगा....”

“मुझे यहां कौन लाया?” राज ने लड़की को ध्यान से देखते हुए पूछा।

“भैया उठाकर लाए थे....आप गली में बेहोश होकर गिर गए थे....”

“वह टैक्सी ड्राइवर तुम्हारा भाई है?”

“हां...चन्दर मेरा भाई ही है....मेरा नाम सुषमा है। मैं ट्यूशन करके लौट रही थी...रास्ते में एक गुण्डे ने मुझसे अशिष्टता करना चाही....आपने मुझे बचा लिया था....फिर आप बेहोश हो गए थे।”

“मैंने बचा लिया था?” राज ने आश्चर्य से पूछा।

“हां....आप उस समय अर्ध-चेतना की दशा में थे...रात वैद्य जी आपको देखने आए थे....कह रहे थे आपने दो तीन दिन से कुछ नहीं खाया।”

“बहुत कुछ खाया-पिया था इन दो तीन दिनों में...” राज फीकी-सी मुस्कराहट के साथ बोला, “अपने खून के धक्के.... अपने प्यार के धक्के....दूसरों की स्वार्थता...हवा और मिट्टी....कितना कुछ तो खाया है.....जो चीजें जीवन के चौबीस वर्षों में नहीं खाई वे अड़तालीस घण्टों में खाने को मिल गईं....”

“ओह....” सुषमा ने राज को ध्यान से देखते हुए सहानुभूति प्रकट की, “आप बहुत दुखी जान पड़ते हैं....”

“दुखी.....हूं....” राज गर्दन झटक कर बोला, “दुखी उसे कहते हैं जो सिर पर चोट खाए घाव दबाए बैठा हो....आज तक मैंने अपना जीवन व्यर्थ गंवाया है....किन्तु; आज से मेरे जीवन का उद्देश्य आरम्भ होता है....जो दुख मेरे पास एकत्र हुए हैं, उन्हें सुरक्षा से रखूंगा और एक दिन उन्हीं लोगों को बांटूंगा जिन्होंने ये दुख मुझे दिए हैं....” यह कहते-कहते राज की आंखों में अंगारे से सुलगने लगे.....उसके चेहरे पर एक भयानक निश्चय की रोशनी छा गई।
 
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सुषमा ध्यान से राज को देखती रही और फिर धीरे से बोली, “तो आप बदला लेंगे उन लोगों से जिन्होंने आपको दुख दिए हैं...”

“क्या पत्र का उत्तर देना बदला होता है? पानी के तल पर कंकड़ फेंक कर यह आशा करना कि इसमें लहरें नहीं उठेंगी मूर्खता ही तो है...कभी-कभी उठने वाली लहरें किनारों से मिट्टी भी नोंच लाती हैं।”

“क्या आप और भैया एक ही बात पर विश्वास रखते हैं?” सुषमा ने ठंडी सांस लेकर कहा, “बादल बरस कर धरती का सीना भारी कर देते हैं...किन्तु, धरती कभी बादलों की ओर कीचड़ नहीं उछालती...”

“धरती निष्प्राण होती है...राज किसी निष्प्राण धरती का नाम नहीं है...” राज ने होंठ भींचकर कहा, “क्या तुमने मुझे इसलिए यहां स्थान दिया है कि...”

“भगवान् के लिए ऐसा न कहिए...” सुषमा झट बोली, “हमने आपको कोई स्थान नहीं दिया...आदमी का आदमी पर एक अधिकार होता है...और अपना अधिकार लेने वाले ही आदमी कहलाते हैं वरना आदमी और पशु में क्या अन्तर है सिवा इसके कि आदमी बोल सकता है और पशु नहीं...”

“और उन लोगों के विषय में तुम्हारा क्या विचार है जो किसी का अधिकार मार लेते हैं...वे भी आदमी ही कहलाते हैं...किन्तु तुम उस बीज के विषय में नहीं जानतीं जिसे आदमी धरती में गाड़ देता है और वह चुपचाप गड़ जाता है, बबूल का पेड़ बन जाता है और इसमें कांटे निकल आते हैं...”

“बबूल का पेड़ तो एक होता है...आप उन बीजों की ओर भी तो देखिए जो आदमी के हाथों धरती में गड़ते हैं और बढ़कर छायादार पेड़ बनते हैं और आते-जाते आदमी को अपनी छांव से सुख और शान्ति देते हैं...”

“और एक दिन ऐसे ही पेड़ों को आदमी काट ले जाता है...किसी भवन ने निर्माण के लिए, या जला कर आग उत्पन्न करने के लिए...मैं ऐसा पेड़ नहीं हूं सुषमा देवी! मेरे कांटे लोग अनुभव करेंगे...एक-एक कांटे में विष भर दूंगा।”

यह कहते-कहते राज बिस्तर से उतर कर जूते पहनने लगा। सुषमा ने हड़बड़ा कर कहा, “अरे...अरे कहां जा रहे हैं आप?”

“मैं उम्र भर तो यहां रहने नहीं आया था....तुम लोगों ने मेरी देखभाल की है.....यह मुझ पर ऋण रहेगा.....”

“और फिर आपका ऋण तो हम शायद जीवन भर न उतार सकें....यह ऋण जो मेरी ज्जत बचा कर आपने मुझे दिया है....”

“चुकाओगी यह ऋण?” राज ने सुषमा को घूर कर देखा ।

“यदि प्राण देकर भी चुकाना पड़े तो इन्कार नहीं....”

“तो उठाओ मुझे....” राज गंभीर होकर बोला, “और धक्के देकर निकाल दो यहां से....”

“जी.....यह....” सुषमा आश्चर्य से उसे देखने लगी।

“मैं अपने मन में यह चुभन लेकर जीवित नहीं रहना चाहता कि इस दुनिया में कहीं मानवता भी है.....मैं चाहता हूं मेरा निश्चय न डगमगाए....”

राज जूते पहन कर जाने के लिए तैयार हो गया। सुषमा बोली, “राज बाबू! मोती केवल सीप को ही दुनिया समझ लेता है, किन्तु दुनिया केवल सीप में ही सिमट कर सीमित नहीं होती....आदमी के पास खोजने वाली दृष्टि हो तो उसे हर कोने में...हर स्थान में मानव दिखाई देंगे....रात का अंधेरा देखकर ही यह विश्वास नहीं कर लेना चाहिए कि उजाला होता ही नहीं। हर रात एक सवेरा रखती है....”

“कुछ सवेरे ऐसे भी होते हैं जिन्हें मानव स्वयं उत्पन्न करता है...”

राज द्वार की ओर बढ़ता हुआ लड़खड़ाया.....सुषमा ने झट आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया और कहा, “इतनी देर तो ठहर जाइए कि आपकी तबीयत ठीक हो जाए....”

“नहीं, मैं इस बिस्तर की कोमलता को अपने शरीर में नहीं समेटना चाहता...”

राज फिर बढ़ने लगा और फिर लड़खड़ाकर गिर जाता यदि सुषमा उसे सहारा न देती तो....उसकी आंखों में अंधकार छा रहा था, “मैं अवश्य जाऊंगा सुषमा देवी! मुझे कोई नहीं रोक सकता.....कोई नहीं रोक सकता....”

सुषमा ने बलपूर्वक राज को खींचकर बिस्तर पर लिटा दिया। राज ने दोनों आंखें फाड़कर चारपाई की पट्टियां मजबूती से पकड़ लीं।
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चन्दर सिर से टोपी उतारता हुआ भीतर आया। सुषमा चूल्हा जलाकर रोटियां पका रही थी। चन्दर ने होंठों पर जीभ फेरी और चूल्हे की ओर बढ़ते हुए बोला, “वाह! मजा आ गया....आज तो गर्म-गर्म रोटी मिलेगी खाने को...”

“अरे भैया!” सुषमा चौंककर मुस्कराई, “तुम आज इतनी शीघ्र कैसे लौट आए?”

“जिस दिन गर्म-गर्म रोटी भाग्य में होती है, उस दिन टैक्सी में कोई-न-कोई विकार उत्पन्न हो जाता है....” चंदर पटरे पर बैठता हुआ बोला, “ला शीघ्र निकाल तरकारी....”

“अरे....अरे....हाथ तो धो लो जरा...कितने काले हो रहे हैं....देखो ना....”

“काम वाले हाथ हैं...चोरी में काले नहीं हुए....ला जल्दी कर....”

“पहले हाथ धोओ....तब मिलेगी रोटी....” सुषमा ने दृढ़ स्वर में कहा।

चन्दर ने सुषमा को घूरकर देखा, कुछ देर यों ही देखता रहा, फिर ठंडी सांस लेकर उठता हुआ बोला‒
“डरता हूं अपने क्रोध से....तेरी ससुराल वाले कहीं यों न कहें कि बहू को गंजा करके भेजा है. रुपये दो रुपये के कृत्रिम बाल भी नहीं जमा दिए सिर पर...”

सुषमा हंसकर रह गई। चन्दर उठकर जैसे ही मटके की ओर मुड़ा उसकी दृष्टि राज पर पड़ी जो चुपचाप बिस्तर पर लेटा उसी की ओर देखे जा रहा था। चन्दर ठिठककर रुक गया और फिर मुंह बनाकर बोला, “अबे लाट साहब! कब तक तोड़ते रहोगे मुफ्त की रोटी बिस्तर पर पड़े-पड़े.....”

“अरे भैया....” सुषमा बौखलाकर बोली और भैया की ओर देखने लगी।

राज ने क्रोधभरी दृष्टि से चन्दर को घूरा और नथुने फुलाकर बोला, “घबराओ मत....ब्याज के समेत तुम्हारा ऋण उतारूंगा....”

“क्या बुद्धि चमक उठी है.... चन्दर हाथ बजाकर बोला, “क्या बिस्तर पर पड़े-पड़े किसी खजाने का पता लगा रहे हो?”

“चन्दर भैया। क्या दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा?” बीच में सुषमा बोली।

“सच्ची बात कहने वाले का दिमाग खराब ही होता है....” चन्दर ने कहा।

“अबकी बार तो कहकर देखो....” राज बिस्तर से पैर उतारता हुआ बोला।

सुन लिया तूने.... चन्दर ने सुषमा की ओर देखा, “चेतावनी दे रहा है, मुफ्त की रोटियां तोड़कर, फिर वह राज के पास जाकर बोला, “क्या कर लोगे मेरा, अबकी बार कहा तो...”

“सिर तोड़ दूंगा तुम्हारा....मैं स्वयं जाने का प्रयत्न करता हूं.....तुम्हारी बहन शपथ दे-देकर रोक लेती है....”

चन्दर ने मुंह पर हाथ रख ठहाका लगाया और सुषमा की ओर देखकर बोला, “सुन लिया तूने....उस दिन टैक्सी तोड़ दी थी, अब मेरा सिर तोड़ेगा....उंगली पकड़ते-पकड़ते पौंचे तक तो आ पहुंचा, बस केवल गर्दन तक पहुंचना शेष है....अच्छा अब उठो तो सही तुम बिस्तर से......”

“भैया!” सुषमा हड़बड़ाकर खड़ी हो गई।

राज क्रोध की तीव्रता से उठकर खड़ा हो गया। चन्दर हाथ धो रहा था। राज मुट्ठियां भींचता हुआ उसकी ओर देखता रहा फिर धीरे कंपकंपाते स्वर में बोला, “यदि सुषमा का ध्यान न होता तो तुम्हें अशिष्टता का मजा चखा देता...”

“सुन लिया तूने....” चन्दर सुषमा की ओर देखकर बोला, “अब भी स्वर नहीं बदला, अभी तक भाई स्वयं को राजमहल में समझ रहे हैं...”

राज तेजी से द्वार की ओर बढ़ा....चन्दर ने कहा, “ओ-अरे....जाते किधर हो?”

“नरक में...यहां एक क्षण नहीं रुक सकता...”

“पांव तो निकालकर देख कोठरी से....” चन्दर ने लोहे की चाबी उठाकर कहा, “सिर न फोड़ दिया तो चन्दर नाम नहीं....मजाक है, चन्दर के यहां से इस प्रकार चले जाना....इतने दिन रोटियां तोड़ी हैं....इसका मूल्य तो चुका कर जाओ....”
 
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सुषमा खड़ी कंपकपाती रही। उसके होंठ क्रोध की तीव्रता से सिल से गए थे। राज मुट्ठियां भींचे चन्दर को घूरता रहा, फिर बोला, “एक-एक पैसा चुकाऊंगा तुम्हारा चाहे मजदूरी ही करनी पड़े....”

सुन लिया तूने, यह मजदूरी करेगा.... राज ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा, “अरे बाबूजी! कभी कार छोड़कर साइकिल भी चलाई है जीवन में, मजदूरी के बहाने यहां से भागना चाहते हो कि मेरे पैसे ही मार लो....फिर कभी मुंह ही न दिखलाओ....मैं इतना मूर्ख नहीं हूं....जब तक मेरे पैसे न चुका दोगे मैं यहां से निकलने ही नहीं दूंगा....कल से चलना मेरे साथ, तुम्हारे कोमल शरीर की कोमलता का ही ध्यान करके तुम्हारा धंधा तैयार किया है....मेरे गैरेज से तुम्हें टैक्सी मिल जाएगी....शहर की सड़कों से तुम परिचित हो ही....बहुत आवारा घूम चुके हो...”

राज हक्का-बक्का चन्दर को देखता रह गया। सुषमा के चेहरे की विचित्र दशा थी....उसके होंठ यों कंपकंपा रहे थे जैसे वह अभी हंस पड़ेगी या रो पड़ेगी। चन्दर ने उसे घूर कर कहा, “अब मुंह क्या ताक रही है खड़ी-खड़ी.....दो थालियां लगा....बाबूजी बहुत दिनों से बिस्तर पर बैठे-बैठे खा रहे हैं....आज यहां मेरे साथ बैठकर खाएंगे....” फिर उसने राज से कहा, “क्या कभी आदमी नहीं देखा जो इस प्रकार आंखें फाड़े खड़े हो...उधर जाकर हाथ-मुंह धोओ....बिस्तर पर पड़े-पड़े हाथ धो लेने से आदमी का शरीर मिट्टी हो जाता है....”

राज फिर भी चन्दर को देखता रहा। चन्दर ने उसे मटके की ओर धक्का देते हुए कहा, “अब जाओ न......”

राज चुपचाप हाथ धोने लगा। सुषमा उसके हाथों पर पानी डाल रही थी और वह राज की आंखों में छाए हुए आंसुओं को देख रही थी।
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सुषमा शंकर के घर में आई तो सबसे पहले उसकी दृष्टि शंकर पर ही पड़ी जो सुषमा को देखकर ठिठक गया था। सुषमा क्षण-भर के लिए रुकी और फिर सीधी बेबी के कमरे में चली गई। बेबी पुस्तक खोले बैठी थी....सुषमा को देखकर उसके चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें दौड़ गईं। वह उठती हुई बोली, “नमस्ते दीदी....”


“जीती रहो....” सुषमा ने प्यार से बेबी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बैठ जाओ...”

“बेबी बैठकर पढ़ने लगी। सुषमा ने पूछा, “कल तुम्हारी कौन-सी परीक्षा है?”


“गणित की....अन्तिम पर्चा है...दीदी।”

“ठीक है...आज मन लगाकर पढ़ समझ लो....और देखो...कल अन्तिम पर्चा समाप्त हो जाने पर मत समझना कि यह परीक्षा भी अन्तिम थी....मैं कल भी पढ़ाने आऊंगी....और रोज आती रहूंगी....”

“अच्छा दीदी....” बेबी ने खुशामद-भरे स्वर में कहा, “केवल कल की छुट्टी दे दीजिए....”

“अच्छा, कल की छुट्टी रही।” सुषमा मुस्कराकर बोली।

बेबी ने उठकर सुषमा के गले में प्यार से बांहें डाले दीं....फिर वह पुस्तक खोलकर बैठ गई।

लगभग एक घंटा बाद सुषमा बेबी के कमरे से निकली। बाहर शंकर खड़ा उसे ध्यानपूर्वक देख रहा था। उसने सुषमा से कहा‒
“मैं तुसमे कुछ बातें करना चाहता हूं....मेरे साथ आओ...”

“बातें यहां खड़े-खड़े भी हो सकती हैं....” सुषमा, ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया।


“घबराओ नहीं...” शंकर फीकी मुस्कराहट से बोला, “अभी रात इतनी सुनसान नहीं हुई कि अन्धेरे शैतान की आंखों में चमक उत्पन्न हो जाए...”

शंकर घूमकर कमरे में चला गया। सुषमा सन्तोष से कमरे में आई। उसके चेहरे पर कोई भय नहीं था...एक आत्मविश्वास था। अचानक शंकर ने घूमकर कठोर स्वर में पूछा‒
“तुम यहां अब क्यों आई हो?”

“बेबी को पढ़ाने के लिए...” सुषमा ने गंभीर होकर उत्तर दिया, “आप भूल रहे हैं कि आप ही ने बेबी के भविष्य का उत्तरदायित्व मेरे कंधों पर डाल रखा है...”

“बेबी को पढ़ाने के लिए या मुझे मेरी गिरावट का भास दिलाने के लिए...”

“नहीं...!” सुषमा के होंठों पर एक हल्की-सी आत्मविश्वास की हंसी फैल गई, “बल्कि इसलिए आती हूं कि मानव-मानव से कभी निराश नहीं होता...अमावस की रात के अंधेरे में भी कहीं न कहीं मानव को प्रकाश की चमक आ ही जाती है...मन का शैतान उसे ही डराता है जो उससे डर कर भागे...और शैतान उससे भागता है जो उसके पीछे मानवता का प्रकाश लेकर दौड़ पड़े। मैं आपसे डरने लगती तो आप पर शैतान की पकड़ और दृढ़ हो जाती...किन्तु मैं आपसे नहीं डरती और इसी कारण आपका शैतान निर्बल पड़ रहा है...क्योंकि आप स्वयं ही जानते हैं कि आपके भीतर कहीं-न-कहीं मानवता का कोई अंश अवश्य छिपा है...बेबी आपकी बेटी है और बेबी ही के समान पलकर बड़ी होने वाली कोई लड़की आपकी बहन भी हो सकती है...जो किरणें आपके अन्तर में छिपे हाथ बेबी को प्रदान करते हैं वही किरणें एक बहन को भी दे सकते हैं।”

शंकर हक्का-बक्का सुषमा की ओर देखता रहा। उसकी आंखें फटी हुई थीं। सुषमा ने ठंडी सांस लेकर कहा, “दुनिया की हर नारी से केवल एक ही सम्बन्ध तो आवश्यक नहीं होता...मैं जानती हूं आपके मन में मेरे प्रति असीम प्यार है...बहुत स्थान है...आपने मुझे सपनों में देखा होगा...रातों को जाग-जागकर मेरे बारे में सोचा होगा...किन्तु कभी आपके मनोमस्तिष्क पर छाए शैतान ने आपकी सोचों की दशा बदल दो होगी...मैं आपको आमन्त्रित करती हूं शंकरजी! आप मुझसे प्रेम कीजिए...मैं भी आपसे असीम प्यार करूंगी...क्योंकि मैं वह वृक्ष हूं जिसने उस समय जब वह केवल पौधा था कभी प्यार के बादल के छोटे-से टुकड़े की भी छांव नहीं देखी।”

“सुषमा...” शंकर की आवाज कंपकंपा उठी, “मुझे क्षमा कर दो सुषमा, मैंने तुम्हें समझने में कितनी भूल की थी...मैंने यह स्वप्न में भी न सोचा था कि तुम्हारा इतना मूल्य है कि मैं सौ जन्म लेने पर भी इसे नहीं चुका सकता।”

“चुका सकते हैं आप...” सुषमा की मुस्कराहट गहरी हो गई।

“हां चुका सकता हूं...अपने भैया से कह दो कि मैंने तुम्हारे साथ बुरा व्यवहार किया है, वह मुझे इसका दण्ड दे तो मेरी आत्मा को शान्ति मिल पाएगी...”

“नहीं, एक और मार्ग भी है...” सुषमा ने मुस्कराकर कहा, “अभी-अभी आप मुझे बहन कहकर देखिए...आप यों अनुभव करेंगे कि आपने एक पवित्र मार्ग मुझे देकर अपने पाप के मूल्य से कहीं अधिक चुका दिया है...”

“सुषमा! मेरी बहन...”

शंकर ने आगे बढ़कर सुषमा को गले लगा लिया और उसके माथे पर स्नेह-भरे होंठ रख दिए...सुषमा रो पड़ी। उसके गले से भर्राई हुई आवाज निकली।

“आज, आज जीवन में पहली बार मैंने कुछ जीता है शंकर भैया!” कहते-कहते सुषमा शंकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी।
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“टैक्सी...”

राज के कानों से आवाज टकराई और उसने एकाएक ब्रेक लगा दिए। राधा एक दुकान से निकली थी और दुकान का नौकर हाथों में आठ-दस पैकेट उठाए हुए उसके पीछे था। राधा ने पैकेट पिछली सीट पर रख दिए और नौकर को एक रुपये का नोट देकर गाड़ी में बैठ गई।

टैक्सी चल पड़ी। राज ने सामने लगे शीशे में से देखा। एकाएक राधा सीधी बैठती हुई चौंककर बोली, “ओह...गांधी नगर चलना है...”

राधा ने पीठ से टेक लगा ली। अचानक उसकी दृष्टि सामने लगे शीशे पर पड़ी और वह आश्चर्य भरे स्वर में बोली, “अरे राज!”

राज कुछ न बोला। उसकी आंखें बिना पलकें झपकाए सामने मार्ग पर लगी हुई थीं। टैक्सी पूरी गति से दौड़ रही थी। राधा ने व्यंग्य के स्वर में फिर पूछा, “कहां थे तुम इतने दिनों से? कहां रहते हो अब?”

राज अब भी मौन रहा। राधा ने फिर कहा, “यह टैक्सी कब से चलाना आरम्भ किया है?”

“.........”

“राजा तुम्हें बहुत याद करता है...कभी-कभी तो तुम्हारी तस्वीर देखकर रोते-रोते बुरा हाल कर लेता है।”

“..........”

“तुम बोलते क्यों नहीं! चुप क्यों हो?”

राज फिर भी कुछ न बोला। राधा चुप बैठी रह गई। टैक्सी पूरी गति से दौड़ती रही। थोड़ी देर बाद टैक्सी गांधी नगर में आत्मभवन के पोर्टिकों में आकर रुक गई। राधा पिछला द्वार खोलकर उतरी और अगले द्वार के पास आकर धीरे से बोली, “राजा से नहीं मिलोगे राज?”

राज ने एक झटके के साथ हाथ आगे कर दिया। उसके दांत मजबूती से भिंच गए थे। राधा ने चुपचाप पर्स में से दस रुपये का नोट निकालकर राज के हाथ में रख दिया। राधा ने पिछली सीट से पैकेट उठाए और टैक्सी फर्राटे भरती हुई फाटक से बाहर निकल गई। राधा कुछ देर तक खड़ी उस फाटक को देखती रही जिसमें से टैक्सी अभी-अभी बाहर गई थी। उसकी आंखें डबडबा आईं और फिर वह बोझल पांव उठाती हुई भीतर चली गई।

हॉल में राजा तेजी से ट्राइसिकल चला रहा था, जय लम्बी आराम कुर्सी पर अधलेटा सिगार के कश लगा रहा था। उसने राधा को आते देखा और मुस्कराकर बोला, “बड़ी देर लगा दी तुमने?” अचानक वह चौंककर सीधा बैठता हुआ बोला, “क्या हो गया है तुम्हें? बीमार दिखाई दे रही हो...”

“राज मिला था मुझे आज।”

“हूं...” जय राधा को ध्यानपूर्वक देखता हुआ धीरे से बोला।

“एक बात कहूं...कहा मानोगे मेरा?” राधा ने अचानक कहा।

“हूं...” जय का चेहरा गंभीर हो गया।

“बुला लाओ उसे...छोटा भाई ही तो है, भूल कर बैठा है...बड़ों का काम छोटों की भूलें क्षमा कर देना होता है।”

“हूं....” जय ने लम्बी सांस ली, “तो उसे बुला लूं...अपनी धन-सम्पत्ति का आधे का साझीदार बना लूं...उसे एक बार फिर बेधड़क ऐश करने का अवसर दे दूं ताकि कुछ समय बाद तुम्हें और राजा को किसी के आगे हाथ फैलाकर भीख मांगने के लिए छोड़ दूं...यही चाहती हो ना तुम...!”

“मुझे विश्वास है अब उसे समझ आ गई होगी....”

“चुप रहो...” जय ने अचानक जोर से राधा को डांटते हुए कहा, “यदि अब तुम्हारे होंठों पर उसका नाम भी आया तो देखना मुझसे बुरा न होगा।”

राधा की आंखें अनायास ही भर आईं। इसी समय राजा की साईकिल लुढ़क गई और राजा फर्श पर गिर कर रोने-बिलखने लगा। राधा शीघ्र दौड़कर उसकी ओर चली गई।
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राज बस-स्टाप पर लगी हुई सवारियों की लम्बी लाइन के पास से टैक्सी को धीरे-धीरे चलाता हुआ गुजरने लगा। साथ ही वह गर्दन निकालकर पूछता जाता था‒
“टैक्सी चाहिए साहब...टैक्सी...टैक्सी...”

अचानक राज की दृष्टि क्यू में खड़े हुए राजा पर पड़ी और उसने उसके पास पहुंचकर टैक्सी को ब्रेक लगा लिए। राजा की दृष्टि भी राज से मिली और वह अनायास पुकारा उठा, “अंकल...”

राजा क्यू में से निकलकर तेजी से राज की ओर भागा। राजा उसके पास पहुंचकर चीखा, “अंकल...!”

दूसरे ही क्षण राज ने उसे गोद में उठा लिया और छाती से लगाते हुए बोला, “राजा...मेरे बेटे...” उसकी आवाज भर्रा गई थी और उसने राजा का मुंह चूम लिया।

“अंकल, अंकल...” राजा जोर से राज से चिमटता हुआ बोला, “आप कहां चले गए हैं अंकल! आप कहां रहते हैं?”

“यहीं रहता हूं बेटे...इसी शहर में...”

“तो आप घर क्यों नहीं आते अंकल...” राजा ने हिचकियां लेते हुए राज का चेहरा दोनों हाथों में थामते हुए कहा, “आप घर क्यों नहीं आते?”

“वह घर मेरा नहीं है बेटे...वह घर तुम्हारे डैडी का है।”

“डैडी बहुत बुरे हैं अंकल!” राजा सिसकियां लेते हुए बोला, “आप मुझे बहुत याद आते हैं...जब मैं आपको याद करके रोता हूं तो डैडी मुझे बहुत डांटते हैं...एक बार...एक बार मम्मी ने आपको वापस बुलाने को कहा था तो डैडी उन पर बहुत बिगड़े और बोले कि अब आगे से आपका नाम भी उन्होंने लिया तो अच्छा न होगा...”

“डैडी ठीक कहते हैं...” राज ठंडी सांस लेकर बोला, “उनके सामने किसी को मेरा नाम न लेना चाहिए...”

“किन्तु, क्यों अंकल! आप हैं तो डैडी के छोटे भाई।”

“बेटे! तुम्हारे डैडी जिस दुनिया में रहते हैं वहां कोई किसी का भाई नहीं होता...किन्तु छोड़ो इस बात को, तुम आज बस के क्यू में क्यों खड़े हो?”

“आज छुट्टी शीघ्र हो गई थी। ड्राइवर तो पांच बजे ही लेने आता इसलिए मैं बस से वापस घर जा रहा था।”

“चलो बेटे! मैं तुम्हें दूसरी टैक्सी में बिठाए देता हूं...”

“नहीं अंकल! आप मुझे अपनी टैक्सी में ले चलिए....”

“ले चलूंगा किन्तु एक शर्त पर...”

“आप अपनी टैक्सी में ले चलेंगे तो आपकी हर बात मान लूंगा।”

“तुम मुझे घर के भीतर चलने को नहीं कहोगे...”

“नहीं कहूंगा...आपको भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।”

“क्या?”

“आप मुझे हर दिन स्कूल में मिलने आया करें...मुझे आप बहुत याद आते हैं अंकल!”

“मेरे बेटे!” राज ने राजा को कलेजे से चिपटा कर कहा, “मैं अवश्य ही तुझे मिलने तेरे स्कूल में आया करूंगा। इस अंधेरे संसार में तू ही तो एक चमकता हुआ तारा है मेरे लिए...”

राजा जोर से राज से चिपट गया। राज ने एक बार फिर उसे प्यार किया और टैक्सी में अपने साथ वाली सीट पर बिठा लिया। टैक्सी सड़क पर दौड़ने लगी। राजा ने रास्ते में पूछा, “अंकल! आपने दूसरा घर ले लिया है?”

“नहीं बेटे!”

“फिर कहां रहते हैं?” राजा ने आश्चर्य से पूछा।

“एक मित्र के घर में रहता हूं...”

“मित्र के घर में क्यों रहते हैं अंकल! आप अपना घर क्यों नहीं ले लेते...?”

“अपना घर बनाने का यत्न कर रहा हूं...”

“तो अपना घर बहुत अच्छा बनाइएगा अंकल। डैडी के घर से भी बहुत बड़ा...और बहुत सुन्दर घर।”

राज कुछ न बोला और चुपचाप गाड़ी ड्राइव करता रहा। राजा उसके बहुत निकट साथ लगा बैठा था।
 
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एक होटल के पास से गुजरते हुए अचानक एक महिला ने पुकारा ‘टैक्सी’। राज ने टैक्सी रोक ली। होटल के फाटक से निकल कर एक जोड़ा टैक्सी के पास पहुंचा और राज के मस्तिष्क में इतना तीव्र झटका लगा मानो किसी ने उसके कानों के पास बम दे मारा हो। वह सन्नाटे में बैठा रह गया। टैक्सी के पास आने वाली महिला ‘संध्या’ थी...संध्या जो राज की प्रेमिका थी...संध्या, जिसे राज मन से प्यार करता था...प्राणों से बढ़कर उसका आदर करता था। संध्या, वही संध्या जिसने राज के पास होने की खुशी में होने वाले समारोह में उसे भेंट करने के लिए डेढ़ हजार रुपये का टाई पिन खरीदा था। इस समय संध्या अनिल के साथ नहीं थी...इस समय संध्या के साथ सन्तोष था...सन्तोष जिसे राज बहुत अच्छी प्रकार से जानता था...सन्तोष शहर के रईस का इकलौता बैठा था।

अचानक पास ही से राज ने आवाज सुनी, “जरा सुनिए मिस संध्या!” यह अनिल की आवाज थी।

राज चुपचाप सामने मुंह किए; बिना उनकी ओर मुड़े देखता बैठा रहा। उसने संध्या की आवाज सुनी जो अनिल से कठोर स्वर में कह रही थी, “आपको सामाजिक शिष्टाचार का ध्यान नहीं, मिस्टर अनिल। ...आप देख नहीं रहे क्या, मैं एक फ्रेंड के साथ जा रही हूं” फिर उसने सन्तोष से कहा, “चलिए मिस्टर सन्तोष!”

राज ने कनखियों से अनिल को देखा जो सन्नाटे में खड़ा हुआ था। उसके मुंह पर कुछ ऐसे चिन्ह थे जैसे कोई यात्री मंजिल के पास आकर लुट गया हो। राज के चेहरे पर एक गहरी सन्तोष भरी मुस्कराहट रेंग गई। संध्या और सन्तोष पिछली सीट पर बैठ गए। संध्या ने कहा, “चलो ड्राइवर...”

टैक्सी स्टार्ट होकर चल पड़ी, राज ने अपने सामने लगे शीशे की दिशा बदल दी थी। सन्तोष संध्या से कह रहा था, “यह अनिल तुमसे क्या कहना चाहता था?”

“कहता क्या...?” संध्या ने कठोर स्वर में कहा, “हर युवक हर युवा से एक ही बात कहता है, मैं तुमसे प्यार करता हूं...आप स्वयं सोचिए सन्तोष जी! क्या प्यार भी ऐसी वस्तु है जिसे नारी सभाओं में बांटती फिरे...मैं तो तंग आ गई हूं आजकल के युवकों की मानसिक दशा देख-देखकर, जरा किसी से हंसकर दो-चार बातें कीं, बस वह यही समझ लेता है कि मैं उसके ठेके में आ गई हूं...किसी से मिल-जुल नहीं सकती, कोई बात नहीं कर सकती...बस अधिकार जमाना चाहते हैं...इन महोदय के साथ दो दिन क्या बिताए कि भूल के शिकार हो गए...मैंने अनुभव किया कि इनके मन में कुछ खोट उत्पन्न हो रहा है सो रिजर्व हो जाना पड़ा...”

“यह दोष अनिल का नहीं है संध्या!” सन्तोष के स्वर में हल्की-सी लड़खड़ाहट थी, “दोष तुम्हारे सौन्दर्य का है...”

“तो क्या मैं इतनी सुन्दर हूं?” संध्या ने एक मोहिनी अदा से पूछा।

“तुम अत्यधिक सुन्दर हो...तुम्हें अपनी सुन्दरता का भास नहीं, जिस दिन भास हो जाएगा तो तुम स्वयं जान जाओगी कि जो भी तुमसे मिलता है वह तुम्हारी ओर किसी दूसरे का देखना क्यों पसन्द नहीं करता।”

“हटिए भी आप तो मजाक करते हैं।”

“चलो अच्छा है, इसे मजाक समझकर ही टाल जाना...कहीं मेरा नाम भी अनिल जैसे लोगों की सूची में लिख डालो।”

“यह आप क्या कह रहे हैं सन्तोष बाबू!” संध्या गम्भीर होकर बोली, “आपका नाम भी यदि इन्हीं लोगों की सूची में लिखना होता तो मैं स्वयं किसी से सम्बन्ध बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करती...लोग स्वयं ही मेरी ओर बढ़े हैं...मैंने सामाजिक शिष्टाचार के नाते उनका स्वागत किया और लोगों ने न जाने क्या-क्या आशाएं मुझसे लगाए रखीं...आप तो जानते हैं सन्तोषजी! मैं एक नारी हूं और नारी जीवन में केवल एक बार किसी पुरुष को चाहती है...उसी के लिए जीती है और उसी के लिए प्राण भी दे देती है।”

“अच्छा...” सन्तोष ने एक व्यंग्यपूर्ण ठहाका लगाया।

“और क्या? आप अब स्वयं सोचिए पन्द्रह हजार भी कोई चीज है...अचानक डैडी का सारा बैलेंस रोटेशन में फंस गया और पन्द्रह हजार कैश की आवश्यकता आ पड़ी...किन्तु अनिल साहब के पास पन्द्रह हजार रुपये होते तो देते...”

“सच है...” सन्तोष ने जेब में हाथ डालते हुए कहा, “जिसके पास होंगे ही नहीं वह देगा ही कहां से...”

“अरे-अरे...यह आप क्या कह रहे हैं?” संध्या ने घबराकर कहा।

“मैं अनिल नहीं हूं संध्या! बीस-पच्चीस हजार के नोट तो हर समय पर्स में रहते हैं।”

“उफ...फो...देखिए, आप तो व्यर्थ ही लज्जित कर रहे हैं...’’ संध्या ने कहा।

“इसका मतलब है तुम मुझे पराया समझ रही हो?”

“अरे अरे...यह आप क्या कह रहे हैं सन्तोष बाबू! आपको पराया समझती तो इतने आदमियों में आप ही का चुनाव कैसे करती?”

राज चुपचाप ड्राइव करता रहा। उसका निचला होंठ दांतों के बीच दबा हुआ था। उसने शीशे में से देखा सन्तोष हजार-हजार रुपये के पन्द्रह नोट संध्या की ओर बढ़ा रहा था। संध्या ने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “अब नहीं लेती तो आप नाराज हो जाएंगे...” नोट लेकर पर्स में रखते हुए वह बोली, “आप कितने अच्छे हैं सन्तोष बाबू!”

“यह अंगूठी पहनो” सन्तोष ने उंगली से अंगूठी उतार कर संध्या को पहनाते हुए कहा, “इक्कीस हजार के नग जड़े हैं इसमें!”

“ओह...सच!” संध्या की आंखें चमक उठीं।

“अगले इतवार को मैं एक बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन कर रहा हूं। पार्टी में हमारी मंगनी की घोषणा कर दी जाएगी।”

“ओह...सच, सन्तोष बाबू।” संध्या की आवाज कंपकंपा रही थी।

“सच मेरी जान! बिल्कुल सच, मुझे भी जीवन साथी बनाने के लिए ऐसी ही नियम की पक्की और भली लड़की की आवश्यकता है...खोज है।”

यह कहते-कहते सन्तोष ने संध्या की कमर में हाथ डालना चाहा। संध्या हल्के-से हंसकर सिकुड़ गई और धीरे से सन्तोष का हाथ अपनी कमर से हटा दिया।

अचानक टैक्सी के इंजन ने चलते-चलते दो-तीन छीकें लीं और दो-तीन धक्के लेकर गाड़ी रुक गई। संध्या ने घबरा कर पूछा, “क्या हो गया? ड्राइवर! यह क्या हो गया?”

“इंजन में कुछ खराबी हो गई है।” राज ने गम्भीरता से कहा।

संध्या राज की आवाज पहचान कर कुछ चौंक पड़ी। राज टैक्सी से उतरा और इंजन का बोनट उठा कर उस पर झुक गया। संध्या के चेहरे पर कई रंग आए और चले गए। बड़ी कठिनाई से उसने अपने भावों पर नियन्त्रण पाया। उसने इस बीच यह भी नहीं सुना कि सन्तोष उससे क्या कहता रहा। थोड़ी देर बाद राज ने बोनट बन्द कर दिया। सन्तोष ने गर्दन निकालकर पूछा, “इंजन ठीक हो गया क्या?”

“नहीं साहब!” बिना उसकी ओर देखे राज ने उत्तर दिया, “समझ में नहीं आ रहा क्या खराबी हो गई है?”

“कैसे ड्राइवर हो तुम?” सन्तोष झुंझला कर बोला, “इंजन की खराबी समझ में नहीं आती?”

“मेरी समझ जरा कमजोर है साहब!” राज सिगरेट पैकेट से निकालकर होंठों में दबाता हुआ बोला, “किसी चीज के भीतर क्या खराबी है, यह जरा देर से समझता हूं....”

“अब फिर क्या तुम्हारे बाप के कंधों पर सवार होकर जाएं?”

अचानक राज की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। उसने खिड़की के पास आकर कहा, “जरा एक बार फिर तो कहिए साहब! फिर मैं आपको चार आदमियों के कंधों पर सवार करा दूं।”

“क्या कहते हो?” सन्तोष ने नथुने फुलाकर क्रोध में कहा।

अचानक राज ने झटके से गाड़ी की खिड़की खोली और सन्तोष की बांह पकड़कर झटके से उसे बाहर खींच लिया। सन्तोष अरे-अरे करता रह गया। राज ने भीतर झांककर संध्या से कहा, “कहिए तो आपके साथ भी यही व्यवहार किया जाए?”

संध्या बौखलाई हुई दूसरी ओर की खिड़की खोलकर नीचे उतर गई। सन्तोष ने राज के बल का अनुमान लगा लिया था। संतोष अपने कोट का कॉलर और आस्तीन बार-बार झटककर ठीक करता हुआ संध्या और राज की ओर देखकर बोला, “जानते नहीं हो मैं कौन हूं? टैक्सी नीलाम करा दूंगा तुम्हारी।”

राज ने उत्तर दिए बिना असावधानी से नया सिगरेट सुलगाया और फिर एक हाथ भीतर डालकर स्टेयरिंग थामा और दूसरे हाथ से टैक्सी को धकेलता हुआ चल पड़ा।
 
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राज पसीने में डूबा हुआ टैक्सी धकेलता गैरेज में पहुंचा। बहुत बड़ा गैरेज था जिसमें कई कारीगर इधर-उधर पड़ी हुई कई गाड़ियों पर काम कर रहे थे। अचानक एक कारीगर ने राज को देखा और चौंककर बोला, “अरे पार्टनर! यह क्या हुआ टैक्सी को?” फिर वह जोर से चीखा, “अबे लड़को! धक्का लगाओ टैक्सी को।”

सब कारीगर अपना काम छोड़कर गाड़ी को धकेलने लगे। राज को ऐसे अनुभव हो रहा था जैसे इन सबने मिलकर उसका बोझ बांट लिया हो...केवल टैक्सी का बोझ ही नहीं बल्कि वह बोझ भी, जो संध्या के चरित्र को देखकर उसके मस्तिष्क पर आ पड़ा था...और दूसरे ही झण राज का मूड अच्छा हो गया। इतने में शंकर हाथ में बड़ा-सा रेंच लिए हुए काम करने वाले वस्त्र पहने एक ट्रक के नीचे से सरककर निकला और राज के पास आता हुआ बोला, “अरे! यह क्या हुलिया बना रखा है तूने? क्या अकेला ही खींचकर लाया है?”

“रास्ते में इस गैरेज का कोई कारीगर नहीं मिला” राज मडगार्ड पर बैठता हुआ मुस्कराया।

“अरे आदमी नाम के राज, रास्ते में कोई मजदूर ही पकड़ लिया होता, दो-चार रुपये ले लेता।”

“जब मेरी बांहों में बल था तो दो-चार रुपये क्यों व्यर्थ गंवाता।”

“बड़ा कंजूस है।” शंकर हंसकर बोला, “अरे भोलू! देख! बाहर वाले से चाय के लिए कह दे...एक एस्प्रो भी लेता आइयो।”

“नहीं शंकरजी! अभी मैं इतना बूढ़ा नहीं हुआ हूं...केवल चाय काफी है।”

भोलू दौड़ता हुआ बाहर चला गया। शंकर ने राज से पूछा, “क्या खराबी हो गई है इंजन में?”

“मालूम होता तो स्वयं ही ठीक करने का प्रयत्न करता...दो-एक छींके आईं और गाड़ी थम गई।”

“ठंडक लग गई शायद” शंकर हंस पड़ा!

“अबे क्या ड्राइवर है तू...कचरा आ जाने से जेट का छेद बन्द हो जाता है...पिस्टन को पेट्रोल की सप्लाई रुक जाती है और इंजन छींक कर ठहर जाता है।”

“अरे शंकर दादा!” एक कारीगर हंसकर बोला, “राज बाबू कार चलाने वाले साहब ठहरे...इंजन ने गुर्राहट भी की तो गाड़ी वर्कशाप में...यह क्या जानें कि कौन-सी खराबी कब उत्पन्न होती है और उसे कैसे ठीक किया जाता है।”

“किन्तु अब जानना पड़ेगा।” शंकर ने कहा, “अब इसके नीचे मर्सिडीज या शेवरले नहीं होती, टैक्सी होती है...अब इसका उद्देश्य घूमना नहीं आजीविका कमाना है...गाड़ी में छोटी-मोटी खराबियां तो होती ही रहती हैं, कुछ नहीं सीखेगा तो हर घण्टे बाद गाड़ी लेकर गैरेज में लौट आया करेगा।”

“तुम ठीक कहते हो शंकरजी।” राज सुनकर शंकर को ध्यानपूर्वक देखता हुआ बड़बड़ाया, “तुम ठीक कहते हो।”

“चल इधर आ!” शंकर बोनट उठाता हुआ बोला, “मैं तुझे बताऊंगा काबोरेटर का कचरा किस प्रकार साफ किया जाता है।”

राज मडगार्ड से उठकर शंकर के साथ इंजन पर झुक गया।
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रात के लगभग दो बजे राज कोठरी के द्वार पर पहुंचा। फिर कुछ ठिठक कर उसने द्वार खोलना चाहा किन्तु द्वार स्वयं ही खुल गया। राज ने विस्मय से सुषमा को देखा जो द्वार पर खड़ी थी। राज अंधेरे में था और सुषमा उसे न देख सकती थी। किन्तु राज सुषमा को स्पष्ट देख रहा था। उसकी आंखें अनिद्रा के कारण लाल हो रही थीं और पलकें झुकी पड़ रही थीं...उसका रंग फीका-फीका सा था।

“राज बाबू!” सुषमा ने द्वार से पीछे हटते हुए कहा, “इतनी देर क्यों लगा दी आज?”

“तुम अभी तक जाग रही हो?” राज ने भीतर प्रवेश करते हुए सुषमा को ध्यानपूर्वक देखते हुए कहा।

“आप ही की प्रतीक्षा में जाग रही थी।” सुषमा ने मुस्कराकर कहा, “सोचा, आप न जाने किस समय थके-थकाए आएं...मेरी नींद गहरी हो, द्वार की आहट न सुनाई दे और आपको कष्ट हो।”

राज ने ध्यानपूर्वक देखा, एक विचित्र-सा स्नेह था, एक सहानुभूति का भान था, इस भोलेपन में जो सुषमा के चेहरे पर फैली हुई थी। अचानक सुषमा ने राज का हुलिया देखा। उसके वस्त्रों पर कितने ही कालिख के धब्बे थे...चेहरे पर भी कालिख लगी थी। सुषमा उसका चेहरा देखकर हंस पड़ी, “यह हुलिया क्या बना रहा है आपने?”

“टैक्सी खराब हो गई थी...” राज ने धीरे से कहा।

“चलिए हाथ-मुंह धो लीजिए...मैं तरकारी गर्म करती हूं...”

राज हाथ-मुंह धोने लगा, सुषमा पानी डालती रही। फिर उसने साबुन उठाकर राज को दिया। राज ने साबुन मलते हुए कनखियों से सुषमा का चेहरा देखा। सुषमा उसी की ओर देखे जा रही थी। राज को अपनी ओर देखते हुए पाकर वह गड़बड़ा कर दूसरी ओर देखने लगी। राज मुंह-हाथ धोकर तौलिए से साफ करने लगा। जब वह तरकारी गर्म करने चूल्हे के पास बैठी तो राज ने कहा, “रहने दो, गर्म न करो, यों ही दे दो...व्यर्थ कष्ट करोगी।”

“कष्ट ठंडी तरकारी खाने में होता है, तरकारी गर्म करने में नहीं,” सुषमा मुस्कराई।

“यह क्या बक-बक लगा रखी है?” अचानक नींद में डूबी हुई आवाज में चन्दर बोला, “चुपचाप सो जाओ।”

“राज बाबू आए हैं भैया।” सुषमा मुस्कराई।

“तो कोई आफत आ गई है?” चन्दर झल्लाए हुए स्वर में बोला।

“बिस्तर छोड़ो राज बाबू का...”

“राज बाबू कोई लाट साहब है...कि एक दिन फर्श पर नहीं सो सकता। आज मेरे बदन में बहुत दर्द है, मैं बिस्तर नहीं छोडूंगा।”

राज चुपचाप खाना खाता रहा। फिर उसने हाथ धोकर तौलिए से हाथ पोंछे और सन्तोष के बिस्तर के पास पहुंचा। एक हाथ उसने चन्दर की गर्दन में डाला और दूसरा घुटनों के नीचे...और उसे बिस्तर से उठा लिया।

“कौन है...यह मैं हवाई जहाज में कैसे पहुंच गया?” चन्दर नींद में सिर हिलाकर बड़बड़ाया।

“अब तुम्हारा जहाज लैंड करने जा रहा है।”

“जरा सावधानी से” चन्दर ने आंखें बन्द किए ही कहा, “मेरा बदन बहुत दुख रहा है।”

राज ने कुछ सोचा और मुस्कराकर फिर चन्दर को बिस्तर पर लिटा दिया। चन्दर ने आंखें बन्द किए ही कहा, “धन्यवाद” और करवट बदलकर खर्राटे लेने लगा।

राज नीचे फर्श पर बिछे हुए चन्दर के बिस्तर पर लेट गया। थोड़े अन्तर पर ही सुषमा का बिस्तर था। राज ने सिगरेट सुलगाई और धीरे-धीरे कश लेने लगा। सुषमा बरतन रखकर मुड़ी और चन्दर के बिस्तर पर पहुंचकर वह चन्दर की पीठ पर खड़ी होकर उसका शरीर दबाने लगी। राज ने कहा‒
“यह क्या कर रही हो? यह कोई सेवा का समय है? सो जाओ चैन से।”

“भैया के बदन में दर्द हो रहा है।”

“अरे! किस चिन्ता में पड़ी हो तुम...सो जाओ निश्चिंत होकर।”

सुषमा चुपचाप मुस्कराकर चन्दर को दबाती रही और राज बिना बोले सिगरेट के कश लेता रहा। बार-बार वह सुषमा की ओर देखता...अब तो राज करोड़पति नहीं, दस-पन्द्रह रुपये रोज का साधारण टैक्सी-ड्राइवर है....फिर भी कितनी सेवा करती है उसकी...कितनी देखभाल करती है...राज ने सुषमा की ओर देखा जिसकी पलकें नींद के बोझ से झुकी जा रही थीं किन्तु फिर भी वह चन्दर का बदन दबा रही थी...इस समय कितनी आभा थी उसके मुख पर, कितनी दीप्ति थी...एक गहरे स्नेह और ममता का प्रकाश...उसने सोचा, यह सुषमा है जिसके जीवन का ध्येय ही सेवा करना है...सेवा ही तो नारी का सबसे बड़ा सौन्दर्य है...अपने घर में वह माता-पिता, बहन-भाइयों की सेवा करती है और पति के घर जाकर पति की और बाल-बच्चों की सेवा करती है।

राज सोच ही रहा था कि सुषमा को नींद की जोरदार झपकी आई और वह बेसुध होकर चारपाई से नीचे गिर पड़ी। दूसरे ही क्षण राज की बलशाली बांहों ने उसे संभाल लिया। सुषमा इस प्रकार हक्की-बक्की आंखें फाड़कर राज को देख रही थी जैसे उसकी समझ ही में न आया हो कि यह अचानक क्या हो गया, किन्तु जैसे ही पूरी सुधि में आई वह तड़पकर राज की बांहों से निकली और झट अपने बिस्तर पर चली गई। गड़बड़ा कर उसने राज की ओर देखा। राज को यों लगा मानो सुषमा के पूरे मुखड़े पर किसी ने गुलाल छिड़क दिया हो...उसकी अंखड़ियां लाज से गुलाब की पंखुड़ियां बन गई थीं! राज का दिल बुरी तरह धड़क रहा था जैसे जीवन-भर की पूरी धड़कनें आज ही पूरी करेगा...यह कौन सी लाज थी? कौन सी दुनिया का पर्दा था जो राज ने आज तक किसी स्त्री के मुख पर नहीं देखा था, किसी स्त्री की आंखों में उसने यह अलौकिक रंग न पाया था।

राज ध्यानपूर्वक पलक झुकाए हुए सुषमा की ओर देखता रहा। सुषमा ने कई बार घबराए हुए भाव से राज की ओर देखा और बार-बार आंखें झुका लीं...कभी वह इधर-उधर देखने लगती...कितनी सुन्दर थी यह घबराहट भी...राज के होंठों पर एक विचार-भरी मुस्कराहट रंग गई। दूसरे ही क्षण सुषमा ने दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया। एकाएक राज का हृदय जोर से धड़का...और फिर उसे ऐसे अनुभव हुआ जैसे उसकी धड़कनें किसी गहरे कुएं में जा गिरी हों।

इसी समय हल्की-सी कराहट के साथ करवट बदलते हुए चन्दर बड़बड़ाया, “अबे अंधा है क्या? देखकर नहीं चलता...एक्सीडेन्ट हो जाता तो?”

राज ने मुस्कराकर आंखें भींच लीं। बहुत देर तक वह यूंही आंखें बन्द लिए कल्पना में खोया रहा और फिर गहरी सांसें लेने लगा जैसे वह गहरी नींद सो रहा हो...किन्तु सुषमा को देखने की इच्छा को वह अधिक समय तक दबाए न रख सका। चन्द मिनट पश्चात् उसने फिर आंखें खोलकर सुषमा की ओर देखा। सुषमा ने एक हाथ की कलाई से आधा चेहरा आंखों समेत ढक रखा था और कंधों तक रजाई ओढ़ी हुई थी। उसकी गहरी सांसों की आवाज कमरे के मौन में अलग सुनाई दे रही थी। उसका दूसरा हाथ जमीन पर फैला हुआ था। राज चुपचाप सुषमा के होंठों की हल्की-सी थरथराहट देखता रहा...फिर उसकी आंखें सुषमा के चेहरे से उसके फर्श वाले हाथ पर आकर टिक गईं...कोमल, भरा हुआ पतली उंगलियों वाला सफेद सुन्दर हाथ।

“नहीं” वह होंठों में बड़बड़ाया, “सुषमा मेरे मित्र और कृपालु चन्दर की बहन है...”

तू भी तो उसका मित्र है, और तेरा भी तो उस पर उपकार है...उसका वैरी तो नहीं तू! उसके मन ने कहा।

“किन्तु यह पाप है, मित्रता के विश्वास की उजली बेदाग चादर पर यह एक गंदा और अपवित्र धब्बा है...

“निस्सन्देह यह पाप होता,” उसके अन्तर ने कहा, “यदि तेरी नीयत में पाप होता तो, प्यार करना तो कोई पाप नहीं है...प्यार तो एक पवित्र भाव है यदि इसमें वासना, काम सम्मिलित न हो तो देवताओं ने भी किया है...देवता पापी तो नहीं होते।”

“किन्तु,” राज का गला शुष्क हो गया।

“क्यों अपने आप को छल दे रहा है,” उसका मन फिर बहने लगा, “तू कुछ भी सोच...किन्तु यह खुली वास्तविकता है कि तू सुषमा से प्यार करने लगा है और तेरे प्यार में पाप की मिलावट नहीं...यह सच्चा प्यार है।”

“हां!” राज ने होंठ हिलाए, “यह सच है...यह भास मुझे अभी-अभी हुआ है कि मैं सुषमा से प्यार करने लगा हूं...सुषमा चुपके-चुपके अनजाने ही मेरे मनो-मस्तिष्क में प्रवेश कर गई है...उसका विचार धमनियों में समा गया है।”

फिर पता नहीं किस समय राज की आंख लग गई। रात-भर वह अनोखे सपने देखता रहा।

दूसरी सुबह उसके कानों के पास कोई चीज जोर से बजी और राज जाग उठा...किन्तु उसने आंखें बन्द रखीं। आंखों के पपोटों पर उसे तेज उजाले का भास हो रहा था...फिर एक आवाज उसके कानों से टकराई‒
“कितनी देर सोते रहेंगे? दस बज रहे हैं।”

“दस...”

राज हड़बड़ाकर बिस्तर पर ही खड़ा हो गया। सुषमा चाय की प्याली हाथ में लिए पास खड़ी मुस्करा रही थी। राज के मस्तिष्क में अचानक रात वाली सुन्दर घटना उभर आई और उसने गड़बड़ा कर सुषमा के चेहरे से दृष्टि हटाकर प्याली उससे लेनी चाही। सुषमा ने झट प्याली पीछे खींच ली, “आं हां... पहले कुल्ला कीजिए...”

राज ने शीघ्र ही मटके से पानी लेकर कुल्ला किया और प्याली सुषमा से लेकर चाय पीने लगा। सुषमा चूल्हे के पास चली गई और राज चोर दृष्टि से सुषमा की ओर देखता रहा। वह रात की घटना की प्रतिक्रिया जानने के लिए बेचैन था। आखिर सुषमा ने ही मौन भंग करते हुए कहा, “एक बात कहूं राज बाबू!”

राज का हृदय जोर से धड़का। शरीर में अपराधियों की-सी डरी-डरी सनसनी दौड़ गई...वह बड़ी कठिनाई से बोल सका, “कहो...”

“आप यह बैड-टी की आदत छोड़ दीजिए...रात-भर के खाली पेट पर चाय बड़ी हानि पहुंचाती है....”

राज ने सन्तोष की गहरा सांस ली और धीरे से मुस्करा कर बोला, “छोड़ दी...”

“अच्छा, अब शीघ्र ही मुंह धो लीजिए...परांठे ठंडे हो जाएंगे...आज आपको बहुत देर हो गई है। भैया तो आठ बजे ही चले गए थे। वह उसी समय आपको जगाए दे रहे थे। मैंने बड़ी कठिनाई से रोका उन्हें।”

राज चुपचाप मटके के पास जाकर हाथ-मुंह धोने लगा।
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