Romance राजवंश

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सवारी की आवाज सुनकर राज ने टैक्सी रोक दी और हाथ बढ़ाकर पिछली खिड़की खोल दी। एक स्वस्थ सांवले रंग का युवक टैक्सी में सवार होता हुआ अपने साथियों से बोला, “आओ यारो बैठो...तुम भी क्या याद करोगे।”

राज ने सिगरेट निकालकर सुलगाई। इतनी देर में दो साथी उस युवक के साथ बैठ गए और तीसरा राज के साथ अगली सीट पर चला आया। सांवले रंग के युवक ने राज के कंधे पर हाथ मारकर कहा, “चलो बादशाहो...रीगल बार चलो...”

टैक्सी चल पड़ी। युवक बड़ा प्रसन्न दीख रहा था।

अगली सीट पर बैठे मित्र ने पीछे मुड़कर सांवले युवक से पूछा, “कौन सी मिलेगी आज?”

“जो यार लोग चाहें...” सांवले युवक ने खुले हृदय से उत्तर दिया, “आज हम बहुत खुश हैं...सबको अपनी-अपनी पसन्द की पिलाएंगे...फिर वहां से जुहू चलेंगे...आज वहां बढ़िया ‘माल’ मिलेगा।”

“अवश्य चलेंगे...” पीछे से एक साथी उछलकर बोला, “आज तुम खुश हो तो हम सब तुम्हारी खुशी में सम्मिलित हैं...”

“अरे खुश क्यों न होंगे...” तीसरे ने चहककर कहा, “हमारा एक साथी उन्नति कर रहा है...हमारे लिए खुशी और गौरव की बात है।”

“वास्तव में इससे बढ़कर और खुशी की बात क्या हो सकती है...बल्कि यह तो मान का स्थान है कि हमारा एक मित्र अपने बूते पर अपने साहस और परिश्रम से एक साधारण मिस्त्री से इतनी बड़ी फैक्ट्री का मालिक बन बैठा है और अब उसने नया प्लान बना डाला है तो स्टेट बैंक ने डेढ़ लाख रुपया देना तय किया है इसके लिए।”

“रीगल बार के लिए...” राजा बहुत धीरे व्यंग्यभरे स्वर में बड़बड़ाया।

“क्या...?” राज के साथ अपनी सीट पर बैठे व्यक्ति ने चौंककर पूछा।

“मैं पूछा रहा था रीगल बार ही चलना है?”

“और कोई इससे अच्छी बार हो तो वहां ले चलो।” पीछे बैठा सांवला युवक बोला। वह अत्यधिक प्रसन्न मुद्रा में था।

“दूसरी बार बहुत दूर है।” एक ने कहा, “फिर यहां से जुहू के लिए टैक्सी ही नहीं मिलेगी।”

“चिन्ता मत करो यारो!” युवक बोला, “छः महीने तक यह टैक्सी इत्यादि का झगड़ा भी समाप्त हो जाएगा...मैंने एम्बेसेडर अभी से बुक करा दी है...हां...शान से घूमा करेंगे...”

“डेढ़ लाख रुपया...जिन्दाबाद...” राज बड़बड़ाया।

“क्या कह रहे हो?” साथ बैठे व्यक्ति ने राज से पूछा।

“कुछ नहीं...” राज ने गम्भीर होकर उत्तर दिया।

“अरे यारो! जीवन में और रखा ही क्या है?” सांवला युवक प्रसन्न मुद्रा में बोला, “खाओ पियो...और ऐश करो...”

“और मित्रों को ऐश कराओ...” राज फिर बड़बड़ाया, “फिर टैक्सी-ड्राइवर बन जाओ।”


“तुमने फिर कुछ कहा?” साथ बैठे व्यक्ति ने कुछ क्रोध प्रकट करते हुए राज से पूछा।

“नहीं साहब...”

रीगल बार के सामने टैक्सी रुक गई। मित्र-मंडली टैक्सी में से उतरी। सांवले स्वस्थ युवक ने किराया दिया और साथियों के कंधों पर हाथ रखकर बोला, “चलो...यारो...”

“मेरी जेब खाली होने के लिए व्याकुल है...” राज ने मुस्कराते हुए व्यंग्य कसा।

मंडली में से केवल एक साथी ने यह वाक्य सुना और राज को घूर कर देखा। राज बड़े सन्तोष से सिगरेट का कश ले रहा था। वह व्यक्ति पलट कर दूसरे साथियों के संग बार की ओर बढ़ गया। इसी समय बार में से अनिल, कुमुद, धर्मचन्द और फकीरचन्द निकलते दिखाई दिए...वे लोग नशे में लड़खड़ा रहे थे। धर्मचन्द ने टैक्सी देखकर पुकारा, “टैक्सी...”

राज ने चुपचाप हाथ बढ़ा कर पिछली खिड़की खोल दी। अनिल को संभाले हुए धर्मचन्द और कुमुद पिछली सीट पर बैठ गए और फकीरचन्द लड़खड़ाता हुआ अगली सीट पर आन विराजा। उनमें से किसी ने भी राज को नहीं देखा था। राज ने कोट के कालर खड़े कर लिए और टोपी को और आगे माथे पर झुका लिया। टैक्सी चल पड़ी फकीरचन्द ने लड़खड़ाती हुई जबान में बताया कि उन्हें कहां जाना है। अचानक अनिल ऊंचे स्वर में रोने लगा। धर्मचन्द ने घबराकर कहा, “अरे अरे...क्या कर रहे हो? मैं पहले ही कह रहा था इतनी मत पियो...”

“मैं क्या करूं...एक क्षण भी तो मेरे मन को चैन नहीं पड़ता।”

“अरे! ऐसी हरजाई औरत के लिए रोते हो?” फकीरचन्द ने बुरा-सा मुंह बनाकर कहा, “क्या तुम्हें मालूम नहीं कि वह तुमसे पहले भी कितने पूंजीपतियों, सेठों से प्रेम की पींगें बढ़ा चुकी है...यह तो उसका धंधा है।”

राज ने हल्की-सी सांस ली। उसके होंठों पर एक शांतिमयी मुस्कराहट रेंग गई। वह जानता था कि बातचीत का विषय संध्या थी। अनिल ने कहा, “अरे, मुझे उस हरजाई का दुख थोड़े है...मुझे तो चिन्ता उन दस हजार रुपयों की है जो उसे अपने डैडी की तिजोरी से निकालकर दिए थे जो उन्होंने एक सौदे के लिए रखे थे...पचास हजार थे...दस हजार मैं निकाल लाया था...यदि सौदे के समय पूरे पचास हजार न मिले तो डैडी की सारी साख मंडी में समाप्त हो जाएगी। मेरे डैडी बहुत सख्त हैं...वह मुझे झट-फारखती दे देंगे। और फिर पूरी धन-सम्पत्ति का अधिकारी मेरा छोटा भाई रह जाएगा। वह वैसे ही मुझसे जलता है, क्योंकि उसे पढ़ना पड़ रहा है और मैं ऐश करता हूं।”

“अरे, तो आंखें बन्द करके देने की आवश्यकता ही क्या थी।” कुमुद ने क्रोध से कहा।

“मुझे क्या मालूम था कि वह नीच केवल अभिनय कर रही है...उसने कुछ इस ढंग से प्यार जताया था कि मैं समझा अब वह मुझे चाहने लगी है....और शीघ्र ही हमारी मंगनी हो जाएगी...मैं क्या जानता था कि जिस दिन मुझसे पैसे लेगी उसके दूसरे ही दिन सन्तोष के साथ दिखाई देने लगेगी...मुझे लिफ्ट तक नहीं दी उस दिन....मेरे पास कोई प्रमाण भी नहीं है कि मैंने उसे दस हजार रुपये दिए हैं।”

“छोड़ो यार नरक में झोंको,” धर्मचन्द बोला, “मिट्टी की हंडिया टूटी कुत्ते की जात मालूम हो गई...हम तुम्हारे दोस्त हैं, ऐसे तुम्हें कंगाल थोड़े ही होने देंगे...पांच हजार मैं दे दूंगा, शेष पांच हजार फकीरचन्द और कुमुद मिलकर पूरा कर देंगे..किन्तु, अब तुम ऐसी मूर्खता छोड़ो....जैसा कि तुम्हारे डैडी कहते हैं फौरन पूरा कारोबार अपने हाथ में ले लो...तुम्हारे छोटे भाई की शिक्षा पूर्ण हो रही है...यदि डैडी ने उसे कारोबार का प्रबंधक बना दिया तो टापते रह जाओगे।”

“ठीक कहते हो तुम लोग....आजकल किसी का क्या भरोसा। मैं कल ही डैडी के सामने गम्भीर हो जाऊंगा।”

राज के होंठों पर मुस्कराहट फैल गई। उन लोगों की मंजिल आ गई थी इसलिए राज ने टैक्सी रोक दी।
 
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अचानक टैक्सी में करड़-करड़ की आवाज हुई और टैक्सी धक्के खाने लगी। राज ने हड़बड़ाकर ब्रेक लगा दिए। पिछली सीट पर बैठे सूटेड-बूटेड व्यक्ति ने घबराकर आगे झुकते हुए पूछा, “क्या हुआ ड्राइवर?”

“साहब...” राज ने क्षणभर मस्तिष्क पर बल दिया और बोला, “शायद टाप गेयर की गरारी टूटी है।”

अचानक सूटेड-बूटेड व्यक्ति ने जेब से रिवाल्वर निकाला और राज की गर्दन पर रखते हुए कठोर स्वर में बोला, “गोली मार दूंगा...वरना टैक्सी आगे बढ़ाओ...”

राज सन्नाटे में रह गया। सूटेड-बूटेड व्यक्ति ने पीछे देखा एक कार तेजी से पीछे आ रही थी। अजनबी फिर राज की ओर मुड़कर बोला, “जल्दी बढ़ाओ, नहीं तो मारता हूं गोली...मैं सब समझता हूं...तुम भी शायद उसी टोली के साथ हो जो बैंक से मेरे पीछे लगी आ रही है...मुझे अपनी कार की प्रतीक्षा थी...यदि बैंक बन्द होने का समय इतना कम न होता तो टैक्सी में न बैठता...मेरा अर्दली भी वर्कशाप चला गया था ड्राइवर के साथ।”

“साहब!” राज आश्चर्य से बोला, “मेरी समझ में नहीं आता आप क्या कह रहे हैं।”

एकाएक पीछे से आने वाली कार टैक्सी के पास पहुंचकर रुकी और इससे पूर्व की अजनबी कोई हिल-जुल करता फुर्ती से एक व्यक्ति कूद कर टैक्सी के समीप आया और अजनबी की गरदन से रिवाल्वर लगा कर बोला, “बैग उठाओ...जल्दी से....रिवाल्वर गिरा दो....”

अजनबी के चेहरे की रंगत उड़ गई। उसने धीरे से रिवाल्वर गिरा दिया। अब राज की समझ में बात आ गई थी...टैक्सी को चारों ओर से चार व्यक्तियों ने घेरे में ले लिया था। रिवाल्वर केवल एक ही व्यक्ति के हाथ में था जो अजनबी को निशाना बनाए हुए था। राज चुपचाप दम साधे बैठा रहा। रिवाल्वर वाला व्यक्ति फिर गुर्राया, “जल्दी करो...वरना ट्रिगर दबाता हूं।”

अजनबी ने कांपता हुआ हाथ बढ़ाया और पैरों के पास रखा हुआ बड़ा-सा चमड़े का बैग उठाकर रिवाल्वर वाले व्यक्ति की ओर कर दिया। सड़क सुनसान पड़ी थी। यह ऐसा मार्ग था जहां दिन में भी सन्नाटा ही रहता था। राज का हाथ चुपके-से अपनी खिड़की के हैण्डल पर पहुंच गया था। आक्रमणकारी ने बाएं हाथ से बैग ले लिया और रिवाल्वर को घुमाता हुआ बोला, “यदि शोर मचाया तो गोली मार दूंगा....”

राज ने झट खिड़की खोल दी। आक्रमणकारी ने खिड़की की ओर दृष्टि उठाई ही थी कि पलक-झपकने में ही राज ने पिछली-खिड़की के भीतर ही उसका रिवाल्वर वाला हाथ पकड़ कर इतनी जोर से झटका दिया कि उसका पूरा चेहरा टैक्सी की छत से टकरा गया। उसके मुंह से चीख निकली और बाहर उसके हाथ से बैग गिर गया और भीतर रिवाल्वर छूट गया। शेष तीनों व्यक्ति राज की ओर लपके किन्तु जब तक वे लोग घूमकर राज तक पहुंचते राज खिड़की से उतर चुका था। पीछे से आने वाले ने बैग पर झपट्टा मारा। दूसरा व्यक्ति बैग उठा कर कार की ओर झपट रहा था। राज ने झट छलांग लगा कर उसे दोनों कंधों से पकड़ लिया और जोर से पीछे झटका दिया। बैग उसके हाथ से निकलकर सड़क पर जा गिरा। राज ने पूरे बल से उसे कार की ओर धक्का दिया। पलट कर आने की बजाय वह व्यक्ति तेजी से कार में घुस गया। राज ने फुर्ती से बैग उठा लिया। उसी समय अजनबी ने टैक्सी की खिड़की से फायर किया। शेष तीनों व्यक्ति भी शीघ्र ही कार की ओर लपके और इसके पूर्व की अजनबी टैक्सी से उतरता कार स्टार्ट होकर हवा हो गई थी। राज बैग लेकर अजनबी की ओर मुड़ा। राज के होंठों से लहू बह रहा था। चेहरे पर कई जगह खरोचें आ गई थीं।

अजनबी ने कंपकंपाते स्वर में कहा, “त...त तुमने डूबने से बचा लिया नौजवान...मुझे क्षमा कर दो...मैंने तुम पर व्यर्थ ही सन्देह किया था।”

“आप टैक्सी में बैठिए” राज ने उसे बैग देकर कहा, “रिवाल्वर हाथ में रखिए...इंजन को न्यूटरल करके स्टेयरिंग संभाल लीजिए....मैं धकेलता हूं...”

कुछ देर बाद राज टैक्सी को धक्का देता हुआ चल रहा था और अजनबी स्टेयरिंग घुमा रहा था। अचानक सामने से एक कार आती हुई दिखाई दी और अजनबी ने झट टैक्सी को ब्रेक लगा दिए। राज झटका लगने से गिरते-गिरते बचा। अजनबी बड़ी फुर्ती से नीचे उतर आया और कार को खड़ी करने का संकेत करने लगा। उसमें से एक ड्राइवर और एक सफेद वर्दी पहने व्यक्ति जो अर्दली दिखाई देता था, नीचे उतरे। अजनबी ने क्रोध में कहा‒
“इतनी देर लगा दी तुम लोगों ने? तुम्हें मालूम है कि दफ्तर कितने बजे बन्द होता है और आज तो नौकरों को वेतन बांटना है।”

“साहब...” अर्दली ने नम्रता से झुककर कहा, “वर्कशाप में देर लग गई थी।”

“चलो...टैक्सी में से बैग उठा कर कार में रखो।” अजनबी ने कहा और फिर राज की ओर देखते हुए बोला, “अच्छा नौजवान! मैं तुम्हारा उपकार जीवन-भर नहीं भूल सकता...शायद तुम अनुमान भी न लगा सको....बैग में पूरे साढ़े तीन लाख की धन-राशि थी...इसके लिए मेरी ओर से एक छोटा-सा इनाम स्वीकार करो...”

अजनबी ने अपना पर्स खोला और सौ-सौ के पांच नोट निकालकर राज की ओर बढ़ा दिए। राज मुस्कराकर बोला, “यदि आप इसे उपकार ही समझते हैं तो क्या उपकार का मूल्य केवल पांच सौ रुपयों से चुकाया जा सकता है?”

अजनबी के होंठ आश्चर्य से खुले और फिर बन्द हो गए। राज उसी मुस्कराहट के साथ बोला, “ये पांच सौ रुपये कुछ गरीबों में बांट दीजिएगा जिससे उनकी शुभ कामनाएं, उनकी प्रार्थनाएं ऐसे ही समय में आपके काम आएं।”

यह कहकर राज टैक्सी की ओर बढ़ा ही था कि अजनबी ने कहा, “ठहरो नौजवान...”

राज अजनबी की ओर मुड़ा। अजनबी ने लज्जित-सी मुस्कराहट के साथ कहा, “मैं एक बार फिर क्षमा चाहता हूं कि मैंने तुम्हें समझने में भूल की...इस उपकार का बदला तो मैं शायद कभी न चुका सकूं...हां शायद जीवन के किसी मोड़ पर मैं तुम्हारे काम आ सकूं। मैं जेमसन का मैनेजर हूं...तुमने यह नाम अवश्य सुना होगा...बहुत बड़ी फैक्टरी है जहां मोटर कारें तैयार होती हैं...यह रहा मेरा कार्ड।” मैनेजर ने कार्ड निकालकर राज को देते हुए कहा, “आधी रात को भी तुम किसी आवश्यकता के समय मेरे पास आ सकते हो।”

राज ने चुपचाप कार्ड लेकर जेब में रख लिया। अजनबी ने एक स्नेहमयी मुस्कराहट के साथ राज को देखा, उसके कंधे पर बड़ी आत्मीयता से हाथ रखा और कार में सवार हो गया। थोड़ी देर बाद कार चली गई। राज टैक्सी धकेलने लगा।
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जोर-जोर से खांसते हुए शंकर की सांस फूल गई। राज ने कार के नीचे लेटे-लेटे पूछा, “क्या बात है दादा! आज बहुत खांसी उठ रही है तुम्हें?”

शंकर ने खांसते-खांसते बलगम थूका और सांस ठीक करता हुआ बोला, “दो बज गए हैं भई! तू कब तक लगा रहेगा?”

“दादा! सुबह तक किसी भी तरह गाड़ी ठीक करनी है।”

“सुबह तक? अरे यह तो कल दोपहर तक भी कठिनता से ठीक होगी।”

“मुझे कल सुबह से गाड़ी चलानी है दादा...और तुम्हारे गैरेज में कोई फालतू टैक्सी है नहीं।”

“एक दिन न चलाएगा तो क्या हो जाएगा?”

“बहुत कुछ हो जाएगा दादा! अब मैं दिन-भर में बीस रुपये कमा लेता हूं...महीने में पांच दिन भी यदि इस प्रकार छुट्टी कर लूं तो सौ रुपये की हानि हो जाती है।”

“पर मेरी तो तबीयत खराब है....उधर बेबी घर पर प्रतीक्षा कर रही होगी...नौकरानी अलग बिफरी बैठी होगी...जब तक मैं नहीं पहुंच जाता नौकरानी रुकी रहती है...बाल-बच्चों वाली है वह भी...”

“तुम जाओ दादा! आराम करो।”

“अरे मैं चला जाऊंगा तो तू कैसे ठीक करेगा! कभी पहले भी यह काम किया है?”

“अब तो कर रहा हूं...किसी गोरख धंधे की गिरह तो समझ में आ जानी चाहिए शेष गिरहें स्वयं खुलती चली जाती हैं।”

राज कार के नीचे से निकल आया। उसके कपड़े काले हो रहे थे, चेहरे पर भी कालिख लगी हुई थी...हाथ में बड़ा-सा रेंच था। शंकर को फिर खांसी आई और राज ने कहा, “जाओ दादा! तुम आराम करो....तुम्हें तो बुखार भी लगता है।” राज ने शंकर का हाथ छूकर देखा।

बड़ी कठिनाई से शंकर घर जाने पर सहमत हुआ। जाते-जाते भी उसने कई बातें राज को समझाईं, फिर बोला, “यदि वास्तव में तूने यह काम कर लिया तो मैं समझूंगा तू ड्राइवर से अच्छा मैकेनिक है...सात-आठ सौ रुपये महीना लेता है हैड-मैकेनिक किन्तु; इस गाड़ी को तो दोपहर से पहले वह भी न ठीक कर सकता...वह भी जब निरन्तर लगा रहता तब...”

राज कुछ न बोला। उसने सिगरेट सुलगाई और शंकर के जाने के बाद वह फिर काम में लग गया।

लगभग बीस मिनट बाद अचानक फाटक चरमराया और राज ने सिर निकालकर देखा...फिर वहीं सन्नाटे में लेटा रह गया। उसने सुषमा को देखा था जो इधर-उधर देखती हुई आगे बढ़ रही थी...उसके हाथ में छोटा-सा टिफिन-कैरियर भी था। राज कार के नीचे था इसलिए सुषमा उसे न देख पाई थी। राज ने धीरे से हाथ बढ़ाकर सुषमा के पैर छू लिए। सुषमा डर से उछलकर चीख पड़ी। राज कार के नीचे से हंसता हुआ निकला और बोला, “डर गईं?”

“क्या दशा बना रखी है आपने?” सुषमा ने कहा।

“तुम रात में अकेली क्यों चली आईं? डर नहीं लगा तुम्हें?”

“डर तो बहुत लगा किन्तु; करती भी क्या, भैया को बहुतेरा जगाने का प्रयत्न किया...उनकी नींद तो आप जानते ही हैं...मैंने सोचा आप भूखे होंगे इसलिए खाना लेकर चली आई।”

“बहुत ध्यान रखती हो मेरा!” राज ने सुषमा को ध्यान से देखते हुए कहा।

“न किया करूं।”

“साहस टूट जाएगा।”

“काहे के लिए बांध रखा है इतना साहस आपने...दिन-भर टैक्सी चलाते हैं, रात-भर गैरेज में काम करते हैं...क्या केवल ड्राइवरी करने से आपका पेट नहीं भरता?”

“पेट तो चार आने के चने खाकर भी भर सकता है सुषमा” राज ने ठंडी सांस लेकर कहा, “मानव संसार में केवल पेट भरने के लिए ही तो जन्म नहीं लेता...तुम नहीं जानतीं सुषमा, मैं यह कुछ क्यों कर रहा हूं।”

“बताएंगे भी नहीं मुझे?”

“किसी को भी नहीं बताना चाहता था, किन्तु न जाने क्यों मन चाहता है तुम्हें हर बात बता दिया करूं...क्यों मन चाहता है ऐसा करने को?”

राज ने सुषमा की आंखों में झांककर देखा। सुषमा ने क्षण-भर उससे आंखें मिलाईं और फिर पलकें झुका लीं। राज धीरे-से सुषमा के पास आया और बड़ी कोमलता से उसके दोनों कंधे थामकर बोला‒
“बताओ ना सुषमा! क्यों मेरा मन यह चाहता है कि अपनी हर बात तुम्हें बता दूं...मेरा हर रहस्य तुम जान जाओ...मुझे ऐसे भान होता है कि तुम्हें सब-कुछ बता देने से मन का बोझ हल्का हो जाएगा...ऐसा क्यों होता है?”

“जी...मैं...मैं...भला क्या जानूं?”

“तुम जानती हो सुषमा! किन्तु तुम....तुम जबान खोलते हुए डरती हो...जो स्त्री स्त्री होती है वह आंखों से सब-कुछ कह सकती है किन्तु जबान से कुछ नहीं कहती।”

“आप समझते हैं आंखों की जबान को!”

“न समझता होता तो...आज अपनी जबान नहीं खोलता। यह कहने का साहस शायद कभी न करता...मैं तुमसे प्यार करता हूं सुषमा! मैं तुमसे प्यार करता हूं....मेरा रोआं-रोआं तुम्हें चाहता है...मैं नहीं जानता वह कौन सा मार्ग है जिससे होकर तुम इतनी चुपके-चुपके, इतनी दबे-पांव मेरे हृदय में उतरती चली आई हो कि तुम्हारे पांव की आहटों का भी मुझे भान न हो सका। मेरी आंखों से आंखें मिलाओ...कहीं मैं..मैं तुमसे बलपूर्वक ऐसी कोई वस्तु तो नहीं मांग रहा जो तुम मुझे न देना चाहती हो?”

सुषमा ने लाज से भरी पलकें उठाईं और राज की आंखों में देखा‒उसके होंठ धीरे से थरथराए किन्तु उनसे कोई ध्वनि न निकली....फिर उसने ‘न’ के संकेत में सिर हिलाकर जल्दी से एक हाथ अपने चेहरे पर रख लिया और सिर झुका लिया। राज के रोएं-रोएं में एक कंपकंपी-सी दौड़ गई...एक आनन्ददायक-सी सनसनी....एक उल्लासपूर्ण-सी बिजली...दूसरे ही क्षण उसने सुषमा को छोड़कर आकाश की ओर मुंह उठाया और पूरी शक्ति से चीखा, “सुषमा...”

राज की आवाज दूर तक वातावरण में लहरा गई। सुषमा गड़बड़ाकर बोली, “हांए, हांए...यह क्या करते हैं...? कोई सुन लेगा।”

“सुनने दो सुषमा...आज सारी दुनिया को सुनने दो...मेरी आवाज इन टिमटिमाते सितारों तक पहुंचने दो...सुषमा! आज मैं दुनिया के कण-कण को अपनी आवाज सुनाना चाहता हूं...मैं सारे संसार को यह बता देना चाहता हूं कि मैंने वह सब-कुछ पा लिया है जो यह सारी दुनिया मुझसे छीनती रही है...हां सुषमा! यह सारा संसार कल तक मुझसे छीनता ही रहा...लूटता ही रहा।”

कहते-कहते राज की आवाज भर्रा गई और उसकी आंखों से आंसू टपक पड़े। वह भर्राई हुई आवाज में बोला, “सब-कुछ छीन लिया था इस दुनिया ने मेरा...सब-कुछ लूट लिया था...मैं बिल्कुल अकेला रह गया था सुषमा...बिल्कुल अकेला और कंगाल...किन्तु आज...आज मैंने सब कुछ पा लिया है...आज मैं बहुत प्रसन्न हूं सुषमा...बहुत खुश हूं...मैं बहुत ही खुश हूं...” यह कहते-कहते राज रो पड़ा, और फिर रोते हुए बोला, “जी चाहता है आज ठहाके मारकर आकाश हिला कर रख दूं..”

रोते-रोते बीच में राज ठहाके लगाने लगा। सुषमा ने टिफिन-कैरियर मडगार्ड पर रखा और राज के दोनों कंधे पकड़कर हिलाते हुए बोली, “क्या हो गया है राज बाबू! आपको क्या हो गया है?”

और राज अचानक सुषमा के बालों में मुंह छिपाकर फिर रोने लगा।
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राज ने खाने का अंतिम ग्रास गले में उतारा और पानी पीकर हाथ पोंछते हुए उसने सुषमा की ओर देखा। सुषमा ध्यानपूर्वक बड़ी गम्भीर मुद्रा में राज को देखे जा रही थी। एक फीकी मुस्कराहट के साथ राज ने कहा‒
“यह है मेरी कहानी, सुषमा। कोई भी घटना जो मानव के जीवन की दशा बदल दे वह उसकी कहानी का शीर्षक होती है। आज भी भैया की वे आंखें मेरी कल्पना में हैं जब उन्होंने मुझे मेरे अधिकार से वंचित किया था। कितना परायापन था उन आंखों में जैसे हम दोनों में रक्त का कोई सम्बन्ध ही न हो सुषमा! मैं जीवन में किसी भी मोड़ पर इन घटनाओं को नहीं भूल सकता जिनके कारण मैं अकेला रह गया था, इतना अकेला कि मुझे अपनी सांसें तक अपरिचित लगने लगी थीं...दुनिया और दुनिया के हर सम्बन्ध से मेरा विश्वास उठ गया था...निराशा के इस गहरे अंधकार में मुझे तुमने और चन्दर ने उजाले की हल्की-सी किरण दी थी...वह किरण, वह प्रकाश मेरे जीवन के लिए अपर्याप्त था...मेरे साहस और विश्वास के लिए पूरा न था! तुम्हारे प्यार, तुम्हारे स्नेह ने मुझे नया साहस, नई शक्ति प्रदान की है...एक नया निश्चय दिया।...आज मेरा मन चाहता है कि जीवित रहूं...और जीवित रहकर उन लोगों को बताऊं कि तुम्हारे सब कुछ छीन लेने पर भी मैं कंगाल नहीं हुआ...मुझे प्यार का धन मिल चुका है...और जिस दौलत के तुम पुजारी हो, एक दिन मैं उसी दौलत के ढेर लगा कर उन ढेरों पर बैठूंगा और चीख-चीख कर लोगों को बुलाऊंगा और उनसे कहूंगा...आओ, ऐ दौलत के पुजारियों, आओ मेरे आगे सिर झुकाओ...मुझे सजदा करो।”

कहते-कहते राज की आंखें एकाएक लाल हो गई...चेहरे से बहुत क्रोध टपकने लगा। सुषमा ने एक ठंडी सांस ली। राज उसी क्रोध की दशा में उठा और रेंच लेकर टैक्सी ठीक करने लगा।

सुषमा ने बरतन समेटे और उठकर राज के पास आ खड़ी हुई...कुछ क्षण ध्यानपूर्वक उसका चेहरा देखती रही, फिर धीरे से बोली‒
“आपकी कहानी हमारी कहानी से कोई भिन्न नहीं है राज बाबू! अन्तर केवल इतना है कि आपको अपने बड़े भाई से शिकायत है और हमें हमारे चाचा ने इस दशा में पहुंचाया...हम भी एक बहुत बड़े आदमी की सन्तान हैं, मां बचपन में भगवान को प्यारी हो गई थी...पिता मुझे और चन्दर भैया को सात और नौ वर्ष का छोड़कर चल बसे...भैया ने मेरे लिए बहुत-कुछ किया है...स्वयं मजदूरी की है...और मुझे थोड़ा बहुत पढ़ाया है। मैंने...जीवन में बहुत मोड़ देखे हैं...किन्तु...मैं जीवन के प्रति निराश नहीं हूं...हां, राज बाबू जब आदमी आदमी से निराश हो जाएगा उस दिन दुनिया पलट जाएगी...आकाश टूट पड़ेगा...प्रलय आ जाएगी...”

“ये कहानियों-कथाओं की बातें हैं, सुषमा।”

राज हाथ चलाता हुआ कसैली मुस्कराहट के साथ बोला, “इस दुनिया में हर वह व्यक्ति निराश है जो अपनी बांहों का प्रयोग नहीं जानता...मैं भी अब तक अपने हाथों-पैरों का प्रयोग नहीं जानता था। आज मैं अपनी बांहों का प्रयोग जानता हूं...मैं जान गया हूं कि वे वस्त्र जिन पर कोई सलवट या कोई धब्बा न हो वे आदमी को ऊंचा नहीं उठाते...उसे मान नहीं देते...वे कपड़े आदमी के लिए सम्मान और इज्जत खरीदते हैं जिनमें काम की शिकनें पड़ी हों, जिनमें आदमी के हाथों के परिश्रम का लेख अंकित हो...आज मैं निराश नहीं हूं, इसलिए मैं दुनिया को अपने पैरों में झुकाने का साहस रखता हूं...और एक दिन दुनिया को अपनी इच्छा से झुका कर दिखा दूंगा।”

“राज बाबू!” यह वास्तविकता भी तो आपको एक कहानी के शीर्षक से ही मिली है। कहानियां भी तो कोई आकाश से नहीं उतरतीं...मेरे, आपके गिर्द फैली हुई वास्तविकताओं को जो लोग पैनी दृष्टि से देख लेते हैं उन्हें कहानियों में डाल कर हमारे सम्मुख मार्ग रख देते हैं।”

राज कुछ न बोला। उसके हाथ निरन्तर चलते रहे और सुषमा उसका चेहरा ध्यान से देखती रही...फिर उसने एक लम्बी सांस ली और धीमे स्वर में बोली‒
“मैं आप से निराश नहीं हूं राज बाबू! आपसे दुनिया ने इतना छीना है कि आप मानवता की कल्पना से ही निराश हो गए हैं...यही निराश मानव में उन व्यक्तियों को जन्म देती है जो हिरण्यकश्यप, कंस और रावण का रूप धारण करके मानव को अपने सामने सिर झुकाने पर विवश करते हैं...राज बाबू! मैं आप को वह सब कुछ दूंगी जो आपसे दुनिया ने छीना है...मैं आपको इससे भी कहीं अधिक दूंगी...”

राज चुपचाप हाथ चलाता रहा और सुषमा ने धीरे से राज के कंधे से सिर लगा दिया। राज ने कहा, “बहुत रात हो गई है सुषमा! अब तुम घर जाओ।”

“तुम...रात-भर काम करोगे?”

“तुम जाओ सुषमा! कल का सवेरा मेरे लिए एक नया प्रकाश लेकर आएगा। सुबह जब मैं नाश्ता करने आऊंगा तो तुम अपनी मुस्कराहट की शक्ति मुझे देना जिससे मैं एक बार फिर ताजा-दम होकर अपने उद्देश्य की पूर्ति में लग जाऊं...”

सुषमा ने हौले से टिफिन-कैरियर उठाया और एक दृष्टि राज पर डालकर फाटक की ओर बढ़ गईं। राज ने भी उसे जाते हुए देखा और मुस्कराकर फिर अपने काम में जुट गया...उसमें एक नये निश्चय, नई शक्ति का संचार हुआ था।
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शंकर ने फाटक पर पहुंचकर अचानक गाड़ी के इंजन की गुर्राहट सुनी और चौंक पड़ा...फिर फाटक में प्रवेश करते ही उसने राज को देखा जो टैक्सी में बैठा हुआ टैक्सी स्टार्ट करके गेयर डाल रहा था। शंकर की आंखें आश्चर्य से फैल गईं। वह लपक कर राज के पास पहुंचा। राज ने मुस्कराकर उसे देखा और बोला, “आओ दादा...बैठो...तुम्हें ट्राई दे दूं...”

“ठीक हो गई?” शंकर ने विस्मय से पूछा।

“बैठो...मालूम हो जाएगा...”

शंकर बैठ गया। राज ने टैक्सी आगे बढ़ा दी। फाटक से निकलकर उसने सैकंड गेयर डाला, फिर थर्ड और फिर फोर्थ...गाड़ी पानी में तैरती हुई मछली के समान फिसलती चली गई। शंकर आंखें फाड़े बैठा देखता रहा। कुछ दूर जाकर उसने राज को स्टेयरिंग से हटाया और स्वयं ड्राइव करता हुआ राउंड लेकर गैरेज की ओर लौटा...इंजन बिल्कुल ठीक काम कर रहा था। टैक्सी गैरेज में रोककर शंकर उतर आया। उसके चेहरे पर आश्चर्यमय जोश था। राज ने मुस्कराकर पूछा, “क्या सोच रहे हो दादा!”

“विश्वास नहीं आता,” शंकर आंखें फाड़कर बोला, “इतना काम तो मेरे तीनों बड़े मिस्त्री भी मिलकर नहीं निपटा सकते हैं। हे राम!... आखिर तू ड्राइविंग के चक्कर में क्यों पड़ा है? ड्राइवर केवल ड्राइवर रहता है और मैकेनिक के लिए तो उन्नति के कई द्वार खुले हैं...कई मार्ग हैं...”

“मुझे तो अपने मार्ग की खोज है दादा। चाहे वह ड्राइवर बनकर मिले चाहे मैकेनिक।”


“ठीक है, आज से तू यह ड्राइवरी का चक्कर छोड़ दे...मेरे गैरेज में इतना काम आता है कि बहुत-सा काम मुझे लौटा देना पड़ता है, क्योंकि काम के मिस्त्री नहीं मिलते...मेरे अपने फेफड़ों में अब इतनी शक्ति नहीं रही कि अधिक काम संभाल सकूं...तू यह गैरेज संभाल ले, मुझे तुझ पर बहुत भरोसा है...मैं देख-भाल के लिए कभी-कभार आ जाया करूंगा...यदि तेरी काम की लगन और गति यही रही तो सम्भव है चार-पांच सौ के स्थान पर हजार-डेढ़ हजार रुपये महीना कमाने लगे।”

राज कुछ न बोला...वह सिगरेट सुलगा रहा था। थोड़ी देर बाद गैरेज के दूसरे मिस्त्री और कारीगर भी आ गए। राज की टैक्सी को तैयार देखकर सभी प्रशंसा करने लगे। शंकर ने उन्हें बताया कि किस प्रकार राज ने अठारह घंटों का काम केवल बारह घंटों में ही पूरा कर दिया है....आज से राज हैड मिस्त्रयों का भी हैड बना दिया गया है...पूरे गैरेज की देखभाल राज ही करेगा।

जब चन्दर टैक्सी लेने आया और उसने राज के काम के विषय में सुना तो तनिक भी आश्चर्य प्रकट नहीं किया और बड़े सन्तोष से बोला, “पागल हो गया है साला...ऐसे ही एक दिन देखने वालों को पागल बना देगा।”

रात-भर का जागा हुआ राज जब कोठरी में पहुंचा तो सुषमा उसके लिए नाश्ता तैयार कर रही थी। राज को देखते ही सुषमा के होंठों पर एक हल्की मोहिनी, स्नेहमयी और हृदय में उतर जाने वाली मुस्कराहट उभर आई। राज को यों अनुभव हुआ मानो वह रात-भर का जागा हुआ न था...बरसों से वह इस मुस्कराहट के नर्म गदले झूले में झूल रहा हो...उसके शरीर का एक-एक रोआं ताजा हो उठा था।

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कार अचानक एक उजाड़ स्थान पर रुक गई। संध्या ने चौंककर इधर-उधर देखा, फिर घबराकर बोली, “यह आप कहां ले आए, रमेश बाबू!”

“क्यों?” रमेश ने मुस्कराकर गहरी दृष्टि से संध्या को देखते हुए कहा, “पसन्द नहीं तुम्हें यह स्थान?”

संध्या की आंखों में एक हल्की-सी घबराहट झलकी जिसे दूसरे ही क्षण उसने बड़ी सुन्दरता से मुस्कराहट के पर्दे में छिपा लिया और इठलाकर बोली, “वीराना कौन पसन्द करता है रमेश बाबू...?”

“मुझे बहुत भाता है वीराना...” रमेश ने कार की खिड़की खोलते हुए कहा, “क्योंकि ऐसे स्थान पर किसी के हस्तक्षेप का भय नहीं होता।”

“मैं समझी नहीं।” संध्या बौखलाई।

“तुम्हें दस हजार रुपयों की आवश्यकता थी ना अपने डैडी के कारोबार की गिरती हुई साख संभालने के लिए।”

“और इस उलझन से निकलते ही डैडी हमारी शादी कर देंगे।”

“जिस प्रकार राज, अनिल, सन्तोष और दूसरे बहुत से मंगेतरों से कर चुके हैं।” रमेश मुस्कराया।

“ओह...उनकी बात मत कीजिए...रमेश बाबू। आप नहीं जानते वे लोग कितने स्वार्थी निकले...शादी से पहले ही वे मुझे पत्नी बनाने की सोचने लगे थे...ऐसे आदमियों का क्या भरोसा...पत्नी बनाने के बाद शादी करें या न करें।”

“तुम्हारे डैडी का क्या भरोसा कि अपने कारोबार की गिरती हुई साख संभालने के बाद भी तुम्हारी शादी करें या न करें।”

“ओह! रमेश बाबू, मेरे डैडी बहुत ग्रेट हैं...वह मेरी इच्छा के विरुद्ध एक पग भी नहीं उठा सकते।”

“वह व्यक्ति क्यों ग्रेट न होगा डार्लिंग! जिसका कोई कारोबार न हो और वह काल्पनिक कारोबार की साख संभालने के लिए दामाद बनाने के सपने दिखाता फिरे...यह क्या कम सौदा है?”

“आप क्या कह रहे हैं रमेश बाबू!” संध्या सीधी बैठती हुई झट बोली।

“क्यों? मेरी जबान से वास्तविकता को सुनकर डर गईं मिस संध्या! मैं रमेश हूं....राज, अनिल या सन्तोष नहीं हूं जो तुमसे शादी के सपने देखते हुए तुम्हारे डैडी की गिरती हुई साख संभालने के लिए दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह हजार रुपयों की भेंट देते रहे....मैं तुम्हें बहुत लम्बे समय से पढ़ता आ रहा हूं.....तुम्हारे डैडी के विषय में बहुत कम जानता हूं....उनकी जो छोटी-सी फर्म थी वह उनकी ऐश की भेंट चढ़ चुकी है....आदमी जब ऐश के जीवन में से गुजर चुका हो....और इसी ऐश की लत डाल चुका हो....तो इसे एकाएक छोड़ देना उसके बस की बात नहीं और यों आदमी गिरता है और गिरता चला जाता है.....जैसे तुम्हारे डैडी....वह शराब और मुजरों में इतने डूब चुके हैं कि आंखें उठाकर तुम्हारी ओर पिता की दृष्टि से देख ही नहीं सकते....उनके लिए तुम बेटी नहीं हो....वह केवल यह जानते हैं कि तुम सुन्दर, सोसाइटी में घूमने वाली लड़की हो....एक ऐसी लड़की जो उनके लिए सोने की चिड़िया से कम नहीं....अब तक तुम्हें ऐसे ही शिकार मिले हैं जो तुम्हारी सुन्दरता की चकाचौंध में खोकर हिसाब-किताब भूलते रहे हैं....किन्तु, मैं रमेश हूं.... मेरे पिताजी ने दांतों से एक-एक पैसा पकड़कर धन एकत्र किया था....मैं पैसे का सही प्रयोग जानता हूं....मैं जिस वस्तु की जितनी कीमत समझता हूं, उसके उतने ही दाम देता हूं।”

“अरे....रमेश बाबू!” संध्या की आवाज कंपकंपा गई।

“घबराओ नहीं...” रमेश मुस्कराया, “मैं व्यापारी हूं....सौदा खरीदूंगा और दाम दूंगा....मैं किसी एक चीज के सौदे का पाबन्द होकर नहीं रह सकता....तुमसे शादी का कोई विचार मेरे मन में नहीं....इसके अतिरिक्त मैं यह भी नहीं जानता कि जो सौदा मैं खरीद रहा हूं वह ताजा माल है या दस-पांच हाथों से गुजरा हुआ....अब तक तुम पर हजार डेढ़ हजार खर्च कर चुका हूं....यदि माल ताजा है तो कीमत दस हजार तक हो सकती है.....बासी है तो अधिक से अधिक दो हजार....ताजापन या बासीपन का ठीक अनुमान माल के प्रयोग के बाद ही हो सकेगा....या तो एक हजार और ले लेना....या नौ हजार....”

“रमेश बाबू....” संध्या थूक निगलकर रह गई।

दूसरे ही क्षण रमेश ने संध्या का हाथ पकड़कर उसे कार से नीचे खींच लिया। संध्या चिल्लाई‒
‘‘बचाओ.....बचाओ....’’

“यही तो लाभ है वीराने से....किसी के हस्तक्षेप का डर नहीं होता लेन-देन में....”

संध्या लाख मचलती रही किन्तु, रमेश की मजबूत बांहों ने शीघ्र ही उसे निढाल और बेसुध कर दिया।
आकाश पर एक तारा टूटकर एक लम्बी रेखा बनाता चला गया।

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चन्दर ने उस छाया को देखा जो दूर से हल्की अंधेरी सड़क पर बिल्कुल मध्य में चलती हुई दिखाई दे रही थी। उसकी पीठ चन्दर ही की ओर थी। चन्दर इस ओर की एक सवारी पहुंचाकर लौट रहा था....वह ध्यान से इस चलती हुई छाया को देखता रहा। यह कोई स्त्री थी जो धीरे-धीरे सड़क के बीच चली जा रही थी....उसके बाल बिखरे हुए थे और साड़ी का आंचल सड़क पर घिसट रहा था.....उसके हाथ में कोई कागजों की गड्डी थी जिससे एक-एक कागज गिरता जा रहा था।

चन्दर की टैक्सी की हैड-लाईट का प्रकाश उस स्त्री की पीठ पर पड़ा किन्तु वह तब भी नहीं चौंकी। चन्दर ने हॉर्न बजाया और बड़बड़ाने लगा किन्तु, उसने नहीं सुना। अचानक चन्दर की दृष्टि एक कागज पर गई जो उस स्त्री के हाथ से गिरा था। चन्दर चौंक पड़ा.....यह एक नोट था....बड़ा सा नोट।

“पागल तो नहीं हो गई.....” चन्दर बड़बड़ाया, “साली के योंही कोई खचाक से पेट में चाकू उतार देगा।”

फिर चन्दर टैक्सी रोककर उतरा....एक दृष्टि उसने गिरे हुए नोट पर डाली.....हजार का नोट था....चन्दर स्त्री की ओर बढ़ता हुआ बोला, “ऐ देवीजी! आपका नोट।”

एक नोट गड्डी में से और गिर गया। चन्दर तेजी से स्त्री के पास पहुंचा और उसकी बांह पकड़ता हुआ उसे रोककर बोला‒
“ऐ देवी....!”

दूसरे ही क्षण चन्दर के मस्तिष्क को एक जोर का झटका लगा....घूमते ही टैक्सी के प्रकाश के सामने उस स्त्री का चेहरा आ गया था और वह चुपचाप आंखें फाड़े शून्य में घूरे जा रही थी....बिल्कुल भावनाहीन चेहरा जिस पर बिगड़ा हुआ मेकअप था....गालों पर खरोंचे स्पष्ट थीं। चन्दर बड़बड़ाया, “संध्या!”

किन्तु; संध्या कुछ न बोली....संध्या के बिखरे हुए बाल, उसका चेहरा, मसली हुई साड़ी और गिरा आंचल....चन्दर से बहुत कुछ कह रहे थे। चन्दर इस प्रकार सन्नाटे में खड़ा था जैसे उसका शरीर हल्का-फुल्का होकर तेजी से आकाश के विस्तार में उड़ता चला जा रहा हो....और फिर.....अचानक वह किसी गहरी गुफा में गिरने लगा हो।

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गाड़ी के इंजन की गुर्राहट सुनकर संध्या का बाप चौंका....फिर शराब का गिलास गले में उड़ेल कर मुस्कराया और बड़बड़ाने लगा, “आ गई....”

खिड़की खुलने और बन्द होने की आवाज आई फिर धीरे-धीरे पांव की चापें सुनाई दीं....संध्या का बाप चुपचाप दृष्टि से द्वार की ओर देखता रहा....उसने गिलास में कुछ और शराब उड़ेली, उसके हाथ लड़खड़ाए और कुछ शराब नीचे मेज पर गिर गई। कुछ देर बाद पांव की आवाजें साथ वाले कमरे में चली गईं....संध्या के बाप ने दो एक घूंट पीए और गिलास मेज पर रखते हुए फिर बड़बड़ाया, ‘उधर चली गई....’

पांव की आहटें फिर गूंजी....संध्या के बाप की दृष्टि फिर द्वार की ओर लग गई। थोड़ी दूरी पर संध्या दिखाई दी। वह चुपचाप द्वार ही में आकर खड़ी हो गई थी। बाप ने ध्यान से बेटी को देखने का प्रयत्न किया, फिर उसकी दृष्टि उसके चेहरे से फिसलती हुई उसके दाएं हाथ पर रुक गई जिसमें नोटों की एक गड्डी दिखाई दे रही थी.....बाप की बांछें खिल गईं.....वह मुस्कराता हुआ उठा और लड़खड़ाता हुआ बढ़कर बोला, “कितने हैं? आज तो मैं घर से निकल ही नहीं सका था...कुछ भी नहीं था पास...”

संध्या के हाथ से नोट गिरे और बाप के पैरों में बिखर गए। बाप ने झुकते हुए कहा, “अरे! यह तो पांच-छः हजार ही मालूम होते हैं?”

बाप के हाथ में नोट आए....अचानक संध्या का दूसरा हाथ आंचल के नीचे से निकला....प्रकाश में पिस्तौल की चमक लहराई....एक गोली निकली....एक धमाका हुआ....दूसरे ही क्षण संध्या के बाप की पीड़ा-भरी चीख कमरे में गूंजी....एक बार उसका शरीर ऐंठा, फिर वह एक ओर लुढ़क गया....उसकी मुट्ठी मजबूती से बन्द थी और उसमें हजार-हजार रुपये के छः नोट थे।

अचानक भागते हुए पैरों की आवाजें गूंजी....चन्दर द्वार पर ठिठककर रुक गया। उसकी दृष्टि संध्या के बाप पर पड़ी और फिर उसने संध्या को देखा।
“यह....यह तूने क्या किया संध्या?”

किन्तु, संध्या के होंठों पर एक सन्तोषमय मुस्कराहट थी। दूसरे ही क्षण वह लड़खड़ाई, उसने झकोले लिए और पिस्तौल उसके हाथ से गिर गई। संध्या चन्दर की बांहों में झूल गई। उन दोनों के पीछे खड़ा हुआ घर का नौकर बुद्धू आश्चर्यचकित, भयपूर्ण दृष्टि से आंखें फाड़े यह दृश्य देख रहा था।

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अचानक उसकी भारी-भरकम आवाज अदालत में गूंज उठी।
‘‘अपराधिनी संध्या देवी सुपुत्री दयाराम वर्मा जिस पर अपने पिता दयाराम वर्मा पर पिस्तौल से गोली चलाकर प्राण लेने का अपराध था....मौका वारदात पर उपस्थित साक्षियों, घर के नौकर बुद्धू, टैक्सी ड्राइवर चन्दर वर्मा के बयान, जिस पिस्तौल की गोली से दयाराम की मृत्यु हुई उस पिस्तौल का हत्या के स्थान पर पाया जाना....और पिस्तौल पर अपराधिनी की उंगलियों के चिंहों से यह बात सिद्ध होती है कि दयाराम वर्मा की हत्या अपराधिनी संध्या देवी ने ही की है....इसलिए अदालत अपराधिनी संध्या देवी को अपने पिता दयाराम की हत्या की अपराधिनी ठहराती है। इस सम्बन्ध में अपराधिनी संध्या से बिना किसी दबाव के स्वयं स्वीकार किया है कि उसने अपने पिता दयाराम को उन्हीं की पिस्तौल की गोली से मारा है....साथ ही अपराधिनी संध्या देवी ने हत्या के कारणों पर प्रकाश डालते हुए बयान दिया है कि अपराधिनी संध्या देवी को उसके पिता दयाराम ने किस प्रकार का जीवन व्यतीत करने पर विवश किया था.....उसने संध्या देवी को विवश किया कि वह पूंजीपति युवकों को अपनी सुंदरता के जाल में फांसे और उनसे अपने बाप के खर्चो के लिए रुपये ऐंठे.....उसने चौबीस वर्ष तक संध्या देवी की शादी केवल इसलिए नहीं की कि वह सोने का अंडा देने वाली बत्तख को अपने ही पास रखना चाहता था....नहीं तो उसका ऐश का खर्चा कौन उठाता? दुर्घटना वाली रात को अपने पिता की वासना की बलिवेदी पर, एक ऐसे शिकारी के हाथों, जो वास्तव में शिकारी सिद्ध हुआ, अपने सतीत्व का बहुमूल्य मोती चढ़ा बैठी....यह बात मेडिकल रिपोर्ट से भी सिद्ध होती है कि घटना वाली रात को ही उसकी पवित्रता छीनी गई.....इस रिपोर्ट के लिए अदालत अपराधिनी के चचेरे भाई चन्दर वर्मा का धन्यवाद करती है जिसने न्याय का ध्यान इस ओर आकर्षित कराया....सतीत्व खो देने के बाद अपराधिनी के सब भ्रम एकाएक टूट गए और वह इतनी निराश हो गई। उसे अपने बाप से इतनी अधिक घृणा हो गई कि उसने घर पहुंचकर अपने बाप को गोली मार दी। इस वास्तविकता का ज्ञान होने के बाद अदालत को अपराधिनी से सहानुभूति है.....किन्तु अपराधिनी की हत्या का अपराध चूंकि सिद्ध हो चुका है इसलिए न्याय की दृष्टि में वह हत्यारिन है और इस अपराध में उसे दस वर्ष कठोर कैद का दण्ड दिया जाता है‒साथ ही अदालत यह आदेश देती है कि बलपूर्वक अपराधिनी संध्या देवी का सतीत्व बिगाड़ने के अपराध में श्री रमेशकुमार पर मुकदमा चलाया जाए‒अपराधिनी ने रमेशकुमार पर यह दोष लगाया है‒इसका प्रमाण वे हजार-हजार रुपये के नोट हैं जो अपराधिनी ने अपने पिता को लाकर दिए। छानबीन से यह पता चला है कि ये नोट उसी दिन रमेश कुमार ने बैंक से निकलवाए थे‒
जज की आवाज थम गई‒अदालत में सन्नाटा छा गया। संध्या के होंठों पर एक सन्तोषजनक मुस्कराहट नाच रही थी‒कुर्सियों पर एक ओर बैठे हुए राज, सुषमा और चन्दर इस प्रकार बैठे थे मानो वे पत्थर की मूर्तियां हों।

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संध्या को दो सन्तरी अदालत के कमरे से बाहर लाए। पुलिस की गाड़ी की ओर जाते हुए सामने उसे राज, सुषमा और चन्दर दिखाई दिए। संध्या ने उन लोगों पर दृष्टि डाली....फिर उसकी दृष्टि राज के चेहरे पर जम गई....उसकी आंखों में आंसुओं की नमी तैरती दिखाई दी....फिर वह तेजी से पुलिस की गाड़ी की ओर बढ़ गई।

सुषमा ने एक सिसकी ली और चन्दर धीरे-धीरे उसका कंधा थपकने लगा.....उसकी आंखों में भी आंसू तैर रहे थे...राज चुपचाप बिना आंखें झपकाए संध्या की ओर देखे जा रहा था।

संध्या पुलिस की गाड़ी में बैठी और गाड़ी अदालत के अहाते से बाहर निकल गई।
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राज ने ट्रक के नीचे से देखा। कुछ लोग एक कार को धकेलते हुए भीतर ला रहे थे। दूसरे ही क्षण राज एकाएक चौंक पड़ा। कार मर्सिडीज थी ड्राइविंग सीट पर जय बैठा हुआ था। कार भीतर आ गई और जय की आवाज, आई, “हां....बस ठीक है....”

मर्सिडीज रुक गई। राज ने ट्रक का आखिरी नट कसा और रेंच लिए हुए ट्रक के नीचे से निकल आया। जय कार से उतरा और कार का बोनट खोलकर उसने रुमाल से हाथ पोंछा। इस बीच में राज कार के पास पहुंच चुका था.....दूसरे कारीगर काम में लगे थे। जय ने भीतर झांकते हुए कहा‒
“देखो तो मिस्त्री....अचानक चलते-चलते बन्द हो गई है....न जाने क्या खराबी हो गई है।”

जय जेब से सिगार निकालकर दांतों से दबाकर सुलगाने लगा....राज इंजन से झुककर इधर-उधर देखने लगा....न जाने क्यों इस समय उसके मस्तिष्क में एक विचित्र-सांय-सांय हो रही थी....बार-बार उसके अंगों में एक तनाव का भास हो रहा था....वह निचला होंठ दांतों तले दबा कर अपने क्रोध पर नियन्त्रण पाने का प्रयत्न कर रहा था।

“समझ में नहीं आता कुछ।” जय ने सिगार सुलगाने के बाद राज की ओर मुड़कर देखा।

राज सीधा हुआ और दूसरे ही क्षण जय की दृष्टि उसके चेहरे पर पड़ी....वह सन्नाटे में खड़ा रह गया, परन्तु राज ने बिना उसकी ओर देखे हुए एक लड़के से टाट लाने को कहा। जब टाट आ गया तो उसे बिछा कर वह कार के नीचे रेंग गया।

जब राज का आधा धड़ कार के नीचे छिप गया तो जय के होंठों पर एक मुस्कराहट फैल गई.....एक ऐसी मुस्कराहट जिसमें विजय का भान था।

राज कार के नीचे लेटा हुआ रेंच चला रहा था.....और उसके मस्तिष्क में लावा सा खौल रहा था। बार-बार उसे संध्या के बाप का विचार आता और जय की तस्वीर गडमड होकर रह जाती....उसके होंठ भिंच जाते और क्रोध एवं घृणा के भावों की अधिकता से उसका मस्तिष्क जलने लगता।

थोड़ी देर बाद जब वह कार के नीचे से निकला तो उसकी आंखें स्थिर थीं और चेहरे पर एक गहरी सांत्वना थी। उसने एक बार फिर बोनट उठाया और इंजन में हाथ चलाता रहा....फिर उसने बोनट बन्द करके एक कारीगर को कार में बैठकर इंजन स्टार्ट करने को कहा। कारीगर ड्राइविंग सीट पर बैठा और दूसरे ही क्षण इंजन स्टार्ट होकर शोर मचाने लगा। राज के संकेत पर कारीगर इंजन बन्द करके उतर आया। जय ने मुस्कराकर राज से पूछा-
“क्या मजदूरी हुई मिस्त्री साहब?”

राज ने जय की ओर देखे बिना जेब से सिगरेट का पैकेट निकालते हुए कारीगर से कहा, “सेठ साहब से दस रुपये ले लो।”

फिर वह ट्रक की ओर बढ़ गया। जय ने मुस्कराकर दस रुपये का नोट कारीगर को दिया और कार में बैठ गया। कार स्टार्ट हुई और घूमकर फाटक से बाहर निकल गई। राज फिर ट्रक पर सवार हो गया उसके मस्तिष्क में एक हलचल-सी मची थी,आंखों में गहरी बेचैनी थी....एकाएक उसके चेहरे पर एक भूचाल-सा दिखाई दिया और वह फुर्ती से ट्रक से उतर आया और बड़े व्याकुल भाव में उसने इधर-उधर देखा....फिर एक कारीगर को सम्बोधित करके बोला, “ऐ शम्भू! जरा जल्दी से इधर आना।”

“क्या बात है दादा?” शम्भू लपककर आ गया।

“चल फुर्ती से ट्रक स्टार्ट कर और उस सेठ की कार के पीछे चल जो अभी-अभी गया है।”

“क्यों?” शम्भू ने आश्चर्य से पूछा, “वह तो दाम दे गया है।”

“अब चल....वाद-विवाद न कर....”

शम्भू झट उछलकर ट्रक में सवार हो गया। राज इतनी देर में एक मोटा-सा रस्सा उठा चुका था जो गाड़ियों के अगले या पिछले भाग उठाने के काम आता था। इसमें आगे एक मजबूत मोटा-सा लोहे का कांटा लगा हुआ था। राज ने फुर्ती से रस्से का एक सिरा, मजबूती से ट्रक के अगले बम्फर में बांधा और रस्से का लच्छा बनाकर कांटा हाथ में पकड़कर उछल कर ट्रक के बोनट पर बैठ गया।

कुछ ही देर में ट्रक गैरेज से निकलकर बिजली की सी गति से सड़क पर दौड़ रहा था। लम्बी सुनसान सड़क पर बहुत दूर जय की मर्सिडीज दौड़ती दिखाई दे रही थी। राज ने शम्भू से कहा, “और तेज....शम्भू और तेज....”

शम्भू ने ट्रक की गति और तेज कर दी....उसकी समझ में कुछ न आ रहा था। मर्सिडीज बिजली की सी गति से दौड़ती जा रही थी और अब वह ऐसे झकोले खा रही थी जैसे उसकी गति उसके अधिकार से बाहर हो गई हो। ट्रक की गति भी प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी किन्तु राज शम्भू को तेज और तेज की रट लगाए जा रहा था।

फिर थोड़ी देर बाद ट्रक मर्सिडीज से केवल चन्द ही गज के अन्तर पर दौड़ रहा था। मर्सिडीज ऐसे हिचकोले खा रही थी जैसे वह अभी फुटपाथ पर चढ़कर अभी किसी पोल से टकरा जाएगी या किसी आती हुई सवारी से....दूसरी ओर से आती हुई गाड़ियों से मर्सिडीज एक लहर लेकर बचती और राज का मस्तिष्क बुरी तरह झनझनाकर रह जाता....वह कौनसी शक्ति थी जो उसे इस प्रकार दौड़ने पर विवश कर रही थी। इस बात पर शायद उसका दिमाग विचार ही न कर रहा था।

जब ट्रक और मर्सिडीज का अन्तर बहुत ही कम रह गया तो राज ने रस्से वाला हाथ झुलाया और कांटा मर्सिडीज के पिछले बम्पर पर फेंका। कांटा तिरछा पड़ा और टकराकर लौट आया। राज ने शीघ्र रस्सा समेट लिया। मर्सिडीज ने एक बड़ा-सा हिचकोला खाया और सामने से एक पेट्रोल-टैंक के ट्रक से टकराते-टकराते बची। राज का हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था...चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। धीरे-धीरे मर्सिडीज रेलवे क्रासिंग के निकट होती जा रही थी जिसका फाटक बन्द था। वहां पहले ही से कई गाड़ियां खड़ी थीं....राज के रोंगटे खड़े हो गए।

अब यह बात शम्भू की समझ में भी आ गई थी कि मर्सिडीज के ब्रेक फेल हो चुके हैं। किसी भी क्षण वह एक्सिडेन्ट का शिकार हो सकती है;...वह बड़ी सावधानी से ट्रक ड्राइव कर रहा था।

राज ने एक बार फिर हाथ को संभाल कर रस्सा हिलाया और कांटा मर्सिडीज के पिछले बम्पर पर फेंका....कांटा झटके से मर्सिडीज की पिछली खिड़की से जा टकराया, शीशा चूर-चूर हो गया किन्तु, कांटा सीधा होकर पिछली खिड़की में अटक गया....राज हाथ हिला कर चिल्लाया, “शम्भू! ब्रेक लगा....ब्रेक लगा....”

रेलवे क्रासिंग निकट आता जा रहा था....शम्भू ने सोचा एक साथ ब्रेक लगाने से रस्सा टूट भी सकता है या कांटा खिड़की के चादर फाड़ कर निकल सकता है, सो उसने धीरे-धीरे ब्रेक लगाने आरंभ कर दिए। ट्रक की गति के साथ ही मर्सिडीज की रफ्तार भी कम होती चली गई।

अचानक ट्रक रुका और इसके साथ ही मर्सिडीज भी रुकी.....इस समय मर्सिडीज का अन्तर क्रॉसिंग के पास खड़े हुए एक बड़े ट्रक से केवल चन्द फुट रह गया था।

राज फुर्ती से ट्रक के बोनट से कूदकर उतरा और मर्सिडीज के पास पहुंचा। मर्सिडीज का इंजन बन्द हो चुका था और स्टेयरिंग पर सिर रखे जय इस प्रकार हांफ रहा था मानो वह हजारों मील की चढ़ाई चढ़ कर अभी-अभी आया हो। राज चुपचाप जय को देखता रहा। कुछ देर बाद जय ने स्टेयरिंग से सिर उठाया और राज की ओर देखा....राज को देखकर वह अनायास चौंक पड़ा।

थोडी देर बाद जय गहरी-गहरी सांस लेता हुआ मर्सिडीज से नीचे उतरा.....उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं और वह वर्षो का बीमार दिखाई पड़ता था.....उसने गाड़ी के पीछे खिड़की से लगे कांटे को देखा, फिर उस रस्से को देखा जो ट्रक के बम्पर से बंधा था....फिर एक गहरी सांस लेकर वह राज की ओर मुड़ा। राज के चेहरे पर फिर पहले जैसी कठोरता आ गई थी। जय धीरे-धीरे चलता हुआ राज के पास पहुंचा। राज ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला....एक सिगरेट सुलगाई और तीली हवा में उछालते हुए बोला, “मैंने आपको मरने से बचा लिया है।”

“मरने क्यों नहीं दिया?” जय राज की आंखों में देखता हुआ व्यंग्यपूर्ण ढंग से मुस्कराकर बोला‒

“इसलिए कि आप मर जाते तो वह इन्तकाम अधूरा रह जाता....शत्रु के प्राण ले लेना कोई बदला नहीं है....आपको जीवित रहना है और एक दिन यह देखना है कि जो कुछ आपने मुझसे छीना है उस पर केवल आप ही भगवान के घर से अपना अधिकार लिखवाकर नहीं लाए....और आपके छीन लेने से मैं आयु-भर के लिए निर्धन और कंगाल नहीं हो गया.....शीघ्र ही वह समय आने वाला है जब मैं भी आप ही के समान एक बढ़िया मर्सिडीज में सवार होकर आपके सामने से इस ठाट से गुजरूंगा जिस ठाट-बाट से आप मेरा अधिकार छीन कर मेरे सामने से गुजरते हैं।”

फिर राज तेजी से मुड़ा और ट्रक में जा बैठा। शम्भू ने पिछली खिड़की से कांटा निकला.....रस्सा खोलकर ट्रक में रखा और राज के साथ जा बैठा। जब ट्रक घूमकर वापस चला गया तो राज के होंठों पर एक विजयी मुस्कराहट नाचने लगी थी।

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