शायरी और गजल™

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सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं।
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं।।
 
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बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद,
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं।।
 
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मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़,
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं।।
 
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किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ,
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं।।
 
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ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम,
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं।।
 
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ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब,
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं।।
 
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जागा हुआ ज़मीर वो आईना है "क़तील"
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं।।
 
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सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
 
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सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं
 
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सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
 

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