शायरी और गजल™

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कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता।।
 
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हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया,
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता।।
 
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उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना है वो यकता,
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता।।
 
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ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान "ग़ालिब"
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता।।
 
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चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए।
जी ही जी में तिलमिलाना कोई हम से सीख जाए।।
 
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अब्र क्या आँसू बहाना कोई हम से सीख जाए,
बर्क़ क्या है तिलमिलाना कोई हम से सीख जाए।।
 
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ज़िक्र-ए-शम्मा-ए-हुस्न लाना कोई हम से सीख जाए,
उन को दर-पर्दा जलाना कोई हम से सीख जाए।।
 
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झूट-मूट अफ़यून खाना कोई हम से सीख जाए,
उन को कफ़ ला कर डराना कोई हम से सीख जाए।।
 
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सुन के आमद उन की अज़-ख़ुद-रफ़्ता हो जाते हैं हम,
पेशवा लेने को जाना कोई हम से सीख जाए।।
 
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हम ने अव्वल ही कहा था तू करेगा हम को क़त्ल,
तेवरों का ताड़ जाना कोई हम से सीख जाए।।
 

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